Book Title: Shrutsagar 2015 01 02 Volume 01 08 09
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir • श्रुतस्तार । ५ श्रुतसागर | श्रुतसागर SHRUTSAGAR (MONTHLY) Jan-Feb. 2015, Volume : 01, Issue : 8-9, Annual Subscription Rs. 150/- Price Per copy Rs. 15/ EDITOR : Hirenbhai Kishorbhai Doshi जे शुभस्थान उपर शांतिस्तवनी रचना थयेली ए नाडोलतीर्थनी पवित्र धरानी पुनित पीठD चित्र आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जगद्गुरु पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय हीरसूरीश्वरजी महाराजाना वरदहस्ते प्रतिष्ठित थयेल रत्नमय जिनबिंब For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का मुखपत्र श्रुतसागर Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR (Monthly) वर्ष १, अंक-८-९, कुल अंक-९, जनवरी-फरवरी-२०१५ Year-1, Issue-8-9, Total Issue-9, January - February-2015 वार्षिक सदस्यता शुल्क रु.१५०/ अंक शुल्क रु. १५/ - શ્રુતસાગર Yearly Subscription Rs. 150/Issue Per copy Rs. 15/ * संपादक हिरेन किशोरभाई दोशी एवं आशीर्वाद राष्ट्रसंत प. पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. ज्ञानमंदिर परिवार १५ फरवरी, २०१५, वि. सं. २०७१, माघ वद- ११ For Private and Personal Use Only प्रकाशक. आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर-३८२००७ फोन नं. (०७९) २३२७६२०४, २०५, २५२ फेक्स: ( ०७९) २३२७६२४९ website : www.kobatirth.org email : gyanmandir@kobatirth.org Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १. संपादकीय २. गुरुवाणी ३. Beyond Doubt ४. सोमसुंदरसूरि बिरूदावली कुलक अनुक्रम ५. गुणविनयगणिविरचितटीकालङ्कृतम् पूज्याचार्य श्रीमानदेवसूरिविरचितं श्रीलघुशान्तिस्तोत्रम् ८. पुस्तक समीक्षा ९. समाचार सार ५. संस्कृतादि भाषाना व्याकरण, कोष, छंद, काव्य अने अलंकारविषयक केटलाक प्रधान ग्रंथोनी एक टुंकी यादी ६. प्राचीन नागरी लिपि एक अध्ययन ७. सम्राट संप्रति संग्रहालयना प्रतिमा लेखो प्राप्तिस्थान हिरेन के. दोशी आ. श्री बुद्धिसागरसूरिजी Acharya Padmasagarsuri < मुनिश्री सुयशचंद्रविजय, मुनिश्री सुजसचंद्रविजय Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुनिश्री सुयशचंद्रविजय, मुनिश्री सुजसचंद्रविजय मुनि जिनविजय डॉ. उत्तमसिंह हिरेन के. दोशी डॉ. हेमन्तकुमार डॉ. हेमन्तकुमार आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर तीन बंगला, टोलकनगर परिवार डाईनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ फोन नं. (०७९) २६५८२३५५ For Private and Personal Use Only OCAN.. ४ १० १७ ३७ ५० ७४ ७७ ७९ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संपादकीय श्रुतसागरनो आठमो अने नवमो अंक तमारा हाथमां छे. विशेष कारणसर आ अंकने संयुक्त करेल छे जान्युआरी अने फेब्रुआरी एम कुल बे मासना अंकोने आ एक अंकमां ज समाविष्ट करेल छे. दर मासे पूरी सज्जता होवा छतां पण केटलांक महत्त्वना कार्योने पूर्ण करवामां व्यस्त थवातु होवाथी वाचको अमने दरगुजर करे. पूज्यपाद योगनिष्ठ आचार्यदेव श्री बुद्धिसागरसूरीश्वरजी म. सा.नी अध्यात्मधाराथी आलेखायेल तीर्थयात्रानुं विमान पुस्तकमांथी चूंटेला अंशने गुरुवाणी हेठळ प्रकाशित कर्यो छे. पूज्य योगनिष्ठ आचार्यदेवश्रीनी अनुपम कवि प्रतिभानुं गान करती एक पद्य रचना 'सेवा' आ अंकमा प्रकाशित करी छे. रचना सुगम, अर्थपूर्ण अने अति रसाळ होवाथी शब्दोनी नाळमां प्रवाहित थतो भाव वाचकहृदयने भीनुं भीनुं करे छे. पूज्य आचार्यश्रीए सेवाधर्मना दरेक प्रकारो अने एना दरेक पासाओने आ रचनाना माध्यमे आवरी लीधा छे. सर्व जीवोना प्रतिबोध जेवी उन्नत घटनाथी प्रारंभ थती आ रचना सेवाना दरेक आयाम उपर पूरतो उजास पाथरे छे. अप्रकाशित कृतिनी श्रेणिमां गुणविनय उपाध्याय कृत शांतिस्तवनी टीका प्रकाशित करी छे. टीकानी साथे साथे कृतिनो परिचय, कर्ता अने एनी केटलीक विशेषताओनो परिचय पण वाचकोना स्वाध्याय माटे आप्यो छे. विक्रमनी पंदमी सदीमां थयेल पूज्य आचार्यदेव श्री सोमसुंदरसूरीश्वरजी म. सा. जीवन कवन उपर प्रकाश पाडती अद्यावधि अप्रगट 'सोमसुंदरसूरि बिरूदावली कुलक' अत्रे प्रकाशित कर्तुं छे. भाषानी दुर्गमताने कारणे कृतिना केटलांक शब्दो, पदावली, अने घटनाबोध स्पष्ट थवा पाम्यो नथी. प्राज्ञजन आ प्रकारनी ऐतिहासिक कृतिओ उपर विचार विमर्श करी, जाणवा योग्य तथ्योने प्रकाशित करे... पुरातन लिपिओनी संशोधात्मक लेखमाळामां ब्राह्मीलिपि अने ग्रंथलिपिना लेखो प्रकाशित कर्या बाद नागरीलिपिनो संशोधनात्मक लेख आ अंकमां प्रकाशित कर्यो छे. नागरीलिपिना परिचयनी साथे नागरी लिपिनी वर्णमाळा, जोडाक्षरो, तेमज विशेष शब्दोनो उल्लेख वाचक माटे उपयोगी निवडशे. दर अंकनी जेम पुनः प्रकाशित थता लेखोनी श्रेणिमां पुरातत्त्व नामना सामायिकमांथी 'संस्कृतादि भाषाना व्याकरण, कोष, छंद काव्य अने अलंकार विषयक केटलाक प्रधान ग्रंथोनी एक ट्रंकी यादी' आ अंकमां प्रकाशित करी छे. ऐतिहासिक सामग्री रूपे दर विशेष अंके प्रकाशित थता सम्राट संप्रति संग्रहालयना प्रतिमा लेख प्रकाशित करेल छे. दर अंके प्रकाशित थती पुस्तक समीक्षामां आ वखते हृदयप्रदीप षट्त्रिंशिकानो संक्षिप्त परिचय प्रकाशित करेल छे. For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी आचार्यश्री बुद्धिसागरसूरिजी क्लेश त्याग यात्राळुओए तीर्थस्थळोमां जइ क्लेश करवो नहि. तीर्थनी यात्रा कर्या पहेलां घरमां, कुटुंबमां, व्यापार विगेरे बाबतोने लइ अनेक मनुष्योनी साथे क्लेश को होय तेनो स्थिर चित्तथी पश्चात्ताप करवो. जे जे जीवोनी साथे क्लेश थयो होय तेओने खमाववा. ज्यां सुधी क्लेश करवानी प्रवृत्ति छे त्यां सुधी हृदयनी शुद्ध थती नथी. तीर्थमां कोइनी साथे क्लेश थाय एम बोलवू नहि. कोइनी निंदा करवी नहि. कोइD मर्म हणाय एवं खराब वचन बोलवू नहि. दास दासीओने पण क्लेशथी धमकाववा नहि. पूजा विगेरे बाबतो माटे पण क्लेश करवो नहि. क्लेशथी मनमां क्रोधादि अनेक दुर्गुणो प्रगटे छे अने तेथी यात्राना फळनो पण नाश थाय छे. क्लेशथी पोतार्नु अहित थाय छे अने सामा मनुष्यो, पण अहित थाय छे. तीर्थना स्थानमां कोई पण जीवोनी निंदा करवी नहि, कारण के क्लेश, निंदा विगेरे दोषोनो त्याग करवाने माटे तो तीर्थनी यात्रा करवानी छे. तेथी तीर्थमां गया बाद तो क्लेश, निंदाने जलांजलि आपवी जोईए. प्रभुए क्लेश अने निंदा दोषनो त्याग कर्यो हतो, ते प्रमाणे मारे पण दोषनो त्याग करवो जोईए. घर करतां पण तीर्थोना स्थळमां साधुओ साधुओमां, साध्वी साध्वीओमां तेमज श्रावक अने श्राविकाओमां, परस्परनी निंदा अत्यंत थती होय तो समजवू के तीर्थ यात्रानो शुद्ध उद्देश यात्राळुओ समज्या विना पवित्र थवा मागे छे, पण ते शी रीते पवित्र थई शके! ज्यां निंदा अने क्लेशनुं स्वप्न पण न जोइए, त्यां निंदा अने क्लेशनी धमाल चालती होय तो तीर्थनी यात्रा करनाराओनी पवित्रता-शुद्धता शी रीते रही शके, ते विचारवू जोइए. क्लेश अने निंदाखोर यात्राळुओ तीर्थमा रहेला मनोवर्गणादि शुभ पुद्गल स्कंधोने पण अपवित्र करी तीर्थनुं स्थान बगाडे छे, पोते बगडे छे अने बीजाओने बगाडे छे. एवा क्लेशथी यात्राळुओ पोते तरता नथी अने बीजाओने तारवा समर्थ For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . श्रुतसागर __ जनवरी-फरवरी - २०१५ थता नथी. केटलाक तीर्थना स्थळोमां साधुओ के जे जुदा जुदा संघाडाना होय छे, तेओमांना केटलाक एक बीजानी श्रेष्ठता देखाडवा अने पोताना संघाडानी जाहोजलाली बताववा अन्य साधुओनी अधमता गणाय तेवी रीते निंदादि करवामां प्रवृत्ति करे छे, साध्वीओमां पण तेवी निंदा थती जोवामां आवे छे. __ तीर्थना स्थळोमां क्लेश अने निंदाना दोषो वधी जवानुं मुख्य कारण तो ए छ के त्यां घणा संघाडाना साधुओ तथा साध्वीओ भेगां थाय छे अने त्यां पण जुदा जुदा स्थानो श्रावकोने रागी करी जमावे छे. पोतानुं जमाववा बीजानी कंई पण खोदणी कर्या करे छे. श्रावको पण साधुओना जुदा जुदा रागी थई निंदा अने क्लेशमा खेचाय छे, अने मनमां जाणे छे के पाप लागशे ते एक यात्रा करीने धोई नाखीशं. आ प्रमाणे दुर्बुद्धिना लीधे क्लेश अने निंदानो अंत आवतो नथी. केटलीक धर्मशाळाना महेताओ पण जे साधुओ अने साध्वीओथी पोताने खानगीमां कोइपण रीते आवक थाय तेने उतारो आपे छ एम समजाय छे. बिचारा केटलाक एवा महेताओ पण क्लेश अने निंदामां पोतानुं जीवन अपवित्र करे छे. उपर उपरथी तीर्थनी यात्रा थाय छे पण क्लेश अने निंदा तो उलटां पुष्टताने पामे छे, त्यारे प्रभुना तीर्थनी यात्रानी साफल्यता शी रीते थई शके? - केटलाक साधुओ तो 'तीर्थना स्थळमां अमारी पासे तो पाप आवी शके नहि. एम जाणीने ते स्थळे निंदा अने क्लेशनो नाश करवा कांई पण प्रवृत्ति करता नथी, तेथी घणा श्रावक अने श्राविकाओनो भाव उठी जाय छे. मार्गमा जतां केटलाको तो साधुओ तथा साध्वीओने पगे पण लागता नथी. केटलाक साधुओ अने साध्वीओ तो गाळागाळी सुधी आवी जाय छे. ___ कहो बन्धुओ! आवा साधुओ तीर्थनी पवित्र यात्रानो लाभ लई शके के? जे साधुओ अने साध्वीओ आवा स्थळे क्लेश अने निंदादि दोषथी दूर रहे छे तेओने धन्यवाद घटे छे. 'मन चंगा तो कथरोटमां गंगा' आ कहेवतनो लाभ लेई तीर्थना स्थळोमां तो निंदा अने क्लेशथी तद्दन दूर रहे, अने तीर्थनी यात्रा करी प्रतिज्ञा करवी के आजथी हुं हवे कदापि कोइनी साथे बनता प्रयासे क्लेश करीश नहि. । निंदा करनार पोते मलीन बने छे अने जेओनी निंदा करे छे तेओने पोताना शत्रुओ बनावे छे. तेथी पोते जाणी जोइने क्लेशनां बी वावे छे. तीर्थंकरोए निंदा अने क्लेशनो सर्वथा त्याग कर्यो तेथी तेओनी स्पर्शेली भूमि पण तीर्थरूपे गणाय छे, तो आपणे पण तीर्थंकरोना पगले चाली क्लेश अने निंदानो त्याग करवो. For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org સેવા આચાર્યશ્રી બુદ્ધિસાગરસૂરિજી ગામેગામે નગરનગરે સર્વ જીવો પ્રબોધું, દેશોદેશે સકલ જનના દુઃખના માર્ગ રોધું; સેવા મેવા હૃદય સમજી સર્વને પ્રેમભાવે, સેવું ફર્ડે અચલ થઈને પૂર્ણ નિષ્કામ દાવે. ૧ દુઃખીઓનાં હૃદય દ્રવતાં દુઃખથી આંસુડાંને, હૂંવાં એવું જગ શુભ કરૂં કો ન ૨હે દુ:ખડાં એ; આત્મોલ્લાસે સતત બલથી સર્વને શાંતિ દેવા, ધારૂં ધારૂં હૃદય ઘટમાં નિત્ય હો વિશ્વસેવા. ૨ સર્વે જીવો પ્રભુ સમ ગણી સર્વ સેવા કર્યામાં, સર્વે જીવો જિન સમ ગણી પ્રેમ સૌમાં ધર્મમાં; સેવા સાચી નિશદિન બનો સર્વમાં ઇશ પેખી, સૌમાં ઐક્યે મનવચથકી શ્રેષ્ટસેવા જ પેખી. ૩ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir મ્હારૂં સૌનું નિજ મન ગણી સર્વનું તેહ મ્હારૂં, સેવા સાચી નિશદિન કરૂં પ્રેમથી ધારી પ્યારૂં; સેવાયોગી પ્રથમ બનશું સેવના મિષ્ટ વ્હાલી, એમાં શ્રેયઃ પ્રગતિબળ છે આત્મભોગે સુપ્યારી. ૪ સેવામંત્રો નિશદિન ગણી દુઃખીનાં દુઃખ ટાળું, સેવાતંત્રો નિશદિન રચી દુઃખ સૌનાં વિદારૂં; સેવાયંત્રો પ્રતિદિન કરી સ્વાર્પણે નિત્ય રાખ્યું, મ્હારૂં હારૂં સહુ પરિહરી સેવનામાં જ મારું. ૫ સેવા પ્રકટ કરવી આત્મશક્તિ પ્રયોગે, સેવા સાચી નિશદિન કરૂં રાખીને આત્મભોગે; થાવું મારે પ્રગતિપથમાં સર્વના શ્રેયકારી, એવી શક્તિ મમ ઝટ મળો યોગમાર્ગે વિહારી. ૬ સ્વાર્થોના સૌ પટલ ટળતાં સર્વ સેવા કરતાં, આત્મશ્રદ્ધા પ્રતિદિન વધે વિશ્વ દુઃખો હરતાં; સેવાના સૌ અનુભવ મળો બંધનો દૂર જાઓ; આત્મોલ્લાસે પ્રગતિપથમાં સેવનાઓ કરાઓ. ૭ For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर 7 जनवरी-फरवरी - २०१५ સૌમાં હું છું સકલ મુજમાં સર્વ સાથે અભેદે, આત્માáતે અનુભવવડે સત્તયા બ્રહ્મ વેદે; આત્મારામી સતત થઈને સર્વમાં બ્રહ્મ દેખું, સેવા સૌની નિજ સમ ગણી આત્મની પૂર્ણ લેખું. ૮ જે આ વિષે નિયમિતપણે તેહ હારૂં ગણીને, જે છે વિશ્વે પરમસુખ તે સર્વનું તે ભણીને; બ્રહ્માàતે સકલ જગમાં સર્વને શર્મ દેવા, હોજો હોજ પ્રતિદિન મને સ્વાર્પણ સત્ય સેવા. ૯ મારા મધ્યે પરમ ઈશની જ્યોતિનું તેજ ભાસો, વેગે વેગે તિમિર ઘનતા ચિત્તથી દૂર નાસો; પૂર્ણાન સતત વિચરી સર્વને સત્ય દેવા, થાવો થાવો નિશદિન ખરે વિશ્વની સત્ય સેવા. ૧૦ વિશ્વે સૌની પ્રગતિ કરવા ધર્મમાર્ગે મઝાની, સેવા સેવા પ્રતિદિન ચહું ભાવના ચિત્ત આણી; સૌને ધર્મે રસિક કરવા સર્વને શાન્તિ દેવા, બુધ્યબ્ધિ સહૃદયગત હો વિશ્વની સત્ય સેવા. ૧૧ સદા અમારી શુભ ભાવનાઓ, ફળો મઝાની પ્રભુ ભક્તિ ભાવે; સર્વે અમારા શુભચિત્ત ભાસો, વિશ્વેશ જ્યોતિ હૃદયે પ્રકાશો. ૧૨ સદા અમારા શુભભાવ ધર્મો, ખીલો વિવેકે જગ ઐક્યકારી; ઇચ્છું સદા સૌખ્ય વિચાર સારા, ફળો સદા એજ ધર્મો અમારા. ૧૩ આત્મોત્કાન્તિ કરવા સાર, સેવા ધર્મજ છે જયકાર; સ્વાધિકાર સેવા ધર્મ, ઇચ્છું પામું શાશ્વત શર્મ. ૧૪ કરી સેવા તણાં કાર્યો, ઉચ્ચ થાઉં સદા મુદા; બુદ્ધ્યબ્ધિ ધર્મ સેવામાં, સર્વસ્વાર્પણ થયા કરો. ૧૫ સેવક થઇ સ્વામિત્વની, પ્રાપ્તિ પૂર્ણ કરાય; નિજાત્મા પેઠે સર્વની, સેવાથી શિવ થાય. ૧૭ સેવામાં મેવા રહ્યા, સેવક થાતાં બેશ; બુદ્ધિસાગર પામીયે, પૂર્ણાનન્દ હમેશ. ૧૭ For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Beyond Doubt Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Acharya Padmasagarsuri He is also no less than a bull trying to fight Iravata, the elephant of Lord Indra and is like an elephant trying to destroy a mountain with its trunk. He is like a rabbit trying to play with the mane of a lion and is like a child placing its hand on the hood of the legendary Seshnaga2 to get hold of the gem on it. He is as foolish as the person who is trying to cross the river that is in spate with the help of a straw. He ought to knowखद्योतो द्योतते तावद्यावन्नोदेति चन्द्रमाः । उदिते तु सहस्त्रांशौ न खद्योतो न चन्द्रमाः ।। that a firefly shines in the sky only as long as the moon does not rise, but when the sun rises neither the firefly nor the moon shines in the sky. I am as dazzling and famous as the sun and the scholars who, like the firefly have vanished in no time. My knowledge is infinite and also there is no branch of knowledge or scripture which I have not studied. लक्षणे मम दक्षत्वम् साहित्ये संहिता मतिः । तर्फे कर्कशता अत्यर्थं, क्व शास्त्रे नास्ति मे श्रमः । । I am well-versed in all branches of knowledge, be it literature, logic, grammar, poetry, astrology, lexicography, medicine, philosophy or Dharma1, Artha2, Kama3, and Moksha4. I have studied deeply and gathered knowledge in all branches of study. I do not understand on what basis the person (Lord Mahavira) is contemplating to debate with me. I shall at once defeat him and teach a lesson of his life and shatter His pride to pieces. For a great scholar like me, nothing is impossible. There is no country unconquerable for a Chakravarty5 and nothing is impregnable for the thunderbolt. There is nothing that is unattainable by a determined sadhaka i.e., For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर जनवरी-फरवरी - २०१५ aspirant/practitioner and any kind of food is tasty for one tormented by hunger. Kalpavraksha, Kamadhenu7, and Chintamani8 are capable of providing anything and everything on this Earth and are also capable of fulfilling all worldly desires. As animals of the forest tremble, when lion, the king of forest roars, so also the debator shall feel uneasy and have a tough time while debating with me. I shall in no way be responsible for His uneasiness. Since He has challenged me, I am on my way to compete with Him, otherwise I am not at all particular about embarassing anyone." Thus contemplating on his way to the place of sermon of Lord Mahavira. Indrabhuti, over confident of his knowledge and achievements, headed swiftly to the place where he saw Lord Mahavira seated under the Ashoka tree, on a golden throne embedded with jewels and covered with three celestial umbrellas. In serene calmness, His face had the glow of the full moon and in intellectual, dazzling brilliance, his face was like the mid-day sun. Seeing the exuberant personality before his eyes, Indrabhuti's pride melted and his ego got the first major blow of his life. He began to wonder if the personality before his eyes was Lord Brahma. He thought that He cannot be Brahma for according to him, Brahma is engaged in the process of creation, whereas the person is nivrata i.e. retired. The former is quite old and also has a swan as his vehicle and the latter is young, jubilant and magnanimous with no Vehicle of any kind. Brahma has Savithri as his companion and a white lotus for his seat but the person visible before his eyes is unaccompanied and has a golden throne for His seat. (Continue...) For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सोमसुंदरसूरि बिरुदावली कुलक मुनिश्री सुयशचंद्रविजय मुनिश्री सुजसचंद्रविजय प्रस्तुत कृति युगप्रधान आ. श्री सोमसुंदरसूरिजीना जीवन चरित्र पर रचाएली अपभ्रंश भाषानी एक ऐतिहासिक कृति छे. मुनि प्रतिष्ठासोमना सोमसौभाग्य महाकाव्यनी पेठे जयचंद्रसूरिजीना शिष्य अज्ञात कविए सूरिजीना जीवननी घणी ऐतिहासिक विगतो अहीं रजू करी छे. तेमां आपणे सौ प्रथम कृति परिचय जोईशुं. .. कृतिना प्रथम पद्यमां कविए नमस्कार करवा रूप मंगलाचरण करी सूरिजीने विनंती करी छे. बाळक सोमिग ज्यारे धूळमां रमतो हतो त्यांथी पसार थता आ. श्री देवसुंदरसूरिजीए सोमिगने खभे हाथ मूकता बाळके आपेला प्रतिभावनी खूब ज अद्भुत नोंध काव्यना २-३ पद्यमां कवि वडे आलेखाई छे. धूळमां रमता बाळकना खभा उपर आचार्यश्री ज्यारे हाथ राखे छे. त्यारे बाळक सोमिग आचार्यदेवने कहे छे के 'जेटलो भार मूकवो होय एटलो मूको, हुं तमारो बधो भार वहन करीश' बाळकना आवा वचनथी प्रभावित थई आचार्यदेव बाळकने चरणभार सोंपे छे. पू. सोमसुंदरसूरिजीना जीवन संदर्भनो आ उल्लेख कृतिनी विशेषता स्वरूप गणी शकाय एम छे. वर्तमानमां सूरिजी संबंधी जे कांई तथ्यो प्राप्त थाय छे एमां आ प्रकारनी घटना-प्रसंगनो उल्लेख जोवा मळतो नथी. वि. सं. १४३०मां जन्म, १४३७मां दीक्षा, १४४७मां वाचकपद, १४५७मां दिल्ली(दिल्ली)ना नरसिंह साहे करावेला उत्सवमा आचार्य पद, तेमज १४६७मां गच्छभार संभाळ्यो (देवसुंदरसूरिजीना स्वर्गवास बाद), वि.