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जिनभाषित
वीर निर्वाण सं. 2535
नवनिर्मित जैन मन्दिर फिनिक्स (अमेरिका)
फाल्गुन, वि.सं. 2065
फरवरी, 2009
• मूल्य
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कम बलवाले ही कम्बलवाले होते हैं
• आचार्य श्री विद्यासागर जी
शीत-ऋतु के वृत्तान्त द्वारा परावलम्बन के त्याग और स्वभावावलम्बन के द्वारा मोक्षप्राप्ति का उपदेश।
आखिर अखर रहा है यह शिशिर सबको पर! पर क्या? एक विशेष बात है, कि शिल्पी की वह सहज रूप से कटती-सी रात है! एक पतली-सी सूती-चादर भर उसके अंग पर है!
और वह पर्याप्त है उसे, शीत का विकल्प समाप्त है। फिर भी, लोकोपचार वश कुछ कहती है माटी शिल्पी से बाहर प्रांगण से ही-- "काया तो काया है जड़ की छाया-माया है लगती है जाया-सी...
"कम बलवाले ही कम्बलवाले हाते हैं और काम के दास होते हैं। हम बलवाले हैं राम के दास होते हैं और राम के पास सोते हैं। कम्बल का सम्बल आवश्यक नहीं हमें सस्ती सूती-चादर का ही आदर करते हम! दूसरी बात यह है कि गरम चरमवाले ही शीत-धरम से भय-भीत होते हैं और नीत-करम से विपरीत होते हैं। मेरी प्रकृति शीत-शीला है
और ऋतु की प्रकृति भी शीत-झीला है दोनों में साम्य है तभी तो अबाधित यह चल रही अपनी मीत-लीला है।
सो....
कम से कम एक कम्बल तो.. काया पर ले लो ना! ताकि... और...." चुप हो जाती है माटी तुरन्त .... फिर शिल्पी से कुछ सुनती है
मूकमाटी (पृष्ठ ९१-९३) से साभार
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रजि. नं. UPHIN/2006/16750
फरवरी 2009
वर्ष 8,
अङ्क 2
मासिक जिनभाषित
सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन
अन्तस्तत्त्व
कार्यालय ए/2, मानसरोवर, शाहपुरा भोपाल-462 039 (म.प्र.) फोन नं. 0755-2424666
सहयोगी सम्पादक पं. मूलचन्द्र लुहाड़िया, मदनगंज किशनगढ़ पं. रतनलाल बैनाड़ा, आगरा डॉ. शीतलचन्द्र जैन, जयपुर डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत प्रो. वृषभ प्रसाद जैन, लखनऊ डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती', बुरहानपुर
शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कँवरलाल पाटनी
(मे. आर.के.मार्बल)
किशनगढ़ (राज.) श्री गणेश कुमार राणा, जयपुर
. काव्य : कम बलवाले ही कम्बलवाले होते हैं
: आचार्य श्री विद्यासागर जी आ.प्र. 2 . बिहारी की गजल : ईंट-पत्थर से बने मस्जिदो-मन्दिर
: स्व. श्री बिहारीलाल जी जैन आ.प.3 • मुनिश्री क्षमासागर जी-संस्मरण प्रसंग
बिहार और बैण्ड-बाजे : प्रस्तुति- सरोज कुमार आ.पृ.4 | . सम्पादकीय : नवरात्रोत्सव जैनपरम्परा में मान्य नहीं 2
लेख • अविरत सम्यग्दृष्टि का स्वरूप
: मुनि श्री विनीतसागर जी • दिग्विजय : मूलचन्द लुहाड़िया आत्मा की आयतनिक मीमांसा
: डॉ० श्रेयांसकुमार जैन • जैन संगीतशास्त्र : डॉ० अभय दगड़े • तत्त्वार्थसूत्र में प्रयुक्त 'च' शब्द का विश्लेषणात्मक
विवेचन : पं० महेशकुमार जैन, व्याख्याता । • अमेरिका में पहला जैनमन्दिर : कैलाश मड़वैया
• हे माँ! तुम्हें प्रणाम : डॉ० सुरेन्द्रकुमार जैन 'भारती' 27 • जिज्ञासा-समाधान : पं० रतनलाल बैनाड़ा 29 ग्रन्थ समीक्षा : सबके रहस्य
: डॉ० अजितकुमार जैन |. समाचार
6, 11, 14, 28 . आपके पत्र
31,32
प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी,
आगरा-282 002 (उ.प्र.) फोन : 0562-2851428, 2852278
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लेखक के विचारों से सम्पादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है। 'जिनभाषित' से सम्बन्धित समस्त विवादों के लिये न्यायक्षेत्र भोपाल ही मान्य होगा।
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सम्पादकीय
नवरात्रोत्सव जैन परम्परा में मान्य नहीं
भारतीय संस्कृति में वैदिक एवं श्रमण ये दोनों संस्कृतियाँ अपना प्रमुख स्थान रखती हैं। इन दोनों संस्कृतियों में कुछ विशिष्ट पर्व / त्यौहार एवं उत्सव अपना-अपना विशेष महत्त्व रखते हैं । वैदिक संस्कृति के प्रमुख उत्सवों में नवरात्रोत्सव भी प्रमुख महत्त्व रखता है।
वर्तमान में कुछ वर्षों से देखा जा रहा है कि कतिपय दिगम्बर जैन साधु एवं शास्त्रीय परम्पराओं से अनभिज्ञ विधानाचार्य भोले-भाले श्रावकों को 'आश्विन शुक्ला एकम से आश्विन शुक्ला नवमी' तक नवरात्रोत्सव मनाने के लिए प्रेरित करने लगे हैं। उससे पहले जैनधर्मावलम्बियों के द्वारा नवरात्रि महोत्सव कभी नहीं मनाया जाता था। जैनेतरों में भी वैदिक धर्मावलम्बियों के अलावा अन्य किसी भी सम्प्रदाय में लोग नवरात्रि नहीं मनाते हैं। नवरात्रि महोत्सव के सम्बन्ध में विभिन्न जैन पत्र-पत्रिकाओं में कुछ लेख भी दृष्टिगोचर हुए हैं अतः यह आवश्यक समझा गया कि नवरात्रि महोत्सव के विषय में दिगम्बर जैन शास्त्रों के अनुसार आगमदृष्टि को समाज के सामने रखा जाये, ताकि सभी को ज्ञात हो सके कि दिगम्बर जैन धर्म में नवरात्रि महोत्सव मनाने के सम्बन्ध में आचार्यों ने कहीं कुछ लिखा भी है या नहीं। इसी आशय को स्पष्ट करना हमारे इस लेख का सदभिप्राय है ।
मुझे इसके लिखने का भाव तब आया, जब मैंने एक दिगम्बर जैन विद्वान् द्वारा एक जैन पत्रिका में यह लिखा हुआ पड़ा कि नवरात्रोत्सव वैदिक परम्परा का नहीं, अपितु जैन परम्परा का है क्योंकि वैदिक परम्परा में कहीं भी इस उत्सव का वर्णन नहीं मिलता, अपितु यह जैन परम्परा की देन है । ' जब इस परम्परा के मनाने के शास्त्रीय प्रमाण खोजे, तो जैन परम्परा में मनाने का कोई भी प्रमाण नहीं मिला। बल्कि जिस प्रमाण के सहारे उक्त जैन विद्वान् ने यह महोत्सव जैन परम्परा का सिद्ध करना चाहा, तो वह भरतेश - वैभव ग्रन्थ रेखांकित किया जो अप्रामाणिक एवं अग्राह्य है। इस ग्रन्थ के विषय में पृथक् से लेख दिया जायेगा । अभी प्रस्तुत आलेख में वैदिक परम्परा में नवरात्रोत्सव कब से मनाया जा रहा है और कब-कब मनाया जाता है, इसके शास्त्रीय प्रमाण प्रस्तुत कर, सिद्ध करना है कि नवरात्रोत्सव मनाने की परम्परा वैदिक संस्कृति की परम्परा है, श्रमण संस्कृति में यह परम्परा आगमानुकूल नहीं है।
चैत्र
वैदिक परम्परा में यह महोत्सव वर्ष में दो बार मनाया जाता है। प्रथम तो चैत्र शुक्ला एकम से शुक्ला नवमी तक तथा दूसरा आश्विन शुक्ला एकम से आश्विन शुक्ला नवमी तक मनाया जाता है। महर्षि वेदव्यास ने श्रीमद् भागवतपुराण में लिखा है कि
शुणु राजन्! प्रवक्ष्यामि नवरात्रव्रतं शुभम् । शरत्काले विशेषेण कर्त्तव्यं विधिपूर्वकम् ॥
(श्रीमद्देवी भागवत पुराण, तृतीय स्कंध, अ. २६ प्रकाशक- गीता प्रेस, गोरखपुर, द्वितीय संस्करण, पृष्ठ १४५) हे राजन्! सुनो मैं पवित्र नवरात्रि व्रत को कहता हूँ, जो विशेषरूप से शरत्काल में विधिपूर्वक करने योग्य है।
तस्मात्तत्र प्रकर्त्तव्यं चण्डिका पूजनं बुधैः । चैत्राश्विने शुभे मासे, भक्तिपूर्वं नराधिप ॥
अर्थ - हे राजन् ! इसलिये चैत्र तथा आश्विन इन दो शुभ महिनों में ज्ञानियों के द्वारा भक्तिपूर्वक चण्डिका देवी की पूजा करने योग्य है।
उन्होंने इस ग्रंथ में बहुत विस्तार से कहा है कि प्रत्येक दिन किस देवी की पूजा, किस प्रकार, किस विधि से करने योग्य है । वस्तुतः वैदिक संस्कृति / साहित्य में नवरात्रि महोत्सव मनाने का यह वर्तमान
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में उपलब्ध प्राचीनतम प्रमाण है। ५वीं शताब्दी के प्रसिद्ध महर्षि मार्कण्डेय लिखते हैं
शरत्काले महापूजा क्रियते या च वार्षिकी। तस्यां ममैतन्माहात्म्यं श्रत्वा भक्तिसमन्वितः॥
(मार्कण्डेय पुराण, भाषाटीका, अ. ८९ श्लो. ११, पृ. २२६
प्रकाशक- चौखम्बा विद्या भवन, वाराणसी, १९९५ संस्करण) अर्थ-शरत्काल में जो वार्षिकी महापूजा की जाती है, उस पूजा के समय मेरा यह माहात्म्य भक्तियुक्त होकर श्रवण करो।
वैदिक परम्परा के पुराणग्रन्थों में नवरात्रि महोत्सव का उपर्युक्त प्रमाण लगभग १५००-१६०० वर्ष प्राचीन है। इससे स्पष्ट होता है कि नवरात्रि महोत्सव मनाने की परम्परा वैदिकधर्मानुसार इससे भी प्राचीन है।
आदरणीय कमलाकर भट्ट 'निर्णय सिंधु' की पृष्ठ संख्या २८०, जो कि चौखम्बा विद्या भवन वाराणसी से प्रकाशित है, उसमें लिखते हैं कि स्कंधपुराण (जिसका काल लगभग सातवीं शताब्दी ईसवी है) में लिखा है कि आश्विन मास के शुक्ल पक्ष में विशेषकर नवरात्र में दुर्गा का पूजन करके एकाग्रचित्त से उक्त व्रत करे। यह नवरात्र नाम का कर्म है। ज्ञातव्य है कि 'निर्णयसिंधु ग्रंथ' सोलहवीं शताब्दी में लिखा गया है। इस ग्रंथ में वैदिक परम्परा में मनाये जानेवाले सभी महोत्सवों की तिथियों का निर्णय कैसे करना चाहिये, इसका विस्तार से शास्त्रीय प्रमाणों के अनुसार वर्णन किया गया है।
