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जिनभाषित
वीर निर्वाण सं. 2535
श्री आदिनाथ दि. जैन मन्दिर, पथरिया
(दमोह, म.प्र.) में विराजमान भगवान् ऋषभदेव की भव्य प्रतिमा
भाद्रपद-आश्विन, वि.सं. 2066
सितम्बर, 2009
मूल्य
15/onary.org
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करुणारस और शान्तरस में भेद
आचार्य श्री विद्यासागर जी
राह को मिटाकर सूख पाती है।
करुणा की दो स्थितियाँ होती हैंएक विषय लोलुपिनी दूसरी विषय-लोपिनी, दिशा-बोधिनी। पहली की चर्चा यहाँ नहीं है चर्चा-अर्चा दूसरी की है! 'इस करुणा का स्वाद किन शब्दों में कहूँ! गर यकीन हो नमकीन आँसुओं का स्वाद है वह!'
इसीलिए करुणा रस में शान्त-रस का अन्तर्भाव मानना
बड़ी भूल है। उछलती हुई उपयोग की परिणति वह करुणा है नहर की भाँति!
विषय को और विशद करना चाहूँगाधूल में पड़ते ही जल दल-दल में बदल जाता है किन्तु, हिम की डली वो धूलि में पड़ी भी हो बदलाहट सम्भव नहीं उसमें ग्रहण-भाव का अभाव है उसमें। और जल को अनल का योग मिलते ही उसकी शीतलता मिटती है
और वह जलता है, ओरों को जलाता भी! परन्तु, हिम की डली को अनल पर रखने पर भी उस की शीतलता मिटती नहीं है
और वह जलती नहीं. न जलाती औरों को। लगभग यही स्थिति है करुणा और शान्तरस की।
और
उजली-सी उपयोग की परिणति वह शान्त रस है नदी की भाँति! नहर खेत में जाती है दाह को मिटाकर सूख पाती है, और नदी सागर को जाती है
मूकमाटी (पृष्ठ १५५-१५६) से साभार
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रजि. नं. UPHIN/2006/16750
सितम्बर 2009
वर्ष 8,
अङ्क १
मासिक जिनभाषित
।।
सम्पादक
अन्तस्तत्त्व प्रो. रतनचन्द्र जैन
* पृष्ठ काव्य : करुणारस और शान्तरस में भेद कार्यालय
: आचार्य श्री विद्यासागर जी आ.पू.2 ए/2, मानसरोवर, शाहपुरा ,
. कविता : इस तरह : मुनि श्री क्षमासागर जी आ.पृ.3 भोपाल-462 039 (म.प्र.)
मुनि श्री योगसागर जी की कविताएँ फोन नं. 0755-2424666
आ.पृ.4 सम्पादकीय : असंजदं ण बंदे सहयोगी सम्पादक . प्रवचन : कुगुरु, कुदेव, कुशास्त्र का स्वरूप पं. मूलचन्द्र लुहाड़िया, मदनगंज किशनगढ़ - (तृतीय अंश) : आचार्य श्री विद्यासागर जी पं. रतनलाल बैनाड़ा, आगरा
. लेख डॉ. शीतलचन्द्र जैन, जयपुर . डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत
• जैनकर्म सिद्धान्त (गतांक से आगे) प्रो. वृषभ प्रसाद जैन, लखनऊ
: स्व० पं० मिलापचन्द्र जी कटारिया 8 डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती', बुरहानपुर
• दुलार के साथ रखें सार्थक नाम : डॉ० ज्योति जैन 10
• मांसाहार एवं पैशाचिक बुद्धिहीनता शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कँवरलाल पाटनी
: डॉ० किशोरीलाल जी वर्मा 11 (मे. आर.के.मार्बल)
जैनदर्शन की वर्तमान में प्रासंगिकता किशनगढ़ (राज.)
: डॉ० पारसमल जैन श्री गणेश कुमार राणा, जयपुर
• तत्त्वार्थसूत्र में प्रयुक्त 'च' शब्द का विश्लेषणात्मक
विवेचन (सप्तम अंश) : पं० महेशकुमार जैन प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ
• अतिशय क्षेत्र मदनपुर का वास्तु वैभव 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी,
: पं० विमलकुमार जैन सोरया आगरा-282 002 (उ.प्र.)
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• ग्रन्थ समीक्षा : 'मैं तुम्हारा हूँ' : मुनि क्षमासागर जी
: प्रो० महेश दुबे सदस्यता शुल्क शिरोमणि संरक्षक 5,00,000 रु.
. काव्य : स्वयम्भूस्तोत्र का हिन्दीपद्यानुवाद परम संरक्षक 51,000 रु.
: पं० निहालचन्द्र जैन संरक्षक
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कविता : काँच के घट हम : मनोज जैन 'मधुर' आजीवन
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15 रु. . 'जिनभाषित' के नये आजीवन सदस्य सदस्यता शुल्क प्रकाशक को भेजें।
लेखक के विचारों से सम्पादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है। 'जिनभाषित' से सम्बन्धित समस्त विवादों के लिये न्यायक्षेत्र भोपाल ही मान्य होगा।
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सम्पादकीय
अस्संजदं ण बंदे
- पूज्य आचार्य समंतभद्र स्वामी ने अपने प्रथम श्रावकाचार ग्रंथ में पारमार्थिक (सच्चे) देव शास्त्र गुरु के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन अथवा धर्म कहा है। उसके विपरीत मिथ्या देव शास्त्र गुरु की मान्यता को मिथ्या-दर्शन अथवा अधर्म कहा है। उन्होंने सच्चे गुरु का लक्षण बताया है
विषयावशातीतो निरारंभोऽपरिग्रहः।
ज्ञानध्यान तपो रक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते॥ जो विषयों की आशा के वश में नहीं हैं, आरंभ व परिग्रह से रहित हैं, जो ज्ञान, ध्यान व तप में सर्वदा लीन रहते हैं, वे सच्चे गुरु होते हैं। उक्त लक्षण से विपरीत आचरण करनेवाले गुरु कुगुरु कहे जाते हैं। रत्नकरण्ड-श्रावकाचार में सच्चे गुरु का सकारात्मक लक्षण बताने के पश्चात् आगे तीन स्थानों पर मिथ्या आचरणवाले मिथ्यागुरु की विनयादि करने को भी सम्यग्दर्शन का दोष बताया है। अमूढदृष्टि
र्गन में मिथ्यादर्शन एवं मिथ्यादृष्टियों की मन-वचन-काय से प्रशंसा-वंदना करना मूढदृष्टि दोष है। गुरुमूढ़ता में लिखा है
सग्रंथारंभहिंसानां संसारावर्तवर्तिनाम्।
पाखण्डिनां पुरस्कारो ज्ञेयो पाखण्डिमोहनम्॥ आरंभ, परिग्रह एवं हिंसाकार्य में सलग्न होनेवाले गुरु संसार में रुलाने वाले होते हैं, उनकी पूजा आराधना सत्कारादि करना गुरुमूढता है। पुनः लिखा है कि
भयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवाऽगमलिंगिनाम्।
प्रणामं विनयं चैव न कुर्युः शुद्धदृष्टयः॥ अन्य ग्रंथों में सम्यग्दर्शन के दोषों में ६ अनायतन भी गिनाए हैं। मिथ्या देव, शास्त्र, गुरु और उनके उपासक अनायतन हैं, इनसे संबंध रखना सम्यग्दर्शन को दूषित करता है।
सच्चे गुरु की भक्ति नहीं करना जैसे सम्यग्दर्शन का दोष है, वैसे ही मिथ्या गुरु की भक्ति करना भी सम्यग्दर्शन का दोष है। मिथ्या देव, शास्त्र, गुरु की भक्ति से हमारा अगृहीत मिथ्यादर्शन तो पुष्ट होता ही है, साथ ही मिथ्यात्व की परम्परा को भी पोषण मिलता है। दिगम्बरजैनधर्म की तीर्थंकर-सदृश प्रभावना करनेवाले आचार्य कुंदकुददेव दंसणपाहुड में लिखते हैं
अस्संजदं ण बंदे वच्छविहीणोवि सो ण वंदिज्ज।
दुण्ण वि होंति समाणा एगो वि ण संजदो होदि॥ २६॥ असंयमी को नमस्कार नहीं करना चाहिए और जो वस्त्ररहित होकर भी असंयमी है, वह भी नमस्कार के योग्य नहीं है। ये दोनों ही समान है, दोनों में एक भी संयमी नहीं है।
हमें विचार करना है कि सयंमी कौन होते हैं और असंयमी कौन? मुनि महाराज पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियविजय, षडावश्यक एवं सात अन्य मूलगुणों का पालन करते हैं अतः वे संयमी होते हैं। महाव्रतों के पालन से सकल संयम होता है और अणुव्रतों के पालन से देश संयम होता है। मुनि त्रस व स्थावर दोनों प्रकार के जीवों की हिंसा के त्यागी होने से अहिंसा महाव्रत एवं सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करने से अपरिग्रह महाव्रत के धारक होते है। यदि मुनिराज मोबाइल, फोन, लैपटाप आदि वस्तुएँ रखते हैं और उनका तथा कूलर, पंखा आदि का प्रयोग करते हैं, तो वे असंयमी हो जाते हैं। मोबाइल फोन, लैपटाप, कूलर आदि उपकरण नहीं, परिग्रह हैं। उपकरण संयम की साधना में आत्मा का उपकार करनेवाले केवल तीन ही होते हैं- पीछी, कमण्डल और शास्त्र। भगवती-आराधना में मुनि के उपकरण के बारे में लिखा हैं
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संजमसाधणमेत्तं उवधिं मोत्तण सेसयं उवधिं।
पजहदि विसुद्धलेस्सो साधू मुत्तिं गवेसंतो॥ १६४॥ मुक्ति को खोजनेवाला विशुद्ध लेश्या से युक्त साधु, संयम के साधनमात्र परिग्रह को छोड़कर शेष परिग्रह को प्रकर्ष अर्थात् मन वचन काय से त्याग देता है।
आचार्य कुन्दकुन्द ने असंयमी अथवा संयम को दूषित करनेवाली निरंकुश चर्या अपनाने वाले मुनियों की वंदना नहीं करने का निर्देश इसलिए दिया है कि हमारे द्वारा ऐसे मुनियों की वंदना करने से उन मुनियों को उस शिथिलाचरण में प्रोत्साहन मिलता है और ऐसे धीरे-धीरे उनका शिथिलाचारण परम्परा बन जाता है। ऐसे ही दिगम्बरसंघ में से पृथक होकर शिथिलाचार का आश्रय लेने वाले साधुओं ने श्वेताम्बर संघ की स्थापना कर दी और अपने शिथिलाचार के समर्थन में आगम की भी रचना कर दी। कालांतर में यापनीयसंघ, भट्टारक सम्प्रदाय आदि भी शिथिलाचारी साधुओं की ही उपज हैं। आचार्य कुंदकुंद के समय में भी शिथिलाचारी मुनि थे और उन्होंने अपने पाहुडग्रंथों में ऐसे कुमुनियों की भरपूर भर्त्सना की
है।
कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि शास्त्र के स्थान पर लैपटाप का उपयोग किए जाने में क्या हानि है? बल्कि लाभ है, क्योंकि शास्त्र सुरक्षित रहते हैं और तुरंत संदर्भ प्राप्त हो जाता है। लगता है ऐसा तर्क देने वालों को आगम का ज्ञान नहीं है। मुनिराज उपदेश दे सकते हैं, किंतु स्वयं लैपटाप रखकर उसका उपयोग नहीं कर सकते। उसके उपयोग में अग्निकायिक स्थावर जीवों की हिंसा होती है, जिसके मुनिराज पूर्णतः त्यागी हैं। लैपटाप तथा मोबाइल का संचालन आरंभ है। दूसरा वह कीमती वस्तु परिग्रह है, जिसके मुनिराज त्यागी हैं। आ० कुन्दकुन्द ने सूत्रप्राभृत की गाथा १७ में लिखा है कि मुनि महाराज बाल के अग्रभाग की अणी के बराबर भी परिग्रह का ग्रहण नहीं करते हैं। अतः उन्हें योग्य श्रावक के द्वारा दिये हुए अन्न का हस्तरूप पात्र में भोजन करना चाहिए और वह भी एक ही स्थान पर। आगे गाथा १८ में कहा है कि यदि नग्नमुद्रा के धारक तिलतुषमात्र परिग्रह भी अपने हाथों में ग्रहण करते हैं, तो निगोद जाते हैं।
वालग्गकोडिमित्तं परिगहगहणं ण होई साहूणं। भुंजेइ पाणिपत्ते दिण्णण्णं इक्कठाणम्मि॥ १७॥ जहजायरूवसरिसो तिलतुसमित्तं ण गिहदि हत्थेसु।
जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदं॥ १८॥ इस लैपटाप की रक्षा की, खराब होने पर सुधारने की चिंता मन को संतापित करेगी, वे मुनिराज निर्विकल्प कैसे रह सकते हैं? मोबाइल फोन भी स्पष्ट परिग्रह है तथा इसके उपयोग में भी स्थावरहिंसा है। इसके अतिरिक्त इन कीमती उपकरणों के लिए श्रावकों से याचना करने का दोष है। क्षेत्रमर्यादा का भंग है व मोह का प्रतीक है। कूलर के प्रयोग से स्पर्शन-इन्द्रिय-विजय मूलगुण का भंग है और परीषह का सावद्य-प्रतिकार करने से परीषहसहनगुण भी नहीं रहता है। अपरिग्रह महाव्रत का भंग तो है ही, साथ ही वायुकायिक, अग्निकायिक एवं जलकायिक जीवों के विघात से अहिंसा महाव्रत का भी भंग होता है। इन भौतिक उपकरणों का प्रयोग आरंभ है और इनका संग्रह परिग्रह है। आरंभ परिग्रह के दोष, मुलगणों के भंग का दोष, अहिंसा महाव्रत एवं अपरिग्रह महाव्रत के भंग का दोष होने से इन भौतिक उपकरणों का प्रयोग करनेवाले सच्चे गुरु नहीं हो सकते। संयम का विघात होने से वे असंयमी हो गए। अतः आचार्य कुन्दकुन्द की आज्ञा के अनुसार ऐसे असंयमी मुनियों को प्रणाम एवं विनय नहीं करना चाहिए।
चारित्रचक्रवर्ती आचार्य शांतिसागर जी महाराज ने सम्पूर्ण आरंभ परिग्रह के त्याग का उच्च आदर्श स्थापित किया था। बाहर से दिगम्बर भेष धारण करते हुए यदि लैपटाप, कूलर, मोबाइल फोन आदि का
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संग्रह एवं उपयोग किया जाए तो यह वस्त्रपात्र के संग्रह-उपयोग से कम दोषपूर्ण नहीं कहा जा सकता।
अभी ८ फरवरी २००९ को आचार्य सुकुमालनंदी जी ने अहमदाबाद में एक क्षुल्लक जी को मुनिदीक्षा प्रदान की थी। उन्होंने उस समय मुनि के मूलगुणों के बारे में समझाया। उसका जो वर्णन वर्धमानसंदेश महावीर-जयंती-विशेषांक के पृष्ट २३ पर छपा है वह है- "आचार्य श्री ने २८ मूलगुण का विस्तृत स्वरूप समझाते हुए नवीन मुनि को रुपयापैसा, मोबाइल आदि भौतिक उपकरणों से दूर रहने व निरंतर स्वाध्याय में तल्लीन होने का उपदेश दिया।" जो मुनि महाराज शेविंग के लिए २-४ रुपए की ब्लेड का भी उपयोग नहीं करके हाथ से बाल उखाड़ते हैं, वे कैसे कीमती उपकरण रखेंगे और प्रयोग करेंगे? पूर्ण अपरिग्रह, निरारंभ एवं अहिंसा दिगम्बर जैन मुनि के प्राणवत हैं। भौतिक प्राणों के जाने पर भी मुनिराज अहिंसा व अपरिग्रह महाव्रत का भंग नहीं करते।
मेरा उद्देश्य किसी व्यक्तिविशेष की आलोचना करना नहीं है। मैं तो केवल आगम की बात बताना चाहता हूँ। मेरा तो सभी मनिराजों से करबद्ध निवेदन है कि वे अहंत भगवान के समान इस साध परमेष्ठीपद की गरिमा बनाए रखें और इस की अवमानना नहीं करें। मुझे अत्यधिक वेदना है कि आज मुनिराजों के आचरण में जो ह्रास हुआ है उसके लिए शिथिलाचार शब्द भी छोटा पड़ता है। वस्तुतः मुनि के इस चारित्रिक शैथिल्य के लिए हम श्रावक भी उत्तरदायी हैं। दिगम्बर-मुनि-संस्था पर यह संकट आया है। अधिक दुःख तो तब होता है, जब मूलगुणों को खण्डित करते हुए भी कतिपय साधु मन में खेद का अनुभव नहीं करते हैं, बल्कि उस दोष को उचित सिद्ध करने का दुष्प्रयास करते रहते हैं। बहुत से व्यक्ति, मुनियों के शैथिल्य की पुष्टि में यह कहते है कि चतुर्थ काल के चरणानुयोग के नियम पंचम काल के मुनियों पर लागू नहीं होते हैं। वस्तुतः मुनियों के मूलगुण शाश्वत हैं। काल के अंतर से मूल गुणों में काई अंतर नहीं आता। पंचम काल के अंत तक मूल गुणों का पालन करनेवाले मुनिराज रहेंगे। अंतिम तीर्थकर भगवान् महावीर की दिव्यध्वनि में जो चरणानुयोग की व्यवस्थाएँ निरूपित हुईं, उन्हें ही पश्चाद्वर्ती आचार्यो ने आगम में ग्रहण किया। षटखण्डागम, अष्टपाहुड़, प्रवचनसार, तत्त्वार्थसूत्र, मूलाचार, भगवती-आराधना आदि ग्रंथों की रचना पंचम काल में ही हुई और उन्होंने जो मुनियों की आचारसंहिता का निरूपण किया, वह तो पंचम काल के मुनियों के लिए ही किया है। पंचम काल में प्रारंभ से अब तक आगमानुकूल मूलगुणों का पालन करनेवाले महामुनिराज बराबर रहते आए हैं और आज भी हैं। अभी पंचमकाल के लगभग १८००० वर्ष बाकी हैं और तब तक भावलिंगी मुनिराजों का अस्तित्व रहेगा। हम
आशा करते हैं कि मुनि महाराज और श्रावक दोनों मिलकर आगमानुकूल निर्दोष मुनिचर्या का संरक्षण कर दिगम्बरजैन मुनिधर्म पर आए और आगे आनेवाले संकट को दूर करने में पूर्ण दृढ़ता एवं संकल्प के साथ प्रयत्नशील बनें रहेंगे। इस विषम काल में वे वीतरागी महामुनिराज अपने निर्दोष संयम और आत्मानुभूति के द्वारा बिना कहे ही अपनी चर्या से अहिंसा, अपरिग्रह एवं अनेकांत के सार्वकालिक, सर्वोदयी सिद्धातों की जन-जन को शिक्षा देते रहेंगे।
मूलचंद लुहाड़िया
श्री निर्मल जैन अहिंसा एवार्ड से सम्मानित शाकाहार प्रचार हेतु समर्पित सतना (म०प्र०) के प्रसिद्ध सामाजसेवी, साहित्यकार पं० निर्मल जैन को जलगाँव (महाराष्ट्र) में श्री आचार्य हस्ती अहिंसा एवार्ड से सम्मानित किया गया। विगत २२ वर्षों से अहिंसा एवं शाकाहार के प्रचार-प्रसार में संलग्न श्री निर्मल जैन को यह एवार्ड प्रसिद्ध विदुषी साध्वी महासती मणिप्रभा जी के सान्निध्य में प्रदान किया गया।
सुधीर जैन
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तृतीय अंश कुगुरु, कुदेव, कुशास्त्र का स्वरूप
आचार्य श्री विद्यासागर जी श्री सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर (दमोह, म.प्र.) में मई २००७ में आयोजित श्रुताराधना शिविर में १४ मई २००७ के द्वितीयसत्र में विद्वानों की शंकाओं के समाधानार्थ आचार्यश्री द्वारा किये गये प्रवचन का तृतीय अंश प्रस्तुत है।
जब व्यक्ति रागद्वेष से युक्त रहेगा तो वह सत्य | कहा है। 'प्रस्पष्टमिष्टाक्षरः' (आत्मानुशासन ५) महाराज! का उद्घाटन नहीं कर सकता। आज तो विद्वानों की आपके शब्द मीठे तो नहीं लग रहे हैं। बात ऐसी है आमदनी और आजीविका श्रावकों पर निर्भर है, तो | कि ज्वर के कारण जिसका मख कडवा हो जाता है. वह व्यक्ति प्रवचन में स्पष्ट क्या बोलेगा? उपकरणों | तो उसको मिश्री भी खाने को दे दो, तो वह कड़वी के माध्यम से यदि कोई व्यक्ति व्यवसाय करेगा, तो | लगती है। तो हम क्या करें। हम आपको मिश्री दे रहे वह षट्कर्म के अन्तर्गत नहीं आयेगा। हम सब कुछ | हैं और आप उसको निबोली कह दो, तो हम क्या करें। देख रहे हैं। आगम की बात कहते हैं, तो चुभ जाती | हम इसलिए दे रहे हैं कि एक बार इसको खा लो, है। लेकिन हम क्या करें। जहाँ पर काँटा लगा हुआ तो स्वस्थ हो जाओ, लेकिन ज्वरग्रस्त व्यक्ति को मिश्री है, वहाँ पर थोड़ा सा हाथ रखते ही वह चुभ जाता | भी कडवी लगती है। है। हम नहीं चुभोते हैं। जो भीतर चुभा हुआ है वह | जिसको सर्प काट जाता है उसको निबोली भी चभता है। हम इसलिए छू रहे हैं कि कहाँ पर दर्द | मीठी लगती है। हम क्या करें, उसको जीवित रखने हो रहा है, हम देख लेते हैं। महाराज, दर्द पूरे पैर में | के लिए कितना जहर फैला है! कितना विषाक्त है! यह हो रहा है। आप छू लेते हैं। नहीं, नहीं, पूरे पैर में | जानने के लिए निबोली ही खिलाई जाती है, ताकि वह काँटा नहीं लगा है भैया! बिल्कुल नहीं, नस में वह | जहर को जहर मान सके। इसलिए आचार्यों ने कहा लगा हुआ है और नस ढकी हुई है। इसलिए पैर सूज | 'सावद्यलेशो बहुपुण्यराशौ' (स्वयंभूस्तोत्र १२/३) पंडित गया है। तो क्या खा गया है वह? रोष खा गया है | जी ऐसा लिखा गया है। सम्यक्त्ववर्धनी क्रिया के साथ वह। क्या कोई रोष खाता है?
