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________________ संजमसाधणमेत्तं उवधिं मोत्तण सेसयं उवधिं। पजहदि विसुद्धलेस्सो साधू मुत्तिं गवेसंतो॥ १६४॥ मुक्ति को खोजनेवाला विशुद्ध लेश्या से युक्त साधु, संयम के साधनमात्र परिग्रह को छोड़कर शेष परिग्रह को प्रकर्ष अर्थात् मन वचन काय से त्याग देता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने असंयमी अथवा संयम को दूषित करनेवाली निरंकुश चर्या अपनाने वाले मुनियों की वंदना नहीं करने का निर्देश इसलिए दिया है कि हमारे द्वारा ऐसे मुनियों की वंदना करने से उन मुनियों को उस शिथिलाचरण में प्रोत्साहन मिलता है और ऐसे धीरे-धीरे उनका शिथिलाचारण परम्परा बन जाता है। ऐसे ही दिगम्बरसंघ में से पृथक होकर शिथिलाचार का आश्रय लेने वाले साधुओं ने श्वेताम्बर संघ की स्थापना कर दी और अपने शिथिलाचार के समर्थन में आगम की भी रचना कर दी। कालांतर में यापनीयसंघ, भट्टारक सम्प्रदाय आदि भी शिथिलाचारी साधुओं की ही उपज हैं। आचार्य कुंदकुंद के समय में भी शिथिलाचारी मुनि थे और उन्होंने अपने पाहुडग्रंथों में ऐसे कुमुनियों की भरपूर भर्त्सना की है। कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि शास्त्र के स्थान पर लैपटाप का उपयोग किए जाने में क्या हानि है? बल्कि लाभ है, क्योंकि शास्त्र सुरक्षित रहते हैं और तुरंत संदर्भ प्राप्त हो जाता है। लगता है ऐसा तर्क देने वालों को आगम का ज्ञान नहीं है। मुनिराज उपदेश दे सकते हैं, किंतु स्वयं लैपटाप रखकर उसका उपयोग नहीं कर सकते। उसके उपयोग में अग्निकायिक स्थावर जीवों की हिंसा होती है, जिसके मुनिराज पूर्णतः त्यागी हैं। लैपटाप तथा मोबाइल का संचालन आरंभ है। दूसरा वह कीमती वस्तु परिग्रह है, जिसके मुनिराज त्यागी हैं। आ० कुन्दकुन्द ने सूत्रप्राभृत की गाथा १७ में लिखा है कि मुनि महाराज बाल के अग्रभाग की अणी के बराबर भी परिग्रह का ग्रहण नहीं करते हैं। अतः उन्हें योग्य श्रावक के द्वारा दिये हुए अन्न का हस्तरूप पात्र में भोजन करना चाहिए और वह भी एक ही स्थान पर। आगे गाथा १८ में कहा है कि यदि नग्नमुद्रा के धारक तिलतुषमात्र परिग्रह भी अपने हाथों में ग्रहण करते हैं, तो निगोद जाते हैं। वालग्गकोडिमित्तं परिगहगहणं ण होई साहूणं। भुंजेइ पाणिपत्ते दिण्णण्णं इक्कठाणम्मि॥ १७॥ जहजायरूवसरिसो तिलतुसमित्तं ण गिहदि हत्थेसु। जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदं॥ १८॥ इस लैपटाप की रक्षा की, खराब होने पर सुधारने की चिंता मन को संतापित करेगी, वे मुनिराज निर्विकल्प कैसे रह सकते हैं? मोबाइल फोन भी स्पष्ट परिग्रह है तथा इसके उपयोग में भी स्थावरहिंसा है। इसके अतिरिक्त इन कीमती उपकरणों के लिए श्रावकों से याचना करने का दोष है। क्षेत्रमर्यादा का भंग है व मोह का प्रतीक है। कूलर के प्रयोग से स्पर्शन-इन्द्रिय-विजय मूलगुण का भंग है और परीषह का सावद्य-प्रतिकार करने से परीषहसहनगुण भी नहीं रहता है। अपरिग्रह महाव्रत का भंग तो है ही, साथ ही वायुकायिक, अग्निकायिक एवं जलकायिक जीवों के विघात से अहिंसा महाव्रत का भी भंग होता है। इन भौतिक उपकरणों का प्रयोग आरंभ है और इनका संग्रह परिग्रह है। आरंभ परिग्रह के दोष, मुलगणों के भंग का दोष, अहिंसा महाव्रत एवं अपरिग्रह महाव्रत के भंग का दोष होने से इन भौतिक उपकरणों का प्रयोग करनेवाले सच्चे गुरु नहीं हो सकते। संयम का विघात होने से वे असंयमी हो गए। अतः आचार्य कुन्दकुन्द की आज्ञा के अनुसार ऐसे असंयमी मुनियों को प्रणाम एवं विनय नहीं करना चाहिए। चारित्रचक्रवर्ती आचार्य शांतिसागर जी महाराज ने सम्पूर्ण आरंभ परिग्रह के त्याग का उच्च आदर्श स्थापित किया था। बाहर से दिगम्बर भेष धारण करते हुए यदि लैपटाप, कूलर, मोबाइल फोन आदि का सितम्बर 2009 जिनभाषित 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524343
Book TitleJinabhashita 2009 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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