_ 'निर्णय सिंधु' ग्रंथ के पृष्ठ संख्या २७७ से २८१ तक आश्विन मास में नवरात्रि मनाने की तिथियों का निर्णय करते हुए निम्नलिखित ग्रंथों का आधार लिया है। अर्थात् निम्नलिखित सभी ग्रंथों में नवरात्रि मनाये जाने का उल्लेख पाया जाता है
१. मत्स्य पुराण (रचनाकाल २०० से ४०० ई०) २. डामर तंत्र (रचनाकाल सातवीं शताब्दी) ३. रुद्रयामल तंत्र (रचनाकाल सातवीं शताब्दी) ४. भविष्य पुराण (रचनाकाल सातवीं शताब्दी) ५. भार्गव वार्चन दीपिका ६. देवी पुराण ७. तिथि तथ्य ८. रूपनारायण ९. कालिका पुराण १०. मदनरत्न ११. विष्णु धर्म १२. दुर्गाभक्ति तरंगिणी १३. निर्णयामृत १४. ब्रह्माण्ड पुराण १५. गौण निबंध
उक्त सभी ग्रंथों मे नवरात्रि मनाने का विधान किया गया है। उपर्युक्त प्रमाणों से स्पष्ट है कि वैदिक परम्परा में नवरात्रि महोत्सव देवी पूजा के रूप में ई० पूर्व अनेक वर्षों से निरन्तर मनाया जा रहा है।
नवरात्रि पर्व में पूजन करने की विधि भी निम्नलिखित ग्रन्थों में वर्णित है, जिसमें लिखा है कि गन्ध, पुष्प दीप, धूप आदि द्रव्यों के द्वारा देवी अर्चना करना चाहिये, साथ में बलि आदि चढ़ाने का भी प्रावधान लिखा है। जिन महानुभावों को विधि पढ़ना हो वे महानुभाव श्रीमद्भागवतपुराण के तृ. स्कन्ध,
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अ. २६/३२, मार्कण्डेय पुराण के २२७ पृ., निर्णयसिन्धु के पृ. ३०६ तथा धर्मसिन्धु के पृ. १९१ पर देख सकते हैं।
जैन वाङ्मय के अध्ययन करने से स्पष्ट है कि प्रथमानुयोग के ग्रन्थों में नवरात्रि महोत्सव के सम्बन्ध में एक भी शब्द लिखा नहीं मिलता। कुछ व्यक्तियों का सोचना है कि नवरात्रि पर्व भरत चक्रवर्ती द्वारा प्रचलित हुआ अर्थात् भरत चक्रवर्ती ने आश्विन शुक्ला एकम से नवमी तक दिग्विजय प्रारम्भ करने से पर्व पजा-विधान आदि करवाये। तथा आश्विन शुक्ला दशमी के दिन दिग्विजय के लिए प्रस्थान किया तब से ही नव दिन की पूजा के पर्व को नवरात्रि पर्व और प्रस्थान वाले दिन को विजयादशमी कहा जाता है।
परन्तु इन व्यक्तियों का यह चिन्तन, मात्र उनकी स्वयं की कल्पनाभर है। भरतचक्रवर्ती की प्रामाणिक कथा तथा चरित्रवर्णन सर्वप्रथम हमें श्री आदिपुराण, रचयिता आचार्य जिनसेन (९वीं शताब्दी) से प्राप्त होता है। जब कि इस ग्रन्थ में ऐसा कोई भी वर्णन रंचमात्र भी नहीं है कि भरतचक्रवर्ती ने प्रस्थान से पूर्व आश्विन सुदी एकम से आश्विन सुदी नवमी तक, इन नौ दिनों में कोई महोत्सव मनाया हो, महापूज की हो या नवरात्रि पर्व मनाया हो। ऐसा भी उल्लेख इस ग्रन्थ में नहीं मिलता कि भरत चक्रवर्ती ने आश्विन शुक्ला दशमी को दिग्विजय के लिए प्रस्थान किया और इसी वजह से वह दिन विजयादशमी कहलाता
है।
२. प्रथमानुयोग के प्राचीनतम ग्रन्थ पउमचरिअं (विमलसूरि ४ शताब्दी) में भरतचक्रवर्ती का चरित्रवर्णन तो है, पर नवरात्रि पर्व या विजयादशमी का नामोनिशान भी नहीं है।
३. पद्मपुराण (आचार्य रविषेण, ७वीं शताब्दी) में भी भरतचक्रवर्ती का चरित्रवर्णन है परन्तु इसमें भी नवरात्रि और विजयादशमी से सम्बन्धित उल्लेख नहीं है।
४. हरिवंशपुराण (आचार्य जिनसेन ८-९ वीं शताब्दी) में भी भरतचक्रवर्ती का वर्णन प्राप्त होता है, परन्तु नवरात्रि या विजयादशमी का कोई उल्लेख नहीं मिलता।
५. पुराणसंग्रह (आचार्य यामनन्दि १०वीं शताब्दी) में भी भरतचक्रवर्ती के चरित्रवर्णन में नवरात्रि या विजयादशमी का कहीं भी उल्लेख नहीं है।
६. अपभ्रंश भाषा में लिखे गये महापुराण (कवि पुष्पदंत, १०वीं शताब्दी) में महाराजा भरत का विशद वर्णन है, परन्तु यहाँ भी नवरात्रि एवं विजयादशमी का नामोल्लेख भी नहीं है।
७. महापुराण (आचार्य मल्लिषेण, १०वीं शताब्दी) में भरतचक्रवर्ती का चरित्रवर्णन तो है, परन्तु नवरात्रि या विजयादशमी का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता।
इसी प्रकार निम्नलिखित ग्रन्थों में भरतचक्रवर्ती का चरित्रचित्रण तो प्राप्त होता है, परन्तु किसी भी ग्रन्थ में नवरात्रि पर्व या विजयादशमी मनाने के कारण के सम्बन्ध में एक भी पंक्ति या शब्द नहीं मिला
८. पुराणसारसंग्रह (मुनि श्रीचंद्र, ११ वीं शताब्दी) ९. भरतेश्वराभ्युदय (अज्ञात, १२ वीं शताब्दी) १०. त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र (पं० आशाधर, १३ वीं शताब्दी) ११. बाहुबलिचरिउ (कवि धनपाल, १४ वीं शताब्दी) १२. आदिपुराण (भट्टारक सकलकीति १५वीं शताब्दी) १३. हरिवंशपुराण (भट्टारक यश:कीर्ति १५ वीं शताब्दी)
इनके अतिरिक्त श्रावकाचारसंग्रह पांचों भागों में दिगम्बर जैन श्रावकों के लिए पूजा की विधि का वर्णन एवं समस्त पर्वो का उल्लेख तो मिलता है, परन्तु नवरात्रि पर्व का नाम तथा इसके मनाने की विधि से सम्बन्धित उल्लेख नहीं है।
इससे स्पष्ट है कि दिगम्बर जैन वाङ्मय के प्रथमानुयोग एवं चरणानुयोग के समस्त उपलब्ध प्रामाणिक
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साहित्य में नवरात्रि महोत्सव या विजयादशमी का नामोल्लेख भी नहीं प्राप्त होता है। अतः नवरात्रि पर्व या विजयादशमी का जैनधर्म से दूर का भी कोई सम्बन्ध नहीं हैं।
कछ विद्वान भरतेश वैभव काव्यग्रन्थ को नवरात्रोत्सव के विषय में प्रस्तुत करते हैं। इसे जैनागम का प्रामाणिक शास्त्र नहीं कहा जाता है। यह तो एक श्रृंगारकवि रत्नाकर द्वारा रचित काव्यग्रन्थ है, जो मात्र काव्य है, आगम नहीं।
फिर भी यदि हम भरतेशवैभव के प्रसंगों को ही लें तो१. इस ग्रन्थ में नवरात्रि पर्व या विजयादशमी का कोई नामोल्लेख नहीं है।
२. नवरात्रि पर्व वर्ष में २ बार चैत्र एवं आश्विन की शुक्ला एकम से शुक्ला नवमी तक है, जबकि भरत चक्रवर्ती ने तो मात्र एक बार ही दिग्विजय के लिये यात्रा प्रारम्भ की थी, फिर इस पर्व को २ बार क्यों मनाया जाता है?
३. भरतेशवैभव में चैत्र अथवा आश्विन माह का कोई वर्णन उपलब्ध नहीं होता। पृ. १८१ पर यह लिखा मिलता है- 'अब वर्षाकाल की समाप्ति हो गई है। अब सेनाप्रयाण के लिए योग्य समय है। इसलिये आलस्य के परिहार के लिए दिग्विजय का विचार करना अच्छा होगा।'
पृ. १८२ पर लिखा है 'नौ दिन तक जिनेन्द्र भगवन्त की पूजा वगैरह उत्सव बड़े आनन्द के साथ कराकर दशमी के रोज यहाँ से प्रस्थान का प्रबन्ध करूँगा।'
पृ. १८४ पर लिखा है 'इस प्रकार प्रतिपदा से लेकर नवमी तक अनेक प्रकर से धर्मप्रभावना हो रही थी।'
पृ. १९० पर लिखा है 'आज दशमी का दिन है। राजोत्तम भरतेश ने श्रृंगार कर योग्य मुहूर्त में दिग्विजय के लिए प्रस्थान किया।'
उपर्युक्त ४ स्थानों पर महाराजा भरत द्वारा की जाने वाली दिग्विजय से पूर्व पूजा एवं प्रस्थान का वर्णन है, परन्तु नवरात्रि एवं विजयादशमी का इससे कोई सम्बन्ध नहीं जुड़ता है। कवि ने आश्विन या चैत्र मास का कोई नामोल्लेख नहीं किया है। तथा 'विजयादशमी' शब्द का भी कोई प्रयोग नहीं किया है। जो व्यक्ति भरतेशवैभव के आधार से नवरात्रि महोत्सव और विजयादशमी को सिद्ध करने का प्रयास करना चाहते हैं, वे केवल अपनी कपोलकल्पना को थोपना चाहते हैं। इस अप्रामाणिक ग्रन्थ में भी नवरात्रि या विजयादशमी का दिगम्बर जैनधर्म से कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं होता है।
वस्तुतः जिनधर्म को माननेवाला प्रत्येक व्यक्ति अच्छी प्रकार जानता है कि पूजा और आराधना किनकी की जाती है। हम तो वीतरागी देव एवं साधु के पूजक हैं। जो अपने को जैन कहता है और सरागी देवी-देवताओं की पूजा करता है, वह तो जैन कहलाने का अधिकारी भी नहीं है। ऐसे लोगों की अज्ञानता दूर करने के लिए आर्यिका स्याद्वादमती माताजी द्वारा लिखित 'वात्सल्य रत्नाकर' (पुस्तक प्राप्ति स्थानविमल साहित्य सदन, सम्मेदशिखर जी) के पृ. ३६४ पर आचार्य विमलसागर जी द्वारा दिये गये प्रश्नोत्तरों का निम्न अंश द्रष्टव्य है जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है
मैंने (आर्यिका स्याद्वादमती जी ने पूछा- आचार्यश्री! आजकल चारों ओर नवरात्रि को महोत्सव के रूप में मनाने का जोर चल रहा है। अपने यहाँ भी इसका कोई महत्त्व है क्या? इस समय हमें भी कोई जाप जपना चाहिये क्या?