सावध लेश होता है और पुण्य अधिक होता है, साथ पैर रोष खा गया है, इसलिए इतना मोटा हो गया | ही संवर-निर्जरा भी होती है, अपने दिमाग से सोचो। है। कहीं भी पिन दर्द नहीं देता है। उसी प्रकार इन | सावद्य में भी कमी आ जाये। दुकान खोलना शब्दों के माध्यम से किसी को पिन कर देते हैं और | अनिवार्य है। दुकान खोलने के लिए, तो किराया देना दर्द हो रहा है तो सहन कर लो। निकल जायेगा काँटा, | पड़ेगा। जब आमदनी चाहोगे तो कुछ किराया पेशगी देना नहीं तो पैर कटाना पड़ेगा। हम भगवान से प्रार्थना करते | ही पड़ेगा। देना तो है लेकिन ज्यादा न देना पड़े। दुकान हैं- आपके पैर सलामत रहें और काँटा निकल जाये।| देख लो, हाँ, तुम्हें तो बॉर्डर पर भी चाहिए। मेन बाजार थोडा तो सहन कर लो। बहत दिन से काँटे को पाला | में भी चाहिए. दो खण्ड (मंजिल), चार खण्ड की भी है। काँटे से काँटा निकलता है तो क्या करें। पाँव को | चाहिए। सब कछ चाहिए तो कछ ज्यादा देना ही पडेगा। ज्यादा इधर-उधर कर दोगे, तो ये काँटा भीतर कहीं | तो पगड़ी रख देते हैं। गल न जाये। थोड़ा सा आप लोग सहन कर लो। 'सावद्यलेशो बहुपुण्यराशौ' अब बता दो, यह सम्यक्त्ववर्धनी की ओर किसी की दृष्टि ही नहीं गयी। | दुकान अच्छी है न, बहुत बढ़िया, आपकी कृपा है कि यह कहाँ का प्रकाशन है? कहाँ से चालू होता है? यह आपका पुरुषार्थ है। महाराज! आपने आशीर्वाद दिया है कहाँ का शिविर है? कौन आ रहे हैं? कैसा प्रबंध है? | न! दुकान कहाँ चल रही है, बीच बाजार में, सड़क यह आ जाता है। अरे! इन सब बातों के साथ क्या | पर नहीं। बीच बाजार का अर्थ है बिल्कुल मेन रोड है? फिर भी आप लोग आते हैं तो आशीर्वाद तो देना पर। सब लोगों की दृष्टि वहीं पर जाती है। अब दुकान ही पड़ता है। लेकिन हम सोच-विचार कर देते हैं। यह | अच्छी चल रही है। इसलिए किराया चौगुणा भी देना भी ध्यान रखो। स्पष्ट वक्ता हूँ, क्योंकि आगम में यही | पडे, तो कोई बात नहीं। ३१ तारीख को देना होता है
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तो हम १ तारीख को ही दे देते हैं। बुला कर भी दे। की कोरी बातें करने से प्राप्त होता है। सम्यग्दर्शन की देते हैं। जाकर के भी दे देते हैं। अभी क्यों दे रहे | यह भूमिका है ही नहीं। आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने कहा हो? नहीं, आप तो ले जाओ। इसी प्रकार सम्यक्त्व की | कि जिस तत्त्वचर्चा में वाद-विवाद, विसंवाद होते हैं, वर्धनी हो रही है। तो एक और सही कर्म का बंध, | वह तत्त्वचर्चा ही नहीं है। यह क्या है, लड़ रहे हैं, उससे क्या हानि होनेवाली है। जो कहते हैं कि देव- | भिड़ रहे हैं, कोर्ट तक पहुँच रहे हैं। कोर्ट को न निश्चय शास्त्र-गुरु की पूजा करने से साम्परायिक आस्रव, बंध | सम्यग्दर्शन मालूम है, न अठारह दोषों से रहित भगवान् होता है, तो इनका कथन करना बिल्कुल गलत है। आप | का स्वरूप मालूम है। न यह सब मालूम है। पहले अध्ययन करिये, लिखा तो यही है, लेकिन लकीर के | पंचायत होती थी और पंचों के माध्यम से ये सब कार्य फकीर न बनो। अर्थ भी कैसा, क्या निकाला जा रहा | होते थे। आज एकदम सारे-के-सारे पंच बन चुके हैं। है, यह भी देखो। इसीलिए लिखा गया होगा। अर्थ की | प्रजातंत्र है तो कौन पंच, कौन सरपंच, सब के सब
ओर दृष्टि रखो। इस तरह स्वाध्याय करते वर्षों हो गये। पंच हैं। किसी को किसी से डर है ही नहीं। हम आपकी कितने लोगों का अहित हो गया। स्वयं का अहित हो| किताब को लेकर देख लेंगे। दूसरी किताब दूसरी तरफ गया तो हो गया। साथ में कितने व्यक्तियों का अहित | से प्रकाशित होकर आ जाएगी। लीजिये, पढ़िये महाराज, हो गया। कितने निष्ठावान् व्यक्तियों की निष्ठा को क्षति ऐसा-ऐसा लिखा है। हमें सिखा रहे हैं, हमें पढ़ा रहे पहुँच गई होगी। कई व्यक्तियों ने व्रत छोड़े हैं इस प्रकार हैं। हम हमेशा पढ़ते रहते हैं। इसमें तो ज्ञानवर्धन होता के प्रवचन से। ध्यान रखो, गुरु महाराज के मुख से | है। आप कहाँ पर कैसे लिख रहे हैं, देखने से तो सब हमने कई बार सुना है, बोलने में तो इस प्रकार की | मालूम पड़ जाता है। इससे ज्ञानवर्धन हो जाता है। कोश बोली आ जाती है, लेकिन सोचते हैं, तो भैया! यह देख रहे हैं। यह कोश कहाँ का है। अरे! कोश तो ठीक नहीं है। वे कहते हैं कि जो बंध का कारण | कोश है। हमें इससे क्या मतलब है। इन सबके माध्यम है वह संवर और निर्जरा का कारण हो ही नहीं सकता। से ज्ञान हो जाता है कि यह बात बिल्कुल कटु सत्य यह पेटेन्ट वाक्य है। कारण-कार्य की व्यवस्था समझते | है। सत्य हमेशा कड़वा ही होता है। आप लोग मीठे नहीं हैं। न्याय के ग्रन्थ कभी देखे नहीं। कुछ भी पढ़ा के आदी हो गये हैं, इसलिए ऐसा होता है। सुनना तो नहीं और बोलना प्रारंभ कर दिया। आपको अच्छा लगे| पड़ेगा। अभी दूसरा सत्र है। अभी बहुत सत्र बाकी हैं। या न लगे। अब हमने किसी का नाम लिये बिना इस | आज प्रवचन के बदले में चर्चा में ही प्रवचन होता जा ढंग से प्रचार-प्रसार करना प्रारंभ कर दिया है। जिस रहा है। होने दो, और कोई शंका तो नहीं? न ही कोई व्यक्ति के यहाँ कारण-कार्य की व्यवस्था में गड़बड़ी अदेव, न ही कोई सुदेव, न ही कोई कुदेव, न ही है, उसे समझ करके आप पढ़ो और सुनो। जो व्यक्ति कोई कल्पवासी और न ही कोई अहमिन्द्र, न कोई कारण-कार्य की व्यवस्था की जानकारी नहीं लेता, वह | पद्मावती, न क्षेत्रपाल, यह कोई विषय ही नहीं है। व्यक्ति न स्वहित कर रहा है और न परहित कर रहा रत्नकरण्डश्रावकाचार उठा कर देख लो। पैंतीस श्रावकाचार है। न युग के लिए करता है। यह आर्ष मार्ग की प्रभावना हैं, उनमें भी यही कहा गया है। 'समयसार' के शिविर है ही नहीं। एक पंथ वह है, जो यह भी नहीं समझता | बहुत हो गये, अब समन्तभद्र स्वामी की कृति कि देव-शास्त्र-गुरु कौन हैं और उन देव-शास्त्र-गुरु को | रत्नकरण्डश्रावकाचार को भी एक बार उठा करके देखो। पूजना चाहिए या नहीं। भैंरों जी को पूजना चाहिए या | आचार्यश्री ज्ञानसागर महाराज जी ने रत्नकरण्डश्रावकाचार नहीं, किसको पूजना चाहिए, किसको नहीं, इसका ज्ञान | को 'रत्नत्रय की स्तुति' यह नाम दिया है। वास्तव में नहीं। एक व्यक्ति यह भी नहीं जानता कि अठारह दोष | रत्नत्रय की स्तुति है। सामान्य से प्रथम अध्याय में क्या होते हैं?
सम्यग्दर्शन का सर्वाङ्गीण चित्रण किया गया है। वे एक व्यक्ति तत्त्व को लेकर चल पड़ा। क्या है | समनतभद्र महाराज सामने खड़े होकर प्रश्न करनेवाले यह सब? साहित्य पढ़ते हैं, सुनते हैं, परिवर्तन देखते | और 'आप्तमीमांसा' लिखनेवाले दिग्गज विद्वान् थे, जिनके हैं तो ऐसा लगता है कि ठीक लिखा है आगम में रत्नत्रय ऊपर बड़ी-बड़ी टीका, उपटीका आदि लिखी गयी हैं। बहुत दुर्लभ है। सम्यग्दर्शन प्राप्त करना बहुत दुर्लभ है। अष्टसहस्री जैसा ग्रन्थ है, जो आठ हजार श्लोकप्रमाण न काल के ऊपर निर्भर होता है और न ही इस प्रकार | है। उसके लिए यह मंगलाचरण के रूप में लिखा गया
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है, ऐसा सुनने में आता हे। तत्त्वार्थसूत्र की गंधहस्ति- | तप में लीन है, वह सच्चा गुरु प्रशंसनीय है। विषयमहाभाष्य नाम की टीका समन्तभद्र स्वामी ने लिखी है, | कषायों से हमेशा दूर रहो, ज्ञान ध्यान तप में सदा लीन जिसका मंगलाचरण एक सौ चौदह- ११४ कारिकाओं | रहो और दुनियादारी के कार्यों से दूर रहो। यदि दुनियादारी में किया गया। उन कारिकाओं से आप्तमीमांसा नामक | के कार्यों में लगोगे तो गुरु की संज्ञा में नहीं आओगे। ग्रन्थ बन गया। यदि वह पूरा भाष्य ग्रन्थ होगा तो कितना | यह कहा है समन्तभद्र महाराज जी ने। दुनिया के कार्यों विशालकाय ग्रन्थ होगा, विचारणीय है। ऐसे समन्तभद्र | के लिए यह श्रमणत्व नहीं है। समय मिलेगा, तो हम महाराज ने परमार्थभूत देव-शास्त्र-गुरु के श्रद्धान को | अवश्य इस स्थिति को स्पष्ट करेंगे। क्या युग है, कब व्यवहारसम्यग्दर्शन कहा है। व्यवहार तो सराग है। सराग | से आ रहा है, कैसा आ रहा है, क्या बोध दिया जा है तो ऐसे है, ऐसे कैसे है? ऐसे अपने आप में निर्णय | रहा है। कोई इस ओर गड़बड़ कर रहा है, कोई उस करोगे तो यह ठीक नहीं होगा, यह ध्यान रखना। गुरु | ओर गड़बड़ कर रहा है। भरे बाजार में ऐसा हो रहा के विषय में परमार्थभूत विशेषण दिया है
है। सड़क का मामला है। ज्यादा माल लाकर के सब विषयाशावशातीतो, निरारम्भोऽपरिग्रहः। देते हैं। ज्यादा बिक जाए इस लोभ से बाजार के दिन ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते॥र.श्रा.१०॥ | ऐसा करते हैं। जो पंचेन्द्रियों के विषयों की आशा से रहित है,
(शेष अगले अंक में) आरंभ और परिग्रह से रहित है और ज्ञान, ध्यान तथा ।
'श्रुताराधना (२००७)' से साभार
स्वयम्भूस्तोत्र : हिन्दीपद्यानुवाद
प्राचार्य पं० निहालचंद जैन, बीना श्री अजितनाथ स्तुति
गणधर देवों से अर्चित हो,
तेरी वाणी, जन मानस को उपकृत करती, विजय अनुत्तर से आकर अवतरित
हृदय-कमल को पुलकित करती, परिजन जन दिव्य प्रभा से पुलकित
मेघावरण मुक्त ज्यों दिनकर हर्षित मुख है सहज बाल-क्रीडा में
विकसित करता है सरोज को॥ ८॥ भूमण्डल पर अजेय, शक्ति-संधारक
अजित प्रभू के धर्मतीर्थ श्रुत में, हे लोकोत्तर मनुज तुम्हारा
प्रवेश कर संसारी जन बंधुवर्ग ने अजित नाम सार्थक रक्खा था॥ ६॥
भव भव दुःख से उपरत हो जाते। सत्पुरुषों के समर्थ नायक,
जैसे चन्दन सम शीतल गंगा-हृद में, अनेकान्त सर्वोदय-शासन,
आकण्ठ डूब गज कभी परास्त नहीं हो पाया
सूर्यताप की पीड़ा से बच जाते॥ ९॥ .----- पाखण्डी मायावी हथकण्डों से।
परमागम विज्ञान के द्वारा परम पवित्र लोक मंगल है
कल्मष कषाय को नष्ट किया। मनोरथों का सिद्धि प्रदाता।'
शत्रुमित्र में समदृष्टि हे आत्मस्वरूपी! अजित नाम मन्त्रों सा सार्थक,
तुमने स्वयं को जीत लिया। बना हुआ जन-जन का ध्याता ॥ ७॥.
अनन्तचतुष्टयधारी प्रभुवर! कर्मरजों से मुक्त, धवल हो
आर्हन्त्य-लक्ष्मी ज्ञान-विभूति का वर दो॥ १०॥
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गतांक से आगे
जैन कर्म सिद्धान्त
स्व० पं० मिलापचन्द्र जी कटारिया मतलब यह है कि कार्मण वर्गणा यह एक पुद्गल , मोटा चादर गरीब के वास्ते हर्ष का कारण होता है, स्कन्ध की जाति विशेष है, जो सारे लोक में व्याप्त | वही शालदशाला ओढ़नेवाले राजपुत्र के लिये विषाद का है। जहाँ भी जीव के राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ कारण बन जाता है। इस प्रकार समान सामग्री हो, तो मोहादिभाव पैदा हुए कि वह कर्मरूप बनकर आत्मा भी सबको समान सुख-दुःख नहीं होते हैं। इस तरतमता के प्रदेशों के साथ मिल जाती है। इसे ही जैनधर्म में | को देखने से यही निश्चय होता है कि सख-द:ख के कर्मबन्ध होना बताया है। वे ही बँधे हुए कर्म अपने | होने में पुष्पकंटकादि से भिन्न कोई अन्य ही अदृष्ट उदयकाल में इस जीव को अच्छा-बुरा फल देते हैं और | कारण हैं और वे अदृष्ट कारण कर्म ही हो सकते हैं। इसे संसार में रुलाते हैं। जैसे अग्नि से तप्त लोहे का प्रश्न : कोई आदमी बुरा काम करता है उसका गोला पानी में डालने से पानी को अपनी तरफ खींचता फल राजा देता है। इस प्रत्यक्ष फलदान को छोड़ कर है, उसी तरह कषायभावों से ग्रसित आत्मा कर्मवर्गणाओं उसका फल परोक्ष कर्मों के द्वारा दिया जाना क्यों माना को अपनी ओर खींचकर उनसे आप चिपट जाता है।
जावे? जैसे पी हुई मदिरा कुछ देर बाद अपना असर पैदा | उत्तर : राजा अगर दण्ड देगा तो प्रगट पापों का
बावला बना देती है, उसी तरह बाँधे | देगा। गप्त पापों का जिन्हें राजा जानता ही नहीं. उनका हुए कर्म कालांतर में, जब अपना फल देते हैं, तो उससे फल कौन देगा? और मानसिक पाप तो सदा ही अप्रगट जीव सुखी, दुखी, रोगी, निरोगी, सबल, निर्बल, धनी, हैं, उनका फल भी जीव को कैसे मिलेगा? तथा दया, निर्धन आदि अनेक अवस्थाओं को प्राप्त हो जाते हैं। | दान, ध्यान आदि उत्तम कार्यों का फल भी जीव को इस प्रकार जैनधर्म में जीवों की विचित्रता के कारण | कौन देगा? एक मनुष्य अनेक हत्या करे, तो राजा उसे उनके अपने बाँधे हुए कर्म माने गये हैं। जैसे बीज के प्राणदण्ड देता है, किन्तु इससे तो हत्या करनेवाले को बिना धान्य नहीं होते, वैसे ही कर्मों के बिना जीवों की एक ही हत्या का दण्ड मिलता है बाकी हत्याओं का नाना प्रकार की अवस्थायें नहीं हो सकती हैं। कर्मों के | दण्ड कैसे मिलेगा? अतः मानना पडेगा कि बाकी का अस्तित्व की सिद्धि के लिये यह एक हेतु है। अन्यथा दण्ड नरकगति के रूप में कर्मों से ही मिलता है। कर्म इतने सूक्ष्म हैं कि हम छद्मस्थ उनका कदापि प्रत्यक्ष कों को सिद्धि के लिये दूसरा हेतु यह है कि नहीं कर सकते हैं। जिस प्रकार पुद्गल के परमाणु हमारे जैसे चेतन की की हुई कृषि आदि क्रियाओं का फल इन्द्रियगोचर नहीं हैं, परन्तु उनसे बने स्कन्ध को देखकर | धान्यादि की प्राप्ति है। जो भी चेतन की की हुई क्रिया हमें परमाणु का अस्तित्व मानना पड़ता है। इसी तरह होगी उसका कोई-न-कोई फल जरूर होगा। उसी तरह कर्मों के शुभाशुभ फल को प्रत्यक्ष देखकर परोक्षभूत चेतन द्वारा की हुई हिंसा आदि पाप क्रियाओं या दया, कर्मों का अस्तित्व भी मानना होगा।
दान आदि क्रियाओं का फल भी जरूर होना चाहिये प्रश्न : पुष्पमाला, चन्दन, स्त्री आदि प्रत्यक्ष सुख | वह फल शुभाशुभ कर्मों का जीव के बन्ध मानने पर के कारण हैं और सर्प, कंटक, विषादि प्रत्यक्ष दु:ख | ही बन सकेगा। के कारण हैं। इन प्रत्यक्ष हेतुओं को छोड़कर सुख- प्रश्न : जैसे कृषि क्रिया का प्रत्यक्ष फल धान्य द:ख के परोक्ष कारण कर्मों को क्यों माना जावे? प्राप्ति है, उसी तरह हिंसा असत्य आदि का प्रत्यक्ष फल
उत्तर : पुष्पमाला आदि एकांततः सभी जीवों को | शत्रुता, अविश्वास आदि है और दया, दान आदि का सुख के कारण नहीं होते हैं। शोकाकुलित जीवों को | प्रत्यक्ष फल मन की प्रसन्नता यशप्राप्ति आदि है। इस ये ही चीजें दुःख का कारण भी देखी जाती हैं। इसी प्रकार क्रियाओं का फल हम भी मानते हैं। इन दृष्टफलों तरह विषादि भी सभी को दु:ख का कारण नहीं होते | को छोडकर अदृष्टफल कर्मबन्ध क्यों माना जावे? हैं। किन्हीं-किन्हीं रोगियों को विष का सेवन आरोग्यप्रद उत्तर : जीवकृत सभी क्रियाओं के दृष्टफल और होकर सुख का कारण भी हो जाता है। खादी का बना । अदृष्टफल दोनों फल होते हैं। कृषि आदि सावध क्रियाओं
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का धान्यादि यह दृष्टफल है और पापकर्म का बन्ध | अशरीरी होकर भी किसी नये शरीर में जन्म लेना मान होना यह अदृष्टफल है। इसी तरह दानादि का यशप्राप्ति | लिया जावे तब; तो मुक्त जीवों का भी पुनः शरीर ग्रहण आदि दृष्टफल है और पुण्यकर्म का बन्ध होना अदृष्टफल करने का प्रसंग आ उपस्थित होगा। है। यदि कृषि आदि सावध क्रियाओं का धान्यप्राप्ति आदि । कर्मों की सिद्धि के लिए चौथा हेतु यह है कि दृष्टफल ही माना जावे, अदृष्टफल पाप बन्ध नहीं माना | जीवों के जो रागद्वेषादि भाव पैदा होते हैं, वे भाव आत्मा जावे तो सावध आरम्भ करनेवाले सभी जीवों को मोक्ष | के निज भाव तो हैं नहीं, क्योंकि उन्हें निज भाव मानने हो जायेगा और यह संसार जीवों से शून्य हो जायेगा। पर सिद्धों के भी उन्हें मानने पड़ेंगे। परन्तु सिद्धों के
प्रश्न : कृषि आदि क्रियायें धान्यादि प्राप्ति की वे हैं नहीं और यदि इन भावों को जीव के न मानकर इच्छा से की जाती हैं। करनेवाला पाप कमाने के अभिप्राय | कर्मों के मानें, तो कर्म पुद्गल हैं। अचेतन के द्वारा से उन्हें नहीं करता है, तब कर्ता को पाप का बन्ध, द्वेषादि भावों का होना सम्भव नहीं है। जैसे उत्पन्न हुई भी क्यों माना जावे?
