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की कितनी लम्बी स्थिति बंधेगी? किस कर्म का विपाक कैसा होता है ? ऐसे पाप कर्म के विपाक से जीव की कैसी स्थिति होगी? सुख-दुःख कैसे भुगतने पडेंगे? दुःखों की सजा कितने लम्बे काल की होगी? किस गति में कितने भव भविष्य में करने पडेंगे? नए कर्म और कितने बांधेगा? फिर संसार का परिभ्रमण कितना लम्बा चलेगा? इत्यादि सेंकडों बातों का अच्छी तरह किसी भी जीव को बचाने के लिए प्रवृत्ति-निवृत्ति प्रधान तथा कर्मक्षयकारक उपायरूप धर्म बताने का कार्य देव-गुरु का होता है । वे ही करते हैं अतः इस विषय में विशेषज्ञरूप से वे ही अधिकृत-विश्वसनीय हैं । वे देव-गुरु धर्मरूपी औषधी से भवरोग को दूर करके जीव को बचाते हैं, और मुक्तिधाम तक पहुँचाकर परमसुखी-अनन्तसुखी सिद्ध-बुद्ध-मुक्त बनाते हैं।
विरतिप्रधान धर्म
धर्म की सादि शुद्ध व्याख्या करने पर ऐसा स्पष्ट होता है कि..“दुर्गतिं प्रपतत् जन्तून् धारणात् धर्म उच्यते” दुर्गति में गिरते हुए किसी जीव को गिरने से बचानेवाला धर्म है । जैसे एक अन्धे आदमी के हाथ में लकडी रहती है। जिसके सहारे वह चलता-फिरता है । कहाँ खड्डा है कहाँ चट्टान है इत्यादि सब मार्ग के अवरोधादि निमित्तों का ख्याल जन्मान्ध व्यक्ति को लकडी के द्वारा आता है । अतः लकडी अन्धे का सहारा-बचानेवाली तारक गिनी जाती है । ठीक वैसे ही नरक-तिर्यंचगतिरूप दुर्गति के खड्डे में गिरती हुई आत्मा को बचानेवाला धर्म कहा जाता है।
ऐसा धर्म कैसा होना चाहिए? इसकी सादी और शुद्ध व्याख्या सरलार्थ में इस तरह की जा सकती है । आत्मा के ज्ञानादि गुणों का प्रादुर्भाव करने के लिए जो भी पुरुषार्थ विशेष किया जाय उसे धर्म कहते हैं । या आत्मा पर लगे हुए कर्मों का क्षय करने के लिए जो भी पुरुषार्थ किया जाय उसे धर्म कहते हैं । अनादि-अनन्तकालीन संसार चक्र के परिभ्रमण में चारों गति के ८४ लाख जीव योनियों में जन्म-मरण धारण करता हुआ जीव अनादि पाप कर्म ग्रस्त हो चुका है । पाप करने का आदि बन चुका है। कर्म बांधकर वह अपनी आत्मा को और गहरे खड्डे में डुबो रहा है। अतः आत्मा ही स्वयं अपनी मित्र और शत्रु दोनों है । उत्तराध्ययनसूत्र आगमशास्त्र में श्री वीर प्रभु फरमाते हैं कि
अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुक्खाण य सुहाण य। अप्पा मित्तममित्तं च, दुष्पट्ठिय-सुपट्टिओ॥ उत्तरा. २०/३७
देश विरतिघर श्रावक जीवन ..
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