Book Title: Sangit Makarand
Author(s): Narad, Mangesh Ramkrishna Telang
Publisher: Central Library
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “અહો! શ્રુતજ્ઞાન” ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૧૯૧ સંગીત મકરન્દ ': દ્રવ્ય સહાયક : પૂ. આ. શ્રી જિનચસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના આજ્ઞાનુવર્તિની પૂ. સા. શ્રી સુલોચનાશ્રીજી મ. ના શિષ્યા પૂ. સા. શ્રી સુર્યકળાશ્રીજી મ. ની પ્રેરણાથી શ્રી હસ્તગિરિ એપાર્ટમેન્ટ, સાબરમતી શ્રાવિકા ઉપાશ્રયની જ્ઞાનદ્રવ્યની ઉપજમાંથી : સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સોમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૫ (મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543 સંવત ૨૦૭૧ ઈ. ૨૦૧૫ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६५ (ई. 2009) सेट नं.-१ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। પુસ્તકનું નામ ક્રમાંક પૃષ્ઠ કર્તા-ટીકાકાર-સંપાદક पू. विक्रमसूरिजी म.सा. पू. जिनदासगणि चूर्णीकार पू. मेघविजयजी गणि म. सा. 001 002 003 004 005 006 007 008 009 010 011 012 013 014 015 016 017 श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद - 05. 018 019 020 021 022 023 024 025 026 027 028 029 श्री नंदीसूत्र अवचूरी श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी श्री अर्हद्गीता भगवद्गीता श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं श्री मानतुङ्गशास्त्रम् अपराजितपृच्छा शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम् शिल्परत्नम् भाग - १ शिल्परत्नम् भाग - २ प्रासादतिलक काश्यशिल्पम् प्रासादमञ्जरी राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र शिल्पदीपक वास्तुसार दीपार्णव उत्तरार्ध જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ जैन ग्रंथावली હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ | न्यायप्रवेशः भाग-१ दीपार्णव पूर्वार्ध | अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग - १ | अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२ प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह तत्त्पोपप्लवसिंहः शक्तिवादादर्शः क्षीरार्णव वेधवास्तु प्रभाकर पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा. पू. पद्मसागरजी गणि म.सा. पू. मानतुंगविजयजी म.सा. श्री बी. भट्टाचार्य | श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री श्री प्रभाशंकर ओघडभाई श्री विनायक गणेश आपटे श्री प्रभाशंकर ओघडभाई श्री नारायण भारती गोंसाई श्री गंगाधरजी प्रणीत श्री प्रभाशंकर ओघडभाई श्री प्रभाशंकर ओघडभाई શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स શ્રી હિમ્મતરામ મહાશંકર જાની श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव श्री प्रभाशंकर ओघडभाई पू. मुनिचंद्रसूरिजी म. सा. श्री एच. आर. कापडीआ श्री बेचरदास जीवराज दोशी श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री श्री प्रभाशंकर ओघडभाई श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 238 286 84 18 48 54 810 850 322 280 162 302 156 352 120 88 110 498 502 454 226 640 452 500 454 188 214 414 192 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 030 031 032 033 034 035 036 037 038 039 040 041 042 043 044 045 046 047 048 049 050 051 052 053 054 शिल्परत्नाकर प्रासाद मंडन श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-१ | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३ (?) श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय - 3 (२) (૩) श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय -५ વાસ્તુનિઘંટુ તિલકમન્નરી ભાગ-૧ તિલકમન્નરી ભાગ-૨ તિલકમન્નરી ભાગ-૩ સપ્તસન્ધાન મહાકાવ્યમ સપ્તભઙીમિમાંસા ન્યાયાવતાર વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક સામાન્યનિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક સપ્તભઙીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા નયોપદેશ ભાગ-૧ તરઙિણીતરણી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરઙિણીતરણી ન્યાયસમુચ્ચય સ્યાદ્યાર્થપ્રકાશઃ દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ બૃહદ્ ધારણા યંત્ર જ્યોતિર્મહોદય श्री नर्मदाशंकर शास्त्री पं. भगवानदास जैन पू. लावण्यसूरिजी म.सा. पू. लावण्यसूरिजी म.सा. पू. लावण्यसूरिजी म.सा. पू. लावण्यसूरिजी म.सा. पू. लावण्यसूरिजी म.सा. પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) પૂ. લાવણ્યસૂરિજી શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. દર્શનવિજયજી પૂ. દર્શનવિજયજી સં. પૂ. અક્ષયવિજયજી 824 288 520 578 278 252 324 302 196 190 202 480 228 60 218 190 138 296 210 274 286 216 532 113 112 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર સંયોજક – બાબુલાલ સરેમલ શાહ શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન हीरान सोसायटी, रामनगर, साबरमती, महावाह - 04. (मो.) ९४२५५८५८०४ (ख) २२१३२५४३ ( - भेल) ahoshrut.bs@gmail.com अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ भर्णोद्धार संवत २०५५ (६. २०१०) - सेट नं-२ પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી. खा पुस्तो www.ahoshrut.org वेवसाइट परथी पए। डाउनलोड sरी शडाशे. પુસ્તકનું નામ ईर्त्ता टीडाडार-संचा ક્રમ 055 | श्री सिद्धम बृहद्वृत्ति बृहद्न्यास अध्याय-६ 056 | विविध तीर्थ कल्प 057 ભારતીય જૈન શ્રમણ સંસ્કૃતિ અને લેખનકળા | 058 सिद्धान्तलक्षगूढार्थ तत्त्वलोकः 059 व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका જૈન સંગીત રાગમાળા 060 061 चतुर्विंशतीप्रबन्ध ( प्रबंध कोश) 062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी 064 | विवेक विलास 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध 066 | सन्मतितत्त्वसोपानम् ઉપદેશમાલા દોઘટ્ટી ટીકા ગુર્જરાનુવાદ 067 068 मोहराजापराजयम् 069 | क्रियाकोश - 070 कालिकाचार्यकथासंग्रह 071 सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका 072 | जन्मसमुद्रजातक 073 मेघमहोदय वर्षप्रबोध 074 જૈન સામુદ્રિકનાં પાંચ ગ્રંથો ભાષા सं .: सं सं सं गु. सं श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी श्री रसिकलाल एच. कापडीआ श्री सुदर्शनाचार्य पू. मेघविजयजी गणि सं/गु. श्री दामोदर गोविंदाचार्य सं F सं सं सं पू. लावण्यसूरिजी म.सा. पू. जिनविजयजी म.सा. शुभ. सं सं/ हिं सं. सं. सं/हिं सं/हिं शुभ. पू. पूण्यविजयजी म.सा. | श्री धर्म श्री धर्मदत्त पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा. पू. लब्धिसूरिजी म.सा. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. पू. चतुरविजयजी म.सा. श्री मोहनलाल बांठिया श्री अंबालाल प्रेमचंद श्री वामाचरण भट्टाचार्य श्री भगवानदास जैन श्री भगवानदास जैन श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी પૃષ્ઠ 296 160 164 202 48 306 322 668 516 268 456 420 638 192 428 406 308 128 532 376 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '075 374 238 194 192 254 260 | જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૧ 16 | જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૨ 77) સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી 13 ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પ સ્થાપત્ય 79 | શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧ 081 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨ | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ 083. આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧ કલ્યાણ કારક 085 | વિનોરન શોર કથા રત્ન કોશ ભાગ-1 કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 088 | હસ્તસગ્નીવનમ 238 260 ગુજ. | | श्री साराभाई नवाब ગુજ. | શ્રી સYTમારું નવાવ ગુજ. | શ્રી વિદ્યા સરમા નવીન ગુજ. | શ્રી સારામારું નવીન ગુજ. | શ્રી મનસુબાન મુવામન ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી ગગન્નાથ મંવારમ ગુજ. | . વન્તિસાગરની ગુજ. | શ્રી વર્ધમાન પર્વનાથ શત્રી सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा ગુજ. | શ્રી લેવલાસ ગીવરાન કોશી ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરીન લોશી સ. પૂ. મેનિયની સં. પૂ.વિનયની, પૂ. पुण्यविजयजी आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी 114 '084. 910 436 336 087 2૩૦ 322 (089/ 114 એન્દ્રચતુર્વિશતિકા સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા 560 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार क्रम 272 240 सं. 254 282 466 342 362 134 70 316 224 612 307 संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | पुस्तक नाम कर्ता टीकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक 91 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१ वादिदेवसूरिजी सं. मोतीलाल लाघाजी पुना 92 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२ वादिदेवसूरिजी | मोतीलाल लाघाजी पुना 93 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३ बादिदेवसूरिजी | मोतीलाल लाघाजी पुना 94 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४ बादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-५ वादिदेवसूरिजी | मोतीलाल लाघाजी पुना 96 | पवित्र कल्पसूत्र पुण्यविजयजी साराभाई नवाब 97 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-१ भोजदेव | टी. गणपति शास्त्री 98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-२ भोजदेव | टी. गणपति शास्त्री 99 | भुवनदीपक पद्मप्रभसूरिजी | वेंकटेश प्रेस 100 | गाथासहस्त्री समयसुंदरजी सं. | सुखलालजी 101 | भारतीय प्राचीन लिपीमाला | गौरीशंकर ओझा हिन्दी | मुन्शीराम मनोहरराम 102 | शब्दरत्नाकर साधुसुन्दरजी सं. हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सबोधवाणी प्रकाश न्यायविजयजी ।सं./ग । हेमचंद्राचार्य जैन सभा 104 | लघु प्रबंध संग्रह जयंत पी. ठाकर सं. ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३ माणिक्यसागरसूरिजी सं, आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-१,२,३ सिद्धसेन दिवाकर सुखलाल संघवी 107 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४.५ सिद्धसेन दिवाकर सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका सतिषचंद्र विद्याभूषण एसियाटीक सोसायटी 109 | जैन लेख संग्रह भाग-१ पुरणचंद्र नाहर | पुरणचंद्र नाहर 110 | जैन लेख संग्रह भाग-२ पुरणचंद्र नाहर सं./हि पुरणचंद्र नाहर 111 | जैन लेख संग्रह भाग-३ पुरणचंद्र नाहर सं./हि । पुरणचंद्र नाहर 112 | | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१ कांतिविजयजी सं./हि | जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार 113 | जैन प्रतिमा लेख संग्रह दौलतसिंह लोढा सं./हि | अरविन्द धामणिया 114 | राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह विशालविजयजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 115 | प्राचिन लेख संग्रह-१ विजयधर्मसूरिजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 116 | बीकानेर जैन लेख संग्रह अगरचंद नाहटा सं./हि नाहटा ब्रधर्स 117 | प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१ जिनविजयजी सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 118 | प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२ जिनविजयजी सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 119 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-१ गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्वस गुजराती सभा 120 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-२ गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्बस गुजराती सभा 121 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३ गिरजाशंकर शास्त्री फार्बस गुजराती सभा 122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-१ | पी. पीटरसन रॉयल एशियाटीक जर्नल 123|| | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ पी. पीटरसन रॉयल एशियाटीक जर्नल 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-५ पी. पीटरसन रॉयल एशियाटीक जर्नल 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स पी. पीटरसन | भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा. 126 | विजयदेव माहात्म्यम् | जिनविजयजी सं. जैन सत्य संशोधक 514 454 354 सं./हि 337 354 372 142 336 364 218 656 122 764 404 404 540 274 सं./गु 414 400 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४ - - - प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। पुस्तक नाम भाषा प्रकाशक कर्त्ता / संपादक साराभाई नवाब महाप्रभाविक नवस्मरण गुज. साराभाई नवाब गुज. हीरालाल हंसराज गुज. पी. पीटरसन अंग्रेजी कुंवरजी आनंदजी शील खंड 133 करण प्रकाशः ब्रह्मदेव 134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह यशोदेवसूरिजी 135 भौगोलिक कोश- १ डाह्याभाई पीतांवरदास 136 भौगोलिक कोश-२ डाह्याभाई पीतांबरदास जिनविजयजी 137 जैन साहित्य संशोधक वर्ष १ अंक - १, २ जिनविजयजी जिनविजयजी जिनविजयजी जिनविजयजी जिनविजयजी क्रम 127 128 जैन चित्र कल्पलता 129 जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग - २ 130 ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६ 131 जैन गणित विचार 132 | दैवज्ञ कामधेनु ( प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ) 138 जैन साहित्य संशोधक वर्ष १ अंक ३, ४ 139 जैन साहित्य संशोधक वर्ष २ अंक - १, २ 140 जैन साहित्य संशोधक वर्ष २ अंक-३, ४ ४ 141 जैन साहित्य संशोधक वर्ष ३ अंक-१, 142 जैन साहित्य संशोधक वर्ष ३ अंक-३, 143 नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१ 144 नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२ 145 नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३ 146 भाषवति 147 जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण) 148 मंत्रराज गुणकल्प महोदधि 149 फक्कीका रत्नमंजूषा- १, २ 150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह) 151 सारावलि 152 ज्योतिष सिद्धांत संग्रह 153 १ २ ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम् नूतन संकलन आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन श्री गुजराती श्वे. मू. जैन संघ हस्तप्रत भंडार कलकत्ता सोमविजयजी सोमविजयजी सोमविजयजी शतानंद मारछता रनचंद्र स्वामी जयदयाल शर्मा कनकलाल ठाकूर मेघविजयजी कल्याण वर्धन विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी रामव्यास पान्डेय हस्तप्रत सूचीपत्र हस्तप्रत सूचीपत्र गुज. सं. सं./अं. गुज. गुज. गुज. हिन्दी हिन्दी हिन्दी हिन्दी हिन्दी हिन्दी गुज. गुज. गुज. सं./हि प्रा./सं. हिन्दी सं. सं./ गुज सं. सं. सं. हिन्दी हिन्दी साराभाई नवाब साराभाई नवाब हीरालाल हंसराज एशियाटीक सोसायटी जैन धर्म प्रसारक सभा व्रज. बी. दास बनारस सुधाकर द्विवेदि यशोभारती प्रकाशन गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी जैन साहित्य संशोधक पुना जैन साहित्य संशोधक पुना जैन साहित्य संशोधक पुना जैन साहित्य संशोधक पुना जैन साहित्य संशोधक पुना जैन साहित्य संशोधक पुना शाह बाबुलाल सवचंद शाह बाबुलाल सवचंद शाह बाबुलाल सवचंद एच. बी. गुप्ता एन्ड सन्स बनारस भैरोदान सेठीया जयदयाल शर्मा हरिकृष्ण निबंध महावीर ग्रंथमाळा पांडुरंग जीवाजी बीजभूषणदास जैन सिद्धांत भवन बनारस श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार पृष्ठ 754 84 194 171 90 310 276 69 100 136 266 244 274 168 282 182 384 376 387 174 320 286 272 142 260 232 160 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार | पृष्ठ 304 122 208 70 310 462 512 संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६९ (ई. 2013) सेट नं.