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________________ की तथा ब्रह्मचारिणी लिखा है। नरकायु का बंध कर लिया है।" ४. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष भाग-३, पृष्ठ-६१४ पर श्री ३. श्री सकलकीर्ति विरचित 'वीरवर्धमानचरितम'. आदि देवियों को तथा अन्य दिक्कन्याओं को व्यंतर देवियों | ज्ञान तीर्थ प्रकाशन, पृष्ठ-२११ पर इसप्रकार कहा हैके अन्तर्गत लिया है। "तीव्र मिथ्यात्वभाव के द्वारा आज से पूर्व ही तने इसी जिज्ञासा- राजा श्रेणिक को नरकाय का बन्ध कब | जीवन में हिंसादि पाँचों पापों के आचरण से, बहुत आरम्भ और क्यों हुआ? कृपया बतायें। और परिग्रह से, अत्यन्त विषयासक्ति से और सत्य धर्म समाधान- राजा श्रेणिक के नरकायुबन्ध के कारणों | के बिना बौद्धों की भक्ति से नरकायु को बाँध लिया है।" के विषय में आचार्यों के दो मत उपलब्ध होते हैं। पहला | ४. श्री हरिवंशपुराण पृष्ठ-२२ (ज्ञानपीठ प्रकाशन) मत तो यह है कि उन्होंने जब यशोधर महाराज के गले | पर इस प्रकार कहा है- “राजा श्रेणिक ने पहिले, बहुत में सर्प डाला, तब उनको सप्तम नरक की आयु का बन्ध | आरम्भ और परिग्रह के कारण सातवें नरक की जो उत्कृष्ट हुआ था। तथा दूसरे मत के अनुसार अत्यधिक आरम्भ स्थिति बाँध रखी थी, उसे क्षायिक सम्यग्दर्शन के प्रभाव और परिग्रह के कारण उनको नरकायु का बन्ध हुआ था। से प्रथम पृथ्वीसंबंधी ८४ हजार वर्ष की मध्यम स्थिति रूप प्रथम मत के कुछ प्रमाण इसप्रकार हैं कर दिया।" १. संस्कृत श्रेणिकपुराण (रचियता आ० शुभचन्द्र) स्वाध्यायी जनों के द्वारा उपर्युक्त दोनों मत ही संग्रह के नवम सर्ग, श्लोक नं० १५९-६० में इसप्रकार कहा है- | करने के योग्य हैं। "मुनि को मारने के लिए राजा श्रेणिक जा ही रहे प्रश्नकर्ता- ब्र० अनूप जैन, शास्त्री, मुंबई। थे कि अचानक उन्हें एक सर्प, जो कि अनेक जीवों का जिज्ञासा- वर्तमान में बहुत से आचार्य और मुनि, भक्षक एवं ऊँचा फण किए हुए था, दीख पड़ा। उसे अनिष्ट | श्रावक के यहाँ तय करके आहार लेते हुए देखे जा रहे का करनेवाला समझ महाराज ने शीघ्र मार डाला और | हैं? क्या ऐसा करना आगम के अनुसार उचित है? . अतिक्रर परिणामी होकर पवित्र मुनि यशोधर के गले में | समाधान- आपकी दर्द भरी जिज्ञासा बिल्कल डाल दिया। राजा श्रेणिक के उस समय अति रौद्र परिणाम | उचित है। साधु-संस्था का शिथिलाचार समुद्र के ज्वारथे। उन्हें तत्काल ही तेतीस सागर की आयु, पाँच सौ धनुष | भाटे की तरह बढ़ता ही जा रहा है। पिछले वर्ष तो एक का शरीर तथा विद्वानों के भी वचन के अगोचर महादुःख- | सज्जन ने अखबार में ही यह विज्ञापन दिया था कि दिनांक वाले, महातमप्रभा नाम के सप्तम नरक का आयुबन्ध हो | --- को आचार्य --- का आहार हमारे यहाँ होगा। जो गया।" भी साधर्मी भाई आचार्य --- को आहार देने के भाव रखते हिन्दी के श्रेणिकचरित्र संपादक- नन्दलाल जैन | हों, वे हमारे यहाँ ९ बजे तक पधारें। विशारद, प्रकाशक जैन साहित्य सदन देहली पृष्ठ-१२४ • जुलाई २००९ में हमारे कुछ साथियों के पास एक पर भी इसी प्रकार का वर्णन प्राप्त होता है।" सज्जन का फोन आया था कि परसों आचार्य ---- आहार आचार्यों के दूसरे मत के निम्न प्रमाण हैं के लिए हमारे यहाँ आयेंगे। आप सादर आमंत्रित हैं। १. उत्तरपुराण (सर्ग-७४, पृष्ठ-४७२, श्लोक-४३४-1 कुछ आचार्यों की तो आहार देनेवालों की सूची एक ४३६) में इस प्रकार कहा है- "राजा श्रेणिक का प्रश्न सप्ताह पूर्व ही तय हो जाती है। जब आचार्यों का ऐसा समाप्त होने पर गणधर स्वामी ने कहा कि तुमने इसी जन्म | आचरण देखा जा रहा है, तब मुनियों की क्या चर्चा की में पहले भोगों की आसक्ति, तीव्र मिथ्यात्व का उदय, | जाये? दुश्चरित्र और महान् आरम्भ के कारण, जो बिना फल दिए . आचार्य शुभचन्द्र द्वारा विरचित, 'संस्कृत श्रेणिक नहीं छूट सकती, ऐसी पापरूप नरकायु का बन्ध कर लिया | पुराणम्', सर्ग-१० का निम्नलिखित प्रकरण, हम आपकी जिज्ञासा के समाधान में दे रहे हैं, इसे पढ़कर आप स्वयं २. कवि पुष्पदत विरचित महापुराण सर्ग ९८/५/१५ | निर्णय करें कि ऐसे आचार्य या मुनियों का इस प्रकार आहार में इसप्रकार कहा है - "भारी आरम्भ और परिग्रह से युक्त | लेना आगमसम्मत है या नहींघने मिथ्यात्व और तीव्र कषाय के कारण, हे सुभट! तुमने सितम्बर 2009 जिनभाषित 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524343
Book TitleJinabhashita 2009 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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