सं. १४९९मां काळधर्मनो आ रीते सातमी-आठमी कडीओमां आचार्य भगवंतना जीवननी विशिष्ट घटनाओनो उल्लेख कर्यो छे. धारणा बुद्धिना बले जेओ १००० नामो याद राखी शकता हता, वळी चोर्याशी हाथ लांबा पत्रनी रचना द्वारा जेमणे कविवृंदने आनंदित कर्या ता एवा आ. श्री मुनिसुंदरसूरि, भविजनोना नयनने आनंदित करनार आ. श्री. जयचंद्रसूरि, गुणरूपी मणिओना समुद्र समान आ. श्रीभुवनसुंदरसूरि, अग्यार अंगना धारक आ. श्रीजिनसुंदरसूरि तथा छत्रीश गुणोना धारक आ. श्री जिनकीर्तिसूरि एम भरतक्षेत्रना पांच मेरू रूप पांच मुनिओने आचार्यपद, पांच मुनिओने उपाध्याय पद तथा पांच साध्वीजीओने प्रवर्तिनी पद आप्यानो उल्लेख काव्यना अग्यारथी पंदर नंबरना पद्यमांथी मळे छे. For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर 11 जनवरी-फरवरी - २०१५ मेरूपर्वत पर रहेली चूलानी पेठे सूरिजीए चंद्रगच्छरूपी पर्वत पर चूला रूप साध्वी शिवचूला गणिनीने महत्तर पद आप्युं तेमज पंडितपद प्रदान करता अपाती वर्धमान विद्या जापनी तथा सूरिजीना हस्ते थती दीक्षानी नोंधो सोळमां-सत्तरमां नंबरना पद्यमां कवि वडे टंकाइ छे. त्यारपछीना पद्योमां सूरिजीनी निश्रामां थयेली प्रासाद प्रतिष्ठानो तेमज जिनबिंब प्रतिष्ठानो अछडतो उल्लेख करे छे. कवि सूरिजीनी निश्रामां थयेली छ महिनाना तपनी, सूरिजीना विशिष्ट चारित्रसंपन्न मुनिओनी, सूरिजीए रचेल चतुःशरण प्रकीर्णकना भाष्य तथा चूर्णिनी, अल्प जीवोना बोध माटे सूरिजीए रचेल बालावबोधनी, आलोचना ग्रहण करता परपक्षना अनुयायीओनी, बादशाह सुरत्राण पासेथी फरमान मेळवी गुणराजे काढेली संघयात्रानी, गोविंद श्रेष्ठिना (तारंगागिरि परना अजितनाथ जिनालयना) प्रतिष्ठा महोत्सवनी, तथा धरणा शाह शेठना ( राणकपुर ) चतुर्मुखजिनालयना प्रतिष्ठा प्रसंगनी महत्त्वपूर्ण विगतो बहु ज ओछा शब्दोमां कवि नोंधे छे. सूरिजीना आंतरिक गुणवैभवनी तथा बादशाह महम्मद खीलजीए करेली पाटण (?) नी दुर्दशाने सूरिजीना पुण्यप्रभावे फरी केवी मनोहर करी ते वातनो आबेहूब चितार कविए त्यारपछीना सात पद्योमां रजू कर्यो छे. पछीना पांच पद्योमां कविए सूरिवियोगनी अद्भुत कल्पना आलेखी छे. वियोगनी वातने रजू करता कवि कहे छे के जेम रात्रिए सूर्य विना चक्रवाकनो समूह वियोगथी व्याकुळ थाय छे तेम सूरिजीना वियोगथी जीवसृष्टि शोकातुर थाय छे. आ वियोगरूपी दुःखनो विनाश करवामां सूर्य समान हे सूरिजी तमे दर्शन आपीने चक्रवाक समान जीवसृष्टिना दुःखनो विनाश करो. जे कमळ सूर्य वगर सुशोभित थतुं नथी तेम आ भरतखंड आपना वगर सुशोभित नथी थतो. जेम जीव विगरनुं शरीर व्यर्थ छे. तेम सूरिजी वगर पृथ्वी असार जणाय छे. सूरिजीना जीवनमा एक पण दोष पोतानो प्रभाव बतावी शक्या नथी. ए वातने जणावता कवि जणावे छे के जेम धूमाडानी धूणिथी मच्छरादि जीवजंतुना त्रास दूर थाय छे, तेम तमारा जीवनमांथी मत्सरादिनो त्रास दूर थयो हतो. एवी ते माया, क्रोध, लोभ विगेरे दोषो माटे पण विविध उपमा अलंकारोथी कविए दोष रहित जीवननुं सुंदर चित्रण प्रस्तुत कर्तुं छे. For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 12 January-February - 2015 पद्यक्रमांक ४०-४१मां 'सूरिजी काळधर्म पामी महाविदेह क्षेत्रमा जई एक भवमा ज मोक्षसुखने पामशे' ए प्रमाणे सीमंधरस्वामीना मुखथी सांभळी अंबादेवीए कहेली वात करी कवि सूरिजीना काळधर्म संबंधी महत्त्वपूर्ण नोंध करे छे. कृतिना अंत्य पद्योमा सूरिजीना सूरिपद तथा गणधरपदना वर्षोनो अनुक्रमे उल्लेख करता कवि पछीना पद्यमां गुरुगुणस्तुतिथी थता लाभनुं वर्णन करे छे. काव्यांते पोताना नामने अप्रगट राखी पोतानी गुरुपरंपराना उल्लेख पूर्वक कवि काव्यनुं समापन करे छे. - प्रस्तुत कृति सोमसौभाग्य काव्य साथे सरखावता एवी केटलीय विगतो छ जे ते काव्यमां मुनि प्रतिष्ठासोम द्वारा आलेखाइ नथी. जो के सोमसौभाग्य काव्यनी रचना संवत १५२४नी छे. ज्यारे प्रस्तुत रचनाकार सोमसुंदरसूरिजीना शिष्य जयचंद्रसूरिजीना शिष्य जयचंद्रसूरिना ज साक्षात् शिष्य होइ तुरंतना रचनाकार गणाय तेथी स्वाभाविक छे के सूरिजीना जीवनथी वधु परिचित होय तेवू बने. कदाच एटले ज तेओ आटलु सूक्ष्म वर्णन करी शक्या होय. बीजु कृति अपभ्रंश होवाथी घणी जग्याए दुर्बोध रहे छे. जो के प्रस्तावनामां कृतिनो भावार्थ अमे अमारी समज मुजब तैयार कर्यो छे. तेमांय अमुक पद्यो गा. २२, २४ तथा केटलांक शब्दो पण समजवा अघरा ज रह्या छे. मूळ कृति साद्यंत तपासी आपवा बदल प.पू. आचार्यदेवश्री विजय शीलचंद्रसूरिजी म. सा. नो खूब-खूब आभार... विशेष आ कृतिना ऐतिहासिक तथ्यो पर कोई विद्वान प्रकाश पाडे तो वधु विगतो आ कृतिमांथी मळशे ए आशा अस्थाने नथी... प्रस्तुत कृति आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर - कोबामां प्रत क्रमांक७२५२८मां संग्रहायेल छे. प्रतमां कुल त्रण पत्रो छे. अक्षरो प्रमाणमां मोटा अने बेडोळ जणाय छे. विशेष पाठ, दंड अने अंक माटे लाल रंगनो वपराश कर्यो छे. प्रत परिमाण २६x११ छे. दश लाईनमा ३३ जेटला अक्षरोनुं आलेखन थयुं छे. प्रतना लेखन उपरथी विक्रमनी १९मी सदीमां लखायेल छे. पाणीना कारणे प्रत थोडी खराब थयेल छे. जो के कृतिना पाठने क्यांय नुकसान थयेल नथी. विक्रमनी १९मी सदीमां थयेल लब्धिविजय नामना कोई मुनिभगवंतना पठन हेतु आ प्रतना आलेखन थयानो अंत्य पुष्पिका स्वरूपे उल्लेख प्राप्त थाय छे. For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सोमसुंदरसूरिबिरूदावली कुलक ॥०॥ सिरिससिगणनहमंडणमयंक', पक्खालिअभविअपावपंक। सिरिसोमसुंदरगुरु ज(जु)गपहाण, मह सुणि विनति सावहाण ।।१।। बालप्पणि पई धूली रमंत, जं जंपिअ तं अच्छरिअ हंत । सिरिदेवसुंदर गुरि अप्प हत्थ, तुह खंधि पइडिअ जवपसत्थ ।।२।। जं सक्कहतं मिम्हेहभार, पई जंपिअ हुं उद्धरणहार | तिणि वयणि चमक्किअ गुरु अपार, सोमिग तुह थप्पइ चरणभार ||३|| गुरि सोमसुंदरमुनि ठविअ नाम, लावन्नरूप सोहग्गढा(धा)म | तुह अंगि अच्छइं लक्खण बतीस, पई कलिय कला बिमणी छतीस ।।४।। दसभेअ जई जिणधम्म-मम्म, पइं जाणि अजाणि अप्पसम्म । तुह चरणमग्ग जिम खग्गधार, जगगुरु तुह जयणा जगह सार ।।५।। पइ पामिअ सुअसायरह पार, तिणि कारणिं तुह ए गच्छभार | गछनायक दायक-सिवसुहाण, तुह गुरूअडि सुरसेलहसमाण ||६|| त्रीसई संवच्छरि तुम्ह जम्म, सामिअ सात्रि[सइं] समणधम्म | सतितालई वाचकपद बंइट्ठ, गणहर तुं गणहरगुणगरिट्ठ ।।७।। ढिल्लीइवासि नरसिंह साह, मंडाविअ अतिणि उच्छवअवार' | गणहरपय सत्तावनई" तुम्ह, काराविअ किअ निअ सफल जम्म ||८|| सिरिदेवसुंदरगुरु जुगपहाण(णु), जव हूअ दिवंगत भुवणभाणु । तव फरइ ए कलिकालि रत्ति, व्यापेइ जगि अन्नाण झत्ति ।।९।। संवत्त चउदसत्सट्टिार वासि,पइ निम्मिअ अभिनवदिन(ण)पयासि। . गछनायकह दिनकर कर समाण, जगि वरतिइ सामीअ तुम्ह आण ||१०।। १. चंद्र, २. कादव, ३. तमे, ४. आश्चर्य, ५. नाम, ६. मोटाई, ७. वि.१४३०, ८. वि.१४३७, ९. वि.१४४७ १०. अपार, ११. वि.१४५७, १२. वि.१४६७, १३. सूर्य, For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 14 January-February - 2015 जो लीलई जणसहसाभिआण, पूरइ गुरु धारणगुणनिहाण । चउरासी कर निम्मविअलेख, जिणि रंजि कविअणगण असेष ||११|| पइठाविअ' ए वडगुणनिहाण, मुणे(णि)सुंदरसूरीसर पहाण | भविअणजणनयणाणंदचंद, जइचंदसूरि सूरिंदइंद ।।१२।। सिरिभुवणसुंदरगुरुभवणनाह, रयणायर जिम गुणमणिसणाह । जिणसुंदरगुरु निज्जिअअणंग, जस कंद(ठ)पीठि अग्यार अंग ।।१३।। जिणकित्तिसूरि गुरुगुणछतीस, धारइ ए सारइ जगजगीस । इंम पंचमेरू जिम सूरिपंच, पइ थप्पिअसई हथि जिअपवंच ।।१४।। पंचवि अन्नइ उवज्झायराय, जाणिज्जइं जगि तुह पयपसाय । पद पंच पवत्तणि तणां जाणि, संठविअ सामि आगमपमाणि ।।१५।। सिरिचंदगच्छ सुरसेलठाणि, चूला ज़िम गुणगणरयणखाणि । थप्पिअ महत्तरपद प्रमाणि, सिवचूला गणिए पई जि. जाणि ||१६ ।। पइ पंडिअ पदि जे ठविअ जाण, तिहिं अप्पिअ विज्झा(ज्जा) वद्धमाण । अन्नइ करि दिक्खिअ मुणिवराण, तिहिं जाणइं सामिअ कुण पमाण ।।१७।। प्रासाद पइट्ठिअ. पइं अनेकि(की), गणहर घण उच्छवसिउ विवेकि(की)। जिणबिंब पयट्ठा लख(क्ख)माण,संखा पुण जाणि कवण जाण ।।१८।। तप तपिअ छम्मासिअ पमाण, मुणिवरि तुह वारइ जुगपहाण | वनचारिअ रिषि हूअ सामि तुम्ह, उवएसहिं जाणिअ साहुधम्म ।।१९।। किअ ग्रंथ बहू बहुबुद्धि पुनि', चउसरणपइन्ना भास चुन्नि । अन्नइ जिअ जाणिअ अप्पबोह, पई निम्मिअ बहु बालावबोध ।।२०।। ते अप्पपक्खि-परपक्खि कज्जि, आवइं जिम वापी नयर मज्झि । । निक्कारणजगबंधव अपार, पइंनिम्मिअइमउवयारसार ।।२१।। जगगुरु जे जों णासई पिलाडि, परपक्खिअ जिहिं मोटी निलाडि | ते हू गुणरंजिअ तुम्हदेव, वंछई बहु दंसण पायसेव ।।२२।।। १. संस्थापित, २. स्वयं, ३. एव, ४. वनमा फरनार, ५. शुभ, पुण्य?, ६. लांछन? For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 15 श्रुतसागर जनवरी-फरवरी - २०१५ निअ आलोअण पट्ठवइ लेख, तिहिं हिअडइ पहु ए वडओ देख। इम जाणइ गणहर तुम्ह समाण(णु), नत्थी(त्थि)जां उगइ पुहविभाणु ।।२३।। बावत्तरिजिण चउवीसवट्ट, पित्तलमइ वीसजि[नावीसवट्ट । चउवीसवट्ट इगु पउमकोस, सूंअग कारिअ मुसिअमोस ।।२४।। सुरतणनइ फुरमाणिजत्त', गुणराजि कीअ जाणइ जगत्त। गोविंदसाह तणीअ पट्टि , जा मलि वलि अवर न कावि दिट्ठ ।।२५।। धरणिंदसाहि चउमुखप्रसाद, काराविअ कीअ जगसुजसवाद। इम भुवणब्भुअ करणीअ(य) हूअ, तुह उवएसिइं जाणइ सहूअ ||२६ ।। सामिअ तइ मुसिओ मोहजोह', साथिइं वलि सरिसु कोह-लोह। मड(द)-मंडइ मयणन पंचबाण, नवि खंडइ सामिअ तुह्मआण ।। २७।। माया नवि मंडइ आलजाल, सामिअ तुह्मसिउं आबालकाल। धूणी' धूमिई जिम दुरी थाय, मच्छर तिम मच्छर तुम्ह ताय ।।२८।। जिहिं देसनगरि पुरि पट्टणंमि, विहरइं तुम्ह पय घण उच्छवंमि। तिहि ईति डमर" दुमिक्ख मारि, गोलइ जिम ऊडी जाइ डारि ।।२९।। जयवंत जाम तुम्ह पाय देव, हूअ मेदपाटि जयलच्छिएव।। पहु पइ ऊवेक्खिअ सोम नाम, ए वड असमंजस होइ ताम ||३०|| छल पामिअ ए दुमिक्ख दुट्ठ, जग जगडई महिमंडलि पंइट्ठ। खिलचीअ दल दीसइ दुरंग, तिणि भंजिअ पुर पट्टणअभंग ।।३१।। धूलिइं धंधोलिअ दिसि अपार, तिणि डंपिअ' दिनकरकिरणभार । महिमंडलि हुअअ कंप लोइ, संकीअ लइ सुरपति अमरलोइ ।।३२।। जे जुगपहाण अतिलख [?]तुम्ह, माहे ते दीसइ विसेष...१२ इणि कारणि जगगुरु ज(जु)गपहाण, कुण अच्छइ सामी तुह्म[स]माण ||३३।। जगगुरु जव सामी तुह्म दि(दि)हि, हुअ गुज्जर धरि तव अमिवुट्ठि। पाउ धारत जइ तिहिं तुह्म पाय, अच्छरायण जोअत अमरराय ||३४।। १. यात्रा, २. योद्धो, ३. सळगतो अग्निकुंड, ४. धूमाडो, ५. जे, ६. ते, ७. राष्ट्रनो आंतरिक अथवा बाह्य विप्लव, ८. मेवाड, ९. पीडवू. १०. व्यग्र थq, ११. घेरावू, १२. आ पदमां शब्दो खूटे छे. For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 16 SHRUTSAGAR January-February - 2015 पुण प्रापंति विणुविमु तुम्हपाय, पाउ धरइ सिरितपगच्छराय । नर पोतइ जइ नही एक द्रम्म, वाणिज्ज करइ किमु कोडि द्रम्म ||३५।। जिम कोक'लोक निसि धरई शोक, रवि विणु तिम तुह्म विणु जीवलोक । ते दुक्खविणासण भवणभाणु, दइ दंसण सामिअ जुगपहाण(णु) ।।३६ ।। जगमंडण तुह्म विणु भरहक्खंड, किम सोहइ रवि विण पउमखज(खण्ड?)। जिम जीवह विणु ए सिर ढंढार', तिम सोमह विणु [ए]पहूइ असार ||३७।। सामिअ विणु जग विनडइ काल, केसरि विणु जिम वण दुठ्ठ व्याल । जगतइ उवेक्खिअ सोमि जाम, कहि कुण पालसिइ दयापाल ||३८।। दइ दंसण देव सेवक जणाण, निअ मस्तकि जिम तेवहि आण । करि सोम मनोरथ [स]फल अह्म, जिम होइ कयत्थ निअ मणुअजम्म ||३९।। अहवा सामिअ तुह कवण दोस, सेवकजण जाणिअ पई सदोस । जगनायक तई ते दूरिच(व)त्त, माहविदेखित्ति तु तेण पत्त ।।४०।। सीमंधर जिणवाणी सुणेवि, लुल्लेइ' इम अंबावि देवि। पामेसिई सुहगुरु एक जम्म, पच्छइपुण शिवपुरि सुख(क्ख)रम्म ||४१।। अहवा निब्भग्गह मह वियोग, तुझ पायह जइ नही पुण्ययोग । कप्पदुम किम पुरिसपाडि, तस पोतइ जइ नही कुइ निलाडि ।।४२।। गणहर तुं गणहरलच्छिहार, हुअ वरिस बयालीस महिमधार | गछनायकपद बत्ति(त्ती)स वास, पाली पई पूरी जगहआस ||४३।। इम सामिअ तुह्म गुणरयणरासि, भावइ जे भवियण मण उल्हासि । ते पामइ भवि-भवि (रि)द्धि-वृद्धि, तिहि वंछीअ सीडसिझइ) सव्वसिद्धि ||४४|| जयवंत पाटि तस जुगपहाण, छत्ति(ती)ससूरिगुणमणिनिहाण । जयचंद सुगुरु सूरिंदचंद, नंदउ जां ऊगइ सूरचंद ।।४५।। ।। इति श्रीमतपागच्छाधिराज युगप्रधान समान भट्टारकपुरंदर श्री सोमसुंदरसूरि बिरुदावली कुलकं ।। मु. लब्धिविजय पठनार्थ शुभं भवतु ।। १. चक्रवाक, २. हाडपिंजर, ३. पृथ्वी, ४. हेरान करवू, ५. बोलवू. For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रीगुणविनयगणिविरचितटीकालङ्कृतम् पूज्याचार्य श्रीमानदेवसूरिविरचितं 'श्रीलघुशान्तिस्तोत्रम्' मुनिश्री सुयशचंद्रविजय मुनिश्री सुजसचंद्रविजय Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जगतना प्रांगणमा पोताना ज्ञान-ध्यान- तप-तेज-लब्धि के अन्य विशिष्टशक्तिथी जिनशासननी प्रभावना करनारा अनेक महापुरुषो शासनने मळ्या छे. तेओ बीजाअन्य धर्मीओना हृदयमां शासननी स्थापना करे छे अने शासन पामेलाने शासनमां वधु स्थिर करता होय छे. १. प्रावचनीक ४. नैमितिक , २. धर्मकथी ५. तपस्वी ७. सिद्ध ८. कवि आ आठ मुख्य प्रकारमा प्रायः सर्वे प्रभावक महापुरुषोनो समावेश थाय छे. नंदिषेणमुनिजी, मल्लवादिसूरिजी वादिदेवसूरिजी वृद्धवादिसूरिजी भद्रबाहुस्वामी, जगत्चंद्रसूरिजी वज्रस्वामीजी, सिद्धसेनदिवाकरसूरिजी आर्यरक्षितसूरिजी, कालकसूरिजी बप्पभट्टसूरिजी, अभयदेवसूरिजी हेमचंद्रसूरिजी आदि महापुरुषोनी साथै आ. मानदेवसूरिजी म. नी गणना आ प्रभावकपुरुषोमां थाय छे. तेमनुं जीवन अने तेमना कार्योंनी विगत अनेक ग्रंथोमांथी उपलब्ध थाय छे. " ३. वादी ६. विद्या मंत्रप्रभावक आचार्य मानदेवसूरिजी प्रस्तुत ग्रंथमां आम तो 'शांतिस्तव वृत्ति' विशे ज लखवुं जोईए, पण वाचकोने विशेष बोध थाय ते माटे अने बाळजीवोने पण महापुरुषो प्रत्ये आदर थाय ते माटे 'मानदेवसूरिजी म. 'नुं जीवन 'प्रभावक चरित्र' ग्रंथना आधारे जणावीए छीए. For Private and Personal Use Only मानदेवसूरिजी - वीरनिर्वाणनी प्रायः सातमी सदीमां राजस्थानना नाडोल नगरमां शेठ जिनदत्तनी धर्मपत्नी धारिणीना घरे तेमनो जन्म थयो हतो. ते मानदेव असाधारण कांतिवाळो हतो. अने तेनुं अंतर वैराग्यथी वासित हतुं. योगानुयोग समंतभद्रसूरि-वृद्धदेवसूरिजीना पट्टधर आचार्य श्री प्रद्योतनसूरिजी पृथ्वीतलने पावन करता-करता नाडोल पधार्या. सूरिजीनी धर्मदेशना सांभळी वैराग्य पामेला मानदेवे गुरु म. ने दीक्षा आपवा विनंती करी. अत्यंत आग्रह थया बाद मात-पितानी अनुमति मेळवी तेणे दीक्षा Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 18 SHRUTSAGAR January-February - 2015 अंगीकार करी. त्यारबाद थोडा ज समयमां अंग-उपांग-छेदसूत्रादिनो गहन अभ्यास करी ते बहुश्रुत था. पात्रता जाणी गुरु म. तेमने आचार्यपदथी अलंकृत कर्या. श्रीदेवविमलगणि विरचित 'श्रीमन्महावीरपट्टधरपरंपरा श्लो.७२/७३' मां तेमना आचार्यपद प्रदान प्रसंगनी एक विशेष घटना वांचवा मळे छे. आचार्यपद प्रदान समये मानदेवमुनिना खभा उपर साक्षात् लक्ष्मी अने सरस्वतीने बेठेला जोईने गुरु म. ने संशय थयो के 'आचार्यपद पछी आनुं पतन तो नहिं थाय ने?' गुरु म. नी मनोविमासण कळी गयेला एमणे ते ज वखते यावज्जीव छ विगई त्याग कर्यो. अने जैन परंपरानो इतिहास भा. १, पृ. २९७ मुजब भक्तजनोना आहारनो पण त्याग कर्यो. सूरिजीना नैष्ठिक ब्रह्मचर्य-ज्ञान-तप वगेरे गुणोथी आकृष्ट थयेली जयाविजया देवी प्रतिदिन तेमने वंदन करवा आवती हती. अन्य स्थळे जया-विजयाअपराजिता-पद्मा ए चार देवीओना नाम जणाव्या छे. ते समये जैनोनी समृद्धिथी दीपती तक्षशिला नगरीमा पांचसो जिनमंदिरो हता. अचानक ए नगरीमा महामारी फाटी नीकळी अने लोको अकाळे मरवा लाग्या. आखुंय नगर मृतदेहोना ढगथी भराई गयु. नगरमां वेदना अने कल्पांत सिवाय कशुं संभळातुं न हतुं. ते समये केटलाक चिंतातुर श्रावको आ विकट परिस्थितिनो उपाय शोधवा लाग्या. एमणे शासनदेवीनी आराधना करी त्यारे शासनदेवीए आकाशवाणी करी के 'आ म्लेच्छोना बळवान व्यंतरोए करेल उपद्रव छे. तेमां अमारेथी कशुं थशे नहीं.' अने जणाव्युं के - 'नाडोलनगरमां आचार्य मानदेवसूरिजी विचरे छे. तेमने अहीं बोलावी तेमनुं चरणोदक तमारा मकानोमां छांटो तो आ उपद्रव शांत थई जशे. वळी आ नगरनो तुरूष्को द्वारा आजथी त्रीजा वर्षे भंग थवानो छ माटे उपद्रव शांत थया पछी तमे अहींथी बीजा नगरे चाल्या जजो.' देवीना आदेशथी स्वस्थ थयेल श्रीसंघे वीरचंद्र नामना श्रावकने नाडोल मानदेवसूरिजी पासे मोकल्यो. विनंतीपत्र लइ ते नाडोल पहोंच्यो त्यारे मध्याह्ननो समय थयो हतो. आचार्य म. अंदरना ओरडामां ध्यानमां बेठा हता. त्यारे जयाविजया देवीओ पूज्यश्रीना ध्यानबळथी आकर्षित थई त्यां आवी ओरडाना एक खूणामां बेठी हती. देवीओने जोई वीरचंदने आचार्यश्रीना चारित्र विशे अने शासनदेवीना आदेशमा शंका थई. For Private and Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रुतसागर जनवरी-फरवरी- २०१५ गुरु म. ध्यान पार्यु पछी ते श्रावक आचार्यश्रीने वंदन कर्या विना ज बेठो. वीरचंद्रना आवा वर्त्तनथी क्रोधित थयेली देवीओए तेने अदृष्ट बंधनथी बांधी दीधो. त्यारे तेने पोतानी भूलनो पश्चात्ताप थयो अने गुरु म. नी तेणे माफी मांगी. पण दया आणी वीरचंद्रने बंधनथी मुक्त कराव्यो. गुरु म. 19 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त्यारबाद तेणे पोताना आगमननुं प्रयोजन तेमज तक्षशिला संघनो विनंतिपत्र रजु कर्यो साथे त्यां पधारवा विनंती पण करी. त्यारे आचार्यश्रीए कह्युं के 'अहींना संघनी आज्ञा न होवाथी अमो त्यां नही आवी शकीए. पण त्यांना संघनुं कार्य जरी आपशुं.' पछी आचार्यश्रीए मंत्राधिराज गर्भित - 'श्रीशांतिस्तव' स्तोत्र बनावी आप्युं. श्रावक वीरचंद्र आ स्तोत्र लई आनंदपूर्वक तक्षशिला आव्यो. श्रीसंघे मानदेवसूरिजीना कहेवा मुजब पाठ करीने मंत्रित जळनो बधे छंटकाव कर्यो. तेने परिणामे मरकीनो उपद्रव शांत थयो. आजे आस्तव 'लघुशांति' तरीके प्रसिद्ध छे. आ सिवाय सूरिजीए व्यंतरना उपद्रवना निवारण माटे 'तिजयपहुत्तस्तोत्र' नी पण रचना करी छे आ वात 'जैन परंपरानो इतिहास' (रजी आवृत्ति) भा. १, पृ. २९८ पर नोंधायेली छे. - योग्य शिष्यने पोतानी पाटे स्थापी प्रांते जिनकल्प जेवी संलेखना करी शुभध्यानमां काळधर्म पामी ते स्वर्गमां गया. अंचलगच्छनी बृहत्पट्टावलीमां आ. मानदेवसूरिजी म. वीर सं. ७३१ (वि.सं.