Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 512
________________ हो, हो सकता है कि वह इधर-उधर नजर भी घुमाए, शायद दूसरे विचार भी करता रहे। मन को घुमाता भी रहे। या थोडा सा बीच में अवकाश मिलने पर वह अपनी सजगता कम भी कर सकता है । जागृति का प्रमाण कहाँ, कब, कितना कम-ज्यादा रखना है, वह रख भी सकता है । रोटी बनानेवाली महिला एक रोटी गरम तवे पर रखकर कुछ क्षण के लिए पुनः मानसिक विचारों आदि से प्रमादि बन सकती है। क्योंकि वह इस बात को अच्छी तरह जानती ही है कि रोटी के रखने पर भी कुछ क्षण तो बीच में अवकाश लगता ही है । ठीक उसी तरह राष्ट्रीय महामार्ग पर तीव्र गति से गाडी चलानेवाला चालक भी कुछ क्षण का अवकाश निकालकर प्रमाद कर ही लेता है और गरदन या नजर भी इधर-उधर घुमाना, देखना, बोलना आदि कर सकता है। फिर भी गाडी चलती रहेगी। सुरक्षित भी रहेगी। अकस्मात् नहीं भी होगा। फिर वह सजग हो जाएगा। लेकिन कर्म निर्जरा की साधना के मार्ग पर अग्रसर होनेवाले साधक की मन की विचारधारा सतत निरंतर चलती रहेगी, तब निर्जरा होगी ही। यदि उसमें अप्रमत्त भाव क्षणभर के लिये भी गया, या फिर ध्यान की धारा क्षण भर के लिये भी यदि तूट गई तो निश्चित ही समझिये कि उस क्षण पुनः कर्म का बंध तो हो ही जाएगा। इसलिए नियम यही रहेगा कि...जब जब जीव जितना अप्रमत्त रहेगा, तब निर्जरा भी होती रहेगी और संवर भी होता रहेगा। इस तरह अप्रमत्त भाव से संवर और निर्जरा दोनों कार्य होता ही रहता यह तो निश्चित ही है कि...अब तो साधक को संवर और निर्जरा का दोनों कार्य साधना ही पडेगा । अन्यथा साधक गंवाएगा। इसलिए सर्वप्रथम अप्रमत्तता साध्य है । अत्यन्त आवश्यकता है। ठीक इसके विपरीत मोहनीय कर्म की कषायभाव आदि की प्रवृत्ति में लीन रहने से फिर प्रमादभाव बढेगा। और प्रमादभाव के कारण पुनः निर्जरा-संवर की साधना का लाभ हाथ से छूट जाएगा। प्रमादभाव की प्रवृत्तियों से विरुद्ध-विपरीत रहना ही अप्रमत्तभाव है । और अप्रमत्तभाव से विरुद्ध-विपरीत भाव में रमण करना ही प्रमादग्रस्तता है। सीधे शब्दों में कहें तो आत्मगुणों की रमणातारूप स्वभावदशा में रमण करना ही अप्रमत्तता है और आत्मगुणों से ठीक विपरीत कर्म की प्रवृत्ति या कर्मजन्य पापादि की विभावदशा की प्रवृत्तियों में लीन रहना ही भयंकर प्रमाद है । या साधक समझ सकता है कि जब जब कर्माश्रव होता है तब तब मैं प्रमादग्रस्त हूँ। या विपरीत-जब जब प्रमादग्रस्तता है तब तब कर्माश्रव-कर्म का आगमन होता ही रहेमा । ठीक है, कर्म बंधते हैं, लगते हैं, या सूक्ष्मातिसूक्ष्म कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं का अप्रमत्तभावपूर्वक “ध्यानसाधना"

Loading...

Page Navigation
1 ... 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570