Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 478
________________ १३ वे गुणस्थानवर्ती सयोगी केवली एक मात्र शुभ शुक्ल लेश्यावाले ही होते हैं । तथा १४ वे गुणस्थानवर्ती अयोगी की किसी भी प्रकार की लेश्या ही नहीं रहती है, अतः वे सर्वथा अलेश्यावाले अलेशी कहलाते हैं । एक एक लेश्या के असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण अध्यवसाय स्थानक होते हैं। विचारों की अनगिनत संख्या के आधार पर तथा विचारों की तरतमता के आधार पर । छट्ठे गुणस्थान पर साधु बन जाने के पश्चात् भी प्रमादभाव के कारण अशुभतर कृष्ण लेश्या के अध्यवसाय होते हैं । ५ वाँ तथा ६ ट्ठा गुणस्थान प्राप्त करते समय शुभ लेश्या होती है, परन्तु प्राप्ति के पश्चात् प्रमत्त परिणाम के कारण लेश्याएं अशुभ भी बन जाती हैं । इस तरह प्रथम के ६ गुणस्थान पर अशुभ-शुभ दोनों प्रकार की लेश्याएं घटित होती हैं । अतः सभी गुणस्थान लेश्या मार्गणा में गिने गए हैं । 1 बंध हेतुओं के अवान्तर प्रकार मिथ्यात्वोदि मुख्य पाँच (४ या ५) जो बंध हेतु है उनके अवान्तर भेद भी काफी हैं । वे सभी कर्मबंध कराने में हेतु के रूप में कार्य करते हैं । मिथ्यात्वादि तो स्थूल रूप से मूल नाम गिनाए गए हैं। लेकिन मिथ्यात्व ५ प्रकार का होता है। संसार में भिन्न-भिन्न प्रकार के जीव होते हैं । सबके मिथ्यात्व का स्वरूप भी भिन्न भिन्न प्रकार का होता है । एक ही साथ पाँचों प्रकार का मिथ्यात्व भी किसी एक जीव को नहीं होता है। अतः एक समय पाँच में से किसी एक प्रकार का ही मिथ्यात्व रहता है। वही कार्य करता है । इसी तरह अविरति कषाय आदि सबके विचारों की विवक्षा की गई है। बंध हेतु मूलबंध उत्तर भेद मिथ्यात्व २. अविरति ३. कष़ाय ५ इं. + १ मन ९ नोक + ६ जीवबंध + १६ मू.क. = • १२ अव्रत = २५ कषाय ४. योग कर्मक्षय - " संसार की सर्वोत्तम साधना " ३ १५ भेद ५ +१२ + २५ + = १५ = ५७ कुल बंध हेतु. । अभिगहि-मणभिगहि-आभिनिवेसिय-संसइयमणाभोगं पण - मिच्छ, बार- अविर, मण-करण- नियमु-छ जिअवहो ॥ ५१ ॥ कर्मग्रन्थ ४ / ५१ ८८३

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