संतान न अकेली माता की है और न अकेले पिता की, उत्तर : जैसे किसान गेहूँ का बीज बोता है। उनके | किन्तु दोनों ही के संयोग से उत्पन्न हुई मानी जानी साथ भूल से कोंदू का कोई बीज बोने में आ जाये | चाहिए। जीव की इस वैभाविक परिणति से भी जीव तो उस कोंदू के बीज से कोंदू ही पैदा होगी। नहीं| के साथ होनेवाला कर्म बंध होता है। जैसे हल्दी और चाहने से उससे गेहूँ पैदा नहीं हो सकते हैं। उसी तरह | चूने के के मेल से एक तीसरा ही विलक्षण लाल रंग कृषि आदि क्रियाओं का अदृष्टफल पाप कर्मों का बंध पैदा होता है। इस लाल रंग में न हल्दी का पता लगता नहीं चाहते भी पाप बंध होगा ही। जगत् में दुःखी जीव है और न चूने का। किसी ने कहा हैबहुत हैं और सुखी जीव थोड़े हैं। इसका भी कारण हरदी ने जरदी तजी चूना तज्यो सफेद। यही है कि जगत् में पापकार्यों के करनेवाले बहुत जीव दोऊ मिल एकहि भये रह्यो न काहू भेद॥ हैं और पुण्यकार्यों के करनेवाले थोड़े जीव हैं। अगर उसी तरह अरूपी जीव के साथ रूपी कर्मपुदगलों कृषि आदि सावद्यारंभ का अदृष्ट-फल पापबंध नहीं होता, का मेल होकर एक ऐसी तीसरी विलक्षण दशा पैदा तो जगत में प्रचुर मात्रा में दुःखी जीव दिखाई नहीं देते। हो जाती है, जिसे हम जीव की वैभाविक अवस्था के दूसरी बात यह है कि समान साधनों के होते हुए भी | नाम से पुकारते हैं। इस अवस्था में न तो जीव के असली कृषि, व्यापार आदि करनेवालों में समान फल की प्राप्ति रूप का पता पड़ता है और न पुद्गल के असली रूप नहीं देखी जाती है। इसका कारण भी जीवों का अदृष्टफल | का। पुण्य-पाप ही माना जावेगा। कारण के बिना कार्य नहीं कर्म और आत्मा का मेल कुछ ऐसे ढंग का समझना होता है, यह नियम है। जैसे परमाणुओं से घट बनता | चाहिए कि दोनों एक दूसरे में मिलकर एकस्थानीय बन है। यहाँ घट कार्य है, परमाणु कारण हैं। उसी तरह जाते हैं। फिर भी दोनों का अपना-अपना स्वरूप अलगदृष्टफल में तरतमता देखी जाती है वह भी कार्य है,| अलग रहता है। न तो चेतन आत्मा पौद्गलिक कर्मों उस कारण भी पुण्य-पाप ही मानना पड़ेगा। के मेल से अचेतन बनता है और न अचेतनकर्म चेतन
कर्मों की सिद्धि के लिये तीसरा हेतु यह है कि बनता है। जैसे सुवर्ण और चाँदी को मिला देने से दोनों संसारी जीवों की गमनादि क्रियायें बिना शरीर के नहीं| एकमेक हो जाते हैं, तथापि दोनों धातुओं का अपनाहो सकती हैं। जब कोई संसारी जीव पूर्व पर्याय को | अपना गुण अपने ही साथ रहता है, गुण एक दूसरे में छोड़कर अगली पर्याय में जावेगा, तब पहिले का स्थूल | नहीं मिलते हैं। इसीलिए जब न्यारगर से उनका शोधन शरीर तो छूट जायेगा और अगला स्थूल शरीर अभी | कराया जाता है, तो वे दोनों धातुयें अलग-अलग हो प्राप्त नहीं हुआ। अन्तराल में (विग्रह गति में) उस जीव | जाती हैं। उसी तरह आत्मा का भी जब तपस्या के द्वारा के अगर सूक्ष्म कार्मण शरीर भी नहीं माना जावेगा, तो| शोधन होता है, तब आत्मा और कर्म दोनों अलग-अलग उसके गमन का अन्य क्या कारण होगा? विग्रहगति में | हो जाते हैं। फर्क इतना ही है कि शोधे हुए सोने में यदि आत्मा को बिल्कुल अशरीरी मान लिया जावे और | कोई चाहे, तो फिर भी चाँदी का मेल किया जा सकता
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है। किन्तु शुद्ध आत्मा में पुनः कर्मों का मेल नहीं हो | था। दो विजातीय द्रव्य जब अनादि से मिले हुए चले सकता है। इस फर्क का भी कारण यह है कि आत्मा | आते हैं, तो उनके पृथक् हो जाने पर पुनः वे नहीं मिलते के साथ कर्मों का मेल किसी वक्त में किया हुआ नहीं | हैं। जैसे खान में से निकला हुआ सोना विजातीय द्रव्य है, वह अनादि से चला आ रहा है, इसलिए वह मेल | से मिला हुआ रहता है। एक बार सोने में से उस विजातीय एक बार पूर्णतया पृथक् हो जाने पर पुनः उनका मेल | द्रव्य के पूर्णतया अलग हो जाने पर फिर सोना उस बनता नहीं है। यदि सुवर्ण और चाँदी का मेल भी इसी | विजातीय द्रव्य से नहीं मिल सकता है, जैसे 'तिल्ली तरह अनादि का होता, तो उस मेल के भी पूरे तौर | में तेल' इत्यादि और भी उदाहरण दिए जा सकते हैं। पर फट जाने पर पुनः उनका मेल भी नहीं हो सकता
(शेष अगले अंक में) "जैन निबन्धरत्नावली' (भाग २) से साभार
दुलार के साथ रखें सार्थक नाम
डॉ० ज्योति जैन मेरी भतीजी 'यूँ चूँ' हाँ, उसे प्यार से इसी नाम से बुलाते हैं सब, नन्ही सी थी, तो पूरे घर में यूँ यूँ ही सुनाई देता था, पर अब जब वह बड़ी हो रही है, उसका नाम बुलाते समय कुछ अजीव सा लगने लगा है। सबसे अहम बात तो यह है कि एक दिन वह स्वयं कहने लगी कि 'आप लोगों ने ये क्या नाम रखा?' न चाहते हुये भी परिचित, रिश्तेदार और घर के सभी सदस्य उसे चूँ चूँ कहकर ही बुलाते हैं।
बच्चा जब जन्म लेता है, तो घर का प्रत्येक सदस्य लाड़ में उसे कुछ कहकर बुलाता है। उन्हीं में से कोई एक नाम भा जाता है और वह बच्चे का घर का नाम हो जाता है। बच्चा जब स्कूल जाना प्रारम्भ करता है, तो एक बार फिर नाम की खोजबीन शुरू हो जाती है और फिर एक बाहर का नाम हो जाता है।
पहले नामों को लेकर ज्यादा कशमकश नहीं होती थी। घर के बड़े-बुजुर्ग, दादा-दादी, नाना-नानी, बुआ या पंडित जी जो नाम रख देते थे, वही चल पड़ता था। पर आज एकल परिवार, उस पर भी एक या दो बच्चे। अत: नाम को लेकर बड़ी मशक्कत करनी पड़ती है, मेहनत करनी पड़ती है। किताबें पलटनी पड़ती हैं, उसके बाद भी जब तक लोग न कह दें अरे वाह! क्या नाम है, तब तक तसल्ली नहीं मिलती। यहाँ तक कि बाजार में नामों पर अनेक किताबें भी उपलब्ध हैं।
नामों का भी अपना एक संसार है। अनेक लोग बिल्कुल बेकार नाम रख देते थे। इसके पीछे तर्क था कि बच्चे जीवित रहें और उन्हें नजर न लगे जैसे नत्थू, चपटे, छिंगे आदि। बहुत से नाम मिठाइयों के नाम पर रखे गये जैसेलड्डूसिंह, इमरतीदेवी। फूलों के नाम भी खूब रखे गये गुलाबसिंह, गुलाबोदेवी या गुलाबबाई, गेंदासिंह, गेंदाबाई, चमेली बाई, बेला सिंह, बेला रानी, चंपालाल, चंपाबाई। फलों के नाम पर चेरी, अंगूरी आदि, पशु पक्षियों के नाम पर तोता सिंह, मैना रानी आदि नाम चल पड़े। धातु के नाम पर अशर्फीलाल या अशर्फी देवी, हीरालाल-हीराबाई, सोनाबाई, रजत, स्वर्णलता आदि। नगीना से लेकर हीरा, मोती, नीलम, मूंगा, पुखराज, पन्ना आदि नाम भी प्रचलन में हैं। बच्चों की शारीरिक रचना भी कुछ नाम रखवा देती है जैसे मोटा हुआ, तो गोलू, चपटा सा है तो चपटू, छोटा है, तो छुट्टै आदि। फिल्म अभिनेता और अभिनेत्रियों के नाम, तो शुरू से लेकर आज तक लोकप्रिय रहे हैं। टी.वी. सीरियल के पात्रों के नाम भी लोकप्रिय हैं। प्रसिद्ध खिलाड़ियों के नाम भी पसंद किये गये हैं। संस्कृति से जुड़े लोग आज भी ऐतिहासिक पौराणिक, धार्मिक नामों को पसंद करते हैं जैसे- गौरी, राधा, चंदना, राजुल, अंजना, सोमा, ऋषभ, पारस, राघव, माधव, कृष्णा, आदि। एक सच यह है कि कुछ ऐसे नाम हैं, जो कभी नहीं रखे गये जैसे- दुर्योधन, कैकेयी, रावण, मंथरा आदि।
आजकल लोग नये नामों के चक्कर में, तथा किसी दूसरे का नाम न हो इस भावना से इतने कठिन या बेतुके नाम रख लेते हैं कि इनका न तो अर्थ होता है न उन्हें बुलाते बनता है। यहाँ तक कि बच्चों से अपना नाम भी लेते नहीं बनता है। अतः जो भी नाम रखा जाये सार्थक, छोटा और दुलारा सा होना चाहिए ताकि उसे लेने में प्यार झलके। व्यक्ति के व्यक्तित्व में कहीं न कहीं नाम का बहुत बड़ा योगदान होता है। नाम ही उसकी पहचान होती है। नाम ही जिदंगी भर उसके साथ चलता है। अत: प्यार दुलार के साथ सार्थक नाम रखना चाहिए।
सर्वोदय, जैन मण्डी, खतौली (उ.प्र.)
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मांसाहार एवं पैशाचिक बुद्धिहीनता
डॉ. किशोरीलाल जी वर्मा, मे. ओ., अलीगंज हम लोग संसार के क्षणिक जीवन में कुछ ऐसे । केवल डॉक्टर या रोगी जान सकता है। भ्रम में पड़ जाते हैं कि यदि उस जीवन काल का | मांस के आहार से अंगों की शिथिल अनुमान लगाया जाये, तो शुभकर्मों की रोकड़ बही पर किसी और भोजन की अपेक्षा अधिक शारीरिक क्षति चढ़ाने के लिये जमा में 'कुछ नहीं निकल सकता है, | होती है। मांस को पकाने में उसके जीवन प्रदान करनेवाले जीवन प्रायः कष्टमय है। उसमें सुखाभासकी झलक, | मूल कण समाप्त हो जाते हैं और केवल तेजाब एवं जो कभी दैव अनुकम्पा से दिखती है, वह स्थायी नहीं। | नायट्रोजिनिस पदार्थ अर्थात् वायु उत्पादक अन्तिम शेष भौतिक सुख इन्द्रिजन्य होने के कारण सुखाभास है। उसकी | रह जाते हैं। इन पदार्थों को ग्रहण करने का अर्थ केवल तुलना आत्माह्लाद से, शुद्ध आत्मसुख से नहीं की जा | क्रमशः आत्मघात करना ही कहा जा सकता है। सकती है। सच्चे सुख से शुद्ध विचार उत्पन्न होते हैं। पके हुये मांस में नायट्रोजन मनुष्य की आवश्यकता विचारों की मलिनता सच्चे सुखको नष्ट कर देती है। से कहीं अधिक और सलफर तथा फास्फोरस की राख यह जानबूझकर भी हमलोग दुखी होते हैं और दुख के | अधिकतर रह जाती है, जिसमें मूत्र सौगुना तेजाबी, उस कारण बनते हैं, आश्चर्य केवल यही है। हम क्यों रोगी | मूत्र के अनुपाते से होता है, जो एक अनुमानित भोजन हैं? इसलिये कि शरीर में विकारविष उत्पन्न किया है | से बनता है। फल और साग मांस के साथ ग्रहण करने और वह हमारे ही आचार विचारों का फल है। के उपरान्त भी उनके खारी नमक इस तेजाब का समीकरण
किसी रोग की पहिचान लक्षणों द्वारा होती है, किन्तु | नहीं कर सकते हैं। मेरा अनुभव है कि मांसाहारियों केवल लक्षणों का जानना, उस समय तक व्यर्थ है, जब | को बहुधा रक्तदबाब के अधिक होने के रोग शाकाहारियों तक कारण का बोध न हो और उसकी चिकित्सा का | की अपेक्षा अधिक होते हैं। उनके मूत्राशय भी कमजोर ज्ञान न हो। जो कुछ भी शरीर में विष उत्पन्न होता | होते हैं। हैं, वह भोज्य पदाथों की अन्तिम परिणत अवस्था एवं मिचीगन यूनीवर्सिटी के प्रो० श्री न्यूवर्ग का कथन विचारों के प्रभाव से होता है, जो ऐसे भोज्य पदार्थों की | है कि अधिकांश में अधिक समय तक मांसाहार करने इच्छा उत्पन्न करते हैं। इसलिये ही चिकित्सक को बहुधा | से धमनियाँ मोटी हो जाती हैं और ब्राइट्स डिजीज, असफलता होती है। वैसे तो कई एक ऐसे भोज्यपदार्थ | सिलसिलबोल अथवा बहुमूत्र और गुर्दे की बीमारियाँ हो हैं जिन पर विचार प्रकट किये जा सकते हैं, किन्तु | जाती हैं। रूस के प्रमुख डाक्टर एनीश्को ने भी यह यहाँ पर मैं केवल मांसाहार पर ही सीमित रहूँगा। | प्रमाण दिया है कि कोलेस्ट्रोल, जो मांस की चर्बी का
यदि हम स्वयं ठीक नहीं रह सकते, तो दूसरे | मुख्य अंश है, धमनियों की सिकुड़न अथवा आर्टीरीयो अवश्य ठीक करेंगे। हम लोगों को पापों और दुष्कर्मों | स्कीलौरीसस उत्पन्न करता है। प्रो० मेकोलम अमेरिका के लिये कोई दूसरा दण्ड नहीं देता, बल्कि मेरी समझ | का एक प्रसिद्ध भोज्य रसायनवेत्ता डाक्टर है। उसका में पाप और दुष्कर्म स्वयं हमको सजा देते हैं। मत है कि मांस कोई और किसी प्रकार मनुष्य के लिये
हिपोक्रेटस, जिसने चिकित्सा निकाली और जो | उसके स्वास्थ्य को लाभकारी या आवश्यक भोज्य पदार्थ शाकाहार का दक्ष डाक्टर था, उसकी यह शिक्षा थी कि | नहीं है। भोजन ही केवल औषधि है और औषधि केवल भोजन | भोज्य पदार्थों के मुख्यांश की रसायन क्रिया का
| खारी अथवा खड़ी या तेजाबी होना ही पाचन क्रिया की __भोजन करना और उसका मलमूत्र बनना अथवा | विधि पर प्रभाव डालता है। रक्त की रसायनक्रिया व्यर्थ पदार्थों का बाहर निकलना, ये दो पृथक् क्रियायें साधारणतः ७५ प्रतिशत खारी तथा २५ प्रतिशत खट्टी हैं। यदि परिणत भोज्य का व्यर्थ अंश छाँटने में शरीर ] या तेजाबी होती हैं। फल तथा साग के नमक भी अधिक के अंगो पर अधिक प्रभाव पड़ता अथवा उनकी छिन्नता | से अधिक खारी और तेजाबी हो सकते हैं। अत: उनकी हो जाती है, शरीर शिथिल होकर रोगी हो जाता है, जिसे | मात्रा का ठीक अनुपात जान लेना उचित है।
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कदाचित् रक्त के तेजाब का अनुपात ठीक रहे। शरीर में एक स्फूर्ति का आभास अथवा बिजली का और तेजाबी भोजन ग्रहण किया जाय, तो भी शरीर कार्य | चार्ज हो जाता है। अतएव शरीर की प्रथम शक्ति उसके करता है, परन्तु इस अनुपात का घट बढ़ जाना संकट | आन्तरिक स्थान से ही प्राप्त होती है। से खाली नहीं है।
डॉ० बरघोल्ज, एक अमेरिकन डाक्टर ने बताया जो भोज्य पदार्थ खारी नमक बनाते हैं, वे तेजाब | है कि प्रत्येक पौधे, फल, साग इत्यादि में दो प्रकार का समीकरण करते हैं और जो तेजाबी नमक बनाते | के रेशे होते हैं, जो बिजली के पोजिटिव और निगेटिव हैं, वे खार का समीकरण करते हैं। इस प्रकार की क्रियायें | तारों का काम करते हैं। और जब ये भोजन द्वारा शरीर और प्रतिक्रियायें जो भोजन से उत्पन्न होती हैं, शरीर | में पहुचते हैं, तो पाचनक्रिया के अतिरिक्त, जो रसायन की रसायन क्रिया को ठीक रखती हैं। रोटी, बिस्कुट | की बनावट इत्यादि में उपयोगी होता है, एक बिजली और अन्य अन्न पदार्थ तेजाब उत्पन्न करते हैं और फल | को अपने रेशों की मिलावट द्वारा शरीर में उत्पन्न करता साग और बादाम आदि खार। यही इस प्रकार रसायन है। वे ही शक्ति को एकत्रित करते हैं और फिर धीरेअनुपात को रक्त में ठीक रखते हैं।
धीरे, उस शक्ति को निकाल देते हैं। इसका उदाहरण मांस, मछली, अंडा एवं चीज गहरे तेजाबी भोज्य इसप्रकार है कि एक गेल्वनो मीटर के सरकिट अथवा पदार्थ हैं और जब ये पाचनक्रिया में जल जाते हैं. तो तारों के जडे हये घिराव में सेव लगा दीजिये, तो सई तेजाबी अनुपात को सलफ्यूरिक एसिड, यूरिक एसिड | हिलने लगेगी और फिर क्रमशः रुक जायेगी। फिर उस
और फास्फोरिक एसिड में परिणत होकर बढ़ा देते हैं, | सेव को निकाल कर थोड़ी देर अलग रख दीजिये। जब जिससे मूत्ररोग, हृदय की धमनियों का रोग और एपोप्लेक्सी, | उसमें आक्सीजन हवा से प्रवेश कर लेगी, तो फिर उसको एक प्रकार का लकवा रोग उत्पन्न होता है। । सरकिट में लगा दीजिये। वही क्रिया फिर होने लगेगी।
कुछ व्यक्तियों का ऐसा निराधार विचार है कि इससे यह प्रमाण मिला कि आक्सीजन शरीर में भोजन मांस के अतिरिक्त अन्य रूपेण शक्ति उत्पन्न नहीं हो | द्वारा भी कार्यक्रम में आती है और कार्बन डी ऑक्साइड सकती। यह पैशाचिक मनोवृत्ति है। ऐसे व्यक्तियों का | निकल जाती है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि भोजन हृदय पाषाण है, जो पर दुख से नहीं पसीजता। इनमें से कण अथवा सेल्स बनती हैं, जो आकर्षण स्थान से
दया छू तक नहीं गई है। वे केवल असार संसार के | शक्ति उपार्जन करके अपनी दौड़ से एक बिजली की - दिखावटी वैभवों में लिप्त होकर चूर हो रहे हैं। उत्पत्ति करती हैं, जिससे शरीर की गरमी और चलने
मेजर जनरल सर राबर्ट मेक गेरीसन ने जो ब्रिटिश | फिरने की क्रिया होती है। इसी के द्वारा हम अपनी साम्राज्य का प्रमुख भोजन का दक्ष डॉक्टर है, कहा है | इच्छानुसार चलते फिरते और कार्यक्रम करते हैं। जब कि यदि अन्न, दूध और ताजे साग विधिपूर्वक ग्रहण उक्त क्रिया में किसी अमुक भोज्य पदार्थ से रुकावट किय जावें, तो वे मनुष्य शरीर की बनावट और उसके उत्पन्न हो जाती है और जिस अंग में भी ये सेल्स कार्यक्रमों को ठीक रखते हैं। उन्होंने मांसको अनावश्यक ठीक दौड़ नहीं लगा पातीं, वही अंग शिथिल होकर भोज्य पदार्थ बताया है।
बीमार हो जाता है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि एक साधारण किन्तु निराधार विचार यह भी है | जो शक्ति हमको जीवित रखती है, रुकावट होने से तेजी कि जो भोजन हम करतें हैं, उसके अनुसार या उससे | से हमको मार भी सकती है। किसी का भोजन किसी * ही तत्काल शक्ति उत्पन्न हो जाती है। होता. ऐसा कुछ | का विष भी हो सकता है, क्योंकि शरीर की धमनियों भी नहीं है। शरीर की युनिट अथवा बनावट के मूल | की बनावट में उसकी परिस्थिति के अनुसार अन्तर होता अंश, छोटे-छोटे कण हैं, जिन्हें अंग्रेजी में सेल्स (cells) | है। कुत्ते का पेट हड्डी हजम कर सकता है, पर मनुष्य कहते हैं। ये सेल्स शरीर के भीतर सौ मील प्रति घंटे | नहीं। बादाम कुत्ते को मार सकती है, किन्तु मनुष्य को की दर से पृथ्वी के चक्करों की गति के अनुसार दौडते | लाभकर हैं, नीबू का रस बिल्ली और खरगोश के लिये रहते हैं। इस प्रकार यही कण शक्ति के आकर्षण की | विष है। कपूर से किनारी नामका जानवर मर जाता है। लकीरों पर हो कर शक्ति उपार्जन करते रहते हैं, जिससे | कबतूर अफीम अधिकांश में खा लेता है। ऐसे अनेक
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उदाहरण हैं।
सोयाबीन मांस की अपेक्षा कहीं अधिक उत्तम वस्तु भोजन हमारे शरीर की वनावट भोजन पर निर्भर है। अतएव | की है। उचित भोजन जो शाकाहार है, उसको विधिवत् ग्रहण | ऐसा देखा गया है कि बच्चा पैदा होते समय हृष्टपुष्ट करने से असाधारण रुकावट नहीं होती और शरीर हृष्टपुष्ट | होते हुये भी २० या २१ वर्ष की युवावस्था में, जब ठीक विचारों को उत्पन्न करने में सहायक होता है। उसे स्वस्थ होना चाहिये, रोगी बन जाता है, यह भोजन
यह धारणा भी गलत है कि मांस से मांस उत्पन्न | एवं आचार-विचारों का ही दुष्प्रभाव होने का फल है। होता है, क्योंकि पकने पर उसके जीवित कण नहीं रहते | प्रत्येक जीवको अपनी उत्पत्ति और बढान काल के अठगुने
और कण भी भिन्न होते हैं। मांसभोजन मानव को पश | समय तक जीवित रहना चाहिये, परन्तु मनुष्य की आयु बना देता है।
दूनी भी कठिनता से हो पाती है। यह सब केवल ठीक में अब यह बताता हूँ कि मांसाहारी जानवरों और और विधिपूर्वक भोजन न प्राप्त करने का ही दुष्परिणाम मनुष्यों में क्या अन्तर है?