२६१) पछी गिरनार उपर स्वर्गवासी थयानुं जणाव्युं छे. आचार्यश्रीना जीवन तेमज कार्यकाळ संदर्भे केटलाक भिन्नभिन्न मतो छे पण ते अहिं नोंध्या नथी. शांतिस्तव (मूळ) सामान्य परिचय : परंतु गुणविनयकृत प्रस्तुत टीका मात्र सत्तर गाथा प्रमाण उपलब्ध थाय छे. अने कर्तानुं नाम सत्तरमां पद्यमां ज वणायेलुं होवाथी एवं विचारी शकाय के छेल्ला २ पद्यो कदाच प्रक्षिप्त हशे अथवा अन्य २ पद्यो प्रसिद्ध होय तेमणे टीका न करी होय. आ स्तवनी सत्तर गाथाओ 'गाहा' छंदमां छे. परंतु चौदमी गाथाना छंदनो निर्णय थई शकतो नथी. छेल्ली बे गाथाओ 'अनुष्टुप छंदमां छे. (प्रबोध टीका. भा. २, पृ. ३६२) पूज्यश्री पोते ज जणावे छे तेम प्रस्तुत स्तव १. पूर्वाचार्यो द्वारा दर्शित मंत्रपदथी युक्त छे. For Private and Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR January-February - 2015 २. विधिपूर्वक अनुष्ठान करता जळ वगेरे (अग्नि-विष-विषधर-ग्रहचार-राज-रोग युद्ध-राक्षस-शत्रुसमूह-मारी-चोरी-श्वापद-भूत-पिशाच-शाकिनीनो भय दूर करनार छे. वळी शिव-शांति-तुष्टि-पुष्टि अने क्षेम करनार छे. (गाथा-१४/१६) आ स्तवना वांचननी (पठन) वात तो दूर रही ते स्तव सांभळवाथी अने तेनी भावना करवाथी पण शांतिपद-सिद्धिपद प्राप्त थाय छे. (गाथा-१७) प्रस्तुत कृतिनो सामान्य परिचय पंचप्रतिक्रमणसूत्र प्रबोधटीका भा. २, पृ. ३६२ उपर नीचे मुजब जोवा मळे छे. * गाथा १ 'मंगलादिनो निर्देश' करे छे. शांतिस्तवनी पहेली गाथामां कर्त्ताए शांतिस्तव, मंगल करी स्तोत्र रचनाना विषय अने कारण जणाव्या छे. * गाथा २ थी ६ 'श्रीशांतिजिन-नाममंत्र-स्तुति' रूप छे. गाथा नं. २ थी ६ मां शांतिनाथ परमात्मानी जुदा जुदा विशेषणो पूर्वक स्तुति करता देवीनुं विजयाने तुष्ट करवा प्रक्षेप कराता शांतिबलिने अभिमंत्रित करवानो मंत्र (महावाक्य) पद्यमां गुंथी दइ शरूआत करी छे. * गाथा ७ थी १३ 'जगन्मंगल-कवच-युक्त-नाम स्तुति' रूप छे. गाथा नं. ७ थी १३मां ते ज देवीनी स्तुति करी जगतनी जनताने ८ भागमा विभक्त करवामां आवी छे. अने दरेक वर्गना कयां कयां कृत्यो विजया अने जयाने करवाना छे अथवा करी रह्या छे. तेनी नोंध छे. अने कल्याण वगेरे करवानी पण प्रार्थना करी छे. * गाथा १४-१५ 'प्रधान वाक्य-युक्त अक्षर स्तुति' तेमज 'आम्नाय' रूप छे. गाथा नं. १४-१५मां शांतिपरमात्माना नाम-प्रधान वाक्य (अक्षर) युक्त मंत्रना पदो जणाव्या छे. अने गाथा २ थी शरू करेल शांति बलिमंत्रनी गुंथणी पूर्ण करी छे. * गाथा १६-१७ 'फळ श्रुति' रूप छे. गाथा नं. १६ तेमज १७मां शांतिस्तवनी मंत्रगर्भित होवानी वात तथा पूर्वाचार्योनो संबंध जणावी स्तवपाठनुं फळ जणाव्युं छे. * गाथा १८-१९ 'अंत्यमंगल' छे. गाथा नं. १८ अने १९मां अंत्यमंगल करवामां आव्युं छे. आ कृति मंत्रशास्त्रनां ज्ञाता अने जिज्ञासुओ माटे खूब उपयोगी छे. जिज्ञासुओए For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर . जनवरी-फरवरी - २०१५ आ संबंधी घणी बधी विशेष विगतो - श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्र-प्रबोधटीका-भाग. २ (रजी आवृत्ति)मां पृ. ३६२ थी ४१६ उपरथी वांची लेवी. शांतिस्तव-कृति विगत : आ लघुशांतिस्तव उपर रचायेल साहित्यनी नोंध नीचे मुजब छे. १. हर्षकीर्तिसूरि कृत टीका - रचना सं. १६२८ (प्रका.) २. सिद्धिचंद्रगणि कृत टीका - रचना सं. १६९० (प्रका.) ३. धर्मप्रमोदगणि कृत टीका - (प्रका.) ४. अज्ञात कर्तृक टीका* - (अप्र.) ५. अज्ञात कर्तृक बालावबोध* - (अप्र.) ६. अज्ञात कर्तृक बालावबोध* - (अप्र.) ७. दयाकीर्तिवाचक कृत बालावबोध* - (अप्र.) महोपाध्याय गुणविनयनी : महोपाध्यायजीन जन्मस्थळ-माता-पिता-जन्मसमय-बाळपणनुं नाम-दीक्षापदप्रदान-स्वर्गवास वगेरे कोई उल्लेख प्राप्त नथी. परंतु तेमना रचेला ग्रंथोना आधारे केटलीक विगतो प्राप्त थाय छे जे नीचे मजब छे - * खरतरगच्छीय क्षेमशाखा प्रवर्तक क्षेमकीर्ति वाचक नी परंपरामां वाचक क्षेमराज - उपा. प्रमोदमाणिक्यना शिष्य अनेक ग्रंथोना सर्जक उपा. जयसोमना तेओ शिष्य हता. * तेमनो जन्म सं. १६१२-१६१३नी आसपास, दीक्षा सं. १६२०-१६२१नी आसपास, गणिपद सं. १६४१-१६४४नी आसपास, उपाध्याय पद सं. १६६३ पूर्वे, स्वर्गवास वि. सं. १६७६ पूर्वे थया हता. * 'फलवर्द्धि पार्श्वनाथ' ते तेमना परमोपास्य हता. तेमना घणा ग्रंथोमां (मंगलाचरणमा) तेमणे तेमने अचूक स्मर्या छे. * तेओ जैनागम-साहित्य-व्याकरण-कोश-लक्षणशास्त्रना प्रौढ विद्वान हता. प्राकृत-संस्कृत-अने राजस्थानी भाषा पर तेमनुं प्रभुत्व हतुं. * तेमना द्वारा रचायेला अनेक ग्रंथरत्नो प्राप्त थाय छे. . १.. विचाररत्नसंग्रह २. सव्वत्थ-शब्दार्थ समुच्चय ३. खण्डप्रशस्ति-सुबोधिनी टीका ४. नेमिदूत-टीका * शांतिस्तव कृति विगत पर क्रमांक नं. ४, ५, ६,७ उपर नोंधायेल कृति विगतो ज्ञानमंदिरमां संगृहीत छे. - संपा. For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra SHRUTSAGAR ५. दमयन्तीकथा - चम्पू- टीका वैराग्यशतक - टीका ७. ९. कर्मचन्द्रवंशोत्कीर्तनकाव्य-टीका ११. • इन्द्रियपराजयशतक- टीका www.kobatirth.org १३. ऋषिमण्डलप्रकरण-अवचूरि (टीका) * १५. भावविवेचनम् * 22 - गाथा क्रमांक १. गाथा नं. ४ २. गाथा नं. ८ ३. गाथा नं. ११ ४. गाथा नं. ९ ५. गाथा नं. १३ १०. लघुशांतिस्तव-टीका १२. लघुअजित - शान्तिस्तव - टीका १४. शीलोपदेशमाला - लघुवृत्ति * (* निशानीवाळा ग्रंथो प्रायः अप्रकाशित छे.) * उपरोक्त ग्रंथो सिवाय राजस्थानी पद्य निबद्ध-कयवन्नासंधि, कर्मचंद्रवंशावली रास, अंजनासुंदरीप्रबंध, बारहव्रत रास, जेवी १४-१५ कृतिओ, राजस्थानी गद्यबद्ध बृहत्संग्रहणी - जयतिहुअण - कल्पसूत्र - भक्तामर - नमोत्थुणं सूत्रना बालावबोधो, अंचलमतस्वरूपवर्णन वगेरे खंडनात्मक-मंडनात्मक ग्रंथो तेमज शताधिक स्तवनादि स्फुट साहित्य एमणे रच्युं छे. उपाध्याय मतिकीर्ति उपा. सुमतिसिंधुर - उपा. कनककुमार गणि नयनप्रमोदगणि, प्रमुख तेमने घणो विशाळ शिष्य-प्रशिष्यादि परिवार हतो. उपा. श्रीना विशेष परिचय माटे महो. विनयसागरजी संपादित 'नलचम्पू और टीकाकार महो. गुणविनय : एक अध्ययन' पुस्तक खास जोवुं. उपा. गुणविनय कृत शांतिस्तव - टीका Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir January-February-2015 ६. रघुवंश - विशेषार्थबोधिका टीका * ८. सम्बोधसप्तति-टीका अन्य टीकाओ हाथवगी न होवाथी अन्य टीकाओ साथे प्रस्तुत टीकानुं समीक्षात्मक/ तुलनात्मक अध्ययन शक्य नथी. परंतु कृतिकारनी अन्य ग्रंथरचनाओनी जेम आ टीका पण प्रौढ अने विद्वद्भोग्य छे ए वात नक्की ज छे. शांतिस्तव टीका : विशेष ज्ञातव्य प्रसिद्धपाठ न जिताय सुतुष्टि १. प्रसिद्ध शांतिस्तव (लघुशांतिस्तोत्र ) करता प्रस्तुत टीकामां स्तवना मूळ पाठांतरो नीचे मुजब छे. - जनतानाम् निवृत्ति सुशिवं - For Private and Personal Use Only टीकागत मूळपाठ निचिताय तुष्टि जन्तूनाम् निवृति सशिवं Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 23 श्रुतसागर 23 जनवरी-फरवरी - २०१५ ६. गाथा नं. १७ वा ७. गाथा नं. १७ सूरिः श्रीमानदेवश्च सूरिश्रीमानदेवश्च २. टीकाकारश्रीए प्रसिद्ध अर्थ करता केटलाक स्थानोए विशिष्ट/भिन्न अर्थ कर्या छे. जे नीचे मुजब छे - * निचिताय शब्दनो अर्थ (प्रसिद्ध ग्रंथोमां पाठ ज न होवाथी) प्राप्त नथी. टीकागत अर्थ :- 'कर्मनो संग्रह ज जेमने नथी तेवा' एवो अर्थ कर्यो छे. * कृततोषा प्रसिद्धार्थ :- (नाममंत्रवाळा वाक्यना प्रयोग वडे) तुष्ट करायेली. टीकागत अर्थ :- जेणे भव्यजीवोने संतोष आप्यो छे. तेवी. * जयावहेभवति प्रसिद्धार्थ :- हे जयावहे! (हे जयने लावनारी) हे भवति आप टीकागत अर्थ :- विजयकारी हाथी जेनुं वाहन छे ते. * सुजये प्रसिद्धार्थ :- सारो जय पामनारी ('भगवती' शब्दनुं विशेषण कर्यु छे. टीकागत अर्थ :- हे जयादेवी! ('सुजये' - देवी- नाम छे.) * सत्त्वानाम् प्रसिद्धार्थ :- अन्वय 'अभयप्रदाननिरते' साथे छे. टीकागत अर्थ :- 'निवृतिनिर्वाणजाननि!' साथे कर्यो छे. * जयदेवि! विजयस्व-प्रसिद्धार्थ :- हे देवी! तुं जय पाम! विजय पाम! टीकागत अर्थ :- हे जयदेवि! तुं विजय पाम. * गुणपति! प्रसिद्धार्थ :- त्रिगुणात्मक (सत्त्व-राजस्-तमस् गुणोथी युक्त) देवी! टीकागत अर्थ :- वरदत्व-दक्षता-दाक्षिण्यादि गुणने धारण करनारी! * राजरोग प्रसिद्धार्थ :- राजा अने रोग टीकागत अर्थ :- राजरोग = क्षय ३. कर्ताए जुदा-जुदा स्थळे शब्दसिद्धि-प्रमाण वगेरे दर्शावता-भागवत, खंडप्रशस्ति, गणरत्नमहोदधि, अनेकार्थसंग्रह, काव्यालंकार, अव्ययशब्दवृत्ति, सिद्धहेमशब्दानुशासन, पाणिनीयव्याकरण जेवा ग्रंथोनो प्रयोग कर्यो छे. ४. गाथा नं.८मां 'सर्वस्याऽपि च संघस्य पद कह्या पछी 'साधुनां च पद न्यास® कारण, गाथा नं. १३मां 'स्वस्ति च' शब्दमां "स्वस्ति' अव्ययनो शब्द तरीके प्रयोगनुं कारण, गाथा नं. १४मां 'नमो नमः' पदमां 'नमः' पदनी द्विरुक्तिनी शंका अने तेनुं समाधान, ए सिवाय - 'स्वामिने, प्रददे, विदर्भितः' शब्दोनी व्युत्पत्ति ध्यानाकर्षक छे. For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 24 January-February - 2015 ५. कर्ताए टीकामां गाथा नं. १ थी ७, १०, ११, १५, १६, १७ 'पथ्या' छंद (आर्यानो भेद) कह्यो छे. गाथा नं. ८मां प्रथम दलमां 'आर्या', द्वितीयदलमां 'अष्टाक्षरवृत्त' इंदनुं लक्षण घटाड्युं छे. गाथा नं. ९, १२, १३, १४ मां छंदनो स्पष्ट उल्लेख कर्यो नथी. ६. प्रभावक चरित्रमा लघुशांतिस्तव' रचनानुं कारण बनेली मारी 'तक्षशिला मां फेलाई होवानी नोंध छे. ज्यारे प्रस्तुतवृत्तिमां ते 'शाकम्भरीपुर' मां होवानी घटना छ. तपा. गुणरत्नसूरिजी ए 'क्रियारत्नसमुच्चय ग्रंथमां तेमज तपा. मुनिसुंदरसूरिजी ए 'गुर्वावली'ग्रंथमां पण आ घटना 'शाकम्भरीपुर'मां थयार्नु नोंध्युं छे. ७. मानदेवसूरिजीने प्रभावकचरित्रमा 'चंद्रगच्छ ना होवानुं जणाव्युं छे. जैन परंपराना इतिहास (भा. २, पृ. १०)मां तेमने वनवासीगच्छना-चंद्रकुलना कह्या छे. ज्यारे, टीकाना प्रारंभमां ज उपा. श्री ए - 'पुराऽस्मद्गच्छे श्रीमानदेवसूरयो बभूवुः' ए वाक्यथी एमने प्रस्तुत 'खरतरगच्छ ना जणाव्या छे. उपा. श्रीनी गच्छप्रीति ज आनुं कारण हशे. बाकी अन्य प्रमाणो जोई तेमना गच्छनो निर्णय विद्वानो करे ए वधु योग्य छे. प्रस्तुत कृतिना संपादन माटे कुल पांच हस्तप्रतो अमने प्राप्त थई छे. तेमां १. श्री हंसविजयजी ज्ञानमंदिर, वडोदरा, क्र. नं. १३८ २. श्री हंसविजयजी ज्ञानमंदिर, वडोदरा ३. मोहनलालजी जैन ज्ञानमंदिर, सुरत ४. श्रीनेमि-विज्ञान-कस्तूरसूरिजी ज्ञानमंदिर ५. श्री हेमचंद्राचार्य जैन ज्ञानमंदिर, पाटणनी छे. तेमां १, २ नं. नी प्रत ५ नं. नी प्रतनो उतारो (Second Copy) छे. ज्यारे ५ नं. नी प्रत वृत्तिकार श्री गुणविनयजी म. सा. ना हाथे ज लखायेल होवानुं प्रतनी अंत्य पुष्पिकामां जणाव्युं छे. तेथी वृत्तिकारना स्वहस्ते लखायेली प्रत अमने संपादन माटे मळी ए अमारा माटे गौरवार्ह वात छे. संपादन माटे प्रत आपवा बदल ते सर्वे ज्ञानमंदिरना कार्यवाहकोनो खूब-खूब आभार. विद्वद्भोग्य प्रस्तुत कृतिना संपादनमा क्षति रही होय तो विद्वज्जनो अमने क्षन्तव्य करे अने ते तरफ अंगुलीनिर्देश पण करे. For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खरतरगच्छीय महोपाध्याय श्रीगुणविनयगणिविरचितटीकालङ्कृतम् _पूज्याचार्य श्रीमानदेवसूरिविरचितं 'श्रीलघुशान्तिस्तोत्रम्' स्मृत्वा श्रीश्रुतदेवीं, कविविश्रुतकीर्तिमस्तमितदोषाम् । श्रीशान्तिनाथमथशान्ति-निकरकरं मानसे कृत्वा ||१|| श्रीजयसोमोपाध्याय-गुरून् गुरुगौरवं नमस्कृत्य। वच्मि श्रीशान्तिस्तव-वृत्तिं लेशेन शुभवृत्त्या ।।२।। [युग्मम्] तत्रादौ श्रीशान्तिस्तवोत्पत्तिः प्रतिपाद्यते पुराऽस्मद्गच्छे श्रीमानदेवसूरयो बभूवुः । एकदा नडूलनगरे ते चतुर्मासी तस्थुः । तस्मिन्नेव समये शाकम्भरीपुरे श्रीसङ्घः शाकिनीमरकोपद्रवेणाऽत्यर्थं व्यथितः । तदा सङ्घन विमृश्य महाप्रभावक-श्रीमानदेवसूरीणां सविधे मनुजप्रेषणेन विज्ञप्तिर्विदधे'यथाऽत्र मरकोपद्रवोऽस्ति, तद्वारणाय कश्चिदुपायो विधेयः। ततो मानदेवसूरिभिः श्रीसङ्घोपद्रववारणायऽयं श्रीशान्तिस्तवः प्रेषि। ततः तत्पठनात् तद्भवणाच्च शान्तिरुत्पेदे। एवमस्य शान्तिस्तवस्योत्पत्तिः। उक्तं चाऽस्मद्गच्छीयपूर्वगुरूणामवदातेषु'नड्डूलनामनगरे कृतमेघकालैः, शाकम्भरीपुरसमागतसङ्घवाचा। शान्तिस्तवः प्रबलमारिभयापहारी, यैर्निर्ममे सुविहितक्रममार्गदीपैः ।।१।।' [ ] अथ शान्तिस्तवव्याख्यातुमाह शान्तिं शान्तिनिशान्तं, शान्तं शान्ताशिवं नमस्कृत्य। स्तोतुः शान्तिनिमित्तं, मन्त्रपदैः शान्तये स्तौमि ।।१।। व्याख्या-'अहम्' इत्यस्मत्प्रयोगोऽनुक्तोऽप्याऽऽक्षिप्यते। अहं मन्त्रपदैः - मन्त्राःदेवादिसाधनानि, देवादयः साध्यन्तेऽनेन देवादिसाधनम्, महाबीजादीत्युक्तेः, तेषां पदानि-वाक्यानि। यदनेकार्थः- 'पदं स्थाने विभक्त्यन्ते, शब्दे वाक्येङ्कवस्तुनोः। For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 26 January-February-2015 त्राणे पादे पादचिह्ने, व्यवसायापदेशयोः ।' [ अनेकार्थसङ्ग्रह, २/२३२] इति । तैः, शान्तये शान्तियोगात् तदात्मकत्वात् तत्कर्तृत्वाच्च शान्तिः, तस्मै - श्रीशान्तिनाथाय, अर्थवशाद्विभक्तिपरिणामे शान्तिं स्तौमि वर्णयामि । यत् क्रियाकलापे - स्तवने नौति स्तौति, प्रशंसति श्लाघते च वर्णयति । इट्टे कवयति कवते, विकत्थते चाभिनन्दति च ।।' [ ] इति । किं कृत्वा ? शान्तिं - श्रीशान्तिनाथं नमस्कृत्य - प्रणिपत्य । किं विशिष्टं शान्तिम्? शान्तिनिशान्त - शाम्यत्यशुभमनया, शमनं वा शान्तिः, शम्यादित्याशास्यमाना वा, 'तिक्कृतौ नाम्नि [सिद्धहेम ५।१।७१] इति तिक्, शान्तिः - भद्रम् । यदनेकार्थः-‘शान्तिर्भद्रे शमेऽर्हति' [ अनेकार्थसंग्रह, २/२०४ ] भद्रशमयोः स्त्रियाम्, अर्हति पुंसि, तस्या निशान्तं- सदनम् । यदनेकार्थः- 'निशान्तं सदने शान्ते, प्रभातेऽपि [अनेकार्थसंग्रह, ३-२८६ ] पुनः किम्भूतम् ? शान्तं - दान्तम्, शाम्यति स्म शान्तः । यदनेकार्थः- 'शान्तो दान्ते रसान्तरे [ अनेकार्थसंग्रह, १८ / २०३] दान्ते - निवृत्तविषये वाच्यलिङ्गः । पुनः किम्भूतम् ? शान्ताशिवं शान्तानि - उपशान्तानि - निवृत्तान्यशिवानिअकल्याणानि यस्मात् सः, तम् । गर्भस्थेऽस्मिन् पूर्वोत्पन्नाऽशिवशान्तिरभूदिति । किमर्थम्? स्तोतुः-स्तवनकर्तुः, उपलक्षणत्वात् श्रोतुश्च शान्तिनिमित्तंकल्याणहेतोः । यद्वेत्थं पदयोजना कार्या-शान्तिं नमस्कृत्य स्तौमि प्रकरणात् शान्तिमेव । कस्यै? स्तोतुः शान्तये शान्त्यर्थम् । तत्र हेतुगर्भितं विशेषणमाह । किम्भूतं शान्तिम् ? शान्तिनिमित्तं - शान्तिकारणम् । इति प्रथमपथ्यार्यार्थः ।।१।। ओमिति निश्चितवचसे, नमो नमो भगवतेऽर्हते पूजाम् । शान्तिजिनाय जयवते, यशस्विने स्वामिने दमिनाम् ||२|| पथ्या ।। व्याख्या- शान्तिजिनाय नमो नमः । ननु 'नमो नमः' इति पौनरुक्त्यं दोष इति चेद्, न्, हृतचित्तः सन् यत्पद - मेकस्मिन्नेवार्थे पुनः पुनर्वक्ति तत्र पुनरुक्तत्वं दोषाय न भवति, अपित्वलङ्कारायेति । तथा च रुद्रटः- 'वदवदेत्यादि जयजयेत्यादि' तत्र वद-वदेति हर्षे, तव - तवास्मीति भये, चित्रं चित्रमिति विस्मये, हा-हेति शोके, जय-जयेति स्तुतौ कुरु-कुर्विति त्वरायाम्, धिग्- धिगिति निन्दायाम्, दिशिदिशीति विप्सायां-सर्वस्यां दिशीत्यर्थः, वारं वारमिति लोकप्रसिद्धम् - इत्यादिवदत्र न पौनरुक्त्यदोषः, [काव्यालंकार, अध्याय ६, श्लोक ३० - ३३] यद्वा प्रर्षे द्विवचनम् । · किम्भूताय शान्तिजिनाय ? ओमिति निश्चितवचसे 'ओम्' इति ओमिति सकलप्रामाणिकजनैः प्रमाणत्वेनाऽङ्गीकृतस्वरूपम्, निश्चितं - निश्चयः, भावे क्तः, For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 27 श्रुतसागर जनवरी-फरवरी - २०१५ तद्विद्यते यस्मिंस्तनिश्चितम्, अभ्रादित्वादप्रत्ययः । निश्चितं च संशयाऽभाववद् वचःवचनं यस्याऽसौ निश्चितवचाः, तस्मै निश्चितवचसे। तथा च पञ्चत्रिंशद्वचनातिशयेष्वेका-दशोऽयं संशयानामसम्भवोऽसन्दिग्धत्वमित्युक्तोऽतिशयः । यदनेकार्थः- 'इति स्वरूपे सान्निध्ये' [अनेकार्थसंग्रह, परिशिष्टकाण्ड, श्लोक-२८] इत्यादि। पुनः किम्भूताय? भगवते-भगः-जगदैश्वर्यं ज्ञानं वाऽस्त्यस्य भगवान्, अतिशयनेमतुः तस्मै भगवते। पुनः किम्भूताय? अर्हते पूजां-शक्रादिकृताम_मर्हतीत्यर्हन्, 'सुग्-द्विषार्हः सत्रिशत्रु-स्तुत्ये' [सिद्ध. ५।२।२६] इत्यतृश्-प्रत्ययः, तस्मै पुनः किम्भूताय? जयःरागद्वेषमोहानां विजयः, पराभव इत्यर्थः। स विद्यते यस्याऽसौ जयवान् । 'मवर्णावर्णान्ताद्' इति मवर्णावर्णोपधाच्च यवादिवर्जात् परस्य मतोर्मस्य वः। तस्मै जयवते। पुनः किम्भूताय? यशस्विने-यशः-कीर्तिर्विद्यते यस्याऽसौ यशस्वी। अस्मायामेधास्रग्भ्यो(स्रजो)विनिः [पाणि. ५।२।१२१] इति असन्ताद् विनिः। ___ पुनः किम्भूताय? दमिना-दमो विद्यते येषां ते दमिनः-साधवः, तेषां स्वामिनेप्रभवे, स्वामिन्नैश्वर्ये [पाणि.५।२।१२६] इति ऐश्वर्ये गम्ये धनवाचिनः स्वशब्दाद् आमिन्-प्रत्ययो निपात्यते। स्व-धनमस्याऽस्तीति स्वामी, स्ववान अन्यः। अत्रात्मादावर्थान्तरे स्वशब्दोवर्त्तते, अतोऽत्रैश्वर्यं न प्रतीयते। अत्र पथ्यायामियन्ति मन्त्रपदानि बोध्यानि-ॐ नमो भगवतेऽर्हते शान्तिनाथस्वामिने' इति द्वितीय पथ्यार्यार्थः] ||२|| सकलातिशेषमहा-सम्पत्तिसमन्विताय शस्याय। त्रैलोक्यपूजिताय च, नमो नमः शान्तिदेवाय ।।३।। व्याख्या - एवंविधाय शान्तिदेवाय नमो नमः । अत्र चर्चा प्रागेवावाचि। किम्भूताय? सकलातिशेषकमहासम्पत्तिसमन्विताय-सकलाः-समस्ताः, देशतो न्यूनतायामपि सकला इति व्यवह्रियन्ते। तथा चोक्तम्- 'समुदायवृत्तयः शब्दा अवयवेष्वपि वर्तन्ते । तत एकादिकोप्पृष्यादिः सप्तर्ष्यादिशब्दरभिधीयते। यथा-उदित एकः सप्तर्षिः, फलित एकः पञ्चाम्रः, पुष्पितौ पञ्चाम्रौ [ ] इति । अतः 'अतिशेषाः' इति महासम्पत्तीनां विशेषणं विन्यस्तम् । तत्राऽतिशेषा इत्यस्यार्थः अतिक्रान्तः शेषः उपयुक्तेतरो याभिस्ता अतिशेषा, निःशेषा इत्यर्थः। तत्र स्वार्थे क-प्रत्ययः, अतिशेषकाः । एवं विधा या महासम्पत्तयः सुरनिकरकृतसमवसरणर्द्धयः, ताभिः समन्वितः-सहितः, तस्मै For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 28 SHRUTSAGAR January-February -2015 सर्वातिशेषकमहासम्पत्तिसमन्विताय । समस्तार्थत्वे अस्वरसत्य(?) सकलाः-सविज्ञाना इति वा व्याख्येयम् । यदनेकार्थः- 'कला स्यात् काल-शिल्पयोः [अनेकार्थसंग्रह, २/४८८] इति। तत्र शिल्पं-विज्ञानमिति, समवसरणे विज्ञानस्य घटमानत्वात्। उपयुक्तेतरे लक्ष्यमदः-'मन्दाकिन्याः पयः शेषं, दिगवारणमदाविलम्' इति [ ]। पुनः किम्भूताय? शस्याय-प्रशस्याय, प्रशंसायोग्यायेत्यर्थः 'शंसू स्तुतौ सिद्ध. धातु १५५०, पाणि. धातु. १७७४] कृषिवृषीति वाक्येऽपि शस्यम्। तथा चः - समुच्चयार्थः । त्रैलोक्यपूजिताय-'त्रय एव लोकस्त्रैलोक्यम्' इति गणरत्नमहोदधौ, तेन पूजिताय-अर्चिताय | पथ्यार्या । अत्रेयन्ति मन्त्रपदानि-'सकलकलातिशेषक-महासम्पत्समन्विताय त्रैलोक्यपूजिताय नमो नमः शान्तिदेवाय' इति [तृतीयपथ्यार्यार्थः] ||३|| सर्वामरसुसमूह-स्वामिकसम्पूजिताय निचिताय । भुवनजनपालनोद्यत-तमाय सततं नमस्तस्मै ।।४।। पथ्या ।। व्याख्या - सततं-निरन्तरं तस्मै-श्रीशान्तये नमः। यत्तदोर्नित्यसम्बन्धात तच्छब्देन यः पूर्वासु व्याख्यातः तस्मै नम इति। किम्भूताय तस्मै? सर्वामरसुसमूहस्वामिकसम्पूजिताय-सर्वे च तेऽमरसुसमूहाश्चदेवानां शोभनव्रजाः, तेषां यः स्वामी-प्रभूरिन्द्रः, स्वार्थे कः, तेन सम्पूजितायसम्यगर्चिताय। .. तथा निचिताय-नि उपसर्गोऽभाववाची बृहन्न्यासे, चितं-चयनम्, कर्मणां न विद्यते चितं यस्याऽसौ निचितः, तस्मै कर्मोपचयरहितायेत्यर्थः । क्वचिद् न जिताय' इति पाठः। तत्र न जिताय-केनाऽपि न पराभूतायेत्यर्थः । तथा भुवनजनपालनोद्यततमाय-भुवनजनानां-विश्वत्रयीलोकानां पालनायरक्षणायोद्यततमः-अतिशयेनोद्यतः सावधानः, उद्यततमः, अतिशायने तम-विष्ठनौ' [पाणि. ५।३।