________________
जिज्ञासा-समाधान
पं० रतनलाल बैनाड़ा सा- अशभ तैजस का द्वीपायन मुनि का। उनके नेत्र के लाल-लाल तेज से आकाश ऐसा व्याप्त हो उदाहरण, तो हमको ज्ञात है। क्या कोई अन्य उदाहरण भी | गया मानों संध्या हो गई हो। क्रोध से तपे हुए मुनिराज शास्त्रों में मिलते हैं तो बतायें।
के समस्त शरीर में पसीने की बँदे निकल आईं और उनमें समाधान- अशुभ तैजस समुद्धात के कुछ अन्य | लोक का प्रतिबिम्ब पड़ने लगा। उन मुनिराज ने मुख से उदाहरण भी प्रथमानुयोग के शास्त्रों में उपलब्ध होते हैं। 'हा' शब्द का उच्चारण किया, उसी के साथ मुख से धुंआ जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं
निकला जो कालाग्नि के समान अत्यधिक कुटिल और भाव पाहुड गाथा-४९ की टीका में बाहु मुनि की | विशाल था। उस धुंए के साथ ऐसी ही निरन्तर अग्नि कथा दी गई है। जिसमें लिखा है, "पश्चात् एक बाहु नामक निकली जिसने ईधन के बिना ही समस्त देश को भस्म मुनि उस नगर में आए, लोगों ने उनको रोका भी कि इस | कर दिया। कुछ भी शेष नहीं बचा। महान् संवेग से युक्त नगर में राजा दुष्ट है, उसने पाँच सौ मुनियों को घानी में | मुनिराज ने चिरकाल से जो तप संचित कर रखा था. वह पिलवा दिया है, आपको भी वैसा ही करेगा। उन लोगों | क्रोधाग्नि में दग्ध हो गया। के वचन सुनकर बाहु मुनि रुष्ट हो गए, जिससे उन्होंने अन्य कोई और प्रमाण भी यदि पाठकों को किसी अशुभ तैजस समुद्घात के द्वारा राजा और मंत्री सहित | शास्त्र में पढ़ने को मिलें, तो अवश्य बताने का कष्ट करें। समस्त नगर को भस्म कर डाला और स्वयं भी मर गया। जिज्ञासा- श्री. ही आदि देवियाँ व्यंतर जाति की मरकर वह रौरव नामक सातवें नरक के बिल में जा पड़ा।" | हैं या अन्य जाति की?
समुद्रदत्तचरित्र (रचियता पं० भूरामल जी शास्त्री, समाधान- श्री, ही आदि देवियाँ व्यंतर जाति की आ० ज्ञानसागर जी महाराज) में पृष्ठ २७ पर इस प्रकार | देवियाँ हैं। आगम प्रमाण इस प्रकार हैंकहा है- "वज्रसेन के दिल पर इसका यह प्रभाव हुआ १. तिलोयपण्णत्ति अधिकार-४ में कहा हैकि उसने विरक्त होकर जिनदीक्षा ले ली और अंतरंग से | तद्दह-पउमस्सोवरि, पासादे चेट्ठदे य धिदिदेवी। नहीं, किन्तु ऊपर से उसने घोर तप करना शुरू कर दिया। बह-परिवारेहिं जुदा,णिरुवम-लावण्ण-संपुण्णा।।१७८५।। तप करते-करते वह एक बार स्तवकगुच्छ नगर के बाहर | इगि-पल्ल-पमाणाऊ, णाणाविह-रयण-भूसिय-सरीरा। आकर बैठा था कि, उसे देखकर क्रोध में भरे हुए लोगों | अइरम्मा बेंतरिया, सोहम्मिंदस्स सा देवी॥ १९८६॥ ने उसे लाठी वगैरह से मारना शुरू किया। इससे क्रोध, अर्थ- उस द्रह संबंधी कमल के ऊपर स्थित भवन में आकर उस मुनि ने अपने बाँये कंधे से निकले हुए | में बहुत परिवार से संयुक्त और अनुपम लावण्ययुक्त तैजस पुतले से, पहले उस सारे नगर को जलाया और बाद | धृतिदेवी निवास करती है॥ १७८५ ॥ में खुद भी उसी से भस्म होकर नरक गया।"
अर्थ- एक पल्य आयु की धारक और नाना प्रकार पद्म पुराण भाग-२, पृष्ठ-२०४ पर इस प्रकार कहा | के रत्नों से विभूषित शरीरवाली अति रमणीय यह व्यन्तरिणी है- "राजा की आज्ञा के अनुसार गणनायक के साथ-साथ | सौधर्मेन्द्र की देवकुमारी (आज्ञाकारिणी) है॥ १७८६॥ जितना मनियों का समह था. वह सब पापी मनुष्यों के श्री उत्तरपुराण पृष्ठ १८८ पर इसप्रकार कहा हैद्वारा घानी में पिलकर मृत्यु को प्राप्त हो गया। उस समय तेषामाद्येषु षट्सु स्युस्ताः श्री-ही-धृति-कीर्तयः। एक मुनि कहीं बाहर गये थे, जो लौटकर उसी नगरी की बद्धिलक्ष्मीश्च शक्रस्य व्यन्तर्यो वल्लभाङ्गनाः ।। २००॥ ओर आ रहे थे। उन्हें किसी दयालु मनुष्य ने यह कहकर अर्थ- इनमें से आदि के छह तालाबों में क्रम से रोका कि हे निर्ग्रन्थ! तुम, निर्ग्रन्थ अवस्था में नगरी में मत | श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ये इन्द्र की वल्लभा जाओ अन्यथा घानी में पेल दिए जाओगे। समस्त संघ की व्यंतर देवियाँ रहती हैं। मृत्यु के दुःख से वे मुनि क्षण भर के लिए निश्चल हो | ३.पं० माणिकचन्द्र जी कौन्देय ने तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक गए। उन निर्ग्रन्थ मुनिरूपी पर्वत की शांतिरूपी गुफा से के पंचमखण्ड के अध्याय-३ के सूत्र २० 'तन्निवासिन्योसैकड़ों दुखों से प्रेरित हुआ क्रोधरूपी सिंह बाहर निकला।। --' की हिन्दी टीका में श्री आदि देवियों को, व्यंतर जाति
24 सितम्बर 2009 जिनभाषित -
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org