है। बहुत से पदार्थों का मुख्यांश छील कर या अधिक जितने भी मांस खानेवाले जानवर हैं उनकी आँते पकाकर नष्ट कर दिया जाता है अथवा मसालों से स्वादिष्ट छोटी होती हैं, जैसे शेर की आँत १५ फीट लम्बी होती | बनाने के लिये ऐसा भोजन किया जाता है जो, अंतड़ियों है। इसके विपरीत, जितने जीव संतोषी, शाकाहारी अथवा | की अंतरझिल्ली को जलाकर छिन्नभिन्न कर देता है और मांस न खानेवाले हैं, उनकी आँतें २६ से ३० फीट तक |
| पेचिश इत्यादिक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। लम्बी होती हैं, जिससे साग-पात लम्बे समय तक सड़गल अतएव इन्द्रियलिप्सा और पैशाचिकता को छोड़कर कर पाचनक्रिया में रस बना सकें। इसी प्रकार से मनुष्य | मानव को उचित है कि वह दयाभाव उत्पन्न करे। शरीरऔर मांसभक्षी पशु के दाँतो में भी अन्तर है। यदि एक | पोषण और स्वास्थ्यवर्धन के लिये वह ठीक और बन्दर को बंद करके मांस खिलाया जावे, तो उसे तपेदिक | स्वास्थ्यकर शाकाहार को ग्रहण करे। लोक के सभी हो जायेगा। साग के भोजन में कई ऐसे सुन्दर अमूल्य महापुरुष शाकाहारी हुये हैं। भगवान् महावीर ही अहिंसा पदार्थ हैं, जो मनुष्य को हृष्टपुष्ट रखने में लाभकारी के अवतार थे। उनके उपदेश से भारत में शाकाहारहोते हैं। सबको न बताकर केवल एक सोयाबीन का | विज्ञान की विशेष उन्नति हुई थी। उनके अतिरिक्त श्री ही उल्लेख करूँगा। इसमें लेसीथीन और फासफोरस | गौतमबुद्ध, ईसामसीह, मुहम्मद सा०, ऋषि दयानंद एवं ब्रहमाइड की शक्ति के लिये ठीक अनुपात में होता है। विश्वविभूति महात्मा गाँधी के जीवनचरित्र पढ़िये और इसमें वेसीलिस एसिडोफिल्स अर्थात् एक प्रकार के आँत, देखिये कि वे अहिंसावृत्ति को धारण करके ही महान के कीटाणु, जो भोजन की पाचनक्रिया करते हैं, अधिक | हुय थे। शाकाहार ही श्रेष्ठ भोजन है। काल तक जीवित रह सकते और बढ़ सकते हैं। अतः ।
'भगवान् महावीर स्मृति ग्रन्थ' से साभार
संत श्री गणेश प्रसाद जी वर्णी की राष्ट्रभक्ति सन 1945 की घटना है। मध्यप्रदेश की संस्कारधानी जबलपुर में सुप्रसिद्ध साहित्यकार एवं राजनीतिज्ञ प्रान्तीय कौंसल, नागपुर के उच्चाधिकारी श्रीयुत पं० द्वारिका प्रसाद जी मिश्र की अध्यक्षता में आजाद हिन्द फौज की सहायतार्थ विशाल सभा का आयोजन हुआ। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के नेतृत्ववाली आजाद हिन्द फौज के सैनिकों को राजद्रोह में अंग्रेजों द्वारा बंदी बनाकर मुकदमा चलाया जा रहा था।
इस सभा को क्षुल्लक श्री १०५ गणेश प्रसाद वर्णी ने संबोधित करते हुए व्याख्यान दिया कि यद्यपि मैं राजकीय विषय में कुछ नहीं जानता, फिर भी मेरी भावना है कि हे भगवन्! देश का संकट टालो। जिन लोगों ने देश के लिये अपना सर्वस्व न्यौछावर किया, उनके प्राण संकट से बचाओ। मेरे पास सहायता करने को कुछ नहीं है, केवल दो चादरें हैं। इनमें से एक चादर मुकदमे की पैरवी के लिये देता हूँ और मन से परमात्मा का स्मरण करता हुआ विश्वास करता हूँ कि वे सैनिक अवश्य ही कारागृह से मुक्त होंगे। सभा में उस चादर की नीलामी की गई, जो उस सस्ते जमाने में भी तीन हजार रुपयों में गई और यह राशि सैनिकों की सहायतार्थ भेजी गई। संत वर्णी की भावना के अनुरूप आजाद हिन्द फौज के सैनिक जल्द ही मुक्त कर दिये गये।
श्रीमती अनीता जैन राकेश' बरगी हिल्स, जबलपुर
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जैनदर्शन की वर्तमान में प्रासंगिकता
डॉ० पारसमल अग्रवाल
ज्ञान - विज्ञान के क्षेत्र में बहुत तेजी से विश्व में । 1000000000000000000 (एक के आगे १८ शून्य) से भी तरक्की हो रही है । किन्तु कई कारणों से साधारण जनता अधिक स्थान (पृथ्वी जैसे ) इस ब्रह्माण्ड में हैं जहाँ न तो हमारे शास्त्रों का मर्म जान पाती है और न ही आधुनिक जीवधारी होने की संभावना है। ज्ञान का रहस्य । इसका परिणाम यह होता है कि साधारण जनता को विरोधाभास प्रतीत होता है और वह या तो विज्ञान को धिक्कारती है या धार्मिकज्ञान को व्यर्थ समझती है या वह इन दोनों में तटस्थ रहते हुए टी. वी. एवं सिनेमा द्वारा चित्रित मार्ग को ही जीवन का ध्येय जाने-अनजाने में बना लेती है।
२. क्या दिन में भोजन करना व अण्डे - मांस, मद्य का त्याग लाभदायक है?
चरणानुयोग के इन बिन्दुओं के सम्बन्ध में मेरे स्वयं के ४ वर्षों के अमरीका में रहकर वहाँ के जीवन को देखने समझने व वहाँ के आधुनिक साहित्य के आधार पर कुछ संकेत यहाँ देना चाहूँगा ।
(१) अमरीका की अधिकांश आबादी (८० प्रतिशत से अधिक ) शाम को ७ बजे के पूर्व अपना शाम का भोजन (Dinner ) ले लेती है । अमरीकी संस्कृति में यह सायं भोज का समय मुख्यतया स्वास्थ्य एवं सुविधा का कारण बना है ।
हमारे ऋषियों ने जो मार्ग बताया है वह लाभदायक है तथा आधुनिक विज्ञान भी सत्य की खोज में लगा हुआ है। दुनिया केवल उतनी ही नहीं है, जितनी हल्के-फुल्के समाचार-पत्र, साहित्य एवं फिल्मी दुनिया में चित्रित होती है । इस कथन को स्पष्ट करने का इस लेख में अति संक्षेप में प्रयास किया जा रहा है। जैनदर्शन के चारों अनुयोगों का समावेश करने की दृष्टि से प्रत्येक के कुछ ही उदाहरण प्रस्तुत करना संभव हो सकेगा। प्रत्येक अनुयोग के लिए एक प्रश्न एवं उसके उत्तर द्वारा तथ्य स्पष्ट किये जाने का प्रयास यहाँ किया गया है।
१. क्या पृथ्वी के अतिरिक्त अन्यत्र जीव हैं?
जैन करणानुयोग में शंका करते हुए सबसे वजनदार शंका यह होती है कि 'स्वर्ग-नरक किसने देखा? जो भी है वह इस पृथ्वी पर ही है।'
कुछ
इस शंका का पूर्ण समाधान क्या विज्ञान कर सकेगा? कब तक? इन प्रश्नों का उत्तर देना कठिन कार्य है। किन्तु यह जानना उपयोगी होगा कि अब तक विज्ञान कितना जान पाया है । १९६७ में औषधि विज्ञान का नोबिल पुरस्कार प्राप्त करनेवाले वैज्ञानिक जार्ज वाल्ड ने एक लेख में यह स्पष्ट बताया है
“ The smallest estimate we would consider of the fraction of stars in the milky way that should have a planet that could support life is one percent. That means a billion such places in our own home galaxy, and with a billion such galaxies within reach of our telescopes, the already observed universe should contain at least a billion billion-10 places that can support life."
तात्पर्य यह है कि जार्ज वाल्ड के अनुसार
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(२) आज मोटापा एवं कोलेस्टरल की समस्या अमरीका में इतनी बढ़ गई है कि लगभग प्रत्येक पत्रपत्रिका में खानपान के सम्बन्ध में लेख प्रकाशित होते रहते हैं व एक स्वर से लगभग सभी लेख अण्डे एवं मांस का प्रयोग हानिकारक बताते हैं । अण्डा अब अमरीका में खलनायक हो गया है। अण्डे में कोलेस्टरल की मात्रा सबसे ज्यादा होती है ।
(३) अमरीका में सिगरेट का प्रचलन बहुत तेजी से कम हो रहा है। अमरीका में मैं जिस विश्वविद्यालय में था, वहाँ किसी भी भवन में कोई भी सिगरेट नहीं पी सकता है। पहले मैंने १९७९-८० में जिस विश्वविद्यालय में सिक्के डाल कर सिगरेट खरीदनेवाली मशीनें देखी थीं, वे अब १९८६-८९ में देखने को नहीं मिलीं।
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(४) अमरीका में सिगरेट का इतना विरोध होने के पहले बहुत वर्षों तक सिगरेट के पेकेट पर धूम्रपान हानिकारक है' ऐसी चेतावनी छापी गई थी। इसी तरह १९८९ में अमरीकी सरकार ने शराब की बोतल पर भी अब यह चेतावनी छापने का कानून बनाया है कि 'गर्भवती महिलाओं के लिए शराब हानिकारक है।' शराब उद्योग को यह पहला झटका लगा है।
(५) एड्स रोग के प्रचलन के बाद अमरीकी जनता को यह एहसास हो गया है कि न केवल जुआ, मांस, मद्य एवं चोरी बुरे हैं, अपितु वेश्यावृत्ति एवं कुशील भी इसी
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जन्म में जानेलेवा बीमारीवाले हैं। इस प्रकार जैन- । मानते हैं। क्या जैनदर्शन इस आधुनिक वैज्ञानिक विचारधारा चरणानुयोग ने, जो सात व्यसन बताए एवं जिनका त्याग | से सहमत है? अधिकांश जैन परिवारों में एक बच्चे को सहज ही विरासत | सृष्टि ही क्यों, वैज्ञानिकों का तो यह मूल सिद्धान्त में मिलता है, उनमें से ६ व्यसनों को अमरीका ने बुरा | है कि 'ऊर्जा न तो पैदा की जा सकती है और न ही नष्ट मानना स्वीकार कर लिया है। शेष एक व्यसन-शिकार- | की जा सकती है, केवल रूपान्तरण होता है।' जैन के बारे में भी इसी तरह कभी चेतना जागृत होगी। | द्रव्यानुयोग इस मूल सिद्धान्त से पूर्णतः मेल खाता है। विषय
३. क्या बीसवी सदी में कोई ऐसा नायक पैदा | अत्यन्त गंभीर होने के कारण विस्तार में न जाते हुए हआ है जिसने 'अहिंसा परमो धर्मः' की महिमा उजागर समयसार की गाथा क्र० १०४ द्वारा संकेत देना ही यहाँ की हो?
उचित होगा। इस प्रश्न को मैं ताजा 'प्रथमानयोग' के रूप में लेकर दव्वगुणस्स य आदाण कुणदि पोग्गलमयम्हि कम्मम्हि। प्रथमानयोग में वर्णित समस्त महापरुषों के चरित्र को समझने ___तं उभयमकुव्वंतो तम्हि कहं तस्स सो कत्ता ।। की पात्रता बनाना चाहता हूँ।
. अर्थात् आत्मा किसी भी पदार्थ को या उसके गुण __महात्मा गाँधी ने जो सफल अहिंसात्मक आन्दोलन | को नहीं कर सकता है व इस अपेक्षा से वह कर्ता नहीं चलाया, उसके लिए आज विश्व के समस्त राजनेता | है। नतमस्तक हैं। आइंस्टीन ने गाँधी जी के बारे में एक स्थान | चारों अनुयोगों के व आधुनिक ज्ञान के कुछ ही पर यह लिखा है कि कुछ सदियों के बाद लोगों को | चावलों को देखकर यह निर्णय नहीं लिया जा सकता है इस पर विश्वास नहीं आयेगा कि ऐसा हाड़ मांस का पुतला | कि परमाणु बम या टी.वी. बनाने की विधि शास्त्रों में भी इस धरती पर सचमुच में पैदा हुआ था।
होना चाहिए और यदि नही है तो.....। विशाल संसार, गाँधीजी ने यह अहिंसा एवं अहिंसा के उपयोग की । शाकाहारी भोजन, सात व्यसनों का त्याग, अहिंसा का महत्त्व विधि श्रीमद् राजचन्द्र से जैनग्रन्थों के आधार पर सीखी | व मूलतः प्रत्येक द्रव्य की स्वतंत्रता घोषित करनेवाला थी। गाँधीजी ने स्वयं अपनी आत्मकथा में यह लिखा है | वैज्ञानिक चिन्तन व जैनदर्शन की समानता इस लेख में कि जब भी अहिंसा के बारे में उन्हें शंका एवं अधिक जिस प्रकार वर्णित की गई है, उससे निश्चितत: यह धारणा विस्तृत जानने की जिज्ञासा रहती थी, तब वे श्रीमद् राजचन्द्र | सिद्ध होती है कि यह दर्शन केवल चर्चा का ही विषय से सम्पर्क करते थे।
नहीं, अपितु यह आधुनिक युग में व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र अमरीका से कुछ वर्ष पूर्व एक पुस्तक प्रकाशित | के जीवन में भी अत्यंत लाभकारी है। हुई, जिसमें विश्व को सर्वाधिक प्रभावित करनेवाले १०० | सन्दर्भ व्यक्तियों की जीवनी एवं उनके कार्यों का वर्णन किया 1. George wald, the cosmology of Life and है। इन १०० में भगवान् महावीर का नाम भी है व उनके
Mind, in Synthesis of Science and Religion', Edited प्रभाव के रूप में उस पुस्तक में लेखक ने यह स्पष्ट लिखा |
by T.D. Singh and R. Gomatam, Published by The
Bhaktivedanta Institute, Sanfrancisco, Bombay कि भगवान् महावीर की अहिंसा को महात्मा गाँधी ने
| 1998. अपनाकर न केवल भारत को अपितु समस्त विश्व को
2. M.H. Hart, “The 100 A ranking of the प्रभावित किया है और हो सकता है २१वीं सदी में इसकी most influential persons in history'.Citadel Press और अधिक आवश्यकता एवं उपयोग हो।
Secaucus, New Jersey, 1987 ४. वैज्ञानिक सृष्टि को किसी के द्वारा निर्मित नहीं ।
वात्सल्यरत्नाकर (भाग २) से साभार कबीर-वाणी लड़ने को सब ही चले, सस्तर बाँधि अनेक। साहिब आगे आपने, जूझेगा कोय एक । मानुस खोजत मैं फिरा, मानुस बड़ा सुकाल। जाको देखत दिल घिरै, ताका पड़ा दुकाल॥
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सप्तम अंश
तत्त्वार्थसूत्र में प्रयुक्त 'च' शब्द का विश्लेषणात्मक विवेचन
पं० महेशकुमार जैन, व्याख्याता
षष्ठ अध्याय
आद्यं संरम्भसमारम्भारम्भयोगकृतकारितानुमतकषायविशेषैस्त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुश्चैकशः ॥ ८ ॥
अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन का भेद करने पर ४३२ भेद हो जाते हैं, तथा हिंसा आदि पाँच श्लोकवार्तिक में इस सूत्र में आये 'च' शब्द की पापों के साथ गुणा करने पर ४३२४५ - २१६० भेद हैं। सूत्र व्याख्या नहीं की है। में आये 'च' शब्द से जीवाधिकरण के २१६० भेदों का
सर्वार्थसिद्धि- 'च' शब्दोऽनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यान - संग्रह हो जाता है। प्रत्याख्यानसंज्वलनकषायभेदकृतान्तर्भेदसमुच्चार्थः ।
राजवार्तिक- 'च' शब्दः क्रोधादिविशेषोपसंग्रहार्थः । २० । 'च' शब्दः क्रियते क्रोधादीनां विशेषाणाम् उपसंग्रहार्थम् । तेन अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनषोडशकषाय-भेदात् द्वात्रिंशदुत्तरचतुःशतगणनाविकल्पा वेदितव्याः ।
अर्थ- सूत्र में 'च' शब्द क्रोधादि के विशेष का संग्रह करने के लिए है । २० । अर्थात् 'च' शब्द से कषायों के भेद और उपभेदों का संग्रह हो जाता है। अतः अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन कषाय के सोलह भेदों से गुणा करने पर जीवाधिकरण आस्रव के चार सौ बत्तीस भेद भी जानना चाहिये ।
स्वभावार्मदवं च ॥ १८ ॥
सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक एवं सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति ग्रंथ में 'च' शब्द की व्याख्या नहीं है ।
तत्त्वार्थवृत्ति - चकारः परस्परसमुच्चये । तेनायमर्थःन केवलम् अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्यायुष आस्रवो भवति किं च स्वभावमार्दवत्वं च मानुषस्यायुष आस्रवो भवति । यद्येवं तर्हि अल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवं च मानुषस्यायुषः इत्येवमेकं सूत्रं किमिति न कृतम् ? सत्यमेवैतत्, किन्तु पृथग्योगविधानम् उत्तरायुरात्रवसम्बन्धार्थम्। तेनायमर्थः-स्वभावमार्दवं, सरागसंयमादिकं च देवायुरास्त्रवो भवतीति वेदितव्यम् ।
अर्थ- 'च' शब्द परस्पर समुच्चय के लिए है, इससे
अर्थ- सूत्र में 'च' शब्द आया है उससे अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन सम्बन्धी क्रोधादि कषायों के सोलह भेदों के निमित्त से होनेवाले अन्तर्भेदों का समुच्चय होता है । वे भेद चार सौ बत्तीस हैं, ये सब भेद हिंसा की अपेक्षा समझना, इसी प्रकार असत्य, चोरी आदि की अपेक्षा चार सौ बत्तीस, चार सौ बत्तीस भेद जीवाधिकरण के जानने चाहिये ।
सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति- 'च' शब्दोऽनन्तानुबन्ध्य- यह अर्थ है कि केवल अल्पारम्भ, अल्प- परिग्रह का भाव प्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनषोडशकषायभेदकृताऽन्तर्भेद- मनुष्य-आयु के आस्रव का कारण नहीं है, किन्तु स्वभावमार्दव समुच्चयार्थः । तेन द्वात्रिंशदुत्तरचतुःशतगणनास्तद्विकल्पा का भाव भी मनुष्य आयु के आस्रव का कारण है। शंकाहिंसापेक्षया वेदितव्याः । तद्वदनृताद्यपेक्षयापि योज्याः । यदि ऐसा है, तो एक ही सूत्र क्यों नहीं किया? समाधानआपकी बात सत्य है फिर भी पृथक्प्रयोग का विधान दूसरी अर्थात् देवायु के आस्रव का सम्बन्ध करने के लिए है । इससे यह अर्थ है- स्वभाव की मृदुता और सरागसंयम आदि देव-आयु के आस्रव होते हैं यह जानना चाहिए । श्लोकवार्तिक
तत्त्वार्थवृत्ति - चकार किमर्थम् ? अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनकषायभेदकृतान्तर्भेद
स्वभावमार्दवं चेति हेत्वंतरसमुच्चयः । मानुषस्यायुषस्तद्धि मिश्रध्यानोपपादिकम् ॥
समुच्चयार्थः ।
अर्थ- सूत्र में च शब्द किसलिए है? अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन कषायों के अवान्तर भेदों का समुच्चय करने के लिए दिया है।