आचार्य विमलसागर जी ने कहा- बेटा! जैनधर्म में नवरात्रि नामक कोई पर्व नहीं है। लोग तो मिथ्यात्व में फँसे हुए नाना देवी-देवताओं के चक्र में फँस रहे हैं। बेटा! अपने को इस मिथ्यात्व से बचना चाहिए। तुम्हें तो मात्र गणधरवलय व णमोकारमंत्र के जाप इन दिनों जपना चाहिये।
कुछ विद्वान् लोग ऐसा कहते नजर आते हैं कि आजकल साधुवर्ग नवरात्रि, नव-दुर्गामहोत्सव में देवी-आराधना व गरबा नृत्य देखते हुए जो मिथ्यात्व का पोषण कर रहे हैं, उसके पीछे आचार्य श्री विमलसागर
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जी का हाथ है। मैं (आर्यिका स्याद्वाद-मति जी) पाठकों को सूचित कर देना चाहती हूँ कि आचार्यश्री के चरणों में मैंने पूरे १५ वर्ष बिताये, उसके पश्चात् १० वर्ष और, कुल २५ वर्षों में मैने आचार्यश्री के संघ में कभी नवरात्रि महोत्सव या गरबा नृत्य या देवी-आराधना को नहीं देखा। उन्हें एकमात्र णमोकारमंत्र का जाप प्रिय था। इसी की आराधना में आचार्यश्री सतत लीन रहते थे। ऐसे महापुरुष का बिना देखेसुने अवर्णवाद करना अनुचित है, चिंतन करें। कुछ लोग अनेक प्रकार के अवर्णवाद करके आचार्यश्री को दूषित ठहराते हैं, पर आँखों से देखी व कानों से सुनी बातों में जमीन आसमान का अंतर होता है। वे कभी मिथ्यात्व में डूबने की बात नहीं कहते थे।
एक दिन एक महिला आचार्यश्री के पास पहुँची, कहने लगी- महाराज जी! मैं शुक्रवार का व्रत करूँ क्या? आचार्यश्री ने कहा- बेटा! पार्श्वनाथ जी का रविवार करो। रविवार को नमक मत खाओ, सब कष्ट मिट जायेंगे। यह घटना मेरी आँखों देखी प्रत्यक्ष है।
एक दिन एक महिला ने आचार्यश्री से कहा- 'आचार्यश्री! मैं पद्मावती देवी का सहस्रनाम पाठ करूँ, आशीर्वाद दीजिए।' आचार्यश्री ने कहा- 'पागल हो गई हो क्या? अरहंत भगवान् का जिनसहस्रनामस्तोत्र पढो, सर्वशान्ति प्राप्त होगी। राजा को मनाओ, राजा की स्तुति करो, उनके यक्ष-यक्षी देवता तो यू ही आगे पीछे घूमेंगे।'
उपर्युक्त प्रसंग से स्पष्ट है कि आचार्य महावीरकीर्ति जी के शिष्य आचार्य विमलसागर जी महाराज नवरात्रि पर्व को मनाना मिथ्यात्व समझते थे और निषेध करते थे। नवरात्रि पर्व वास्तव में वैदिक परम्परा को माननेवालों का महान् पर्व है। वे इन दिनों विभिन्न देवियों की आराधना एवं पूजा आदि करते हैं। दिगम्बर जैन धर्मानुयायियों का नवरात्रि पर्व या विजयादशमी से किसी भी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं है। अतः हम सबको किसी भी साधु, आचार्य, विद्वान या विधानाचार्य के कहने में आकर नवरात्रि या विजयादशमी नहीं मनाना चाहिये और न ही इन दिनों को कोई महत्त्व प्रदान करना चाहिये।
डॉ० शीतलचन्द्र जैन
राँची में में जिनबिम्ब-स्थापना समारोह संपन्न राँची १३ दिसम्बर ०८। संत शिरोमणि प.पू. आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज के आशीर्वाद से उनके परम प्रभावक शिष्य मुनि श्री प्रमाण सागर जी महाराज के पावन सान्निध्य में यहाँ देवाधिदेव १००८ वासुपूज्य भगवान् की विशाल जिनप्रतिमा, पंचकल्याणक प्रतिष्ठा पूर्वक रतनलाल जैन चैरिटेबुल ट्रस्ट के सौजन्य से नागर शैली में लाल पाषाणयुक्त नवनिर्मित जिनालय में अपूर्व धर्मप्रभावना के साथ विराजमान की गयी। नवीन जिनालय के शिखर पर कलशारोहण एवं ध्वजारोहण का अनुष्ठान भी संपन्न हुआ। प्रतिष्ठाकार्य श्री प्रदीप भैया ‘सुयश' अशोकनगर (म.प्र.) के कुशल निर्देशन में सम्पन्न हुआ।
पू० मुनि श्री प्रमाणसागर जी महाराज ने पंच-कल्याणक-प्रतिष्ठा-समापन समारोह में श्रोताओं को सम्बोधित करते हए अपने आशिर्वचन में कहा कि आयोजन की सफलता पू० आचार्य श्री विद्यासागर जी के आशीर्वाद का प्रतिफल है। मुनिश्री ने कहा कि नवीन जिनायतनों का निर्माण एवं प्राचीन जिनायतनों के जीर्णोद्धार से ही हमारी संस्कृति आज तक सुरक्षित है और आगे भी सुरक्षित रहेगी।
विमल कुमार सेठी, गया
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अविरतसम्यग्दृष्टि का स्वरूप
मुनि श्री विनीतसागर जी
आचार्य श्री विद्यासागर जी के शिष्य गुरुवर के वचन प्रत्यक्ष नहीं, लेकिन परोक्षरूप । अर्थ- जो उत्तम गुणों को ग्रहण करने में तत्पर से मेरे पास पहुँचे, क्योंकि उस समय मैं गुरुचरणों में | रहता है, उत्तम साधुओं की विनय करता है, साधर्मियों नहीं था, लेकिन गुरुवर के आशीर्वाद से गुरुकुल को | के प्रति अनुराग रखता है, वह उकृष्ट सम्यग्दृष्टि है। छोड़ अन्यत्र विहार कर रहा था। उनके वचन हैं 'सहजता | णिज्जिय-दोसं देवं सव्व-जीवाणं दयावरं धम्म।
और सरलता, सुन्दरता से भी ज्यादा आकर्षक होती | | वज्जिय-गंथं च गुरुं जो मण्णदि सो हु सद्दिट्ठि॥ ३१७॥ है।' सहजता का अर्थ-जिसमें किसी भी प्रकार की अर्थ-जो दोषरहित वीतराग अरिहन्त को देव मानता कृत्रिम दिखावट न हो और सरलता का अर्थ- जिसमें है, सब जीवों पर दया को उकृष्ट धर्म मानता है और किसी भी प्रकार की टकराहट न हो। ये दोनों चित्त | परिग्रह के त्यागी को गुरु मानता है, वह सम्यग्दृष्टि है। की निर्मल वृत्तियाँ हैं। सुन्दरता तो शरीर के आश्रित बाहरी | ये तीनों गाथायें कार्तिकेयानुप्रेक्षा ग्रन्थ की हैं। इसी पुद्गल की दिखावट मात्र है। बस, पाठकगण इस गुरुवर | ग्रन्थ की अन्तरात्मा का वर्णन करनेवाली दो गाथायें है, के वचन को अपने हृदय में धारण करके ही इस लेख | जो प्रासंगिक एवं उपयुक्त हैं। का वाचन करें और इतना ही नहीं तो जीवन को सफल | जे जिण-वयणे कुसला भेयं जाणंति जीव-देहाणं। और उन्नत बनाने हेतु और तत्त्वनिर्णय के लिए हमेशा ___णिज्जिय-टुट्ठट्ठ-मया अंतरप्या य ते तिविहा॥ १९४।। ही हमारी मन, वचन, काय की क्रियायें, सहज और अर्थ-जो जीव जिनवचन में कुशल हैं, जीव और सरल हों तो कहना ही क्या? हमारा जीवन धन्य और | देह के भेद को जानते हैं, तथा जिन्होंने आठ दुष्ट मदों मंगलमय होगा इसी विश्वास के साथ सर्व प्रथम | को जीत लिया है, वे अन्तरात्मा हैं। वे तीन प्रकार के सम्यग्दर्शन का स्वरूप केवल एक गाथा के माध्यम से | हैं। विचार किया जाता है, जो दर्शनपाहुड में लिपिबद्ध है- | अविरय-सम्मादिट्ठी होति जहण्णा जिणिंद-पय-भत्ता।
जं सक्कड़ तं कीरइ जं च ण सक्केइ तं च सद्दहणं।। अप्पाणं णिंदंता गुण-गहणे सुठु अणुरत्ता॥ १९७॥ केवलिजिणेहिं भणियं सद्दहमाणस्स सम्मतं ॥ २२॥ अर्थ-अविरत सम्यग्दृष्टि जघन्य अन्तरात्मा हैं।
अर्थ-जो कार्य किया जा सकता है वह किया | वे जिन-भगवान् के चरणों के भक्त होते हैं, अपनी निन्दा जाता है और जिसका किया जाना शक्य नहीं है, उसका | करते रहते हैं और गुणों को ग्रहण करने में अतिशय श्रद्धान करना चाहिये। केवलज्ञानी जिनेन्द्र भगवान् ने | अनुरागी होते हैं। श्रद्धान करनेवाले पुरुष को सम्यग्दर्शन कहा है। . इस गाथा की टीका में आचार्य शभचन्द्र जी लिखते
__इस लेख में जो प्रतिपादन किया जाना है, वह | हैंतो आगे कथन करेंगे। उसके पूर्व, सम्यग्दृष्टि, का भी | गुणगहणे अणुव्रतमहाव्रतादिगुणग्रहणे, सुष्ठु लक्षण जो की मुख्यता से मनुष्यगति की अपेक्षा से और | अतिशयेन अनुरक्ता प्रेमपरिणताः अकृत्रिमस्नेहाः 'गुणिषु गौण रूप से तीनों गतियों में भी पाया जाता है। विवक्षाको | प्रमोदम्' इति वचनात्। समझ सकते हैं।
अर्थ-अणुव्रत, महाव्रत, आदि गुणों को ग्रहण करने जो ण य कुव्वदि गव्वं पुत्त-कलत्ताइ-सव्व-अत्थेसु।। में अत्यन्त अनुरक्त होते हैं, अथवा गुणों के अनुरागी उवसम-भावे भावदि अप्पाणं मुणदि तिण मेत्तं ॥३१३॥ | होने के कारण गुणीजनों के बड़े प्रेमी होते हैं, क्योंकि
सम्यग्दृष्टि पुत्र, स्त्री आदि समस्त पदार्थों | 'गुणीजनों को देखकर प्रमदित होना चाहिये' ऐसा वचन में गर्व नहीं करता, उपशम भाव को भाता है और अपने | है। ऐसा सम्यग्दृष्टिका लक्षण कहा है। और भी आगमको तृण समान मानता है।
ग्रन्थों में ऐसे ही पूर्वाचार्यों के कथन हमको पढ़ने को उत्तम-गुण-गहण-रओ उत्तम-साहूण विणय संजुत्तो। मिलते हैं। वर्तमान में भी पूर्वाचार्यों के वचनों पर श्रद्धा साहम्मिय-अणुराई सो सद्दिट्ठी हवे परमो॥ ३१५॥ | रखते हुए अपने जीवन को उन्नत बनाने हेतु यथाशक्ति
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तपश्चरण करते हुए रत्नत्रय की आराधना करनेवाले सच्चे। सुत्तादो तं सम्मं दरिसिजंतं जदा ण सद्दहदि। वीतरागी आराधक इस वसुन्धरा पर विचरण करते हुए सो चेव हवइ मिच्छाइट्ठी जीवो तदो पहुडि॥ २८ ॥ पाए जाते हैं, यह हमारा परम सौभाग्य है। उनका सान्निध्य
जीवकाण्ड पाकर हम भी अपने जीवन को कृतार्थ करें। स्वयं भी अर्थ-सूत्र में समीचीन रूप से दिखलाये गये, उन जैसे बनने की भावना हमेशा भाते रहें और साथ- | उस अर्थ का जब यह जीव श्रद्धान नहीं करता है, उस साथ उसकी प्राप्ति के हेतु योग्य पुरुषार्थ भी करते रहें, समय से यह जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है। असंयत जब तक क्षपक श्रेणी में हमारा आरोहण नहीं होता, तब | गुणस्थान में चारित्र माननेवाले स्वयं इस गाथा का चिन्तन तक सच्चे देव, शास्त्र और गुरु की शरण मिले यही | प्रतिदिन करें और अपने आग्रह को छोड़कर सच्चा श्रद्धान भावना है।