-५ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | क्रम | पुस्तक नाम कर्ता/संपादक विषय | भाषा संपादक/प्रकाशक 154 | उणादि सूत्रो ओफ हेमचंद्राचार्य | पू. हेमचंद्राचार्य | व्याकरण | संस्कृत जोहन क्रिष्टे 155 | उणादि गण विवृत्ति | पू. हेमचंद्राचार्य व्याकरण संस्कृत पू. मनोहरविजयजी 156 | प्राकृत प्रकाश-सटीक भामाह व्याकरण प्राकृत जय कृष्णदास गुप्ता 157 | द्रव्य परिक्षा और धातु उत्पत्ति | ठक्कर फेरू धातु संस्कृत /हिन्दी | भंवरलाल नाहटा 158 | आरम्भसिध्धि - सटीक पू. उदयप्रभदेवसूरिजी ज्योतीष संस्कृत | पू. जितेन्द्रविजयजी 159 | खंडहरो का वैभव | पू. कान्तीसागरजी शील्प | हिन्दी | भारतीय ज्ञानपीठ 160 | बालभारत पू. अमरचंद्रसूरिजी | काव्य संस्कृत पं. शीवदत्त 161 | गिरनार माहात्म्य दौलतचंद परषोत्तमदास तीर्थ संस्कृत /गुजराती | जैन पत्र 162 | गिरनार गल्प पू. ललितविजयजी | तीर्थ संस्कृत/गुजराती | हंसकविजय फ्री लायब्रेरी 163 | प्रश्नोत्तर सार्ध शतक पू. क्षमाकल्याणविजयजी | प्रकरण हिन्दी | साध्वीजी विचक्षणाश्रीजी 164 | भारतिय संपादन शास्त्र | मूलराज जैन साहित्य हिन्दी जैन विद्याभवन, लाहोर 165 | विभक्त्यर्थ निर्णय गिरिधर झा संस्कृत चौखम्बा प्रकाशन 166 | व्योम बती-१ शिवाचार्य न्याय संस्कृत संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी 167 | व्योम वती-२ शिवाचार्य न्याय संपूर्णानंद संस्कृत विद्यालय | 168 | जैन न्यायखंड खाद्यम् | उपा. यशोविजयजी न्याय संस्कृत /हिन्दी | बद्रीनाथ शुक्ल 169 | हरितकाव्यादि निघंटू | भाव मिथ आयुर्वेद संस्कृत /हिन्दी | शीव शर्मा 170 | योग चिंतामणि-सटीक पू. हर्षकीर्तिसूरिजी | संस्कृत/हिन्दी | लक्ष्मी वेंकटेश प्रेस 171 | वसंतराज शकुनम् पू. भानुचन्द्र गणि टीका | ज्योतिष खेमराज कृष्णदास 172 | महाविद्या विडंबना पू. भुवनसुन्दरसूरि टीका | ज्योतिष | संस्कृत सेन्ट्रल लायब्रेरी 173 | ज्योतिर्निबन्ध । शिवराज | ज्योतिष | संस्कृत आनंद आश्रम 174 | मेघमाला विचार पू. विजयप्रभसूरिजी ज्योतिष संस्कृत/गुजराती | मेघजी हीरजी 175 | मुहूर्त चिंतामणि-सटीक रामकृत प्रमिताक्षय टीका | ज्योतिष | संस्कृत अनूप मिश्र 176 | मानसोल्लास सटीक-१ भुलाकमल्ल सोमेश्वर ज्योतिष ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 177 | मानसोल्लास सटीक-२ भुलाकमल्ल सोमेश्वर | ज्योतिष संस्कृत ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 178 | ज्योतिष सार प्राकृत भगवानदास जैन ज्योतिष प्राकृत/हिन्दी | भगवानदास जैन 179 | मुहूर्त संग्रह अंबालाल शर्मा ज्योतिष | गुजराती | शास्त्री जगन्नाथ परशुराम द्विवेदी 180 | हिन्दु एस्ट्रोलोजी पिताम्बरदास त्रीभोवनदास | ज्योतिष गुजराती पिताम्बरदास टी. महेता 264 144 256 75 488 | 226 365 न्याय संस्कृत 190 480 352 596 250 391 114 238 166 संस्कृत 368 88 356 168 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७१ (ई. 2015) सेट नं.-६ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम | विषय पहा पुस्तक नाम काव्यप्रकाश भाग-१ कर्ता/संपादक पूज्य मम्मटाचार्य कृत | भाषा संस्कृत 181 364 182 काव्यप्रकाश भाग-२ 222 183 काव्यप्रकाश उल्लास-२ अने३ संस्कृत संस्कृत संस्कृत 330 संपादक / प्रकाशक पूज्य जिनविजयजी पूज्य जिनविजयजी यशोभारति जैन प्रकाशन समिति श्री रसीकलाल छोटालाल श्री रसीकलाल छोटालाल | श्री वाचस्पति गैरोभा | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री 184 | नृत्यरत्न कोश भाग-१ 156 248 पूज्य मम्मटाचार्य कृत उपा. यशोविजयजी श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री अशोकमलजी श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव संस्कृत संस्कृत /हिन्दी 504 185 | नृत्यरत्न कोश भाग-२ 186 | नृत्याध्याय 187 | संगीरत्नाकर भाग-१ सटीक 188 | संगीरत्नाकर भाग-२ सटीक 189 संगीरनाकर भाग-३ सटीक संस्कृत/अंग्रेजी 448 440 616 | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री सुब्रमण्यम शास्त्री | श्री मंगेश रामकृष्ण तेलंग 190 संगीरत्नाकर भाग-४ सटीक संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत गुजराती | श्री सारंगदेव 632 नारद 84 191 संगीत मकरन्द संगीत नृत्य अने नाट्य संबंधी जैन ग्रंथो 193 | न्यायबिंदु सटीक 192 श्री हीरालाल कापडीया मुक्ति-कमल-जैन मोहन ग्रंथमाला । श्री चंद्रशेखर शास्त्री 220 संस्कृत हिन्दी 194 | शीघ्रबोध भाग-१ थी ५ सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा 422 हिन्दी सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा 304 पूज्य धर्मोतराचार्य पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य गंभीरविजयजी हिन्दी सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा 195 | शीघ्रबोध भाग-६ थी १० 196| शीघ्रबोध भाग-११ थी १५ 197 | शीघ्रबोध भाग-१६ थी २० 198 | शीघ्रबोध भाग-२१ थी २५ 446 हिन्दी सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा | 414 हिन्दी सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा 409 199 | अध्यात्मसार सटीक 476 एच. डी. वेलनकर संस्कृत/गुजराती | नरोत्तमदास भानजी संस्कृत सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ संस्कृत/गुजराती | ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ट्रस्ट 200| छन्दोनुशासन 200 | मग्गानुसारिया 444 श्री डी. एस शाह 146 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७२ (ई. 201६) सेट नं.-७ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची। पृष्ठ 285 280 315 307 361 301 263 395 क्रम पुस्तक नाम 202 | आचारांग सूत्र भाग-१ नियुक्ति+टीका 203 | आचारांग सूत्र भाग-२ नियुक्ति+टीका 204 | आचारांग सूत्र भाग-३ नियुक्ति+टीका 205 | आचारांग सूत्र भाग-४ नियुक्ति+टीका 206 | आचारांग सूत्र भाग-५ नियुक्ति+टीका 207 | सुयगडांग सूत्र भाग-१ सटीक 208 | सुयगडांग सूत्र भाग-२ सटीक 209 | सुयगडांग सूत्र भाग-३ सटीक 210 | सुयगडांग सूत्र भाग-४ सटीक 211 | सुयगडांग सूत्र भाग-५ सटीक 212 | रायपसेणिय सूत्र 213 | प्राचीन तीर्थमाळा भाग-१ 214 | धातु पारायणम् 215 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-१ 216 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-२ 217 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-३ 218 | तार्किक रक्षा सार संग्रह बादार्थ संग्रह भाग-१ (स्फोट तत्त्व निरूपण, स्फोट चन्द्रिका, 219 प्रतिपादिक संज्ञावाद, वाक्यवाद, वाक्यदीपिका) वादार्थ संग्रह भाग-२ (षट्कारक विवेचन, कारक वादार्थ, 220 | समासवादार्थ, वकारवादार्थ) | बादार्थ संग्रह भाग-३ (वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थ निर्णय, 221 __ शाब्दबोधप्रकाशिका) 222 | वादार्थ संग्रह भाग-४ (आख्यात शक्तिवाद छः टीका) कर्ता / टिकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक | श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री मलयगिरि | गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ.श्री धर्मसूरि | सं./गुजराती | श्री यशोविजयजी ग्रंथमाळा श्री हेमचंद्राचार्य | संस्कृत आ. श्री मुनिचंद्रसूरि श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ. श्री वरदराज संस्कृत राजकीय संस्कृत पुस्तकालय विविध कर्ता संस्कृत महादेव शर्मा 386 351 260 272 530 648 510 560 427 88 विविध कर्ता । संस्कृत | महादेव शर्मा 78 महादेव शर्मा 112 विविध कर्ता संस्कृत रघुनाथ शिरोमणि | संस्कृत महादेव शर्मा 228 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GAEKWAD'S ORIENTAL SERIES Edited under the supervision of the Curator of State Libraries, Baroda. No. XVI. Page #12 --------------------------------------------------------------------------  Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारदविरचितः सङ्गीतमकरन्दः। SANGITA-MAKARANDA OF NÂRADA EDITED WITH INTRODUCTION AND APPENDICES BY MANGESH RAMAKRISHNA TELANG, Retired Head Shirastedar of the Bombay High Court, "EDITOR OF SANGITA RATNAKARA, MAHAVIDYA-VIDAMBANA, &c. · PUBLIBHED UNDER THE AUTHORITY OF THE GOVERNMENT OF NIS HIGHNESS THE MAHARAJA GAEKWAD OF BARODA. CENTRAL LIBRARY, BARODA. 1920. Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published by Janardan Sakharam Kudalkar, M. A., LL. B., Curator of State Libraries, Baroda, for the Baroda Government, and Printed by Ramchandra Yesu Shedge, at the Nirnaya-Sagara' Press, 23, Kolbhat Lane, Bombay. Price Rs. 2 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION The present book entitled Sangitą Makaranda by Nárada is one of the very few Sanskrit works on Music that have been hitherto printed and published. . Materials for a history of ancient Indian MusicIf the reader will just have a glance at the list, which is by no means complete, of Sanskrit works specially appended to this edition for the information of the researchers in the Department of Music, he will have an idea of the extent of the literature on the subject. The list does not include the names of a number of works written by many ancient masters of Music such as Vena, Matanga, Kobala. Tumburu, Yashtika, Vis'yávasu. Hanuman alias A Dantila, Kambala, As'vatara, Rudrata, Kds'yapa, Umapati', Gopala Nayaka &c. from whose works quotations have been made by Chaturą Kallinâtha ( about A. D. 1400-1500) in his commentary on Sangita Ratnakara. Unfortunately Kallinátha mentions only the names of the authors and not the names of their works. Hence the names of the works of these authors could not be included in the list. In the above commentary Chatura Kallinatha. has quoted one whole chapter from a work called "Sangita Merui', by Kobala. In this chapter Kohala mentions the names of the following writers on Music (probably dancing ) :-Bhatta Tandu, S'ambhu, Sumantu, Purari, Kshemardja and Lohita Bhatta. He also mentions the name of a work entitled Des'i Nritta Samudra by Nárada. S'arngadeva mentions a work called Brihaddes't by Yâshtika. Besides these, names of numerous other authors have been mentioned by Sarngadeva in his Sangita Ratnakara without specifying their works. As research work is being carried on by various Scholars and Institutions, it is likely that many of these works may come to light hereafter. 1. The Baroda Central Library has secured a copy of Umâ pati's work entitled "Aumapatya” from the Ms, in the Madras Govt. Library. 2. Vide Sangita Raindkara Vol. II, p. 679. 3. Vide Sangita Ratnakara Vol. I. p. 184. S Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION. If all this vast hidden literature on Music existing in manuscripts at present be published, it will supply sufficient material to scholars to construct an authentic history of the origin and development of. Aryan Music in India. Besides these works, the Vedâs, Bramhanas, Aranyakas, the various Suttras, Smritis, Puranas, and the Kavyas and all such ancient literature, if studied critically with a view to collect materials for a history of Music, will surely disclose much interesting and valuable information. As an instance I may quote here the following passage from Aitareya Ärnyaka which incidentally furnishes a description of the Viņa that was in vogue in those times :. “अथ खल्वियं दैवी वीणा भवति, तदनुकृतिरसौ मानुषी वीणा भवति । यथास्याः शिर एवममुष्याः शिरः, यथास्या उदरमेवममुष्या अम्भणम् । यथास्यै जिव्हा एवममुष्यै वादनम् , यथा अस्यास्तत्रयः एवममुष्या अडलयः। यथास्याः खरा एवममुष्याः खराः, यथास्याः स्पर्शा एवममुख्याः स्पर्शाः, यथा सेवेयं शब्दवती तर्भवती एवमसौ शब्दवती तर्मवती, यथा येवेयं लोमशेन चर्मणाऽपिहिता भवति एवमसौ लोमशेन चर्मणाऽपिहिता । लोमशेन ह स वै चर्मणा पुरा वीणा अपिदधति । स यो हैतो दैवीं वीणां वेद श्रुतवदनो भवति, भूमिप्राऽस्य कीर्तिर्भवति, यत्र कचार्या वाचो भाषन्ते विदुरेनं तत्र " इति ऐतरेयारण्यक भा० ३ ० २ खं०५ (आनन्दाश्रमपुस्तक पृ० २२२) Now this passage furnishes a good deal of information about the Vind then in vogue. The words Ambhana, Vadana. Tantr yah, Svarah, Sparsah, Sabda and Tardma as applied to Vina have a technical sense and prove that the Modern Viņa (Bîna) has much in common with the ancient Viņâ. Besides, the passage specially records the fact that in earlier times prior to the composition of the work (Aitareya Bramhana ) a part of the Viņa was coverved with leather and that the practice had disappeared at the time of the said work. . Origin of Aryan Music The elements of the art of Music seem to have originated with the Vedic songs called "Samas" which were sung at the time of performing particular ceremonies during a sacrifice. The rules about the singing of these "Samas" are recorded in some ancient Sanskrit treatises. We have no means of ascertaining the process by which the “ Sama" Music Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION. III developed into the more refined Music practised at the time of Bharata who is known as the founder of the present system of Music, although subsequent professors of the art may have further developed it and established different schools of Music by introdu cing innovations by their talents. · Bharata's Natya Sastra-Bharata's Natya S'astra is the most ancient of the books on Music handed down to posterity. Some scholars assign it to the first century after Christ, others to the fourth century. It is well-known that it is difficult to decide precisely the dates of ancient authors. Although as already hinted above many writers on Music came after Bharata, we have no means of giving any historical account of their lives and works. S'ârngadeva's Sangita Ratnakara-the next author, whose work is available in print, is S'ârngadeva, the author of Sangita Ratnakara, who lived in the reign of King S'inghana of Devagiri Modern Doulatâbâd (A. D. 1210-1247). Among the authors of books on Music, besides the names of deities such as Sadasiva &c., S'arngadeva mentions the following names :— Bharata, Kas'ypa, Matanga, Yas'tika, S'ardûla, Kohala, Vis'akhila, Dantila, Kambala, As'vatara, Vayu, Vis'vâvasu, Arjuna, Narada, Tumburu, Anjaneya, Matrigupta, Swâti, Guņa, Bindurâja, Kshetrarâja, Râhala, Rudrata, Nânya-bhûpâla, Bhojarâja and Paramardi Somes'a Mahipati. Among the commentators on Bharata's Natya Sastra he mentions the names of Lollata, Udbhata, S'ankuka, Abhinavagupta and Kîrtidhara. I do not take any account of several other books such as Sangita Parijata, Ragavibodha, Sangita Darpana, Rhidaya-Koutuka, Rhidaya-prakás'a &c., because all of them are of a later date. Nârada, the author of the present work Sangita Makaranda-The present work viz., Sangita Makaranda is said to be the work of Narada on the authority of the manuscript. It is difficult to say anything with certainty about Narada's life and time. Ι shall place before the reader whatever can be gathered from internal evidence available in the book itself. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUOTION. But before doing so I must mention that three works on music are ascribed to Narada viz., 1 anet fut, 2 ETU and 3 arcu . Of these the first is available in print. On comparing it with the present work, I am of opinion that the authors of both these works are not identical. The Naradt Siksha appears to be an older work. For its language is archaic and it treats more of “ Sama-gana” (Vedic Music ) than later music. As regards the other two works I am unable to give any opinion as the manuscripts of these works are not available. Another work of this name Sangita Makaranda by Veda is mentioned in the list of works on music appended to this book. But as the name of the author is Veda and not Närada, it is likely that it might be different from the present work. The two systems of Music now in yogue in IndiaBefore entering into a critical examination of the present work, it is necessary here to state that at present there are two systems of Music in vogue in India. The one is called the Hindustani or Northern India system which prevails in Northern India, Bengal, Sindha, Gujaratha and Maharashtra. The other is called the Dakshinadi or Southern India system which prevails in the Madras Presidency including Tailangana, Karnataka and Malabar countries. At present we have no definite material to ascertain the time when these two systems grew differently from the original system of Bharata and other ancient musicians who founded the scientific system of Indian music. This bifurcation seems to have taken place long before S'ärngadeva, the author of Sangita Ratnakarce A. D. 1210-1247. Points of difference between the Northern and Southern India systems of Music-The points of difference in the two systems are many, such as the names of the Rågas and their scales, the Gamakas or blending of notes, the construction of the species of songs &c., but the chief difference seems to be that the Northern India Musicians divided the Raga's primarily into six principal Râgas and each principal Raga had five Bharyas (wives). Sangita Darpaņa, Sangita Ratnávali, &c., support this system. But the Southern India system does not divide the Ragas on the Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION. above principle. In that system the Ragas are divided according to the different scales on which they are based. Sangita Ratnakara, Sangita Parijata, Ragavibodha &c., follow this system. Division of Râgas followed in the present work-The present book Sangita Makaranda) mentions two different divisions of the Ragas into six principal Ragas and their wives1. This division of the Ragas suggests that the book belongs to the Northern India system. But it must be observed that the current Ragas obtaining in the practice of modern Music of Northern and Southern India differ widely from the definitions given in all the ancient Sanskrit Books such as Sangita Ratnakara, Sangita Parijata, Ragavibodha, Sangita Darpana &c. A few observations on the present work-The text of Sangtta Makaranda is inaccurate in many places as it is based on only one manuscript supplied to me by the Baroda authorities, The manuscript is full of the mistakes of the copyist. I have eorreeted many of these mistakes as far as possible with the help of Sangita Ratnakara, &c. But in many places there are apparently deviations from the rules of syntax. I did not think it proper to correct these in the absence of another copy. But in such cases I have given the suggested readings in brackets or in footnotes or made a query against the words of the text. Our author seems to have been different from the Nârada Rishi of the Puranas as his name is mentioned by our author in the Mangala verse 2 on page 1. Our author divides musical sounds into five kinds viz. 1 sound produced by playing Vina-strings with nails, 2 sound produced by means of wind through wind instruments, 3 r sound produced by means of leather through instruments, such as drums, &c., 4 sound produced by metal pieces, such as cymbals &c., 5 शारीरज sound produced by the human throat. As far as I know none of the printed ancient works introduce this peculiar division of Musical sounds. 