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मिथ्यात्व
अभिग्रहिक | अनभिग्रहिक अभिनिवेशिक 'सांशयिक | अनाभोगिक ये पाँच प्रकार के मुख्य मिथ्यात्व हैं । (इनका विस्तृत वर्णन पूर्व में कर चुके हैं ।)
अविरति
१, २, ३,४,५ इन्द्रियां + मन + १, २, ३, ४,५ इन्द्रियवाले
जीव तथा त्रसनिकाय के
जीव =६ संसार में रहनेवाले समस्त प्रकार के जीव इन्द्रियों की दृष्टि से ५ विभाग में विभाजित किये गए हैं । एक इन्द्रियवाले- पृथ्वी, पानी, अग्नि आदि के जीव, दो इन्द्रियवाले- कृमि
आदि जीव, तीन इन्द्रियवाले-चिंटी, मकोडे, जू आदि जीव, चार इन्द्रियवाले– मक्खी, मच्छरादि जीव, पाँच इन्द्रियवाले-देव, मनुष्य, नरक, एवं तिर्यंच गति के पशु-पक्षी आदि सभी जीव । इस संसार में रहे हुए समस्त जीव इन्द्रियों की दृष्टि से पाँच विभाग में विभक्त किये गए हैं। अतः पाँच इन्द्रियवाले गिने जाते हैं । इन एकेन्द्रिय जीवों को तो १-१ इन्द्रिय मिली है । लेकिन पंचेन्द्रिय जीवों को पाँचों इन्द्रियाँ संपूर्ण मिली हैं । अतः ये पाँचों इन्द्रियाँ कर्म बंधाने में सहायक होने के कारण बंध हेतु के रूप में गिनी गई हैं। प्रमाद में भी ये हैं । जब जीव इन पाँचों इन्द्रियों एवं इनके विषयों में आसक्त होता है, तब प्रमादग्रस्त, अविरतिग्रस्त होता है । और इन बंधहेतुओं से कर्म उपार्जन करता है।
पाँचो इन्द्रियों की तरह मन भी एक स्वतंत्र साधन है । विचार कराने में सहायक साधन यह मन भी कितने ही कर्म बंधाता रहता है । अतःबंध हेतु में इसका भी काफी बडा हाथ है। यह अतीन्द्रिय है। इस तरह पाँचो इन्द्रियाँ और छट्टा मन मिलकर ये ६ अविरतिकारक प्रमादकारक है । इसी तरह स्थावर निकाय के एकेन्द्रिय जीवों में १. पृथ्वी, २. पानी, ३. अग्नि, ४. वायु, तथा ५. वनस्पतिकाय के ये पाँचों स्थावर तथा समस्त ६.स काय मिलाकर ये ६ जीवनिकाय हैं। संसार के समस्त जीव इन ६ जीवनिकाय विभाग में समाविष्ट हो जाते हैं । इस ६ प्रकार के जीवों की हिंसादि रूप विराधना करने से भी भारी कर्मों का बंध होता है। अतः अविरति या अव्रत के रूप में इनकी भी गणना की गई है। इस तरह पाँच इन्द्रियाँ + एक मन + छ: काय जीव विराधना = कुल मिलाकर १२
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आध्यात्मिक विकास यात्रा