५५] इति अतिशाये तमप्। . अत्रेयन्ति मन्त्रपदानि-'सर्वामरसुसमूहस्वामि[कासम्पूजिताय भुवनजनपालनोद्यताय।' इति [चतुर्थपथ्यार्यार्थः] ||४|| सर्वदुरितौघनाशन-कराय सर्वाशिवप्रशमनाय। दुष्टग्रहभूतपिशाच-शाकिनीनां प्रमथनाय ।।५।। पथ्या ।। व्याख्या-तस्मै नमः, पुनः किम्भूताय? सर्वदुरितोषनाशनकराय-सर्वदुरितौघानां For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 29 श्रुतसागर 29 जनवरी-फरवरी - २०१५ समस्तपापसमूहानां नाशनं-विध्वंसनं करोतीति सर्वदुरितौघनाशनकरः, तस्मै। पुनः किम्भूताय? सर्वाशिवप्रशमनाय-सर्वाण्यशिवानि-अकल्याणानि प्रशमयतिउपशमयतीति सर्वाशिवप्रशमनः, तस्मै सर्वाशिवप्रशमनाय। तथा दुष्टग्रहभूत-पिशाचशाकिनीनां प्रमथनाय-दुष्टग्रहाः-सूर्यादयोऽशुभगोचरवर्तिनः, भूतपिशाचाश्च व्यन्तरभेदाः, ते हि प्रायः स्खलितादौ छलनपराः, शाकिन्यश्च दुष्टमन्त्रस्मरणवत्यः स्त्रियः, तासां प्रमथ्नाति-विलोडयतीति प्रमथनः, तस्मै प्रमथनाय। अत्रेयन्ति मन्त्रपदानि-'सर्वदुरितविनाशनाय सर्वाशिवप्रशमनाय सर्वदुष्टग्रहभूतपिशाच-मारिशाकिनीप्रमथनाय' इति । अत्र मन्त्रे कतिचित् पदान्यर्गलानि न्यूनानि च दृश्यन्ते । तानि सूत्रे कविना छन्दोभङ्गभयान्न लिखितानि। अर्गलानि लिखितानीति सम्भाव्यते। [इति पञ्चमपथ्यार्यार्थः] ।।५।। यस्येति नाममन्त्र-प्रधानवाक्योपयोगकृततोषा। विजया कुरुते जनहित-मिति च नुता नमत तं शान्तिम् ।।६।। पथ्या।। व्याख्या-यस्य-श्रीशान्तः इति-उक्तो वक्ष्यमाणश्च यो नामगर्भितो मन्त्रः-नाममन्त्रः, तेन प्रधानं-मुख्यं यद्वाक्यम्, तस्योपयोगेन-स्वसमीपे योजनेन, तत् स्मरणेनेत्यर्थः, कृतः-विहितो जनानां-भव्यजनानां तोषः-सन्तोषः स्वास्थ्यं यया सा एवं विधा विजयादेवी जनहितं-जनानां हितं-पथ्यं कुरुते। 'हितं पथ्ये गते धृते' [अनेकार्थसंग्रह, २/२१४] इत्यनेकार्थः, यल्लक्ष्यम् 'हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः [किरात, सर्ग-१/श्लोक-४] च-पुनः, इति-प्रत्यक्षं या नुता-स्तुता कविभिः । 'इति स्वरूपे सान्निध्ये, विवक्षानियमे मते। हेतौ प्रकार-प्रत्यक्ष-प्रकाशेष्ववधारणे ।।' [अनेकार्थसंग्रह, परिशिष्टकाण्ड, श्लोक-२८] 'एवमर्थे समाप्तौ स्याद् अवसाने समर्थे' [अनेकार्थसंग्रह, ३/३२९] इत्यनेकार्थः । अत्र मन्त्रपदं नास्ति, तेन न लिलिखे। [इति षष्ठपथ्यार्यार्थः] ।।६।। भवतु नमस्ते भगवति! विजये! सुजये! परापरैरजिते। अपराजिते! जगत्यां जयतीति जयावहेभवति! |७।। पथ्या व्याख्या-हे भगवति! ते-तुभ्यं नमो भवतु। तां भगवती नामभिर्विशेषयति-हे विजये! हे सुजये! अर्थतयोर्विशेषणमाह-किम्भूते? परापरैरजिते-परे चाऽन्ये शत्रवः, अपरे च स्वीयाः, तैरजिते-न जितेऽपराभूते-अजिते। For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 30 January-February-2015 अथ क्रियान्तरयोजनेनाऽपराजितां देवीं दर्शयति हे जयावहे भवति ! जयावहःविजयकारी इभः - करी यानत्वेन विद्यतेऽस्या इति जयावहेभवती, तस्याः सम्बोधने हे जयावहेभवति! हे अपराजिते ! जगत्यां विष्टपे त्वत्सान्निध्याद् भक्तलोक इतिप्रत्यक्षं जयति - सर्वोत्कर्षेण वर्त्तते । अत्रेयन्ति मन्त्रपदानि - 'नमो भगवति! जये! विजये! अजिते! अपराजिते ! जयन्ती[न्ति]! जयावहे !' इति । अत्र मन्त्रगाथयोः समाधिविधिः पूर्ववद्विधेयः । इति [सप्तमपथ्यार्यार्थः] ।।७।। सर्वस्याऽपि च सङ्घस्य, भद्र-कल्याण-मङ्गलप्रददे ! साधूनां च सदा शिव-तुष्टि - पुष्टिप्रदे जीयाः ||८|| व्याख्या-अत्र प्रथमदले आर्यालक्षणमीक्ष्यते, द्वितीय दले तु अष्टाक्षरवृत्तलक्षणम्, परं महाकविप्रयुक्तत्वेन न दोषः । हे भगवति! त्वं जीयाः - जयवती भूयाः । अथ भगवतीं विशेषणैः सम्बोधयति - हे सर्वस्याऽपि च सङ्घस्य - साधु-साध्वी - श्रावक-श्राविकालक्षणस्य, नैकस्यैव, सङ्घस्येति व्यवच्छेदार्थं सर्वस्याऽपि चेत्युक्तम् । भद्रकल्याणमङ्गलानि प्रददातीति भद्रकल्याणमङ्गलप्रददा । अत्र कविनैकार्था एव त्रयोऽपि शब्दा अतिशयद्योतनाय प्रयुक्ताः सम्भाव्यन्ते । अतिशयेन कल्याणदात्रीत्यर्थः । यद्वा भद्रानिप्रशस्यतमानि यानि मङ्गलानि च विपदुपशमरूपाणि, कल्याणानि च सम्पदुत्कर्षरूपाणि तानि प्रददातीति भद्रकल्याणमङ्गलप्रददा, तस्याः सम्बोधने - हे भद्रकल्याणमङ्गलप्रददे । 'भद्रं तु मङ्गले । मुस्तक- श्रेष्ठयोः साधौ, काञ्चने करणान्तरे [ अनेकार्थसंग्रह, २/४५४] इत्यनेकार्थः । ‘ददाति-दधात्योर्विभाषा' [ पाणि. ३ | १ | १३९ ] इति विकल्पेन शः, शित्वात् श्लुकार्यम्, द्वित्वादि, तेन ददः, दधः, पक्षे णः, तथा च दायः, धायः इति । अत्र सोपसर्गत्वेऽपि शः समेतः, तच्चिन्त्यम् । यद्वा समाधिविधिरयम्- 'ददि दाने' [पाणि धातु. १/१७] - अस्य घातोः 'प्रददते इति 'प्रददः' इति रूपं सिध्यति । च-पुनः साधूनाम्-अनगाराणां सदा-नित्यं तुष्टिं च पुष्टिं च धर्मस्य, यद्वा तुंष्टेः - स्वास्थ्यस्य पुष्टिं पोषं प्रददातीति तुष्टिपुष्टिप्रदा, तस्याः सम्बोधने-हे तुष्टिपुष्टिप्रदे! अत्राऽनुपसर्गादेव ‘प्रदः प्रधः' इति। सङ्घपदेन साधवोऽपि समेताः, तर्हि पृथक् साधुपदं किमित्यानीतम् ? उच्यते 'प्रधानत्वात्, यथा सैन्यमायातम्, राजापि समेत इति । यथा वा संयमपदसङ्गृहीतमपि ब्रह्मचर्यपदं पृथक् प्रण्यगादि' । For Private and Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org जनवरी-फरवरी - २०१५ श्रुतसागर अत्रेयन्ति मन्त्रपदानि‘सर्वसङ्घस्य भद्रकल्याणमङ्गलप्रददे। साधूनां श्रीशान्तितुष्टिपुष्टिदे !' इति ||८|| भव्यानां कृतसिद्धे !, निर्वृतिनिर्वाणजननि ! सत्त्वानाम् । अभयप्रदाननिरते!, नमोऽस्तु स्वस्तिप्रदे! तुभ्यम् ।।९।। 31 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्या - अत्रान्तचरणे गुरोरपि लघुता ज्ञेया । पुरत एतदेव स्पष्टीकरिष्यते । अथ व्याख्या विधीयते। हे भगवति! तुभ्यं नमोऽस्तु । अथ विशेषणैः सम्बोधयति - हे भव्यानां कृतसिद्धे ! कृता सिद्धिः - प्रारब्धकार्यनिष्पतिर्यया सा तस्याः सम्बोधने हे कृतसिद्धे ! तथा हे सत्त्वानां-प्राणिनां निर्वृतिनिर्वाणजननि ! निर्वृतिः- सौख्यं, निर्वाणं-मोक्षः, यद्वा सुखमात्रम्, तयोर्जननीव मातेव उत्पादयित्रीत्यर्थः । यद्वा ते जनयतीति जननी, युट्-प्रत्यये रूपम्, तस्याः सम्बोधने - हे निर्वृतिनिर्वाणजननि ! अथ 'निर्वृतिः मोक्षे मृत्य सुखे सौस्थे' [अनेकार्थसंग्रह, ३/२८६] तथा 'निर्वाणं मोक्षनिर्वृत्योः' [अनेकार्थसंग्रह, ३/२२२], तत्र निर्वृतिः सुखमात्रम् [ ] इत्यनेकार्थः । मोक्षदातृत्वमस्याः साक्षान्नघटत इत्यस्वरसादियमर्थघटनाकृतेति(?) । तथा हे अभयप्रदाननिरते!- भयाभावोऽभयम्, तस्य यत् प्रदानं त्यागः, तत्र निरता - आसक्ता, तस्याः सम्बोधने - हे अभयप्रदाननिरते! स्वस्तिप्रदे! स्वस्ति-क्षेमं प्रदतातीति स्वस्तिप्रदा, तस्याः सम्बोधने - हे स्वस्तिप्रदे! यदनेकार्थः- ‘स्वस्त्याशीः -क्षेम - पुण्यादौ [अनेकार्थसंग्रह, परिशिष्टकाण्ड, श्लोक३३] सुपूर्वादस्ते सोरस्तेः शिदिदितौ स्वस्ति, आदिशब्दादविनाशादौ । अत्रेयन्ति मन्त्रपदानि - स्वस्तिदे! भव्यानां कृतसिद्धिवृद्धिनिर्वृतिनिर्वाणजननि! सत्वानामभयप्रदानरते!' इति ।। ९ ।। भक्तानां जन्तूनां शुभावहे ! नित्यमुद्यते ! देवि ! सम्यग्दृष्टीनां धृति-रति-मति बुद्धिप्रदानाय ॥ १० ॥ जिनशासननिरतानां, शान्तिनतानां च जगति जन्तूनाम् । श्री- सम्पत्-कीर्ति - यशो वर्द्धनि ! जयदेवि! विजयस्व ||११|| उभेऽपि पथ्ये [युग्मम्] व्याख्या- हे जयदेवि ! देवि! त्वं विजयस्व - जयवती भव । अथ विशेषणैः सम्बोधयति For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 32 January-February - 2015 - हे भक्तानां - सेवाकर्तृणां जन्तूनां - प्राणिनां शुभावहे-शुभं-कल्याणमावहयतिकारयति स्वसेवकैरिति शुभावहा। आङ् पूर्वकस्य वहतेः करोत्यर्थता। तस्याः सम्बोधने-शुभावहे! तथा हे सम्यग्द्रष्टिनां-सम्यक्त्ववतां धृतिरतिमतिबुद्धिप्रदानाय-धृतिश्च-धैर्य, सुखं सन्तोषो वा, रतिश्च रागः धर्मकरणेऽनुरागः, मतिश्च सत्पथाऽनुसरणे इच्छा, बुद्धिश्च धीः, तासां यत्प्रदानम्, तस्मै धृतिरतिमतिबुद्धिप्रदानाय। नित्यं-सततम् उद्यते! सावधाने! 'धृतिर्योगविशेषे स्याद्, धारणा-धैर्ययोः सुखे। सन्तोषाध्वरयोश्चाऽपि... ।।१।। (अनेकार्थसंग्रह, २/१७८] रतिः स्मरस्त्रियां रागे रते [अनेकार्थसंग्रह, २/ १९४] मतिर्बुद्धीच्छयोः [अनेकार्थसंग्रह, २/१८९] इत्यनेकार्थः। तथा जगति-विश्वे जन्तूनां श्री-सम्पत्-कीर्ति-यशोवर्द्धनि! श्रीश्च कमला, सम्पच्च सम्पत्तिः, तयोः कीर्तिः-विस्तारः, यद्वा- 'दानपुण्यभवा कीर्तिः, पराक्रमकृतं यशः । एकदिग्गामिनी कीर्तिः, सर्वदिग्गामुकं यशः [ ] इति, तानि वर्द्धयति-पल्लवयतीति श्री-सम्पत्-कीर्ति-यशोवर्द्धनी, तस्याः सम्बोधने-हे श्री सम्पत्कीर्तियशोवर्द्धनि! 'कीर्तिर्यशसि विस्तारे, प्रासादे कर्दमेऽपि च। [अनेकार्थसंग्रह, २/१६५] इत्यनेकार्थः । श्लोकः कीर्तिर्यशोऽभिख्ये[ ]-इत्युक्तेः कीर्तियशसोरेकार्थत्वेऽयं विशेषः प्रतिपादितः। किम्भूतानां जन्तूनाम्? जिनशासननिरतानां-जिनमताऽऽसक्तानां च-पुनः शान्तिनतानांशान्तये श्रीषोडश-जिनाय नताः-प्रणताः शान्तिनताः, तेषां शान्तिनतानाम्। अत्रेयन्ति मन्त्रपदानि-'भक्तानां शुभावहे! सम्यग्द्रष्टिनां धृतिरतिमतिबुद्धिप्रदानोद्यते! जिनशासननिरतानां श्रीसम्पत्कीर्तियशोवर्द्धनि! इति [दशमैकादशमपथ्यार्यार्थः] ||१०||११|| सलिलानल-विष-विषधर-दुष्टग्रह-राज-रोग-रणभयतः। राक्षस-रिपुगण-मारि-चौरेति-श्वापदादिभ्यः ।।१२।। अथ रक्ष रक्ष सशिवं, कुरु कुरु शान्तिं च कुरु कुरु सदेति। तुष्टिं कुरु कुरु पुष्टिं, कुरु कुरु स्वस्तिं च कुरु कुरु त्वम् ।।१३।। उभेऽपि पथ्ये।। भगवति! गुणवति! शिव-शान्ति-तुष्टि-पुष्टि-स्वस्तीह कुरु कुरु जनानाम्। ॐमिति नमो नमो ह्रीं ह्रीं हूँ ह्रः यः क्षः ह्रीं फट् फट् स्वाहा ।।१४।। व्याख्या अत्र वृत्ते मन्त्रगर्मितत्वेन छन्दोभेदमवसीयते। अथ व्याख्या वितन्यतेअथेति मङ्गलार्थः । हे भगवति! ऐश्वर्यवति! हे गुणवति! वरदत्वदक्ष्यदाक्षिण्यादिगुणधरे! For Private and Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 23 श्रुतसागर जनवरी-फरवरी · २०१५ त्वं रक्ष रक्ष। केभ्यः? सलिला-ऽनल-विष-विषधर-दुष्टग्रह-राजरोग-रणभयतःसलिलं च जलम, अनलश्चाऽग्निः, विषं च क्ष्वेडः, विषधराश्च सर्पाः, दुष्टग्रहाश्च सूर्यादयोऽशुभगोचरवर्तिनः, राजरोगश्च क्षयरोगः, यद्वा राजानश्च नृपाः, रोगाश्च वातपित्त-श्लेष्मसन्निपातजा व्याधिप्रभेदाः, रणश्च विग्रहः, तेषां यद्भयं-भीः, तस्मात् । तथा राक्षस-रिपुगण-मारी-चौरे-ति-श्वापदादिभ्यः-राक्षसाश्च-रात्रिञ्चराः, रिपुगणाश्च वैरिवृन्दानि, मारी च सर्वलोकव्यापिनीमृतिः, चौराश्च पाटच्चराः, ईतिश्च धान्याधुपद्रवकारी प्रचुरो मूषिकादिप्राणिगणः, श्वापदाश्च हिंस्रा व्याघ्रादयः, ते आदिर्येषां दुष्टव्यन्तरादीनाम्, तेभ्यः । तथा सशिवं-सकल्याणम्, 'लक्ष्मीवृन्दम्' इत्यध्याहार्यं व्याख्येयम्, कुरु कुरु । यत्र 'सुशिवम्' इति पाठस्तत्र तु चारुतैव, नाऽध्याहारः कर्त्तव्यः। च-पुनः सदा नित्यम् इति-प्रत्यक्ष शान्तिं कुरु कुरु। तथा तुष्टिं-तोषं कुरु कुरु। तथा पुष्टिं-सुखपोषं कुरु कुरु। तथा स्वस्तिं च कल्याणं कुरु कुरु। च:समुच्चये। ननु 'स्वस्ति' इत्यस्याऽव्ययत्वात् कथं 'स्वस्तिम्-इत्यत्रम् स्वाद्युत्पत्तिउच्यते? तत्प्रतिरूपकः शब्दोऽयम्, इत्यत एतत्प्रयोगस्याऽदुष्टत्वम्, भागवतेऽप्यस्य शब्दत्वेन भणनात् 'त्वं पद्रथानां किल युथपाधिपो-घटस्व नो स्वस्तय आश्वनूह' [भागवत] इति। तथा खण्डप्रशस्तावपि-'समस्तनिगमस्तुतो नृहरिरस्तु नः स्वस्तयः [खण्डप्रशस्ति] इति। अत्र पथ्यायामन्तचरणे 'कुरु कुरु स्वस्तिं च कुरु कुरु त्वम् इति लक्षणेऽयं समाधिविधिः-'लघुताऽपि क्वचिद् गुरोः' इत्यत्र क्वचिद्ग्रहणं लक्ष्यानुरोधार्थम्। तेन ह्रादिकसंयोगे पुरः स्थिते पादादावपि लघोर्गुरुत्वाभावः। यथा दर्शनं हादिकसंयोगे यथा- तव ह्रियापह्रिया मम हीरभूत, शशिग्रहेऽपि हृतं न धृता ततः। बहुलभ्रामरमेचकतामसं, मम प्रिये! क्व समेष्यति तत्पुनः? ||१|| [ ] तथा- 'धनं प्रदानेन श्रुतेन की [ ] इत्यादि । तथा शिव-शान्ति-तुष्टि-पुष्टिस्वस्ति इह-सङ्घ जनानां भक्तालोकानां कुरु कुरु। शिवञ्च शान्तिश्च तुष्टिश्च पुष्टिश्च स्वस्ति च समाहारे द्वन्द्वैकत्वे शिवशान्तितुष्टिपुष्टिस्वस्ति। 'ओमिति' इति पादपूरणे। अन्यानि पुरतो मन्त्रपदान्येव। अत्र वृत्तत्रये मन्त्रपदान्यमूनि-'रोगजलज्वलनविषविषधर दुष्टज्वरव्यन्तरराक्षसरिपुमारिचौरईतिश्वापदोपसर्गादिभयेभ्यो रक्ष रक्ष, शिवं कुरु कुरु, तुष्टिं कुरु कुरु, पुष्टिं कुरु कुरु, ॐ नमो नमः हूं ह्रः यः क्षः ह्रीं फट् फट् स्वाहा। फडिति For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 34 January-February - 2015 विघ्नोत्सारणे, ‘फड् हन्ति [अव्ययशब्दवृत्ति, सूत्र-७२] इति अव्ययशब्दवृत्तौ । शान्तिस्तवसूत्रे तु 'ह्रां ह्रीं' इति वर्णद्वयमधिकं दृश्यते, तत्स्वरूपं न विद्मः । अत्र पूर्ववृत्तेषु पृथक् पृथञ् यानि मन्त्रपदान्युक्तानि तानि साकल्येन दर्श्यन्ते- ॐ नमो भगवतेऽर्हते शान्तिनाथस्वामिने सकलकलातिशेष कामहासम्प-त्समन्विताय त्रैलोक्यपूजिताय नमो नमः शान्तिदेवाय सर्वाम[सुसमूहस्वामिसम्पूजिताय भुवनजनपालनोद्यताय सर्वदुरितविनाशनाय सर्वाशिवप्रशमनाय सर्वदुष्टग्रहभूतपिशाचमारिशाकिनीप्रमथनाय नमो भगवति! जये! विजये! अजिते! अपराजिते! जयन्ती(न्ति)! जयावहे! सर्वसङ्घस्य भद्रकल्याणमङ्गलप्रदे! साधूनां श्रीशान्तितुष्टिपुष्टिदे! स्वस्तिदे! भव्यानां सिद्धिवृद्धि-निवृतिनिर्वाणजननि! सत्वानामभयप्रदान[निारते! भक्तानां शुभावहे! सम्यग्दृष्टीनां धृतिरतिमतिबुद्धिप्रदानोद्यते! जिनशासननिरतानां श्रीसम्पत्कीर्तियशोवर्द्धनि! रोगजल-ज्वलनविषविषधरदुष्टज्वरव्यन्तरराक्षसरिपुमारिचौरईतिश्वापदोपसर्गादिभयेभ्यो रक्ष रक्ष, शिवं कुरु कुरु, [3] तुष्टिं कुरु कुरु, पुष्टिं कुरु कुरु, नमो नमः हूँ ह्रः यः क्षः ह्रीं फट् फट् स्वाहा। [इति द्वादश-त्रयोदश-चतुर्दशकाव्यत्रयार्थः ।। ||१२||१३||१४।। एवं यन्नामाक्षर-पुरस्सरं संस्तुता जयादेवी। कुरुते शान्तिं नमतां, नमो नमः शान्तये तस्मै ।।१५।। इयं पथ्या व्याख्या-तस्मै शान्तये नमो नमः। तच्छब्दो यच्छब्दमपेक्षते। "एवम्' इति प्रकृतपरामर्श, एवम्-अमुना प्रकारेण यन्नामाक्षरपुरस्सरं यस्य-श्रीशान्तेः नामाक्षरे'शान्ति इति वर्णद्वये पुरस्सरे-मुख्ये यत्र-संस्तवे, तक्रियाविशेषणम्, संस्तुता सती जयादेवी नमतां-प्रणामं कुर्वतां शान्तिं कुरुते। [इति पञ्चदशमपथ्यार्यार्थः] ।।१५।। इति पूर्वसूरिदर्शित-मन्त्रपदविदर्भितः स्तवः शान्तेः। सलिलादिभयविनाशी, शान्त्यादिकरश्च भक्तिमताम् ।।१६ ।। पथ्या व्याख्या-इति-उक्तप्रकारेण पूर्वसूरिभिः-पूर्वाचार्यैः दर्शितैः-गुर्वामन्यायपूर्वकं प्रकाशितैः मन्त्रपदैर्विदर्मितः-विरचितः शान्तेः स्तवः सलिलादिभयं विनाशयतीत्येवं शीलः सलिलादिभयविनाशी, च-पुनः शान्तिरादिरेषां तुष्टिपुष्ट्यादीनां ते शान्त्यादयः, तान् करोतीति शान्त्यादिकरः। केषाम्? भक्तिमतां-भक्ता नाम्। ननु 'विदर्भितः' १. आ कृति प्रायः अद्यावधि अप्रकाशित छे. ज्ञानमंदिरमा संगृहीत प्रत क्रमांक ३२३६२ ना आधारे आ सूत्रसंख्या जणावी छे. प्रतमां सूत्र ‘फट् विघ्न प्रनिह ऊत्सरणे' आ रीते मळे छे:-संपा. For Private and Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 35 श्रुतसागर जनवरी-फरवरी - २०१५ इति कथं स्यात्, यतः 'दृभैत् ग्रन्थे' [सिद्ध. धातु. ५७५] ऐदित्वानेद्, 'दृब्धः, दृब्धवान्' इति स्यात्। उच्यते-'भूवादिगणाः स्वार्थणिजन्ता अपि बहुलं भवन्ति-यथा रामो राज्यमकारयत-अकरोदित्यर्थः । तथा तौदादिकोऽपि णिजन्तोऽयं विदर्भितःविदृब्ध इत्यर्थः। [इति षोडशपथ्यार्यार्थः] यश्चैनं पठति सदा, श्रृणोति भावयति यो यथायोगम्। स हि शान्तिपदं यायात्, सूरिश्रीमानदेवश्च ।।१७।। पथ्या ।। व्याख्या-यः पुरुष एनं स्तवं सदा-नित्यं पठति-व्यक्तवाचा भणति, च-पुनः यः श्रृणोति-कर्णाभ्यामाकर्णयति, तथा यः यथायोग-योगः-ध्यानम्, प्रस्तावाद्धर्मध्यानम्, तमनतिक्रम्य यथायोगं भावयति-ध्यायति, स हि स्फुटं शान्तिपदं-शान्तिस्थानं मोक्षमिति यावत्, यद्वा शान्तिरूपं पदं-वस्तु यायात्-प्राप्नुयात्। 'पदं स्थाने विभक्त्यन्ते, शब्दे वाक्येक वस्तुनोः [अनेकार्थसंग्रह, २/२३२] इत्यादि। 'हिः' इति स्फुटार्थे हेतौ च। च-पुनः सूरिश्रीमानदेवः शान्तिस्तवकर्ता शान्तिपदं यायात्। एतावता ग्रन्थका स्वनामापि दर्शितम्। [इति सप्तदशमपथ्यार्यार्थः] ।।१७।। - ।। इति वाचनाचार्यश्रीप्रमोदमाणिक्यगणि-शिष्यनयसोमोपाध्याय शिष्यवाचनाचार्य-श्रीगुणविनयैः श्रीबिल्वतटपूरे ।। सं. १६५९ वर्षे युगप्रधानश्रीमज्जिनचन्द्रसूरिराज्ये आचार्यश्रीजिनसिंहसूरिपल्लवितसाधुसाम्राज्यप्राज्ये विरचितेयं श्रीशान्तिस्तववृत्ति यथामति विशोध्याऽऽगमाम्नायविद्भिः विद्वद्भिः। अनावगमात् स्मृत्याभावाद् गम्भीरार्थत्वाच्च यः कोऽपि सम्यगर्थोऽत्र न प्रणीतः, तत्र वृत्तिप्रणेतुर्न दोषश्चेतसि धार्यः, किन्तु विचार्योत्सार्य इति वृत्तिकृद्विज्ञप्तिरिति। श्रीक्षेमशाखासु बभूवुरुत्तमाः, श्रीक्षेमराजा रजताभकीर्तयः। तत्पट्टपूर्वाचलचूम्बिभानवः, प्रमोदमाणिक्यसुवाचका बभुः ।।१।। यत्पावं मुमुचुर्न चाद्भुतगुणैः शोभारती भारती। यत्कीर्तिः सकलामिलामलमयासीन्निर्मलाऽपि प्रिया। स्वैरं यत्प्रमदा स्वभावसलभं स्त्रीचापलं को जनः?| शक्तो वारयितुं भवेद् भुवि भवानीशोपमाधार्यपि ।।२।। मद्गुरवः सुरतरव-स्ते श्रीजयसोमपाठकाः प्रभवः। तत्पट्टे विजयन्ते, प्रीतिकराः सर्वलोकानाम् ।।३।। युग्मम् ।। For Private and Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra SHRUTSAGAR www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 36 तेषामादेशवशाद् वृत्तिमिमां समदृभद् वरां सुगमाम् । वाचकगणिगुणविनयो, यथामति स्वपरहितहेतोः ||४|| January-February-2015 विशोध्येयं बुधैर्बुध्या, विचार्य गतमत्सरैः । महतामपि यतो मोहः, किमन्येषां तपस्विनाम् ||५|| ।। श्रीशान्तिनाथप्रासादात् श्रीशान्ति-तुष्टि-पुष्टयो भवन्तु । पण्डितश्रीक्षेमरङ्ग-गणिशिष्य-पण्डितप्रेममन्दिर-मुनिभ्यो दत्ता स्वहस्ताभ्यां लिखित्वा वाचनाय शान्ति-स्तववृत्तिरियं वाचनाचार्य श्रीगुणविनयैः ||छ । || पाटणमध्ये ।। ग्रन्थाग्रन्थ- श्लो. २३५।। । श्री पीपाडिनगरे । महावीरालय का २८वाँ वर्षगांठ समारोह हर्षोल्लासपूर्वक मनाया गया परम पूज्य राष्ट्रसन्त आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज साहब की प्रेरणा से निर्मित एवं सकल जैन श्री संघ के सहयोग से संचालित जैन समाज का गौरव कोबातीर्थ पर निर्मित महावीरालय का २८वाँ वर्षगांठ समारोह पूज्य राष्ट्रसन्त के शिष्यद्वय परम पूज्य जापमग्न आचार्यदेव श्री अमृतसागरसूरीश्वरजी महाराज एवं परम पूज्य ज्योतिर्विद् आचार्यदेव श्री अरुणोदयसागरसूरीश्वरजी महाराज आदि ठाणा की पावन निश्रा में मनाया गया. दिनांक १ एवं २ फरवरी, २०१५ को विशिष्ट अनुष्ठान का आयोजन किया गया. प्रथम दिन महावीरालय में मूलनायक भगवान का १८ अभिषेक पूजन किया गया तथा द्वितीय दिन सत्तरभेदी पूजा की गई. इसके पश्चात् महावीरालय, गुरुमंदिर एवं रत्नमंदिर पर ध्वजारोहण किया गया. For Private and Personal Use Only इस पावन अवसर पर पूज्य साधु-साध्वीजी भगवन्त, तीर्थ के ट्रस्टीगण, कारोबारीगण एवं बड़ी संख्या में श्रावक-श्राविकाओं ने उपस्थित होकर पुण्यलाभ लिया. महावीरालय को अच्छी तरह से सजाया गया था. उपस्थित सभी लोगों के लिए साधर्मिक भक्ति की सुंदर व्यवस्था की गई थी. Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कृतादि भाषाना व्याकरण, कोष, छंद, काव्य अने अलंकारविषयक केटलाक प्रधान ग्रंथोनी एक टुंकी यादी मुनि जिनविजय आ नीचे आपवामां आवेली यादी एक जूना हस्तलिखित पाना उपरथी उतारेली छे. जे पानामां आ यादी लखेली छे तेनुं कद लगभग सवा दस इंच लांबु अने ४।। इंच पहोळुं छे. डाबी बाजुए अडधो इंच जेटलो भाग कोरो छोडी, बाकी बधो भाग बने बाजुए खीचो खीच लखाणथी भरेलो छे छेवटे लख्या प्रमाणे कोइ कांतिविजय नामना जैन यति के साधुए आ यादी लखेली छे. लख्यानी साल आपेली नथी तेथी ए यादी केटला वर्षनी जूनी छे ते चोक्कस कही शकाय नही. · आ छल्ला ४ सैकामां कांतिविजय नामना केटलाय जैन यति-साधु थइ गला होवाथी मात्र लखनारना नाम उपरथी कोइ पण जातनो कालनिर्णय बांधवो ते प्रमाणभूत नही ज गणी शकाय. पण कागळनां रूप-रंग जोतां लगभग २५०३०० वर्ष जेटली ए यादी जूनी होवानो संभव होइ शके. लखाणनी शैली उपरथी जणाय छे के कोइ पण खास एक पुस्तकभंडारनी तो ए यादी नथी. एटले गणि कांतिविजयजीए कां तो कोइ जूनी यादीनी नकल करेली होवी जोइए, अने कां तो तेमणे पोतानी जाणमां के जोवामां आवेलां पुस्तकोनी आ नवी ज नोंध तैयार करेली होवी जोईए. आमांनो पहेलो तर्क मने वधारे संभवित लागे छे, कारण के, आ यादीमां जे ग्रंथोनी नोंध करेली छे ते बधा विक्रमना पंदरमा सैकानी पहेलानां रचायेला छे. ए सैका पछीना एके ग्रंथनी नोंध आमां नथी. महालना जमानामा जाहेर पुस्तकालयो माटे के खानगी ग्रंथ संग्राहको माटे पसंद करेला पुस्तकोनी नानी मोटी यादीओनी लोकोने अपेक्षा रह्यां करे छे अने ए अपेक्षानुसार अवार-नवार मासिक पत्रादिकोमां एवी यादीओ प्रगट थती रहे छे तेम आगळना समयमां पण केटलेक अंशे थतुं हतुं. जूना ग्रंथालयोमां आवी अनेक यादीओ मळी आवे छे जे विद्वानोए पोतानी जाण माटे के पुस्तक भंडारो बनावनाओ माटे तैयार करेली होय छे. आ जातनी यादीओमांनी एक मोटी यादी, जैन साहित्य संशोधक नामना For Private and Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 38 January-February-2015 मारा त्रैमासिक पत्रना पहेला खंडना बीजा अंकमां प्रकट करेली छे. ते यादीमां लगभग साडा छसो जेटला ग्रंथोनी नोंध करेली छे. यादीना कर्तानुं नाम जड्युं थी परंतु ते कोइ सारा विद्वान जैन साधु होइ वि. सं. १५०० नी आसपासमा थई गएला होवा जोइए. तेनी लखवानी पद्धति उपरथी जणाय छे के तेणे ते यादी पाटण, जेसलमेर, खंभात, लींबडी, भरूच इत्यादि ठेकाणेना प्रसिद्ध अने प्राचीन पुस्तक भंडारो नजरे जोइने तैयार करेली छे अने ते पण घणी ज सावधानतानी साथे. ते यादीमां ग्रंथनुं नाम, ग्रंथकारनुं नाम, ग्रंथनुं श्लोकप्रमाण अने मळ्यो तेटलो ग्रंथनो रचनाकाल - आटली बाबतोनी नोंध लीधी छे. ज्यां जरूर जणाइ त्यां ग्रंथनी भाषा, रचना के विषयनी बाबतमां पण 'रिमार्क' करी छे. एक दाखलो आपु. शत्रुंजय माहात्म्य नामनो एक ग्रंथ जैनसंप्रदायमां सुप्रसिद्ध छे. फार्बस साहेबे पोतानी रासमालानुं पहेलुं प्रकरण ए ज ग्रंथना आधारे लख्युं छे. ए ग्रंथना कर्ता कोइ धनेश्वरसूरि नामना जैन विद्वान छे अने ग्रंथमां छेवटे तेनो रचनाकाल विक्रम संवत् ४७०लखेलो छे. परंतु ए माहात्म्यमां छेक बारमा सैकामां थइ गएला कुमारपालादिनी पण हकीकत आवेली होवाथी डॉ. ब्युल्हरे तेमांना रचनाकालने कृत्रिम गणी ते कोइ आधुनिक रीते कल्पित प्रायं, आधुनिक धनेश्वरीयम् (अर्थात् कल्पित अने आधुनिक धनेश्वरनुं बनावेलुं) आवी नोंध करी ग्रंथमां आपेली ४७०नी सालने खोटी जणावी छे. अहिं आपवामां आवेली यादी, ते यादी करतां बहु नानी छे. पण ते यादी ज्यारे जैनसाहित्यनी दृष्टिए ज तैयार करेली छे त्यारे आ यादी सर्वसामान्य एवा प्रजाकीय साहित्यनी दृष्टिए तैयार करेली छे, ए एनी विशिष्टता छे. आमां मात्र संस्कृत-प्राकृत भाषा अने साहित्य ए बे विषयोने उपयोगी अने आवश्यक होय एवा ज ग्रंथोनी नोंध छे. तेथी धर्म, संप्रदाय के दर्शनविषयक ग्रंथोने आमां स्थान आपवामां आव्युं नथी. संस्कृत अने प्राकृत साहित्यना साधारण अध्ययन माटे, गुजरातमां ए जूना कालमां, खास करीने कया कया ग्रंथो लोकोने प्रिय थइ पड्या हता, ए बाबत आ यादी उपरथी घणी स्पष्ट रीते जणाइ आवे छे. ग्रंथोनो विषयवार विभाग करतां आमां व्याकरण, कोष, छंद, काव्य अने अलंकार आ रीते पांच प्रकारना ग्रंथो नोंधेला मळी आवे छे. For Private and Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर 39 जनवरी-फरवरी - २०१५ गुजरातमां व्याकरण ग्रंथोमां पहेलुं स्थान कालापकने अने बीजुं स्थान कातंत्रने मळेलुं हतुं. गुजरातमां रचायेला ग्रंथोमां प्रमाणरूपे ज्यां व्याकरणना सूत्रो मळी आवे छे त्यां मोटे भागे आ ज बे व्याकरणनां होय छे. पाणिनीना व्याकरणनुं अध्ययन-अध्यापन गुजरातमा घणुं ओर्छ थतुं. गुजरातनी माफक बंगाळमां पण जूना जमानानां, मोटे भागे आ बंने व्याकरणोनो प्रचार वधारे हतो ए वात बंगाळी विद्वानोए ए व्याकरणो उपर लखेली संख्याबंध टीका वगेरेथी जाणी शकाय छे. जैनेतर विद्वानोनी माफक जैन विद्वानोए पण ए ग्रंथो उपर घणां टीकाटिप्पण लख्यां छे ते उपरथी जैनोमां पण ए संपूर्ण सिद्धहेमशब्दानुशासन नामे व्याकरणना प्रादुर्भाव पछी जैनसमाजमांथी उक्त जूनां व्याकरणोनो आदर ओछो थयो. हेमचंद्रनी जेम बीजा पण जैन विद्वानोए व्याकरण उपर स्वतंत्र रचनाओ करेली छे परंतु तेमांनी कोइने पण हेमचंद्रनी रचना जेवं विशेष स्थान मळ्युं नथी. आ यादीमां हेमचंद्रना उपरांत चार स्वतंत्र व्याकरण ग्रंथो जैन विद्वानोना छे. १. विद्यानंद २. मुष्टिव्याकरण ३. जैनेन्द्रव्याकरण अने ४. शाकटायन व्याकरण. व्याकरणविषयक जेटला ग्रंथोनां नाम आ यादीमा आप्यां छे तेमां नं. ८ प्रमेयपद्यावली, नं. २४ सज्जनरंजनव्याकरण, नं. ५६ दुर्गाचार्यकृत प्राकृतव्याकरण, नं. ६० श्रीभोजकृतप्राकृतव्याकरण वगेरे ग्रंथ खास ध्यान खेंचे एवा छे. आ ग्रंथो वर्तमानमा क्यांये पण जाणमां नथी. दुर्गाचार्य अने भोजकृत प्राकृत व्याकरणश्लोक प्रमाण ४००० जेटलुं लख्युं छे. ए जोतां प्राकृत भाषा माटे ए व्याकरणो घणां ज विस्तृत अने तेटला माटे विशेष उपयोगी होवां जोईए. कोषग्रंथोमां नं. ६४ मां नोंधेली धनपाल पंडितनी नाममाला, अने ६५मां नोंघेली लावण्यवतीनाममाला खास ध्यान खेंचे छे. धनपालनी रचेली पाइयलच्छी नामे प्राकृत नाममाला तो उपलब्ध छे परंतु तेनी श्लोक संख्या जूज छे. ज्यारे आमां नोंधेली नाममालानी श्लोक संख्या १८०० छे तेथी प्राकृत करतां आ नाममाला जूदी ज होवी जोइए, अने ते संस्कृत नाममाला होय एम संभवे छे. । धनपाले संस्कृतनो शब्दकोष रच्यो हतो तेनो पुरावो तो खुद हेमचंद्राचार्यना १. प्राचीन समयमां ग्रंथोनुं माप श्लोकथी कहाडवामां आवतुं. श्लोक एटले के अनुष्टुपना चार पादमां आवे छे ते प्रमाणे ३२ अक्षरोनो समूह. आ मापे अक्षरोने गणी ग्रंथ- श्लोकपूर नक्की करवामां आवतुं. For Private and Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 40 January-February-2015 ग्रंथोमांथी ज मळी आवे छे. कारण के तेमणे पोताना अभिधानचिंतामणि नामे संस्कृत कोषनी टीकाना प्रारंभमां ज 'व्युत्पत्तिर्धनपालतः ' एवो उल्लेख करी शब्दोनी व्युत्पत्तिना विषयमां धनपालना कोषने प्रमाणभूत मान्यो छे. एवी ज रीते देशी नाममालानी टीकामां पण धनपालनो नामोल्लेख करेलो मळी आवे छे. आ कोष हालमां क्यांये पण मळी आवतो नथी. आवी ज रीते लावण्यवती नाममाला पण क्यांये जोवा जाणवामां नथी. लावण्यवती ए स्त्रीवाचक विशेषणनो तात्पर्य शो हशे ते खास जिज्ञासा उत्पन्न करे छे. काव्यग्रंथोमां श्रीहर्षकृत नैषधमहाकाव्यनी बे त्रण टीकाओ (नं. ८४, ८६, ८७)नी नोंध तरफ ध्यान खेंचाय छे. नं. ८४मां जणाव्या प्रमाणे ए महाकाव्य उपर खुद कविना पौत्र नामे कमलाकरगुप्ते मोटुं भाष्य रच्युं छे जेनी श्लोक संख्या ६०००० लखेली छे. संख्यासूचक आंकडाओमां जो कोइ जातनी भूल न होय तो आ भाष्य केलं मोटुं अने विस्तृत हशे तेनी कल्पना ज करवी कठिन छे. संख्यानी वातनो विचार न करीए तो पण कमलाकरनी कृतिनी दृष्टिए तो एमां नवीनता छे ज. ए नाम अने ग्रंथ आउफ्रेक्ट वगेरेनी सूचिमां क्यांए दृष्टिगोचर थतां नथी. मुनिचंद्रसूरिकृत अने माथुर पं. गदाधर कृत टीकाओनां नामो पण बीजे क्यांए जडतां नथी. नैषधकाव्यना कर्ताना समय परत्वे विद्वानोमां जे घणा लांबा समयथी मतभेद चाल्यो आव्यो छे तेनो निकाल, कदाचित् आ टीकाओ उपलब्ध थवाथी थइ शके. बीजां काव्योमां, वाल्मिकी (कायस्थ) पं. केशवादित्यरचित कृष्णक्रीडित ( नं. ९५ ) नुं नाम पण नवुं ज छे. नं. १०० मां प्राकृत भाषाना पांच महाकाव्योनुं सूचन छे पण लेखके मात्र वाक्पतिराजना गौडवध काव्य सिवाय बीजांनां नामो आप्या नथी तेथी ए जिज्ञासा तो अपूर्ण ज रहे छे के गौडवध जेवां बीजां प्राकृतना ४ महाकाव्यो कयां हशे . पण आथी एटलुं समजाय छे के संस्कृतना जेम पंच महाकाव्य पठन-पाठनमां सुप्रसिद्ध छे तेम प्राकृतना पण तेवा पांच काव्य ए वखते प्रचारमां हशे ओसवाल गच्छीय पं. देवचंद्रकृत महिमांकमहाकाव्य (नं. १०१) नुं नाम पण बीजे ठेकाणे जोवामां आव्युं नथी. नाटक साहित्यमां नं. १०५ अने १०६मां नोंधेल काकुस्थ केलिनाटक ( मलधारी नरेन्द्रप्रभसूरि विरचित) अने उल्लाघराघव पण हजी जाण्यामां नथी. छेल्लानो For Private and Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर 41 जनवरी-फरवरी - २०१५ कर्ता सोमेश्वर ते घणुं करीने कीर्तिकौमुदी अने सुरथोत्सव काव्योनो कर्ता गुर्जरेश्वर पुरोहित सोमेश्वर होवानो संभव छे. हेमचंद्राचार्यना प्रधान शिष्य महाकवि रामचंद्रना नाटक समूहमां (वनमालिकानाटिका (नं. १११) अने मल्लिकामकरंदनाटक' (नं. १२३) बंने अद्यापि अप्राप्त छे. वेणीसंहार ए प्रसिद्ध अने प्रचलित नामने बदले आ यादीमां वेणीसंवरण आपेलुं नाम विचारणीय छे. नाटकग्रथितवस्तुने ए नाम वधारे अनुगत लागे छे, अने Montgomery Schuyler ना ABibliography of the Sanskrit Drama (संस्कृत नाटक ग्रन्थसूचि) नामना ग्रंथमां पण एक जग्याए ए नाम मळी आवे छे खरुं. पं. रामचंद्रकृत प्रबंधशतनुं नाम खास ध्यान खेंचे छे. ___ आ पं. रामचंद्र ते उपर जणावेला हेमाचार्यशिष्य महाकवि रामचंद्र ज छे. प्रबंधचिंतामणि वगेरेमां रामचंद्रने प्रबंधशत कर्ता- खास विशेषण लगाडेलु मळी आवे छे. ते उपरथी केटलाक विद्वानो एम समजता हता के रामचंद्रे एकंदर बधा मळीने १०० प्रबंधोनी रचना करी हशे अने तेना लीधे तेमने आ विशेषण प्राप्त थयुं हशे. परंतु आ उल्लेख जोतां प्रबंधशत ए शतसंख्यापरिमित प्रबंध सूचक नथी पण ए नामनो आ खास ग्रंथ ज तेमणे करेलो हतो, एम हवे स्पष्ट समजाइ जाय छे. आ ग्रंथ खास करीने साहित्यनी रचनाविषयक होवो जोइए कारणके यादीमां द्वादशरूपक-नाटकादिस्वरूपज्ञापक तरीके आनो जे टुंको परिचय आप्यो छे ते उपरथी तदंतर्गत विषयनो आभास थइ जाय तेम छे. बीजी एक वात पण एमां ध्यान आपवा लायक छे. साधारण रीते अन्यान्य साहित्यरचना विषयक ग्रंथोमां रूपक दस गणाव्या छे अने ए संख्याने लइने धनंजये पोताना ग्रंथनु नाम पण दशरूपक राख्युं छे. परंतु आमां रूपकनी संख्या बारनी आपी छे. कविना गुरु आचार्य हेमचंद्रे पोताना काव्यानुशासनमां, जे बार वस्तुओ रूपक तरीके आपी छे तेने ज वधारे विस्तृतरूपमां अने प्रमाणरूपमा स्थापित करवा माटे तो आ ग्रंथमा प्रयत्न करवामां न आव्यो होय? ग्रंथ- श्लोक प्रमाण जोतां ते घणो विस्तृत अने विशेष विवेचनवाळो होवो जोईए. एकला रूपकनी ज चर्चा करतो आटलो मोटो ग्रंथ संस्कृतमां बीजो सांभळवामां नथी. १. लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अमदावाद द्वारा प्रकाशित For Private and Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 42 SHRUTSAGAR January-February - 2015 आ यादीमा गुणाढ्यनी बृहत्कथानी पण नोंध छे. तेनं श्लोकप्रमाण २४००० जेटलुं लख्युं छे, अने तेने दिव्य प्रबंधोवाळी बतावी छे. आपणे जाणीए छीए तेम तो ए अद्भुत कथा घणा समयथी लुप्त थएली छे. परंतु आ यादीनी नोंध उपरथी तो एम जणाय छे के ए वखते ते कथा उपलब्ध होवी जोईए. अलंकारना ग्रंथोमांना काव्यप्रकाशने कर्ताना नाम उपरथी मम्मटालंकार एवँ बीजुं नाम आपेलुं जणाय छे. मम्मटने राणानुं विशेषण आपेलुं छे ते काश्मीर तरफ जे राजानक शब्द प्रचलित छे तेनुं गुजरातीओए करेलुं अपभ्रष्ट रूप होय तेम लागे छे. ए ग्रंथ उपर पहेली टिप्पणी जयानंदे करेली ते आ यादीमां नोंधेली छे, ए टिप्पणी अद्यापि क्याए जाणमां आवी नथी. बीजुं टिप्पण माणिक्यसूरिनुं छे जे हवे छपाइ गयुं छे. (आनंदाश्रम संस्कृत सिरीझ) त्रीजुं टिप्पण सोमेश्वरकृत छे. आ सोमेश्वरने घणा खरा विद्वानो उपर एक ठेकाणे जणावेलो गुर्जरेश्वर पुरोहित सोमेश्वरदेव माने छे पण श्रीसुशील कुमार दे पोताना संस्कृत काव्य शास्त्रना इतिहासमां (Studies in the History of Sanskrit Poetics) जणाव्युं छे तेम, ए सोमेश्वर, गुर्जरेश्वर पुरोहित करतां भिन्न छे. तेना माटे एक वधारानुं प्रमाण आ यादी पण आपे छे. आमां ए सोमेश्वरने गौड कहेलो छे. महा महोपाध्याय झळकीकर एनुं निवासस्थान कनौज जणावे छे ते आ उल्लेखथी पुष्ट थाय छे. काव्यप्रकाशनुं १२००० श्लोक प्रमाण एक विस्तृत विवरण आ यादीमां नोध्यु छ जेनो कर्ता एरंडउलि (एरंडोल) नो वासी कोइ एलदेव छे. ए विवरण अने ग्रंथकार बने हजी अज्ञात छे. __मम्मटनो रचेलो एक सूक्तकोष पण यादीकारे नोंध्यो छे. तेनो पण पत्तो लाग्यो नथी. आ सिवायना बीजा पण केटलाक नाना मोटा ग्रंथो आ नानकडी यादीमां एवा छे के जे हजी जोवा-जाणवामां नथी आव्या. विद्वान शोधको आ तरफ लक्ष आपे अने आवी यादीओ द्वारा प्राचीन साहित्य उपर, पोतानी जाणमां आवती हकीकतनो प्रकाश पाडे एवी इच्छाथी आटली नोंध लीधी छे अने वाचको समक्ष आ यादी मुकी छे. व्याकरण-कोषग्रन्थाः १. कालापकसूत्र ५००, आदि ३००, लिंग. १०० २. हलायुधनाममाला १३०० For Private and Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रुतसागर ३. कालापकवृत्ति - प्रथमा ४. द्वितीया वृत्तिस्तु ५. परिभाषावृत्तिग्रन्थ ६. उपनिबन्ध पंजि (का) विद्यानन्द ७. ८. प्रमेयपद्यावली ९. धातुपारायण १०. लिंगानुशासन टीका ११. हलायुध टीका १२. कातंत्र दीपिका १३. विचित्रढूंढादुर्ग टी. १४. अमरकोश टीका www.kobatirth.org २१. कृद्वाक्य २२. उणादिवाक्य - अन्येपि बहव उपनिबन्धाः सन्ति । 43 - १५. अमरकोशसूत्र १६. धर्मघोषकृत कातंत्रभूषण १७. अत्रैवकातंत्रविस्तरसंज्ञकव्याकरणं कृतं सूत्रं १८. टीका १९. श्री राजशेखरसूरिकृतं वृत्तित्रयनिबद्धं ढूंढं सहस्र २०. आख्यातस्यैवोपरि - रोहिलु पाछडु ढेचड टीप्पणानि ३ उच्छिन्नानि । - कालापकसूत्रकर्ता शर्ववर्मा, वृत्तिकर्ता दुर्गसिंहो वररुचिश्च । २३. सारस्वतव्याकरणं सूत्र २००० सालवाहननृपकृतं । २४. सज्जनरंजनव्याकरणं -सूत्रादि एवंकारक Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only जनवरी-फरवरी - २०१५ ११० १५०० १००० ९०००, त्रिलोचनकविः १२००० १५००० ५००० २००० ५००० १५००० १२००० १२००० २२०० २४००० १३०० १३००० ७ ८००० | १५०० १५०० १५०, वृत्ति १५००० ग्रंथ | Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra SHRUTSAGAR 44 २५. जैनेन्द्रव्याकरणं-सूत्र - आदिलिंगनाममालाधातुपारायण श्री महावीरकृतं दिगम्बरैः पठ्यते । २६. शकटाचार्यकृतं शाकटायनं व्याकरणं सहस्र २७. चन्द्रपण्डितकृतं चान्द्रव्याकरणं ३१. २८. पाणिन्याचार्यकृतं पाणिनीयव्याकरणं सूत्र २९. टीका २४००० काशिका नाम ३०. मुष्टिव्याकरणं मलयगिरिकृतं हैमव्याकरणं सूत्र आदि ३००, लिंग २००, - www.kobatirth.org ४०. परिभाषावृत्ति ४१. धर्मघोषकृतन्यास ४२. रामचन्द्रकृतन्यास ४३. कृद्वाक्य ४४. उणादिवाक्य ३२. नाममाला ३३. शेषनाममाला ३४. शब्दभेदप्रकाशनाममाला ३५. देशीयनाममाला ३६. अनेकार्थ ३७. निघण्टु ३८. लघुवृत्ति ६००० काकलकायस्थकृता ३९. श्रीहेमसूरिकृतबृहद्वृत्ति ४५. धातुपारायण ४६. लिंगानुशासनटीका ४७. नाममालाटीका ४८. अनेकार्थटीका उणादि ३०० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only January-February-2015 ४८००० ५००० २००० ११०० ६००० ११०० १८०० २०४ ४०० ७०० गाथा २२०० ४०० १८००० ४०० ९००० ५३००० १५०० १५०० ७००० ३५०० १०००० १२००० Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 45 २८२९ ३४०० ४००० श्रुतसागर जनवरी-फरवरी - २०१५ ४९. देशीयनाममाला टीका ३५०० ५०. द्वयाश्रयसूत्र ५१. तत्र टीका खरतरकृता १८००० ५२. प्राकृतद्वयाश्रय १००० गाथा ५३. तत्र पूर्णकलश खरतर कृता टीका २००० ५४. मलधारीराजशेखरसूरिकृता टीका अनेक ढूंढा सर्वसंख्यया व्याकरणं उद्देशेन लक्ष २ किञ्चिदूनम्। ५५. क्षीरस्वामिव्याकरणं १८००० ५६. दुर्गाचार्यकृतप्राकृतव्याकरणं ५७. श्रीहेमसूरिकृतप्राकृत. २२०० ५८. तत्र मलधारी श्रीनरचन्द्रसूरि कृता दीपिका ३२०० ५९. श्री भोजकृतं प्राकृतव्याकरणं ४००० ६०. पं. अमरकृतस्यादित्यादि ५००० ६१. पं. मूसे (?) कृतस्यादित्यादि ६२. षट्कारकग्रन्थो बौद्धाचार्यकृत : श्लोक ६३. टीका ४०० ६४. धनपालपण्डितनाममाला १८०० ६५. लावण्यवतीनाममाला ६६. एकाक्षरी नाममाला श्लोक ४० वररुचिकृता ६७. सैव पं. अमरकृता श्लोक ६८. हैमव्याकरणा (?) नेकार्थशेष श्लोक २०० श्रीजिनप्रभसूरिकृत छन्दोग्रन्थाः ६९. श्रीहेमसूरिकृत छन्दश्चुडामणि ७०. वृत्तरत्नाकर छन्दःशास्त्रं सूत्र १३६ ७१. टीका तस्य ५०० ४००० १८०० ३५०० For Private and Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra SHRUTSAGAR www.kobatirth.org ७२. पिंगलछन्दः ७३. पं. अमरकृता छन्दोरत्नावली 46 काव्यग्रन्था: ७४. ७५. तेषां टीका ७६. पं. माघ कृत माघमहाकाव्य ७७. वल्लभ कृततट्टीका ७८. भारवि कृत किरातकाव्य ७९. तट्टीका प्रकाशवर्षकृता महाकवि कालिदास कृत काव्यत्रयी ८०. लक्ष्मीधरभट्ट कृत चक्रपाणिविजयमहाकाव्य ८१. अभिनन्दकाव्य ७००० पं. अभिनन्दकृत Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९४. बिल्हणकृत विक्रमाङ्ककाव्यं ९५. वाल्मीकि पं. केशवादित्यकृतं कृष्णक्रीडितं January-February-2015 For Private and Personal Use Only ८२. श्रीहर्षकृतनैषधका. ८३. तट्टीका चांडवी ८४. तथा कमलाकरगुप्तेन श्रीहर्षपौत्रेण कृतं भाष्यं ८५. तथा वैद्याधरी टीका ८६. श्री मुनिचन्द्रसूरिकृतटीका १२००० ८७. माथुर पं. गदाधरकृता १२००० (अन्या अपि बहव्यष्टीकाः स्वदेश-परदेशप्रसिद्ध पण्डितप्रकाण्डताकृताः सन्ति) ८८. भट्टीमहाकाव्यं २५०० व्याकरणसर्वावतारमयं वज्रकणिकाप्रायम् । ८९. दिगंबर धनंजयकृतं द्विःसन्धानं महाकाव्यं रामायण भारतमयं सूत्रं २४०० ९०. तट्टीका १२००० ४०० २००० ९१. वायडा पं. अमरकृतं बालभारतकाव्यं. ९२. पञ्चलघुकाव्यानि यमकमयानि श्लोक १००० घटकर्परकविकृतानि ५००० २००० १२००० १६०० ८००० २००० ग्रं. ४५०० २४००० ६०००० २४००० ७००० २००० ५००० Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५०० श्रुतसागर ___47 जनवरी-फरवरी - २०१५ ९६. पं. अमरकृतं पद्मानन्दकाव्यं १२००० ९७. पाण्डवचरितं मलधारी देवप्रभसूरिविरचितं १०००० सरसं ९८. मलधारी श्रीदेवप्रभसूरि विरचितं मृगावतीचरितं ९९. श्रीहेमसूरिरचितं त्रिषष्टि चरितं महाकाव्यं ३६००० १००. प्राकृतानि पञ्च महाकाव्यानि गौडवधा (दी) नि पं. वागपत्यादिकृतानि। १०१. ओसवालगच्छीय पं. देवचन्द्रकृतं महिमांकं महाकाव्यं ३५०० १०२. श्रीसोमेश्वरकृतं सुरथोत्सवमहाकाव्यं २००० सारभूतं नाटकग्रन्थाः २५०० १५०० १५०० २५०० दिव्यं ७०० २००० २०० २००० ८०० १०३. पं. मुरारि कृतं मुरारिनाटकं १०४. कालिदास कृतं शाकुन्तलनाटकं १०५. मलधारी नरेन्द्रप्रभसूरि विरचितं काकुस्थकेलिनाटकं १०६. श्रीसोमेश्वररचितं उल्लघराघवं नाटकं १०७. पं. रामचन्द्र कृतं सत्यहरिश्चन्द्रनाटकं १०८. तस्यैव कृतं नलविलासनाटकं १०९. तस्यैव रघुविलास ११०. तस्यैव यदुविलास १११. पं. रामचन्द्रकृता वनमालानाटिका श्लो. ११२. तस्यैव व्यायोगं निर्भयभीमनाटकं ११३. तस्यैव मल्लिकामकरन्दनाटकं ११४. कालिदास कृत विक्रमोर्वसी नाटिका ११५. शेषाहिचरित्रं ११६. वेणीसंवरणनाटकं ११७. षण्मुखपराजयं कालिदास कृतं प्रहसनं ११८. व्यायोगं द्यूताङ्गदं मंत्रिसुभटकृतं ११९. बालरामायणनाटकं पं. राजशेखर कृतं १२०. तेनैव कृतः कर्पूरमंजरीसट्टकः २०० १५०० १५०० ३००० २०० १५० ५००० १००० For Private and Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org SHRUTSAGAR १२१. पं. कृष्णमित्रविरचितं प्रबोधचन्द्रोदयं १००० १२२. पं. रामचन्द्रकृतं प्रबन्धशतं द्वादशरूपक- नाटकादिस्वरूपज्ञापकं ५००० १२३. कादम्बरी कथा-अर्धबाणकृता - अर्धतत्पुत्रपुलीन्द्रकृता १३१. तथा प्रबन्ध २४ सहस्र ४ १३२. उपमितिभवप्रपञ्चा कथा 48 १२४. पं. धनपाल कृता तिलकमंजरी १२५. चम्पूः त्रिविक्रमभट्ट कृता दमयंतीकथा १२६. वासवदत्ता १२७. कुवलयमाला १२८. तरंगलोलाकथा पालित्ताचार्यकृता क्षीणा १२९. गुणाढ्यकविकृता बृहत्कथा १३०. श्रीराजशेखरसूरि कृता कथा ८४ एवं अलंकारग्रथा: १४१. सरस्वतीकण्ठाभरण, भोजकृतालंकार १४२. मम्मटालंकार, मम्मटराणा कृत, सूत्र १४३. मम्मटालंकार मम्मटराणा कृत वृत्ति Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४४. जयानन्द, टिप्पणी १४५. काव्यप्रकाशोपरि माणिक्यसूरि कृत टिप्पनं January-February-2015 १३३. तदुद्धारश्च चैत्रगच्छीयाचार्य कृतः १३४. पं. अमरकृता कविशिक्षा १३५. तदुपरि परिमल १३६. मेरुतुङ्गसूरि कृतः प्रबन्धचिन्तामणिः १३७. वार्ताशत-रुद्रपल्लीय चारुचन्द्रसूरि कृत १३८. मलधारी श्रीनरचन्द्रसूरि कृत रंगकथा १५ ग्रंथाग्रं १३९. शालि(भद्र)कथा पं. धर्मकुमारकृता १४०. पञ्चाख्यानकविचित्रकथा ग्रंथाग्रं For Private and Personal Use Only ७००० ९००० २५०० ७००० ९००० प्राकृता २४००० दिव्यप्रबन्धमयी १६००० सिद्धर्षिकृता अन्तरंगा ८००० २५०० ३५०० ६००० ३००० २००० १५०० १२३४ ६००० २४००० १४० २५०० १५०० ४००० Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७०० ३००० श्रुतसागर 49 जनवरी-फरवरी - २०१५ १४६. सोमेश्वरदेवगौड कृत टिप्पनं ५००० १४७. एलदेवेन एरंडउलि वास्तव्येन कृतं काव्यप्रकाश विवरणं १२००० १४८. मलधारी नरेन्द्रप्रभसूरि कृत अलंकारमहोदधि सूत्रं ३०० १४९. टीका ५००० १५०. अलंकारसर्वस्वं ब्राह्मणकृतं ५०० १५१. रुद्रटकविकृत रुद्रटालं. सूत्र १५२. टीपणउं, नमिपंडितकृतं १५३. चंद्रालोकालंकार ३०० १५४. वाग्भटालंकारः ३०० १५५. श्रीहेमसूरि कृत अलंकारचूडा. ३५०० १५६. तदुपरि ४००० विवेकनामटिप्पनं सूक्तकोशा बहवः १५७. शालिवाहन गाथा ७०० १५८. वजाउलउ ८०० १५९. पं. रामचन्द्र कृत सुधाकलस १३०० १६०. गाथारत्नकोश ८०० १६१. श्रीनरचन्द्रसूरि कृत गाथा ९६ १६२. तत्कृता सुभाषितावली ३५०० १६३. मलधारी देवप्रभसूरि कृत दृष्टांतशत १५० १६४. मम्मटसूक्तकोशः ४०० (४०००?) १६५. पूर्णिमापक्षीय कृत रंगतरंगिणीकाव्य ११० (११००?) १६६. श्रीराजशेखरकृतं संघमहोत्सवप्रकरण काव्यं छः ।। छः ।। छः ।। छ: ।। छः ।। ।। गणिकांतिविजयलिखितं ।। छः ।। (पुरातत्त्व, वर्ष-२, अंक-४ मांथी साभार) For Private and Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन नागरी लिपि : एक अध्ययन डॉ. उत्तमसिंह नागरी लिपि हिंदुस्तान की पुरातन लिपियों में से एक है। इसका उदभव लगभग आठवी-नवमी सदी में ब्राह्मी लिपि से हुआ। विदित हो कि हिंदुस्तान की समस्त लिपियाँ ब्राह्मी लिपि से ही निःसृत हुई हैं; अतः ब्राह्मी को समस्त लिपियों की जननी कहा गया है। कालान्तर में ब्राह्मी लिपि के दो प्रवाह हुए१. उत्तरी ब्राह्मी तथा २. दक्षिणी ब्राह्मी। उत्तरी ब्राह्मी से गुप्त एवं कुटिल लिपि सहित शारदा, गुरुमुखी, टाकरी, प्राचीन नागरी, मैथिली, नेवारी, बंगला, उडिया, कैथी, गुजराती आदि विविध लिपियों का विकास हुआ । जबकि दक्षिणी ब्राह्मी से दक्षिण भारत की मध्यकालीन तथा आधुनिक कालीन लिपियाँ अर्थात् तामिळ, तेलुगु, मळयाळम, ग्रंथ, कन्नडी, तुळु, नंदीनागरी, पश्चिमी तथा मध्यप्रदेशी आदि विविध लिपियों का विकास हुआ। लगभग नवमी सदी के पूर्वार्ध में एक ओर दक्षिणी भारत में ग्रंथ लिपि' से नंदीनागरी लिपि का उद्भव हुआ तो दूसरी ओर उसी समय उत्तरी भारत में कुटिल एवं शारदा लिपियों से नागरी लिपि का उदय हुआ। यह लिपि अपनी विशेषताओं के कारण एक समर्थ एवं पूर्णतः वैज्ञानिक लिपि के रूप में विकसित होने लगी और देखते ही देखते समग्र उत्तर-मध्य भारत में फैल गई। विविध भाषाओं में निबद्ध साहित्य को इस लिपि में लिपिबद्ध किया जाने लगा। संस्कृतप्राकृत-पालि-हिंदी-मराठी-नेपाली आदि भाषाओं ने तो जैसे ईस लिपि को अपने वाहक के रूप में अपना लिया। आज भी ये भाषाएँ इस लिपि पर आधारित-सी दिखाई पड़ती हैं; जो इसके पूर्णतः वैज्ञानिक लिपि होने का स्पष्ट प्रमाण है। कालान्तर में यह लिपि उत्तरी भारत के प्रत्येक नगर, शहर, गाँव-गाँव में खूब फलने-फूलने लगी। संपूर्ण संस्कृत-प्राकृत-पालि आदि भाषाबद्ध साहित्य इस १. श्रुतसागर, अंक-३८-३९: (ब्राह्मी लिपि : एक अध्ययन), मार्च-अप्रेल २०१४. २. श्रुतसागर, अंक- ०२, (ग्रंथ लिपि : एक अध्ययन), जुलाई-२०१४. ३. इस लिपि का प्राचीनतम रूप कन्नौज के प्रतिहारवंशी राजा महेन्द्रपाल प्रथम (वि.सं. ९१४ ई.) के एक दानपत्र में मिलता है। For Private and Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 51 श्रुतसागर जनवरी-फरवरी - २०१५ लिपि में लिखा जाने लगा। लहियाओं ने भी इस लिपि को अपनी आजीविका का प्रमुख आधार बना लिया। उनके द्वारा शिलाखण्डों, लोहपत्रों, ताडपत्रों, हस्तनिर्मित कागज एवं कपडा आदि पर राजप्रशस्तियाँ तथा संपूर्ण साहित्य भी इसी लिपि में लिपिबद्ध किया जाने लगा; जो आज हमारे ग्रन्थागारों में पाण्डुलिपियों के रूप में संरक्षित है। आज हिन्दुस्तान ही नहीं बल्कि देश-विदेश का शायद ही कोई ऐसा ग्रन्थागार होगा जहाँ प्राचीन नागरी लिपिबद्ध पाण्डुलिपियाँ संग्रहीत न हों। इस लिपि में निबद्ध प्राप्य साहित्य की पाण्डुलिपियों की इस विपुलता के आधार पर अनुमान लगाया जा सकता है कि इसका प्रचलन कितना अधिक और सर्वग्राह्य रहा होगा। जबसे इस लिपि का उदय हुआ तबसे ही यह निरन्तर प्रगतिपथ पर गतिशील है। कालान्तर में देश-काल-परिस्थिति अनुसार परिवर्तित होते-होते आज हमें आधुनिक देवनागरी लिपि के रूप में प्राप्त होती है, जो हिंदुस्तान की राष्ट्रीय लिपि घोषित की गई है। इस लिपि के नामकरण संबन्धी विविध अवधारणाएँ निम्नवत् हैं नागरी लिपि नामकरण विषयक अवधारणा इस लिपि को विविध नामों से जाना जाता है; यथा- नागरी, प्राचीन नागरी, देवनागरी, प्राचीन देवनागरी, जैन नागरी आदि। नागरी - कालान्तर में नगर-नगर में मुख्यतया इस लिपि में लिखने का चलन होने के कारण एवं नागर ब्राह्मणों द्वारा लहिया के रूप में इस लिपि में अत्यधिक ग्रन्थ-लेखनकार्य करने के कारण इसका नाम नागरी लिपि प्रकाशित हुआ। प्राचीन नागरी - प्राचीन लिपि होने के कारण इसे प्राचीन नागरी कहा जाने लगा। देवनागरी - संस्कृत भाषाबद्ध साहित्य इस लिपि में विपुल मात्रा में निबद्ध होने के कारण तथा संस्कृत भाषा को देवभाषा कहे जाने के कारण इस लिपि का नाम देवनागरी प्रचलित हुआ। प्राचीन देवनागरी - प्राचीनकाल से चलन में होने के कारण देवनागरी नाम के आगे प्राचीन शब्द जुडकर प्राचीन देवनागरी नाम ख्यात हुआ। जैन नागरी - विक्रम संवत् नवमी शताब्दी के उत्तरार्ध में गुजरात के वल्लभीपुर में देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में 'वल्लभी वाचना' हुई, जिसमें For Private and Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 52 January-February - 2015 समस्त जैन आगम साहित्य को इस लिपि में निबद्ध करने का निर्णय लिया गया। अतः नागरी लिपि में प्राकृत-भाषा-सम्मत लिपिचिह्नों एवं कुछ विशिष्ट संयुक्ताक्षरों का समावेश कर इस लिपि में समस्त जैन साहित्य लिपिबद्ध किया गया। संभवतः इसी कारण इस लिपि को जैन नागरी के नाम से संबोधित किया जाने लगा। अस्त! नागरी लिपि के नाम स्थापन विषयक ये सभी मत केवल अनुमान एवं तद्विषयक चिन्तन पर आधारित हैं, जो शोध का विषय है। इनमें से किसे प्रामाणिक माना जाय और किसे नहीं; यह निश्चित कर पाना गवेषकों के लिए एक पहेली बना हुआ है। . नागरी लिपि की विशेषताएँ * यह लिपि ब्राह्मी, शारदा, ग्रंथ एवं अन्य भारतीय लिपियों की तरह ही बायें से दायें लिखी जाती है। * इस लिपि में लिखित प्राचीन ग्रन्थसंपदा सर्वाधिक मात्रा में प्राप्त होती है। अतः इसे भारतीय श्रुतसंपदा को अद्यावधिपर्यन्त जीवित रखने का गौरव प्राप्त है। * इस लिपि में किसी भी भाषा को शतप्रतिशत शुद्ध लिखा जा सकता है। * यह लेखन एवं वाचन दोनों ही दृष्टियों से सरल एवं सुगम लिपि है। * इसका रूप अत्यन्त नेत्राकर्षक एवं त्वरा लेखन के अनुकूल है। * राष्ट्र का प्राचीनतम वैभवशाली वाङ्मय इसी लिपि में लिपिबद्ध है। * कागज पर कलम एवं स्याही द्वारा लिखने के लिए यह लिपि सर्वाधिक श्रेष्ठ, उपयोगी, सरल और सटीक लिपि मानी गई है। * इसमें खडी पाई तथा पडी पाई के साथ शिरोरेखा का विशेषरूप से चलन है, जबकि ब्राह्मी लिपि में शिरोरेखा का चलन नहीं है। गुजराती लिपि भी शिरोरेखा के बिना ही लिखी जाती है। * इस लिपि में समस्त उच्चारित ध्वनियों के लिए स्वतन्त्र एवं असंदिग्ध लिपि चिह्न विद्यमान हैं। अतः इसे पूर्णतः वैज्ञानिक लिपि कहा जा सकता है। * यह लिपि अपने समय की श्रेष्ठ लिपि होने के कारण तत्कालीन ग्रन्थकारों एवं लहियाओं ने इसे लेखन हेतु सर्वाधिक आश्रय प्रदान किया। For Private and Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर 53 जनवरी-फरवरी - २०१५ * इस लिपि में अनुस्वार, अनुनासिक एवं विसर्ग हेतु स्वतन्त्र चिह्न प्रयुक्त हुए हैं, जो आधुनिक लिपियों में भी यथावत्, स्वीकृत हैं। * इसकी वर्णमाला में स्वर एवं व्यंजनों का वर्गीकरण ध्वनि-वैज्ञानिक पद्धति से व्याकरण-सम्मत उच्चारण-स्थान एवं प्रयत्नों के आधार पर किया गया है। • इस लिपि का प्रत्येक वर्ण स्वतन्त्ररूप से एक ही ध्वनि का उच्चारण प्रकट करता है, जो सुगम और पूर्णरूप से वैज्ञानिक है। * इस लिपि के अक्षरों का आकार समान व सौन्दर्यात्मक प्रविधि से लिखने का विधान है। * इस लिपि के अक्षर लेखन की दृष्टि से सरल हैं, जिन्हें हस्तनिर्मित कागजों पर स्याही एवं कलम द्वारा गतिपूर्वक लिखा जा सकता है। * इस लिपि के समस्त अक्षर क्रमशः समानान्तर और शिरोरेखा लगाकर लिखे जाते हैं। * इस लिपि में अनुस्वार को अक्षर के ऊपर लगाया जाता है, जबकि ब्राह्मी तथा ग्रंथ लिपियों में अनुस्वार उस वर्ण के पीछे समानान्तर लगाने का विधान मिलता है। * इस लिपि में ए, ओ की मात्राएँ अक्षर के आगे शिरोरेखा से एक 'खडीपाई (अग्रमात्रा) जो नीचे से उस वर्ण की ओर मुडी हो, जोडकर समानान्तर लगाई जाती हैं; जबकि उ, ऊ की मात्राएँ अक्षर के पीछे मध्यभाग में (पृष्ठमात्रा) अथवा उस अक्षर के नीचे लगाने का विधान मिलता है। अर्थात् इस लिपि में पडीमात्रा का चलन रहा है। * ऋकार की मात्रा अक्षर के नीचे की ओर लगाने का विधान है, जो आधुनिक नागरी में भी ज्यों का त्यों देखने को मिलता है। * इस लिपि में रेफसूचक चिह्न उस अक्षर के ऊपर बायें से दायीं ओर 'ई' की मात्रा की तरह लगता है जो आधुनिक नागरी में आज भी प्रचलित है। * इस लिपि में संयुक्ताक्षर लेखन हेतु अक्षरों को ऊपर-नीचे लिखने का विधान मिलता है। अर्थात् संयुक्ताक्षर लिखते समय जिस अक्षर को आधा करना हो उसे ऊपर तथा दूसरे अक्षर को उसके नीचे लिखा जाता है। ब्राह्मी एवं ग्रंथ लिपियों में भी यही परम्परा मिलती है। कालान्तर में इस प्रक्रिया में परिवर्तन For Private and Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 54 SHRUTSAGAR January-February-2015 हुआ जिसके परिणामस्वरूप संयुक्ताक्षर एक शिरोरेखा के नीचे प्रथम अक्षर आधा तथा द्वितीय अक्षर पूरा क्रमशः आगे-पीछे लिखे जाने लगे, जो आधुनिक नागरी लिपि में आज भी प्रचलित है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * इस लिपि का ज्ञान प्राचीन पाण्डुलिपियों को सरलतापूर्वक पढने, लिप्यन्तर करने, प्रतिलिपि करने एवं ऐतिहासिक तथ्यों को जानने में अतीव सहायक सिद्ध होता है । इस लिपि में निबद्ध श्रुतसंपदा विपुल मात्रा में प्राप्त होती है, जो गवेषकों की जिज्ञासा पूर्ण करने, ऐतिहासिक तथ्यों को जानने तथा ग्रन्थों के समीक्षात्मक संपादन हेतु प्रमुख स्रोतस्वरूप है। * यह लिपि जहाँ संस्कृत - प्राकृत-पालि जैसी प्राचीन भाषाओं की सफल लिपि रही है, वहीं यह हिन्दी, मराठी, नेपाली आदि कतिपय आधुनिक भाषाओं की भी सफल वाहिका है । * इस लिपि में उपरोक्त विविध भाषाबद्ध साहित्य को शतप्रतिशत शुद्ध लिखने की क्षमता विद्यमान है। एक प्रकार से देखें तो ये समस्त भाषाएँ इस लिपि पर आधारित सी दिखाई देती हैं। इस लिपि में जैसा लिखा जाता है वह वैसा ही संशय रहित, निश्चयपूर्वक पढा जाता है। अतः इसकी वर्णमाला पूर्णतः वैज्ञानिक एवं श्रेष्ठ है। * इसमें प्रत्येक ध्वनि के लिए अलग-अलग ऐसे स्वतन्त्र वर्ण हैं, जिनमें परस्पर भ्रम की कोई संभावना नहीं रहती । * उत्तरी भारत की आधुनिक लिपि, दक्षिणी भारत की द्राविड लिपि तथा भारत के पार्श्ववर्ती देशों की लिपियों का नागरी से बहुत कुछ सादृश्य है। इन सब ..में वर्णमाला, स्वर- व्यंजन भेद, स्वर- क्रम, व्यंजनों का वर्गीकरण, मात्रा - नियम आदि सब लगभग समान ही हैं, किसी में दो-एक ध्वनियाँ कम हैं तो किसी में अधिक । * इस लिपि में संसार की समस्त उपलब्ध लिपियों की अपेक्षा अधिक वर्ण हैं । अतः किसी भी भाषा में उच्चारित प्रत्येक शब्द को इस लिपि के स्वतन्त्र वर्ण द्वारा लिपिबद्ध किया जा सकता है। For Private and Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जनवरी-फरवरी- २०१५ श्रुतसागर 55 * उपयोगिता की दृष्टि से यह लिपि अव्याप्ति अथवा अतिव्याप्ति दोष से रहित है। विदित हो कि किसी भी लिपि की उपयोगिता देखने के लिए यह जानना आवश्यक होता है कि उसमें अव्याप्ति अथवा अतिव्याप्ति दोष तो नहीं है। अर्थात् उसमें आवश्यक ध्वनियों के द्योतक लिपि - चिह्नों का अभाव या एक ही ध्वनि के द्योतक कई अनावश्यक चिह्नों की उपस्थिति तो नहीं है । अतः अनेक ध्वनियों के लिए एक ही लिपि - चिह्न अथवा एक ध्वनि के लिए अनेक लिपि-चिह्न नहीं होने चाहियें। यह लिपि इन दोषों से पूर्णतः मुक्त है । * यह लिपि ध्वन्यात्मक तथा वर्णात्मक प्रतिलिपिकरण (प्रतिलेखन) एवं लिप्यन्तरण के पर्याप्त अनुकूल लिपि है । इसमें स्वरों की मात्राओं का वैज्ञानिक विधान एक ऐसी अनोखी विशेषता है, जो इसे संसार की समस्त लिपियों से अधिक विकसित दशा की लिपि सिद्ध करती है। • लिपि - विज्ञान के आचार्यों ने इस बात को मुक्त कण्ठ से घोषित किया है कि नागरी में आदर्श वैज्ञानिक लिपि के प्रायः सभी गुण विद्यमान हैं। * इसकी वर्णमाला और वर्तनी को सीख लेने पर शब्दों को रटने की आवश्यकता नहीं रहती, केवल शब्दों का शुद्ध उच्चारण जानने मात्र से उन्हें शुद्ध-शुद्ध लिखा जा सकता है। 1: • इसमें प्रत्येक स्वर वर्ण के लिए अलग से स्वतन्त्र मात्रा - चिह्न निश्चित हैं, जिनके प्रयोग द्वारा स्वरयुक्त व्यंजनों अर्थात् अक्षरों को उच्चारण के अनुरूप ही स्वतन्त्र रूप में लिपिबद्ध किया जा सकता है। इसी गुण के कारण इस लिपि द्वारा कम स्थान में अधिक शब्द लिखे जा सकते हैं। इस लिपि पर किसी भाषाविशेष का एकाधिकार नहीं है। यह संस्कृत, प्राकृत, पालि, अपभ्रंश, हिंदी, महाराष्ट्री (मराठी), नेपाली आदि अनेक भाषाओं की लिपि है और अन्य किसी भी भाषा की लिपि हो सकती है। इसमें विभिन्न स्थानीय अनुनासिक ध्वनियों के लिए तो अलग-अलग स्वतन्त्र वर्ण (ङ्, ञ्, ण्, न्, म् ) हैं ही, साथ ही अनुस्वार और चन्द्रबिन्दु जैसे अयोगवाहों की उपस्थिति इसकी ध्वनि - वैज्ञानिक पूर्णता को पराकाष्ठा तक पहुँचा देती है। For Private and Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 56 SHRUTSAGAR January-February - 2015 * इसमें संयुक्त वर्ण-रचना की विलक्षण क्षमता है, जो इसके वैज्ञानिक सन्तुलन एवं पूर्णता का ज्वलन्त प्रमाण है। * इसमें रोमन लिपि की तरह छोटे-बडे (केपिटल-स्मॉल) वर्गों को अलग-अलग रूप में लिखने की उलझन नहीं रहती है। इस कारण लेखन, मुद्रण एवं टंकण आदि में इसके वर्ण (आदि-मध्य-अन्त) एक समान रहते हैं। * इस लिपि का उदय लगभग आठवीं नवमी शताब्दी में हुआ और कालान्तर में देश-काल-परिस्थिति अनुसार परिवर्तित होते-होते आज हमें आधुनिक देवनागरी लिपि के रूप में प्राप्त होती है। जिसे व्यापक प्रचार एवं विशिष्ट वैज्ञानिक विशेषताओं के कारण वर्तमान युग में हिंदुस्तान की राष्ट्रीय लिपि होने का गौरव प्राप्त है। * संसार की समस्त लिपियों में से अन्तरराष्ट्रीय लिपि बनने की सबसे अधिक योग्यता यदि किसी लिपि में है, तो वह लिपि नागरी ही है। नागरी लिपि की वर्णमाला . शिलाखण्ड, ताम्रपत्र, लोहपत्र, ताडपत्र, वस्त्र एवं हस्तनिर्मित कागजीय पाण्डुलिपियों आदि पर निबद्ध इस लिपि में प्रयुक्त स्वर एवं व्यंजन वर्णों की संरचना निम्नवत है स्वर वर्ण लेखन प्रक्रिया या ७,ज्ञईज me सु । एए3 विदित हो कि नागरी-लिपिबद्ध पाण्डुलिपियों में विसर्ग-चिह्न हेतु उपरोक्त अर्ध-पूर्णविरामवत् चिह्न प्रयुक्त हुआ है, जो लिप्यन्तर करते समय पूर्णविराम चिह्न का भ्रम उत्पन्न करता है। For Private and Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर 57 जनवरी-फरवरी - २०१५ व्यंजन वर्ण लेखन प्रक्रिया खष च, 5 मऊज,म अ | 2 || न व ५, न २ल,लव | रा क द. ३ संयुक्ताक्षर लेखन प्रक्रिया इस लिपि में संयुक्ताक्षर लेखन हेतु ब्राह्मी, शारदा, ग्रंथ आदि प्राचीन लिपियों की तरह ही ऊपर से नीचे की ओर लिखने का विधान मिलता है। अर्थात् जिस अक्षर को आधा लिखना हो उसे ऊपर लिखकर दूसरे अक्षर को उसके नीचे या किंचित् समानान्तर लिख दिया जाता था। कालान्तर में इस प्रक्रिया में किंचित् परिवर्तन हुआ और संयुक्ताक्षर हेतु पहले अक्षर को आधा तथा दूसरे अक्षर को पूरा समानान्तर लिखकर एक ही शिरोरेखा के नीचे लिखा जाने लगा। कुछ संयुक्ताक्षरों के लिए स्वतन्त्र वर्ण भी प्रयुक्त होने लगे। अतः इस प्रक्रिया के तहत इन संयुक्ताक्षरों को निम्नवत् लिखने का विधान है | - ज क् + - ५ ६ | । त् + र त्र २: ज + + | For Private and Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 58 January-February - 2015 हलन्त-चिहन लेखन प्रक्रिया इस लिपि में हलन्त के लिए ( चिह्न प्रयुक्त हुआ है; जो किसी भी वर्ण की खडीपाई के नीचे की ओर किंचित् रिक्त स्थान छोडकर लगाने का विधान मिलता है। यह चिह्न पाण्डुलिपि पढते समय अथवा लिप्यन्तर करते समय दीर्घ 'ऊ'कार की मात्रा का भ्रम भी उत्पन्न करता है। उदाहरण स्वरूप यहाँ कुछ वर्गों में हलन्त चिह्न लगाकर इस प्रक्रिया को निम्नवत् समझा जा सकता है क । न । न । म कर नाम् - विदित हो कि 'क, त्, द्, श्, ह' आदि वर्गों में जब हलन्त के साथ 'र' लगाकर 'क्र, त्र, द्र, श्र, ह्र' लिखा जाता है तो इनके आकार में किंचित् परिवर्तन हो जाता है और निम्नवत् स्वरूप ग्रहण करते हैं क = क,क्र, क, द्र= ६,इ.5 श्रत ह्र = , . अवग्रह-चिहन लेखन प्रक्रिया इस लिपि में अवग्रह के लिए (E) चिह्न प्रयुक्त हुआ है; जो आधुनिक नागरी में किंचित् परिवर्तित होकर (s) रूप में प्रचलित है। यथा उदारदामनाध्मानमू विदित हो कि यह अवग्रहचिह्न जब 'भ' वर्ण के साथ जुडकर एक ही शिरोरेखा के नीचे प्रयुक्त होता है तो संयुक्ताक्षर 'ष्ण' पढा जाता है, और जब 'त्र' के साथ प्रयुक्त होता है तो 'ल्ल' पढा जाता है। यथा ष्ण = ब(कृष्ण = कृष) ल्ल = (उल्लास - बास) For Private and Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर 59 जनवरी-फरवरी - २०१५ मात्रा लेखन प्रक्रिया इस लिपि में मात्रा लेखन हेतु विशेषतः निम्नोक्त चिह्नों का प्रयोग हुआ है - - - 7 |-747 ल ता इनमें से आ, इ, ई, ऋ की मात्राएँ तो आधुनिक नागरी में भी लगभग ज्योंकी-त्यों प्रयुक्त हुई हैं; लेकिन उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ की मात्राओं में विविधता दिखाई पड़ती है। यथा क क | का कि की क क क क क के का को कं | का विदित हो कि ह्रस्व 'उ'कार एवं दीर्घ 'ऊ'कार की मात्राओं का प्रयोग दो प्रकार से चलन में रहा है। इनमें से एक प्रकार तो आधुनिक नागरीवत् किंचित् परिवर्तित रूप में अक्षर के नीचे मात्रा लगाकर लिखने का मिलता है, तथा दूसरा प्रकार पृष्ठ-मात्रा (पडी मात्रा) लगाकर लिखने का मिलता है। 'क्, त्, ज, द्' आदि कुछ अक्षरों में जब ये मात्राएँ लगती हैं तो उनका स्वरूप भी किंचित् परिवर्तित हो जाता है। यथा कु = कु.क्र3,कत |जु = ॐ ॐकाज कू = कू.क .क | जू कूकू, ,,जू तु = तु...क्त क दुदु.पु.पु.दा तू = तू...न क | दू = दू.पू.दन १. ब्राह्मी, शारदा एवं ग्रंथ लिपियों में भी ह्रस्व 'उ'कार एवं दीर्घ 'ऊ कार की मात्राओं के विविध प्रयोग देखने को मिलते हैं। For Private and Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra SHRUTSAGAR www.kobatirth.org 60 धर्म = धर्म चर्चा = चर्चा वर्णन = वर्षान दुर्लभ = दान Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रेफसूचक चिह्न इस लिपि में रेफ के लिए (-) चिह्न प्रयुक्त हुआ है। यह चिह्न उस अक्षर के ऊपर बायें से दायीं ओर 'ई' की मात्रा की तरह लगाया जाता है, जो आधुनिक नागरी में भी समानरूप से प्रचलित है । पाण्डुलिपि पढते समय एवं लिप्यन्तर करते समय यह चिह्न दीर्घ 'ई'कार की मात्रा का भ्रम भी उत्पन्न करता है। विदित हो कि हस्तप्रतों में रेफयुक्त वर्ण को द्वित्व लिखने की परंपरा मिलती है । यथा January-February-2015 नागरी लिपिबद्ध एक काष्ठपट्टिका' पश्चिमी राजस्थान एवं गुजरात के तत्कालीन शिक्षणकेन्द्रों में प्राचीन नागरी लिपि की वर्णमाला सीखने एवं पाण्डुलिपि लिप्यन्तर कार्य हेतु इन काष्ठपाटियों का उपयोग होता था, इन्हें कक्कापाटी या स्वर- व्यंजनपट्टिका भी कहते हैं । Inte रिफाळक For Private and Personal Use Only १. श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र - कोबा के 'सम्राट् संप्रति संग्रहालय' में प्रदर्शित | Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर 61 जनवरी-फरवरी - २०१५ प्राचीन नागरी लिपि की बारहखडी - - - क के कः क का कि की कक ककक के का कोई का |मा निजी मामला | | - |पा पिपी फफ पप से एप्पा पोपमा 13अकिडीका जाय .. - - - चचा विचीक कावबाचसा खास S - जजा जि जी | जुज जैजो जीजे अ.का जिजी जाऊडजाबाई ज का किसी ऊमाजका काको - - - For Private and Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR January-February - 2015 टाहिटीस दहाहाटाटा हादसा ठ | बठिी | | | | गनिजी क गाछ -- Now IDOLou - कानिकीकन के फाफा 55 टाढि दी| ददा दिदीदा दददददा टेा / णा णि णो गु णू ण ण ण णो णौ णं णः राशा पिशी एक ए ए ए ए ए ए शश तता ति ती| तु तु तेते तो तौ | ततः तातिनी तत तन जनाले घबाघिनीक का पोछाक ददा दिदी दाद दददादा दाद N नाना नि नीक कानून लालाना लोन For Private and Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर 63 जनवरी-फरवरी - २०१५ पपा पि पी फरकफासा पापा बाबा वि बी क क बबबबला बो बाबा नमा निजी क क बललालाका الهم هم العم و العم - - S ममा मि मी म ममममममा मा में मः यमा यि मी क क य यूस से सा सा में यः र राशि से सर २ रा रा रा - - व वालि लीक क राख केला हो हावा व वा विवी क क व ला ला काक -- आशा शिशी का शमश शहा हा हा हा शश For Private and Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR January-February - 2015 A - - पषा पिषी कपल से खा लो कपः रा गरि सी स स रा रा रा रा रा रा रा रा. काफिकमजकललका | ६. दाकि की क क के रूप में का + बाबावित्रीक क المو سر السم | عن اله السموا على الا लाको - - - - - ज्ञज्ञाज्ञि ज्ञी का जवाब बना ही ई. नागरी लिपि के अंकों का विकासक्रम |१२, ५६ जाट | -- For Private and Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 65 श्रुतसागर जनवरी-फरवरी - २०१५ नागरी लिपि में संयुक्ताक्षरों की स्थिति प्राचीन नागरी लिपिबद्ध पाण्डुलिपियों में मिलनेवाले संयुक्ताक्षरों का ज्ञान संपादनकार्य में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। विदित हो कि इस लिपि में कुछ अक्षर ऐसे हैं जो दूसरे वर्गों के साथ जुडनेपर पूर्णतः परिवर्तित हो जाते हैं और अन्य वर्गों का भ्रम भी उत्पन्न करते हैं। उस परिवर्तित स्वरूप का ज्ञान यदि न हो तो अनेकविध अशुद्धियाँ होने की संभावना बढ़ जाती है। इन संयुक्त अक्षरों में विशेषकर 'ज्ज' जो कि 'ज्झ' का भ्रम करता है। 'क्ख' जो कि 'रक', 'रवु' या 'खु' का भ्रम करता है। 'ओ' जो कि 'उ' वर्ण को रद्द (डीलिट) करने अथवा 'न' वर्ण का भ्रम करता है। 'ऋ' वर्ण 'क्ष' या 'कृ' का भ्रम करता है। यदि 'ग' वर्ण में 'ए' की अग्रमात्रा लगाकर 'गे' लिखा हो तो अग्रमात्रा के कारण 'ण' या 'ऐ' वर्गों का भ्रम करता है। 'थ' वर्ण 'व्व' एवं 'घ' का भ्रम करता है। 'श' वर्ण 'त्र' या 'ऋ' का भ्रम करता है। 'च्छ' वर्ण 'त्थ' का भ्रम उत्पन्न करता है। यथा ब- पहा का भ्रम उत्पन्न करता है) ख- (रक, रखु या खुका.प्रम उत्पन्न करता है) ओ-7 ('उ' वर्ण अथवा 'न' वर्ण का भ्रम उत्पन्न करता है) ऋ- र म' या 'कृ' वर्गका प्रम उत्पन्न करता है) मे= (अग्रमात्रा के कारण 'ग' अथवा 'ऐ वर्ष का भ्रम उत्पन्न करता है। (गवथवा ग वर्गों का प्रम उत्पन्न करता है। (ऐ अथवा गे वर्षों का भ्रम उत्पन्न करता है। (व्व का प्रम उत्पन्न करता है। शवा ( अथवा 'ऋका प्रम उत्पन्न करता है। (त्य' का प्रम उत्पन्न करता है। For Private and Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 66 SHRUTSAGAR January-February - 2015 विदित हो कि 'छ' वर्ण के साथ जब 'च' वर्ण जुडता है तो उसे 'च्छ' पढा जाता है, लेकिन जब उसी 'छ' वर्ण के साथ 'त्' वर्ण जुडता है तो 'छ' वर्ण 'थ' में परिवर्तित हो जाता है और संयुक्ताक्षर 'त्थ' पढा जाता है। यदि उसी 'छ' वर्ण के साथ 'स्' वर्ण जुडता है तो उसे 'स्थ' पढा जाता है, और यदि 'छ' वर्ण दो पूर्णविरामों के मध्य || || इस प्रकार लिखा हो तो उसे गाथा, श्लोक, अध्याय अथवा ग्रंथ-पूरक या विषय समाप्ति सूचक चिह्न के रूप में पढ़ा जाता है। ऐसा ही एक वर्ण |ळ।। है जो ग्रंथ समाप्ति अथवा अध्याय या पाठ की समाप्ति का द्योतक है। यह अंतिम मंगल सूचक चिह्न के रूप में भी प्रयुक्त होता है। यथा euad ॥ब (पूरक या समातिसूचक चिह्न) इसी प्रकार जब 'प' वर्ण के साथ "भ' वर्ण जुडता है तो उसे 'म' पढा जाता है। तथा मूर्धन्य 'ष' के साथ जब 'भ' वर्ण जुडता है तो 'ज्झ' पढा जाता है। यथा प+म- पूनम ष् + = ज्म = + नस ऐसे और भी कई वर्ण हैं जो संयुक्त होने पर अपना स्वरूप बदल लेते हैं . और संपादक को भ्रमित करते हैं। अतः ऐसे वर्णों की एक तालिका यहाँ संलग्न की जा रही है : For Private and Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर 67 जनवरी-फरवरी - २०१५ क्य न्य ज्ज + बना सच स पण । |श्च | य, छ । एयर एप्स | RR स.स के खन क्ल म | स रा य ल की । नागरी लिपि में संयुक्ताक्षरयुक्त शब्द लेखन अभ्यास प्राचीन नागरी-लिपिबद्ध पाण्डुलिपियों में शब्दों अथवा वाक्यों के मध्य रिक्तस्थान नहीं छोड़ा जाता था। अर्थात इस लिपि में लिखते समय सभी अक्षर समानान्तर स्वतन्त्र शिरोरेखा के साथ क्रमशः लिखने का विधान रहा है। क्योंकि उस समय हस्तप्रत लेखनसामग्री यथा ताडपत्र, कागज, कलम, स्याही आदि सीमित मात्रा में होते थे और आसानी से प्राप्य भी नहीं थे। अतः कम से कम स्थान अथवा लेखनसामग्री में अधिक से अधिक लेखनकार्य हो सके इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता था। इस कारण हस्तप्रत पढते समय अथवा लिप्यन्तर करते समय वाक्यविन्यास की दृष्टि से अशुद्धि अथवा भ्रम उत्पन्न होने की संभावना रहती है। अतः हस्तप्रत संपादन कार्य करने हेतु भाषाव्याकरण का ज्ञान होना भी अति आवश्यक है। अभ्यास हेतु संयुक्ताक्षरयुक्त कुछ शब्द निम्नवत् हैं For Private and Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 68 January-February - 2015 तीर्थकर भविष्य नविय | अरिहन्त कात्रप | सिद आचार्य उवज्झाय. नवजाय - माझी चिक्कण काम सुन्दरी तीच कर सन सिन मावास ब्राजी राम्ररी खब मात चर्चा सर्वना प्रार्थना मीन समा निरञ्जन संस्थान यकृत्वम् स्तवनम् शक्तिः अर्चना पाण्डुलिपि वावमू सवनम शक्तिी पाफलिपि सप्त रानकी गाजाख ऊपम्र प्रार्थना हस्तप्रत अर्जुन सल्लकी लज्जा | गुजारय निरञ्जन इच्छा स्थान पूजा पारणा कृष्ण फडा कन वित उत्थान वित सरा जबान का द्वयम नता सत्य - - भक क पन साक जलत ज्वलन्त चन्चलाक्षी चिम्लाक्षी For Private and Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर 69 जनवरी-फरवरी - २०१५ - - -- परिन्द्र - - उत्तर जान - अर्घट - प्रतिध्वनि प्रतिनि बुदि। कद्धि |सार विद्वान विद्वान चैत्य पेय न धृत 'पत | पन्या पन्छा कैवल्यम् कवत्यम चावति waति सानबिन्दु ज्ञानबित उत्तर वैध विद्या ध्वनि मम्मटाचार्य मम्मटाचार पल्लवित पावित सचट. पक्व परक आह्लाद माजजाद दन्दम् औषधालय अषालया यजः सरस्वती यरसूती विष्णुः । | विजा पड. कल्याणम् कन्याम् व्यक्तिकचित जननाका जनताका गोविन्द पाविचकोशलेन्द्र . कारात पम्प न पल्लवपनव स्वान बबन औत्सुक्य अरमका उदनम् उट कन्नौज काबाट प्रतिय। प्रशिय फड्य नृप फथ्यम् याथा पवरकाश - - - - उत्कृष्ट - | पूज्य प्यास्या पव्यक्वाण For Private and Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 70 January-February-2015 नागरी लिपि में नमस्कार महामंत्र लेखन अभ्यास - एपमा मरिकता गमा शिक्षा मा मायरियागं गमा नव नायागं एमा लाए राव या एगा पंच राम का रा राव पावप्पणाराएगा मंगलाएं च याकपिटमं व मंगलं नागरी लिपिवद्ध पाण्डुलिपि' सादरसादसायगावशमनासाउणाचारदाता सयामवासरणमालालकारतमारतासयामा सहियाला काय वाहतानणाणण। तरादिवरदासागसवामग चोदवसमादाय अशावादविता/गा नारियवासमागतगामिनावार संवाद माहियामासादचावरमाMEIN Auyeआदलाए । ५. श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र-कोबा के 'समाट संप्रति संग्रहालय में प्रदर्शित । For Private and Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर 71 जनवरी-फरवरी - २०१५ नागरी-लिपिबद्ध शिलालेख (कच्छ-भुज संग्रहालय से साभार) (ब्रिटिश म्यूजियम-लंदन की वेबसाईट से साभार) HTRators भारतीय प्राचीन श्रुतपरंपरा को युग-युगान्तरों से निरन्तर जीवित एवं संरक्षित रखने मे इरा लिपि का महत्वपूर्ण योगदान रहा है । इस लिपि में निबद्ध ग्रन्थराशि के आधार पर ही हमारी प्राचीन श्रुतसंपदा को पुनः प्रकाश में लाया जा सका है। भारतीय प्राचीन धरोहर-वैभव एवं राजे महाराजों के पुरातन इतिहास संकलन में भी नागरी लिपिवद्ध पुरालेखों की अहम् भूमिका रही है। आज इस लिपि का पठन-पाठन प्रायः लुप्त होता जा रहा है और इसके जाननेवाले विद्वान भी गिनेचुने ही रह गये हैं। लगभग नवमी से अठारहवीं शताब्दी के मध्य नागरी लिपिबद्ध पाण्डुलिपियों एवं पुरालेखों को आसानी से पढ सकें या लिप्यन्तर कर सकें ऐसे विद्वान आज बहुत कम दिखाई देते हैं, जबकि इस लिपि में निबद्ध प्राचीन साहित्य हमें प्रचुर मात्रा में प्राप्त हो रहा है। इस लिपि का चलन तो विशेषकर उत्तर भारत में रहा लेकिन इसमें निबद्ध साहित्य हिंदुस्तान के समस्त भण्डारों में सर्वाधिक मात्रा में मिलता है। विदेशी ग्रन्थागारों For Private and Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 72 SHRUTSAGAR January-February-2015 में भी इस लिपि में निबद्ध पाण्डुलिपियाँ संग्रहीत हैं। इससे पता चलता है कि यह लिपि अपने समय में कितनी प्रामाणिकता के साथ प्रचलित रही होगी । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विविध प्राचीन लिपियों, विशेषतः नागरी के इतिहास की खोज करने से प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक इतिहास का संकलन हो सकता है। यद्यपि प्रागैतिहासिक काल की खोज करने में सबसे बडी कठिनता प्राचीन सामग्री का अभाव है। बहुत कुछ सामग्री काल-कवलित हो गई है। प्राचीन पुस्तकालय आदि, विध्वंसकारियों द्वारा नष्ट हो चुके हैं।' अनेक शिलालेख अज्ञानतावश दीवारों में चुने जाने के कारण शहीद होते जा रहे हैं; अथवा खुदे होने के कारण सिलबट्टे का रूप धारण करके छोटी-मोटी वस्तुओं (चटनी, मसाले आदि) को पीस रहे हैं । ताम्रपत्रों ने बर्तनों का रूप धरण कर लिया है और नित्य-प्रति कहारियों के कठोर हाथों की चोट खाते-खाते अपनी उपयोगिता खो बैठे हैं। सोने-चाँदी के सिक्के सुन्दरियों अंग का आभूषण बनकर उनकी शोभा में चारचाँद लगा रहे हैं; तदपि धरती माता ने अनेक खंडहर, शिलालेख, ताम्रपत्र आदि बहुत-से रत्न अपने गर्भ में छिपा रखे हैं जो प्राचीन स्मारक- रक्षा विभाग एवं श्रुतरक्षकों के प्रयत्नों के फलस्वरूप समय-समय पर हमारे सम्मुख आते रहते हैं । इनका योग्य संरक्षण एवं संपादन कर प्रकाश में लाने की महती आवश्यकता है। यद्यपि राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन नई दिल्ली द्वारा भारत के विविध शिक्षाकेन्द्रों में समय-समय पर आयोजित होनेवाली 'पाण्डुलिपि एवं पुरालिपि अध्ययन कार्यशालाओं' के माध्यम से ब्राह्मी, शारदा, ग्रंथ आदि प्राचीन लिपियों के साथसाथ इस लिपि को भी जीवित रखने के प्रयास किये जा रहे हैं, जो सराहनीय है। विगत कुछ वर्षों से ऐसा ही प्रयास श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र-कोबा, एवं अहमदाबाद स्थित गुजरात विश्वकोश ट्रस्ट, भोलाभाई जेशींगभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर एवं लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर आदि शैक्षणिक संस्थान कर रहे हैं। इन संस्थानों में पाण्डुलिपि एवं पुरालिपि अध्ययन हेतु समयसमय पर कार्यशालाओं का आयोजन किया जाता है। जिसे इस क्षेत्र में एक क्रान्तिकारी कदम कहा जा सकता है। इस कार्य में यदि और भी शिक्षण संस्थाएँ एवं समाजसेवी विद्वान मिलकर आगे आयें तो भारतीय श्रुतपरंपरा को सदियों तक जीवित रखनेवाली इस पुरातन धरोहर को लुप्त होने से बचाया जा सकता है। १. नालंदा विश्वविद्यालय के रत्नोदधि, रत्नसागर, रत्नरञ्जक नामक तीन विशाल ग्रन्थागारों को बख्तियार खिलजी द्वारा जलाकर नष्ट कर दिया गया; जहाँ लाखों महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ राख के ढेर में तब्दील हो गये। इन ग्रन्थागारों से वर्षों तक धुआँ निकलता हुआ देखा गया । For Private and Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 73 श्रुतसागर जनवरी-फरवरी - २०१५ अस्तु! हमने यहाँ प्राचीन नागरी लिपि का किंचित् परिचय प्रस्तुत कर पाठकों की जिज्ञासा में अभिवृद्धि करने का प्रयास किया है। आशा है विद्वान गवेषक इस प्राचीन भारतीय धरोहर को युग-युगान्तरों तक जीवित रखते हुए आगे आनेवाली पीढियों तक सुरक्षित पहुँचाने का प्रयास करेंगे। धन्यवाद!!! संदर्भ ग्रन्थ १. भारतीय प्राचीन लिपिमाला, संपा. गौरीशंकर हीराचंद ओझा। २. अशोक कालीन धार्मिक अभिलेख, संपा. गौरीशंकर हीराचंद ओझा एवं श्यामसुन्दरदास। ३. प्राचीन भारतीय लिपिशास्त्र एवं मुद्राशास्त्र, लेखक-एम.पी.त्यागी एवं आर.के.रस्तौगी। ४. अशोक अने एना अभिलेख, लेखक-गंगाशंकर शास्त्री। ५. अशोकना शिलालेखो, लेखक-भरतराम भानुसुखराम महेता। ६. भारतीय पुरालिपि विद्या, लेखक-दिनेशचंद्र सरकार। ७. लिपि विकास, लेखक-राममूर्ति मेहरोत्रा एम.ए.। ८. नागरी लिपि और हिंदी वर्तनी, लेखक-डॉ. अनंत चौधरी। ९. हिंदी भाषा एवं नागरी लिपि का विकास, लेखक-डॉ. कन्हैयालाल शर्मा। १०. मध्यकालीन नागरी लिपिनो परिचय, लेखक-श्री लक्ष्मणभाई भोजक। ११. ब्राह्मीलिपि का उद्भव और विकास, संपा. डॉ. ठाकुरप्रसाद वर्मा । १२. अशोक की धर्मलिपियाँ (भाग-१), काशी नागरीप्रचारिणी सभा। १३. अशोकना शिलालेखो ऊपर दृष्टिपात, लेखक-श्री विजयेन्द्रसूरिजी म.सा.। १४. भारतीय पुरालिपि शास्त्र, लेखक-जार्ज ब्यूलर। १५. वातायन (भारतीय लिपिशास्त्र एवं इतिहास के कुछ नवीन संदर्भ), लेखक डॉ. विन्ध्येश्वरी प्रसाद मिश्र 'विनय'। १६. संस्कृत पाण्डुलिपिओ अने समीक्षित पाठसंपादन-विज्ञान, प्रो. वसंतकुमार एम. भट्ट, नियामक भाषा साहित्य भवन, गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदाबाद । १७. प्राचीन भारतीय लिपि एवं अभिलेख, लेखक-डॉ. गोपाल यादव। १८. ब्राह्मी सिक्के कैसे पढ़ें, लेखक-श्री प्रदीप दत्तुजी वनकर। १९. भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला, लेखक-मुनिश्री पुण्यविजयजी म.सा.। २०. पाण्डुलिपि विज्ञान, लेखक-डॉ. सत्येन्द्रजी, राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी जयपुर से प्रकाशित। २१. शारदा लिपि मञ्जूषा, लेखक-डॉ. अनिर्वाण दश, इलाहाबाद (उ.