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________________ रजि नं. UPHIN/2006/16750 ॐ मुनि श्री योगसागर जी की कविताएँ म प्रभु ने यही कहा स्वार्थी की यही पहचान प्रशंसा की बातों से मालिश करता है अच्छे-अच्छे पकवान खिलाकर पालिश करता है जब स्वार्थ सिद्ध नहीं होता है वो नालिश करता है। है भक्त! विषयों से विरक्त हर वक्त अनुरक्त सशक्त है भगवत् भक्ति में जिससे लुप्त, सुप्त और गुप्त शक्ति को अभिव्यक्त करता है यह वहीं भक्ति है जो मुक्ति को दिलाती है। मोहित में मो-हित नहीं अहित है मोहित तो मोहरहित आत्मा में है। 4 हे प्रभु! कैसा मेरा भाग्य कैसा वक्त आया यह क्या देख रहा हूँ धर्म की ओट में स्वार्थ छिप रहा है अर्चनावाले भर्त्सना करते हैं मेल-मिलापवाले विलाप कराते हैं निकटवाले ही विकट में डालते हैं गुरु की खुशी में शिष्य के दिल में खुश्की होती है तो कहना होगा समर्पण का अभाव है और शिष्य जिन बातों से खुश होता है उससे यदि गुरु को खुश्की होती है तो कहना होगा अप्रभावना की यही निशानी है। प्रस्तुति - प्रो० रतनचन्द्र जैन स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, 210, जोन-1, एम.पी. नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं 1/205 प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित / संपादक : रतनचन्द्र जैन। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524343
Book TitleJinabhashita 2009 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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