SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 9
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है, ऐसा सुनने में आता हे। तत्त्वार्थसूत्र की गंधहस्ति- | तप में लीन है, वह सच्चा गुरु प्रशंसनीय है। विषयमहाभाष्य नाम की टीका समन्तभद्र स्वामी ने लिखी है, | कषायों से हमेशा दूर रहो, ज्ञान ध्यान तप में सदा लीन जिसका मंगलाचरण एक सौ चौदह- ११४ कारिकाओं | रहो और दुनियादारी के कार्यों से दूर रहो। यदि दुनियादारी में किया गया। उन कारिकाओं से आप्तमीमांसा नामक | के कार्यों में लगोगे तो गुरु की संज्ञा में नहीं आओगे। ग्रन्थ बन गया। यदि वह पूरा भाष्य ग्रन्थ होगा तो कितना | यह कहा है समन्तभद्र महाराज जी ने। दुनिया के कार्यों विशालकाय ग्रन्थ होगा, विचारणीय है। ऐसे समन्तभद्र | के लिए यह श्रमणत्व नहीं है। समय मिलेगा, तो हम महाराज ने परमार्थभूत देव-शास्त्र-गुरु के श्रद्धान को | अवश्य इस स्थिति को स्पष्ट करेंगे। क्या युग है, कब व्यवहारसम्यग्दर्शन कहा है। व्यवहार तो सराग है। सराग | से आ रहा है, कैसा आ रहा है, क्या बोध दिया जा है तो ऐसे है, ऐसे कैसे है? ऐसे अपने आप में निर्णय | रहा है। कोई इस ओर गड़बड़ कर रहा है, कोई उस करोगे तो यह ठीक नहीं होगा, यह ध्यान रखना। गुरु | ओर गड़बड़ कर रहा है। भरे बाजार में ऐसा हो रहा के विषय में परमार्थभूत विशेषण दिया है है। सड़क का मामला है। ज्यादा माल लाकर के सब विषयाशावशातीतो, निरारम्भोऽपरिग्रहः। देते हैं। ज्यादा बिक जाए इस लोभ से बाजार के दिन ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते॥र.श्रा.१०॥ | ऐसा करते हैं। जो पंचेन्द्रियों के विषयों की आशा से रहित है, (शेष अगले अंक में) आरंभ और परिग्रह से रहित है और ज्ञान, ध्यान तथा । 'श्रुताराधना (२००७)' से साभार स्वयम्भूस्तोत्र : हिन्दीपद्यानुवाद प्राचार्य पं० निहालचंद जैन, बीना श्री अजितनाथ स्तुति गणधर देवों से अर्चित हो, तेरी वाणी, जन मानस को उपकृत करती, विजय अनुत्तर से आकर अवतरित हृदय-कमल को पुलकित करती, परिजन जन दिव्य प्रभा से पुलकित मेघावरण मुक्त ज्यों दिनकर हर्षित मुख है सहज बाल-क्रीडा में विकसित करता है सरोज को॥ ८॥ भूमण्डल पर अजेय, शक्ति-संधारक अजित प्रभू के धर्मतीर्थ श्रुत में, हे लोकोत्तर मनुज तुम्हारा प्रवेश कर संसारी जन बंधुवर्ग ने अजित नाम सार्थक रक्खा था॥ ६॥ भव भव दुःख से उपरत हो जाते। सत्पुरुषों के समर्थ नायक, जैसे चन्दन सम शीतल गंगा-हृद में, अनेकान्त सर्वोदय-शासन, आकण्ठ डूब गज कभी परास्त नहीं हो पाया सूर्यताप की पीड़ा से बच जाते॥ ९॥ .----- पाखण्डी मायावी हथकण्डों से। परमागम विज्ञान के द्वारा परम पवित्र लोक मंगल है कल्मष कषाय को नष्ट किया। मनोरथों का सिद्धि प्रदाता।' शत्रुमित्र में समदृष्टि हे आत्मस्वरूपी! अजित नाम मन्त्रों सा सार्थक, तुमने स्वयं को जीत लिया। बना हुआ जन-जन का ध्याता ॥ ७॥. अनन्तचतुष्टयधारी प्रभुवर! कर्मरजों से मुक्त, धवल हो आर्हन्त्य-लक्ष्मी ज्ञान-विभूति का वर दो॥ १०॥ -सितम्बर 2009 जिनभाषित 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524343
Book TitleJinabhashita 2009 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy