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सम्पादकीय
अस्संजदं ण बंदे
- पूज्य आचार्य समंतभद्र स्वामी ने अपने प्रथम श्रावकाचार ग्रंथ में पारमार्थिक (सच्चे) देव शास्त्र गुरु के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन अथवा धर्म कहा है। उसके विपरीत मिथ्या देव शास्त्र गुरु की मान्यता को मिथ्या-दर्शन अथवा अधर्म कहा है। उन्होंने सच्चे गुरु का लक्षण बताया है
विषयावशातीतो निरारंभोऽपरिग्रहः।
ज्ञानध्यान तपो रक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते॥ जो विषयों की आशा के वश में नहीं हैं, आरंभ व परिग्रह से रहित हैं, जो ज्ञान, ध्यान व तप में सर्वदा लीन रहते हैं, वे सच्चे गुरु होते हैं। उक्त लक्षण से विपरीत आचरण करनेवाले गुरु कुगुरु कहे जाते हैं। रत्नकरण्ड-श्रावकाचार में सच्चे गुरु का सकारात्मक लक्षण बताने के पश्चात् आगे तीन स्थानों पर मिथ्या आचरणवाले मिथ्यागुरु की विनयादि करने को भी सम्यग्दर्शन का दोष बताया है। अमूढदृष्टि
र्गन में मिथ्यादर्शन एवं मिथ्यादृष्टियों की मन-वचन-काय से प्रशंसा-वंदना करना मूढदृष्टि दोष है। गुरुमूढ़ता में लिखा है
सग्रंथारंभहिंसानां संसारावर्तवर्तिनाम्।
पाखण्डिनां पुरस्कारो ज्ञेयो पाखण्डिमोहनम्॥ आरंभ, परिग्रह एवं हिंसाकार्य में सलग्न होनेवाले गुरु संसार में रुलाने वाले होते हैं, उनकी पूजा आराधना सत्कारादि करना गुरुमूढता है। पुनः लिखा है कि
भयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवाऽगमलिंगिनाम्।
प्रणामं विनयं चैव न कुर्युः शुद्धदृष्टयः॥ अन्य ग्रंथों में सम्यग्दर्शन के दोषों में ६ अनायतन भी गिनाए हैं। मिथ्या देव, शास्त्र, गुरु और उनके उपासक अनायतन हैं, इनसे संबंध रखना सम्यग्दर्शन को दूषित करता है।
सच्चे गुरु की भक्ति नहीं करना जैसे सम्यग्दर्शन का दोष है, वैसे ही मिथ्या गुरु की भक्ति करना भी सम्यग्दर्शन का दोष है। मिथ्या देव, शास्त्र, गुरु की भक्ति से हमारा अगृहीत मिथ्यादर्शन तो पुष्ट होता ही है, साथ ही मिथ्यात्व की परम्परा को भी पोषण मिलता है। दिगम्बरजैनधर्म की तीर्थंकर-सदृश प्रभावना करनेवाले आचार्य कुंदकुददेव दंसणपाहुड में लिखते हैं
अस्संजदं ण बंदे वच्छविहीणोवि सो ण वंदिज्ज।
दुण्ण वि होंति समाणा एगो वि ण संजदो होदि॥ २६॥ असंयमी को नमस्कार नहीं करना चाहिए और जो वस्त्ररहित होकर भी असंयमी है, वह भी नमस्कार के योग्य नहीं है। ये दोनों ही समान है, दोनों में एक भी संयमी नहीं है।
हमें विचार करना है कि सयंमी कौन होते हैं और असंयमी कौन? मुनि महाराज पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियविजय, षडावश्यक एवं सात अन्य मूलगुणों का पालन करते हैं अतः वे संयमी होते हैं। महाव्रतों के पालन से सकल संयम होता है और अणुव्रतों के पालन से देश संयम होता है। मुनि त्रस व स्थावर दोनों प्रकार के जीवों की हिंसा के त्यागी होने से अहिंसा महाव्रत एवं सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करने से अपरिग्रह महाव्रत के धारक होते है। यदि मुनिराज मोबाइल, फोन, लैपटाप आदि वस्तुएँ रखते हैं और उनका तथा कूलर, पंखा आदि का प्रयोग करते हैं, तो वे असंयमी हो जाते हैं। मोबाइल फोन, लैपटाप, कूलर आदि उपकरण नहीं, परिग्रह हैं। उपकरण संयम की साधना में आत्मा का उपकार करनेवाले केवल तीन ही होते हैं- पीछी, कमण्डल और शास्त्र। भगवती-आराधना में मुनि के उपकरण के बारे में लिखा हैं
2 सितम्बर 2009 जिनभाषित
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