अर्थ- 'स्वभावमार्दवं च' इस सूत्र में आये 'च' शब्द का अर्थ समुच्चय है । इस कारण मनुष्य- आयुसम्बन्धी आयु के आस्रावक हो रहे दूसरे हेतु का भी समुच्चय हो जाता है । अथवा स्वभावमृदुतासे मनुष्यआयु और देव-आयु का आस्रव होना समझा दिया जाता है। साथ ही विनीतस्वभाव, प्रकृतिभद्रता, संतोष, अनसूया, अल्पभावार्थ- जीवाधिकरण के १०८ भेद होते हैं, इसमें । संक्लेश, गुरुदेवतापूजा आदि कारणों का भी संग्रह हो जाता
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। जब कि वह स्वभावमृदुपना शुभाशुभ ध्यानों से मिश्रित हो रहे ध्यान से अन्वित होकर उपज रहा हो, तब मनुष्यआयु का आस्रावक हो जायेगा, अन्यथा नहीं ।
भावार्थ- स्वभाव की मृदुता से मनुष्य आयु एवं देव आयु दोनों का आस्रव होता है, इसी का समुच्चय करने की के लिए सूत्र में 'च' शब्द दिया गया है। निः शीलव्रतत्वं च सर्वेषाम् ॥ ९ ॥
सर्वार्थसिद्धि- 'च' शब्दोऽधिकृतसमुच्चयार्थः । अल्पारम्भपरिग्रहत्वं च निःशीलव्रतत्वं च ।
अर्थ- सूत्र में जो 'च' शब्द है वह अधिकार प्राप्त आस्रवों के समुच्चय के लिए है, इससे यह अर्थ निकलता है कि अल्प आरम्भ और अल्पपरिग्रहरूप भाव तथा शील और व्रतरहित होना सब आयुओं के आस्रव हैं।
राजवार्तिक- 'च' शब्दोऽधिकृतसमुच्चयार्थः । १ । अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्यायुषः निःशीलव्रतत्वं चेत्यधिकृतसमुच्चयार्थश्चशब्दः क्रियते ।
अर्थ- 'च' शब्द समुच्चय ग्रहण के लिए है । 'च' शब्द से प्रयोजन यह है कि अल्पारम्भ और अल्पपरिग्रहत्व भी मनुष्य आयु के आस्रव के कारण हैं तथा निःशीलत्व और व्रतरहितत्व भी मनुष्य आयु के आस्रव के कारण हैं। इस अधिकार प्राप्त मनुष्यायु के समुच्चय के लिए चकार ग्रहण किया है।
तत्त्वार्थवृत्ति - चकारादल्पारम्भपरिग्रहत्वं च सर्वेषां नारकतिर्यड्मनुष्यदेवानाम् आयुर्ष आस्रवो भवति ।
अर्थ- सूत्र में आये चकार से अल्पारम्भ और अल्पपरिग्रह का भाव नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव सभी आयुओं के आस्रव का कारण है।
सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति- 'च' शब्दोऽधिकृतस्याऽल्पारम्भपरिग्रहत्वस्य समुच्चयार्थः । ततो न केवलं निःशीलव्रतत्वं मानुषस्यास्स्रवः, किं तर्ह्यल्पारम्भपिरिग्रहत्वं चेत्यर्थः सिद्धो भवति ।
अर्थ- 'च' शब्द से अधिकृत अल्प आरम्भ और अल्पपरिग्रह का समुच्चय होता है। इससे यह सिद्ध होता है कि केवल नि:शीलव्रतत्व ही मनुष्यायु का आस्रव नहीं है, अपितु अल्प आरम्भ और अल्पपरिग्रह भी हैं ।
श्लोकवार्तिक- 'च' शब्दोऽधिकृतसमुच्चयार्थः । अर्थ- सूत्र में कहा गया 'च' शब्द तो अधिकार
और अल्पपरिग्रह भी चारों आयु के आस्रव का कारण है । इसी के समुच्चय के लिए सूत्र में 'च' शब्द दिया है। सम्यक्त्वं च ॥ २१॥
सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक व तत्त्वार्थवृत्ति में 'च' शब्द व्याख्या नहीं है ।
श्लोकवार्तिक- किमर्थश्चशब्द इति चेदुच्यतेसम्यक्त्वं चेति तद्धेतु समुच्चयवचोबलात् । तस्यैकस्यापि देवायुः कारणत्वविनिश्चयः ॥ १॥ अर्थ- सूत्र में 'च' शब्द कहने का प्रयोजन क्या है? ऐसा पूछने पर कहते हैं- 'सम्यक्त्वं च' इस सूत्र में उस देव - आयु के हेतुओं का समुच्चय करनेवाले वचन के बल से उस एक सम्यक्त्व को भी देव आयु के कारणपन का विशेषतया निश्चत हो जाता है। अर्थात् 'च' शब्द से सराग संयम आदि का समुच्चय हो जाता है।
सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति - 'च शब्दः पूर्वोक्तसमुच्चयार्थ।' अविशेषाभिधानेऽप्यत्र सौधर्मादिविशेष-गतिर्भवति पृथग्योगकरणसामर्थ्यात् ।
अर्थ- सूत्र में 'च' शब्द पूर्वोक्त समुच्चय के लिए है। सामान्य से देवायु का आस्रव करने पर भी पृथक् सूत्र करने से सिद्ध होता है कि सम्यक्त्व सौधर्म आदि वैमानिक देवायु का आस्रव है ।
भावार्थ- सम्यक्त्वसहित जीव यदि देव आयु का बन्ध करते हैं, तो वे नियम से वैमानिक देवों में उत्पन्न होते हैं एवं सरागसंयम आदि के धारक जीव भी वैमानिक देवों में उत्पन्न होते हैं, इन्हीं सब का समुच्चय करने के लिए सूत्र में 'च' शब्द दिया गया है।
योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः ॥ २२ ॥ सर्वार्थसिद्धि - 'च' शब्देन मिथ्यादर्शनपैशुन्यास्थिरचित्तताकूटमानतुलाकरण- परनिन्दात्मप्रशंसादिः समुच्चीयते।
अर्थ- सूत्र में आये 'च' पद से मिथ्यादर्शन, चुगलखोरी, चित्त का स्थिर न रहना, मापने और तौलने के बाँट घट-बढ़ रखना, दूसरों की निन्दा करना और अपनी प्रशंसा करना आदि आस्रवों का समुच्चय होता है ।
राजवार्तिक- 'च' शब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थः । ४ । च शब्दः क्रियते अनुक्तास्त्रवस्य समुच्चयार्थः कः पुनरसौ ? मिथ्यादर्शन- पिशुनताऽस्थिरचित्तस्वभावता - कूटमानतुलाकरण- सुवर्णमणिरत्नाद्यनुकृति कुटिलसाक्षित्वाऽड्गो
प्राप्त अल्पारम्भपरिग्रहत्व का समुच्चय करने के लिए है । पाड्गच्यावन-वर्णगंधरसस्पर्शान्यथा-भावन-यन्त्रपंजरक्रिया भावार्थ- नि:शील और व्रत रहित के साथ अल्पारम्भ । द्रव्यान्तरविषयसम्बन्धनिकृतिभूयिष्ठता-परिनिन्दात्मप्रशंसा
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ऽनृतवचन-परद्रव्यादान-महारम्भ-परिग्रह-उज्ज्वलवेषरूप- | परिणामों के समुच्चय के लिए दिया है यथा- मिथ्यादर्शन, मद-परुषासभ्यप्रलाप-आक्रोश-मौखर्य-सौभाग्योपयोग- | चुगली, अस्थिरचित्तता, झूठे माप तौल रखना, पर की निन्दा वशी-करणप्रयोगपरकुतूहलोत्पादनाऽलंकारादर-चैत्य- | और अपनी प्रशंसा करना इत्यादि सर्व ही अशुभ नाम कर्म प्रदेशगन्ध-माल्यधूपादिमोषणविलम्बनोपहासइष्टि- के आस्रव जानने चाहिये। कापाकदवाग्नि-प्रयोगप्रतिमायतनप्रतिश्रयारामोद्यानवि- तत्त्वार्थवृत्ति- चकारात् मिथ्यादर्शनं, पिशुनतायां नाशन-तीव्रक्रोधमानमायालोभपापकर्मोपजीवनादिलक्षणः। स्थिरचित्तत्वं, कूटमानतुलाकरणं, कूटसाक्षित्वभरणम्,
अर्थ- 'च' शब्द अनुक्त के समुच्चय के लिए है। | परनिन्दनम्, आत्मप्रशंसनम्, परद्रव्यग्रहणम्, असत्यभाषणम्, ४। अनुक्त अशुभनामकर्म के आस्रव का संग्रह करने के महारम्भमहापरिग्रहत्वम्, सदोज्ज्वलवेषत्वम् सूरूपतामदः, लिए 'च' शब्द का प्रयोग किया गया है। शंका- अनुक्त | परुषभाषणम, असदस्यप्रलपनम, आक्रोशविधानम, अशुभनाम कर्म के आस्रव के कारण कौन-कौन हैं? | उपयोगेन सौभाग्योत्पादनम्, चूर्णादिप्रयोगेण परवशीकरणम समाधान- मिथ्यादर्शन, पिशुनता, अस्थिरचित्तस्वभावता, मंत्रादिप्रयोगेण परकुतूहलोत्पादनम्, देवगुर्वादिपूजामिषेकटमानतलाकरण (तराज बाँट हीनाधिक रखना), कृत्रिम | णगन्ध-धूपपुष्पाद्यानयनम्, परविडम्बनम्, उपहास्यकरणम् सुवर्ण, मणि, रत्न आदि बनाना, झूठी साक्षी देना, अंगोपांग इष्टोच्चय-पाचनम्, दावानलप्रदानम्, प्रतिमाभंजनम्, का छेदन करना, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श का विपरीतपना | चैत्यायतन-विध्वंसनम्, आरामखण्डनादिकम्, तीव्रक्रोधअर्थात् स्वरूप विकृत कर देना, यन्त्र, पिंजरा आदि पीड़ाकारक
मानमाया-लोभत्वम्, पापकर्मोपजीवित्वं चेत्यादयोपदार्थ बनाना, एक द्रव्य में दूसरे द्रव्य का विषय सम्बन्ध | ऽशुभनामास्त्रवा भवन्ति। करना, माया की बहुलता, परनिन्दा, आत्मप्रशंसा,
अर्थ- सूत्र में आये 'च' शब्द से मिथ्यादर्शन, मिथ्याभाषण, परद्रव्यहरण, महारम्भ, महापरिग्रह, उज्जवलवेष, पिशुनता (चुगली करना), अस्थिरचित्तता, झूठे बाँट तराजू और रूप का घमंड करना, कठोर और असभ्य भाषण
रखना, झूठी साक्षी (गवाही) देना, परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, करना, क्रोधभाव रखने और अधिक बकवाद करने में परद्रव्यग्रहण, असत्यभाषण, बहुत आरम्भ, बहुत परिग्रह, अपने सौभाग्य का उपयोग करना, दूसरों को वश में करने | सदा उज्ज्वल वेष, रूपमद, परुषभाषण (असभ्यभाषण), के प्रयोग करना, दूसरे में कुतूहल उत्पन्न करना, बढ़िया- | असद् का प्रलपन (झूठी बकवास), आक्रोश, उपयोग बढ़िया आभूषण पहनने की चाह रखना, जिनमन्दिर- | पूर्वक सौभाग्योत्पादन, चूर्ण आदि के प्रयोग से दूसरों को चैत्यालय से गन्ध, माल्य धूप आदि को चुरा लेना, किसी | वश में करना, मंत्र आदि के प्रयोग से दूसरों को कुतूहल की विडम्बना करना, उपहास करना, ईंट का भट्टा लगाना, |
| उत्पन्न करना, देव गुरु आदि की पूजा के बहाने से गन्ध, वन में अग्नि लगाना. प्रतिमा का. प्रतिमा के आयतन का | धूप, पुष्प आदि लाना, दूसरों की विडम्बना (परेशान) अर्थात चैत्यालय का और जिनकी छाया में विश्राम लिया | करना, उपहास करना, ईंट पकाना, दावानल (जंगल की जाये ऐसे बाग-बगीचों का विनाश करना, तीव्र क्रोध, मान,
अग्नि) प्रज्वलित करना, प्रतिमा तोड़ना, जिनालय विध्वंस माया, और लोभ करना तथा पापकर्म जिसमें हो ऐसी
करना, बाग उजाड़ना तीव्र क्रोध, मान, माया और लोभ, आजीविका करना इत्यादि बातों से भी अशभनामकर्म का | पाप कर्मों से आजीविका करना आदि अशुभ नाम कर्म आस्रव होता है।
के आस्रव हैं। श्लोकवार्तिक- 'च' शब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थः तेन
भावार्थ- मिथ्यादर्शन, चुगलखोरी, अस्थिर-चित्त तज्जातीयाशेषपरिणामपरिग्रहः।।
रहना, परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, अंगोपांग का छेद करना, अर्थ- सूत्र में आया 'च' शब्द अनुक्त के समुच्चय
आदि योगों की कुटिलता और विसंवादवाले सभी प्रकार के लिये है, जिससे योगवक्रता और विसंवादन की जाति- के परिणामों का ग्रहण करने लिए सूत्र में चकार पद दिया वाले सम्पूर्ण परिणामों का ग्रहण हो जाता है। गया है अर्थात् ये सब भी अशुभ नाम के आस्रव के कारण
सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति- 'च'शब्दोऽनुक्तस्यैवंविधस्य | परिणामस्य समुच्चयार्थः। स च मिथ्यादर्शनपिशुन- परात्मनिंदाप्रशंसे सदसद्-गुणोच्छादनोद्भावने च ताऽस्थिरचित्तताकुटमानतलाकरणपरनिन्दात्मप्रशंसादिः। [नीचैगोत्रस्य॥ २५॥
अर्थ- सूत्र में 'च' शब्द इसी तरह के अनुक्त | सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक व श्लोकवार्तिक में 'च' 18 सितम्बर 2009 जिनभाषित
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शब्द की व्याख्या नहीं की है।
। समुच्चयार्थः। . सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति- 'च' शब्दोऽनुक्ततद्विस्तर- | अर्थ- 'च' शब्द अनुक्त के विस्तार के समुच्चय समुच्चयार्थः।
के लिए कहा गया है। अर्थ- सूत्र में आया 'च' शब्द, जो नहीं कहे हैं तत्त्वार्थवृत्ति- चकारात् पूर्वसूत्रोक्तचकारगृहीतउन आस्रवों का ग्रहण करने के लिए है।
विपर्ययश्चात्र गृह्यते। तथाहितत्त्वार्थवृत्ति-चकाराज्जातिमदः कुलमदः बलमदः ज्ञानं पूजां कुलं जातिं बलमृद्धिं तपोवपुः। रूपमदः श्रुतमदः आज्ञामदः ऐश्वर्यमदः तपोमदश्चेत्य
अष्टावाश्रित्य मानित्वं, स्मयमाहुर्गतस्मयाः॥ ष्टमदाः, परेषामपमाननम्, परोत्प्रहसनम्, परप्रतिवादनम्, इति श्लोकोक्ताष्टमदपरिहरणम् परेषामनपमाननम्, गुरूणां विभेदकरणम्, गुरूणामस्थानदानम्, गुरूणामव- | अनुत्प्रहसनम्, अपरीवादनम्, गुरूणामपरिभवनमनुट्टनं, माननम्, गुरूणां निर्भर्त्सनम्, गुरूणामजल्प्योटनम् गुरूणां गुणख्यापनम्, अभेदविधानं स्थानापर्ण, सन्माननं, मृदुस्तुतेरकरणम्, गुरूणामनभ्युत्थानं चेत्यादीनि नीचैर्गोत्र- | भाषणं चाटुभाषणं चेत्यादयः उच्चैर्गोत्रस्यास्त्रवा भवन्ति। स्यास्त्रवा भवन्ति।
अर्थ- चकार से पूर्व सूत्र में कहे चकार से गृहीत अर्थ- सूत्र मे आये 'च' शब्द से जातिमद, कुलमद, | विपर्यय का यहाँ ग्रहण करना चाहिए। तथाहि-ज्ञान, पूजा, बलमद, रूपमद, श्रुतमद, आज्ञामद, ऐश्वर्यमद और तपमद | कुल, जाति, बल, ऋद्धि तप और शरीर इन आठ का आश्रय ये आठ मद, दूसरों का अपमान, दूसरों की हँसी करना, | लेकर गर्वित होने को गर्व से रहित गणधरादिक मद कहते दूसरों का परिवादन, गुरुओं का विभेदन (मतभेद उत्पन्न) | हैं। इस प्रकार श्लोक में कहे गये अष्ट प्रकार के मदों करना, गुरुओं को स्थान न देना, गुरुओं का अपमान, गुरुओं का परिहार करना, दूसरों का अपमान न करना, हँसी न की भर्त्सना, गुरुओं से असभ्य वचन कहना, गुरुओं की | करना, परिवाद न करना, गुरुओं का तिरस्कार नहीं करना, स्तुति न करना, और गुरुओं को देखकर खड़े नहीं होना | गुरुओं से टकराना नहीं, गुरुओं के गुणों को कहना, भेद आदि नीच गोत्र के आस्रव होते हैं।
को नहीं कहना, स्थान समर्पित करना, सम्मान करना, भावार्थ- ज्ञान आदि का मद करने, दूसरों का | मुदुभाषण करना और प्रियभाषण करना आदि से उच्चगोत्र अपमान तथा हँसी करने से एवं गुरुओं का तिरस्कार करने | का आस्रव होता है। से भी नीच गोत्र का आस्रव होता है। इसी के समुच्चय भावार्थ- ज्ञानादि का गर्व नहीं करना, दूसरों का के लिए चकार पद दिया है।
अपमान नहीं करना, दूसरों की हँसी न करना तथा गुरुओं तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्त्यनुत्सेको चोत्तरस्य॥ २६॥ | का तिरस्कार नहीं करना उनकी विनय करना ये सब भी
सर्वार्थसिद्धि राजवार्तिक व श्लोकवार्तिक में 'च' | उच्च गोत्र के आस्रव में कारण हैं। शब्द की व्याख्या नहीं की है।
श्री दि० जैन श्रमण संस्कृति संस्थान, सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति- 'च' शब्दोऽनुक्ततद्विस्तर
सांगानेर, जयपुर (राज.)
वाणीभूषण पं० बिहारी लाल मोदी का देहावसान __ बड़ा मलहरा। जैन जगत के सुपसिद्ध विद्वान् कवि, लेखक तथा शंका समाधान कर्ता पं० बिहारीलाल जी मोदी का ७९ वर्ष की अवस्था में निधन हो गया है। आपने अनेक लेखों, कविताओं के साथ-साथ नियमसार का पद्यानुवाद किया है। आप प्रसिद्ध विद्वान् डॉ० नरेन्द्र कुमार जैन सनावद के श्वसुर जी थे। श्री बिहारीलाल मोदी के देहावसान पर म.प्र. की विधायक रेखा यादव, पूर्व विधायक कपूरचन्द्र घुवारा, विद्वत् परिषद के पूर्व अध्यक्ष डॉ० रमेश चन्द्र जैन मंत्री, डॉ० सुरेन्द्र जैन भारती बुरहानपुर, श्री शील डेवडिया बड़ा मलहरा सहित अनेक समाजसेवियों, विद्वानों तथा राजनैतिक कार्यकर्ताओं ने गहरा दुःख व्यक्त करते हुए श्रद्धांजलि दी।
नरेन्द्रकुमार जैन
सितम्बर 2009 जिनभाषित 19
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अतिशय क्षेत्र मदनपुर का वास्तु वैभव
प्रतिष्ठाचार्य पं० विमलकुमार जैन सोरया
विन्ध्याचल सरणि में २५-७६ अक्षांश और देशान्तर । प्रस्तुत कर रहे हैं। रेखाओं के मध्य उत्तरप्रदेश के झाँसी जिले में दक्षिण परिचय- जब इस ग्राम की सीमा में प्रवेश करते पूर्व के कोने में पू० क्षु० चिदानन्द जी के चातुर्मास का हैं, तो एक विशाल नाला है, जो पश्चिम से पूर्व की स्थान मंदिरों की नगरी मड़ावरा है, जहाँ एक छोटे से | ओर बहता है। इसी के पास से पूर्व की ओर एक नगर में ११ विशाल गगनचुम्बी जिनालय एवं ९ देवालय | शासकीय विश्रामगृह है, आगे चलने पर दायें हाथ की
अपनी गौरव गरिमा को लिये खड़े हैं, तथा धर्म की ओर आरक्षी केन्द्र का कार्यालय है। आगे दक्षिण पूर्व निर्मल छाया में संसारभ्रमित संतप्त प्राणियों को अक्षय की ओर एक प्राचीन तालाब का बाँध सामने दिखता सुख की प्राप्ति के हेतु संकेत रूप में बुलाते हुए प्रतीत | है। और उसी से लगे हुए शान्त उत्तुंग पर्वतों के अंचल होते हैं। इन मंदिरों के सातिशय दर्शन करने के बाद | में दो विशाल भवन दिखते हैं, जो आल्हा-ऊदल की ऐसी जिज्ञासा का जन्म होता है, कि क्या इनके समीप | बैठक के नाम से ख्यात हैं। कोई पुरातन सांस्कृतिक भग्नावशेष नहीं होंगे? ।
ये दोनों भवन पुरातत्त्व विभाग के अधिकार में इस जिज्ञासा की परितृप्ति के लिए समीपवर्ती | हैं। मदनपुर ग्राम के पूर्व दक्षिण में स्थित एक ऊँचे कतिपय खण्डहरों की झलक पर्याप्त होगी। स्थान पर जमीन तल से १० फीट पत्थरों की कुर्सी
