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इस तरह पाँचों कर्मबंध के हेतु आत्मा के तथाप्रकार के गुणों पर आक्रमण करते हैं । गुणों का घात करते हैं । गुणों को दबा देते हैं । आच्छादित करके ढक देते हैं । आत्मा का मूलभूत गुण सम्यक्त्व है । सम्यग् दर्शन-यथार्थ सत्य स्वरूप को धारण करनेवाली है आत्मा । लेकिन मोहनीय कर्म के बंध - उदय से मिथ्यात्व की प्रवृत्ति से कार्मण वर्गणा के पुद्गल - परमाणु ग्रहण करके आत्मा . भारी कर्म उपार्जन करती है और परिणाम स्वरूप आत्मा के सम्यक्त्व गुण को ढककर मिथ्यात्व की प्राधान्यतावाली बना देती है। बस, अब मिथ्यात्व के कारण वैसी विपरीत प्रवृत्ति ही होगी !
प्रभाद
२) आत्मा का गुण है विरति । विरति के स्वभाव के कारण षट्जीवनिकाय की विराधनारूप आरंभ-समारंभ की प्रवृत्ति करने का कोई कारण ही नहीं खडा होता है । लेकिन मोहनीय कर्म-के बंध और उदय से... जीव वैसी अविरति की पाप प्रवृत्ति करके पुनः कर्म उपार्जन करके अपने विरति के गुण को ढक देता है ।
३) अप्रमत्तभाव सदा आत्मा का गुण है । आत्मा का अपने ज्ञानादि गुण में सदा मस्त रहना, तल्लीन रहना, स्वभाव रमणता में लीन रहना यह अप्रमत्तभाव है । ऐसा अप्रमत्त भाव का गुण प्रकट होने पर आत्मा अद्भुत कर्मनिर्जरा करती है। लेकिन प्रमाद का बंध तु अनेक प्रकार से प्रमाद की प्रवृत्ति कराके जीव को कर्म से बांधती है। अतः प्रमाद बाहरी पापकारक है ।
४) वीतरागभाव सर्वथा निष्कषायभाव यह आत्मा का अनोखा गुण है। आत्मा स्वस्वभाव में तो वीतरागी ही होनी चाहिए। परन्तु क्या हो ? संसार के व्यवहार में देहधारी यह जीव.. अनेक प्रकार से क्रोधादि कषायों को करके भारी कर्म बांधता है । अब कषाय
आधीन होकर जीव प्रतिदिन कषायों की प्रवृत्ति करके भारी कर्म उपार्जन करता रहता है। परिणाम स्वरूप कर्म बांधकर अपने वीतराग भाव को भी सर्वथा खत्म कर देता है । और संसार के व्यवहार में जीव कषायी कहलाता है । क्रोधी, मानी, मायावी - लोभी इत्यादि के रूप में जीव की प्रसिद्धि होती है ।
आध्यात्मिक विकास यात्रा
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