करें, यह शुभ कामना है। अविरत सम्यग्दृष्टि का स्वरूप जीवकाण्ड में इस णो इंदिएसुविरदो णो जीवे थावरे तसे वापि। प्रकार कहा गया है
जो सद्दहदि जिणुत्तं सम्माइट्ठी अविरदो सो ॥ २९ ॥ सम्माइट्ठी जीवो उवइटुं पवयणं तु सद्दहदि।
अर्थ- जो इन्द्रियों के विषयों से विरक्त नहीं है सद्दहदि असब्भावं अजाणमाणो गुरुणियोगा॥ २७॥ | तथा त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा से भी विरतिरहित है,
अर्थ-सम्यग्दृष्टि जीव उपदिष्ट प्रवचन का नियम किन्तु जिसकी जिनेन्द्र के उपदेश पर श्रद्धा है, वह जीव से श्रद्धान करता है तथा स्वयं न जानता हुआ, गुरु के अविरतसम्यग्दृष्टि है। नियोग से असद्भूत अर्थ का भी श्रद्धान करता है। 'सद्दहदि अब सोचिए, जिस जीव के पास १२ प्रकार की असब्भावं' ऐसा कहने से सम्यग्दृष्टि जीव गुरुवचन को | अविरति विद्यमान है, उसके पास कौनसा चारित्र हो सकता ही प्रमाण करके, स्वयं नहीं जानते हुए असद्भूत अर्थ | है? वह तो अचारित्री ही है। का भी श्रद्धान करता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य । सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान, इन दो का अविनाभाव
| है। इनके साथ सम्यक्चारित्र हो भी सकता है और नहीं इस गाथासूत्र में आज्ञा सम्यक्त्व का लक्षण कहा | भी हो सकता, ऐसा आगम ग्रन्थों में स्पष्ट उल्लेख है। गया है। भावपाहुड़ गाथा नं० १२२, रत्नकरण्ड श्रावकाचार | तत्वार्थवार्तिक ग्रन्थ में आचार्य अकलंकदेव प्रथम अध्याय श्लोक नं० १३७ में और पंचगुरुभक्ति में तीनों जगह, | के प्रथम सूत्र की व्याख्या में लिखते हैंपंचपरमेष्ठी को ही मोक्षमार्ग में गुरु कहा है। रत्नकरण्ड "सम्यग्दर्शनस्य सम्यग्ज्ञानस्य वा अन्यतरस्वात्मलाभे श्रावकाचार श्लोक नं० ४ में कहा गया है की परमार्थभूत | चारित्रमुत्तरं भजनीयं।" आप्त, आगम और तपोभृत् अर्थात् गुरु पर तीन मूढ़ता अर्थ- सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान, इन दोनों में से रहित, आठ अंगों से सहित, आठ मदों से रहित | एक का आत्मलाभ होते, उत्तर जो चारित्र है वह भजनीय श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। वर्तमान में जिस व्यक्ति का | सच्चे आचार्य, उपाध्याय व साधु के प्रति श्रद्धान व भक्ति उत्तरपुराण में भी लिखा हैनहीं है, वह स्वयं ही अपने सम्यग्दर्शन के बारे में परीक्षा समेतमेव सम्यक्त्वज्ञानाभ्यां चरितं मतम्। करे।
स्यातां विनापि ते तेन गुणस्थान चतुर्थके।। ७४-५४३॥ शंका-अज्ञानवश असद्भत अर्थ को स्वीकार अर्थ- सम्यक्चारित्र तो सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानकरनेवाला जीव सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है? सहित होता है, किन्तु चतुर्थ गुणस्थान में सम्यग्दर्शन और
समाधान-यह परमागम का ही उपदेश है, ऐसा | सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र के बिना होते हैं। निश्चय होने से उस प्रकार स्वीकार करनेवाले उस जीव सकलसंयम एवं देशसंयम के धारक समाधि-मरण को परमार्थ का ज्ञान नहीं होने पर भी उसकी सम्यग्दृष्टि | के बाद जब देवगति में जन्म लेते हैं, तो वहाँ सभी पने से च्युति नहीं होती। यही बात कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा | सम्यग्दृष्टियों का चौथा गुणस्थान ही होता है, क्योंकि नं० ३२४ में है।
संयम अथवा संयमासंयम गुणस्थान का देवगति में कभी भी सद्भाव पाया ही नहीं जाता, ऐसा सिद्धान्त वचन
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है। गृहस्थावस्था में तीर्थंकरप्रकृति की सत्तावालों के पास । आत्मस्वरूप को जानता है, वही कल्याण को जाननेवाला आठ वर्ष तक चारित्र नहीं होता, क्योंकि वे स्वर्ग अथवा | होता है। . नरक से आते समय, सम्यग्दर्शन के साथ आते हैं, चारित्र | इस श्लोक में पाप को वैरी कहा, लेकिन पुण्य के साथ नहीं। देखिये महापुराण पर्व नं. ५३, श्लोक को बन्धु नहीं कहा, धर्म को बन्धु कहा है। धर्म कौन नं. ३५
सा? तो जो इसी ग्रन्थ में श्लोक नं. ३ में कहा हुआ स्वायुराद्यष्टवर्ष सर्वेषां परतो भवेत्।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र, यह धर्म है। उदिताष्टकषायाणां तीर्थेशां देशसंयमः॥ ३५॥ | स्वामी समन्तभद्र जी महान् तत्त्ववेत्ता थे। इसलिए उन्होंने
अर्थ-जिनके प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन सम्बन्धी | पुण्य को वैरी भी नहीं कहा और बन्धु भी नहीं कहा। आठ कषायों का उदय रहता है, ऐसे सभी तीर्थंकरों | उनके वचन हम सभी को प्रमाण हैं। ऐसे वचन का के अपनी आयु के आठ वर्ष के बाद देशसंयम हो जाता | उल्लंघन करना, हमारे लिए संसार के भ्रमण का ही
कारण होगा। यह उनके १४८ नं० के श्लोक का विश्वास इससे यह स्पष्ट होता है कि अप्रत्याख्यान के ही आठ कर्मो की उत्तर प्रकृतियाँ, जो १४८ हैं, उसके उदयाभाव के बिना देशसंयम उत्पन्न नहीं होता। यह | नाशका कारण है, ऐसा मैं मानता हूँ। आप सभी से त्रैकालिक सत्य है कि पाँच पापों के पूर्ण रूप या एकदेश | मेरा कहना इतना ही है कि मेरे लेख में पूर्वाचार्यों के त्याग के बिना संयम और देशसंयमरूप निर्मल भाव आत्मा प्रमाण ग्रन्थों के प्रतिकूल या युक्ति से बाह्य कोई कथन में प्रकट नहीं होते। गोम्मटसार कर्मकाण्ड के द्वितीय हो, तो आप हमें अवगत करायें या स्वयं प्रत्यक्ष भी बन्धोदयसत्वाधिकार का कथन भी यहाँ अत्यंत उपयुक्त आकर बतायें, तो हम कभी भी सुधार के लिए सहर्ष और प्रासंगिक है
तैयार हैं। हाँ, यदि लेखका कथन निर्दोष है, तो आप चत्तारिवि खेत्ताई आउगबंधेण होइ सम्मत्तं। भी इसे सहर्ष स्वीकार करें, यही शुभ भावना है। हाँ, अणवदमहव्वदाई ण लहइ देवाउगं मोत्तुं ॥ ३३४॥ | मेरा कोई आग्रह नहीं है। हर भव्यात्मा स्वतन्त्र है। मेरा __अर्थ- चारों ही गतियों में किसी आयु का बन्ध | इसमें लिखना मात्र ही है, बाकी सब पूर्वाचार्यों का और होने पर सम्यक्त्व हो सकता है, किन्तु देवायु के बिना गुरुवर का ही है। इसलिए आप भी स्वात्मोपलब्धि के अन्य तीनों आयु का बन्ध करेनवाला अणुव्रत-महाव्रत इच्छुक होने से इस कथन से सहमत होंगे, ऐसा मेरा धारण नहीं कर सकता।
| विश्वास है। सम्यग्दर्शन को बनाये रखना और परिणामों आचार्य पूज्यपाद ने योगी भक्ति में कहा है- योगी | को निर्मल बनाना ही सबसे बडी तपस्या है। क्योंकि निरन्तर भयभीत रहते हैं, लेकिन किससे? अपना नरक सम्यग्दर्शन कर्णधार है। में पतन न हो इससे हमेशा भयभीत रहते हैं। असह्य किसी भी आचार्यप्रणीत प्रामाणिक ग्रन्थ में चारित्र वेदनायुक्त घोर नरकों में गिरने के दु:खों से जिनकी बुद्धि का उल्लेख अविरत गुणस्थान में किसी ने भी नहीं किया अत्यंत पीड़ित है, तथा जिनके हृदय में हेय-उपादेय का | है। जीवकाण्ड की गाथा नं. २९ के अनुसार स्वयं अपने विवेक जागृत हो रहा है। संसार को बिजली के समान | जिनोपदेश की श्रद्धा की परीक्षा करें। वर्तमान के कुछ क्षणभंगुर मानते हैं। इसी प्रकार सब भव्यात्माओं की भावना | लोग अनन्तानुबन्धी कषाय के अभाव में चारित्र कुछ होनी चाहिए, क्योंकि पाप से डरे बिना संसार से छूटना | न कुछ होना चाहिए, ऐसी आगम विपरीत मान्यता बनाए सम्भव नहीं। स्वामी समन्तभद्र जी, जो महान् जिनशासन | हए हैं और युक्ति अथवा हेतु यह देते हैं, अविरत सम्यग्दृष्टि के प्रभावक आचार्य हुए हैं, करुणा से अपनी कृति | का चारित्र मिथ्यादृष्टि के समान मिथ्या तो हो नहीं सकता, रत्नकरण्ड-श्रावकाचार में लिखते हैं
इसलिए सम्यक्चारित्र होना चाहिए। यह उनकी अपनी पापमरातिर्धर्मो बन्धुर्जीवस्य चेति निश्चिन्वन्। स्वयं की मान्यता है, जो निराधार कल्पना है। धैर्य के समयं यदि जानीते श्रेयोज्ञाता धुवं भवति॥१४८॥ | साथ समझने की भावना रखें। आगम में पात्र के सुपात्र,
अर्थ- पाप इस जीव का वैरी है, धर्म बन्धु है, | कपात्र और अपात्र ये मुल तीन भेद किये हैं। अपात्र ऐसा दृढ निश्चय करता हुआ, जो अपने समय अर्थात् | में आप सुपात्र और कुपात्र यह भेद नहीं कर सकते।
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उसी प्रकार अचारित्र में भी सम्यक या मिथ्याचारित्र भेद । से कह सकता है कि असंयत के असत्य बोलने का तीन काल में भी सम्भव नहीं। इसलिए औदायिक भावों | त्याग तो है नहीं, इसलिए वह असत्य बोल सकता है। के २१ भेदों में मिथ्याचारित्र नहीं, असंयत शब्द का प्रयोग | लेकिन भव्यात्माओं, इस बात को मत विसारो की आगम किया है।
