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जिस मोहनीय कर्म को जीव ने स्वयं ही राग द्वेष करके बांधा है । उपार्जित किया है वही मोहनीय कर्म आज इस आत्मा को परेशान कर रहा है।
सचमुच, यह संसार मोहनीय कर्म की रंगभूमि है । राग और द्वेष के पात्र बनकर नाटक खेलनेवाले जीव मोहनीय कर्म का संवाद बोलते रहते हैं। एक परिवार में पत्नी-पुत्र-पति-भाई बहनादि जितने भी स्वजन संबंधी इकट्ठे हुए हैं वे सभी मोहवश रंगमंच पर मोहनीय कर्म का नाटक करते रहते हैं। कभी कोई राग का तो कभी कोई द्वेष का पात्र बनते हैं। कोई क्रोध-मान करते हैं तो कभी कोई द्वेषबुद्धि से लडते झगडते रहते हैं। बस, इसी का नाम संसार है। सचमुच समस्त संसार मोहनीय कर्म का ही है, मोह से ही बना है, मोह से ही चलता भी है और मोहनीय कर्म से ही बिगडता भी है । और मोह से ही संसार बढता भी है।
संसार एक मोह का मदिरालय
विकल्पचषकैरात्मा, पीतमोहाऽऽसवोह्ययम्।
भवोच्चतालमुत्ताल प्रपञ्चमधितिष्ठति ॥५॥ -विकल्परूपी मदिरा–पात्रों से सदा मोह रूपी-मदिरा का पान करनेवाली जीवात्मा, सचमुच जहाँ हाथ ऊँचे कर तालियां बजाने की चेष्टा की जाती है वैसे संसाररूपी मदिरालय का आश्रय लेता है । मोहनीय कर्म को शराबी जैसी उपमा दी है। जैसे शराबी नशा की ग्रस्त अवस्था में विवेक खो बैठता है ठीक उसी तरह चेतनात्मा मोहरूपी मदिरा के नशे में विवेक-भान भूल जाती है। ऐसे अनन्त मोह के नशेडी जीवों के कारण यह सारा संसार ही मदिरालय जैसा है। और सभी जीवों को मोह का नशा चढा हुआ है। किसीको राग का, तो किसीको द्वेष का, तो किसीको विषयवासना का नशा चढा हुआ है। कहीं कोई स्त्री, युवति, युवक के पीछे पागल बनकर बावरी की तरह घूमती रहती है, तो कहीं कोई युवक विषयवासना की काम की पीडा से पीडित होकर भोगेच्छा को संतोषने के लिए किसी स्त्री-युवति के पीछे या परस्त्री के पीछे पागल बनकर घूम रहा है । उन्माद पागलपन मोह वासना का इतना भयंकर है कि... कहीं कोई धन संपत्ति के पीछे रात-दिन एक कर रहा है। कोई किसी को अपनी बनाने में दावपेच खेल रहा है तो, कोई अपनी को ही मारने के लिए पेंतरे रचता है। जब तक मोह मदिरा की चुंगाल से स्वतंत्र न हो सकें वहाँ तक यह मोह का नाटक अविरत सतत चलता ही रहेगा। कहीं किसी घर में मोह किसी को रुलाता है तो कहीं किसी घर में हँसाता हुआ भी अपना नाटक चलाता रहता
आत्मशक्ति का प्रगटीकरण .
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