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________________ भूप: पुनर्जगौ वाक्यं नो चेन्मम वचः कुरु। । है' इत्यादि अनुमोदना पूर्वक होगा, दिगम्बर मुनि उस भोजन ममाहारकृते गेह्या गंतव्यं यथा तथा॥ ५८॥ को कदापि न करेंगे। उनके योग्य वही भोजन हो सकता अर्थ- हे मुनिनाथ! यदि आप तप छोड़ना नहीं | है, जो प्रासुक होगा तथा उनके उद्देश्य से न चाहते, तो कृपा कर आप मेरे गृह में भोजनार्थ जरूर आयें। | तथा विधिपूर्वक होगा। . राजा के ये वचन भी मोह परिपूर्ण जान मुनिवर सुषेण ने | दिगम्बर मुनि अतिथि हुआ करते हैं। उनके आहार कहा की कोई तिथि निश्चित नहीं रहती। मनि निमंत्रण-आमंत्रणराजन्निति न युक्तं में कृताहारग्रहादिकम्। पूर्वक भी भोजन नहीं कर सकते। आप विश्वास रखिए, यतीनां योगयुक्तानां तपः कृतविवर्जनम्॥ ५९॥ | जो मुनि निश्चित तिथि में निमंत्रणपूर्वक आहार करनेवाले मनोवचनकायैश्च यत्कृतं कारितं पुनः। हैं, कृत, कारित, अनुमोदना का कुछ भी विचार नहीं रखते, अनुमोदितमेवात्र हेयं हेयं च भोजनम्॥ ६०॥ वे मुनि नहीं हैं, जिह्वा के लोलुपी हैं एवं वज्र मूर्ख हैं। प्रासुकं यत्स्वयं जातं गेहिनां धाम्नि निश्चितं। यदि मेरे योग्य जैनशास्त्र के अनुसार कोई कार्य हो तो में अनदिष्टं समादेयं जेमनं यतिभिः सदा॥ ६१॥ | कर सकता हूँ। तिथि न विद्यते येषां येषामामंत्रणं न च। सर्वार्थसिद्धि (७/२१) की टीका में इस-प्रकार कहा कथ्यतेऽतिथयस्तत्र निघस्त्रे तिथिवर्जिते॥६२॥ गया है- "संयम का विनाश न हो, इस विधि से जो आता कतकारितसंमौदैन्यादं गह्णन्ति ये शठाः। है वह अतिथि है या जिसके आने की कोई तिथि नहीं, यतयो नात्र चोच्यते रसनाहतमानसाः॥ ६३॥ उसे अतिथि कहते हैं। तात्पर्य यह है कि जिसके आने अत इत्थं न वक्तव्यं भूप! भिक्षादिहेतवे। का कोई काल निश्चित नहीं है उसे अतिथि कहते हैं।" अन्यद्यद्रोचते तुभ्यं कथ्यमानं करोमि तत्॥१४॥ उपर्युक्त आगम-कथनानुसार किसी भी मुनि को अर्थ- हे राजन्! में इस काम को करने के लिए निमंत्रणपूर्वक नहीं जाना चाहिए तथा किसी भी दाता को सर्वथा असमर्थ हूँ। दिगम्बर मुनियों को इस बात की पूर्णतया | निमंत्रण देने का प्रयास नहीं करना चाहिए। (टीकाकारमनाई है। वे संकेत पूर्वक आहार नहीं ले सकते। आप | आचार्य अभिनंदनसागर महाराज) निश्चय समझिये, जो भोजन मन-वचन-काय द्वारा स्वयं किया, एवं पर से कराया गया, व पर को करते देख 'अच्छा १/२०५, प्रोफेसर्स कॉलोनी आगरा-२८२ ००२, उ० प्र० श्रेष्ठी श्री सुमेरमल जी पाण्ड्या आगरा का महाप्रयाण प्रसिद्ध समाजसेवी एवं उद्योगपति श्रेष्ठी श्री सुमेरमल जी पाण्डया का अपने आगरा निवास स्थान में दिनांक ६ जुलाई २००९ दिन सोमवार को ब्रह्ममुहूर्त में अष्टान्हिका पर्व की चतुर्दशी के दिन धर्मध्यानपूर्वक देहावसान हो गया। आपके निधन के समाचार से संपूर्ण जैनसमाज शोक संतप्त हो उठा। आपके पार्थिव शरीर के दाहसंस्कार में आगरा का जैन समाज, उद्योगपति, व्यवसायी, समाजसेवी संस्थाओं एवं विभिन्न समुदायों के शोकातुर प्रतिनिधि भारी संख्या में सम्मिलित हुए। मृदुभाषी एवं कोमल हृदय के धनी श्री सुमेरमल जी. पाण्डया एक ऐसे विशाल व्यक्तित्व के धारी थे, जिन्होंने संपूर्ण जीवनयात्रा शान के साथ पूर्ण की। आपका जन्म जैनजगत के सुप्रसिद्ध धर्मनिष्ठ श्रेष्ठी श्री गंभीरमल पाण्ड्या के घर में राजस्थान स्थित कुचामन सिटी में दिनांक १४ अक्टूबर १९२९ को हुआ था। आप अपने पिता श्रावकशिरोमणि श्री गंभीरमल जी पाण्डया के तृतीय सुपुत्र थे। अल्पवय में ही आपका विवाह गया (बिहार) निवासी स्व० कन्हैयालाल जी सेठी की सुपुत्री श्रीमती गुलाब कुमारी के साथ सम्पन्न हुआ था। आगरा के जैनसमाज में आपका प्रतिष्ठापूर्ण स्थान रहा है। आगरा नगर स्थित कमलानगर कॉलोनी के नव निर्मित जिनालय के जिनबिम्ब पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के परम प्रभावक शिष्य प.पू. मुनि श्री क्षमासागर जी एवं प.पू. मुनि श्री सुधासागर जी की प्रेरणा एवं आशीर्वाद से आपको उक्त पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में सौधर्म इन्द्र की भूमिका निभाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ जो आपके धर्ममय जीवन का एक क्रान्तिकारी मोड़ प्रमाणित हुआ। मदनलाल बैनाड़ा 26 सितम्बर 2009 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524343
Book TitleJinabhashita 2009 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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