यहाँ की अतिशयता के विषय में अनेक ऐतिहासिक | पर, इनका निर्माण किया गया है। पहले १० खम्बों से महत्त्वपूर्ण कथानक दन्तकथाओं के रूप में प्रचलित हैं, | युक्त एक चौकोर खुली बैठक है, जिसमें दक्षिण उत्तर जो यहाँ की अपरिमेय अतिशयता को आलोकित किए | की ओर लगे पत्थरों पर शिलालेख अंकित हैं, जो अस्पष्टता हैं। परिणामतः यहाँ प्रतिवर्ष माघ माह में जैनों का वार्षिक के कारण आसानी से नहीं पढे जा सकते। इसके दक्षिण मेला प्राचीन ऋषभदेव के विशाल मन्दिर के समीप लगता | में लगभग १० फीट की दूरी पर इसी प्रकार का दूसरा है। आज भी श्रद्धालुजन अतिशय क्षेत्र के रूप में इसकी भवन बना है, जिसमें ३ खण्ड हैं। मध्य में पूर्व-पश्चिम वंदना कर अपने को धन्य कर रहे हैं।
की ओर से खुला एक कमरा है, जो दक्षिण व उत्तर मदनपुर- मड़ावरा ग्राम से दक्षिण की ओर १९ | की ओर बने हुए गृहों से संबंधित है। १७ फीट चौड़े कि.मी. दूरी पर मदनपुर नाम का ऐतिहासिक ग्राम है। | और १३% फीट लम्बाई से इन गृहों का निर्माण है। यह ९वीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक की वास्तुकला | प्रत्येक गृह के ऊपर छत के रूप में एक ही पत्थर का जीता-जागता निदर्शन है। इस क्षेत्र में जहाँ एक ओर का उपयोग किया गया है जो कि १३/ फीट लम्बा पाषाणकला के अवशेष बिखरे हैं, वहीं दूसरी ओर इस | ८% फीट चौड़ा और १० इंच मोटा है। इस पत्थर पर क्षेत्र की भूमि में अनेक धातुओं के भण्डार भी हैं, जिनके | सुन्दर आकार की पच्चीकारी से युक्त बेल, फूल व खनन से आज यह अंचल विकसित हो सकेगा। | देवी-देवता के रूप बने हुए हैं।
इस स्थान से ५ मील दूर उत्तर में सोंरई नामक | अगल-बगल की बैठकों में तीन तरफ १० फीट प्राचीन ऐतिहासिक ग्राम है। यहाँ प्राचीन गढ़ी, उन्नत इंच ऊँचे, २ फीट ८ इंच चौड़े और १० फीट लम्बे मन्दिर आदि हैं। गत १० वर्षों के लम्बे अनुसन्धान के | बेंचनुमा पत्थर पड़े हैं। इन पत्थरों में खाँचा देकर १ बाद इस परिणाम पर पहुँचे हैं, कि इस परिक्षेत्र में विपुल | फीट १० इंच ऊँची, ३ इंच मोटी और लगभग ५ फीट मात्रा में ताँबे व स्वर्ण धातु के भण्डार हैं। लम्बे पत्थरों की पीठिका (तकिया) बाहर की दीवालों
सरई ग्राम से ४ मील उत्तर की ओर यहाँ कला | के समानान्तर लगी है। का पुरातन तीर्थ मदनपुर है, जहाँ की ऐतिहासिकता | मध्य के गृह की चारों दिशाओं में तीन-तीन खम्भे कलात्मकता व प्राचीनता का यथार्थ चित्रण आपके सामने । खडे हैं। पर्व दिशा से इन बैठकों में आने के लिए
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१० सीढ़ियाँ चढ़नी होती हैं। इन कमरों के सभी खम्भे | शताब्दी की हैं। ६ प्रतिमाएँ धातु की हैं। जिनमें २ सोलहवीं, विशालकाय और तत्कालीन पाषाण कलाकृति से अलंकृत | १ सत्रहवीं एवं ३ अठारहवीं शताब्दी की हैं। सभी पर हैं, प्रत्येक गृह का एक खम्भा एक दूसरे के रूप, आकार | प्रशस्तियाँ अंकित हैं। मन्दिर में पूर्ण अव्यवस्था व जीर्णमें समानता लिए हुए है। बीच के गृह के चारों पायों | शीर्णता के कारण रौनक नाम मात्र की नहीं है। अब पर प्रशस्तियाँ अंकित हैं। इन भवनों के प्रत्येक पत्थर | मन्दिर का जीर्णोद्धार किया गया है तथा चौबीस प्रतिमाएँ पर तत्कालीन वास्तुकला के कलात्मक निदर्शन हैं। | विराजमान की गई हैं।
इन भवनों के चारों तरफ बड़े विशालकाय नाना पर्वत मन्दिर प्रकार की कलाकृति युक्त अनेक पत्थर पड़े हैं, जिनको १. पचमढ़- ग्राम से उत्तर की ओर पर्वत श्रेणी मिलाकर एक ऐसा ही भवन बनाया जा सकता है। दूसरे | पर लगभग ५०० मीटर की दूरी पर यह स्थान है। जहाँ बैठक के पश्चिम में ३ मूर्तियाँ नृत्य करती हुईं अंकित | पर एक विशाल चबूतरे पर पाँच मढ़ (मन्दिर) बने हैं, इनके नीचे पूर्व की ओर पत्थर की खान है। संभवतः | हुए हैं। चबूतरे के चारों कोनों पर चार एवं एक बीच इन भवनों में लगे पत्थर यहीं से निकाले गये होंगे। | में बना हुआ है। प्रत्येक मढ़ में एक-एक खड्गासन
इतिहास- ग्राम में प्रवेश करते हैं, तो देखते हैं | प्रतिमा देशी पत्थर की ५-५ फीट की ऊँची दीवाल कि अनेक भवन आज भी अतीत के गीत मूकभाषा से जोड़कर खड़ी की गई है। कुछ अज्ञान व्यक्तियों द्वारा में गा रहे हैं। ग्राम में एक सुन्दर वैष्णव मंदिर मिलता | उन पर फैंके गये पत्थरों के कारण शरीर पर निशान है, इसके बाद दीवान परिवार का निवास स्थल है। इनके | बने हुए हैं। कहीं-कहीं अंगभंग भी हो गया है। प्रत्येक पूर्वज दीवान प्यारेजू तत्कालीन महाराजा वखतवली सिंह | मूर्ति पर शिलालेख अंकित है। २ मूर्तियाँ संवत् १३१२ के सेनानी थे। सन् १८५८ में गदर के समय अंग्रेजों | की हैं, एक इससे भी प्राचीन है। जिसका संवत् पढ़ने के कर्नल हफरोज ने शाहगढ़ नरेश राजा वखतवली सिंह | में नहीं आया, शेष २ सं० १६१८ की हैं। चारों मढ़ों पर इस ओर से आक्रमण किया था। दीवान प्यारेजू के | की ऊँचाई १५ फीट व बीच के मढ़ की ऊँचाई २० पौत्र दीवान गजराज सिंह प्राचीन पुरपट्टन पर बहुत अनुरक्त | फीट है। सभी का मुख पूर्व की ओर है। इन मूर्तियों हैं। और समाज को इनके जीणोद्धार के लिए प्रेरित करते | के जीर्णोद्धार का कार्य सन् १९८६ में कराया गया तथा रहते हैं।
सन् १९८९ में प्राणप्रतिष्ठा कराकर पूजन योग्य हुईं। जैन मन्दिर- मध्य ग्राम में एक शिखरबन्द विशाल | २. शान्तिनाथ मंदिर- जमीन तल से ३ फीट पुरातन जैन मंदिर है। यह जीर्णशीर्ण हो गया है। अन्दर ऊँची आसन पर एक विशालकाय शान्तिनाथ का मन्दिर २४ पत्थर के खम्भों पर आधारित पूरे मंदिर की छत | है, जो अहारक्षेत्रीय पुरातन शान्तिनाथ के एवं देवगढ़ की है, मध्य के छह खम्भों के बीच दीवालें खड़ी करके | पहाड़ी पर स्थित शान्तिनाथ मंदिर की स्मृति कराता है। मंदिर का गर्भालय बना हुआ है। गर्भालय के ऊपर मंदिर | यह २८ फीट ऊँचा, १८ फीट लम्बा व १३ फीट चौड़ा की लगभग ४० फीट ऊँची शिखर बनी हुई है। वेदी | है। मंदिर के शिखर में एक सुन्दर कोठरी है, मंदिर प्राचीन है। जिसमें किसी प्रकार का नवनिर्माण नहीं किया | से लगा हुआ मूलद्वार के सामने १३ वर्ग फुट का एक गया है। उत्तर में एक द्वार है, जिसे बंद कर दिया गया | चबूतरा है, जिस पर पत्थर के पायों पर बरामदानुमा है। दक्षिण में एक द्वार है, जिसके आगे १० खम्भों की | बना हुआ है। मंदिर का मुख पश्चिम की तरफ पचमढ़ों खुली दालान है। मंदिर के अंदर की परिक्रमा संकीर्ण की ओर है। मंदिर में प्रवेश करने के लिए ८ फुट व अन्धकारमय है। मंदिर के आस-पास अनेक खण्डहर | ऊँचा, ४ फुट चौड़ा द्वार है। द्वार के ऊपरी भाग में भवन हैं।
| एक पद्मासन मूर्ति बैठी हुई है। इस द्वार से प्रवेश कर मंदिर में ६ सफेद पत्थर की पद्मासन मूर्तियाँ हैं।। ४ फुट गहरे मंदिर का गर्भालय बना है। इसमें ३ जिसमें सं० १५४८ की एक प्रतिमा पद्मप्रभु की है। एक मूर्तियाँ खड्गासन ध्यानस्थ मुद्रा में अष्ट प्रातिहार्य युक्त सं० १५९५ वैशाख शुक्ला ३ को प्रतिष्ठापित सहस्रफणी | खड़ी हैं। मध्य में १० फुट उत्तुंग भगवान् शान्ति प्रभु पार्श्वनाथ की प्रतिमा है। शेष २ सत्रहवीं व २ अठारहवीं | की खण्डित प्रतिमा है, जो सं. १२ सौ की है। मध्य
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है।
मूर्ति के दाएँ बाएँ ७ फीट उत्तुंग क्रमशः (संवभतः) । है, जिसका १ फीट ८ इंच का दिव्य कलात्मक आसन महावीर व अरहनाथ की मूर्तियाँ हैं । सन् १९७८ में खण्डित | है, उसके नीचे १ वर्ग फुट का प्रशस्ति-शिलालेख है। प्रतिमाओं के स्थान पर नवीन 'कुन्थुनाथ, अरहनाथ की शिलालेख से स्पष्ट है कि इसकी प्रतिष्ठा फागुन सुदि प्रतिमाएँ स्थापित की गईं। गर्भालय-फर्श अत्यन्त छिन्न- | १० संवत् १२०४ को हुई थी। इसके दायें-बायें ७-७ भिन्न हो गया है। इसमें विशालकाय दो मूर्तियों के धड़ | फीट की वर्द्धमान स्वामी की प्रतिमाएँ हैं। इनके चरणों पड़े थे। और इनके शिर मंदिर के बाहर पड़े हुए हैं। | के समीप २८-२८ फीट के ६ इन्द्र खड़े हैं। जो चमर एक २४ वर्गफुट का चौमुखी मेरु गर्भालय में रखा है | ढोरते दिखते हैं। मूर्तियों के हाथ खण्डित है। मूर्तियों मंदिर के उत्तर की ओर बाहर एक पत्थर पड़ा है, जिस | के ऊपर दीवाल में २८ वर्ग फीट की दो पद्मासन मूर्तियाँ पर १-१ फीट की १५ मूर्तियाँ बनी हैं। इस मंदिर से | लाल पत्थर में चस्पा हैं। कोई ३०० मीटर की दूरी पर एक खण्डित मढ़ मालिन चम्पो-मढ़ के दक्षिण की ओर एक अर्द्ध-भग्नावशेष बाबा का मंदिर नाम से है व आगे पर्वत पर चम्पोमढ़ दूसरा मढ़ है, जिसमें शान्ति, कुन्थु, अरह की मनोज्ञ
देशी पत्थर की प्रतिमाएँ खड़ी हैं। तीनों पर प्रशस्तियाँ ३.खण्डित मढ़- यह मढ़ आज भी अपनी खण्डित | हैं। मध्य की मूर्ति ८ फीट ऊँची शेष दो ५८ फीट अवस्था में टीले के रूप में पड़ा हुआ है। इसके अन्दर | ऊँची हैं। दोनों के हाथ टूटे हैं। मढ़ का छत धराशायी स्थित ७ फीट उत्तुंग खड़ी मूर्ति आज भी उस टीले हो जाने से बाहर से मूर्तियाँ, अर्ध देह के साथ दिखाई में घुटनों तक दबी हुई खड़ी है। .
देती हैं। इसके चारों तरफ ८फीट ऊँची मात्र दीवालें ४. चम्पो मढ़- खण्डित मढ़ से उत्तर की ओर | खड़ी हैं। मढ़ का गर्भालय ६ फुट चौड़ा व ६% फुट कोई दो फाग आगे चम्पो-मढ़ मिलता है। यह मढ़ | लम्बा है। प्रवेश द्वार यथावत् खड़ा है, जो आकार-प्रकार पुरातन कला युक्त मंदिर है, जो ११वीं शताब्दी की वास्तु- में ४/४३% है। ये दोनों मढ़ पर्वत श्रेणी के तल से कला का नमूना है। इस मढ़ के समीप जाने के लिए ४ फुट ऊँचे टीले पर निर्मित हैं। इस मढ़ के चारों बीहड़ जंगल की झाड़-झाड़ियों के बीच में होकर जाना | तरफ भयावह बीहड़ जंगल खड़ा है। पड़ता है। इस मढ़ के चारों ओर पत्थर व कटावदार | पुरपट्टन नगर तोरणद्वार एवं मूर्तियों के अवशेष पड़े हैं। इस मढ़ की | चम्पो-मढ़ के उत्तर-पूर्व की ओर अत्यंत घने जंगल कुर्सी जमीन तल से ४ फीट ऊँची है। मढ़ के आगे | के बीच लगभग २ फलाँग आगे अनेक भवनों के खण्डहर चार विशाल पायों पर खुली पत्थर की ऊँची दालान | मौजूद हैं, जिन्हें 'पुर-पट्टन' नाम से कहा जाता है। है। और इसके अलावा नाना तरह के देवी-देवताओं, | कथा इस प्रकार है- राजा मदनसेन इस नगर के ख्यातिपशु-पक्षियों, देवविमानों और मूर्तियों तथा तत्कालीन शैली | प्राप्त राजा थे। जिनकी आमोती-दामोती नाम की अत्यंत के कलात्मक कटाओं से युक्त एक विशाल भव्याकर्षक | रूपवती रानियाँ थी। कहा जाता है कि पाटन नगर में पत्थर का तोरणद्वार बना है। द्वार के ऊपरी हिस्से पर | ३६५ कोरी (जुलाहे) रहते थे, जो अत्यंत कुशल वस्त्र यक्ष-यक्षिणी व उनके साथ अनेक देवी-देवताओं की | निर्माता थे। वर्ष में एक कोरी दो साड़ियाँ तैयार करता मूर्तियाँ टंकित हैं। नीचे ३ पद्मासन जिन भगवान् की | था। और दोनों रानियाँ प्रतिदिन एक-एक साड़ी पहनती, मूर्तियाँ है। उनके तोरणद्वार के दोनों तरफ आस-पास | फिर गरीबों को दूसरे दिन दान कर देती थीं। इन कोरी में रास नृत्य करती हुईं देवी-देवियाँ व नीचे दोनों ओर | परिवारों की आजीविका का निर्वाह राज्य की ओर से ३-३ इन्द्र बने हैं। देहरी पर ४ दश्य ऐसे हैं, जिनमें | होता था। हाथी-सिंह के युद्ध का रूप दर्शाया गया है। इसका मुख | अक्षय प्रतिष्ठा और महानतम प्रतिभा के कारण पूर्व की ओर है। तोरणद्वार से अंदर की ओर ४% फीट | बुन्देलखण्ड में राजा मदनसेन और रानी आमोती-दामोती नीचे गर्भालय की जमीन है, जिसमें ४ जीना लगे हुए | की इतनी लोकप्रियता बढ़ी कि इनके नाम की बुन्देलखण्ड हैं, अष्ट प्रातिहार्य युक्त ३ मूर्तियाँ खड़ी हैं। बीच में | के घर-घर में आदर के साथ पूजा होने लगी। ७ फीट ७ इंच की भगवान् शान्तिनाथ की मूर्ति खड़ी । प्रतिवर्ष क्वार बदी अष्टमी के दिन महालक्ष्मी
22 सितम्बर 2009 जिनभाषित
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पूजन के समय पाटनपुर के राजा-रानियों का मंगल स्मरण | शिलालेख हैं, जिन पर फागुनसुदि (शुक्ला) ४ सं. १६८८ किया जाता है, जो इस प्रकार है
अंकित है। इसका मुख्य द्वार ६८ फुट ऊँचा और ४ “आमोती दामोती रानी पुरपट्टन गाँव मदनसेन | फुट चौड़ा है। से राजा वम्मन-वरुआ कहे कहानी, सुनो हो महालक्ष्मी इसके चारों तरफ ४ मढ़ होने के अवशेष टीलों देवी रानी, हमसे कहते तुमसे सुनते सोला बोल की एक | के रूप में पड़े हैं। दायेंवाला मढ़ धराशायी हो गया कहानी।"
है, परन्तु भगवान् ऋषभदेव की ८ फुट उत्तुंग खड्गासन संभवतः परपट्टन के उजड जाने पर मदनसेन | मूर्ति एक वृक्ष की जड़ के आधार से झुकी हुई खडी राजा की स्मृति में १७वीं शताब्दी के बाद नीचेवाली | है। सैकड़ों वर्षों की वर्षा और धूप के कारण इस पर बस्ती का नाम मदनपुर पड़ा। किन्तु पाटनपुर नगर की | कालख व काई जम गयी है, फिर भी मूर्ति सर्वांग सुन्दर संस्कृति, सभ्यता और धार्मिक परम्परा के प्रतीक भग्नावशेष | है। शेष तीन स्थानों की मूर्तियों के चिह्न नहीं है। सम्भव आज भी अक्षय खड़े हैं।
| है इन स्थानों की मूर्तियाँ इन मढ़ों के साथ धराशायी मोदी मढ़- पाटनपुर नगर के दक्षिण की ओर | दबी पड़ी हों। चम्पोमढ़ से कोई दो फलाँग की दूरी पर यह मोदी- | मढ़खेरा- मड़ावरा के दक्षिण-पश्चिम कोण में मढ़ है। इसका मुख्य द्वार पूर्व की ओर है। इसका शिखर | बम्हौरी ग्राम से लगा यह स्थान रोनी नदी के किनारे जीर्णशीर्ण व खण्डहर अवस्था में है। अंदर गर्भालय का | पर है। यहाँ अनेक प्राचीन कलामय मंदिर थे। जिनमें
हा है। मंदिर के आगे कोई छायावान | अब दो के भग्नावशेष और शेष के आसन के चिह्न वक्ष नहीं है। मढ की दीवाल ५ फट चौडी है और | मात्र रह गये हैं। यह स्थान भी अंचल का एक अनुपम इसकी ऊँचाई लगभग २५ फुट है। इसके अंदर ३ मूर्तियाँ | कला केन्द्र रहा होगा। हैं। मध्य में शान्तिनाथ की ७ फुट उत्तुंग एवं दायें
प्रधान सम्पादकबायें कुन्थु और अरह स्वामी की प्रतिमाएँ हैं। तीनों पर | 'वीतरागवाणी' मासिक टीकमगढ़ (म.प्र.)
काँच के घट हम
मनोज जैन 'मधुर'
काँच के घट हम, किसी दिन फूट जायेंगे।
मोह हो तो रूप अगणित, धारती है। उम्र के तट हम किसी दिन, टूट जायेंगे।
काल काठी काटती, दिन रात आरी। काल प्रत्यंचा लिए, कर में हमारी।
प्राण के शर देह धनु से, . छूट जायेंगे।
पुण्य का भ्रम बेल मद की, सींचता है। पाप भव के जाल में, मन खींचता है। नट विषय के क्या पता कब, लूट जायेंगे।
सी. एस.-१३, इन्दिरा कॉलोनी बाग उमराव दूल्हा, भोपाल-१०
देह नौका भव जलधि से, तारती है।
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जिज्ञासा-समाधान
पं० रतनलाल बैनाड़ा सा- अशभ तैजस का द्वीपायन मुनि का। उनके नेत्र के लाल-लाल तेज से आकाश ऐसा व्याप्त हो उदाहरण, तो हमको ज्ञात है। क्या कोई अन्य उदाहरण भी | गया मानों संध्या हो गई हो। क्रोध से तपे हुए मुनिराज शास्त्रों में मिलते हैं तो बतायें।
के समस्त शरीर में पसीने की बँदे निकल आईं और उनमें समाधान- अशुभ तैजस समुद्धात के कुछ अन्य | लोक का प्रतिबिम्ब पड़ने लगा। उन मुनिराज ने मुख से उदाहरण भी प्रथमानुयोग के शास्त्रों में उपलब्ध होते हैं। 'हा' शब्द का उच्चारण किया, उसी के साथ मुख से धुंआ जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं
निकला जो कालाग्नि के समान अत्यधिक कुटिल और भाव पाहुड गाथा-४९ की टीका में बाहु मुनि की | विशाल था। उस धुंए के साथ ऐसी ही निरन्तर अग्नि कथा दी गई है। जिसमें लिखा है, "पश्चात् एक बाहु नामक निकली जिसने ईधन के बिना ही समस्त देश को भस्म मुनि उस नगर में आए, लोगों ने उनको रोका भी कि इस | कर दिया। कुछ भी शेष नहीं बचा। महान् संवेग से युक्त नगर में राजा दुष्ट है, उसने पाँच सौ मुनियों को घानी में | मुनिराज ने चिरकाल से जो तप संचित कर रखा था. वह पिलवा दिया है, आपको भी वैसा ही करेगा। उन लोगों | क्रोधाग्नि में दग्ध हो गया। के वचन सुनकर बाहु मुनि रुष्ट हो गए, जिससे उन्होंने अन्य कोई और प्रमाण भी यदि पाठकों को किसी अशुभ तैजस समुद्घात के द्वारा राजा और मंत्री सहित | शास्त्र में पढ़ने को मिलें, तो अवश्य बताने का कष्ट करें। समस्त नगर को भस्म कर डाला और स्वयं भी मर गया। जिज्ञासा- श्री. ही आदि देवियाँ व्यंतर जाति की मरकर वह रौरव नामक सातवें नरक के बिल में जा पड़ा।" | हैं या अन्य जाति की?