प्र.) से प्रकाशित। For Private and Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सम्राट संप्रति संग्रहालयना प्रतिमा लेखो आजे आपणी पासे परंपरा अने श्रमण संस्कृतिनो क्रमबद्ध इतिहास प्राप्त नथी, इतिहासना अप्रकाशित केटलाय तत्त्वो ग्रंथ भंडारो, ताम्रपत्रो, शिलालेखो, अने प्रतिमालेखोमां धरबायेला छे. प्रतिलेखन पुष्पिकाओ, ताम्रपत्रो, शिलालेखो, अने प्रतिमालेखो आवी केटलीय ऐतिहासिक सामग्रीओथी ऐतिहासिक तत्त्वनुं अनुसंधान करी शकाय छे. आवी ऐतिहासिक साधन साम्रगीओमां प्रतिमालेखो अग्रता क्रमे छे, प्रतिमा लेखोमां सामान्यथी बे प्रकार मळे छे. १ पाषाण प्रतिमा लेखो अने २ धातु प्रतिमा लेखो. धातु प्रतिमानी अपेक्षाए पाषाण प्रतिमामां लेखो बहु ओछा प्राप्त थाय छे. प्रतिमा लेखोमां श्रमण परंपरा अने तत्कालीन श्राद्ध परंपरा अखंड रूपे प्राप्त थाय छे. श्रमण परंपराना इतिहासमां खूटती कडीओनुं अनुसंधान करवामां प्रतिमा लेखो बहु महत्त्वनो भाग भजवे छे. पूज्यपाद् गुरुदेव श्रीमद् आचार्य श्रीपद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज प्रभु शासनना आवा ऐतिहासिक मूल्योनी काळजी अने जतन माटे सतत उद्यमशील अने कांईक करी छूटवानी भावना धरावी, प्रभु शासननी शान अने गरिमाने हृष्ट पुष्ट करता रहे छे. पूज्य गुरुमहाराजना अथाग प्रयत्नथी निर्मित आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर अने सम्राट् संप्रति संग्रहालयमां आवी केटलीय ऐतिहासिक सामग्रीओ संकलित, संग्रहीत अने सुरक्षित छे. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संग्रहालयमा रहेला धातु अने पाषाण प्रतिमाना लेखो अहीं प्रस्तुत छे. आ लेखोने उतारी आपवानुं पुण्यकार्य परम पूज्य शासनसम्राट्श्री नेमिसूरिश्वरजी म. सा. ना समुदायना प. पू. आचार्यदेव श्रीसोमचंद्रसूरीश्वरजी महाराज साहेब अने एमना शिष्य परिवारे करी आप्युं छे. संग्रहालयमां जे क्रमांके धातु-प्रतिमाओ छे. ते क्रमानुसार ज प्रतिमाना लेखो प्रकाशित करीए छीए. १. विभागीय नं. ३२९, आदिश्वर भगवान, एकलतीर्थी यलदे श्रेयसे ......... मातृ. श्रीआदिनाथबिंबं कारितं । । प्र. श्रीसूरिभिः ।। २. विभागीय नं. ३३०, शांतिनाथ भगवान, एकलतीर्थी सं. १४५८ जे. शु. १० षंडेरज हुंबडन्यातीय श्रे. धरणा भार्या सईभल सु. ******. For Private and Personal Use Only णामुपदेशेन Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर ___75 जनवरी-फरवरी - २०१५ खीमसी भा. सारू..... सुत खेतसी आत्मश्रेयसे श्रीशांतिनाथ प्र. श्रीसूरिभिः ३. विभागीय नं. ३३१, पार्श्वनाथ भगवान, पंचतीर्थी ___ सं. १४३२ वर्षे वैशाख वदि ५ गुरो श्री काष्टासंघे हुंबडज्ञा. श्रीदेदा भा. मोखल सुत ........ केन श्रीपार्श्वनाथप्र. कारापितं प्र. भट्टारकश्रीमलयकीर्तिभिः । ४. विभागीय नं. ३३१, आदिश्वर भगवान, एकलतीर्थी सं. १४६१ व. ऊकेश वंशे श्रे. पदा भा........ पु. काजलेन...श्रीआदिनाथबिंबं कारित प्र. श्रीनरचंद्रसूरिभिः ५. विभागीय नं. ३३३, चंद्रप्रभस्वामी भगवान, पंचतीर्थी संवत् १५२९ वर्षे ज्येष्ट सुद ५ भोमे श्रीश्रीमालज्ञातीय ....... भार्या अरघू पुत्र खेताकेन स्वश्रेयसे श्रीचंद्रप्रभबिंब कारितं प्रतिष्ठितं श्रीनागेंद्रगछे श्रीकमलचंद्रसूरिणां पट्टे श्रीहेमरत्नसूरिभिः श्रीः ।। ६. विभागीय नं. ३३४, पार्श्वनाथ भगवान, एकलतीर्थी संवत् १६१६ वर्षे ज्येष्ट सुदि १२ बुधे स्थंभतीर्थे उपकेशवंशे सो. सहिजू सो. लखमसी श्रीपार्श्वनाथबिंब कारापितं श्रीवृद्धतपापक्षे क. श्रीकल्याणरत्नसूरिभिः प्रतिष्ठितं श्रेयोर्थ ।।छ।। ७. विभागीय नं. ३३७, जिनप्रतिमा, पंचतीर्थी _ ........ ८ भोमे श्रीमूलंघे । पैरपटान्वे(?न्वये) वैद पु. देवसी प्रती(ति)ष्ठितं पं. विजैसी(ह) ८. विभागीय नं. ३३७, कुंथुनाथ भगवान, पंचतीर्थी सं. १५२३ वर्षे वैशाख सुदि ९ सोमे प्राग्वाटज्ञा. मंत्रि जेसिंघ भार्या गागा सुत सहिदेकेन मातृपितृनि. आत्मश्रे. कुंथनाथबिंबं का. श्रीपिप्पल. श्रीधर्मसागरसूरिणा प्रतिष्ठितं वि.. ९. विभागीय नं. ३४०, जिनप्रतिमा सं. १७०२ व. १०. विभागीय नं. ३४१, निवप्रतिमा सं. १६४३ फा. सु. १३...... ज्ञाती. सा. ......... वासुले श्री आगमगच्छे........ For Private and Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 76 SHRUTSAGAR ___ January-February-2015 ११. विभागीय बं. ३४१, जिनप्रतिमा, एकलतीर्थी संवत् १६४२ फाल्गुण सित १० मूलसंघे क.धर्मकीर्ति-शीलभूषण-ज्ञानभूषणाम्नाये धीरहचैत्यां साधु खिमई भार्या जपा तत्पुत्र घाटम-टोडरौ घाटम भार्या रानी पुत्र ........... एतेषां .......... ब्रह्मवसा........ रेयोपदेशात् घाटमो नित्य प्रणमति। ११. विभागीय नं. ३८८, सुविधिनाथ भगवान, चतुर्विशतिका सं. १५११ माघ शु. ५ गुरौ श्रीश्रीमाल उ० सोम भा. सिरियादे तत्.... समार भा.............भा.श्रीरूरू.......पाथाकेन भा..........धनी भातृजाया पाथी टबकू .........सुत सधारण भातृ ज..दा-जीवण-श्रीरंग-सुखा-मल्हादैः प्रमुखकुटुंबपरिवृतेन श्रीसुविधिबिंबं का. प्र. तपा श्रीसोमसुंदरसूरि-श्रीमुनिसुंदरसूरिवर-श्रीजयचंद्रसूरिश्रीविशालराजसूरिशिष्य-संप्रतिविजयमानगच्छनायकश्रीश्री....... १३. विभागीय नं. ३८९, अजितनाथ भगवान, चतुर्विशतिका सं. १९५५ रा. फागुण वद ५ वीरागरु आहोरनगरप्रतीष्ठानं आदेसरजीरा ............ ममाई बंदर रूपादे वरजीरा स(?जय) श्री.......... १४. विभागीय नं. ३९३, पार्श्वनाथ भगवान, पंचतीर्थी संवत् १५१० वर्षे माग्रशर शुदि १० प्रग्वाट. ज्ञा. व्य. गजा भार्या हांसू सुत व्य. गेला भा. तेजूनाम्न्या स्वश्रेयोर्थं श्रीपार्श्वनाथबिंबं कारितं प्रति. तपागछे श्रीरत्नशेखरसूरिभिः ।। सांबोसणवासि १७. विभागीय नं. ३९७, अभिनंदनस्वामी भगवान, पंचतीर्थी ||।। संवत् १६४९ वर्षे महा वदि २ दिने पत्तनवास्तव्य श्रीश्रीमालीज्ञातीय वृद्धशाखीय दोसी समरथ भा. वाछी सुत दो. रामजी-रुपचंद्राभ्यां श्रीअभिनंदनजिनरत्नमयबिंब कारितं प्रतिष्ठितं श्रीतपागच्छाधिराजश्रीहीरविजयसूरिभिरितिभद्रम् व वदि ज्ञा:=ज्ञातीय व्य =व्यवहारी संकेतसूचि श्रे.=श्रेष्ठी सं-संवत भा. भार्या पु.=पुत्र सो. सोभन? पं. पंडित का:-कारितं प्रति.प्रतिष्ठित दो. दोशी For Private and Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुस्तक नाम संपादक विवेचक (गुजराती) विवेचक (अंग्रेजी) प्रकाशक प्रकाशन वर्ष मूल्य भाषा पुस्तक समीक्षा डॉ. हेमन्तकुमार : हृदयप्रदीप षट्त्रिंशिका : मुनि श्री मृगेन्द्रविजयजी : चिरंतनाचार्य : मुनि श्री मृगेन्द्रविजयजी : सुश्री नीलेश्वरी कोठारी : जैन योग फाउन्डेशन : ईस्वी सन् २००० : ५०/: संस्कृत, गुजराती एवं अंग्रेजी जैनसाहित्य में आराधक भाव का निरूपण करनेवाले अनेक विशाल ग्रंथ उपलब्ध हैं. उन विशाल ग्रंथों के मध्य हृदयप्रदीप षटिंत्रशिका नामक प्रस्तुत ग्रंथ की लघुकाया में विषय की विशालता का संयोजन होने के कारण बड़े पैमाने पर मुमुक्षु, साधक, आराधक आदि इस ग्रंथ को हृदयंगम करते हैं तथा अनुप्रेक्षा आदि के लिए महत्तम उपयोग करते हैं. इसका प्रत्येक श्लोक अज्ञान के अन्धकार को हटाकर आत्मा में प्रज्ञा के प्रकाश को फैलानेवाला है. इस ग्रंथ की रचना करके कर्ता ने मुमुक्षुओं के मोक्षमार्ग को सुलभ बनाने का पूर्ण प्रयास किया है. प्रस्तुत ग्रंथ एक अति उपयोगी ग्रन्थ है, क्योंकि इसमें दुर्विचार एवं दुर्ध्यान को रोकने तथा मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर होने हेतु बहुत ही सुन्दर ढंग से वर्णन किया गया है. इस ग्रंथ को नित्यप्रति हृदयंगम करने से मन में दुर्विचार आदि का प्रादुर्भाव नहीं हो पाता है और जीवन को सुंदर अध्यात्म मार्ग की दिशा मिलती रहती है. मूल श्लोक कंठस्थ करने एवं नियमित भावन करने जैसे हैं. प्रस्तुत ग्रंथ में शब्द एवं भाषा की मर्यादा होते हुए भी यथाशक्य हृदय के अनेक भावों को प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया गया है. विद्वान पूज्य मुनिश्रीजी ने प्रत्येक श्लोक का प्रथमतः सामान्य गुजराती अर्थ करते हुए उन श्लोकों का अनेक शास्त्रों से विषयानुकूल उद्धरणों के साथ For Private and Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 78 SHRUTSAGAR January-February - 2015 विस्तारपूर्वक विवेचन किया है. जो गुजराती भाषा-भाषी मुमुक्षुओं के लिये बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी. इसके साथ ही अंग्रेजी भाषा-भाषी मुमुक्षुओं के लिये यह ग्रंथ उपयोगी हो सके इस हेतु से सुश्री नीलेश्वरी कोठारी ने श्लोकों का अंग्रेजी भाषा में पद्यानुवाद व विवेचन लिखकर समाज पर उपकार ही किया है. इनके द्वारा प्रकाशन के अन्त में जैन पारिभाषिक शब्दों का अंग्रेजी शब्दार्थ दिया गया है, जो मुमुक्षुओं के लिये उपयोगी सिद्ध होगा. इस लघु ग्रंथ में अनेक रहस्य छुपे हुए हैं. इसमें कोई विधि-विधान, क्रियाकलाप, साधना-आराधना या मत मतान्तर की बात नहीं है. है तो केवल आत्मा के सामर्थ्य को सूचित करने का रहस्य. आज के युग का मानव दैहिक-भौतिक सुखों की माया में फंसा हुआ है. भौतिक सुखों की चाहना एवं आधुनिकता की इस भाग-दौड़ में अपना मूल स्वभाव भूल बैठा है. इस संसार से बाहर भी कोई तत्त्व है, इसका भान भी नहीं हो पा रहा है. उसे यह पता ही नहीं चल रहा है कि आत्मा और मोक्ष नामक भी कोई तत्त्व है. ऐसे व्यक्तियों को इस ग्रंथ के पठनमनन से उनके हृदय में एक नई रोशनी का संचार होगा जो उसे वास्तविक सुख की राह बताएगा. इस लघु ग्रंथ की रचना सरल एवं रोचक भाषा-शैली में की गई है. गागर में सागर भरा हो ऐसी गंभीरता इसके प्रत्येक श्लोक में है, ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं कही जाएगी. पूज्य मुनि श्री मृगेन्द्रविजयजी ने गुजराती भाषा में एवं सुश्री नीलेश्वरी कोठारी ने अंग्रेजी में विस्तृत विवेचन कर गुजराती एवं अंग्रेजी भाषा-भाषी मुमुक्षुओं-वाचकों के लिए सरल एवं सुबोध बनाने का जो अनुग्रह किया है, वह सराहनीय एवं स्तुत्य कार्य है. भविष्य में भी जिनशासन की उन्नति एवं श्रुतसेवा में समाज को इनका अनुपम योगदान प्राप्त होता रहेगा, ऐसी प्रार्थना करता हूँ. पूज्य मुनिश्रीजी के इस कार्य की सादर अनुमोदना के साथ कोटिशः वंदन. For Private and Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विश्वप्रसिद्ध श्री नाकोड़ातीर्थ की पावन भूमि पर ऐतिहासिक अंजनशलाका प्रतिष्ठा महोत्सव सानन्द सम्पन्न परम पूज्य राष्ट्रसन्त शासन प्रभावक आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज साहब की पावन निश्रा में विश्वप्रसिद्ध श्री नाकोड़ा तीर्थ पर नव निर्मित विशाल व भव्य समवसरण जिनालय में पार्श्वप्रभु की प्रतिमा की प्रतिष्ठा पूर्ण धार्मिक विधिविधान के साथ सम्पन्न हुई. इस शुभ अवसर पर दिनांक २६ जनवरी से ३ फरवरी, २०१५ तक आयोजित नौ दिवसीय प्रतिष्ठा महोत्सव में विभिन्न धार्मिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया गया. अंजनशलाका प्रतिष्ठा महोत्सव का शुभारम्भ दिनांक २६ जनवरी, १५ की प्रातः वेला में कुंभस्थापन, ज्वारारोपण आदि विभिन्न धार्मिक कार्यक्रमों के साथ किया गया. दोपहर के समय प्रभु श्री पार्श्व पंच कल्याणक पूजन किया गया. द्वितीय दिन प्रातः जलयात्रा विधान, वेदिका पूजन, वेदी पर प्रभुजी की स्थापना, श्री घंटाकर्ण पूजन, क्षेत्रपाल पूजन, भैरव पूजन, १६ विद्यादेवी पूजा, नवग्रह पूजा, १० दिक्पाल पूजा, अष्टमंगल पूजन, बृहद् नंद्यावर्त पूजन आदि का कार्यक्रम हुआ. दोपहर में नव्वाणु प्रकार की पूजा तथा संध्या में भक्ति गीत का आयोजन किया गया. तृतीय दिन प्रातः लघु सिद्धचक्र पूजन, लघु वीस स्थानक पूजन के साथ दोपहर में सिद्धचक्र महापूजन का कार्यक्रम हुआ तथा संध्या में पार्श्वनाथ एवं भैरव देव की नृत्य नाटिका का आयोजन किया गया. प्रतिष्ठा महोत्सव के चतुर्थ दिन प्रातः च्यवन कल्याणक महोत्सव के अन्तर्गत माता-पिता, इन्द्र-इन्द्राणी स्थापना, प्रतिष्ठाचार्य स्थापना, धर्माचार्य पूजन, १४ स्वप्न दर्शन आदि कार्यक्रम आयोजित किए गए. दिन में वीस स्थानक महापूजन तथा संध्या में भक्ति गीत का आयोजन हुआ. पंचम दिवस जन्म कल्याणक विधान के साथ ५६ दिक्कुमारी महोत्सव, ६४ इन्द्रों द्वारा मेरु पर्वत पर अभिषेक आदि का कार्यक्रम हुआ. दिन में १८ अभिषेकविधान के साथ सायं में भक्ति संध्या का कार्यक्रम किया गया. षष्टम् दिवस प्रातः जन्म बधाई, नामकरण, पाठशाला गमन तथा दोपहर में लग्न महोत्सव, राज्याभिषेक आदि के कार्यक्रम आयोजित किए गए. For Private and Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 80 SHRUTSAGAR January-February - 2015 कार्यक्रम के सप्तम दिवस दीक्षा कल्याणक महोत्सव मनाया गया जिसमें, वरघोडा के साथ भैरुजी की रथयात्रा निकाली गई, दिन में 108 नाकोड़ा पार्श्व भैरव पूजन तथा सायंकाल में भक्ति संध्या का आयोजन किया गया. . प्रतिष्ठा महोत्सव के अष्टम् दिवस जो कार्यक्रम का मुख्य दिन था, उस दिन प्रतिष्ठाचार्य राष्ट्रसन्त प. पू. आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. के साथ प. पू. गच्छाधिपति आचार्यदेव श्री जिनकैलाशसागरसूरीश्वरजी म. सा., पद्मगौरव प. पू. आचार्यदेव श्री वर्धमानसागरसूरीश्वरजी म. सा., प. पू. आचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी म. सा., प. पू. आचार्यदेव श्री हेमचंद्रसागरसूरीश्वरजी म. सा., प. पू. आचार्यदेव श्री विवेकसागरसूरीश्वरजी म. सा., प. पू. आचार्यदेव श्री विमलसागरसूरीश्वरजी म. सा., प. पू. आचार्यदेव श्री रविशेखरसूरीश्वरजी म. सा., प. पू. आचार्यदेव श्री रैवतसूरीश्वरजी म. सा., प. पू. आचार्यदेव श्री आनन्दघनसूरीश्वरजी म. सा., महोपाध्याय श्री ललितप्रभसागरजी म. सा., श्री चंद्रप्रभसागरजी म. सा., गणिवर्य श्री प्रशांतसागरजी म. सा. आदि अनेक श्रमणश्रमणियों की पावन निश्रा एवं बड़ी संख्या में पधारे श्रावक-श्राविकाओं की उपस्थिति में शुभ लग्न में प्रतिष्ठा, ध्वजारोहण, स्वर्ण कलश स्थापना आदि विभिन्न धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न हुआ. दिन में अष्टोत्तरी शान्ति स्नात्र बड़ी पूजा की गई. इस कार्यक्रम के साथ अभिनन्दन समारोह का भी आयोजन किया गया, जिसमें विशिष्ट महानुभावों को सम्मानित किया गया. संध्या में भक्ति संगीत का कार्यक्रम हुआ. अन्तिम दिन प्रातःकाल में द्वारोद्घाटन किया गया तथा सत्तरभेदी पूजा. की गई. सभी कार्यक्रम बड़े ही हर्षोल्लास पूर्वक धार्मिक वातावरण में सम्पन्न हुए. इस पावन अवसर पर देश के विभिन्न भागों से बड़ी संख्या में देव-गुरु-तीर्थ भक्त पधारे थे. संपूर्ण तीर्थ को रंग-बिरंगे ध्वज-पताके, रोशनी आदि से सजाया गया था. महोत्सव में भाग लेने हेतु आए सभी महानुभावों के लिये आवास एवं भोजन की बहुत ही सुन्दर व्यवस्था की गई थी. For Private and Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KO Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra For Private and Personal Use Only कापकाश्विकोश्चिडछात्रगृह्मचापवायंनिस्विपलमनपारेपारे अश्सनावद्याध्यकलोमतगताविनामाण्यादयःकिनाजत्यपिविश्वननारसप्या नावाझापालनमा पोबारादविवाहावाशिवायवत्तवायवाग्राकाल मिरमाज्ञाताहायाशादायावराणाधवसवादशवपादयश्वसवरायाप्रतिवादनास्पासवामादकारी नीयमादनासादि स्पदम्या पवनात्यामाराधनएतापरिनिता निवासिचायकायनानिस्थितियां शादियाघसादनादिनामकायेdaमायसवायविमाडमिन कम कराता शनिवानरागावयाळासवणाकानविद्याःकाम पादपावलवमानमारियादरमवाविरनिवितातापपरभणकणमाको बसखामादबध्यकालामिति विकाणालाकाणांकानटातोमलचेयुगलनंयांचातानस्पंतपस्विकृतामध्यप्रणामसम्पायश्वित्रेकिंगावलिशाश्ममवीनाताशिरामारकंटकांउदंतीविरकाालाईमसदको वासनाधिश्वरककोतियानासनिपानासाशिवामदयालवितानामिाध्यमोनिनिमताruaदास्थलासिनीनवेवपानिकोरोकारोवणायामाधावतयानासर्वदाममानव कवापियदिसावंगावपायगोप्रतिमामानारतावदियास्यवासाकिमनायोनानाध्यामिदासामिासबाकासाकिकमानसिंप्रतिपद्यरचनाधनाता परक्रावापंतिवीतरागाना विद्यामानाचा विधाप्रकाशाबाश्रीभादमपतवाहीतरागतवादिनःकमारपालन पालपानाफलमाशिनाबामियांतिधा विनिशातगानेशांता शिवनमस्कृत्यामानाविhिal मद्यपादेशातायाोमिश्चमितिनिधितववासनामानामालगवातहीनडोरशोप्ति विनायडयधावटछानिनाशिनदमिानदमिनीश्सकलाविधिकमहासंपतिसमविताय नस्पायशिलाकापूजितायवनामानमाविशदवायाधिसमिरससदस्खामिक संपवितायनिवितायाधुवनङमणालानाधतासमायसतवनमनारमाधसर्वशिनामनाचानक रायास शिवषडामनायाजधाहन्ननपिनावाशाकिनातीपशमनायायास्पतिना ममत्रपक्षनवारक्राणायागरुतानाधावियाऊसातकान हितासिनिवमतानमाननानिदिसक्छ नमासतगव विविकायमझायपरामराराडाताअपराजिातागत्याजव्यसावित्रयावद समिमाजिशमानकल्यामंगल प्रदादासाधनावसदाशिनासावाटपावाया सध्यानीमनसिाहानिglaविष्णकननिसखानाअत्तयपदाननिरानानामासुस्वसिप्रावनस्पतामाङननासानिमामातादवासम्परावाना तिरतिमातवाहप्रदा नवासननिरतानाशा तिनतानावकगनिकनताना श्रीसएकालियानादमियावविविजयशसलिलानalanविधायदाकारागारणलटाताराकसारगणमागवाारातखाम दादिन्याश्यअवरकरमशिवाकरुऊरुशातिवकरसादवित्रविकरुनविकरुश्वविऊरुकमनिamalariah निशिबिमाकरकरुकमामाविमतिमामाना फकीऊकायकाकाऊरकुट्खाहवागवंडिन्नामाकरचरस्मरसताडामावाकसावधातिनामितानामानमशोतायतास्मापकानपूर्वरिदशिनमपदविदासत्तासातास लिस्लादिनयविनाशात्याविरश्चन्तक्तिमाश्विद्यापतिसदाटणतिनावयनिवारवायागासहजी तिपदेयाबारिश्रीमानादच्छाश्याबाश्री श्रीयीतरागसर्वज्ञजिशपरमेश रानगवसिजगन्नाधऊयतारकपारगारनिषिनिगतहषजयनित्तिनिर्मदानिरीहनिरहंकारकरूयारमसागराजयनियिनिमणिकटिकनिवनिनिग सारथानविशाइसाइकिन्दिोवाक्षिदोनयद बालवेदास्पाहादीनिर्ममामभनायकमनानंसुदिवसंक ल्याशियमंगला बहात होम्बिवलोकानाव www.kobatirth.org प्राचीन नागरी लिपिमा लखायेल शान्तिस्तवनी हस्तप्रत, चित्र Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir TITLE CODE : GUJ MUL 00578. SHRUTSAGAR (MONTHLY). POSTAL AT. GANDHINAGAR. ON 15TH OF EVERY MONTH. PRICE : RS. 15/- DATE OF PUBLICATION JAN-FEB. 2015 kclePDELEScikckengRELECTari BR2ll i 254P2NETLER Ekta 200k Matertenaa2132LMEERellptahik JERNET EstaarkarteSTEREsthener डाष्ट्रष्टलकरचरिततसनस्लेदारालंकालीक याककााककाड़ककककाकाककसर६७ हामतिरवन शुदरसिबितरवावा? प्राचीन नागरीमां लखायेल वर्णमालिकानी काष्ठपट्टीका प्रकाशक आचार्य श्री कैलाससागरसरि ज्ञानमंदिर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर 382007 फोन नं. (079) 23276204, 205, 252, फेक्स (079) 23276249 Website : www.kobatirth.org email : gyanmandir@kobatirth.org BOOK-POST / PRINTED MATTER PRINTED, PUBLISHED AND OWNED BY : SHRI MAHAVIR JAIN ARADHANA KENDRA, PRINTED AT : NAVPRABHAT PRINTING PRESS. 9-PUNAJI INDUSTRIAL ESTATE, DHOBHIGHAT, DUDHESHWAR, AHMEDABAD-380004 PUBLISHED FROM: SHRI MAHAVIR JAIN ARADHANA KENDRA, NEW KOBA, TA. & DIST. GANDHINAGAR, PIN : 382007, GUJARAT EDITOR: HIRENBHAI KISHORBHAI DOSHI For Private and Personal Use Only