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का धान्यादि यह दृष्टफल है और पापकर्म का बन्ध | अशरीरी होकर भी किसी नये शरीर में जन्म लेना मान होना यह अदृष्टफल है। इसी तरह दानादि का यशप्राप्ति | लिया जावे तब; तो मुक्त जीवों का भी पुनः शरीर ग्रहण आदि दृष्टफल है और पुण्यकर्म का बन्ध होना अदृष्टफल करने का प्रसंग आ उपस्थित होगा। है। यदि कृषि आदि सावध क्रियाओं का धान्यप्राप्ति आदि । कर्मों की सिद्धि के लिए चौथा हेतु यह है कि दृष्टफल ही माना जावे, अदृष्टफल पाप बन्ध नहीं माना | जीवों के जो रागद्वेषादि भाव पैदा होते हैं, वे भाव आत्मा जावे तो सावध आरम्भ करनेवाले सभी जीवों को मोक्ष | के निज भाव तो हैं नहीं, क्योंकि उन्हें निज भाव मानने हो जायेगा और यह संसार जीवों से शून्य हो जायेगा। पर सिद्धों के भी उन्हें मानने पड़ेंगे। परन्तु सिद्धों के
प्रश्न : कृषि आदि क्रियायें धान्यादि प्राप्ति की वे हैं नहीं और यदि इन भावों को जीव के न मानकर इच्छा से की जाती हैं। करनेवाला पाप कमाने के अभिप्राय | कर्मों के मानें, तो कर्म पुद्गल हैं। अचेतन के द्वारा से उन्हें नहीं करता है, तब कर्ता को पाप का बन्ध, द्वेषादि भावों का होना सम्भव नहीं है। जैसे उत्पन्न हुई भी क्यों माना जावे?
संतान न अकेली माता की है और न अकेले पिता की, उत्तर : जैसे किसान गेहूँ का बीज बोता है। उनके | किन्तु दोनों ही के संयोग से उत्पन्न हुई मानी जानी साथ भूल से कोंदू का कोई बीज बोने में आ जाये | चाहिए। जीव की इस वैभाविक परिणति से भी जीव तो उस कोंदू के बीज से कोंदू ही पैदा होगी। नहीं| के साथ होनेवाला कर्म बंध होता है। जैसे हल्दी और चाहने से उससे गेहूँ पैदा नहीं हो सकते हैं। उसी तरह | चूने के के मेल से एक तीसरा ही विलक्षण लाल रंग कृषि आदि क्रियाओं का अदृष्टफल पाप कर्मों का बंध पैदा होता है। इस लाल रंग में न हल्दी का पता लगता नहीं चाहते भी पाप बंध होगा ही। जगत् में दुःखी जीव है और न चूने का। किसी ने कहा हैबहुत हैं और सुखी जीव थोड़े हैं। इसका भी कारण हरदी ने जरदी तजी चूना तज्यो सफेद। यही है कि जगत् में पापकार्यों के करनेवाले बहुत जीव दोऊ मिल एकहि भये रह्यो न काहू भेद॥ हैं और पुण्यकार्यों के करनेवाले थोड़े जीव हैं। अगर उसी तरह अरूपी जीव के साथ रूपी कर्मपुदगलों कृषि आदि सावद्यारंभ का अदृष्ट-फल पापबंध नहीं होता, का मेल होकर एक ऐसी तीसरी विलक्षण दशा पैदा तो जगत में प्रचुर मात्रा में दुःखी जीव दिखाई नहीं देते। हो जाती है, जिसे हम जीव की वैभाविक अवस्था के दूसरी बात यह है कि समान साधनों के होते हुए भी | नाम से पुकारते हैं। इस अवस्था में न तो जीव के असली कृषि, व्यापार आदि करनेवालों में समान फल की प्राप्ति रूप का पता पड़ता है और न पुद्गल के असली रूप नहीं देखी जाती है। इसका कारण भी जीवों का अदृष्टफल | का। पुण्य-पाप ही माना जावेगा। कारण के बिना कार्य नहीं कर्म और आत्मा का मेल कुछ ऐसे ढंग का समझना होता है, यह नियम है। जैसे परमाणुओं से घट बनता | चाहिए कि दोनों एक दूसरे में मिलकर एकस्थानीय बन है। यहाँ घट कार्य है, परमाणु कारण हैं। उसी तरह जाते हैं। फिर भी दोनों का अपना-अपना स्वरूप अलगदृष्टफल में तरतमता देखी जाती है वह भी कार्य है,| अलग रहता है। न तो चेतन आत्मा पौद्गलिक कर्मों उस कारण भी पुण्य-पाप ही मानना पड़ेगा। के मेल से अचेतन बनता है और न अचेतनकर्म चेतन
कर्मों की सिद्धि के लिये तीसरा हेतु यह है कि बनता है। जैसे सुवर्ण और चाँदी को मिला देने से दोनों संसारी जीवों की गमनादि क्रियायें बिना शरीर के नहीं| एकमेक हो जाते हैं, तथापि दोनों धातुओं का अपनाहो सकती हैं। जब कोई संसारी जीव पूर्व पर्याय को | अपना गुण अपने ही साथ रहता है, गुण एक दूसरे में छोड़कर अगली पर्याय में जावेगा, तब पहिले का स्थूल | नहीं मिलते हैं। इसीलिए जब न्यारगर से उनका शोधन शरीर तो छूट जायेगा और अगला स्थूल शरीर अभी | कराया जाता है, तो वे दोनों धातुयें अलग-अलग हो प्राप्त नहीं हुआ। अन्तराल में (विग्रह गति में) उस जीव | जाती हैं। उसी तरह आत्मा का भी जब तपस्या के द्वारा के अगर सूक्ष्म कार्मण शरीर भी नहीं माना जावेगा, तो| शोधन होता है, तब आत्मा और कर्म दोनों अलग-अलग उसके गमन का अन्य क्या कारण होगा? विग्रहगति में | हो जाते हैं। फर्क इतना ही है कि शोधे हुए सोने में यदि आत्मा को बिल्कुल अशरीरी मान लिया जावे और | कोई चाहे, तो फिर भी चाँदी का मेल किया जा सकता
सितम्बर 2009 जिनभाषित 9
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