और न्याय के विपरीत कथन करनेवाला और माननेवाला (1) मिथ्यादर्शनरूप औदयिकभाव के भंग (व्यय) | भी सम्यग्दृष्टि हो सकता है क्या? जिनवाणी के अनुकूल बिना सम्यग्दर्शनरूप औपशमिकभाव का उत्पाद नहीं हो मोक्षमार्ग का, तत्त्वों का, आप्त, तपोभृत और आगम का सकता, इसी प्रकार अविरत अवस्था में विद्यमान असंयतरूप श्रद्धान करने का नाम सम्यग्दर्शन है। अपनी इच्छा के औदयिकभाव का व्यय हुए बिना क्षायोपशमिक चारित्र | अनुकूल, मन चाहे जैसा श्रद्धान करना, सम्यग्दर्शन नहीं, का अथवा संयमासंयम रूप क्षायोपशमिक भाव का उत्पाद | इस बात को स्वप्न में भी मत भूलो। अभी भी अपने तीन काल में भी सम्भव नहीं, यह अनुल्लंघनीय सिद्धान्त विवेक को जागृत कर मोहनिद्रा को छोड़ने का उपक्रम है। सादि मिथ्यादृष्टि जीव वेदकसम्यक्त्व सहित देशचारित्र | करना ही कल्याणकारी है। को ग्रहण करता है। उसके अध:करण और अपूर्वकरण जब विसंवाद की बात आती है तो, इसकी न्यायये दो ही करण होते हैं, सिद्धान्त के अनुसार असंयत | ग्रन्थ से परीक्षा करते हैं। चारित्र साध्य है और अनन्तानुबन्धी सम्यग्दृष्टि भी इन्हीं दो कारणों के साथ देशचारित्र को कषाय का अभाव साधन अर्थात् हेतु है। आपका हेतु प्राप्त होता है। (लब्धिसार गाथा नं. १७१)। इसी प्रकार, व्यभिचार को अर्थात् दोष को प्राप्त है। कैसे तो ईमानदारी वेदकसम्यक्त्व सहित क्षयोपशमचारित्र को मिथ्यादृष्टि या से निष्पक्षता से सोचिए। असंयत अथवा देशसंयत जीव देशचारित्र ग्रहण करने के (1) अनन्तानुबन्धी कषाय का अभाव तृतीय सदृश ही दो कारणों के द्वारा ग्रहण करता है। (लब्धिसार गुणस्थान में भी है। तो वहाँ भी चारित्र मानना पड़ेगा, गाथा नं. १९०)। अविरत सम्यग्दृष्टि के असंयत पर्याय जो आप को भी इष्ट नहीं है और तीन काल में भी के व्यय का एक मात्र हेतु है अधः प्रवृत्त और अपूर्वकरण | सम्भव नहीं। इन दो करण परिणामों से महाव्रत अथवा देशव्रत ग्रहण (2) गोम्मटसार कर्मकाण्ड में चौथे अधिकार में करना, अन्य कोई हेतु या आगम का संसार में अभाव | जो दशकरणचूलिका है उसमें गाथा नं. ४७८ में कहा
(2) यदि कोई अज्ञानता के कारण मोह के वशीभूत अणसंजोजिदसम्मे, मिच्छं पत्ते ण आवलित्ति अणं। हो, अविरत सम्यग्दृष्टि के पास आंशिक चारित्र की मान्यता | उवसमखइये सम्म, ण हि तत्थवि चारि ठाणाणि ।। रखता है, तो उसको मिथ्यात्व गुणस्थान में भी आंशिक अर्थ-अनन्तानुबन्धी कषाय की विसंयोजना सम्यग्दर्शन स्वीकार करना पडेगा। क्या यह बात स्वीकार करनेवाला सम्यग्दृष्टि, यदि मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त
होता है, तो आवली कालपर्यंत अनन्तानुबन्धी का उदय युक्ति यह है कि, औदयिक भावों के २१ भेदों नहीं आता है। उपशम और क्षायिक सम्यक्त्व में चार में मिथ्यादर्शन और असंयत ये दोनों भी औदयिक भाव | स्थान नहीं होते। है। जब आप असंयत औदयिक भाव का भंग किए | क्या ऐसी स्थिति में मिथ्यात्व गुणस्थान में भी बिना भी उसके उदय में आंशिक चारित्र की व्यर्थ कल्पना | एक आवली काल तक चारित्र मानते हो? क्या इन दो करते हो, तो फिर आपकी इस मान्यता से ही मिथ्यादर्शन बाधाओं का समाधान आपके पास है? नहीं है तो, अपनी का व्यय किए बिना ही उसके उदय में भी आंशिक | दृष्टि को सुधारने का पुरुषार्थ करने में ही लाभ है। सम्यग्दर्शन मानने में क्या बाधा है? क्या कोई युक्ति या | यदि नहीं सुधार सकते हो, तो दूसरों को आगम के आगम है आपके पास? कोई समाधान आपको जीवनभर प्रतिकूल उपदेश देने का प्रयास न करें, तो स्वपर हित में भी मिल पाएगा क्या? एक ही समाधान है, अविरत | होगा। देखिए परीक्षामुख ग्रन्थ का तृतीय परिच्छेद सूत्र अवस्था में अचारित्र के अलावा कोई पर्याय नहीं। असत्य | नं. ११ और १२। हेतु और अविनाभाव का लक्षण कहा की भी कोई मर्यादा है कि नहीं? यहाँ कोई पाठक सहजभाव | है
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साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः॥ ११॥ | देनेवाले वक्ता, दोनों अप्रमाण हैं। नि:शंकित अंग का
अर्थ- जिसका साध्य के साथ अविनाभाव निश्चित | पालन करते हुए अपना कल्याण करें, यही मंगल भावना होता है अर्थात् जो साध्य के बिना नहीं हो सकता, उसे | है। हेतु कहते है।
आचार्य कुन्दकुन्द जी, समन्तभद्र जी, अकलंकजी सहक्रमभवनियमोऽविनाभावः।। १२॥
आदि हजारों आचार्यों ने अन्य दर्शनों के सामने सत्य अर्थ-साध्य और साधन का एक साथ, एक समय | का प्रकाशन कर जिनशासन की महान् प्रभावना की है। होने का नियम सहभाव नियम अविनाभाव है और काल | आज मेरे सामने सबसे बड़ा विकल्प मन में यही है के भेद से साध्य और साधन का क्रम से होने का नियम | की वीर प्रभु के भक्तों की आगम-विपरीत-मान्यता का क्रमभावनियम अविनाभाव कहलाता है।
खण्डन हमको करना पड़ रहा है। यह कितनी विचित्र इन दोनों हेतुओं से रहित आपका हेतु है। इसलिए | और अफसोस की बात है। वीर प्रभु का स्मरण करते न्यायग्रन्थ से यही प्रमाणित हुआ कि अनन्तानुबन्धी के | हुए केवली-श्रुतकेवली और पूर्वाचार्यों के प्रति ईमानदारी अभाव में कोई भी चारित्र प्रगट नहीं हो सकता और | रखने के लिए यह कर्त्तव्य करना पड़ेगा और करना यदि कोई मानता है, तो वह असत्य और अप्रमाण है, | भी चाहिए। इसलिए नहीं चाहते हुए भी लिखना पड़ आगमबाह्य है और न्याय से असिद्ध है। असंयत अवस्था रहा है। में चारित्र का वर्णन करनेवाले ग्रन्थ और उसका उपदेश सबका श्रद्धान निर्मल बने, यही मंगल भावना है।
शीतकालीन अवकाश में विभिन्न आयोजन आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज के । कार्यक्रमों में आवश्यक मुहूर्त सम्बन्धी प्रशिक्षण एवं पावन आशीर्वाद एवं पूज्य मुनिपुंगव श्री १०८ सुधासागर | पं० पुलक गोयल 'प्राकृताचार्य' सांगानेर द्वारा उपाध्यायवर्ग जी महाराज की पुनीत प्रेरणा से स्थापित श्री दिगम्बर | के छात्रों के लिए प्राकृत प्रशिक्षण शिविर के माध्यम जैन श्रमण संस्कृति संस्थान, सांगानेर में धार्मिक एवं | से प्राकृत भाषा के व्याकरण का प्रशिक्षण दिया गया। लौकिक अध्ययन कर रहे छात्रों के सर्वांगीण विकास डॉ० अनिल मेहता, जयपुर द्वारा दिनांक २७.१२.०८ हेतु शीतकालीन अवकाश में दिनांक २५ से ३१ दिसम्बर | को सायं ८.३० से समयप्रबन्धन विषय पर प्रभावी ०८ तक योग-ध्यान, विधि-विधान, मूहुर्त ज्ञान, प्राकृत व्याख्यान प्रस्तुत किया गया। डॉ० राधेश्याम राठौड़, प्रशिक्षण शिविर एवं विभिन्न खेलकद प्रतियोगितायें सवाईमाधोपुर द्वारा छात्रों के लिए दिनांक ३०-३१ आयोजित हुयीं।
दिसम्बर २००८ को होम्योपैथिक चिकित्सा द्वारा रोगोपचार डॉ० फूलचन्द जैन 'योगिराज' एवं सहयोगी श्री | हेतु परामर्श प्रदान किया गया। राकेश जैन, खमरिया (संस्थान के स्नातक) द्वारा प्रातः इस अवसर पर संस्थान के खेल प्रांगण में दोपहर ५.३० से योग एवं ध्यान प्रशिक्षण शिविर में संस्थान | १२.०० से ४.०० एवं रात्रि ९.०० के छात्रों शीर्षासन, मयूरासन, अर्द्धमत्स्यासन सूर्यनमस्कार, | क्रिकेट, वॉलीबाल, बेडमिंटन, चैस, कैरम, एथलैटिक्स शंखप्रक्षालन, जलनेति एवं प्राणायम का अभ्यास कराया | प्रतियोगितायें अध्यापक एवं अधीक्षकगण के सहयोग गया। युवा प्रतिष्ठाचार्य पं० मनोज जैन 'शास्त्री' दिल्ली | से सम्पन्न हुयीं। रविवार दिनांक ४.१.०९ को उपर्युक्त (संस्थान के स्तानतक) द्वारा संस्थान के छात्रों को प्रातः | कार्यक्रमों का समापन एवं पुरस्कार वितरण समारोह ८.३० से विधि-विधान प्रशिक्षण शिविर में विधान, | संस्थान के निदेशक डॉ० शीतलचन्द्र जैन, उपगृह-प्रवेश, शिलान्यास, ध्वजारोहण, वेदीप्रतिष्ठा, आदि अधिष्ठाता श्री राजमल बैगस्या, अध्यक्ष श्री गणेश राणा, का प्रशिक्षण प्रदान किया गया। डॉ. निर्मला सांघी, मंत्री श्री निर्मल कासलीवाल एवं प्रबन्धकार्यकारिणी जयपुर द्वारा सायं ७.०० से शास्त्री वर्ग के छात्रों को | समिति के सदस्यों की गरिमामयी उपस्थिति में सम्पन्न मुहूर्त ज्ञान प्रशिक्षण शिविर में धार्मिक एवं सामाजिक | हुआ।
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दिग्विजय
मूलचन्द लुहाड़िया कुछ समय से समाज के एक उदीयमान आगम- | निश्चय ही पद्मावतीदेवी एवं अन्य शासनदेवता पाठी योग्य विद्वान् श्री हेमंत काला के द्वारा दिग्विजय | आदि रागद्वेष से मलिन हैं, अत: सच्चे देव नहीं हैं, नामक पत्रिका प्रकाशित कर सर्वत्र वितरित की जा रही | अर्थात् कुदेव हैं। अत: उनकी पूजा, आराधना, प्रणाम है। उसमें ऐसे विषयों पर विपरीत लिखा जा रहा है | आदि नहीं करना चाहिए, ऐसा स्पष्ट विधान आचार्य जो दिगम्बर जैनधर्म के प्राणवत् हैं। पत्रिका के एक | समंतभद्रदेव ने किया है। हमारे विद्वान् श्री काला जी विशेषांक में शासन देवी-देवताओं की पूजा आराधना का ने अपनी विद्वत्शक्ति का पूरा उपयोग इस आगमसम्मत समर्थन किया है। विशेष आश्चर्य एवं खेद तब होता | मूलसिद्धान्त के विपरीत शासनदेवताओं की उपासना के है, जब वे आगम के आधार पर अपने मत को पुष्ट | प्रचार में किया है। करने का असफल प्रयास करते है। प्रथम श्रावकाचार | . यह कहा जाता है कि शासन देवता सच्चे देव ग्रंथ श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार में महान् तार्किक आचार्य | तो नहीं हैं, किंतु सच्चे देव के सेवक हैं, अतः उनका समंतभद्रदेव ने श्रावकों के लिए परमार्थभूत सच्चे देव- सम्मान किया जाना चाहिए, अनादर नहीं किया जाना शास्त्रगुरु के श्रद्धान को ही सम्यग्दर्शन अथवा धर्म कहा | चाहिए। हम तो शासनदेवताओं का ही नहीं, जिनेन्द्रदेव है। साथ ही उन तीनों के लक्षण भी कहे हैं। सच्चे | के सभी उपासकों का यथायोग्य सम्मान किए जाने के देव का लक्षण उन्होंने कहा है कि जो सर्वज्ञ, वीतराग | समर्थक हैं। अनादर