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मांसाहार एवं पैशाचिक बुद्धिहीनता
डॉ. किशोरीलाल जी वर्मा, मे. ओ., अलीगंज हम लोग संसार के क्षणिक जीवन में कुछ ऐसे । केवल डॉक्टर या रोगी जान सकता है। भ्रम में पड़ जाते हैं कि यदि उस जीवन काल का | मांस के आहार से अंगों की शिथिल अनुमान लगाया जाये, तो शुभकर्मों की रोकड़ बही पर किसी और भोजन की अपेक्षा अधिक शारीरिक क्षति चढ़ाने के लिये जमा में 'कुछ नहीं निकल सकता है, | होती है। मांस को पकाने में उसके जीवन प्रदान करनेवाले जीवन प्रायः कष्टमय है। उसमें सुखाभासकी झलक, | मूल कण समाप्त हो जाते हैं और केवल तेजाब एवं जो कभी दैव अनुकम्पा से दिखती है, वह स्थायी नहीं। | नायट्रोजिनिस पदार्थ अर्थात् वायु उत्पादक अन्तिम शेष भौतिक सुख इन्द्रिजन्य होने के कारण सुखाभास है। उसकी | रह जाते हैं। इन पदार्थों को ग्रहण करने का अर्थ केवल तुलना आत्माह्लाद से, शुद्ध आत्मसुख से नहीं की जा | क्रमशः आत्मघात करना ही कहा जा सकता है। सकती है। सच्चे सुख से शुद्ध विचार उत्पन्न होते हैं। पके हुये मांस में नायट्रोजन मनुष्य की आवश्यकता विचारों की मलिनता सच्चे सुखको नष्ट कर देती है। से कहीं अधिक और सलफर तथा फास्फोरस की राख यह जानबूझकर भी हमलोग दुखी होते हैं और दुख के | अधिकतर रह जाती है, जिसमें मूत्र सौगुना तेजाबी, उस कारण बनते हैं, आश्चर्य केवल यही है। हम क्यों रोगी | मूत्र के अनुपाते से होता है, जो एक अनुमानित भोजन हैं? इसलिये कि शरीर में विकारविष उत्पन्न किया है | से बनता है। फल और साग मांस के साथ ग्रहण करने और वह हमारे ही आचार विचारों का फल है। के उपरान्त भी उनके खारी नमक इस तेजाब का समीकरण
किसी रोग की पहिचान लक्षणों द्वारा होती है, किन्तु | नहीं कर सकते हैं। मेरा अनुभव है कि मांसाहारियों केवल लक्षणों का जानना, उस समय तक व्यर्थ है, जब | को बहुधा रक्तदबाब के अधिक होने के रोग शाकाहारियों तक कारण का बोध न हो और उसकी चिकित्सा का | की अपेक्षा अधिक होते हैं। उनके मूत्राशय भी कमजोर ज्ञान न हो। जो कुछ भी शरीर में विष उत्पन्न होता | होते हैं। हैं, वह भोज्य पदाथों की अन्तिम परिणत अवस्था एवं मिचीगन यूनीवर्सिटी के प्रो० श्री न्यूवर्ग का कथन विचारों के प्रभाव से होता है, जो ऐसे भोज्य पदार्थों की | है कि अधिकांश में अधिक समय तक मांसाहार करने इच्छा उत्पन्न करते हैं। इसलिये ही चिकित्सक को बहुधा | से धमनियाँ मोटी हो जाती हैं और ब्राइट्स डिजीज, असफलता होती है। वैसे तो कई एक ऐसे भोज्यपदार्थ | सिलसिलबोल अथवा बहुमूत्र और गुर्दे की बीमारियाँ हो हैं जिन पर विचार प्रकट किये जा सकते हैं, किन्तु | जाती हैं। रूस के प्रमुख डाक्टर एनीश्को ने भी यह यहाँ पर मैं केवल मांसाहार पर ही सीमित रहूँगा। | प्रमाण दिया है कि कोलेस्ट्रोल, जो मांस की चर्बी का
यदि हम स्वयं ठीक नहीं रह सकते, तो दूसरे | मुख्य अंश है, धमनियों की सिकुड़न अथवा आर्टीरीयो अवश्य ठीक करेंगे। हम लोगों को पापों और दुष्कर्मों | स्कीलौरीसस उत्पन्न करता है। प्रो० मेकोलम अमेरिका के लिये कोई दूसरा दण्ड नहीं देता, बल्कि मेरी समझ | का एक प्रसिद्ध भोज्य रसायनवेत्ता डाक्टर है। उसका में पाप और दुष्कर्म स्वयं हमको सजा देते हैं। मत है कि मांस कोई और किसी प्रकार मनुष्य के लिये
हिपोक्रेटस, जिसने चिकित्सा निकाली और जो | उसके स्वास्थ्य को लाभकारी या आवश्यक भोज्य पदार्थ शाकाहार का दक्ष डाक्टर था, उसकी यह शिक्षा थी कि | नहीं है। भोजन ही केवल औषधि है और औषधि केवल भोजन | भोज्य पदार्थों के मुख्यांश की रसायन क्रिया का
| खारी अथवा खड़ी या तेजाबी होना ही पाचन क्रिया की __भोजन करना और उसका मलमूत्र बनना अथवा | विधि पर प्रभाव डालता है। रक्त की रसायनक्रिया व्यर्थ पदार्थों का बाहर निकलना, ये दो पृथक् क्रियायें साधारणतः ७५ प्रतिशत खारी तथा २५ प्रतिशत खट्टी हैं। यदि परिणत भोज्य का व्यर्थ अंश छाँटने में शरीर ] या तेजाबी होती हैं। फल तथा साग के नमक भी अधिक के अंगो पर अधिक प्रभाव पड़ता अथवा उनकी छिन्नता | से अधिक खारी और तेजाबी हो सकते हैं। अत: उनकी हो जाती है, शरीर शिथिल होकर रोगी हो जाता है, जिसे | मात्रा का ठीक अनुपात जान लेना उचित है।
-सितम्बर 2009 जिनभाषित 11
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