Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 491
________________ ही नहीं सकते हैं। प्रमादाधीन प्रमादि श्रमण में यदि ध्यान-साधना शुरू हो जाती है तो वह अप्रमत्त बन जाय और गुणस्थानों की श्रेणी का एक सोपान और आगे बढकर ७ वे गुणस्थान पर आजाय । अतः यह सिद्ध होता है कि ध्यान के बिना प्रमादभाव नहीं जाएगा। इसे हटाने के लिए ध्यान की परम आवश्यकता है। । प्रमादावस्था में ध्यानाभाव उपरोक्त वर्णन की ही विशेष पुष्टि करते हुए गुणस्थान क्रमारोह में स्त्नशेखर सूरि म. विशेष रूप से लिखते हैं कि यावत्प्रमादसंयुक्त-स्तावत्तस्य न तिष्ठति। - धर्मध्यानं निरालंब-मित्यूचुर्जिनभास्कराः ॥ २९॥ सीधी सी बात इतनी ही है कि... जब-जब जीव प्रमादाधीन हो जाता है तब निरालम्बन ध्यान, या फिर धर्मध्यान की कोई संभावना ही नहीं रहती है- ऐसा श्री जिनेश्वर परमात्मा ने कहा है । इसलिए अष्टांग योग की प्रक्रिया में ध्यान को सातवें क्रम पर बताया है। अतः सातवें ध्यानस्थान पर पहुँचने के लिए पहले के ६ सोपान क्रमशः चढने खास अनिवार्य है। अतः यम-नियम-आसनादि द्वारा जो मन-वचन-कायादि की स्थिरता आ जाय तो निरालम्बन ध्यान भी शुरू किया जा सकता है। कषाय-नोकषायादि ध्यान में जाने में बाधक हैं, अवरोधक हैं । अतः दो में से एक को छोडना अनिवार्य होगा। प्रमाद में रहकर या प्रमाद के भेदों-प्रभेदों में मशगुल रहते हुए भी यदि कोई यह कहें कि मैं निरालंबन ध्यान भी करता हूँ, तो यह परस्पर विरोधाभासी वार्तालाप करने पर दंभ की बात होगी। असंभव को संभव बनाकर अन्य को मूर्ख बनाने की बात होगी। स्वयं जिनेश्वर परमात्मा भी ऐसा स्पष्ट कहते हैं कि प्रमादादि के साथ धर्मध्यान कतई संभव नहीं है । प्रमत्त गुणस्थान में मध्यम धर्मध्यान की भी गौणता कही है । निरालंबन धर्मध्यान तो और भी ऊँची कक्षा का ध्यान है । अतः वह तो प्रमादग्रस्तता में कैसे संभव होगा। अतः निरालम्बन धर्मध्यान प्रमत्त तक संभव ही नहीं है। प्रमत्त संयत यह छट्ठा गुणस्थान है जिस पर संसार का त्यागी साधु रहता है। जब प्रमादग्रस्तता में श्रमण के लिए भी निरालम्बन धर्मध्यान संभव नहीं बताया तो फिर उसके नीचे के ५ अन्य गुणस्थान हैं। उन गुणस्थानों पर रहनेवाला मालिक भी ध्यान-ध्याता कैसे बन सकता है ? पहले गुणस्थान पर तो जीव है ही मिथ्यात्वी । अतः वहाँ तो धर्मध्यान का विचार भी नहीं किया जा सकता । अब रही चौथे-पाँचवे दो गुणस्थान की । चौथे पर ८९६ आध्यात्मिक विकास यात्रा

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