1. Vide verses 68 to 78, pages 19 and 20. 2 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION. The families, castes, colours Dweepas ( birth-places ), Rishis, deities, Chhandas ( metres ), Gottras, constellations, Râs'is (zodiac signs), Grahas (planets) and Rasas ( sentiment) of the sevennotes are mentioned in this work. These are not mentioned in Bharata's Natya Sastra. But Sarngadeva has extracted all these in his Sangita Ratnakara, except the Gottras, constellations, Rasis and planets'. It is strange that the names of the 22 Srutis given in this book are quite different from those usually mentioned in other books on music such as Bharata Natya S'astra, Sangita Ratnakara, Sangita Parijata and Sangita Darpana. The names of the 22 Sfrutis as stated in the present book are : (षड्डे)-१ सिद्धा २ प्रभावती ३ कान्ता ४ सुप्रभा (ऋषभे)-५ शिखा ६ दीप्तिमती ७ उप्रा (गान्धारे)-८ हादी ९ निर्विरी . (मध्यमे)-१० दिरा ११ सर्पसहा १२ क्षानितः १३ विभूतिः (पञ्चमे)-१४ मालिनी १५ चपला १६ बाला १७ सर्वरता (धैवते)-१८ शान्ता १९ विकलिनी २० हृदयोन्मलिनी ( निषादे)-२१ विसारिणी २२ प्रसूना But the names given in Bharata, Sangita Ratnakara &c. are: (षड्डे)-१ तीव्रा २ कुमुदती ३ मन्दा ४ छन्दोवती (ऋषमे)-५ दयावती ६ रजनी रतिका (गान्धारे)-८ रौद्री ९ क्रोधा . (मध्यमे)-१० वज्रिका ११ प्रसारिणी १२ प्रीतिः १३ मार्जनी (पश्चमे)-१४ क्षितिः १५ रका १६ सन्दीपिनी १७ आलापिनी (धैवते)-१८ मदन्ती १९ रोहिणी २. रम्या (निषादे)-२१ उग्रा २२ क्षोभिणी Thus all the names differ except 391. But this name though ommon is assigned to the 7th S'ruti by our author while others give it to the 21st S'ruti. This circumstance clearly shows that our author must have borrowed these names from some older book which is not now available. 1. Vide page 3 verses 24-48. 2. Vide Sangita Ratnakara Vol. I pages 45 & 46. 3. Vide page 8, verses 78-84. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION. Narada only mentions the names of the 18 Jatis described by Bharata but does not give their definitions or examples as is done in the Sangita Ratnakara. 1 As regards the Alankâras (combinations of notes for developing a Raga) he has mentioned only 192, whereas S'ârngadeva has mentioned about 63 in the Sangita Ratnakara. The Sangita Parijata mentions 68 Alankâras and the Ragavibodha gives only 34. VI Narada has enumerated in all 93 different Râgas. Sangita Rátnakara contains 264 Râgas in all. The Sangita Pârijáta describes 122 Ragas while the Ragavibodha enumerates about 50 Râgas. Masculine Nârada mentions 3 species of Râgas viz. 1 g Ragas 2 स्त्रीरागाः Feminine Ragas and 3 नपुंसकरागाः Neuter Ragas. Again he divides the Râgas into three groups viz. 1 gfyar: Ragas which have quivering ( कम्पितगमक) throughout, 2 अर्धकम्पिताः Ragas which have partial quivering, and 3: Râgas which are absolutely free from quivering. The Sangita Ratnakara and other later books do not mention these divisions. 455 As regards the Vinâ instrument our author says that there are 18 kinds of it. But the number of the names given comes to 19. They are :—१ कच्छपी २ कुब्जिका ३ चित्रा ४ वहन्ती ५ परिवादिनी ६ जया ७ घोषावती ८ ज्येष्ठा ९ नकुली १० महती ११ वैष्णवी १२ ब्राह्मी १३ रौद्री १४ कूर्मी १५ रावणी १६ सारस्वती १७ किनरी १८ सैरन्ध्री १९ घोषका. If we take परिवादिनी as a common name for. Viņa instead of a particular kind, then the number 18 given by the author can be reconciled with the names. He states that these various kinds are due to the difference in the arrangement of the strings". But S'ârngadeva mentions the following 11 kinds of Vina :- १ एकतन्त्री २ नकुलः ३ त्रितन्त्रिका ४ चित्रा ५ वीणा ६ विपश्ची ७ मत्तकोकिला ८ आलापिनी ९ किन्नरी १० पिनाकी and ११ निःशङ्कवीणा. Chatura Kallinatha, the commentator of Sangita Ratnakara, says that the last mentioned Viņa was invented by S'ârngadeva whose honorific title was निःशङ्क. " 1. Vide page 10, verses 106-110. 2. Vide page 14, verses 14-17. 3. Vide page 18 verses 53-63. 4. Vide page 20 verses 84-85. 5. Vide page 22 verses 6-8. Vide Sangita Ratnakara Vol. II. p. 480. 6. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · INTRODUCTION. The verses 22-40 on pp. 23-25, different kinds of singers &c., in this Ratnakara almost word for word1. corrupted by the copyists' mistakes. whether the author of the Sangita Ratnakara inserted them in his work from this book or some one extracted them from the Sangita Ratnakara and interpolated them in the present work. Arguments might be advanced to support either view. I therefore leave the point for the decision of the experts. VII At the commencement of the Nrityadhyaya Nârada gives the descriptions of the Nâtya S'âlâ (Dancing Half), Sabha (audience) Sabhapati (Chief of the audience) &c. and all these are independent of those given in the Sangita Ratnakara. describing the merits of the work, are found in Sangita In our text here they are It is difficult to decide Further he has mentioned 101 Talas with their definitions but has not divided them into Marga and Des'i as is done by S'arngadeva in the 5th chapter of his Sangita Ratnakara wherein the number of Des'i Talas described is 120. As regards dancing he has given a very brief account of it. He has enumerated and defined only 33 postures of a dancer within a few verses. But the author of Sangita Ratnakara has devoted one whole chapter to the subject and has done full justice to it. The style of the book is very simple like that of Bharata's Natya S'astra. But the Sangita Ratnakara is written in highly polished Sanskrit. The arrangement of Sangita Ratnakara is scientific and it seems to have been written after the art of Music had attained a very high stage of development in all its branches. Date of Sangita Makaranda-If we take all the above circumstances into consideration, we are obliged to arrive at the conclusion that Sangita Makaranaa is an older work than. Sangita Ratnakara. " 1. Vide Sangita Ratnakara Vol. I. p. 243-246. 2. Vide pages 27 to 29. 3. 4. Vide pages 47 verses 93-100. Vide pages 49 to 51. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION. # Further, the names of writers, mentioned in this work are Hari, Bramhâ, Matanga, Kas'yapa, Kamalasya, Chandî, Vyala, S'ârdûla, Nârada, Tumburu, Shanmukha, Bhringi, Devendra, Kubera, Kus'ika, Mâtrigupta, Ravana, Samudra, Sarasvati, Bali, Yaksha and Vikrama'. Many of these names are names of deities and Puranik personages and it is beyond our means to determine their time. But the names of Vikrama and Mâtrigupta are historical. As there have been several Vikramas, it is difficult to say what Vikrama is meant. But the mention of the name of Matrigupta, who is also mentioned by S'ârngadeva in his Sangita Ratnakara as one of the writers on music, enables us to infer that the present work must have been written not earlier than 7th century A. D. Matrigupta, who was a poet and writer on poetics, is said to have lived about the first half of the sixth century being a contemporary of S'iladitya Pratapas'ila of Malva (A. D. 550-600). My esteemed friend, T. M. Tripâthi Esqr. B. A. of Bombay, informs me that from the Natya Pradipa of Sundara Mis'ra it appears that Mâtrigupta has written a commentary on Bharata's Natya S'astra. But there is one circumstance which may help us in deciding the priority of this work to Sangita Ratnakara. For, Nârada mentions the name of only Matrigupta among the names of the historical personages as writers on music, and does not mention the names of the later writers such as Rudrata, Nanya Bhûpâla, Paramardi Somes'a, Lollata, Udbhata, S'ankuka, Abhinava Gupta &c. If Narada had copied the names of authors from Sangita Ratnakara, he would not have omitted them. It is likely that S'arngadeva copied the names of older authors from Narada's book and added these later names known at his time to the list in his book. Narada does not seem to have borrowed any verses from Sangita Ratnakara. The treatment and order of the topics observed in Sangita Makaranda is quite different from that in the Sangita Ratnakara. This view is supported by another circumstance which seems to be a stronger proof. S'arngadeva while giving the definition of Vide p. 18 verses 18-21. 1. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION: the Gandhara Grâma states that it is according to Närada's opinion : यद्वा धस्त्रिश्रुतिः षड्डे मध्यमे तु चतुःश्रुतिः। .. रिमयोः श्रुतिमेकैकां गान्धारश्चेत्समाश्रितः। पश्रुतिं धो निषादस्तु धश्रुति सश्रुति त्रितः ॥ ४ ॥ गान्धारग्राममाचष्टे तदा तं नारदो मुनिः। प्रवर्तते वर्गलोके ग्रामोऽसौ न महीतले ॥५॥ . संगीतरनाकर पृ० ४६ . Now this very definition is to be found in this Sangita Makaranda of Narada as follows — यदा धस्त्रिश्रुतिः षड्डे मध्यमे तु चतुःश्रुतिः। रिमयोः श्रुतिरेकेका गान्धारस्य समाश्रया ॥ ५४॥ पञ्चमश्रुतिरेका च निषादश्रुतिसंश्रया। गान्धारग्राममाचष्टे तदा तं नारदोऽब्रवीत् ॥ ५५॥ प्रवर्तकः खर्गलोके प्रामोऽसौ न महीतलें। सङ्गीतमकरन्द पृ० ५-६ From these circumstances we must conclude 'that Sangita Makaranda of Narada is an older work than the Sangita RatndKara and that it was known to Sarngadeva (A. D. 1210-1247). Until we get further proof to establish the exact date, we must hold that Narada, the author of Sangita Makaranda lived sometime in the interval between Matrigupta A. D. 550 and Sarngadeva A. D. 1210-1247, that is, he must have lived between the 7th and 11th centuries. . The Manuscript. Source of the Manuscript–The present edition of the Sangita Makaranda of Narada is based upon one single manuscript furnished to me by the Central Library of Baroda. The credit of having discovered this rare manuscript is due to the wife of Mr. R. Ananta Krishna Shâstry, the officer employed by the Baroda Central Library for search of Sanskrit manuscripts. Mr. Shastry, while on an official tour in H. E, H. the Nizam's Territory in 1919, was examining Mss. in an old Pandit's house at Gadwal with his wife when the latter noticed this Ms. Through the kindness of the Hon. Sir Stuart Fraser, K.O.s. I., Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION, XI C. I. E., the then Resident of Hyderabad Mr. Shastri obtained a note on H. H. The Raja Saheb of Gadwal through Mr. M. A. N. A. Hydari, B, A., Judicial Secretary, Hyderabad. Thus Mr. Shastry got the loan of the manuscript through the kind influence of the Raja Såheb to whom are due the sincerest thanks of all lovers of Indian music. Description of the Manuscript. The manuscript is written in Devanagari characters on old Ahmedabad paper of a yellowish tinge. It consists of 32 folios, the size of the folio being 102 51 inches and each side of the folios containing 9 lines. The handwriting is fair and the headings of the subjects in the body of the text are written in red ink the colour of which has not faded, though the manuscript was written in the Shake year 1599 ( A. D, 1677 ) that is 243 years ago. On the last three pages the copyist has painted 9 different designs of a rosette in black, yellow, red and green colours., The manuscript begins as follows:--- श्रीमहागणपतये नमः । श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः । श्रीनादब्रह्मणे नमः । The colophon is as follows : इति सङ्गीतमकरन्दः समाप्तः । शुभमस्तु । शके १५९९ शालिवाहे पिकलनामसंवत्सरे आश्विनमासे शुक्लपक्षे विजयादशम्यां विद्यापुरमहानगरे श्रीमन्महागणपतिदासकृष्णाजीदत्तेनेदं सङ्गीतमकरन्दाख्यपुस्तकं लिखितम् । महागणपतिर्जयति ॥ From this colophon it is evident that the manuscript was copied in Shake 1599 (A. D. 1677 ) by one Krishnaji Datta who was a devotee of the deity Mahâganapati and lived in Vidyapura. This Vidyapura is no other than Vijayanagara which was the capital of the late Vijayanagara Empire and which is now in ruins. The present manuscript was discovered at Gadwal which, though now a feudatory of the Hyderabad State, was in former times a feudatory or a part of the Vijayanagara Empire. It is probable that after the complete ruin of Vidyapura alias Vijayanagara the manuscript must have come to Gadwal which is not very far from the ruined capital. For this information I am indebted to my friend Mr. J. S. Kudalkar of Baroda Central Library. Page #26 --------------------------------------------------------------------------  Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकाङ्काः १-२ ३ ४-६ ७-९ १०-१२ १३-१५ १६-१७ १८-२० २१-२४ २५ २६-२७ २८-२९ ३०-३२ ३३-३६ ३७ ३८ ३९ ४०-४१ ४२-४३ ૪૪ ४५ ४६ ४७-४८ ४९-५६ ५७-५९ ६०-६१ ६२ ६३-६५ 3 सङ्गीतमकरन्दग्रन्थस्य विषयानुक्रमणी । सङ्गीताध्याये प्रथमः पादः । विषयः मङ्गलाचरणम् गीतादिभेदेन सङ्गीतशास्त्रविभागः नादोत्पत्तिनिरूपणम् अनाद्दताहतनादनिरूपणम् नखवायुजादिभेदेन पुनः नादस्य पश्चविधत्वम् षड्जादिखराणामुत्पत्तिस्थान निर्देशः षड्जादिखराणां मयूरादिशब्दसाम्य निरूपणम् रूपालप्तिः रागालप्तिरिति पुनराहतनादद्वैविध्यम् गीतसंप्रदाय निरूपणम्... शिशुपशुसर्पादीनां गीतलुब्धत्ववर्णनम् स्थाय्यादिभेदेन खरचातुर्विध्यम्... वादिसंवाद्यादिभेदेन खरचातुर्विध्यम् स्वरादीनां जातिकुलादिनिरूपणम्... स्वराणां वर्णकथनम् स्वराणां जम्बुद्वीपादिसमुत्थानवर्णनम् खराणां देवतानामनिरूपणम् खराणां देवताः स्वराणां छन्दांसि स्वराणां गोत्राणि स्वराणां नक्षत्राणि स्वराणां राशयः स्वराणां राश्यधिदेवताः स्वराणां योनिकथनम् .. स्वराणां रसाः ... ग्रामनिरूपणम् षड्जप्रामखराः मध्यमप्रामखराः गान्धारग्रामस्वराः प्रामाणां प्राधान्यादिनिरूपणम् ... .... पृष्ठं १ १ १ २ २ २ २ ३ ३ ३ ३ ३ * ४ * ४ ४ ४ ६ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्गीतमकरन्दे। श्लोकाङ्काः विषयः ६६-७७ मूर्च्छनालक्षणं तद्भेदनिरूपणं च ... ... ... ७८-८९ षड्जादिखराणां श्रुतिसंख्यातनामकथनम् ९०-११० . मूर्च्छनाविभागादिविचारः १११-११२ स्वरप्रकृतिविकृतयः .... : ... ११३-११४ तश्रीप्रकृति विकृतयः... ___सङ्गीताध्याये द्वितीयः पादः मङ्गलश्लोकः ... ... .... २-६ गीतखरूपवर्णनम् ..... ... वीणादेहतदङ्गादिनिरूपणम् ... १८-२१ समीतशास्त्रप्रणेतृदेवतादिनामानि ... ... २२-२४ गीतमाहात्म्यम् ... - सङ्गीताध्याये तृतीयः पादः। खरलक्षणम् .. .... खरग्राममूर्छनारागादिनिर्देशः ... १०-१२ प्रातःकाले गेयाना सूर्यांशरागाणां नामानि ... १३-१४ मध्यालगेयरागनामानि ... . १५-१९ सायंकाले गेयानां चन्द्रांशरागाणां नामानि ... २०-२३ उदयानन्तरमेकप्रहरोपरिगेयरागाः २४-२६ रागवेलातिक्रमफलादिवर्णनम् २७-३४ अन्यरागनामानि ... ३५-३९ संपूर्ण रागाणां प्रहखराः ४०-४५ षाडवरागाणां प्रहखराः ।। ४६-५२ औडवरागाणां प्रहस्वराः ५३-५६ पुंलिङ्गारागाः ५७-५९ स्त्रीरागाः ... ६०-६२ रागाणां रसप्रयोगविवेकः - ६५-६७ रागानिरूपणम् ... ६९-७२ षट्पुरुषरागाणां तत्स्त्रीणां च नामानि ७३-७९ मतान्तरेण षट्पुरुषरागाणां तत्स्त्रीणां च नामानि ८०-८३ प्रसङ्गानुरूपरागविचारः . ... ... कम्पितादिभेदेन रागविभागः ... ८५-९२ शास्त्रविरोधेन तथा शास्त्रानुरोधेन रागादिप्रयोगे फलश्रुतिः ' सङ्गीताध्याये चतुर्थः पादः।मृदङ्गलक्षणम् वीणाभेदाः... Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणी। : पृष्ठ .... २२ २२ २५ N 5 V . . - - श्लोकायाः विषयः . . ९-१२- आनद्धवाद्यविशेषाः" .... ........ १३-२१ नादोत्पत्तिः नांदभेदाश्च २२-४० वाग्गेयकारादिगायकभेदाः सलक्षणा:: ४१-४७ गीतगुणदोषविवेकः .... .... : ४८-४९ गीतप्रयोज्यानां खराणां नामानि.... . ५०-५१ आलापविभागः . .... . .... ५२-५६ शुद्धसङ्कीर्णादिभेदेन रागविभागः ... ५७-५९ रागसंख्यानिर्देशः ... . ... नृत्याध्याये प्रथमः पादः । १-७ नाव्यशालालक्षणम् ...... सभालक्षणम् १० . विद्वलक्षणम् कविलक्षणम् भटलक्षणम् गायकलक्षणम् . परिहासकलक्षणम् इतिहासज्ञलक्षणम् ज्योतिषलक्षणम् वैद्यलक्षणम् १८ पुराणिकलक्षणम् १९-२४ सभापतिलक्षणम् २५-२६ । 'नटविशेषः . २७ घर्चरिकः .... २८-३६ पात्रलक्षणम् . ३७-३९ पुष्पाजलिः... ४०-५४ पश्चतालोत्पत्त्यादिनिरूपणम् . नृत्याध्याये द्वितीयः पादः । १-२ . ३-१६ एकोत्तरशततालनामानि १७-७४ ताललक्षणानि .. . नृत्याध्याये तृतीयः पादः। १-५ चतुरस्रादितालविचारः... ६-३२ . दशविधतालप्रबन्धाः ... ७७७७७ MMMMMmmm. . .. .. :: ९ :: Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सङ्गीतमकरन्दे । श्लोकाहाः विषयः ३३-४७ अङ्गताकलक्षणानि .... ४०-५० तालशब्दनिष्पत्तिः ... ५१ ,.. दशतालप्राणनिर्देशः... ५२-५५ काललक्षणम् ... ५१-५९ मार्गलक्षणम् .. मात्रालक्षणम् ... ६०-७१ देशीक्रिया ...... ..., ७२-७३ दक्षिणमार्गमात्रानामानि ... ७४-७५ अजानि ... ७६-७७ प्रहाः ... . ७८-८३ जातिनिरूपणम् ८४-८८ लयकालनिरूपणम् ...... ... ... ८९-९५ प्रस्तारनिरूपणम्' ... ..... .... ९६-१०. दुतादितालाझामां पर्यायाचिहानि च .... नृत्याध्याये चतुर्थः पादः। १-९ मृदङ्गोत्पत्तितद्वादनप्रकारादिकथनम् ... १०-४३ नटीभावनिरूपणम् ..... ... .... " Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ श्रीनारदविरचितः सङ्गीतमकरन्दः । सङ्गीताध्याये प्रथमः पादः । प्रणम्य शिरसा देवं शङ्करं लोकशङ्करम् । सङ्गीतशास्त्रं सङ्गृह्य वक्ष्ये लोकमनोहरम् ॥ १॥ ब्रह्मा तालधरो हरि पटही वीणाकरा भारती वंशज्ञ शशिभास्करौ श्रुतिधराः सिद्धा सरः किन्नराः । नन्दीभृङ्गिरिटादिमर्वलधराः सङ्गीतको नारदः शम्भोर्टसकरस्य मङ्गलतनोर्नाव्यं सदा पातु नः ॥ २ ॥ गीत बायं च नृत्यं च त्रयं संगीतमुच्यते । नारदेन कृतं शास्त्रं मकरन्दाख्यमुत्तमम् ॥ ३ ॥ आदौ नादोत्पत्तिर्निरूप्यते । परं तु स निवेशितः । अनाहतो हतचैव स नादो द्विविधो मतः । यत्रो भयोस्तयोर्मध्येऽनाहतोऽपि निरूप्यते ॥ ४ ॥ १ एतच्छ्लोकात्पूर्वमादर्शपुस्तके निम्नलिखितः श्वोको वर्तते “सङ्गीतमकरन्दाख्यपुस्तकं लिख्यते मया । कुर्वविनं महादेव लेखनाय नमोऽस्तु ते ॥१॥" जति कपककर्ता निबद्धः न तु प्रन्थकर्त्रा इति तदर्थतः सुविशदम् । अतो मूके ख २ प्सराः किन्न इत्यशुद्धः पाठः आदर्शपुस्तके विद्यते । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्गीतमकरन्दे आकाशसंभवो नादो यः सोऽनाहतसंशितः। ' तमिन्ननाहते नादे विरामं प्राप्य देवताः॥५॥. योगिनोऽपि महात्मानस्तदानाहतसंज्ञके। मनो निक्षिप्य संयान्ति मुक्तिं प्रयतमानसाः॥६॥ सोऽप्याहतः पञ्चविधो नावस्तु परिकीर्तितः। नखवायुजचर्माणि लोहशारीरजास्तथा ॥७॥ नखं वीणादयः प्रोक्ता वंशाचा वायुपूरकाः। चमोणि च मृदङ्गाया लोहास्तालादयस्तथा ॥८॥ देहनादेन ते युक्ता नादाः पञ्चविधाः स्मृताः। गीतं वायं च नृत्यं च त्रयं सङ्गीतमुच्यते ॥९॥ आदी असा विचार्यैव नाव्यं लोके अपश्चितम् (१)। अनाहतात्समाकृष्य ससनामानि.योजितः॥१०॥ तं नादं सतधा कृत्वा तथा षड्जादिभिः खरे। नाभिहत्कण्ठतालुषु नासादन्तोष्ठयोः क्रमात् ॥११॥ षड्जवर्षभगान्धारौ मध्यमः पश्चमस्तथा। धैवतश्च निषादव खराः सप्त प्रकीर्तिताः ॥१२॥ षड्न मयूरो वदति चातको ऋषभ तथा (१)। अजो विरौति गान्धारं कौश्चः कणति मध्यमम् ॥१३॥ पुष्पसाधारणे काले पिक कूजति पञ्चमम् ।। .. अश्वच धैवतं चैव निषादं च गजस्तथा ॥१४॥ एवं खरान समाकृष्य वीणादिषु निधाय च । तेन चाहतनादेन सङ्गीतमकरोत्तदा ॥ १५॥ . सरखव्याध वीणायां षडाविखरसंयुतम् । पाठयामास सर्वेषां हृयं श्रुतिमनोहरम् ॥ १६ ॥ रूपालप्ती रागालतिरिति स द्विविधः स्मृतः। रागास्तन्ननतानांवरूपतः शब्द उच्यते ॥१७॥ बस लोकस्य पाठोऽशुद्धः वर्तते । पुस्तकान्तरालाभात् दर्शपुस्तके यथा दृष्टः तथैवात्र निबेशि चातको रिषभ इति पाठे ‘सन्धिदोषो न स्यात् । - ३ 'रागखममतानाथो स्मकः शब्द उच्यते' इति शुद्धः पाठः स्यात् . . . . . Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्गीताध्याये प्रथमः पादः । सामवेदादिदे गीतं तंज्जग्राह पितामहः । : तद्ङ्गीतं नारवायैव तेन लोकेषु वर्णितम् ॥ १८ ॥ .. गीतेन प्रीयते देवः सर्वशः पार्वतीपतिः । • गोपीपतिरनन्तोऽपि वंशध्वनिवशं गतः ॥ १९ ॥ सामवेदे तो ब्रह्मा वीणासक्ता सरखती । अन्ये च बहवः पूर्वे यक्षदानवमानवाः ॥ २० ॥ अज्ञातहृदयखादुर्बालः पर्यङ्कधारकः । रुदन् गीतामृतं पीत्वा हर्षोत्कर्ष प्रपद्यते ॥ २१ ॥ वनेचरस्तृणाहारः श्रुत्वा मृगशिशुः पशुः । लुग्धो लुब्धकसङ्गीते गीते यच्छति जीवितम् ॥ २२ ॥ कृष्णसर्पोऽपि तं नादं श्रुत्वा हर्ष प्रपद्यते । तस्य गीतस्य माहात्म्यं कः प्रशंसितुमर्हति ॥ २३ ॥ सर्वाश्रमाणां जातीनां नृपाणां प्रीतिवर्धनम् । धर्मार्थकाममोक्षाणामिदमेव हि साधनम् ॥ २४ ॥ स्थायी खरेषु सवारी तथारोह्यवरोहको । स्वरातुर्विधा ज्ञेया रागोत्पादनगोचराः ॥ २५ ॥ खरा वादी च संवादी विवादी च चतुर्विधाः । अनुवादी च सर्वत्र प्रयोगे बहुशः स्मृतः ॥ २६ ॥ बादी खरस्तु राजा स्यान्मन्त्री संवादिरुच्यते । स्वरो विवादी वैरी स्यादनुवादी च भृत्यवत् ॥ २७ ॥ देवास्तु सगमाः पश्चमः पितृवंशजः । रिधौ ऋषिकुले जातौ निषादोऽसुरवंशजः ॥ २८ ॥ ब्रह्मजाती समौ ज्ञेयौ रिधौ क्षत्रियजातिको । निगौ वैश्याविति प्रोक्तौ पश्चमः शूद्रजातिकः ॥ २९ ॥ .. १ 'सजग्राह' इति पाठः समीचीनः । २ 'रतो' इति समीचीनः पाठः स्यात् । ३ स्मृताः" इति बहुवचनान्तः पाठः समीचीनः । ४ 'संवादी' इति शुद्धं पदं, छन्दोभन्नभिया 'संवादिः' इति रूपं कृतमिति भाति । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सङ्गीतमकरन्दे पनामः पितरः स्वर्णवर्णः कुन्दप्रभः सितः। .. पीतः कर्बुर इत्येते तेषां वर्णा निरूपिताः ॥ ३० ॥ षड्नः कमलवर्णः स्याहषभः पिञ्जरस्तथा।.. गान्धारः वर्णवर्णः स्यान्मध्यमः कुन्दवर्णकः ॥ १॥ पश्चमः सितवर्णः स्याद्धैवतः पीतवर्णकः। . . . नैषादः कषुरो वर्णः ससवर्णा निरूपिताः ॥ २॥ . जम्बुशाककुशौचशाल्मलीश्वतनामसु। दीपेषु पुष्करे चैव जाताः षडादयः खराः ॥ ३ ॥ जम्बुद्वीपे च षड्जः साच्छाकले ऋषभोदयः। कुशद्वीपे च गान्धारः क्रौञ्चद्वीपे च मध्यमः ॥ ३४ ॥ शाल्मलीद्वीपनामाख्ये पश्चमः खर उद्भवः (१)। श्वेतद्वीपे तथा जन्म धैवतं नामसंशिकम् (१) ॥ ३५ ॥ . . पुष्करे चैव जातोऽयं निषादः परिकीर्तितः। सप्तखरान्समुवृत्य वीणादिषु निधाय च ।। ३६ ॥ दक्षोऽत्रिः कपिलचैव वसिष्ठो भार्गवस्तथा। नारदस्तुम्बुरुचैव षड्जादीनां ऋषीश्वसः ॥ ३७॥ वहिब्रमा शारदा च शर्वश्रीनाथभास्कराः। गणेश्वरादयो देवाः षड्डादीनां तु देवताः ॥ ३८॥ कमावनुष्टुंबगायत्री त्रिष्टुप् च बृहती तथा। पक्युष्णिगौ च जगती छन्दांसि परिकीर्तिताः (१)॥३९॥ षड्जस्य जमदनिश्च आत्रेयो ऋषमस्य च । गान्धारस्य गौतमस्तु वसिष्ठो मध्यमस का४०॥ श्रीवत्सः पञ्चमस्यैव धैवतस्य पराशरः।। शालहायो निषादस्य गोत्राणि कथितानि च ॥४१॥ षड़ः शतभिषग्जच चित्रा चऋपमस्य च (१) । गान्धारख घनिष्ठा में मध्यमस्य मघा स्मृता ॥ ४२ ॥ ... 'पचमस समुद्भवः' इति पाठः समीचीनः स्यात् । र लिष्टान्वयोऽयं पा ३ असम्बद्ध मिव भातीदमत्र श्लोकार्धम् । - Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्गीताध्याये प्रथमः पादः। पञ्चमस्योत्तरा मं स्यात्पूर्वाषाढा तु धैवतम् । अनुराधा निवादस्य षड्डादीनां तु तारकाः ॥ ४३ ॥ कुम्भस्तुली अषचैव सिंह कन्या धनुस्तथा । वृश्चिकम्प तथा राश्यः क्रमाज्ज्ञेया बुथैः सदा ॥ ४४ ।। शनि पुः शशी चैष सूर्यश्चन्द्रमुतस्तथा ।... . गुरुभूमिसुतमेव चैते राश्यधिदेवताः ॥ ४५ ॥ स्वराः सरिगमाग्वैष चस्वारो राक्षसाः स्मृताः। पधौ मानुषसंज्ञी च निषादं दैवतं विदुः ॥४६॥ षड्जस्यागुतबीरौ च ऋषभस्य च रौद्रका। गान्धारस्य च शान्तं च हास्याख्यं मध्यमस्य च ॥४७॥ पशमस्य च शृङ्गारो बीभत्सो धैवतस्य च। करुणा च निषादस्य सप्तस्थानरसा मष ॥४८॥ ग्रामः खरसमूहः स्यान्मूच्छेना तु खराश्रया। 'षडमध्यमगान्धारग्रामत्रयमुदाहृतम् ॥ ४९ ॥ षड्म्य मध्यमवैव वैती भूमी प्रकल्पिती। . स्वर्गलोकेऽपि गान्धारः प्रसिद्धो न महीतले ॥५०॥ षङ्ग्रामः पचमच धैवतश्च श्रुतिक्रमात् । मध्यमः पञ्चमः शुद्धषड्गसंवादिरुच्यते ॥५१॥ अयं तु षड्डुग्रामः। .. सोपान्ते पञ्चमस्तिस्रो धैवतस्य चतुःश्रुतिः। . .. पञ्चमो धैवतश्चैवर्षभः संवादिरुच्यते ॥५२॥ . • अयं तु मध्यमग्रामः। . अप्रसिद्धोऽपि भूलोके क्रमाद्वक्ष्येऽपि नारदः। तत्सु(ख)रूपं देवलोके ज्ञातव्यं शास्त्रलक्षणैः ॥ १३ ॥ यदाधनिश्रुतिः षड्डे मध्यमे तु चतुःश्रुतिः। ...... रिमयोः श्रुतिरेकैका गान्धारस्य समाश्रया ॥५४॥... . "वैता राश्यधिदेवताः' इति समीचीनः पाठः। २'शान्तब हास्यास्मो मध्यम पाठः साधुः। ३ मस्फुटार्थोऽयं लोकः । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . सङ्गीतमकरन्दे - पञ्चमश्रुतिरेका च निषादश्रुतिसंश्रया। . . · गान्धारग्राममाचष्टे तदा तं नारदोऽब्रवीत् ॥५५॥ इदं लक्षणं ब्रमणोक्तम् ।। प्रवर्तकः खर्गलोके ग्रामोऽसौ न महीतले। . गान्धारः श्रूयते नित्यं जरामरणवर्जितः ॥५६॥ अथ षड्जग्रामखराः। सरि ग म प ध नि । पड़े सूत्सरमन्द्रादौ रंजनी चोत्तरायता। शुद्धषड्डा मत्सरीकृवश्वक्रान्ताभिरुगता ॥ १७ ॥ ताः शुद्धमध्यमार्गेण सप्त पारं च हृष्यकाः (१)। मध्यस्थानस्थषड्लेन मूच्र्छनारभ्यते क्रमात् ॥५०॥ अधास्थानैर्निषादाथैः षड्नः स्यान्मूर्छना भवेत् । षड्गग्रामखराः सप्त कथ्यन्ते मूर्छनादिभिः ॥ ५९॥ . मध्यमग्रामखराः। म गरि स नि ध प। संवीरी हरिणाश्वा च स्यात्कल्लोपनता यता)। शुद्धमध्या तथा चैव मादली पौरकी तथा ॥६०॥ क्रमात्सप्तखरा खेते मध्यमग्रामसंश्रिताः। हूँष्यकान्तेति विज्ञेया मध्यमग्रामसुखराः ॥६१ ॥ अथ गान्धारग्रामसुखराः। आलापा चेति गान्धारग्रामे स्युः सस मूर्छनाः ॥ १२॥ १ रजनी चोत्तरायता इति पाठः मुद्रितभरतनाव्यशाने अ..२८ श्लो. ३० पृ. ३०५। २ 'सौवीरी हरिणाश्वा च स्यात्कलोपनता तथा' इति पाठः मुद्रितभरतनाव्यशाने न. २८ श्लो. ३२ पृ. ३०५। ३ 'मार्गी स्यात्पौरवी तथा' इति पाठः मुद्रितभरतनाव्यशाने . २८ श्लो. ३२ पृ. ३०५। ४ इष्यका चेति विलेया इति भरतनाव्यशास्त्रस्थः पाठः। ५ भरतनाव्यशाने गान्धारप्रामो न वर्णितः। संगीतरत्नाकरग्रन्थे 'संरा' इत्यस्य स्थाने 'नन्दा' इति पाठो वर्तते । सं.र.पृ. ५.. .. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्गीताध्याये प्रथमः पादः। ग म प ध नि स रि। षड्नः प्राधान्यमाद्यवादमात्यादिगतस्तथा (१)। ग्रामः स्यादथ लोपस्वान्मध्यमस्तु पुरःसरः ॥ ६ ॥ क्रमालामत्रये देवा ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः। हेमन्तग्रीष्मवर्षासु ज्ञातव्यास्तु यथाक्रमम् ॥ ६४॥ पूर्वाहकाले मध्याहे अपराहे नयादिभिः। षड्गादिमध्यगान्धारा: भूयेतेश्वर्यसन्ततिः१ ॥६५॥ . क्रमावराणां ससानामारोहण्यावरोहणम् । मूर्छनेत्युच्यते ग्रामदये ताः सस सस च ॥६६॥ षड्गग्रामे तु करमम् मन्दोपिरटनीयता (१)। शुद्धषड्डा मत्सरीकृवश्वक्रान्ताभिरुङ्गता ॥ १७ ॥ . .. ताः शुद्धमध्यमार्गेण सत पारं च हृष्यकाः। .. मध्यमस्थानषड्डेन मूर्च्छनारभ्यते क्रमात् ॥१८॥ अधास्थाननिषादायैः षड्ः स्यान्मूर्च्छनाक्रमात् । मध्यमध्यममारभ्य संघीरी मूच्र्छना भवेत् ॥ ६९ ॥ षड्जस्थानपदोधस्थखरादारभ्यते क्रमात् । षड्जस्थानस्थितैराद्यैरथान्याद्याः परे विदुः (१)॥ ७० ॥ हरिणाश्वादिरागाचैर्मध्यमस्थानसंज्ञितः। षड्गादीन्मध्यमाद्रींच ततोद्धः सः खरः क्रमात् ॥७१ ॥ चतुर्षो ताः पृथक् शुद्धाः काकलीकलितास्तथा। . सान्तराः सवयोपेताः षट्पञ्चाशदुदीरिताः॥७२॥ श्रुतिद्वयं चेत् षस्य निषादः संश्रयेदसौ। - सा काकली मध्यमस्य गान्धारस्त्वन्तरः स्वरः ॥७३॥ १ संगीतरनाकरेऽस्य श्लोकस्य. पाठो दृश्यते यथा--. 'षडुजः प्रधान आयत्वादमाख्याधिक्यतस्तथा । - प्रामे स्यादविलोपित्वान्मध्यमस्तु पुरःसरः ॥' सं.र.पू. ४६. .. २ °सु गातव्या इति संगीतरत्नाकरे पृ.४६ । ३ 'षड्डे तूत्तरमन्द्रादी रजनी चोत्तरायता' इति. शुद्धः पाठः स्यात् । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सङ्गीतमकरन्दे . . . यस्यां यावन्ति यौ मध्ये तस्येमौ ग्रामयोः क्रमात् । मूर्छनास्ताववित्येवं भरतेन च पर्चिताः ॥७४॥ प्रथमादिसरारम्भादेकैका सप्तधा भवेत्। तांस्तानुचारयेवन्त्यान् पूर्वाधारयेत्कमात् ॥७॥ शुलयोऽथ खरा ग्रामौ मूर्छनास्तानसंयुताः। तानानि (१) वृत्तयश्चैव पुष्पसाधारणे तथा ॥ ७६ ॥ जातयौष वर्णाश नानालङ्कारभूषिताः। एतत्खरगतोदेशः सोपेणार्थनिर्णयः ॥ ७७॥ .' अथ षड्जादिखरेषु श्रुतयो वक्ष्यन्ते। .. शिक्षा प्रभावती कान्ता सुप्रभा व मनोहरा। साधयमित श्रुतिः (१) षड्ने प्रजापतिमुखोदताः ॥७८॥ शिला दीतिमती चैध उग्रा चानिसमुदा।. श्रुतयः साधयन्त्येनमृषभ नामलः खरम् ॥७९॥ हादी व निर्विरी चैव श्रुती व्याहृतिसम्भवे। गान्धारं च साधयत) यथार्थे गुणसंश्रये ॥८॥ दिरा सर्पसहा शान्तिर्विभूतिस्तदनन्तरम् । मध्यमं साधयन्त्येताः श्रुतयः पृथिवीमवाः ॥१॥ मालिनी चपला वाला सर्वरना प्रभावती। श्रुतयः सोमपुत्रस्तु साधयिष्यन्ति पञ्चमम् ॥ ८२ ॥ शान्ता विकलिनी चैव हृदयोन्मलिनी तथा । धैवतं साधयन्त्येता यक्षराजविनिर्मिताः ॥ ४३ ॥ विसारिणी प्रसूना च निषादेन समुत्थितम् । श्रुतिः साधयते नित्यं यमराजमुखोदवा ॥ ४॥ चतुश्चतुश्चतुश्चैव षड्जमध्यमपश्चमाः। . द्वे द्वे निषादगान्धारौ प्रिस्त्रि ऋषभधैवतौ ॥ ८५॥ १०चैव एप्रा० इति आदर्शपुस्तकेऽशुद्धः पाठो वर्तते । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्गीताध्याये प्रथमः पादः। . जातिभिः श्रुतिमिग्वैव खरा ग्रामत्वमागताः। तत्तथैव भूत्यैष काव्यबन्धप्रतिष्ठिताः ॥ ८६ ।। खराः षडादपस्तत्र ग्रामोद्रो षडमध्यमौ । ..... केचिङ्गान्धारमण्याहुः स तु नेहोपलभ्यते।।८७॥ ससखेसवयोग्रामे चतुश च मूच्छेनाः। ....... तासानेकोनपश्चाशदित्येतत्खरमण्डलम् ॥ ८ ॥ भूलोकाजायते षड्डो भुवर्लोकातु मध्यमः। ... स्वर्गलोकातु गान्धारो नारदस्य मतं यथा ॥८९ ॥ . आया हुत्तस्मन्द्रा स्पाञ्जनी चोसरायता। चतुर्विघशुद्धषड्डौ पश्चमी मत्सरीकृता॥९०॥ .. अजकान्ता तु षष्ठी च ससमी ""रुगता। प्रतिपादितिथिषुः जाता मन्त्रास्तु संयुताः ॥९१ ॥ सनिघपमगरिसा ज्ञातव्याः सस मूछनाः। ... पडप्रामाभिता येता नारदेन विवक्षिताः॥१२॥ - मध्यसंवीरादिखरः। संवीरां हरिणाश्वा च स्यात्कलोपनतायता। शुद्धमध्या तथा चैव माईली पौरली तथा ॥ ९३ ॥ कृष्णप्रतिपदः सप्त तिथीषु ) जनिताः खराः। ताखरा (१) मध्यमग्रामे स्थापिता नारदेन च ॥ ९४ ॥ नन्दा विशाला मुमुखी चिता चित्रावती गुभा। आलापा चेति गान्धारग्रामे स्युः सप्त मूच्छेनाः ।।९५॥ कृष्णाष्टम्यादितिथयः खराः संप्स हितास्तथा।। गान्धारे स्थापितास्तेन नारदेन यथाक्रमम् ॥ ९६ ॥ सप्त खरास्तथा सप्त मूर्च्छना या प्रकीर्तिताः। तानाचतुरशीतिस्तु ता एतस्मिन्निरूपिताः ॥ ९७ ॥ '.. खरायो प्रामाश्चतुर्दश' इति शुद्धः पाठः स्यात् । २ चतुर्थी शुद्धषड्जा च पच इति भरतनाट्यशास्त्रस्थः पाठः। ३ °अश्वक्रान्ता तथा षष्ठी सप्तमी चाभिरुगता° इति भ. ना. पाठः। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 1 सङ्गीतमकरन्दे अग्निष्टोमादिनामानि तैरुक्ता नारदादिभिः । देवनारदयोगेन तत्पुण्योत्पादनाय ते (१) ॥ ९८ ॥ क्रममुद्रन्थ्य तत्रीणां तानान्ये मूर्च्छनासु याः (१) । अपूर्णाचैव पूर्णाश्च कूटतानास्तु ते स्मृताः ॥ ९९ ॥ पूर्णाः पञ्चसहस्राणि त्रयस्त्रिंशच सोभयाः । .. कथयन्ति प्रतिग्राममुपयोगेन धेनुना ॥ १०० ॥ नृणामुरसि मन्द्रस्तु वंशध्वनि तथा ध्वनिः (१) । स एव कण्ठे मध्यः स्यात्तारः शिरसि गीयते ॥ १०१ ॥ दक्षिणावृत्ति चित्रा च वृत्तिस्तानास्वयं विधिः । प्रधानं गीतमुभयं वाद्यं वेति यथाक्रमम् ॥ १०२ ॥ वायं यगीतवृत्तिस्तं (१) समगीतं प्रचक्षते । वृत्तयोऽथ प्रयोगज्ञैः शुष्कं तद‌भिधीयते ॥ १०३ ॥ साधारणेति विज्ञेया खरो जात्युपलक्ष्यते । खरमध्ये तयोः पूर्वं तत्काकल्यां पुरःसराः ॥ १०४ ॥ षध ऋषभचैव धैवते च निषादके (१) । बङ्गादिश्चैवरी चैव ततो वै षङ्गकैशिकी ॥ १०५ ॥ षडुमध्या तथा चैव षङ्गग्रामसमाश्रिताः । 'अथ रागान्प्रवक्ष्यामि मध्यमग्रामसंश्रयान् ॥ १०६ ॥ शुद्धमध्यस्तथा शुद्धशुद्धताराविशुद्धकाः । गान्धारमध्यमा चैव गान्धारादिव्यवस्थिताः ॥ १०७ ॥ पञ्चमी रोगगान्धारी तथा गान्धारपश्चमी । पश्चमोदिच्यवा चैव सन्धयन्ति तथैव च ॥ १०८ ॥ १ भरतनाट्यशास्त्रे अस्य श्लोकस्य पाठः शुद्धो लभ्यते यथा ' षाड्जी चैवार्षभी चैव धैवती सनिषादिनी । षड्जोदीच्यवतीं चैव तथा वै षड्जकैशिकी ॥' भ. ना. पृ. ३०७ (क्रि. सा. ) २. पश्चमी रकगान्धारी" इति भ. ना. पाठः । ३. 'मध्यमोदीच्यवा चैव नन्दयन्ती - तथैव च ' इति. भ, ना. पादः Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्गीताध्याये द्वितीयः पादः। कूर्मारवा च विज्ञेया तथानी कैशिकी तमा।.. उचनीचा सवारूपा विरूपा विमतायतिः॥१०॥ जातयोटावश येवं ब्रह्मणा गदिताः पुरा।। तद्विदिखा नारदेन गीतरूपाणि वर्णयन् (१) ॥ ११ ॥ खरप्रकृतिविकृतयः । प्रकृती द्वे विजानीयात्खरतत्रेषु संस्थिते । तत्रापि च तयोर्मध्ये षड्डादि च निषादकम् ॥ १११ ॥ या सा प्रकृतिर्विज्ञेया भरतेन च चर्चिता। विकृतिम्ब निषादादिषड्डान्तखरपूरिता ॥ ११२।। तत्रीप्रकृतिविकृतयः । द्वितीया प्रकृतिः संज्ञा कथ्यते नारदेन च। . षड्जादयोपश्रुतयश्चत्वारो गुणसंज्ञका: (१) ॥ ११३ ॥ . तेषु सर्वेषु वर्तन्ते वाचादयः प्रकल्पिताः। अनुवादि च वान्ताविततं कथ्यते बुधः ॥११४ ॥ इति श्रीनारदकृतौ सङ्गीतमकरन्दे सप्तस्वरोत्पत्तिपश्चनादोत्पत्तिप्रकृविनिरूपणं नाम प्रथमपादः । सङ्गीताध्याये द्वितीयः पादः । अथ सङ्गीतदेहनिरूपणम् । चैतन्यं सर्वभूतानां विधृतं जगदात्मना। नादब्रह्मा तदानन्दमद्वितीयमुपास्महे ॥१॥ गीतखरूपं वक्ष्याम्यतिविचित्रं मनोहरम् । राज्ञां कौतुकसंलापं विदुषां ज्ञानहेतुकम् ॥२॥ 'कार्मारपीच बिया तथान्ध्री कैशिकी तथा' इति भ. ना. पाठः। - Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्गीतमकरन्दे : ' तत्वरूपं समानादि चालापं स्वरगर्भजम् । .. प्रकृतिशमलं ब्रम वीणारूपं तदुच्यते ॥३॥ तचैतन्यं समाश्रित्य व्यवहारस्तु मिला। तदेव वीणाशवलं नारदाय ददौ समू॥४॥ वीणादेहं प्रवक्ष्यामि तदङ्गानि यथाक्रमम् । शिरांसि त्रीणि देहस्य ग्रामत्रयमुवाहतम् ॥५॥ मन्द्रमध्यमताराख्यमुखानि चीणि कथ्यते (१)। ... सानुपादाय चत्वारो गीतजिहा प्रकीर्तिता॥६॥ वादी स्वराणां राजा स्यान्मश्री संवादिरुच्यते। खरो विवादी वैरी स्वादनुवादी च भृत्यवत् ॥७॥ तेषां मार्गास्तु चत्वारः मुषिरं घनतन्तुवत् । ... देशी शुद्धमृदङ्गाद्या उपागा अङ्गमार्गकाः॥८॥.... संसखराणि नेत्राणि गीतदेहस्य सस वै। प्राविंशतयो जाता नारदेन विवक्षिताः ॥९॥ षड्नमध्यमपञ्चैते (1) चत्वारः श्रुतयो मताः। , निषादगान्धारौ द्वे द्वे त्रिस्त्रि ऋषभधैवतौ ॥१०॥ रागालतिरूपलप्ती हस्तौ द्वौ कथितौ मतो। दारुद्वयमलाबूश्च तत्री चत्वार एव च ॥११॥ चन्दनं ब्रह्मजातिश्च दारुः क्षत्रियजातिकः । अलावूवैश्यजाति तश्री शुद्रमवामुयात् ॥ १२॥ षाडवौडवसम्पूर्ण रागाचास्त्रय ईरिताः। ब्रह्मा पाडवरागः स्यादुद्रः श्वेतौडक स्मृतः॥ १३॥ सम्पूर्णो विष्णुरूपश्च नीलवर्ण इति क्रमात्। अनन्ताः सन्ति सन्दर्भा रागाः सम्तामसंज्ञकाः ॥१४॥ स्थायी सश्चारिणी चैव तथासंहतिसंहती। ... प्रसन्नादिः प्रसन्नान्तः प्रसन्नायन्त एवम् ॥ १५ ॥ .... Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्गीताध्याये द्वितीयः पादः । प्रसन्नमभ्यं च तथा क्रमादुचित एव च । बिन्दुर्निवृत्तृप्रकृतौ प्रेखो ( प्रेङ्ख ?) विह्वलौ ॥ १६ ॥ कम्पितं कुपितश्चैव विजृम्भितविवर्द्धनौ । गमकैकोनविंशम चरणान्यपि कथ्यते ॥ १७ ॥ - हरिर्ब्रह्मा हरिश्चैव मतङ्गः कश्यपो मुनिः । विश्वकर्मा हरिश्चन्द्रो भरतः कमलास्यकः ॥ १८ ॥ चण्डी व्यालच शार्दूलो नारवस्तुम्बुरुस्तथा । वायुर्विश्वावसुः शौरिराञ्जनेयोऽङ्गदस्तथा ॥ १९ ॥ षण्मुखो भृङ्गिदेवेन्द्रः कुबेरः कुशिको मुनिः । मात्रागुप्तो रावणश्च समुद्रश्च सरखती ॥ २० बलिर्यक्षः किन्नरेशो विक्रमोऽपि यथाक्रमम् । एभिः सङ्गीतके प्रोक्ता माता द्वादशलक्षणाः ॥ २१ ॥ यङ्गीतस्य तु देहस्य लक्षणं परिकीर्तितम् | ब्रह्मषीणास्वरूपं च न पूर्व न स्त्रियं विदुः ॥ २२ ॥ यः शृणोति स पापेभ्यो मुच्यते नात्र संशयः । पुत्रपौत्रधनं धान्यं लभ्यते शत्रुनाशनम् ॥ २३ ॥ राज्याभिवृद्धिसन्तानं मोक्षैकफलदायकम् । सर्वश्रेयस्करं पुंसां नारदस्य मतं यदा ॥ २४ ॥ इति श्रीनारदकृतौ सङ्गीतमकरन्दे वीणादेद्दनिरूपणं नाम द्वितीयपादः । १क्रम रेचित' इति संगीतरत्नाकरे वर्तते । २ अत्र वर्णद्वयमादर्शपुस्तके त्रुटितम् । 'प्रेङ्खः' इति भरतनाट्यशास्त्रस्थः पाठः । ३ मातृगुप्तो" इति शुद्धः पाठः स्यात् । ४ 'मात्रा ः' इति पाठः स्यात् । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. 'सङ्गीतमकरन्दे सङ्गीताध्याये तृतीयः पादः। ... अथ रागनामान्युच्यन्ते। .. श्रुत्यनन्तरभावी यः लिग्धोऽनुरणनात्मकः । खरो रन्जयति श्रोतृचित्तं स खर उच्यते॥१॥ खरग्रामो मूर्छनाश्च तथा तानानि वृत्तयः।... पुष्पसाधारणा वर्णा बलकाराश्च धावतः (१) ॥२॥ श्रुतयो जातयश्चैव विधिज्ञा खरशासनः। गातव्यः समयो योज्यं वीणायां समुदाहृतः॥३॥ खरग्रामे तथा ताना जात्यः साधारणक्रियाः।' . अलकाराश्च वर्णाश्च जातयश्च शरीरतः॥४॥ सुखोपविष्टं वरदं ब्रह्माणं ज्ञानसागरम्।। कृताञ्जलिपुटो भूत्वा नारदः परिपृच्छति ॥५॥ कति रागाः प्रगातव्याः प्रभाते सस सुखराः। . तथैव कति रागाश्च केनात्र प्रतिपादिताः॥६॥ कस्मिन् काले प्रगातव्यं वायं चैव शुभाशुभम् । नारदस्य वचः श्रुत्वा ब्रह्मा लोकपितामहः ॥७॥ साधु साधु महातेजा यत्त्वं मां परिपृच्छसि। तत्सर्व संप्रवक्ष्यामि रागवेलाविनिर्णयम् ॥८॥ यत्सुरैस्तन्न विज्ञातं नरकिन्नरनायकैः।। देशीरागरहवं च साम्प्रतं शृणु यत्नतः ॥९॥ अथ सूर्याशः। गान्धारो देवगान्धारो घनासी सैन्धवी तथा।। नारायणी गुर्जरी च बङ्गालपल(ट)मञ्जरी ॥१०॥ ललितान्दोलश्रीका सौराष्ट्रयजयसाक्षिको। महारः सामवेदी च वसन्तः शुद्ध भैरवः ॥११॥ १ 'धातवः' इति समीचीनः पाठः स्यात् । २ 'जात्यसाधारणक्रिया' इति पाठः शुद्धः स्यात् ।' Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्गीताध्याये तृतीयः पादः। वेलावली च भूपाला सोमरागस्तथैव च । एते रागास्तुगातव्याः प्रातःकाले विशेषतः ॥१२॥ शङ्कराभरणः पूर्वो पलहंसस्तथैव च।... देशी मनोहरी चैष साबेरी दोम्बुली तथा ॥ १३ ॥ काम्भोजी गोपिकाम्भोजी कैशिकी मधुमाधवी। बहुलीद्वयं मुखारी च तथा मङ्गलकौशिका ॥१४॥ एते रागविशेषास्तु मध्याहे परिकीर्तिताः। ... शुद्धनाटा च सालङ्गो नारी शुद्धवराटिका ॥१५॥ गौलो मालषगौडश्च श्रीरामधाहरी तथा।.. तथा रामकृती रजी छाया सर्ववराटिका ॥१६॥ वराटिका वाटिका देशी नागेपराटिका। कर्णाटहयगौडीति इत्येते चन्द्रमशिजाः ॥ १७ ॥ एते रागविशेषास्तु प्रातःकाले तु वेपताः। - सायमेषां प्रगानेन तस्य श्रीरतुला भवतु ॥ १८॥ ईशानं च हरि स्मृत्वा मध्याहादेरनन्ती। रागतः शृण्वतो वापि सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ १९॥ प्रहरैकोदयादर्वाक प्रहरैकोदयोपरि। देशाक्षी भैरवम् सुद्धा नादं यत्महरोडवम् ॥ २० ॥ वराटिका तथा शुद्धा द्रावटीरागसंज्ञिका। .. प्रहरोपरि गातव्या महारी माहुरी तथा ॥ २१॥ . आन्दोली च रामकृती छायानाटा च रङ्गका। . मध्याह्वात्परतो यामे गौडरागानि यानि च ॥ २२ ॥ त्रियामोपरि गातव्या शुद्धसालङ्गनाटिका।... एवं कालविधि ज्ञात्वा गायेद्यः स सुखी भवेत् ॥ २३ ॥ रागावेलाप्रगानेन रागाणां हिंसको भवेत् । .. परभृणोति स वारिद्री आयर्नश्यति सर्वदा.॥२४॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -: सङ्गीतमकरन्दे । देवताविषये गीतं पुण्यनामप्रवर्द्धनम् । आध्यात्मिकैव योगेन सर्वपापप्रणाशनम् ॥ २५ ॥ विवाहसमये दानदेवतास्तुतिसंयुते। अबलरागमाकर्ण्य न दोषो भैरवीं विना ॥ २६ ॥ श्रीरागो मालवश्चैव तथा मालवकौशिका। सावेरी मेघरजी च हेन्दोला कौशिकी तथा ॥ २७ ॥ तुण्डी तुरुष्कतुण्डी च बङ्गाली माहुरी तथा । देवक्रिया रागहंसी देशाक्षी भैरवी तथा ॥२८॥ कर्णाटायबङ्गाला शुद्धहिन्दोलिका तथा ॥ २९ ॥... पुन्नाटः शुद्धनाटश्च तथा सारङ्गनाटिका। वेलावली छायनाटी रागरणास्तथैव च ॥ ३०॥ वराटी द्रावटी चैव तथा नागवराटिका।..... कर्णाटमिनाटी च तथा शुद्धवराटिका ॥३१॥ कौमोदकी मलहरी सारङ्गो बहुलीद्वयम् । मोटी पहंटिका चैव मुखारी मधुमाधवी ॥ ३२॥ मल्वारी गुर्जरी चैव सौराष्ट्री ललिता तथा। 'नागध्वनी च काम्भोजी धनाश्री च तथा परा ॥ ३३ ॥ कोलाहरश्छायगौडा रामा दोम्बुलिका तथा। वसन्तभैरवी चैव सावेरी सैन्धवी तथा ॥ ३४ ॥ .. अथ गृहखराः। सम्पूर्णरागो देशाक्षी मध्यमादिः प्रकीर्तितः। वसन्तभैरवी शुद्धभैरवी मादितः क्रमात् ॥ ३५ ॥ १. सम्पूर्णमालवीरागो गान्धारादिः प्रकीर्तितः। नाटरागध सम्पूर्णः स षड्डाविरुदाहृतः ॥ ३६॥ मुखहारी च सम्पूर्णो धैवतादिर्निगद्यते।.. सम्पूर्णबाहरी प्रोक्तो मध्यमादिरूपक्रमः ॥ ३० ॥ १ध्यात्मिफेव योगेन इति शुद्धः पाठः स्यात् । २ °अनेलराग इति शुद्धः पाठः स्यात् । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्गीताध्याये तृतीयः पादः। बलहंसश्च सम्पूर्णो गान्धारादिः प्रकीर्तितः। ... वसन्तः संज्ञश्च सषगादिरुदाहृतः ॥ ३८॥ रामक्रिया शुद्धसंज्ञा सषनादिरुवाहता। वराटिका शुद्धसंज्ञा सषडादिरूपक्रमा ॥ ३९॥ . एवं सम्पूर्णरागाणां गृहखर उदाहृतः। अथ षाडवरागगृहखर उच्यते । - नीलाम्बरी पाडवः स्थानादियों निषादकः । श्रीरागः षाडवो रागः सषड्डादिगेवर्जितः ॥४१॥ शुद्धबहुली मध्यमादिर्निवयंस्तु षाडवा । शुद्धगौला पाडवः स्थानिषादादिर्घवर्जितः॥४२॥ .ललितः षाडवो रागः सादिर्वयों ग च खरः (१)। मालवश्रीः षाडवः स्यात्षडादिश्च रिवर्जितः ॥४३॥ भूपालः षाडवो रागो गादिः षड्गविवर्जितः1....." पडवली पाडवश्व रिवज्योऽपि निषादकः ॥४४॥ गुण्डकी पाडवाश्चैव गान्धारादिर्गवर्जितः। कुरजी षाडवो रागो निवज्यों मध्यमादितः ॥ ४५ ॥ सङ्घल नास्देनैव गृहखरमुदीरितम् । - अथ औडवरागगृहखराः। धन्यासी औडवः प्रोक्तः सावेरी धविवर्जितः॥४६॥ औडवो गुर्जरी प्रोक्तः सादिर्वज्यौं रिधौ तथा। रिधी बज्यों मध्यमादिरौडवा मधुमाधवी ॥४७॥ मेघरजी मध्यमादि धनिवज्यों तथौडवः । वेलावल्यौडवः स्यात्तु गादिर्वज्यों सरीखरौ ॥४८॥ १०सादी रिधविवर्जितः इति शुद्धः पाठः स्यात् । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्गीतमकरन्दे। रामकृत्यौडवः स्यात्तु गादिर्वज्यों रिधौ खरौ।। नारायणी निषादादिरोडवो धपवर्जितः॥४९॥ पालिरोडकः षड्नादिर्वज्यों मध्यमपत्रमौ। एवं प्रधामरागाः स्युर्लक्षणोक्तं यथाक्रमम् ॥ ५० ॥ अनन्ताः सन्ति सन्दर्भा नानादेश्या प्रकीर्तिताः। सङ्कीर्णरूपिणो रागाः सङ्कीर्णा नाम विश्रुताः ॥५१॥ ब्रमी चा (?) षाडवाश्चैव क्षत्रजा औडवास्तथा । सम्पूर्णा मुनिजाः प्रोक्ता भरतः प्रशंसिताः॥५२॥ अथ पुल्लिङ्गरागाः। बङ्गालः सोमरागश्च श्रीरागच तथैव च । भूपाली छायगौडश्च शुद्धहिन्दोलिका तथा ॥५३॥ आन्दोली दोम्बुली चैव गौडः कर्णाटकाया। फडमसी शुद्धनाटी तथा मालवगौलकः ॥५४॥ रागरगच्छापनादी रागः कोलाहलस्तथा । सौराष्ट्री च वसन्तश्च शुद्धसारङ्गभैरवी ॥ ५५ ॥ रागध्वनिस्तथा घेते पुंरागाः परिकीर्तिताः । नारदेन विचित्रेण सन्ति नामानि वक्ष्यते (१)॥५६ ॥ । अथ स्त्रीरागाः। तुण्डी तुरुष्कतुण्डी च मरवारी माहुरी तथा । पौरालिकी च काम्भारी भल्लाती सैन्धवी तथा ॥ ५७॥ सालडाख्या च गान्धारी देवक्री देशिनी तथा। वेलावली च बहुली गुण्डक्री घूर्जरी तथा ॥ ५८॥ धराटी द्रावडी हंसी गौडी नारायणी तथा। अहरी मेघरजी च मिश्रनाटा यथाक्रमात् ॥ ५९॥ १ब्रह्मजा षा° इति शुद्धः पाठः स्यात् । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ सङ्गीताध्याये तृतीयः पादः । अथ नपुंसकरागाः। कैशिकी ललितवैव धन्नाशी च कुरञ्जिका। सौराष्ट्री द्रावडी शुद्धा तथा नागवराटिका ॥३०॥ कौमोदकी च रामक्री सावेरी च तथैव च । पलहंसः सामवेदी शङ्कराभरणस्तथा ॥१॥ नपुंसका इति प्रोक्ता रागलक्षणकोविदः। एतन्मतं नारदस्य ब्रह्मणा कथितं पुरा ॥ १२ ॥ रौद्रेऽद्भुते तथा वीरे पुरानैः परिगीयते। शृङ्गारहास्यकरुणं (१) नीरागैध गीयते ॥१३॥ भयानके च बीभत्से शान्ते गायनपुंसके। अनेन विधिना ज्ञात्वा गेयं सर्वार्थसाधनम् ॥ १४ ॥ शृणु चान्यं प्रवक्ष्यामि नादं चैव शुभाशुभम् । साम्प्रतं मुनिशार्दूल गीतगानविधि तथा ॥१५॥ मध्यमादिर्मालवश्री श्रीकापि जयसाक्षिका । वराटी घूर्जरी गौडकोलाहलवसन्तकाः ॥६६॥ धन्नाभी देशदेशाख्या बङ्गालादित्रयोदश। रागाङ्गरागमाख्यातं नारदेन महात्मना ॥६७॥ भूपालो भैरवश्चैव श्रीरागः फडमञ्जरी। वसन्तमालवी नाटबङ्गालाः पुरुषाः स्मृताः ॥ ६८॥ बेलाबली मलहरी बहुली भूपयोषितः। देवक्रिया च पौराली काम्भारी भैरवस्त्रियः॥ १९॥ श्रीरागपतिकाम्भोजी भल्लाती च कुरञ्जिका। देशी मनोहरी तुण्डी पडमारियोषितः ॥७॥ सारङ्गानाटनाटाख्या अहरीनाटयोषितः। नारायणी च गान्धारी रञ्जी बङ्गालयोषितः॥ ७१॥ १°करुणे स्त्री॰ इति शुद्धः पाठः स्यात् । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० सङ्गीतमकरन्दे | पराटी प्रावडी हंसी बसन्तत्य च योषितः । गुण्डक्रिया घूर्जरी व गौडी मालवयोषितः ॥ ७२ ॥ श्रीपुंसरागमाख्यातं द्वात्रिंशद्रागसंमतिः । अन्ये षटुं च पुरुषाः शत्रिंशङ्गीतपारगैः ॥ ७३ ॥ श्रीरागोऽपि वसन्तश्च भैरवः पश्चमस्तथा । मेधराजस्तु विज्ञेयो नाटनारायणश्च षट् ॥ ७४ ॥ गौडी कोलाहली चैव द्रावल्यान्दोलिकी तथा । माधवी देवगान्धारी श्रीरागत्य वराङ्गनाः ॥ ७५ ॥ शुद्धनाटा व सावेरी सैन्धवी मालती तथा । त्रोटिकौमोदकी 'चैव पश्चमस्य वराङ्गनाः ॥ ७६ ॥ सौराष्ट्री चैव काम्भारी बङ्गाली मधुमाधवी । देवकी चैव भूपाली मेघरागस्य योषितः ॥ ७७ ॥ वल्लभा माधवी चैव विदग्धा चाभिसारिका । त्रिवेणी मेघरशी च नाटनारायणस्य च ॥ ७८ ॥ 9................................................................................................ ........................ 1198 11 आयुर्धर्मयशोबुद्धिधनधान्यफलं लभेत् । रागाभिवृद्धिसन्तानं पूर्णरागाः प्रगीयते ( १ )॥ ८० ॥ सङ्ग्रामरूपलावण्यविरहं गुणकीर्तनम् । वाडवेन प्रगातव्यं लक्षणं गदितं यथा ॥ ८१ ॥ व्याविनाशी शत्रुनाशी भयशोकविनाशने । व्याधिदारिद्र्यसन्ताप्रे विषमग्रहमोचने ॥ ८२ ॥ कामडम्बरनाशे च मङ्गलं विषसंहते । औडवेन प्रगातव्यं ग्रामशान्त्यर्थकर्मणि ॥ ८३ ॥ मुक्ताङ्गकम्पिताः केचित्केचिदर्धविकम्पिताः । केचित्कम्पविहीनाञ्चैवेति रागास्त्रिया कृत्ताः ॥ ८४ ॥ ........................................... १ एकोनाशीतितमश्लोकस्थाने आदर्शपुस्तके त्रुटिचिह्नं लिखितं वर्तते । २ नाशे इति पाठः समीचीनः स्यात् । ३ मङ्गले इति पाठः अन्वयानुकूलः स्यात् । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्गीताध्याये चतुर्थः पादः । अकम्पाः कम्पसंयुक्ताः सफम्पाः कम्पचर्जिताः । यस्तच्छृणोति मूहात्मा तावुभौ ब्रह्मघातकी ॥ ८५॥ विष्णुरूपो भवेत्तालो नादव शिवात्मकः । । प्रणवो अमत्याहुर्गीतशास्त्रविशारदाः॥ ८६ ॥ तालं धृत्वा प्रमाणेन पश्चागीतं समारभेत् ।। तथा नादं प्रकुर्वीत पश्चाद्रीतं प्रगीयते ॥ ८७॥ अनेनैव प्रकारेण गीतमाकर्णयेम॒वम् । । तस्य नाभावदोषोऽस्ति महापातकतत्समः (१) ॥८८॥ श्रुतिहीनं च यद्गानं वीणावेण्यादिसम्भवम् । 'यः शृणोति स आमोति पातकं दुःलमेव च ॥९॥ अपखरं कुनादं च श्रुतिहीनं तयाधिकम् । ' यः शृणोति स भूदास्मा पतते नरके चिरम् ॥१०॥ शोकसन्तापदारित्र्यमायुः क्षीणं भवेद्धवम् । : राज्यनाशो मनोदुःखं भवत्येव न संशयः ॥ ९१॥ ज्ञात्वा सर्वमिदं शासं यः शृणोति सदा नृपः । आयुरारोग्यमैश्वर्यं लभते वाञ्छितं फलम् ॥९२॥ इति श्रीनारदकृतौ सङ्गीतमकरन्दे तृतीय-. . पादः समाप्तः सङ्गीताध्याये चतुर्थः पादः। अथ मृदङ्गलक्षणम् । - दक्षिणाङ्गे सितो रुद्र उमा वामें प्रतिष्ठिता। : .. शिवशक्तिमयो नावो मर्दले परिकीर्तितः॥१॥ शिवनादे भवेद्याषिः शतंया दारिद्यमामुयात् । - द्विर्नादयुक्तः श्रेष्ठम श्रुतियुक्तश्च मईले ॥२॥ सीध्वनिः पुरुषाकारः सयाकारश्चैव पुंखरः। आयुर्लक्ष्मीहरौ नित्यमश्राव्यौ तावुभौ ध्वनी ॥३॥... Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्गीतमकरन्दे । सर्वेषां श्रुतिसंयुक्तमध्यक्तमधुरान्वितम् । - नावभीग्विषं श्रेष्ठमायुर्लक्षमीकरं जगुः ॥ ४॥ .. लक्षणं तु मृदङ्गस्य कथ्यते नारदेन च। चतुर्विशतिच्छन्दांसि धर्मग्रन्थीनि तानि च ॥५॥ अथ वीणालक्षणम् । कच्छपी कुन्जिका चित्रा वहन्ती परिवादिनी । जया घोषावती ज्येष्ठा नकुलीष्टेति कीर्तिता (१)॥६॥ महती वैष्णवी ब्रानी रौद्री कूर्मी च-रावणी। सारखती किनरी च सैरन्ध्री घोषका तथा ॥७॥ . दशवीणाः समाख्यातास्तत्रीविन्यासभेदतः। षत्रिंशदङ्गुली वीणा विस्तारः षशिरकुलैः ॥८॥ अथ वायविशेषः। मृदङ्गो दर्दुरश्चैव पणवस्वङ्गसंशिकः । शर्सरी पटहादीनि शम्भो मुखरिकास्तथा ॥९॥ शृङ्गं च कहला चेति सुषिरादिप्रकीर्तिताः। हरीतक्याकृतिस्त्वन्या एवमाधास्ततोगः (१)॥१०॥ आलिङ्गन्धैव गोपुच्छो मध्यदक्षिणवामगः । ढका डमरुगा मन्द्रा मडुशरडिण्डिमाः ॥११॥ उडुत्रिविधगुजा च कटकाकरणादयः। ध्वनिश्च विविधा शेया नारदेन कृता मताः॥१२॥ अथ खरादयः। नादोपासनया देवा ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः। भवन्त्युपासिता नूनं तस्मादेतत्तदात्मकम् ॥ १३ ॥ .. आत्मा विवक्षमाणोऽयं मनः प्रेरयते मनः। देहस्था वह्निमहती स प्रेरयति मारुतः॥ १४ ॥ १°नकुली चेति इति अथवा 'जयघोषावती ज्येष्ठा नकुल्यष्टेति कीर्तिताः' इति पाठः शुद्धः स्यात् । २ 'काहला' इति सङ्गीतरत्नाकरादिग्रन्थान्तरे दृश्यते। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्गीताध्याये चतुर्थः पादः। इति अधिस्विनः सोऽथ क्रमादूर्वपदे चरेत् । नाभिहल्कामामूर्धन्येवभिधारयते ध्वनिम् ॥१५॥ नादोऽतिसूक्ष्मः सूक्ष्मश्च पुष्टोऽपुष्टश्च कृत्रिमः। इति पचविषा पत्ते पश्चस्थानस्थिताः क्रमातू॥१६॥ अतिसूक्ष्मन सूक्ष्म पुष्टोऽपुष्टस्तथैव च । तारखेति च विज्ञेयाः पश्चषा देहजाः खराः ॥१७॥ नकारः प्राणमानन्दस्तकारमनलं विदुः। जातः प्राणामिसंयोगात्सेन नादोऽभिधीयते ॥ १८॥ व्यवहारे स्वसौ त्रेधा हदि मन्द्रोऽभिधीयते । कण्ठे मध्यो भूHि. तारो द्विगुणवोत्तरोत्तरः॥ १९॥ सूक्ष्मखरो हीनसूक्ष्मस्तद्गातुः श्रुतिगोचरः। तारः श्रुतिकठोरत्वात्याज्य एव न संशयः ॥२०॥ अन्यथा बिंशतिर्मेदाः श्रवणाः श्रुत्तयो मताः।। :: हृद्युदानादिसंयुक्ता नादा द्वाविंशतिर्मताः ॥ २१ ॥ अथ गायकलक्षणम् । -वामाधुर्योच्यते ज्ञेयं धातुरित्यभिधीयते । वाचं गेयं च कुरुते यः स वाग्गेयकारकः ॥२२॥ ' शब्दानुशासनज्ञानमभिधानप्रवीणता । छन्दःप्रभेदवदित्वमलारेषु कौशलम् ॥ २३ ॥ रेसभाषापरिज्ञानं गीतं स्थितिविचिन्वति (१)। अशेषभाषाविज्ञानं कलाशास्त्रेषु कौशलम् ॥ २४ ॥ तूर्यत्रितयचातुर्य हृधशारीरशालिता। लयतालकलाज्ञानं विवेकोऽनेककाकुषु ॥ २५ ॥ प्रभूतप्रतिमोत्थानं रम्यं सुभगगेयता। देशीरागेष्वमिज्ञानं बाक्पटुत्वं सभाजयः ॥ २६ ॥ 'वामातुरुच्यते गेयं धातुरित्यभिधीयते' इति शुद्धः पाठः स्यात् । २ 'रसभावपरिज्ञानं देशस्थितिषु चातुरी' इति संगीतरनाकरे दृश्यते (पृ. २४४ )। ३ 'प्रभूतप्रतिभोद्भेदभाक्त्वं सुभगगेयता' इति संगीतरत्नाकरस्थः पाठः (पृ. २४४)। - Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्गीतमकरन्दे । रोषद्वेषपरित्यागी (गः) साधुत्वमुचितज्ञता। ' अनुतोक्तिसंबडो नूनधातुविनिर्मकः ॥२७॥ . परचित्तपरिज्ञानं प्रवन्धेषु प्रगल्भता।... द्रुतगीतविनिर्माणं पदान्तरविदग्धता ॥२८॥ त्रिस्थानगमकप्रौढो विविधालसिनैपुणः (१)। अवधानगुणैरेमिः परो वाग्गेयकारकः ॥ २९ ॥ विधानोऽधिकं वे मातृमन्दलमध्यमः। धार्नुमातृपदमौटा प्रबन्धेष्वपि मध्यमः॥ ३०॥ ... रम्यमातुविनिर्माता अषमो मन्दधातुकृत... वरो यस्तु कविवर्णकविर्मध्यम उच्यते ॥३१॥ फूटकारोऽन्यकारस्तु माधुकारः प्रकीर्तितः। मार्ग देश्यं च यो वेत्ति स गन्धर्वोऽभिधीयते ॥३२॥ यो वेत्ति केवलं मार्ग खरादिः स निगद्यते। हृयशब्दः सुशारीरो ग्रहमोक्षविचक्षणः ॥ ३३ ॥ रागरागानभाषाङ्गक्रियाङ्गोपाङ्गकोविदः।। प्रवन्धगाननिष्णातो विविधालप्तितत्ववित् ॥ ३४॥ सर्वस्थानादिगमकेष्वनायासलसद्गतिः। आयत्सकण्ठस्तालज्ञः सावधानी जितश्रमः ॥ ३५ ॥ शुद्धस्थानलयाभिज्ञः सर्वकाकुविशेषवित्। अपारस्थायिसञ्चारः सर्वदोषविवर्जितः ॥ ३६॥ क्रियापरोचितालापः सुखरो धारणान्वितः। स्फूर्जनिश्चजनो हारीरहकृद्वचनोवरः (१)॥ ३७॥ १ 'रागद्वेषपरित्यागः साधुत्वमुचितज्ञता' इति सङ्गीतरनाकरे (पृ. २४४)। २ 'अनुच्छिष्टोक्तिनिर्बन्धो नूनधातुविनिर्मितिः' इति सङ्गीतेरनाकरे। ३ 'त्रिस्थानगमकप्रौनिर्विविधालप्तिनैपुणम्' इति सङ्गीतरनाकरे। ४ गुणैरेभिर्वरो वाग्गेय इति सङ्गीतरत्नाकरस्मः पाठः। ५ षिकं धातुं मातुमन्दस्तु मध्यमः' इति सङ्गीतरत्नाकरगतः पाठः। ६ °धातुमातुविदप्रौढः प्रब इति सङ्गीतरमाकरे। . 'कुष्टिकारोऽन्यधातौ तु मातुकारः प्रकीर्तितः' इति सङ्गीतरनाकरे। ८ 'स्फूर्जनिर्जवनो हारिरहःकृद्भजनोद्धरः' इति सङ्गीतरत्नाकरे। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्गीताध्याये चतुर्थः पादः । सुसम्प्रदायो गीतज्ञैर्गीयते गायनाग्रणीः । इत्युत्तमस्तु विज्ञेयो गीतज्ञः प्रतिपादितः ॥ ३८ ॥ गुणैः कतिपयैर्हीनो निर्दोषो मध्यमोत्तमः ( मतः १ ) । महामाहेश्वरेणोक्तः सदोषो गायकाधमः ॥ ३९ ॥ शिक्षाकारोऽनुकारश्च रसिको रञ्जकस्तथा । भावकश्चेति विज्ञेया गायकाः पञ्चधा जगुः (१) ॥ ४० ॥ व्यक्तं पूर्ण प्रसन्नं च सुकुमारमलङ्कृतम् । समं सुरक्तं लक्ष्णं च निकृष्टं मधुरं तथा ॥ ४१ ॥ दिश्यैते स्युर्गुणानं ते (१) तत्र वक्ता (व्यक्तः ) स्फुटखरः । प्रकृतिः श्रुतयथोक्तं छन्दोरागपदैः खरैः ॥ ४२ ॥ सुसम्पूर्ण च पूर्णाङ्गं प्रसन्नं प्रकटार्थकम् । सुकुमारं कण्ठभवं त्रिस्थानोक्तमलङ्कृतम् ॥ ४३ ॥ खरवर्णलयस्थानं स्वय (सम १ ) मित्युच्यते बुधैः । सुरक्तं वल्लकीवंशकण्ठोत्थान्येकतागुणम् (१) ॥ ४४ ॥ : मीचोचधृतिमध्यादौ लक्ष्णता लक्ष्णउ ( मु ) च्यते । उचैरुधारणादुक्तं निकृष्टं भरतादिभिः ॥ ४५ ॥ मधुरं धुर्यलावण्यं पूर्ण जनमनोहरम् । दृष्टं लोके न शास्त्रेण श्रुतिकालविरोधि च ॥ ४६ ॥ येनैरुकं ( 2 ) - कलाबाचं गतश्रममधोदकम् । . ग्राम्यं संदिग्धमित्येवं दशधानी तु दुष्टता ॥ ४७ ॥ एवं सङ्गीतशास्त्रज्ञैः कथिता लोकविश्रुताः । इति गीतदोषाः । षड्डु ऋषभगान्धारौ मध्यमः पञ्चमस्तथा ॥ ४८ ॥ धैवतश्च निषादश्च खराः सप्त प्रकीर्तिताः । षड्जादिखरसंमिश्रं गानं च परिकीर्तितम् ॥ ४९ ॥ १ 'भावुकचेति गीतज्ञाः पश्चधा गायनं जगुः' इति सङ्गीतरत्नाकरे । २५ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्गीतमकरन्दे आलापा द्विविना शेयाः खरसंयोजने तथा । रामालसिरूपलसी इयं च परिकीर्तितम् ॥५०॥ राणाक्रसितममादि रूपको गीतमुच्यते। खरे रागाः प्रागीयन्ते शुद्धसालासंशिकम् ॥५१॥ यथायुपक्रमेणैव रागः शुद्ध उदाहतः। .. उपक्रम्य यथा रागो मेलमं सममिश्रकम् ॥५२॥ पुनस्तन्मानंगमकं रागराः प्रकीर्तितः।। सहीरागमित्रानो रामः सङ्कीर्ण पुज्यते ॥५३॥ . पाडवोडवसंपूर्ण रामाः स्युतिविधास्तवा. . . ... एकबारविहीमस्तु पाडवः परिकीर्तितः । २४॥ पश्चखरसमायुक्त औडवः परिकीर्तितः। ससखरसमायुक्त सम्पूर्ण इति कथ्यते ॥ ५५॥ एवं विवक्ष्यामि समस्तरागान् . गायेल धीमानधिकम्पनः ।.. .. चित्रेण वा (१) रभसा खरेण येन वा दोषविवर्जितः स्यात् ॥६६॥ पाडवौडवसम्पूर्ण रागा द्वात्रिंशसंमिताः। ...बनम्ताः सन्ति सन्दर्भा नाना देश्यास्तथैव च ॥५७ ॥ मन्द्रमध्यमताराविखरे येत गायक। .. पूर्णाः परशता (१) रामाः पारवा द्विशतास्तथा ॥५८॥ औडाः शतसङ्ख्याध तत ऊवं ग्रयाक्रमम् । एवं विज्ञाय भगवान्नारदो मुनिरब्रवीत् ॥५९॥ ____ इति श्रीनारदकृतौ सङ्गीतमकरन्दे चतुर्थः पादः । - सङ्गीताध्यायः समाप्तः । द्वात्रिंशसंमिताः' इति सात् (१) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्याये प्रथमः पादः । अथ नृल्पाभ्यायो निरूप्यते । अनाहतील योगिध्येयं मनोहरम् । तद्रूपं च ममस्कृत्य मृत्वाध्यायं करोम्यहम् ॥१॥ - आदौ नाव्यशालालक्षणमाह। षडशीतिहस्तमात्रचतुरस्रसमन्विता । चतुर्विशतिकस्तम्भनामावित्रसमन्विता ॥२॥ नानाविकारसम्पन्नप्राकारा चित्रशोभिता। चतुरशीतिबन्धास लेखनीया मनोहाः॥१॥ रनैरनेकैर्विविधैः पटवन चामरैः।... पताकतोयुता चतुर्दाराविसंयुता ॥४॥ मध्ये तु वेदिका रम्पा चतुर्विशतिहस्तका। कार्या सर्वगुणोपेता नानापरिमलान्विता ॥५॥ . अनेन विधिना कार्या नाव्यशाला मनोहरा । तल्लक्षणं न हि कृतं राज्ञां दोषमवामुयात् ॥६॥ तस्यां मनोहरं रम्यं सिंहासनमनय॑कम् ।। - तदने फलपुष्पाणि स्थापयित्वा विराजितम् ॥७॥ - अथ सभालक्षणम् ।। विद्वत्कविभटगायकसहास्यहासकज्योतिषवैद्यपौराणिकाः। एभिवभियुक्ता या सभा राजसभेति तैरुक्ता ॥८॥. विद्वांसः कवयो महा गायका परिहासकाः । । । इतिहासपुराणज्ञाः सभासप्ताङ्गलक्षणम् ॥९॥ . विद्वलक्षणम् । सभाजयो बादविचारखण्डनाः समस्तशास्त्रार्थविचारवक्षकाः। कृतानुरागा जनरञ्जने रताः अमी बुधाः साधुसभाविभूषणाः ॥१०॥ , मनर्षकम् इति स्यात् । २ इदं पचमार्याच्छन्दोबद्भासते, तथापि तलक्षणानुगमहीनमेव रश्यते। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्गीतमकरन्दे अथ कविलक्षणम् । शुचिर्दक्षः शान्तः सुजनविनतः सूनृततरः amraat विद्वानतिमृदुपदः काव्यचतुरः । रसज्ञो दैवज्ञः सरसहृदयः सत्कुलभवः शुभाकारश्छन्दोगुणगणविवेकी स च कविः ॥ ११ ॥ भटलक्षणम् । अनेकभाषासु विशेषबुद्धयो नृपालवंशावलिकीर्तनक्षमाः । • प्रबन्धविद्यापठने प्रवीणा महीशयोग्या मगधा महीतले ॥ १२ ॥ अथ गायकलक्षणम् । षाडवौडवसम्पूर्ण गायने जनरञ्जकाः । काकुवर्जितशारीरा गायका राजवल्लभाः ॥ १३ ॥ अथ परिहासकलक्षणम् । क्रियाङ्गभाषाङ्गसमस्तवञ्चनालसत्प्रसङ्गात्मिकवक्रयुक्तयः । प्रस्तावहास्योचितवाग्विलासा बुधैः प्रशस्ताः परिहासका (के) गुणाः ॥ १४ ॥ इतिहासज्ञलक्षणम् । पुराणैरवशिष्टायैः व्याख्यानकथने क्षमाः (?) । इतिहासविदः साक्षाद्गीतवाद्यविचक्षणाः ॥ १५ ॥ अथ ज्योतिषलक्षणम् । प्रतिप्रयाणान्बहुजातकादीन् ज्ञेयः सुसिद्धान्तविचारदक्षकः । ग्रहोपरागादिषु शुद्धलक्षणः स पण्डितो देवगुरोः समानः ॥ १३ ॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९, नृत्याध्याये प्रथमः पादः। अथ वैद्यलक्षणम् । पाण्डश्वासकफातिसारविषजाः कर्मज्वरा भूतजाः प्रेत्योद्रेककफोवा हिमभवा वातानशीतिः क्रमात्()। तिस्रो वैद्यकसंहितासु निपुणः शास्त्रेषु बोधात्मवान् दृष्टस्पृष्टविचित्ररोगहरणः सद्वैधधन्वन्तरिः ॥१७॥ अथ पुराणिकलक्षणम् । आलापोक्तिषु चातुर्य श्रुतिज्ञः सर्वशास्त्रवित् । पौराणिकः पुराणेषु कुशलः कथितो बुधैः ॥१८॥ अथ सभापतिलक्षणम् । अनेकशृङ्गारविचित्ररूपः । सर्वज्ञचातुर्यरसान्वितोऽसौ । सङ्गीतसाहित्यकलानुरक्तो निर्मत्सरो वाक्मुगुणैरुपेतः ॥ १९॥ तद्वामपार्श्वेऽपि पुराणभट्टाः तदक्षिणेऽमात्यपुरोहिताश्च । तत्पृष्ठभागेऽपि च कोषरक्षकः समीपविद्वत्कविबान्धवैयुतः ॥ २०॥ ततः सुविधाबहुलक्षणान्वितः कालप्रवीणो बहुजातकादिमत् (१)। ततो भिषग्दैवविदो समीपे . __संस्थापयेदक्षिणकोविदः क्रमात् ॥ २१ ॥ महीशवामे वरमश्रिमण्डलं . संस्थापयेत्सैन्यपति क्रमाच । पाचोभयोबन्दिभटप्रवीणा शृङ्गारगानज्ञवरान्कवींश्च ॥ २२ ॥ १प्रवीणान् इति शुद्धः पाठः स्यात् । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्गीतमकरन्दे विलासिनोऽन्तः पुरतो विसारिणः कङ्कणैः कूजित किङ्किणीरवैः । अतिखरूपा बहुवल्गुभाषिणः स चामराः पार्श्वगता विरञ्जिताः ॥ २३ ॥ डोलचामरकराग्रवर्तिनो वैरविवेककविवाद्यकारकाः (१) । सर्वशस्तदनुरक्षकादयः पार्श्ववर्त्तिननिरीक्षणोक्तयः (१) ॥ २४ ॥ (अथ) नटविशेषः । चतुर्षाभिनयाभिशो नटो भाषाविवेकवित् । नर्तनः सूरिभिः प्रोक्तो मार्गन्नृत्यकृतश्रमः ॥ २५ ॥ अनुभावविभावजानता रसभावादिकरञ्जकश्रियः । नदभावविवेकबन्धनो रचिताकालविभेददेशिकः ।। २६ ।। अथ घर्घरिकः । बिभ्रन्मुण्डशिखाविलिप्तविभवो भस्माङ्गशारीरको बिभ्रद्धर्घरिकाश्च पेशलकलातालप्रवीणस्तथा । पञ्चाङ्गे कुशलो (लः) सभापति घर्घर्याः पदुदीर्घकाललगमास्तालज्ञकैर्वर्णिताः ॥ २७ ॥ अथ पात्रलक्षणम् । समेलनैः सर्वकलासुशोभितैरनेकवस्त्राभरणैरलङ्कृतैः । उपाङ्गतालाङ्गमृदङ्गचातुरैः समेत्य पात्रा जवनीतटे स्थिताः ॥ २८ ॥ ......... १ अस्मिन् रथोद्धतावृत्तपादे आयगुर्वक्षरस्थाने लघुद्वयप्रयोगात् छन्दोभङ्गः स्फुट: । शेपुस्तके त्रुटितोऽयमंशः । २ आद Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ नृत्याध्याये प्रथमः पादः। सा चित्रिणी शहिनिहस्तिनी क्रमात् . साक्षिणी रूपविलाससंभ्रमाः। आपातारपत्रिवोधमा .... बिम्बाधरा शोभितन्द्रिकाममाः ॥२९॥ पीनोमतोसुकुचाभिशोभिताः सकनुका रत्नविचित्रभूषणाः। . तम्यरूपाः कुचकुम्भशोभिता विचित्रहारा मणिमौक्तिकैयुताः ॥ ३०॥ · सपादहस्तान्जमुखाजरेखाः सलक्षणा युक्तकपोलरम्याः। कुची विशालौ मृदुषेणिभेदाः ...पुष्पाण्यलहत्य मनोहराणि ॥ ३१॥ - लजान्विता मृदुबचो (१) बहुमूलगीतां ... लाम्यहंसामना हुलासयुक्ता। . मन्धर्षशासनिपुणा रमणाच रम्भा तिलोसना और्वशिमेनका मता: (१) ॥ ३२॥ . • रास्यर्पिता दृष्टिरमोघयौवना: विथाकळारागसुगर्वरकाः। पुष्पाञ्जलिं दापयितुं समारभे अङ्गप्रदेश प्रति लजितागताः ॥३३॥ अङ्गेनालम्पयेद्वीतं हस्तेनार्थ प्रदर्शयेत् । नेत्राभ्यां भावयेदावं पादाभ्यां तालनिर्णयः ॥ ३४ ॥ एवं भावमनो धृत्वा पुष्पाञ्जलिपुरःसरम् । महीन्द्रस्य समीपाने रङ्गपीठे समर्पयेत् ॥ ३५॥ हस्सपात्रेऽर्पितकुचो कटौ विप्रणिताकृती। नेत्रजातिसमेत्यैवं नीराजनकृता नृपम् (१) ॥ ३६॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्गीतमकरन्दे . अथ पुष्पाञ्जलिः। . ब्रह्मा तालधरो हरिश्च पटही वीणाकरी भारती वंशज्ञौ शशिभास्करौ श्रुतिधराः सिद्धाप्सराः किन्नराः। नन्दीभृङ्गिरिटादिमर्दलधराः सङ्गीतको नारदः शम्भोर्चत्तकरस्य मङ्गलतनो व्यं सदा पातु नः ॥ ३७ ॥ लक्ष्मीस्ते सदने सदा निवसतां चित्ते च चिन्तामणिः । खर्धेनुस्तव गोकुले सुरतरुश्वारामभूमौ तव । वाणी ते वदने दया नयनयोदानं करे तेऽन्वहं विष्णुश्चेतसि ते मतिश्च सुकृते कीर्तिश्च लोकत्रये ॥ ३८ ॥ इन्दु कैरविणीव कोकपर्टरीवाम्भोजिनीबान्धर्व .. मेघं चातकमण्डलीव मधुपश्रेणीव पद्माकरम् । माकन्दं पिकसुन्दरीव रमणीवात्मेश्वरं प्रोषितं चेतोवृत्तिरियं मम क्षितिपते स्वां द्रष्टुमुत्कण्ठते ॥ ३९॥ . इति पूर्वपुष्पाञ्जलिः। अथ पञ्चतालोत्पत्तिनिरूपणमाह । सदाशिवमुखोद्भूतास्तालाः पञ्चविधाः स्मृताः। सद्योजातमुखात्पूर्वमृग्वेदादुद्भवस्तथा ॥४॥ तस्माचश्चत्पुटो ज्ञेयः कान्तिर्गोक्षीरवर्णकः । ब्रह्मजातिसमाख्यातो गोपुच्छ इति संज्ञकः ॥४१॥ वासदेवे दक्षिणे च मुखे याजुषसम्भवम् । तस्माचा पुटाख्यं (1) हि तालः क्षत्रियजातिकः ॥ ४२ ॥ पिपीलिका इति शेया वर्णकुकुमकेसरी । दक्षिणे यजुषामाहुर्नारदेन प्रकीर्तितः॥४३॥ अघोरे पश्चिमे संज्ञे मुखे जातो यथर्वणः । षद्वितापुत्रकस्तालस्तस्मादुद्भवयिष्यते (2) ॥ ४४ ॥ वैश्यजातिरिति प्रोक्तः कनकाभ इति स्मृतः। मुरजा इति नामाख्यं नारदेन प्रशंसितम् ॥ ४५ ॥ १°पटलीवा इति समीचीनः पाठः स्यात् । ................... Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्याये प्रथमः पादः । तत्पुरुषेत्युत्तरे च मुखे सामवेदोद्भवं तथा । सम्पद्वेष्टिक्रतालोऽयं तस्मात्सम्भवमुच्यते (१) ॥ ४६ ॥ गान्धर्वमिति संज्ञं च मणिवर्णप्रशंसितम् । रिगमा इति संज्ञं तु ऋषिभिः प्रतिपादितम् ॥ ४७ ॥ ईशानोर्ध्वमुखे जातः शास्त्रागमसमन्वितः । तस्मादुद्भव उद्धहस्तालोऽयं नामतः क्रमात् ॥ ४८ ॥ नानाजातिर्नीलवर्णो यतिः समयतिः क्रमात् । रुद्रपश्चमुखेभ्यश्च तालाः पञ्चविधा मताः ॥ ४९ ॥ ब्रह्महा व सुरापानी स्वर्णस्तेयी च तल्पगः । तत्संयोगी पञ्चमश्च येऽतिपातकिनः स्मृताः ॥ ५० ॥ तद्दोषपरिहारार्थं प्रायश्चित्तमुदीरितम् । गणैर्नन्दीश्वराचैश्च ऋषिभिर्नारदादिभिः ॥ ५१ ॥ आदितालादितालानामेकोत्तरशतं क्रमात् । शृण्वतां पातकहरं राज्ञां ऋतुफलं लभेत् (१) ॥ ५२ ॥ राज्याभिवृद्धिसन्तानं रणे शत्रुविनाशनम् । सौभाग्यारोग्यमतुलं कामशास्त्रविवर्धनम् ॥ ५३ ॥ लास्याङ्गे संपरिज्ञानं कलावेदिनमुत्तमम् (?) । सर्वसङ्गीतसुभगं नृपाणां कीर्तिवर्धनम् ॥ ५४ ॥ इति श्रीनारदकृतौ सङ्गीतमकरन्दे नृत्ताध्याये नाट्यशालासभासभापतिपात्रपुष्पाञ्जलिपभ्वतालोत्पत्तिनिरूपणं नाम प्रथमः पादः । नृत्याध्याये द्वितीयः पादः । सदाशिवो हरिर्ब्रह्मा भरतः कश्यपो मुनिः । मतङ्गो यश्च दुर्गा च शक्तिशार्दूलकोहलाः ॥ १ ॥ हनूमांस्तुम्बुरुचैव अङ्गदश्चैव नारदः । एते साहित्यसर्वज्ञा बुधास्तालान्प्रचक्रमुः ॥ २ ॥ ५ ३३ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्गीतमकरन्दे । एकोत्तरशतताला उच्च्यन्ते । चंचरपुटश्चात्पुटः पितापुत्रकस्तथा। • सम्पद्वेष्टिक उद्धट्ट आदितालश्च दर्पणः ॥३॥ चरी सिंहलीलश्च कन्दर्पः सिंहविक्रमः। श्रीरङ्गो रतिलीलश्च रङ्गताला परिक्रमः॥ ४॥ हसलीलो वर्णभिन्नो राजचूडामणिस्तथा।। प्रत्यङ्गो गजलीलब त्रिमिनो वीरविक्रमः ॥५॥ रातो राजताल: सिंहविक्रीडिताया। धनमाली वर्णतालस्ततो राप्रदीपकः ॥ ६॥ हंसनादः सिंहनादो मल्लिकामोदसंज्ञक.। भवेच्छरभलीलबरजाभरण एव च ॥७॥ ततस्तुरङ्गाषिवल्ली स्यात्ततस्तु सिंहनन्दनः। . जयश्री विजयानन्दः प्रतितालो द्वितीयकः ॥८॥ मकरन्दः कीर्तितालो विजयो जयमङ्गलः। ' राजविद्याधरो मण्ठो जयतालः कुडलकः ॥९॥ ततो निःसारिणी क्रीडा मल्लतालच दीपकः । अनङ्गलीलो विषमो नान्दीतालो मुकुन्दकः॥१०॥ एकतालम कशालश्चतुस्तालच दोम्बुलिः। . भभको रायभवालस्तथैव लघुशेखरः ॥ ११ ॥ प्रतापशेखरमान्यो जगसम्पबतुर्मुखः।। सम्पच प्रतिमण्ठश्च तथा तालस्तृतीयकः ॥ १२॥ तमादुपरि विशेयो वसन्तललितो रतिः। करुणाख्यायितश्चैव पद्तालो वर्षमस्तथा ॥ १३ ॥ ततो वर्णपतिबैव रायनारायणस्तथा। मदनव विशेयः पार्वतीलोचमस्तथा ॥२४॥ ततो गारुगिताला स्वात्ततः श्रीनन्दनों जया। लीलाविलोकिलमान्यो ललिखमियमेव ॥१५॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्याने दिलीका पादः। जनको बजारमा समावर्षमा तल्लक्षणं दियेऽहं निशानबासी। .. अथ ताललक्षणमाह । ताले पचरपुटे शेयं गुरुद्वन्द्वं लघुप्लुतम् ॥ १७ ॥ एकसंघरुचैव भवेचाचपुटाभिधे ।। पलगा गलपाश्चैव षपितापुत्रकस्तथा ॥१८॥ मगणः स्यालुतायन्तं ) संपद्वेष्ट्याख्यसंज्ञके। उद(द)हो मगणस्खेक आदितोऽतिलघुः स्मृतः॥१९॥ दर्पणः स्यातदन्; गुरुव प्रकीर्तितः। अष्टगुर्वचर्चयां विरामं च दुतो लघुः॥२०॥ सिंहलीले विपातयं लघ्वाचन्तं द्रुतत्रयम् । . : दुतद्वयं -'कारख कन्द परिकीर्तितः ॥ २१॥ . सिंहविक्रमतालस्तु मगणो लपलो गपी। ... - श्रीरङ्गसंज्ञके ताले सगणो लगपो मतः ॥ २२ ॥. रतिलीले विधातव्यं लबोर्मध्ये गुरुदयम् । चत्वारो रगताले स्याद्रुतौ(ता)गुरुस्ततः परम् ॥ २३ ॥ परिक्रमे दुतइन्, वगणस्तदनन्तरम् । प्रत्यङ्गसंज्ञके ताले मगणः खाल्लघुदयम् ॥ २४ ॥ लचतुष्कं विरामान्यं गजलीले प्रकीर्तितम् । लघुर्गुरू तवैव विभिने परिकीर्तितः ॥ २५ ॥ . वीरविक्रमताले तु लो दुतौ च गुरुस्तथा। सविरामं लघुन्; ताले स्या सलीलके ॥ २६ ॥ वर्णभिमाभिधे ताले दुतद्वन्द्वं लघुगुरुः। राजचूडामणौ साले दुतो बस दुतो लगा॥ २७ ॥ रङ्गयोतेन तालेम भगणो लसुतावपि । गपो द्रुतौ गलोलपत्र राजलाले प्रकीर्तितः ॥२८॥ मत्र आदर्शपुस्खकेऽक्षरमेकं त्रुटितम् । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ सङ्गीतमकरन्दे । द्विला पो गगलो (ल.) पञ्चसिंहविक्रीडिते लपौ । द्वौ द्रुतौ लो द्रुतौ चैव वनमाली गुरुस्तथा ॥ २९ ॥ गुरुर्लघुद्रुतौ गुध वर्णः स्याच्चतुरस्रके । लघुद्रुतौ लघू गश्च तिस्रवर्णः प्रकीर्तितः ॥ ३० ॥ प्रतितूर्यविरामान्त्यं मिश्राख्यो द्वादशद्रुताः । तो गुरुदुतद्वन्द्वं द्वयं लो गुरुस्तथा ॥ ३१ ॥ रङ्गप्रदीपताले स्यान्तगणागतो यदि । गतौ द्रुतयुग्मं च हंसनादे प्रकीर्तितः (तम् ) ॥ ३२ ॥ यगणो लगुरुभैव सिंहनादो निरूपितः । ताले स्यान्मल्लिकामोदे गद्वयं लचतुष्टयम् ॥ ३३ ॥ लघुद्रुतचतुष्कं स्याल्लघुः शरभलीलके । तगणो लो सुतौ गध रङ्गाभरणसंज्ञके ॥ ३४ ॥ तुरङ्गलीलताले स्याद्भुतद्वन्द्वं लघुस्तथा । तपा लगद्रुतौ गालपलपालच लद्वयम् ॥ ३५ ॥ . निषद्धं (निःशब्द) लचतुष्कं स्यात्ताले स्यात्सिंहनन्दने । रगणों लगुरुश्चैव जयश्रीरिति गण्यते ॥ ३६ ॥ भवेयुर्विजयानन्दे लद्वयं गुरवस्त्रयः । ललितौ प्रतिताले स्याद्वतौ लब्ध द्वितीयके ॥ ३७ ॥ मकरन्दे द्रुतद्वन्द्वं लघुत्रयमतो गुरुः । लगौ पगौ लपौ गश्ध कीर्तिताले प्रकीर्तितः ॥ ३८ ॥ लुतो गध हुतो गध ताले विजयसंज्ञके । सकारश्च सकारश्च जयमङ्गलनाम च ॥ ३९ ॥ लघुबो द्रुतौ ताले राजविद्याधराभिषे । सकारो मण्ठताले स्यात्कल्पितं चचतुष्टयम् (१) ॥ ४० ॥ भारो रोघो गुरुद्वन्द्वं निःशब्द मठतालके । अथवा नगणो जश्च लघुश्चैव प्रकीर्तितः ॥ ४१ ॥ जगणो लो द्रुतौ पश्च जयताले निरूपितः । द्रुतद्वयं लघुद्वन्द्वं भवेत्ताले कुडुक्कके ॥ ४२ ॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्याये द्वितीयः पादः । लघुद्वन्दू विरामान्यं ताले निःसास्के भवेत् । दूतद्वन्द्वंदिरामान्य क्रीडाताले प्रकल्पितम्बा ४३ ॥ चन्दनिन्सारुनीताले प्लुतमेवाभिधीयते। सकारो गुरुलचैव त्रिभङ्गिरभिधीयते ॥४४॥ कोकिलप्रियताले स्याक्रमाद्गुरुलघुप्लुताः। ताले निःसारुके शेयो लघुश्चैव विधीयते (1)॥४५॥ श्रीकीर्तिसंज्ञके ताले गुरुवन्द्वं लघुद्यम् । ..... भकारो बिन्दयो गुषोंमध्ये स्थाहिन्दुमालिके ।। ४६ ॥ समताले लघुद्वन्द्वं विरामान्त्यं द्रुतत्रयम् ।....' तो द्रुतौ च लुतस्यान्ते ताले स्यानन्दमाभिधे।।४७॥ किञ्चिद्गुरुर्द्वयोर्मध्ये बिन्दुयुग्मं प्रचक्षते।... उद्बीक्षणे लघुद्धन्दू गुरुरेकस्ततः परम् ॥४८॥ मटिकायां विधातव्यं गुरुबिन्दुः लुतः क्रमात् । विरामादि व्योमयुग्मं लद्वयं च द्विमटिका ॥ ४९ ॥ डिङ्गीकारङ्गणं तस्यास्तस्याः सायोजने तथा । . को बिन्दू लश्च बिन्दू च विशेया वर्णमण्टिका ॥५०॥ लद्वयं विन्दुयुग्मं च गुरुवाभिनन्दके। . विधातव्यान्तरक्रीडा विरामान्त्यं दुतद्वयम् (1) ॥५१॥ समल्लताले द्विलघु विरामान्त्यं द्रुतद्वयम् । द्रुतद्वन्द्वं लघुद्वन्द्वं गुरुद्वन्द्वं च दीपके ॥५२॥ ... लघुप्लुतौ सकारश्च स्यादनङ्गेऽभिधीयते। वेद्रुतौ विरामान्तौ द्वौ पदी विषमदुत्तः । ५३ ॥ नान्दीताले समुद्दिष्टा लघुविन्दुर्लघुर्गुरुः ।.. मुकुन्दसंशिके ताले लघुर्विन्दुर्लधुर्गुरुः ॥५४॥ अन्ये मुकुन्दलघ्वादिषड्विन्दु लचतुष्टयम् । लघुद्वन्द्वं साकारेण कुडकः परिकीर्तितः ॥ ५५ ॥ 'एकेनैव द्रुतेन स्यादेकतालेतिसंज्ञितः । . चतुर्विधान्यकाल पूर्वखण्डसमागमः ॥५६॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ३८ सीमकन्ये पूर्ण चतुष्टेन गुरुना लघुमा ऋणात् । तां लघुः खपडे सुरुद्वन्द्वं लघुः समे ॥ ५७ ॥ एको गुल कङ्काले विषमे भवेत् । चतुस्ताले गुरुः पूर्व ततो विन्दुत्रयं भवेत् ॥ १८ ॥ विरामान्त्यं लङ्घन्द्वं दोम्बुलीति प्रकीर्तितः । लघुमेव परं त्वन्ये कालबन्धनकाभिषे ॥ ५९ ॥ अभङ्गकालकर्तव्यं गुरुरेकं लघुघुतम् । रंगो बिन्दुयुसेव रायभङ्काल इष्यते ॥ ६० ॥ एकेन संविरामेण लघुना लघुशेखरः । प्रतापशेखरेऽत्यङ्गविरामान्तं द्रुतद्वयम् ॥ ६१ ॥ झगझम्पे गुरुस्त्वेको विरामान्त्यं द्रुतत्रयम् । चतुर्मुखाभिधे ताले जगणो रन्तरहुतम् (१) ॥ ६२ ॥ व्योमद्वयं विरामान्त्यं लघु झम्पे विधीयते । जगणो मगणो वापि प्रतिमण्ठे बुधैः स्मृतः ॥ ६३ ॥ तालज्ञैरयमेवान्यैर्झल्लकः परिकीर्तितः । तृतीयताले बिन्दुः स्याद्विरामान्त्यं द्रुतद्वयम् ॥ ६४ ॥ वसन्तताले कर्तव्या द्रुतद्वन्द्वं लघुर्गुरुः । ताले ललितसंज्ञे च द्रुतद्वन्द्वं लघुर्गुरुः ॥ ६५ ॥ रतिताले लघुः कार्यः सतस्त्वेको गुरुः स्मृतः । ताले करण इत्या ज्ञेयं विन्दुचतुष्टयम् ॥ ६६ ॥ षट्तालखंज्ञके ताले बिन्दुषद्धं निरन्तरम् । वर्षने विन्दुयुगलं ततः कार्यो गुरुः स्मृतः ॥ ६७ ॥ वर्णमण्ठाभिषे ताले लघुद्वन्द्वं नभसायम् । रायनारायणे बिन्दुद्वितयं जगणो गुरुः ॥ ६८ ॥ द्रुतद्वन्द्वं तचैको मद्ने परिकीर्तितः । पार्वतीलोचने ताले तद्रुतौ तगणः क्रमात् ॥ ६९ ॥ अथवा मगणो लश्च गुरुद्वन्द्वं द्रुतत्रयम् । गारगे कथ्यते प्राज्ञैर्विरामान्त्यं चतुर्हताः ॥ ७० ॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्याये तृतीयः पादः। श्रीनन्दनवताला स्थाजगणः प्लुत इत्यपि। जयके जगविय बिन्दयुग्मं लुतस्तथा ॥७॥ विन्दुर्लघु सुतव लीलाताले प्रकीर्तितः। बिलोके च लधुर्वक्रव्योमयुग्मं ततः सुतम् ॥ २॥ ललितप्रियताले खासगणोऽनन्तराल .. जनतामिषताले मायनेया पर गुरु॥७॥ विन्दुदयं विराम लसी रामवर्षने ।. उत्सवः कचिमार्कयो सुने बर ७४ ॥ एवं प्रकारः कषितो नारदेन महात्मना। -. इति श्रीनारदकतौ सङ्गीतमकरन्दे नृत्याध्याये एकोत्तरशसवालमावानिर्णयो नाम द्वितीयः पादः समाप्तः। अथ नृत्याध्याये तृतीयः पादः। . चतुरस्त्रादितालानामेतानि कथिताम्यहम् । प्रस्तारसहितं लक्ष्म तनेदांब पृथग्विधान् ॥१॥ तपोभागदयालापो पुमा पामगणेति च (१)। पश्चकार्यप्रवन्धा च नन्दिकेश्वरकल्पितम् ॥ २॥ शब्दाडम्बरनामाख्यं तालं द्वतचतुष्टयम् । . तयं गुरुस्तिन आडम्बरस्ततो लघुः ॥ ३॥ . न तालं नववादित्रमन्त्यतालेन योचते )। मध्ये मध्ये तथा कुर्यात्तालमात्रं समन्वितम् ॥४॥ सर्वशब्दसमायुक्त अरेख इति कीर्तितः। सतत्सरपनेशेषु (१) प्रसिद्धो नारदेन च ॥५॥ ___ अथ दशविधतालप्रबन्धा उध्यन्ते। गुरुद्वन्द्वं लघुबन्; गुज्रेकसिमके। चतुर्लघुलकारश्च ललुतच चतुर्मुखे ॥६॥ कथयाम्यहम् इति पाठः सात् । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्गीतमकरन्दे पश्चतालप्रबन्धः स्याद्रुताद्यन्तं लुतश्चतुः (१)। तमसा पश्चलघुना षट्तालश्च प्रकीर्तितः ॥७॥ प्लुतो गुरू (कोलघुश्चैव सुलादिरभिधीयते । लघुरित्युच्यते तालं गीतज्ञैः पूर्वसूरिभिः ॥८॥ अष्टमङ्गलतालः स्यायोमाद्यन्तं नवद्रुतम्। यःहतो गलपो लोपो(प.) समगौ नवतालके ॥९॥ षड्भञ्जनं दीर्घषदं गुरुद्वन्द्वं लघुत्रयम्। .. दशरूपप्रबन्धः सात्रिंशन्मात्रं लघुस्तथा ॥१०॥ धरारसतनू भी मो लघुद्वादशविन्दः । निःशब्दो लन्च चखारताल एकादशे भवेत् ॥ ११॥ व्यानो (ने) सरलो दीर्घद्वादशसामसम्भवम् । गपव्योमयुतं चैव तालः स्यादर्कमालिका ॥ १२॥ . एतानि दशतालानि वाद्यन्ते श्रूयते नरैः। तत्पूर्वसर्वकार्येषु सर्वोत्कृष्टश्च जायते ॥१३॥ . विजयो जयमानन्दो जयश्रीर्जयमङ्गलम् । जयतालश्च पश्चैते श्रुत्यं (मृत्यु) जयकर शुभम् ॥ १४॥ लुतो गपो नगो राजौ जभव्योमद्वयं पुनः। पञ्चतालप्रबन्धः स्थाच्छ्राव्यं जयकरं शुभम् ॥१५॥ मदनोत्सवलक्ष्मीशक्रीडाकीर्तिस्तथा रतिः। सिंहलीलश्च सप्तैते मार्तण्डजयदः क्रमात् ॥ १६ ॥ चश्चत्पुटवाघुपुटः षट्पितापुत्रकस्तथा । प्रत्यङ्गो गजलीलश्च षट्तालश्च प्रबन्धकम् ॥ १७॥ धुवा मठा प्रतिमठा लम्बको रासकस्तथा। अष्टतालकतालः सुलादीत्युच्यते बुधैः ॥१८॥ लघुसुलादिः। रङ्गद्यूतो राजतालो वनमाली विधा मंतः। त्रिभङ्गी तालवृन्दं च नारदेन यथाक्रमम् ॥ १९ ॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्याये तृतीयः पादः। एकतालमकालपत्रालच दोबालि।। चतुर्मुखन स्थाच्यते शत्रुनाशनम् ॥ कन्दो मिन्दुमालीप समतालम नन्दनः । राजविवापसे सम्पा विषमः कन्दुकस्तथा । २४॥ सङ्गीतशासमोरन्यमाष्टमङ्गलनामाम् । प्रबन्धं च शृणोत्यत्र विषममहमोचनम् ॥ २९॥ खटः सिंहनादब अमो रविक्रमः। ततः शरभलीलाच सिंहविरितिलोमतः॥२६॥ प्रलापशेखरमाया सिंहक्कम एव च। रायनारायणो बाम नवतालप्रवन्धकम् ॥ २४ ।। । यमौ जपो लघुव्योम वक्रपापविरामजी। लपो तपो लपी वक्र सपो लघुगपो लघु ॥२५॥ : विरामान्तं लघुबई पुनस्तत्र विरामकम् । चतुर्विन्दु ललव्योमो जगुरु स्थानवाभिधे ॥ २६ ॥ अभिनन्दान्तरक्रीडा मलतालश्च दोम्बुलिः। कुडकका प्रतिमठो मकरन्दश्च चरी ॥२७॥ परिक्रमो हंसनाद एमिस्तालैः समन्वितम् । दशरूपप्रवन्धं च भूयते कीर्तिवर्धनम् ॥ २८ ॥ नान्दी तृतीयतारस्तु लघुशेखरसंशकः। प्रतापशेखरश्चैव तथैवानलीलकः ॥ २९ ॥ वर्णमय पर्चर्यो वर्णलालो द्वितीयकः। उत्सवो मदनवमेकादश निरूपितम् ॥ ३०॥ वनमाली राजचूडो वर्णलालः प्रदीपकः। .. रङ्गाभरण उनले रलिकीर्तिश्च नन्दनः ॥३१॥ वीरविक्रमलक्ष्मीस उत्सवच ततः परम् । प्रवन्धमर्कमालाख्यं भूयते पापनाशनम् ॥ ३२॥ . (इति दशतालः प्रवन्धः समाप्तः।) Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्गीतमकरन्दे । अङ्गतालाः कथ्यन्ते)। गुरवः षोडश ज्ञेया द्वात्रिंशल्लघवः पुनः। .. . चतुःषष्टिटुंताश्चैव तालो यक्षपतिर्भवेत् ॥ ३३ ॥ विरामार्धाधचन्द्रार्धमातृकात्रितयं तथा। व्यञ्जनं च लयं खण्ड लघुदन्यूँ दूतं ततः॥३४॥ अनुद्रुतद्वन्द्वलघुस्तालोऽयं वाचविनमः। इति सङ्गीतकैः प्रोक्तो द्राबडीदश विश्रुतः ॥३५॥: मरताले नकारः स्वागणो ल ततो लगः।. ततश्च विन्दवाव कल्पितं भचतुष्टयम् ॥३६॥. पुनर्मठभकारश्च निःशब्दं च गुरुद्धयम्।। आलापमध्ये चार्द्धन्दुः सूरिभिश्च चिरच्यते ॥ ३७॥ गुरुबहुकलायुक्ता प्लुतयुग्मं ततः परम् । ब्रह्मताले भवेत्सत्र नारदस्य मतं यतः ॥ ३८ ॥ प्लुतमेकं लघुद्धन्द्धं निःशब्दो लत्रयं भवेत्। द्रुतमल्प (१) मया प्रोक्तो लघून्याभ्यो निरूपितः ॥ ३९॥ गीतझम्पाख्यके ताले व्यञ्जनं दुतमिश्रलः। वाचं झम्पा विरामान्त्यं द्रुतद्वन्द्व च बन्धनम् ॥४०॥ ब्रह्माण्डतालेऽनुद्रुतो द्रुतसात्यं बकल्पनम् (१)। पद्रुतास्त्वविन्दुम लघुश्चैव द्रुतद्वयम् ॥४१॥ तनेदविन्दुलश्चैव ततो मिश्रलघुद्वयम् । . द्रुतद्वयं विरामान्त्यं रायकोलाहलः स्मृतः॥४२॥ द्रुतत्रयं लघुद्वन्द्वं त्रिरावृत्ता भका ततः। मातृकाद्वितयं चैव तालः प्रोक्तो महाशनिः ॥ ४३ ॥ अव्यक्तं व्यञ्जनं बिन्दु तिस्रो लघुः पुनः पुनः (१)। . व्यञ्जनं वलयं द्वन्द्वमव्यक्तं तिस्रलस्तथा ॥ ४४ ॥ तिमृलो व्यञ्जनो बिन्दु) तिसृमात्रेकमेव च । तिनाभेरिरिति प्रोक्तो वाचविद्याविशारदैः॥ ४५ ॥ १°दुतसाद्यन्त्यकल्पनं० इति स्यात् । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्याये तृतीयः पादः । गगनिःशब्दलध्वेकद्वितीयं लगल हुतम् । नगलो द्वौ द्रुतं दीप्तं यगणो लचलः स्मृताः ॥ ४६ ॥ गुरवः सप्त विज्ञेयाः सरलानि च षोडशः । द्रुता विंशतिराख्यातास्तालो वाद्यगजाङ्कुशः ॥ ४७ ॥ (अथ) तालशब्दनिष्पत्तिः । तालशब्दस्य निष्पत्तिः प्रतिष्ठार्थेन धातुना । गीतं वाद्यं च नृत्यं च भाति ताले प्रतिष्ठितम् ॥ ४८ ॥ संयोगे च वियोगे च वर्तते च तयोर्द्वयोः । स्थापितोऽपि दश प्राणैः स कालस्तालसंज्ञिकः ॥ ४९ ॥ शिवशक्त्यात्मकं पुण्यं यशस्यं भुक्तिमुक्तिम् । दशप्राणात्मकं तालं यो जानाति स तत्त्ववित् ॥ ५० ॥ कालमार्गक्रियाङ्गानि गृहजातिकलालयाः । यतिप्रस्तारकं चैव तालप्राणा दश स्मृताः ॥ ५१ ॥ अथ काललक्षणम् । उपर्युपरि विन्यस्य पद्मपत्रशतं सकृत् । . स कालः सुविसंभेदातत्क्षणस्य कलं प्रति ॥ ५२ ॥ लवः क्षणैरष्टभिः स्यात्काष्ठा चाष्टलवात्मिका । अष्टकाष्ठा निमेषः स्यानिमेषैरष्टभिः कला ॥ ५३ ॥ ताभ्यां चैव चतुर्भागचतुर्भानामनुद्रुतः (१) 1 अनुद्रुताभ्यां बिन्दु विन्दुश्यां तु लघुर्भवेत् ॥ ५४ ॥ लघुद्वन्द्वं गुरुचैव त्रिलघु हुतमुच्यते । इतिमानगतिः प्रोक्ता तालज्ञैः पूर्वसूरिभिः ॥ ५५ ॥ अथ मार्गलक्षणम् । ४३ दक्षिणो वार्तिकञ्चैव तथा चित्रविचित्रकः । तथा चित्रतरस्तु स्यादतिचित्रतरो मतः ॥ ५६ ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्गीतमकरन्दे । षडवः कथितो मार्गस्तत्व रूपं निरूप्यते । एतदेव नारदस्य मतमिष्ट यथाक्रमेर २७॥ अष्टमात्रा कला क्षेचा मार्ग दक्षिणसंज्ञके। वार्तिकरस तु चतुर्मात्रा कला चित्रा द्विात्रिका ॥५८॥ द्रुता चित्रतरे तस्या लघुचित्रतरो मतः। अतिचित्रतरो मार्गकलाश्च द्रुतसंझिका(१)॥ ५९॥ मात्रालक्षणम्। लघ्वक्षराणां पलानां मानमुबारणे हि तत्। तत्प्रमाणं परिशेयं मार्गस्तालस्ततो बुधैः ।।६०॥ मार्गदेशीगतखेच तनाथस्य किया द्विधा । तद्विषं कथयिष्यामि नारदो मार्गलक्षणी (णम्)॥१॥ तत्र चौवाद निष्कामं बिशेपं च प्रवेशनम् । चतुर्विधं च कल्पेत निःशब्दः कथितो बुधैः ॥१२॥ शम्यतालो द्रुतव संनिपातस्तथा परन् । ..... सशब्देन च संयुको विशेष चतुर्विषः॥ १३ ॥ सर्वाङ्गुलिसमाक्षेप औपाद इति कीर्तितः। निष्कामोऽथ गतिस्तस्था अङ्गुलीनां प्रसारणम् ॥ १४॥ तर दक्षिणतः कालो विक्षेप इति कथ्यते। विवर्णनं च हस्तस्य प्रवेशोऽधोमुलस्य च ॥१५॥ तस्य हस्तनिपातस्तु शम्यतालस्तुपामतः। हस्तयोरुभयोर्यातौ संनिपातद्रुतौ स्वतौ ॥ २६ ॥ एतदष्टप्रकारास्तु मार्गभेदा विवक्षिताः। तत्रा(च)द्वित्रिचतुरकलासु प्रतियोगिता (नः) ॥ ६७॥ . अथ देशीक्रिया । ... देशीयोग्यं (ग्यान) प्रवक्ष्यामि व्यापारान् भुषकादिकान् । ध्रुवका सर्पिणी कृष्या पद्मिनी च विसर्विका ॥१८॥ षड्विधः कथि इति शुद्धः पाठः स्यात् । २ चावाप इति शुद्धः पाठः सात् । ३ °आ बाप इति शुद्धः पाठः स्यात् । . Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्याये तृतीयः पादः । विक्षिप्ताया पकाया मातृका त्वरिताही . अमात्राणि इंषि) विज्ञेया कथितं नारदेन च ॥ ६९ ॥ सशब्दो का ज्ञेया सर्पिणी कामगाविनी । कृष्णा दक्षिणतः पातः पद्मिनी स्वादयोगता ॥ ७० ॥ विसर्पिका गहिर्याता विक्षिप्ता कुलजात्मिका । पताका श्रोर्ध्वगमना पतिता करपातना ॥ ७१ ॥ दक्षिणानामानि । ध्रुवका सर्पिणीचैव ताका परिवाध्यते । चतुर्मात्राका ज्ञेया वार्तिकेऽपि न योजयेत् ॥ ७२ ॥ शुक्कापतिले विसरिचित्रादिकान् हुलान् (?) 1 अनेनैव प्रकारेण कालमार्गक्रिया भवेत् ॥ ७३ ॥ अथ अङ्गानि । अनुतो द्रुतचैव लघुर्गुरुस्ततः परम् । सुतश्चेति क्रमेणैव तालाङ्गानि च पञ्चधा ॥ ७४ ॥ द्रुतस्य देवता शम्भुर्लयोचाद्रिपतेः सुता । गौरी च श्रीमपि गुरोः हुते ब्रह्मादयस्त्रयः ॥ ७५ ॥ अथ ग्रहाः । ग्रहाविधा समा नीतास्तथानामत इलपि (१) । तल्लक्षणं च पश्यामि नारदो ॥ ७६ ॥ किती खतीत ती खाता समः समग्रड्ः प्रोक्ताः पूर्वसूरिभिः ॥ ७७ ॥ अथ आतिः कथ्यते । • चतुरस्रस्तिमिवस्तालं संखामिषे तथा (१) । चतुर्विधो भवेत्तालस्तत्स्वरूपं निरूप्यते ॥ ७८ ॥ १ समो नीतस्तथा° इति शुद्धः पाठः स्यात् । देशे (लो. ७६) 'नीतः" इत्येव पाठदर्शनात् । शुद्धः पाठः स्यात् । २ नीतोऽतीते इति पाठः शुद्धः स्यात् । उ३ 'चतुरस्रस्तिन मिचस्तालः खण्डानिम्रथा' इति Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ सङ्गीतमकरन्दे । । तत्र यत्पुटः प्रोक्तम्चतुरखो मनीषिभिः । तथा चाचुपुटस्तित्रस्तथा भेदा भवन्ति च ॥७९॥ गुरुत्रयं समारभ्य द्विगुणं द्विगुणं क्रमात् । एवं पूर्वव्यतीते तु.खं(१)षधिकल्पना ॥८॥ ६।१२।२४।४८९६ इयं जाति कला ज्ञेया। चतुर्गुरुं समारभ्य द्विगुणं द्विगुणं क्रमात्। शतं चाष्टाविंशतिश्च चैवं षडिधकल्पना ॥ ८१॥ ४।८१६३।६।१२८॥ चतुरस्रजातिकला ज्ञेया। युग्मौ च मिश्रणान्मितालः प्रोक्तो विचक्षणैः। मितालमितिश्चैव नारदो मुनिरब्रवीत् ॥ ८२॥ विय (१) निवेश्य तालाङ्यथा तक्रियते बहु।' भङ्गिभिश्च सतालः स्यात्तत्सालः खण्डसंज्ञकः ॥ ८३॥ . चतुरस्त्रजातिमध्यस्था गुरुश्च गुरुवहुविधा जातास्तदा लैवतुरसजातीनां खण्डा विभागा भविष्यन्ति । तत्र तदा खण्डार्यताला इति ख्याता जायन्ते । एते सर्पजातिसामान्या इति वाच्या इत्यर्थः । अथ लयकालो ज्ञेयः। कालान्तरालवृत्तिर्याम्लकबिल्ववत् । कथितो नारदेनैव काललक्षणवेदिना ॥८४॥ धते मध्यार्घकालस्य मध्यकालखभावतः। विलम्बो दीर्घकालस्य त्रिकालस्विति निश्चितः ॥ ५॥ अयनार्धे यतिः सम्यकीर्तितो भरतादिभिः। एतन्मतं ममैवेति नारदो मुनिरब्रवीत् ॥ ८६ ॥ समश्रोतोवयतिर्गोपुच्छा चेति सा त्रिधा (१)। ... ऐकयोवलयो यस्य धृती सा स्यात्समाभिधा (१)॥८७॥ अस्मिन् पादे एकमक्षरं त्रुटितम् । २ मिश्रतालमितिं चैवं मर इति पाठः स्यात् । ३ अत्र आदर्शपुखके त्रीण्यक्षराणि लुप्तानि । तानि 'कपित्थ' इति भवेयुः। ४ °समा सोतोवहा य. तिर्गो० इति पाठः स्यात् । ५०एक एव लयो यस्या धृतः स्या इति पाठः स्यात् । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्याये तृतीयः पादः। द्रुतादयः क्रमापत्र यतिः स्रोतोषहा मता। गोपुच्छा इति विज्ञेया द्रुतादीनां विपर्ययात् ॥८॥ .. अथ प्रस्तार अन्येऽपि सन्ति भूयिष्ठास्तालास्ते लक्ष्यवर्त्मनः। प्रसिद्धविधिरत्रैव शास्त्रेऽस्मिन्प्रतिपादितः॥ ८९ ॥ तथेति तक्रयार्थ तु(१) लघूपाया भवन्त्यमी। प्रस्तारसया नष्टं चोदिष्टं पातालकस्तथा ॥ ९॥ द्रुतमेहलघुमेरुशुरुमे सुतस्य च।.. .... मेह संयोगमेकच खण्डमस्तारकं तथा ॥ ९१ ॥ प्राचां चतुर्णा मेरूणां नष्टोदिष्टं पृथक् पृथक् । एकोनविंशतिरिति प्रेतिस्थानं बुवेऽधुना ॥९२॥ प्रस्तारो यथा-.. यस्याल्पमध्यमहतोऽधस्ताक्षेपं यनोपरि (१)। प्राग्ने वामपःस्थाप्यं संभवे महतो लिखेत् ॥ ९३ ।। अल्पानसंभवे तालपूरौं भूयोऽप्ययं विधिः। .... सर्वद्रुतावधिः कार्यः प्रस्तारोऽयं लघौ गुरौ ॥ ९४॥ प्लुतो व्यस्ते नन्यते च चाक्षराणि चतुर्विधम् (१)। संज्ञया तत्परिज्ञेयं लुतं लघुगुरुलुतम् ॥ ९५॥..... प्रत्येकं तु लुतादीनां भवेत्कार्यसपश्चकम् (१)। . अनुद्रुतमर्षचन्द्रं व्यञ्जनं चारु नासिकम् ॥१६॥ . अव्यक्तं चेति पते पर्यायाख्यमनुद्रुते। ....... अर्धमात्रगुतं व्योम वलयं विन्दुके दुतम् ॥ ९७॥ भूयांसस्तालास्ते लक्ष्यम॑नि । इति सङ्गीतरनाकरे पाठो दृश्यते। २ प्रसिद्धिविधुरत्वेन शानेऽस्मिन्न प्रदर्शिताः । इति पाठः सङ्गीतरनाकरे। ३ तद्भेदप्रत्ययार्थे तु लघु इति पाठः सगीतरमाकरे। ४ प्रस्तारसये न° इति पाठः सङ्गीतरत्नाकरे। ५ प्रत्ययार्थ ब्रुवेश्चना इति सङ्गीतरमाकरपाठः। ६ 'न्यस्याल्पमाद्यान्महतोऽधस्ताच्छेषं यथोपरि' इति सङ्गीतरनाकरे। . प्रागूने वामसंस्थांस्तु संभवे इति सङ्गीतरनाकरे । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोमकरन्दे। हिमा का वर्क बीच गुरु जीर्णनम् ॥ १८ ॥ छुतत्रयं त्रिमात्रं च दी तालमयं तथा। अदुतखरूपं च तालेन्दुकलात्मकम् ॥ १९ ॥ दुतस्तु वलयाकारो लघुरूर्षशराकृतिः। गुरुर्वक्रधनुर्शयं मयं शिखरो गुरुः॥१०॥ पञ्चाङ्गानां स्वरूपादिकषितं पारदेन । इति श्रीनारदकृतौ सङ्गीतमकरन्दे नृत्याध्याये तालयनिरूपणं नाम तृतीयः पादः समाप्तः। नृत्याध्याये चतुर्थः पादः। - अय मृदङ्गोत्पत्तिलक्षणमाहचन्द सुकुमारं च सुखं च मनोहरम। वकोटरवज्यं हि आनयेदेषवाकरः॥१॥ अष्टषष्टिभिरित्यत्र अङ्गुलीपर्वसंमितः। गणपेन्दगीमत्वं प्रमाणं प्राह यन्मुनिः ॥२॥ द्वात्रिंशत्सर्बसाये तुमध्ये तत्र नियोजयेत्। मृदाय मुखे द्वे च पर्व षोडश षोडश ॥३॥ शिवशक्तिमयो प्रोत्तौ चौंचक्रमनुष्यते (१)। दक्षिणे शिवसम्बन्धो वामे शतिसमन्वितः ॥४॥ स पदिशति (१) छन्दांसि तन्तबो बन्धनं ततः। ब्रह्मविष्णुमहेशानां बन्धनं अन्थिका भवेत् ॥५॥ .. समपादतले कृत्वा गृहीत्वा वादनं क्रमात् । नमस्कृत्य उभौ हस्तौ समवायं च कारयेत् ॥६॥ तद्धितोटयशब्देन पञ्चाङ्गुलि निवेदयेत् ।.. दक्षिणे चाङ्गुली द्वे च वामे करतलेन ॥७॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्याय चतुर्थः पादः। समध्वनिसमायुक्तं श्रूयते पुत्रवर्धनम् । राज्याभिवृद्धिरतुलं रणे शत्रुपलायनम् ॥८॥ एकमेकं भिन्नरूपं ध्वनि यत्र. शृणोति यः। शिवनादे भवेद्याधिः शत्या दारिद्रमामुयात्॥९॥ (इति मृदङ्गलक्षणम् ।) अरेखा सारिणी चैव सम्पसारी ततः परम् ।। समगैकैष कैवालं हस्तसंयुक्तमेव च ॥१०॥ . अरेखा सम्पुटीयुक्ते पुरोदृष्टिमवेक्षते। सारिणी दक्षिणभुजे करौ खण्डयुतौ द्रुतौ ॥११॥ प्रसारिणी वामभुजे हस्ते हस्तकनिष्ठिके।.. अङ्गुली करणाभावे वेष्टितावन आन्यको ॥१२॥ समगैकेति विख्याता हस्तौ वामस्तने धृतो। . कैवालं दक्षिणकुचे लग्नौ बूचुकदर्शनम् ॥१३॥ चतुरं च कुवलं च धृतहस्तमनूरणम् । परिक्रमं च पते पासंयुतमतं विदुः ॥१४॥ चतुरं कमलं हस्तमुन्नतपार्श्वदक्षिणे । वामे पताकववृत्ता चलनं च कुवालकम् ॥ १५॥ कनिष्ठाङ्गुलिमुचेन वलये धृतहस्तकम् ।। समपादतलौ दृष्टिपार्वेकैककरो मतः॥१६॥ ससर्पफणिप न ऊन्तिलपुरो यदि। दक्षिणे कटिनृत्यं च करोति च मनूरणम् ॥१७॥ वामपार्श्वे तु वलयं हस्तं यत्र करोति सः। . तर्जन्यङ्गुष्टकं रन्ध्र परिक्रममुदीरितम् ॥१०॥ कुरुडायी चित्रतरं तथा चित्रकलीति च। घनरवं नागवन्धं चक्रनमरिका तथा ॥ १९॥ अतिचक्रभ्रमरी विधृतभ्रमरिका ततः।.. अष्टभ्रमरिकाण्येव नारदेन विचर्षिता ॥ २०॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरुळायी हिमाम्यं तिनं क्षिपचार्थके। पारशिपिस अयोधगमनं १ शिरोमणम् । पनि कटिनमण विक्षेपं पाणै। ... वामस्कन्धं च हष्टिं च सायधिवकुली तथा ॥ २२ ॥ भ्रमण दक्षिणकटे (टी) पावं विक्षिप्य वामके वामस्कन्धे दृष्टि यमस्वं श्रमणं च तत् (१): २३ ॥ शिरोभ्रमणकै कृत्वा स्कन्धमध्ये निवेदयेत्। समष्टिः समातिन गवन्धं करालिम् ॥ २४॥ कट ऊवं भ्रमण कटेलमै तुचामकम् । वामपातुगमन चक्रब्रमरिका भवेत् ॥ २५॥ सदैव भ्रमणं योद्धस्तो दक्षिणकव्यपि (१)। ..... निवेश्य दक्षिणगतिरतिभ्रमरकं भवेत् ॥ २६ ॥ सर्वाङ्गनमण कूपत्सिमदृष्टिरपो द्वयोः। " मध्ये मध्ये च नटनं धृतनमरिका भवेत् ॥ २७ ॥ बोटावणी चिगुरुश्च समगात्रं यथाक्रमम् । वीरंगात्रं विषमकमषंगानं तथैव च ।। २८॥ वीरगानफणीवालं चिटिकोटवणिस्तथा। शिरांसि नबसमानि नारदस्य मतानि तु॥२९॥ उन्नतं च शिर कृखा धूविक्षेप वीक्षकैः।। उद्धृत्तौ च करी कृत्वा चलनं चोटवेणिकम् ॥ ३० ॥ वामहस्ते शिरःशाप्य (१) कावीक्षितो गतिः। मध्ये मध्ये च ममकं चिगुरु कथ्यते बुधैः ॥३१॥ तथैव दक्षिणे हस्ते स्थापयेच शिरो दश मध्यमध्ये विरामं च समगानमिति स्मृतम् ॥ ३२॥ मलादनेलादीपुर नायक शुक्रितानि । मलार्वा के ले भाको छ । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. नृत्याध्याये चतुः पादः । अघोष्टिशिरपातवदनं चिहतालुकम् (१)। ............. वरगात्रमिति-स्मृतम्॥३३॥ अर्धपार्श्वगतिं शीर्ष वक्रकरिसमन्वितम् । वामहस्तेखलितट कटकं विषगात्रकम् ॥ ३४ ॥ अर्धगावरजिशिरः पुरोहस्तौ कटीतटौ। .. धृत्वा रञ्जितसर्वत्रनुत्यं वृत्यं च कोहलम् ॥ ३५॥ तथैव वामजहोर शिरो निक्षिप्य दृष्टयः। गमनं च फणीवालं ......."भवेत्तथा ॥ ३६॥ अन्तःशिरो बायशिरो(र.) ऊर्ध्वाधो बाहुकुहनम् । भ्रमति भ्रम्यचतुरो विटभाटावणिक्रमम् ॥ ३७॥ चित्रं चैवातिचित्रं च विन्दन्ति सम एव च (१)। चत्वारधरणा.भेदाः कथिता नारदेन च ॥ ३८॥ वक्रपादाङ्गुलीरम्यं नटभावं विनिर्दिशेत् । नीचोचगमनं कुर्याचित्रलक्षणमुच्यते ॥ ३९॥ उभौ पादाङ्गुली वक्रो (के) कृत्वा गमनमादिशेत् । मध्ये भ्रमणकं कुर्यादतिचित्रं वदन्ति च ॥४०॥ पादमालाङ्गुलौं गम्यमधोहस्तौ कृतौ नटः। अर्धपार्श्ववक्रभेदं भवेद्विदन्ति तालगाः॥४१॥ समपादौ समा दृष्टिः समचारीकृतान्विताः। समभ्रमणनटना सममित्युच्यते बुधैः॥४२॥ त्रयस्त्रिंशनटीभावाः सर्वदेशेषु संमताः। . सवेंशाखासमा भावाः कथिता नारदेन च ॥४३॥ इति श्रीनारदकतौ सङ्गीतमकरन्दे नृत्याध्याये हस्तकप्रकरणं नाम चतुर्थपादः समाप्तः ॥ इति सङ्गीतमकरन्दः समाप्तः । . १अत्रादर्शपुस्तके सप्ताक्षराणि लसानि । २ अत्रादर्शपुस्तके चत्वार्यक्षराणि त्रुटितानि । ३ इतोऽप्रे आदर्शपुस्तके लेखकेन आदर्शपुस्तकलेखनकालः खाभिधानादिकं च निरूपितं यथा "शके १५९९ शालिवाहे पिझलनामवत्सरे आश्विनमासे शुक्लपक्षे विजयदशम्यां विद्यापुरमहानगरे श्रीमन्महागणपविदासकृम्माजीदत्तेनेदं सजीतमकरन्दाख्यपुस्तकं लिखितम् । महागणपतिपति" . Page #82 --------------------------------------------------------------------------  Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुति सा श्रुतिनामानि १ ANM p २ ३ ९ १० xxxxx w 2000mm ११ १२ १३ १४ १५ १६ १७ १९ २० २१ परिशिष्टम् १ श्रुतीनां संख्यीनामशुद्ध विकृतस्वरशदर्शकवालिका 1 २२ सिद्धा प्रभावती कान्ता सुप्रभा शिक्षा दीप्तिमती उमा ल्हादी निर्विरी १८ शान्ता दिरा सर्पसहा क्षान्तिः | विभूतिः मालिनी चपला बाला शुद्धखरनामानि विकलिनी षड्जः शुद्धखरश्रुतिसंख्या ‚¿ ऋषभः त्रिंश्रुतिक: गान्धारः- द्विश्रुतिकः सर्वरत्ना पश्चमः चतुःश्रुतिकः हृदयोन्मलिनी धैवतः विसारिणी प्रसूना निषादः च्युतषड्जः चतुःश्रुतिकः अच्युतषड्जः विकृतखरनामानि विकृतर्षभः साधारणगान्धारः अन्तरगान्धारः च्युतमध्यमः मध्यमः चतुःश्रुतिकः अच्युतमध्यमः कैशिकनिषादः काकलीनिषादः त्रिश्रुतिकः द्विश्रुतिकः त्रिशुतिपश्चमः, कैशिकपश्चमो वा विकृतधैवतः 'विकृत स्वरगतश्रुतिसंख्या...: ..... त्रिश्रुतिकः चतुःश्रुति कः द्विश्रुतिकः चतुःश्रुतिकः त्रिश्रुतिकः चतुःश्रुतिकः द्विश्रुतिकः त्रिश्रुतिकः चतुःश्रुतिकः Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनामावली निसुपार्यमत्र प्रका प्राचीन संगीतजन्यानी इत्यंक शिता न ये प्रन्या मुद्रितास्तेषां नामानि नक्षत्रचितेन दर्शितानि । ग्रन्थकर्तुमामानि : प्रथेनामानि अनूपसंगीतविलासः अभिनयमुकुरम् अभिनवभरतसारसंग्रहः अर्जुनभरतम् .. अष्टोत्तरशतताकलक्षणम् । आदिभरतम् आनन्दसंजीवनम् औमापत्यम् कल्पतयः गीतालङ्कारः तालदशप्राणदीपिका तालदीपिका तालप्रस्थम् तालप्रस्तारः ताललक्षणम् तालादिलक्षणम् तालाभिनयलक्षणम् ध्रुवपदटीका नर्तननिर्णयः नाददीपिका नारदी शिक्षा नृत्यरनावली नृत्याध्यायः पञ्चमखारसंहिता *भरतनाट्यशास्त्रम् परिशिष्ट २ भरतभाष्यम् भरतलक्षणम् भरतशास्त्रम् भरताग्रसङ्गीतम् भावमहः ... मुम्मडिचिकभूपाल: भरताचार्यकृतम् " राजा मदबमाल: उमापसिंग गणेशदेवः अनन्तनारायणः गोविन्दः डिप्पभूपालः नन्दिकेश्वरः नन्दिकेश्वरः भावमहः पुण्डरीक विट्ठलः भट्टाचार्यः नारदः नारदः भरतमुनिः न्यायदेवः गणपतिदेवसेनः अशोकमनः 800 ... रघुनाथः 600 १०० ... ... Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रन्थनामानि भरतसारसङ्ग्रहः मतङ्गभरतम् मुक्तावलिप्रकाशिका मुरलीप्रकाशः मेलाधिकारलक्षणम् रागकौतूहले नृत्यप्रकरणम् रामचन्द्रोदयः रागतस्त्वविबोधः रागध्यानादिकथनाध्यायः रागनिरूपणम् रागप्रस्तारः * रागमजरी रागमाला राममाला रममाले पा रागरजाकरः रागलक्षणम् रागविचारः * रागविबोधः रागविवेकः रागादिखरनिर्णयः रुद्रडमरुभगसूत्रविवरणम् वीणावाद्यलक्षणम् वीरपराक्रमः. श्रुतिभास्करः षड्रागचन्द्रोदयः सप्ताङ्गलक्षणम् *सद्रागचन्द्रोदयः सङ्कीर्णरागाध्यायः सङ्गीतकल्पतरुः सङ्गीतचिन्तामणिः सङ्गीतदर्पणम् * सङ्गीतदर्पणम् सङ्गीतदामोदरः सङ्गीतदीपिका चन्द्रशेखरः लक्ष्मणभास्करः ... भावभट्टः रामकृष्णभट्टः विमल: श्रीनिवासः ग्रन्थकर्तृनामानि नारदः पुण्डरीक विट्ठलः पुडरीकविठ्ठलः क्षेमकरणः गन्धर्वराजः ... श्रीरामः सोमनाथः ... ... रघुनाथ दासप्रसादः ... वासुदेवः भीमदेवः ... ... ... ... पुण्डरीक विट्ठलः ... कमललोचनः हरिवल्लभः दामोदरः कम्भरः निम्बभूपालः Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५२६ प्रन्थनामानि सङ्गीतनारायणः सङ्गीतनारायणः सङ्गीतपाठः * सङ्गीतपारिजातः सङ्गीतपुष्पाञ्जलिः * सङ्गीतमकरन्दः सङ्गीतमकरन्दः सङ्गीतमीमांसा सङ्गीतमुक्तावली 39 सङ्गीत मेरुः सङ्गीतरत्नमाला * सङ्गीतरत्नाकरः सङ्गीतरत्नावली * सङ्गीतरत्नकरटीका 99 " 19 22 39 सङ्गीतराघवः सङ्गीतराजः सङ्गीतविनोदः 99 33 सङ्गीतसुधा सङ्गीतसुधाकरः सङ्गीतसुधाकरः सङ्गीतसुन्दरः सङ्गीतसुरामृतम् "" "" सङ्गीतवृत्तरत्नाकरः सङ्गीतशिरोमणिः सङ्गीतसमयसारः सङ्गीतसमयसारः सङ्गीतसर्वार्थसारसङ्ग्रहः सङ्गीतसारामृतम् सङ्गीतसारावली सङ्गीतसारोद्धारः सङ्गीतमकरन्दे । ( अध्याय १ ) ( हिंदीभाषा ) ग्रन्थकर्तनामानि पुरुषोत्तम मिश्रः अहोबलः ... नारदः वेदः कुम्भकर्णमहीमहेन्द्रः देवान्नाचार्यः देवेन्द्रः कोहलः ... श्रीशार्ङ्गदेवः सोमदेवपरमर्दी. कल्लिनाथः सिंहभूपाल: कुम्भकर्णनरेन्द्रः गङ्गारामः हंस भूपाल: वोमभूपाल: कुम्भकर्णः विठ्ठल: पार्श्वदेवः .39 तुलजेन्द्रः हरिभट्टः ... 000 सिंहभूपाल: हरिपाल : सदाशिवदीक्षितः तजावर निवासि भोसले इत्युपाइतुलाजिमहाराजः Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् २ - ग्रन्थकर्तृनामानि ग्रन्थनामानि सङ्गीतसेतुः सङ्गीतामृतम् सङ्गीतोपनिषत् सारसंहिता खरप्रस्तारः -गङ्गाराम: कमललोचनः सुधाकलशः नारदः खरमञ्जरी खरमेलकलानिधिः *खरमेलकलानिधिः *हृदयप्रकाशः * हृदयकौतुकम् रामामात्यः हृदयनारायणदेवः हृदयनारायणदेवः Additional List of Sanskrit Works on Music (Supplied by the Central Library, Baroda, as ___found in several Mss.-Catalogues and Reports.) ' Dr. Bhandarkar's Report 1887-91. १. संगीतरागकल्पद्रुम. . India office Library Catalogue-Tawney & Thomas. २. संगीतनारायण. by नारायण. . Buhler's Catalogue-Gujarat, Kathiawad, etc. ३. संगीतरनाकर. by सारंगदेव (as distinguished from शाङ्गदेव which is also mentioned in the same place ) ४. संगीतोपनिषत्सार. Oudh Catalogue. ५. संगीतसुधा. by भीमनारीन्द्र. ६. संगीतनृत्य. , शारंगदेवसूरि. ७. संगीतनृत्याकर. by भरताचार्य. Bodleian Library Catalogue. ८. हस्तरनावली. by राघव.. ama - Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ ३. बाषम्य सङ्गीतमकरन्दे । India office Catalogue-Pt. 2-Eggeling. ९. ताललक्षण. by कोहलाचार्य. Oppert's List. १०. संगीतसुधाकर. (संगीतरत्नाकरव्याख्या) by शिंगभूपाल. Tanjore Catalogue-Burnell.: ११. दत्तिलकोहलीयम्. by दत्तिलकोहल. १२. अभिनयदर्पण , नंदिकेश्वर. बांधव्यहस्तलक्षण. १४. हस्तलक्षण. अभिनयलक्षण. १६. भरतार्णव by सुमति (Condensed from नंदिकेश्वर'.भरतार्णव.) नाव्यलक्षण. १८. भरतीयनाव्यलक्षण. १९. षाहवित. by डंडिव्यास. २०. कीर्तन २१. राघवप्रबंध. Mysore & Coorg Catalogue-Rice... २२. नंदिभरत. by नन्दी. Mysore Catalogue. २३. संगीतपद्यावली. २४. अभिनयप्रकरण. (शिवतत्वरत्नाकरांतर्गत) २५. संगीतचूडामणि. by हरिपालमहीपति. २६. संगीतलक्षणदीपिका. by गौरणार्य. २७. संगीतलक्षण. २८. संगीतसारसंग्रह. by पार्श्वदेव. .. Central Library, Baroda. २९. संगीतचूडामणि. by कविचक्रवर्ति.. ३०. मानकौतूहल. (संकीर्णाध्याय only ) in हिंदी. भावप्रकाशन. by शारदातनय. ३२. मानमनोरंजन. by मयाशंकर. संगीतराज by कुम्भकर्णwhich is a संगीतमीमांसा of 16,000 granthas consisting of five Ratnakos as : (1) पाव्यरत्नकोश (2) गीतरमकोश (3) वायरमकोश (4) नृत्यरत्रकोश (5) रसरनकोश, of which No. 2 consisting of about one third of the work is yet to be secured. ३१. भावपक Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ठम् २ Rajendralal Mitra's Notices of Sanskrit Mss, ३४. · रागमाला. - by जीवराजदीक्षित. Bikaner Catalogue. ३५. सुबोधिनी. (कल्पतरुव्याख्या) by गणेशदेव. ३६. संगीतसार. * ३७. संगीतरनाकर. by बूनरक son of लक्ष्मणाचार्य. Madras Oriental Library. ३८. अभिनयशास्त्र. by कोहल. . ३९. खररागसुधारस. (तालदशप्राणप्रकरण ) तेलगूभाषांतरसहित. ४०. नाव्यचूडामणि. by सोमन्नार्य. ४१. भरतार्थचंद्रिका. by नंदिकेश्वर. ४२. . मृदंगलक्षण. १३. रागवर्णनिरूपण. ४. रागसागर. संगीतरनाकर. (मांध्रभाषाटीकासहित) Mr. T. C. Krishnaswami Iyer of Mylapore gave the following names in the "Hindu” of Madras: Miscellaneous ४६. संगीतरन. । Both by राधामोहन सेन, ४७. संगीतरंग.SPORON ४८. नाटकदर्पणसूत्र. . ४९. संगीतसूत्रधार. by हरिजीवनब्राह्मणिक. ५०. संगीतसूत्र by मनोमधधनदि (ति?) (Probably मम्मट). ५१. संगीतकौमुदी -by नारायण. ५२. अष्टमातृकाप्रबन्ध. ५३. गीतप्रकाश. ५४. हस्तमुखावलिः Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्गीतमकरन्दग्रन्थस्थानां पारिभाषिकादिशब्दानां वर्णानुक्रमणी। . पृष्ठ ४२ १३,३६ ५१ १,२ ३,१२ अङ्गतालाः अङ्गदः अजानि अतिचित्र अतिभ्रमरकं अत्रि अद्भुत अनाहत अनुराधा . अनुवादी अनुष्टुब् अन्तर अभिरुद्गता अरूपा अरेखा अवरोही अश्वक्रान्ता आञ्जनेयः आत्रेयः आयति आरोही आलापा आलिङ्ग आहतः इतिहासज्ञः उग्रा उच्चनीचा उडु उत्तरमन्द्रा उत्तरा उत्तरायता उष्णिक ऋषभः औडवः कच्छपी कण्टक कटका कन्या कपिलः कमलास्यकः कम्पित करणा करुणा कल्लोपनता कविः कश्यपः काकली कान्ता काललक्षणम् काहला किन्नरी किन्नरेशः कुपित कुबेरः कुब्जिका .. कुम्भ कुरुडायी कुवलं. कुशद्वीप कुशिकः कूटकार: कूटतानः कूर्मारवा कूर्मी कैवालं कैशिकी कोहलं कोहल AN १२,२६ । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिकादिशब्दानां वर्णानुक्रमणी। 41 " " " १०,४५ .२३ . २२ ज़गती जमदग्निः जम्बुद्वीपः जया जातिः ज्येष्ठा . . ज्योतिषः झझरः झर्झरी झषः डमरुगा डिण्डिमः ढक्का तन्ननादिः तारः तालप्रबन्धः तालभेदाः ताललक्षणानि तालशब्दनिष्पत्तिः तालोत्पत्तिः तुम्बुरुः तुला त्रिष्टुब् दक्षः दक्षिणमार्गः दर्दुरः दिरा दीप्तिमती ३९. क्रमादुचितः क्रौञ्चद्वीपः क्षान्तिः गणेश्वरः गान्धारः .. गान्धारग्रामः गान्धारमध्यमा गान्धारपञ्चमी गायक: गायकलक्षणम् गायत्री गायनः गीतं गीतदोषाः गुजा गुरुः गोपीपतिः गोपुच्छः गौतमः ग्रहः ग्रामः घनरवं घर्घरिकः .. घोषका ... घोषावती चक्रभ्रंमरिका चण्डी चतुरं चन्द्रसुतः । चपला चर्माणि.. चिगुरुः चिता . चित्रकली ३४ ४३. ३२. ४,१३, P दुर्गा . ५० देशीक्रिया धनिष्ठा धनुः धृतभ्रमरिका धृतहस्तं नकुली चित्रं चित्रा . नखं चित्रावती नद्रः Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सजीवमकरन्दें। २७ नाव्यं नाव्यशाला नादभेदाः नादोत्पत्तिः नारदः निर्विरी निवृत्तः नृत्यै २,४,१३,३३ १,३,४,५,६,१३,३३ बिन्दुः बीभत्सः बोटावणी बृहती ब्रह्मा ब्राह्मी भटः भरतः भार्गवः भास्कुरः भूमीसुतः १३,३३ .. १३,३३ पञ्चमोदीच्यवा पटह: पणवः पराशरः परिक्रम परिवादिनी परिहासका पात्रलक्षणं पार्वतीपतिः पुराणिकः पुष्कर (द्वीप) पुष्पाजली पूर्वाषाढा पौरकी भृङ्गिदेवेन्द्रः मघा मडः मतङ्गः मत्सरीकृत मध्य मध्यमग्रामः मनूरणं मन्द्रः मन्द्रा मर्दलः महती मात्रा मात्रा (४) गुप्तः मादली मार्गः मार्गलक्षणम् मालिनी मुखरिका मूर्च्छना मृदाः मृदङ्गलक्षणम् यक्षः योगिनः रजनी प्रकृतिः प्रमावती प्रसन्नमध्यः प्रसमादिः प्रसमावन्तः प्रसन्नान्तः प्रसूना प्रस्तारः २२,४८ ५१ फणिवालं बलिः बाला Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिकादिशब्दानां वर्णानुक्रमणी। .. १० १४ २६ १२,२६. वीणा वीणालक्षणं वीणादेहः वीरः २२ २,१२,२६ २२ ४० रागगान्धारी रामनामानि रागरजः रागालप्तिः रावणः रावणी रूपालप्तिः रौदः रौद्री लघुसुलादिः लयकाल: लोहाः वहिः वरगात्रम् वर्णकविः वसिष्ठः वहन्ती वाग्गेयकारकः वादी वायं : वृश्चिकः वृत्तिः वैद्यः वैष्णवी व्यालः शकिः शतभिषकू शनिः शम्मः शर्वः शशी शाकलद्वीपः शार्दूलः शान्तं शान्ता शारदा शालकायन: शाल्मलीद्वीपः शिखा शुद्धतार: शुद्धमध्यः शुद्धमध्या शुद्धषड्जा शुद्धसालगः शुभा शुष्क १३.३३ ३,१२ वायुः ३ : . विकलिनी विकृतिः विक्रमः विजृम्भितं विदन्ति विद्वान् . . विभूतिः विमता - विरूपा . विवर्द्धन विवादी विव्हलः विशाला विश्वकर्मा विश्वावसुः विस्तारिणी :.: १५ १३ शृक्षार शौरिः श्रीनाथः श्रीवत्सः श्रुतयः श्वेतद्वीपः . < . Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्गीतमकरन्दे / सम्प्रसारी संरा 10 10 षड्जः षड्जकैशिकी षड्जग्रामः. षड्जमध्या षड्जादि षण्मुखः षाडवः सदाशिवः सभापतिः सभालक्षणं संवादी संवीरी सामवेदः सारखती सारिणी सिद्धा 12,26 सिंहः सुप्रभा समं 13 3,12 . 14 संमगात्रं समगीतं समगैका समुद्रः सरखती सर्पसहा सर्वरत्ना सङ्कीर्णरागाः सङ्गीतं सञ्चारिणी सञ्चारी सन्धयन्ती सम्पूर्णः . 27 सुमुखी सूर्यः सैरन्ध्री स्थायी 2,13 स्वरः हतः हनुमान् हरिः हरिणाश्वा . हरिश्चन्द्र हृदयोन्मलिनी हृष्यका 12,26 / ल्हादी ' 13,33 12 10