तो अभक्तों का भी नहीं करते हैं। एवं हितोपदेशी हो, वही सच्चा देव (आप्त) है। आगे | किन्तु उन जिनेन्द्र भगवान् के सेवकों/ उपासकों की मूर्ति सच्चे देव के स्वरूप पर पूरा जोर देते हुए कहा है | बनाकर, वेदी पर स्थापित कर पूजा आराधना के तो कि निश्चितरूप से इन लक्षणोंवाला ही देव हो सकता | वे पात्र नहीं है। ये शासन देवता, यदि सम्यग्दृष्टि हैं, है, अन्यथा इन लक्षणों से रहित सच्चा देवपना कभी | तो अपनी असंयमदशा के कारण किसी से भी अपनी नहीं हो सकता है। सर्वज्ञता, वीतरागता एवं हितोपदेशिता | पूजा-आराधना कभी नहीं चाहेंगे और जिनेन्द्र के उपासक जिनमें पाई जाती है, वे सच्चे देव हैं और जिनमें नहीं | धार्मिक जनों की वात्सल्यभाव से कर्त्तव्य समझते हुए पाई जाती है, वे सच्चे देव नहीं है अर्थात् वे कुदेव | संभव सहायता करेंगे। बल्कि उन सम्यग्दृष्टि देवों को हैं। आचार्य समंतभद्र, कुंदकुंद, अकलंक, अमृतचंद आदि | अपनी पूजा करनेवाले अविवेकी श्रावकों की बुद्धि पर सभी प्राचीन आचार्यों का यह स्पष्ट उद्घोष है। सम्यग्दर्शन | तरस अवश्य आता होगा। जिनेन्द्र भगवान् की मूर्ति में के प्रसंग में आचार्य देव ने सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के | दोनों पार्श्व भागों में सेवक के रूप में यक्षादि देवताओं श्रद्धान की बात को अनेक स्थलों पर दोहराया है। की मूर्तियाँ तो अवश्य पाई जाती हैं, किंतु स्वतंत्र रूप मिथ्यादर्शन के निमित्तभूत मिथ्या देव, शास्त्र, गुरु की | से देवियों या यक्षादि देवताओं की मूर्तियाँ तो भट्टारकीय आराधना को तीन मूढ़ता बताया और उनकी मान्यता | युग में बनाना प्रारंभ हुआ था। भट्टारकों ने अपनी ख्याति, का निषेध किया। सम्यग्दर्शन के आठ अंगों में अमूढदृष्टित्व | पूजा एवं परिग्रहसंचय की लालसा की पूर्ति के उद्देश्य का लक्षण बताते हुए कहा है कि किसी लौकिक वैभव से जैनियों को शास्त्रों का अध्ययन नहीं करने दिया और की प्राप्ति के लिए रागद्वेष से मलिन देवताओं की उपासना | मंत्रतंत्रादि से सिद्धि होने के लालच में फँसाकर उनको करना देवमूढ़ता है। यह भी लिखा है कि सम्यग्दृष्टि, | सच्चे वीतरागी देव के स्वरूप एवं तत्त्वज्ञान से अपरिचित कुदेव, कुगुरु व कुशास्त्र को किसी भय, लालच या बनाए रखा। भट्टारकों ने धरणेन्द्र, पद्मावती एवं शासनस्नेह के कारण प्रणाम नहीं करता और न ही उनकी | देवताओं की अलग मूर्तियाँ बनाने का प्रचलन प्रारंभ कर विनय करता है। इसके विपरीत सच्चे देव, शास्त्र, गुरु दिया, जो अतिशीघ्र देश में सर्वत्र फैल गया। जिनेन्द्र के श्रद्धान का विधान धर्म के आयतनों के रूप में किया | भगवान् के पास वेदी में उन देवी-देवताओं की मूर्तियों गया है और उसे सम्यग्दर्शन का कारण अथवा सम्यग्दर्शन को स्थापित करना सर्वथा अनुचित, अनुपयुक्त एवं मिथ्यात्व की कहा है।
| पोषक क्रिया है। उन भवनत्रिक के देवों की स्वतन्त्र 12 फरवरी 2009 जिनभाषित
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मूर्तियाँ वेदियों पर जिनेन्द्र भगवान् के साथ अथवा अलग स्थापित किए जाने से लोग उन मूर्तियों को भी जिनेन्द्र भगवान् के सदृश ही पूजने लगे। सम्पूर्ण आचार्यप्रणीत ग्रंथों में इसको गृहीत मिथ्यात्व कहा है। इनकी पूजा उपासना से गृहीत मिथ्यादर्शन पुष्ट होना बताया है। आचार्य समंतभद्र स्वामी ने लौकिक वैभव की प्राप्ति के उद्देश्य से रागद्वेषी देवताओं की उपासना करने को देवमूढता कहा है। यह निर्विवाद है कि वे शासनदेवता रागद्वेषी हैं। और यह भी निविवाद है कि उन रागद्वेषी देवताओं । की उपासना आध्यात्मिक सिद्धि एवं मोक्षप्राप्ति के लिए नहीं की जाती है। उनसे तो लौकिक सिद्धियाँ ही चाही जाती हैं। अतः 'वरोपलिप्सयाशावान्' रूप उद्देश्य एवं 'रागद्वेषमलीमसा' लक्षणवाले देवता दोनों सिद्ध होने से यह उपासना सुनिश्चित रूप से 'देवमूढता' की परिभाषा में ही आती है। बृहद्रव्यसंग्रह ग्रंथ के श्लोक ४१ की टीका में लिखा है- 'ख्यातिपूजालाभरूपलावण्य सौभाग्य पुत्रकलत्रराज्यादिविभूतिनिमित्तं रागद्वेषोपहतार्तरौद्रपरि णतक्षेत्रपालचण्डिकादिमिथ्यादेवानां यदाराधनं करोति जीवस्तद्देवतामूढत्वं भण्यते न च ते देवता किमपि । फलं प्रयच्छन्ति ।' अर्थात् जीव, ख्याति, पूजा, लाभ, रूप, लावण्य, सौभाग्य, पुत्र, स्त्री, राज्य आदि वैभव के लिए रागद्वेष से आहत आर्त और रौद्रपरिणामवाले क्षेत्रपाल, चंडिका आदि मिथ्या देवों की आराधना करते हैं, उसे देवमूढता कहते हैं। वे देव कुछ भी फल नहीं देते यदि कदाचित् देते भी हों, तो भी निःकांक्षित अंग से युक्त सम्यग्दृष्टि जीव देवताओं से लौकिक वैभव की कभी कामना नहीं करता। कार्तिकेयानुप्रेक्षा आदि अनेक ग्रंथों में रागी द्वेषी देवों की पूजा-आराधना का निषेध किया गया है। धार्मिक दृष्टि से पूजा के पात्र केवल नवदेवता ही हैं। उन नवदेवताओं की पूजा के प्रतिफल में पूजक आध्यात्मिक सिद्धि, अक्षयपद मोक्षप्राप्ति की भावना करता है। रागी-द्वेषी देवताओं से तो इस प्रकार के फल की प्राप्ति की बात सोची भी नहीं जा सकती।
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सुयोग्य विद्वान् श्री काला जी ने शासनदेवताओं की उपासना के समर्थन में छलपूर्वक प० पू० आचार्य शांतिसागर जी, आचार्य ज्ञानसागर जी एवं आचार्य विद्यासागर जी तक को खड़ा करने का दुस्साहस किया है। आचार्य शांतिसागर जी महाराज ने तो भट्टारकों के प्रभाव से एकत्र की गयीं देवी-देवताओं की मूर्तियों को जैनियों।
के घरों से निकलवाया था। उन्होंने अनेक बार कहा है कि पद्मावती क्षेत्रपाल आदि असंयमी रागीद्वेषी देवताओं की वंदना श्रावक या मुनि कैसे कर सकते हैं? रागद्वेषी देवताओं की आराधना का निषेध है, चाहे वे जैन हों या अजैन। वैसे स्वर्ग के देवताओं में कोई अजैन देवता होता ही नहीं है, सब जैन ही होते हैं।
आचार्य ज्ञानसागर महाराज द्वारा रचित जयोदय काव्यग्रंथ में उल्लिखित गृहस्थ के लिए लौकिक कार्यों की सिद्धि के लिए कुलदेवता की आराधना की बात को छलपूर्वक अन्यथारूप से प्रस्तुत किया गया है। वस्तुतः जयोदय काव्यग्रंथ पं० भूरामल जी की कृति है, आचार्य ज्ञानसागर जी की नहीं 'पं० भूरामल' आचार्य ज्ञानसागर जी की गृहस्थावस्था का नाम था। श्री काला जी ने ग्रंथ के उक्त श्लोक के पूर्वापर संदर्भ को छिपाते हुए केवल उक्त श्लोक को आचार्यश्री के मन्तव्य के रूप में प्रस्तुत करने का छल किया है। ग्रंथ के रचयिता पं० भूरामल जी ने प्रासंगिक श्लोक के पूर्व में गृहस्थ के कर्त्तव्यों का वर्णन करते हुए कहा है कि दृढ़चितवाले एवं नवदीक्षित गृहस्थ के आचरण में अंतर होता है (श्लोक ११) । प्रारंभ में अपरिपक्व दशा में पाक्षिक श्रावक के कार्य सदोष होते हैं, किंतु दार्शनिक उन्हें ही निर्दोष रीति से करते हैं (श्लोक १३) प्रारंभ में जो बात स्वीकार । की जाती है, वही कुछ समय बाद असार हो जाती है ( श्लोक १४) | गृहस्थ को आध्यात्मिक उपलब्धि के लिए सदैव जिनेन्द्रदेव की उपासना करनी चाहिये, किंतु क्वचित् लौकिक कार्यों की सिद्धि के लिए कुलदेवता आदि की भी साधना कर उन्हें प्रसन्न करना चाहिए। आगे उन्होंने यह भी कहा है कि गृहस्थ जीवन के निर्वाह के लिए अर्थशास्त्र, आयुर्वेदशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, वास्तुशास्त्र तथा कामशास्त्र आदि का भी अध्ययन करना चाहिए। तथापि आगे श्लोक ६३ में उन्होंने सचेत किया है कि ये सब दुःश्रुति नाम से कहे गये हैं और आगम के समान आदरणीय नहीं हैं। अतः कुलदेवता को प्रसन्न करने की बात प्रारंभिक दशावाले गृहस्थ को लौकिक कार्यों की सिद्धि के प्रंसग में कही गई है, जो अर्थशास्त्र, आयुर्वेदशास्त्र, वास्तुशास्त्र, कामशास्त्र आदि की कोटि की बात है। इसको धार्मिक कर्तव्य के रूप में प्रस्तुत करना ग्रंथकार के अभिप्राय के प्रति अन्याय करना है और साथ ही दिगम्बरजैनधर्म के अवर्णवाद का अपराधी
है।
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आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज ने मुनि-आचार्यदशा। कि रागद्वेष से मलिन देवों की उपासना केवल लौकिक में अनेकों बार रागी-द्वेषी देवी-देवताओं की आराधना | आकांक्षाओं के लिए करने का निषेध किया है। तो क्या का स्पष्ट निषेध किया है। आश्चर्य है कि एक काव्य | उनकी उपासना लौकिक आकांक्षाओं के अतिरिक्त परमार्थ ग्रंथ में प्रारंभिक गृहस्थ की लौकिक चर्या के वर्णन को की प्राप्ति के उद्देश्य से भी कभी की जाती है? वे एक सिद्धान्तग्रंथ के उद्धरण के समान महत्त्व देकर पाठकों | रागीद्वेषी देवी-देवता स्वयं परमार्थ से शून्य हैं, तब उपासकों को भ्रमित किया जा रहा है।