समुद्रदत्तचरित्र (रचियता पं० भूरामल जी शास्त्री, समाधान- श्री, ही आदि देवियाँ व्यंतर जाति की आ० ज्ञानसागर जी महाराज) में पृष्ठ २७ पर इस प्रकार | देवियाँ हैं। आगम प्रमाण इस प्रकार हैंकहा है- "वज्रसेन के दिल पर इसका यह प्रभाव हुआ १. तिलोयपण्णत्ति अधिकार-४ में कहा हैकि उसने विरक्त होकर जिनदीक्षा ले ली और अंतरंग से | तद्दह-पउमस्सोवरि, पासादे चेट्ठदे य धिदिदेवी। नहीं, किन्तु ऊपर से उसने घोर तप करना शुरू कर दिया। बह-परिवारेहिं जुदा,णिरुवम-लावण्ण-संपुण्णा।।१७८५।। तप करते-करते वह एक बार स्तवकगुच्छ नगर के बाहर | इगि-पल्ल-पमाणाऊ, णाणाविह-रयण-भूसिय-सरीरा। आकर बैठा था कि, उसे देखकर क्रोध में भरे हुए लोगों | अइरम्मा बेंतरिया, सोहम्मिंदस्स सा देवी॥ १९८६॥ ने उसे लाठी वगैरह से मारना शुरू किया। इससे क्रोध, अर्थ- उस द्रह संबंधी कमल के ऊपर स्थित भवन में आकर उस मुनि ने अपने बाँये कंधे से निकले हुए | में बहुत परिवार से संयुक्त और अनुपम लावण्ययुक्त तैजस पुतले से, पहले उस सारे नगर को जलाया और बाद | धृतिदेवी निवास करती है॥ १७८५ ॥ में खुद भी उसी से भस्म होकर नरक गया।"
अर्थ- एक पल्य आयु की धारक और नाना प्रकार पद्म पुराण भाग-२, पृष्ठ-२०४ पर इस प्रकार कहा | के रत्नों से विभूषित शरीरवाली अति रमणीय यह व्यन्तरिणी है- "राजा की आज्ञा के अनुसार गणनायक के साथ-साथ | सौधर्मेन्द्र की देवकुमारी (आज्ञाकारिणी) है॥ १७८६॥ जितना मनियों का समह था. वह सब पापी मनुष्यों के श्री उत्तरपुराण पृष्ठ १८८ पर इसप्रकार कहा हैद्वारा घानी में पिलकर मृत्यु को प्राप्त हो गया। उस समय तेषामाद्येषु षट्सु स्युस्ताः श्री-ही-धृति-कीर्तयः। एक मुनि कहीं बाहर गये थे, जो लौटकर उसी नगरी की बद्धिलक्ष्मीश्च शक्रस्य व्यन्तर्यो वल्लभाङ्गनाः ।। २००॥ ओर आ रहे थे। उन्हें किसी दयालु मनुष्य ने यह कहकर अर्थ- इनमें से आदि के छह तालाबों में क्रम से रोका कि हे निर्ग्रन्थ! तुम, निर्ग्रन्थ अवस्था में नगरी में मत | श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ये इन्द्र की वल्लभा जाओ अन्यथा घानी में पेल दिए जाओगे। समस्त संघ की व्यंतर देवियाँ रहती हैं। मृत्यु के दुःख से वे मुनि क्षण भर के लिए निश्चल हो | ३.पं० माणिकचन्द्र जी कौन्देय ने तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक गए। उन निर्ग्रन्थ मुनिरूपी पर्वत की शांतिरूपी गुफा से के पंचमखण्ड के अध्याय-३ के सूत्र २० 'तन्निवासिन्योसैकड़ों दुखों से प्रेरित हुआ क्रोधरूपी सिंह बाहर निकला।। --' की हिन्दी टीका में श्री आदि देवियों को, व्यंतर जाति
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की तथा ब्रह्मचारिणी लिखा है।
नरकायु का बंध कर लिया है।" ४. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष भाग-३, पृष्ठ-६१४ पर श्री ३. श्री सकलकीर्ति विरचित 'वीरवर्धमानचरितम'. आदि देवियों को तथा अन्य दिक्कन्याओं को व्यंतर देवियों | ज्ञान तीर्थ प्रकाशन, पृष्ठ-२११ पर इसप्रकार कहा हैके अन्तर्गत लिया है।
"तीव्र मिथ्यात्वभाव के द्वारा आज से पूर्व ही तने इसी जिज्ञासा- राजा श्रेणिक को नरकाय का बन्ध कब | जीवन में हिंसादि पाँचों पापों के आचरण से, बहुत आरम्भ और क्यों हुआ? कृपया बतायें।
और परिग्रह से, अत्यन्त विषयासक्ति से और सत्य धर्म समाधान- राजा श्रेणिक के नरकायुबन्ध के कारणों | के बिना बौद्धों की भक्ति से नरकायु को बाँध लिया है।" के विषय में आचार्यों के दो मत उपलब्ध होते हैं। पहला | ४. श्री हरिवंशपुराण पृष्ठ-२२ (ज्ञानपीठ प्रकाशन) मत तो यह है कि उन्होंने जब यशोधर महाराज के गले | पर इस प्रकार कहा है- “राजा श्रेणिक ने पहिले, बहुत में सर्प डाला, तब उनको सप्तम नरक की आयु का बन्ध | आरम्भ और परिग्रह के कारण सातवें नरक की जो उत्कृष्ट हुआ था। तथा दूसरे मत के अनुसार अत्यधिक आरम्भ स्थिति बाँध रखी थी, उसे क्षायिक सम्यग्दर्शन के प्रभाव
और परिग्रह के कारण उनको नरकायु का बन्ध हुआ था। से प्रथम पृथ्वीसंबंधी ८४ हजार वर्ष की मध्यम स्थिति रूप प्रथम मत के कुछ प्रमाण इसप्रकार हैं
कर दिया।" १. संस्कृत श्रेणिकपुराण (रचियता आ० शुभचन्द्र) स्वाध्यायी जनों के द्वारा उपर्युक्त दोनों मत ही संग्रह के नवम सर्ग, श्लोक नं० १५९-६० में इसप्रकार कहा है- | करने के योग्य हैं।
"मुनि को मारने के लिए राजा श्रेणिक जा ही रहे प्रश्नकर्ता- ब्र० अनूप जैन, शास्त्री, मुंबई। थे कि अचानक उन्हें एक सर्प, जो कि अनेक जीवों का जिज्ञासा- वर्तमान में बहुत से आचार्य और मुनि, भक्षक एवं ऊँचा फण किए हुए था, दीख पड़ा। उसे अनिष्ट | श्रावक के यहाँ तय करके आहार लेते हुए देखे जा रहे का करनेवाला समझ महाराज ने शीघ्र मार डाला और | हैं? क्या ऐसा करना आगम के अनुसार उचित है? . अतिक्रर परिणामी होकर पवित्र मुनि यशोधर के गले में | समाधान- आपकी दर्द भरी जिज्ञासा बिल्कल डाल दिया। राजा श्रेणिक के उस समय अति रौद्र परिणाम | उचित है। साधु-संस्था का शिथिलाचार समुद्र के ज्वारथे। उन्हें तत्काल ही तेतीस सागर की आयु, पाँच सौ धनुष | भाटे की तरह बढ़ता ही जा रहा है। पिछले वर्ष तो एक का शरीर तथा विद्वानों के भी वचन के अगोचर महादुःख- | सज्जन ने अखबार में ही यह विज्ञापन दिया था कि दिनांक वाले, महातमप्रभा नाम के सप्तम नरक का आयुबन्ध हो | --- को आचार्य --- का आहार हमारे यहाँ होगा। जो गया।"
भी साधर्मी भाई आचार्य --- को आहार देने के भाव रखते हिन्दी के श्रेणिकचरित्र संपादक- नन्दलाल जैन | हों, वे हमारे यहाँ ९ बजे तक पधारें। विशारद, प्रकाशक जैन साहित्य सदन देहली पृष्ठ-१२४ • जुलाई २००९ में हमारे कुछ साथियों के पास एक पर भी इसी प्रकार का वर्णन प्राप्त होता है।" सज्जन का फोन आया था कि परसों आचार्य ---- आहार
आचार्यों के दूसरे मत के निम्न प्रमाण हैं के लिए हमारे यहाँ आयेंगे। आप सादर आमंत्रित हैं।
१. उत्तरपुराण (सर्ग-७४, पृष्ठ-४७२, श्लोक-४३४-1 कुछ आचार्यों की तो आहार देनेवालों की सूची एक ४३६) में इस प्रकार कहा है- "राजा श्रेणिक का प्रश्न सप्ताह पूर्व ही तय हो जाती है। जब आचार्यों का ऐसा समाप्त होने पर गणधर स्वामी ने कहा कि तुमने इसी जन्म | आचरण देखा जा रहा है, तब मुनियों की क्या चर्चा की में पहले भोगों की आसक्ति, तीव्र मिथ्यात्व का उदय, | जाये? दुश्चरित्र और महान् आरम्भ के कारण, जो बिना फल दिए . आचार्य शुभचन्द्र द्वारा विरचित, 'संस्कृत श्रेणिक नहीं छूट सकती, ऐसी पापरूप नरकायु का बन्ध कर लिया | पुराणम्', सर्ग-१० का निम्नलिखित प्रकरण, हम आपकी
जिज्ञासा के समाधान में दे रहे हैं, इसे पढ़कर आप स्वयं २. कवि पुष्पदत विरचित महापुराण सर्ग ९८/५/१५ | निर्णय करें कि ऐसे आचार्य या मुनियों का इस प्रकार आहार में इसप्रकार कहा है - "भारी आरम्भ और परिग्रह से युक्त | लेना आगमसम्मत है या नहींघने मिथ्यात्व और तीव्र कषाय के कारण, हे सुभट! तुमने
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भूप: पुनर्जगौ वाक्यं नो चेन्मम वचः कुरु। । है' इत्यादि अनुमोदना पूर्वक होगा, दिगम्बर मुनि उस भोजन ममाहारकृते गेह्या गंतव्यं यथा तथा॥ ५८॥ को कदापि न करेंगे। उनके योग्य वही भोजन हो सकता
अर्थ- हे मुनिनाथ! यदि आप तप छोड़ना नहीं | है, जो प्रासुक होगा तथा उनके उद्देश्य से न चाहते, तो कृपा कर आप मेरे गृह में भोजनार्थ जरूर आयें। | तथा विधिपूर्वक होगा। . राजा के ये वचन भी मोह परिपूर्ण जान मुनिवर सुषेण ने | दिगम्बर मुनि अतिथि हुआ करते हैं। उनके आहार कहा
की कोई तिथि निश्चित नहीं रहती। मनि निमंत्रण-आमंत्रणराजन्निति न युक्तं में कृताहारग्रहादिकम्। पूर्वक भी भोजन नहीं कर सकते। आप विश्वास रखिए, यतीनां योगयुक्तानां तपः कृतविवर्जनम्॥ ५९॥ | जो मुनि निश्चित तिथि में निमंत्रणपूर्वक आहार करनेवाले मनोवचनकायैश्च यत्कृतं कारितं पुनः। हैं, कृत, कारित, अनुमोदना का कुछ भी विचार नहीं रखते, अनुमोदितमेवात्र हेयं हेयं च भोजनम्॥ ६०॥ वे मुनि नहीं हैं, जिह्वा के लोलुपी हैं एवं वज्र मूर्ख हैं। प्रासुकं यत्स्वयं जातं गेहिनां धाम्नि निश्चितं।
यदि मेरे योग्य जैनशास्त्र के अनुसार कोई कार्य हो तो में अनदिष्टं समादेयं जेमनं यतिभिः सदा॥ ६१॥ |
कर सकता हूँ। तिथि न विद्यते येषां येषामामंत्रणं न च।
सर्वार्थसिद्धि (७/२१) की टीका में इस-प्रकार कहा कथ्यतेऽतिथयस्तत्र निघस्त्रे तिथिवर्जिते॥६२॥
गया है- "संयम का विनाश न हो, इस विधि से जो आता कतकारितसंमौदैन्यादं गह्णन्ति ये शठाः।
है वह अतिथि है या जिसके आने की कोई तिथि नहीं, यतयो नात्र चोच्यते रसनाहतमानसाः॥ ६३॥
उसे अतिथि कहते हैं। तात्पर्य यह है कि जिसके आने अत इत्थं न वक्तव्यं भूप! भिक्षादिहेतवे।
का कोई काल निश्चित नहीं है उसे अतिथि कहते हैं।" अन्यद्यद्रोचते तुभ्यं कथ्यमानं करोमि तत्॥१४॥
उपर्युक्त आगम-कथनानुसार किसी भी मुनि को अर्थ- हे राजन्! में इस काम को करने के लिए
निमंत्रणपूर्वक नहीं जाना चाहिए तथा किसी भी दाता को सर्वथा असमर्थ हूँ। दिगम्बर मुनियों को इस बात की पूर्णतया
| निमंत्रण देने का प्रयास नहीं करना चाहिए। (टीकाकारमनाई है। वे संकेत पूर्वक आहार नहीं ले सकते। आप |
आचार्य अभिनंदनसागर महाराज) निश्चय समझिये, जो भोजन मन-वचन-काय द्वारा स्वयं किया, एवं पर से कराया गया, व पर को करते देख 'अच्छा
१/२०५, प्रोफेसर्स कॉलोनी आगरा-२८२ ००२, उ० प्र०
श्रेष्ठी श्री सुमेरमल जी पाण्ड्या आगरा का महाप्रयाण प्रसिद्ध समाजसेवी एवं उद्योगपति श्रेष्ठी श्री सुमेरमल जी पाण्डया का अपने आगरा निवास स्थान में दिनांक ६ जुलाई २००९ दिन सोमवार को ब्रह्ममुहूर्त में अष्टान्हिका पर्व की चतुर्दशी के दिन धर्मध्यानपूर्वक देहावसान हो गया। आपके निधन के समाचार से संपूर्ण जैनसमाज शोक संतप्त हो उठा। आपके पार्थिव शरीर के दाहसंस्कार में आगरा का जैन समाज, उद्योगपति, व्यवसायी, समाजसेवी संस्थाओं एवं विभिन्न समुदायों के शोकातुर प्रतिनिधि भारी संख्या में सम्मिलित हुए।
मृदुभाषी एवं कोमल हृदय के धनी श्री सुमेरमल जी. पाण्डया एक ऐसे विशाल व्यक्तित्व के धारी थे, जिन्होंने संपूर्ण जीवनयात्रा शान के साथ पूर्ण की। आपका जन्म जैनजगत के सुप्रसिद्ध धर्मनिष्ठ श्रेष्ठी श्री गंभीरमल पाण्ड्या के घर में राजस्थान स्थित कुचामन सिटी में दिनांक १४ अक्टूबर १९२९ को हुआ था। आप अपने पिता श्रावकशिरोमणि श्री गंभीरमल जी पाण्डया के तृतीय सुपुत्र थे। अल्पवय में ही आपका विवाह गया (बिहार) निवासी स्व० कन्हैयालाल जी सेठी की सुपुत्री श्रीमती गुलाब कुमारी के साथ सम्पन्न हुआ था।
आगरा के जैनसमाज में आपका प्रतिष्ठापूर्ण स्थान रहा है। आगरा नगर स्थित कमलानगर कॉलोनी के नव निर्मित जिनालय के जिनबिम्ब पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के परम प्रभावक शिष्य प.पू. मुनि श्री क्षमासागर जी एवं प.पू. मुनि श्री सुधासागर जी की प्रेरणा एवं आशीर्वाद से आपको उक्त पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में सौधर्म इन्द्र की भूमिका निभाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ जो आपके धर्ममय जीवन का एक क्रान्तिकारी मोड़ प्रमाणित हुआ।
मदनलाल बैनाड़ा
26 सितम्बर 2009 जिनभाषित
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ग्रन्थ समीक्षा 'मैं तुम्हारा हूँ' : मुनि श्री क्षमासागर जी
समीक्षक : प्रो० महेश दुबे 'मैं तुम्हारा हूँ' मुनि श्री क्षमासागर जी की काव्य
अमृतमय हो जाना यात्रा का पाँचवाँ सोपान है। इसमें उनकी ५९ कवितायें यही है। संकलित हैं। क्षमासागर जी विज्ञान के विद्यार्थी रहे हैं एवं ये कवितायें जीवन के ऐसे ही अमृतमय पाथेय का एक चिंतक और मनीषी संत के रूप में लब्ध-प्रतिष्ठ हैं।। विश्वास दिलाती हैं, जहाँउनकी कविताएँ स्फटिक की तरह पारदर्शी और सम्प्रेषणीय परमात्मा से प्रेम रूप से अभिव्यक्ति-समृद्ध हैं। इन कविताओं में एक संत और कवि दोनों एकाकार हो गये हैं।
सब कुछ सहने का अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि फिलिप लारकिन ने कहा साहस देगा। था कि : प्रत्येक कविता अनिवार्यतः अपना ही एक नया
ये कवितायें मानवीय गरिमा से अभिषिक्त और सृजित ब्रह्माण्ड होती है। क्षमासागर जी के काव्य संग्रह
प्रज्ञा-समृद्ध हैं। यहाँ संत क्षमासागर का कवि-मन, कुंवर 'मैं तुम्हारा हूँ' को पढ़ते हुए इन कविताओं के असीम | नारायण के शब्दों मेंब्रह्माण्डीय विस्तार का अनुभव होता है- जहाँ इस दृश्य
अपने अकेलेपन में अधिक मुक्त जगत् और अनुभव की सीमाएँ छोटी पड़ जाती हैं। ये
अपनी उदासी में अधिक उदार है। कविताएँ हमें जीवन और जगत् के पार ले जाती हैं। कुछ |
वह एकांत के ऐश्वर्य से परिचित है और भीड़ की राग लिये, अनुराग लिये, पंक्ति-पंक्ति में विराग लिये. | रिक्तता भी उसे मालूम है। तभी तो वह लिखता हैवीतराग की इन कविताओं में आध्यात्मिक व्याकलता है. जब आदमी चेतना के प्रवाह का लालित्य है, परमात्मा का उल्लास
बाहर भीड़ से है और पृथ्वी तथा काल के विस्तार को वृत्तित करता हुआ
घिर जाता है आदि और अंत है।
तब मैं जानता हूँ अद्भुत हैं ये कवितायें! इनका सत्य मौन में मुखर
वह अपने भीतर
कितना अकेला होता है और शब्दों में घुल जाता है। इन्हें पढ़ते हुए हमें रूप से अरूप की, पृथ्वी से आकाश की और पदार्थ से
रह जाता है।
इन कविताओं में कवि का आग्रह कहे से कहीं निराकार की यात्रा का अनुभव होता है। पारस्परिक सद्भाव
ज्यादा उस पर ध्यान देने का है. जो वह नहीं कह रहा से गुंथी हुई ये कविताएँ अपनी नि:स्पृह वैयक्तिकता के
है या नहीं लिख रहा है। जो शब्दों के बीच रह गया है। लिये भी याद रखी जायेंगी।
क्योंकि शब्दों के बीच में ही तो खोजना है- सत्य को. डब्ल्यू.एच. डेवीज ने अपनी एक कविता में कहा था कि चिन्ताओं से भरा हुआ वह जीवन ही क्या, जहाँ
ब्रह्म को। इसीलिये वह कहता हैखड़े होकर किसी चीज पर निगाह ठहराने का समय ही
तुम उस अनलिखे को
पढ़ लेना नहीं है। इन कविताओं में हम खड़े होते हैं, अपनी दृष्टि
उस अनकहे को स्थिर करते हैं, सूक्ष्मता से अवलोकन करते हैं और फिर
सुन लेना। शुरू होती है एक सार्थक विचार-यात्रा, जिसमें यह प्रतीति
प्रतिस्पर्धा के इस युग में आज हर व्यक्ति आगे होने बनी रहती है कि
का अहंकार लिये हुए है, बेतहाशा दौड़ रहा है। कवि हमें अब मृत्यु के झोंके नहीं आएँगे
एक विचार-सूत्र देता हैजीवन का
तुम्हारा आगे होना किसी के
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पीछे होने पर निर्भर हुआ ना
तब अहंकार कैसा?