को परमार्थ कैसे दे सकेंगे? आचार्य समंतभद्र ने तो किसी इसी प्रकार प.पू. आचार्य शांतिसागर महाराज के भी प्रकार की आशा रखकर रागीद्वेषी देवताओं की उपासना विषय में भी बिना जाँच किए ही यह लिख दिया कि करने का निषेध किया है। पू. आचार्य समंतभद्र द्वारा उन्होंने केवल अजैन देवी-देवताओं की ही मूर्तियाँ जैनियों | भिन्न अर्थ में प्रयुक्त 'देव' एवं 'पूजा' शब्द को नयनिरपेक्ष के घरों से निकलवा कर नदी में फिकवाई थीं, जब | होकर छल से भिन्न अर्थ में ग्रहण कर आचार्य भगवंत कि उन्होंने सभी देवीदेवताओं की मूर्तियाँ निकलवायी की वाणी का अवर्णवाद किया है और पाठकों को भ्रमित थीं। पू० आचार्य शांतिसागर महाराज ने सदैव देवी-देवताओं किया है। व शासनदेवताओं की पूजा आराधना का निषेध किया अब तक के दिग्विजय के प्रकाशित अंकों को है। एक पंडित जी द्वारा पद्मावती की साधना की बात | देखकर तो ऐसा लगता है कि इसका प्रकाशन मिथ्यात्व कहे जाने पर उन्होंने पंडित जी की बुद्धि पर खेद प्रकट | की दिग्विजय के उद्देश्य से किया जा रहा है। किंतु किया था। पू. आचार्य विद्यासागर जी महाराज ने भी | यह अवश्य ध्यान में रखिए कि काल के प्रभाव से अनेकों बार अपने प्रवचनों में रागीद्वेषी देवी-देवताओं कदाचित् मिथ्यात्व की किंचित् विजय तो हो सकती की आराधना को मिथ्यात्व कहा है। पू. आर्यिका | | है, किंतु दिग्विजय होने में अभी १८००० वर्ष का लम्बा स्याद्वादमति माता जी ने किशनगढ़ में सार्वजनिक मंच समय शेष है। से घोषणा की थी कि आचार्य विमलसागर महाराज सदैव समाज श्री काला जी जैसे स्वाध्यायशील उदीयमान पद्मावती, क्षेत्रपाल एवं शासनदेवताओं की पूजा-उपासना | विद्वान् से समीचीन मार्गदर्शन की आशा करती है। हम का सर्वथा निषेध करते थे। आश्चर्य ही नहीं, अपितु विद्वद्वर श्री काला जी से साग्रह अनुरोध करते हैं कि खेद भी है कि श्री काला जी ने उपर्युक्त आचार्यों को | वे ऐसे पक्षपोषण की भावना से मिथ्यात्व को पुष्ट करने निराधार ही शासनदेवताओं की पूजा-आराधना का समर्थक | वाले मुद्दों को छोड़कर सर्वज्ञ वीतराग देव द्वारा प्रणीत बताने का दुस्साहस किया है और धर्मश्रद्धालुओं को भ्रमित | दिगम्बरजैनधर्म के सर्वोदयी सिद्धान्तों के प्रचार में अपनी करने का प्रयास किया है।
विद्वत्ता का उपयोग कर यश एवं पुण्य के भागी बनें। 'वरोपलिप्सयाशावान्-----' कारिका के स्पष्ट
लुहाड़िया सदन, जयपुर रोड अर्थ को तर्क के वाग्जाल में उलझाकर मनमाना रूप
मदनगंज-किशनगढ़ (राज.) देने का प्रयास किया गया है। यह कहा जा रहा है |
पंचपरमेष्ठी मण्डलविधान मदनगंज-किशनगढ़ चेतना जागृति महिला मण्डल के द्वारा दिनांक ८ जनवरी २००९ को ज्ञानोदय तीर्थ क्षेत्र में पंचपरमेष्ठी मण्डल विधान किया गया। महिला मण्डल की ५० सदस्यों के द्वारा तथा श्रीमान् दीपचन्द जी चौधरी, श्री निर्मल जी छाबड़ा, श्री कैलाश जी पहाड़िया, श्री कमल जी सेठी, श्री कुन्थीलाल जी काला, इन महानुभावों के द्वारा यह कार्य सम्पन्न हुआ। अध्यक्ष श्रीमती शान्ता जी पाटनी ने व महिलामण्डल की सभी सदस्याओं ने सुधासागर जी महाराज से दिगम्बर जैन पाठशाला के लिए आशीर्वाद लिया।
मदनगंज-किशनगढ़ चेतना जागृति महिला मण्डल के द्वारा छह राजकीय विद्यालयों-बान्दर सिन्दरी, पाटन, पेडीभाटा, रेगरान बस्ती, मालियों की ढाणी, विश्वकर्मा आदि राजकीय विद्यालयों में १३० स्वेटर जरूरतमन्द विद्यार्थियों को वितरित किये गये।
अध्यक्ष : श्रीमती शान्ता पाटनी, मंत्री : श्रीमती आशा अजमेरा 14 फरवरी 2009 जिनभाषित
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आत्मा की आयतनिक मीमांसा
चिरन्तन काल से ही ऋषियों मुनियों एवं गवेषकों की गवेषणा का मूलभूत तत्त्व आत्मा रहा है। इसी आत्मतत्त्व के अन्वेषण में दर्शन की उत्पत्ति हुई है । दर्शन का आद्यरूप धर्म में निहित था। धर्म जीवन का परमशक्तियों की ओर स्वाभाविक निर्देश है। धर्म और दर्शन के आन्तरिक रूप में विद्यमान शक्तियाँ अदृश्य होने पर भी निस्सन्दिग्ध रूप में हैं, क्योंकि इनके अनेकों दृश्य विद्यमान हैं। इन अदृश्य शक्तियों में बहुविश्रुत आत्मा है, जिसकी सत्ता किसी न किसी रूप में भारतीय और पाश्चात्य दोनों दार्शनिक परम्पराएँ स्वीकार करती हैं।
पुद्गल के रूप, रस, गन्ध और स्पर्श धर्मों से भिन्न होने के कारण आत्मा अमूर्तिक है। अमूर्तिक आत्मा (जीव) शुद्ध होने से किसी की पकड़ में नहीं आता है । अतएव आत्मा की आकृति विषयक अनेक कल्पनायें भारतीय दार्शनिकों द्वारा की गई हैं। उनकी मीमांसा करते हुए जैनाचार्यों द्वारा आत्मा की आकृति को दर्शाया जा रहा है।
आत्मा का विकार विषयक विवेचन करते हुए वैदिक ऋषि लिखते हैं- 'हृदय संस्थित तेजः पुञ्ज मनोमय आत्मा इतनी लघु है, जितना कि एक चावल अथवा जौ का दाना होता है, किन्तु यह आत्मा सर्वेश तथा सर्वाधिपति है और विश्व की सम्पूर्ण सत्ता पर शासन करती है।' नचिकेता के लिए आत्मोपदेश देते हुए यमाचार्य कहते हैं कि 'अँगूठे के आकार का पुरुष (आत्मा) शरीर के मध्य में स्थित है। वह भूत और भविष्य का स्वामी है। मनुष्य छिपाने की इच्छा नहीं करता है । यह अंगुष्ठमात्र जीव ज्योति के समान धुएँ रहित है । आचार्य शंकर ने अँगूठे के बराबर पुरुष को कूटस्थ आत्मा या ब्रह्म माना है? रामानुज तथा निम्बार्क के अनुसार परमात्मा उपासक के हृदय में रहने के कारण अँगूठे के आकार का है छान्दोग्योपनिषद् में आत्मा को प्रदेश मात्र माना है। मस्तक और चिबुक की अन्तर्वर्ती आत्मा होने से मस्तक की स्वामिनी है। तैत्तिरीय उपनिषद् में आत्मा को हृदयस्थ माना है और बतलाया है कि वह मूर्धा के अस्थिमार्ग से मस्तिष्क की ओर जाती है, जैसा कि कहा है- हृदय के अन्तर्गत जिसे हम आकाश के रूप
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डॉ० श्रेयांसकुमार जैन
में जानते हैं, वही उस हिरण्यमय पुरुष (आत्मा) मन का स्थान है। मूर्धा की अस्थियों के बीच में जिसे हम स्तनवत् अवलम्बित देखते हैं, उसी में होकर इन्द्र के यहाँ का मार्ग है, जो सीधा मस्तक के उस भाग तक जाता है, जहाँ माँग बनाई जाती है। 'भू:' 'भुवः' जब ये बीज मन्त्र उच्चारण किये जाते हैं, तो आत्मा सीधी ब्रह्म की ओर को प्रगतिशील होती है। आत्मा स्वराज्य प्राप्त कर लेती है। मनस्पति के साथ एकरूप हो जाती है तथा वाक्पति, चक्षुष्पति, श्रोत्रपति, विज्ञानपति तथा संक्षेपतः ब्रह्म हो जाती है, जो आकाश के रूप में व्यक्त होता है। मुण्डकोपनिषद् में आत्मा को नित्य विभु, सर्वगत, सर्वगत, सूक्ष्म भूतमात्र के उद्भव का मूल और केवलज्ञानियों द्वारा दृश्य बतलाया गया है। यह आत्म शरीरों में शरीर रहित, अनित्यों में नित्य, महान् सर्वव्यापी आत्मा को जानकर बुद्धिमान शोक नहीं करता है। साथ में वर्णन है कि सूक्ष्म से सूक्ष्म और महान् से महान् आत्मा वाणी की हृदयरूपी गुफा में स्थित है। 10 इसी प्रकार अन्यत्र भी आया है। 11 छान्दोग्योपनिषद् में भी कहा है कि 'मेरी हृदय स्थित आत्मा चावल, जौ, सरसों अथवा राई के दाने से सूक्ष्म है, पृथ्वी से भी बड़ी है, आकाश, स्वर्ग तथा समस्त लोकों से बड़ी है। 12 उक्त उपनिषद् निहित परम्परा वाक्यों से आत्मा की आकृति का यथार्थ निर्णय नहीं होता। यह प्रश्न बना हुआ है कि आखिर आत्मा अंगुष्ठ मात्र 13 या अणुरूप 14 या सर्वगत 15 किस रूप है ? जब चिन्तक चिन्तन में लीन होता है, तो उसके सामने अनुभव के आधार पर यह रहस्य प्रगट होता है कि शरीर के आकार की आत्मा है, क्योंकि समस्त शरीर में सुख दुःख ज्ञान आदि की प्रतीती होती है । यह असंख्यात प्रदेशों का समुदाय है। एक परमाणु जितने आकाश को घेरता है, उसे एक प्रदेश कहते हैं। इन्हीं असंख्यात प्रदेशों से युक्त आत्मा अखण्ड द्रव्य है जिसे न तो तोड़ा जा सकता है और न जोड़ा जा सकता है।
असंख्यातप्रदेशी होने से यह कहना कठिन है कि आत्मा इतनी छोटी है और इतनी बड़ी है। आत्मा व्यापक और देहप्रमाण है । यद्यपि शुद्धनय से आत्मा लोकाकाश के प्रदेश परिमाण है अर्थात् लोकपूरण समुद्धात में आत्मा -
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सम्पूर्ण लोकाकाश में अपने असंख्यात प्रदेशों को फैलाकर | मेरे सिर तथा पैर में पीड़ा है, इस प्रकार से एक साथ व्याप्त होती है, यद्यपि अशुद्ध निश्चयनय से यह आत्मा | ही सिर तथा पैर की पीड़ा का अनुभव न बन सकेगा। देहप्रमाण है।16 अर्थात जो छोटा-बड़ा देह उसे नामकर्म | यदि आत्मा को शरीर परिमाणवाला माना जाये, तो वह के उदय से प्राप्त होता है, उसमें अपने प्रदेशों को संकुचित | सावयव होने लगेगा। इसलिए आत्मा का विभु होना ही अथवा विस्तृत करके रहती है तथा आत्मा देह में सर्वत्र | युक्तियुक्त है। स्वानुभूति से अनुभव में आती है। वह प्रत्येक व्यक्ति आत्मा सर्वव्यापक नहीं हो सकती है क्योंकि, सर्वत्र को अपने-अपने शरीर में ज्ञानसुखादि गुणों से पूर्ण भरी | आत्मा के गुण उपलब्ध नहीं होते। जिस वस्तु के गुण हुई अनुभव में आती है। इसलिए उसको अशुद्धनय से | सभी जगह नहीं होते, वह सर्वव्यापक नहीं होती। जैसे देहप्रमाण मानने में प्रत्यवाय नहीं है।