इन कविताओं के आध्यात्मिक संस्पर्श में सामाजिक संवेदना की सान्द्रता है। व्यक्ति से समष्टि तक विस्तार की ज्यामिती को लिखते हुए, कवि कहता है
मैं तुम्हारा हूँ
उस तरह
जिस तरह, कोई
परमात्मा का होता है।
कवि जानता है कि संवेदना ही हमें पूर्ण बनाती है । कवि की विरक्ति में सभी के प्रति अनुरक्ति है
मैंने तो सभी को
अपने में पाया है अपने में
सभी को पाने के लिये। इन कविताओं में प्रज्ञा के, साधना के सूत्र बिखरे पड़े हैं। कवि कहता है परमात्मा को खोजने कहीं बाहर नहीं जाना है। यह यात्रा तो अपने घर वापस लौटने जैसी है
ईश्वर को पाना
यानी
अपने में ही लीन होना
अपने को पा लेना है।
जैसे नदी वापस अपने उद्गम को लौटे या वृक्ष अपने बीज में समाहित हो जाये। यह अपने में ही परिपूर्ण होना है और यही प्रत्याहार है।
संग्रह में ' नई शिक्षा' एक अलग मिजाज की कविता
28 सितम्बर 2009 जिनभाषित
है। जड़ों से कटी हुई, आयातित जीवन-मूल्यों पर आधारित शिक्षा-व्यवस्था पर यह एक सात्विक व्यंग्य और सामयिक चेतावनी है। जो लोग शिक्षा में नित नये प्रयोग कर रहे हैं, उन तक कनि का यह संदेश अवश्य पहुँचना चाहिये कि
अपनी प्रकृति खो कर
कोई कहीं का नहीं रहता ।
यहाँ कवि का आग्रह एक ऐसी शिक्षा नीति के लिये है जो नैसर्गिक प्रतिभा और कुशलता को विकसित कर सके।
मुनि श्री क्षमासागर की इन सरल तरल और सहज कविताओं में गम्भीर वैचारिकता का प्रवाह है, सत्य का उन्मेष है, जीवन की प्रफुल्लता का संदेश है और वह सब कुछ है, जो आज के इस अध्यात्म विपन्न और संस्कृतिदरिद्र समाज को चाहिये । कुंवरनारायण की काव्य-पंक्तियों को उद्धत करते हुए कहना चाहूँगा
1
एक शून्य है
मेरे और अज्ञात के बीच
जो ईश्वर से भर जाता है।
एक शून्य है
मेरे हृदय के बीच
जो मुझे मुझ तक पहुँचाता है।
इन कविताओं को पढ़ते हुए कुछ ऐसा ही अनुभव होता है।
डॉ० सागरमलजी जैन सम्मानित
सुप्रसिद्ध जैन मनीषी तथा प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर के संस्थापक डॉ० सागरमलजी जैन को, जैन विश्वभारती लाडनूं द्वारा प्रतिष्ठित 'आचार्य तुलसी प्राकृत पुरस्कार' (१ लाख रूपये) से सम्मानित किया गया। डॉ० जैन सा० को यह पुरस्कार प्राकृत भाषा एवं साहित्य के क्षेत्र में उनके उत्कृष्ट योगदान के लिए प्रदान किया गया। उन्होंने यह राशि व्यक्तिगत रूप से स्वीकार न करके प्राच्य विद्यापीठ शाजापुर को ही समर्पित कर दी। डॉ० जैन सा० की इस उपलब्धि पर उन्हें शाजापुर नगर एवं देश-विदेश के अनेकों गणमान्य व्यक्तियों ने बधाई दी है। इसके पूर्व भी उन्हीं प्राकृत भाषा और जैन साहित्य एवं जैनदर्शन में उत्कृष्ट कार्यों हेतु एक लाख ग्यारह हजार रूपये प्राकृत भारती का गौतम गणधर पुरस्कार एवं जैना अमेरिका का प्रेसीडेन्सियल अवार्ड भी प्राप्त हो चुका है।
११०२, साँई अंश
प्लाट क्र. ७, सेक्टर, ११ जुईनगर रेल्वे स्टेशन के सामने सानपाडा, नवी मुम्बई- ४००७०३
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समाचार अमरकंटक में आचार्य श्री विद्यासागर जी । आचार्यश्री ने बताया कि दूध में मलाई, घी का
अमरकंटक में 'मूकमाटी' महाकाव्य के रचयिता | अस्तित्व विद्यमान है, किन्तु दिखता नहीं, विधिवत् प्रक्रिया सन्त शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी ने भावों की महत्ता | के उपरान्त मलाई भी मिल जाती है और घी भी प्राप्त समझाते हुए कहा कि भाषा की अपेक्षा भावों की गूंज | हो जाता है। दूध ठण्डा हो, तो मलाई नहीं मिलेगी तथा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। भावों का खेल भव-भव को प्रभावित | गर्म हो तो भी नहीं। दूध को गर्म कर ठण्डा करने पर करता है। पर को परखने में पल-पल व्यतीत किए, निज | ही मलाई की मोटी परत जम जाती है। गर्म होने पर विकार को परखने का प्रयत्न ही नहीं किया। समता का सन्देश | बाहर हो गए, विकार निकलने पर शान्त दूध से मलाई देते हुए आचार्यश्री ने बताया कि सबका अस्तित्त्व समान | मिलेगी। अशान्त और उबलता दूध मलाई नहीं देगा। इस है, यह धारणा धारण करते ही संघर्ष शांत हो जाता है। दृष्टांत के द्वारा मन को निर्मल करने की विधि समझाते दो रोगी मिलकर परस्पर वेदना को कम कर लेते हैं। | हुए आचार्यश्री ने बताया कि मन से भावों का तादात्म्य
आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा कि संसार में | स्थापित करने के लिए प्रशान्त होना अनिवार्य है। भावों सूर्योदय अनिवार्य है। सूर्योदय होते ही कमल खिल जाते | का खेल भव-भव तक परिणाम देता है। धर्म की सभा हैं, पशु पक्षी, मानव में गतिविधियाँ प्रारंभ हो जाती हैं। में धन की विवेचना नहीं होती। यह धर्म सभा है धन सभा दूरस्थ सूर्य के उदय से कमल खिल जाते हैं। अन्य क्रियायें | नहीं। काया पलट हो सकती है, आयुर्वेद चिकित्सा में आरंभ हो जाती हैं। सूर्य से प्राप्त ऊष्मा से प्राकृतिक क्रिया | कायाकल्प का विधान है। आधुनिक ज्ञान आविष्कार में आरंभ हो जाती है। मानव का पाचन तंत्र सक्रिय हो जाता | लगा है। वर्षा ऊपर से होती है, हल नीचे चलता है, हलधर है। यह मान्यता विज्ञान ने भी स्वीकार कर ली है। शरीर के हल से समस्यायों का हल हो जाता है। ऊपर वर्षा न की रचना सूर्य तत्त्व से सम्बन्धित है, सूर्य की ऊर्जा से | हो तो समस्या विकराल हो जाती है, ऊपर की क्रिया का संसार गतिमान् होता है। उर्जा का स्रोत दूर होते हुए भी | प्रभाव भीतर होता है, यह प्रतीति कराते हुए बताया कि हम ऊर्जा को ग्रहण कर लेते हैं, संचारित हो जाते हैं। रामचन्द्र जी सीता की तलाश में वन-वन भटक रहे थे आचार्यश्री ने कहा कि सूर्य से हमारा सम्बन्ध बना हुआ | कि सुग्रीव अपनी पत्नी की समस्या लेकर उपस्थित हो है, इसीलिये समस्त कार्य सम्पादित होते रहते हैं, ऐसा ही गए। लक्ष्मण ने कहा, भइया पहले स्वयं की समस्या का सम्पर्क दिव्य पुरुषों से स्थापित होते ही भवसागर का तीर | निदान कर लें तब दूसरे की समस्या देखेंगे, किन्तु राम भी दिख जाता है। आचार्यश्री ने बताया कि न तो सूर्य उदित | तो राम थे। सुग्रीव को ढाँढस देते हुए कहा चिन्ता मत होता है न हि अस्त। भ्रान्तिवश सूर्योदय और सूर्यास्त कहा | करो। परस्पर सहयोग और सह-अस्तित्व से पचास प्रतिशत जाता है। ऐसा ही भ्रम अन्य क्षेत्रों में भी व्याप्त है। विज्ञान | निदान पहले ही हो जाता है। आचार्यश्री ने समता की दिव्य पुरुषों की दिव्यध्वनि की तलाश कर रहा है। अभी | सार्थकता समझाते हुए बताया कि संग्राम समाप्त हो जाता तक विज्ञान ऐसी क्षमता के यंत्र का आविष्कार नहीं कर | है, यदि सब अपनी सीमा में रहते हैं, अन्यथा संग्राम में सका है, वह ध्वनि लुप्त नहीं है गुप्त है। अनन्ताकाश में | अनेक ग्रामों का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। सबका वह ध्वनि झंकृत हो रही है, आवश्यकता सम्पर्क स्थापित | अस्तित्व समान है, यह समझ में आते ही संघर्ष शान्त हो करने की है। जागरूक क्षमता हो, तो सम्पर्क हो जाता है, | जाता है। अधिकार दूसरे पर रखने की लालसा रखते हैं, यह दिशाबोध देते हुए आचार्य श्री विद्यासागर ने बताया | स्वयं पर अधिकार रख नहीं सकते, इस भाव को अभिव्यक्त कि भाषा की अपेक्षा भावों की गूंज अधिक महत्त्वपूर्ण है। | करते हुए बताया कि पर को परखने के साधनों का बाहुल्य शब्द कर्ण का विषय है जबकि भाव मन से संबंध रखता | है, किन्तु निज को परखने का प्रयत्न कभी नहीं किया। है। हमारे पास योग्य मन भर होना चहिए। जब तक मन | टार्च के प्रकाश से पर को प्रकाशित करनेवालों को सावधान भोग, विषयकषाय के सम्पर्क में रहेगा. भाव प्रणाली से | करते हुए आचार्यश्री ने कहा-ऐसी टार्च जलाओ जिससे सम्बन्ध नही हो सकेगा।
स्वयं प्रकाशित हो सकें। वेदचन्द्र जैन (पत्रकार) गौरेला, पेण्ड्रारोड
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सम्मेदशिखर जी गुणायतन में चमत्कार । मूलनायक चंद्रप्रभ भगवान् की प्रतिमा पंचकल्याणक स्वर्ण रंग में बदली चाँदी की प्रतिमा प्रतिष्ठापूर्वक विराजमान करने का सौभाग्य प्राप्त किया
मधुबन (शिखर जी) ३ सितम्बर ०९ मधबन में | है अनन्य गुरुभक्त एवं श्रेष्ठी श्री विनोद काला कोलकाता आज अद्भुत चमत्कार हुआ। संत शिरोमणी प.पू. १०८ | ने। पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव मुनि श्री प्रमाणसागर आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के परम प्रभावक | जी महाराज के ससंघ सान्निध्य में 'गुणायतन' भूमि पर युवा शिष्य मुनि श्री प्रमाण सागर जी महाराज के ससंघ ही अत्यंत सादगी से सपन्न हुआ, जो वर्तमान शती का सान्निध्य एवं पर्युषण पर्व के पावन प्रसंग में चल रहे एक उत्कृष्ट उदाहरण है। ब्र० अन्नु भैया ने 'गुणायतन' श्रावक संस्कार शिविर एवं जिन सहस्रनाम विधान के | से जन समुदाय को अवगत कराते हुए कहा कि यह समापन अवसर पर देवाधिदेव १००८ अदिनाथ भगवान पू. मुनि श्री प्रमाण सागर जी महाराज की अदभुत की शोभा यात्रा निकालने की तैयारी चल रही थी। उसी परिकल्पना है, जिसके द्वारा आधुनिक तकनीक से जैनदर्शन क्रम में मध्यान्ह १२.०० बजे ज्यों ही भगवान आदिनाथ | के अन्तर्गत नर से नारायण बनने के क्रमिक सोपान जी की चाँदी की प्रतिमा को रथ में विराजमान किया | १४ 'गुणस्थानों' को जीवन्त रूप में प्रदर्शित किया जायेगा। गया, प्रतिमा का श्वेत वर्ण सामने से स्वर्णरंग में परिणत पोथियों की बात पलों में समझायी जायेगी। कैवल्य प्राप्ति हो गया। इस चामत्कारिक घटना के घटते ही शिविरार्थी | के उपरान्त भगवान के श्री विहार, समवशरण एवं एवं अन्य श्रद्धालु भक्ति से झूम उठे। पूरा मधुबन भगवान मुक्तिगमन के दृश्य ध्वनि एवं प्रकाश के माध्यम से आदिनाथ एवं आचार्य श्री विद्यासागर जी एवं मनि श्री देखकर दर्शक रोमांचित हो उठेंगे। उन्होंने कहा कि पत्थरों प्रमाण सागर जी के जयकारों के नाद से गूंज उठा।। द्वारा पुरातन शैली में निर्मित 'गुणायतन' विश्व की एक मूर्ति के दर्शनार्थ जैन-अजैन सभी श्रद्धालुओं की भीड़ अनुपम कृति होगी जो हजारों वर्षों तक जैनत्व की प्रभावना उमड पडी। रथ पर उक्त प्रतिमाजी को विराजमान कर | का प्रबल निमित्त बनेगी। बैठने का सौभाग्य श्री सुनील कुमार जी सरावगी कोलकाता
विमल कुमार सेठी को प्राप्त हुआ था। वे इस घटना से अत्यंत अभिभूत
गया (बिहार) हो उठे।
भोपाल (म०प्र०) में सन्त-चातुर्मास प.पू. मुनि श्री प्रमाण सागर जी महाराज ने समापन श्री आदिनाथ दि० जैन मन्दिर चौक, भोपाल में समारोह में अपने संबोधन में कहा कि प्रतिमा का वणवर्ण | पूज्य मुनि श्री विश्वलोचनसागर जी एवं पूज्य मुनि श्री में बदलना एक शुभ संकेत है। 'गुणायतन' में जिनालय | विश्ववीरसागर जी तथा परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर बनने के बाद जबसे देवाधिदेव चंद्रप्रभ भगवान् की
जी के शिष्य पूज्य एलक नि:शंकसागर जी का चातुर्मास अतिशयकारी प्रतिमा यहाँ विराजमान हुई है, तब से निरंतर
चल रहा है। आपके सान्निध्य में भव्य श्रावकसाधना यहाँ अतिशयों का सिलसिला जारी है। जिनालय निर्माण । शिविर सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ। क्षमावाणी दिवस भी के बाद पहली बार यहाँ जिन सहस्रनाम विधान एवं
चौक के मन्दिर एवं झिरनों के मन्दिर में मनाया गया। श्रावक संस्कार शिविर जैसा वृहद् अनुष्ठान हुआ, जिसमें,
| १० सितम्बर २००९ को झिरनों के मन्दिर में सतना संपूर्ण देश से लगभग आठ सौ शिविरार्थी सम्मिलित हुए,
(म०प्र०) से पधारे विद्वान् श्री निर्मल जैन एवं अन्य जो अपने आप में एक अतिशय ही है ओर फिर उक्त
स्थानीय सज्जनों का सम्मान किया गया। अनुष्ठान के समापन पर जो प्रतिमा के वर्ण परिवर्तन | प्राच्य विद्यापीठ शाजापुर की उपलब्धियाँ की घटना घटी है, वह निश्चत ही एक चमत्कार है माननीय साध्वी संवेगप्रज्ञाजी एवं साध्वी श्री और इस तरह का चमत्कार पहली दफा तीर्थराज की ज्योत्सनाश्री म.सा. को जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय पावन भूमि पर घटित हुआ है। यह इस बात का संकेत | लाडनूं (राज.) द्वारा उनके शोध-प्रबन्धों पर पी-एच.डी. है कि निर्माणधीन 'गुणायतन' का कार्य शीघ्र पूर्ण होगा की उपाधि प्रदान की गई। आपने यह शोधकार्य अन्तर्राष्ट्रीय और यह जिनधर्म की प्रभावना का प्रबल निमित्त बनेगा।। ख्यातिप्राप्त जैन विद्वान् एवं प्राच्य विद्यापीठ. शाजापर के ___ 'गणायतन' भमि पर जिनालय निर्माण एवं उसमें | संस्थापक निदेशक डॉ० सागरमलजी जैन के निर्देशन में
30 सितम्बर 2009 जिनभाषित
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सम्पन्न किया। आप दोनों की इस उपलब्धि पर जैन । उपाध्याय श्री ससंघ प्रवचन हेतु सेंट्रल जेल पहुँचे। वहाँ समाज को गर्व है। इसके पूर्व भी प्राच्य विद्यापीठ शाजापुर | | केन्द्रीय. वरिष्ठ जेल अधीक्षक श्री सुरेशचन्द्र श्रीवास्तव, से १६ विद्यार्थी पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त कर चुके | कारागार-अधीक्षक एस.एन. दुबे आदि अधिकारियों ने
मुनिश्री की आगवानी की। प्रांगण जयकारों से गूंज उठा। ___ पाँच प्रशिक्षार्थियों का चयन
वहाँ पर २३०० कैदियों ४०० पुलिस जवानों एवं ३०० 'म० प्र० के एडीपीओ की पूर्व में लिखित परीक्षा | साथ पधारे भक्तों के बीच कारागार में उपाध्यायश्री ने में उत्तीर्ण ८ प्रशिक्षार्थियों द्वारा दिये गये साक्षात्कार में | सम्बोधित करते हुए कहा- 'यह कारागार नहीं, सुधारागार ५ प्रशिक्षार्थियों का चयन होना संस्थान की सफलता का | है। यहाँ अपराधियाँ को सुधार हेतु लाया जाता है, यातना उल्लेखनीय प्रमाण है। यह सफलता श्री त्रिलोकराज शास्त्री, | देने हेतु नहीं।' कु. अविसारिका जैन, कु. रीता भण्डारी, कु. सविता
सुगन्धकुमार जैन, शास्त्री बजाज एवं सतीश शर्मा ने अर्जित की है।
घंसौर (म० प्र०) में क्षमा दीदी का मुकेश सिंघई
सल्लेखना-पूर्वक देहत्याग मुनि श्री क्षमासागर जी का २८वाँ दीक्षा दिवस परम पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के
परम पूज्य आचार्य विद्यासागर जी महाराज के | आशीर्वाद से एवं उनकी प्रथम शिष्या आर्यिका श्री गुरुमति शिष्य पूज्य मुनिश्री क्षमासागर जी महाराज का २८वाँ माता जी की प्रेरणा से पुष्परानी ने १३ जून को स्वेच्छा दीक्षा दिवस समारोह, आचार्यश्री विभवसागर जी महाराज | से अनाज का त्याग कर पानी लेते हुए २४ जून को एवं आर्यिका रत्न १०५ कुशलमति माताजी के ससंघ | २ प्रतिमा के व्रत ग्रहण किये। आर्यिका १०५ अपूर्वमति सान्निध्य में श्री वर्णी दिगम्बर जैन गुरुकुल मढ़िया जी, | माता जी के सान्निध्य में ७ जुलाई, गुरुपूर्णिमा के दिन जबलपुर म०प्र० में मनाया गया।
उन्होंने सप्तम प्रतिमा के व्रत ग्रहण किये। माता जी के कार्यक्रम की अध्यक्षता श्री हरिरंजनरावजी द्वारा उन्हें नया नाम क्षमा दीदी दिया गया। आर्यिका १०५ (जिलाधीश जबलपुर) द्वारा की गई एवं मुख्य अतिथि | अपूर्वमति माताजी, अनुत्तरमति माता जी एवं अगाधमति के रूप में जिलाधीश महोदय जी की पत्नी श्रीमती नूपुरजी, | | माताजी के हर पल के सहयोग से क्षमा दीदी ने कैंसर श्री खुरानाजी (कुलपति) एवं विशिष्ट अतिथि के रूप जैसी बीमारी होते हुए शरीर की ओर ध्यान न देकर में श्री कृष्णकांत चतुर्वेदी जी रहे।
आत्मा की ओर ध्यान दिया। तीनों समय सामायिक एवं सांस्कृतिक प्रस्तुतियों में पं० नीरज जी सतना, पं० | व्रतों का निरतिचार पालन करते हुए १५ अगस्त २००९ श्रेयांश जी दिवाकर, पं० दयाचंद जी सतना आदि की | को सल्लेखनापूर्वक शरीर को परित्याग किया। भूमिका मुख्य रही। श्री सरोज कुमार जी इन्दौर, अजित
सुरेशचन्द्र जैन जी एडव्होकेट एवं अमित पड़रिया द्वारा कुशल मंच कु० वाणी अजमेरा को 7 अवार्ड संचालन किया गया। कविसम्मेलन की प्रस्तुतियों में राकेश लिम्बा बुक में चार बार वर्णित व लिम्बा बुक राकेन्दु जबलपुर, एवं तरल जी द्वारा मनमोहक कवित्त ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में दर्ज तथा नेशनल अवार्ड प्राप्त कर, प्रस्तुत किया गया।
राजस्थान को गौरवान्वित करनेवाली वीणा को मुख्यमंत्री मुनिश्री की लेखनी से प्रसूत कवितासंग्रह का | गहलोत ने राजस्थान संगीत नाटक अकादमी की ओर से विमोचन श्री खुराना जी, कुलपति द्वारा किया गया। | पुरस्कृत किया और लन्दन में वर्ल्ड स्प्रिचुअल युनिवर्सिटी
कमलकुमार दानी | में दादी माँ-प्रकाशमणि (माउन्ट आबू) एवं सिंगापुर में जैन मुनि उपाध्याय श्री निर्भयसागर जी का | भारत के हाई कमीश्नर से सम्मानित हुईं। कोलकाता में ... सेंट्रल जेल में प्रवचन
'जैनराष्ट्रगौरव' अवार्ड व यूनेस्को फैडरेशन राजस्थान से दिगम्बर जैन मुनि उपाध्याय श्री निर्भयसागर जी, | भी सम्मानित हुईं। हाल ही अ. भा. भगवान् ऋषभदेव मुनिश्री अमूल्य सागर जी, क्षु० जिनदत्त सागर जी, ब्र० संगीत पद्म अवार्ड से अजमेर में विभूषित हुईं। श्रीपालं भैयाजी वाराणसी नगरी में वर्षायोग कर रहे है।।
श्री निहाल अजमेरा
- सितम्बर 2009 जिनभाषित 31
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जिनभाषित के नये आजीवन सदस्य
श्री नमन कुमार गंगवाल २०/ए, महबूब की कोठी, आना सागर लिंक रोड, अजमेर (राजस्थान) - ३०५००१
श्री अरुण जिनधर खोत पार्श्वनाथ नगर, प्लाट नं. ३२, जैनमंदिर के पास कुपताड़ रोड़, साँगली (महाराष्ट्र)
ब्र. देवेन्द्र भैया, श्री अनिल कुमार जैन वर्णी वाचनालय के पास, कटरा बाजार सागर (म.प्र.) - ४७०००२
श्री नितिन बसंतराव जैन गणेश पेठ बसमत ता. बसमत जिला- हिंगोली (महाराष्ट्र)
श्री अशोक कुमार जैन मे. सिंघई नेत्रालय, विजय नगर, मकरौनिया सागर (म.प्र.) ४७०००२
श्री नीलेश कुमार जैन मे. विजय कार्नर १२४, गलगला तिराहा जबलपुर (म०प्र०)
श्री अजित कुमार जैन सर्राफ पिता श्री कोमल चन्द्र जैन सर्राफ, मे. सर्राफ मेडीकल स्टोर्स जामा मस्जिद के पास, पंजाब नेशनल बैंक के बाजू में विजय टॉकीज रोड, सागर (म.प्र.)
श्री अभयकुमार जी श्रीधर पाटिल फ्लैट नं. २, एस. कुमार रेसीडेन्सी निशांत कॉलोनी, मोती चौक, बसंत मार्केट, यार्ड जबल, साँगली- ४१६४१६ (महाराष्ट्र)
श्री चन्द्रकुमार जैन १२६६, भवानी कॉम्प्लेक्स के सामने, राईट टाऊन जबलपुर- ४८२००२ (म०प्र०) श्री भैयालाल जी जैन प्रकाशचंद्र जी बहेरियावाले (कैंची बिड़ी) बाहुबली कॉलोनी, सागर (म०प्र०) श्री ऋत्विक राजेश पाटिल ४४०, गावभाँग मारुति मंदिर मागे, साँगली (महाराष्ट्र) श्री मयूर प्रकाश वग्याणी ३०, अप्पासाहिव पाटिल नगर, सोना क्लीनिक जवल आँवराई मागे, साँगली (महाराष्ट्र) ४१६४१६ श्री करन मनीष तेजानी होटल इजादूंद मीवार सतारा- ४१२८०६ (महाराष्ट्र) श्रीमती अजित कुमारी जैन श्री महेन्द्र कुमार जैन महावीर कॉलोनी, शासकीय अस्पताल के पीछे, औबेदुल्लागंज, भोपाल (म०प्र०)
श्री प्रवीण राजाराम नबले मु.पो. वालवा तह. वालवा जिला- साँगली (महाराष्ट्र)
श्री राहुल बाबूराव मूंग गाला नं. १४७, शिवाजी मार्केट कोल्हापुर (महाराष्ट्र) ४१६००२
श्री कुमार बालगोड़ा पाटिल नाँदणी ता. शिरोल, जिला-कोल्हापुर, (महाराष्ट्र)
32 सितम्बर 2009 जिनभाषित
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इस तरह
एक उड़ते पखेरू ने मुझसे निरन्तर उड़ते रहने को कहा एक पेड़ ने तूफानों के बीच अडिग खड़े रहने को कहा ओर एक नदी
- मुनि श्री क्षमासागर जी जूझने को कहा
और एक नीली झील मुझे बाहर-भीतर एक सार निर्मल होने को कह गयी
मुझसे
निरन्तर बहते रहने को कह गयी
सूरज ने सुबह आकर मुझसे दिन-भर रोशनी देते रहने को कहा चाँद-सितारों ने रात-भर अँधेरों से
सागर ने धीरे लहरा कर कहासीमाओं में रहो आकाश ने अपने में सबको समा कर कहाअसीम होओ और एक नन्हीं बदली प्रेम से भर कर मुझसे निरन्तर बरसने को कह गयी मेरी जिन्दगी इस तरह सबकी हो गयी।
'पगडंडी सूरज तक' से साभार
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________________ रजि नं. UPHIN/2006/16750 ॐ मुनि श्री योगसागर जी की कविताएँ म प्रभु ने यही कहा स्वार्थी की यही पहचान प्रशंसा की बातों से मालिश करता है अच्छे-अच्छे पकवान खिलाकर पालिश करता है जब स्वार्थ सिद्ध नहीं होता है वो नालिश करता है। है भक्त! विषयों से विरक्त हर वक्त अनुरक्त सशक्त है भगवत् भक्ति में जिससे लुप्त, सुप्त और गुप्त शक्ति को अभिव्यक्त करता है यह वहीं भक्ति है जो मुक्ति को दिलाती है। मोहित में मो-हित नहीं अहित है मोहित तो मोहरहित आत्मा में है। 4 हे प्रभु! कैसा मेरा भाग्य कैसा वक्त आया यह क्या देख रहा हूँ धर्म की ओट में स्वार्थ छिप रहा है अर्चनावाले भर्त्सना करते हैं मेल-मिलापवाले विलाप कराते हैं निकटवाले ही विकट में डालते हैं गुरु की खुशी में शिष्य के दिल में खुश्की होती है तो कहना होगा समर्पण का अभाव है और शिष्य जिन बातों से खुश होता है उससे यदि गुरु को खुश्की होती है तो कहना होगा अप्रभावना की यही निशानी है। प्रस्तुति - प्रो० रतनचन्द्र जैन स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, 210, जोन-1, एम.पी. नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं 1/205 प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित / संपादक : रतनचन्द्र जैन।