घट-पट सर्वव्यापक नहीं हैं, जैसा कि आचार्य हेमचन्द्र जीव (आत्मा) के साथ जब तक कार्य का सम्बन्ध | ने भी कहा हैरखता है, तब तक वह शरीर और मूर्तिक होता है। शरीर यत्रैव यो दृष्टगुणः स तत्र कुम्भादिवत निष्प्रतिपक्षमेतत्। नामकर्म के उदय से संकोच और विस्तार जीव (आत्मा) तथापि देहात् बहिरात्मतत्त्वमतवादोपहताः पठन्ति। के धर्म है। उनसे ही यह आत्मा अपने शरीर के परिमाण ____ अर्थात् जिस पदार्थ के गुण जिस स्थान में देखे का होता है। जैसे दीपक किसी बड़े कक्ष में रखने पर | जाते हैं, वह पदार्थ उसी स्थान में रहता है, जैसे जहाँ उसको प्रकाशित करता है और छोटे कक्ष में रखने पर घट के रूप आदि गुण रहते हैं, वहीं घट भी रहता छोटे परिसर को प्रकाशित करता है, इसी प्रकार जिस | है, तथापि वैशेषिक लोग देह के बाह्य आत्मा को कुत्सित शरीर का जितना पुद्गल, उसकी आत्मा भी उतनी ही | तत्त्ववाद से व्यामोहित होकर सर्वव्यापक स्वीकार करते होती है। चींटी की आत्मा चींटी के आयाम- वाली और | हैं। हाथी की आत्मा हाथी के आयामवाली होती है। इसी | आत्मा को सर्वगत मानने से संसार का सभी वर्णन जैनसिद्धान्त का प्रभाव कौषीतकि उपनिषद् से स्पष्ट | अयुक्त सिद्ध होता है। एक शरीर में आत्मा प्रवेश करती परिलक्षित है। वैदिक ऋषि का कथन है कि आत्मा को है, यही जन्म है, उस शरीर को छोड़कर आत्मा बाहर समस्त शारीरिक वृत्तियों की स्वामिनी तथा समस्त ऐन्द्रिक जाती है यही मरण है, छोड़े हुए शरीर से असंख्यात व्यापारों की अधिष्ठात्री समझना चाहिए। जिस प्रकार एक | योजन ऊपर जाकर आत्मा स्वर्ग में पहँचती है। यदि छुरा पेटी में रखा जाता है, आग चूल्हे में रखी जाती आत्मा सभी जगहों में हैं, तो इन सब जन्म-मरण, स्वर्गहै, उसी प्रकार यह सचेतन आत्मा नखनिख शरीर में नरक के कथन का कुछ अर्थ नहीं रहेगा। इसके प्रतिकूल व्याप्त है। यही भाव मैत्री उपनिषद् में हैं, किन्तु वहाँ | न्यायमत में इनका अस्तित्त्व मान्य किया है जैसे कि संशय को अवकाश है, जैसे मनुष्य आत्मा का ध्यान | कहा हैकरके परमगति को प्राप्त होता है, जो अणु से भी सूक्ष्म | __ अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः । अथवा अंगुष्ठमात्र अथवा प्रदेशमात्र अथवा शरीर के आकार ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा॥ की है।18
महाभारत, वनपर्व 30, 28 चार्वाक, बौद्ध और भाट्ट आत्मा की आकृति के नैयायिक का कहना है कि अदृष्ट की व्यापकता सम्बन्ध में विचार नहीं करते. किन्त न्याय-वैशेषिकदर्शन | से आत्मा की व्यापकता निश्चित है। में आत्मा के सर्वगतत्व पर काफी विचार किया है। जैनाचार्य का कहना है कि अदृष्ट के सर्वव्यापी
न्याय-वैशेषिकदर्शन में कहा है कि वह आत्मा | होने का कोई प्रमाण नहीं है। अग्नि में दाहकत्त्व, पवन विभु (व्यापक) है, क्योंकि उसके कार्य की सर्वत्र उपलब्धि में प्रवहपना अदृष्टवश न होकर स्वभाव से ही है। हुआ करती है। विभु होने से वह आकाश के समान | नैयायिकों के प्रति जैनाचार्य कहते हैं कि ईश्वर को नित्य है। सुख-दुःख आदि का भेद होने से वह प्रत्येक | सृष्टिकर्ता और आत्मा को सर्वव्यापक मानने पर प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न है।” इसी संदर्भ में पार्थसारथि मिश्र | आत्मा को सृष्टि का कर्ता मानना चाहिए। नाना आत्माएँ का कहना है कि यदि आत्मा को अण माना जाये. तो | सर्वव्यापक हैं, इसलिए वे ईश्वर में सर्वतः व्यापक होकर
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रहेंगी और आपके ईश्वर के कर्तत्व का अभाव हो । यवो वा स एष सर्वस्याधिपतिः सर्वमिदं प्रशस्ति यदिदं जायेगा।23
किञ्च। वृहदारण्यकोपनिषद् 5/6/1 आत्मा की आयतनिक स्थिति जैनाचार्यों द्वारा 2. अंगुष्ठमात्रः पुरुषो मध्य आत्मनि। ईशानो भूतभवस्य न तर्कसंगत और अनुभवसम्मत वर्णित की गई है। आचार्य
ततो विजुगुप्सते ॥ एतद्वैतत् ॥ अंगुष्ठमात्रः पुरुष नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव कहते हैं
ज्योतिरिवाधूमकः। ईशानो भूतभवस्य स एवाद्य स उश्वः। अणु गुरुदेहपमाणो इव उपसंहारप्पसप्पदी चेदा।
एतद्वैतत् ॥ कठोपनिषद् 2/1/12/13
3. वेदान्तभाष्य 1, 3, 24 तथा 25 असमुहदो बवहारा णिच्चयणयदो असंखदेसो वा॥4
4. फैलाए हुए तर्जनी और अंगूठे के बीच का प्रमाण। विशेष अर्थात् समुद्धात25 के बिना यह जीव (आत्मा)
अमरकोष 2/6/83 व्यवहारनय से संकोच तथा विस्तार से अपने छोटे अथवा
5. छान्दोग्योपनिषद् 5/18/1, 6. वही। बड़े शरीर के प्रमाण रहता है। निश्चयन से असंख्यात
7. तैत्तिरीय 1/6/1-2 प्रदेशों का धारक है अर्थात् लोकव्यापी है।
8. नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्म तदव्यं यद् भूतयोनिपरिपश्यन्ति जैनसिद्धान्त में एकान्त को अवकाश नहीं है। न
धीराः। मुण्डकोपनिषद् 1/1/6 तो आत्मा अणुरूप है, न वटबीज के समान, न अंगुष्ठ | 9. कठोपनिषद् 1/2/22 10. वही 1/2/20 की गाँठ के बराबर और न सात समुद्धात के बिना | 11. श्वेतावतर0 3/20 12. छान्दोग्यो. 3/14/3 शरीरप्रमाण से अधिक है। अर्थात् इन सात समुद्धातों में | 13. अंगुष्ठमात्रः पुरुषः। श्वेता0 3/13, कठो0 1/2/12 से जब किसी के द्वारा कोई समुद्धात किया जाता है, | 14. छान्दोग्य0 3/14/3, 15. श्वेता0 1/16 तब उसके शरीर से कुछ आत्मप्रदेश बाहर निकलते हैं | 16. यदि शुद्धनयादेव लोकाकाशप्रदेशकः। और पुनः देह में आ जाते हैं। इसी अपेक्षा से शरी
अशुद्धेन तथाप्यात्मा देहमात्रो निगद्यते॥ के बाहर आत्मा को माना है, न कि नैयायिक-वैशेषिक
सिद्धान्तसार 2/13
17. कौषीतकि 04/20 18. मैत्री0 6/38 अथवा उपनिषद् सिद्धान्त के अनुसार। निष्कर्ष यही है कि आत्मा लोक में व्याप्त होकर
19. स च सर्वत्र कार्योपलम्भाद् विभुः परममहत् परिमाण
वानित्यर्थः। विभुत्वाच्च, नित्योऽसौ व्योमवत्। सुखादीनां ही नहीं रहती है, किसी न किसी शरीर में विद्यमान
वैचित्र्यात् प्रतिशरीरं भिन्नः। तर्कभाषा पृ. 181 होती है। वह तो समुद्धात की प्रक्रियावश कुछ बाहर
20. शास्त्रदीपिका पृ. 491 फैल जाती है और पुनः शरीर में आत्मसात् हो जाती
21. अन्ययोगव्यवच्छेदिका का.9 (स्याद्वादमञ्जरी) है। लोकपरिमाण कहने का तो मात्र इतना तात्पर्य है कि
22. स्याद्वादमञ्जरी पृ. 69, 23. वही, पृ. 70 यदि आत्मप्रदेशों को फैलने का पूरा अवकाश मिले, | 24. द्रव्यसंग्रह गा. 10 तो वे सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हो जायेंगे। लोकाकाश से 25. अपने मूल शरीर को न छोड़ते हुए कामर्ण और तैजसरूप बाहर एक भी आत्मप्रदेश नहीं जा सकता है। अतएव | उत्तर शरीर से युक्त आत्मा के प्रदेशसमूह का शरीर से सामान्यतः शरीरप्रमाण ही आत्मा है और आत्मप्रदेशों की बाहर निकलना समुद्धात है। गोम्मटसार जीवकाण्ड गा. प्रसरणशक्ति की अपेक्षा लोकपरिमाण आत्मा है। ये अनन्त 666 आत्मायें पृथक-पृथक होकर भी असंख्यात प्रदेशी हैं। 26. वेदना, कषाय, विक्रिया, मारणान्तिक, तैजस, आहारक, सन्दर्भ
केवली। 1. मनोमयोऽयं पुरुषो भाः सत्यस्तस्मिन्न तं हृदये यथा ब्रीहिर्वा
रीडर, संस्कृत विभाग, दिगम्बर जैन कॉलेज, बड़ौत
कबीरवाणी माली आवत देखि कै कलियाँ करें पुकारि। फूली फूली चुनि लई कालि हमारी बारि ॥ मनुष जन्म दुलर्भ अहै, होय न बारंबार। तरुवर से पत्ता झरें, बहुरि न लागें डार ।।
- फरवरी 2009 जिनभाषित 17
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संपूर्ण विश्व में जैनधर्म ने विशिष्ट तथा असामान्य ऐसे तत्त्वज्ञान के कारण तथा आचारपद्धति के कारण अपना वैशिष्ट्यपूर्ण स्थान ग्रहण किया है। जैनधर्म ने सामान्य जनों का आध्यात्मिक तथा नैतिक स्तर ऊँचा उठाने की भरसक कोशिश तो की ही है, साथ में वास्तुकला, मूर्तिकला, गृह- शिल्पकला, चित्रकला, रंगकला संगीतकला आदि जीवन के अलग-अलग क्षेत्र में भी प्रगति साधकर उन क्षेत्रों को सजाने-सँवारने का काम किया है।
जैन संगीतशास्त्र
" जैनधर्म कठोर विधिनिषेध दर्शानेवाला तथा जीवन की मधुरता को नकारनेवाला धर्म है, " यह अन्य धर्मियों की कल्पना अपरिपक्व तथा अवास्तव है। जैनसमाजजीवन में बहत्तर कलाओं को विशेष महत्त्वपूर्ण स्थान है, यह विविध जैन पुराण, काव्य आदि का अभ्यास करते समय दृष्टिगोचर होता है। इन बहत्तर कलाओं में से कई कलाएँ कालौघ में नष्ट हो गई, लेकिन कई कलाओं ने असामान्य स्थान ग्रहण किया है। ऐसी ही कलाओं में एक कला थी, संगीत कला !
जैनसंस्कृति के अनुसार युगादिपुरुष ऋषभदेव ने संगीत विद्या का आविष्कार किया था। वे केवल आविष्कारक ही न थे, बल्कि स्वयं शिक्षक तथा पुरस्कर्त्ता भी थे।
आचार्य जिनसेन आदिपुराण में कहते हैंविभुर्वृषभसेनाय गतिवाद्यार्थसंग्रहम् ।
गन्धर्व - शास्त्रमाचख्यौ यत्राध्यायाः परः शतम् ॥ अर्थात् मनुकुलतिलक वृषभदेव ने अपने प्रथम पुत्र वृषभसेन को गीत, वाद्य तथा गांधर्व विद्या का उपदेश दिया था। उसके शत अध्याय भी हो सकेंगे।
वाचनाचार्य सुधाकलश संगीतोपानिषत्सारोद्धार में लिखते हैं
इति जैनमते तूर्यात्रिकस्थोत्पत्तिरिष्यते । हरात् संगीतनिष्पतिः प्रसिद्धास्त्वखिले जने ॥ अर्थात् इस प्रकार जैनमत में वर्णित तूर्यत्रिक की सूर्य, वाद्य, नाटक ] उत्पत्ति जैनमत में इष्ट मानी गई है। शिव ने संगीत की उत्पत्ति की, ऐसा लोक में प्रसिद्ध
18 फरवरी 2009 जिनभाषित
डॉ० अभय दगड़े, एम.बी.बी.एस
है। शिव यह ऋषभदेव का पर्यायवाची नाम है।
प्राचीन संस्कृति का परिचायक 'मोहों-ज- दारो', यहाँ पर प्राप्त भगवान् ऋषभनाथ की मूर्ति के इर्दगिर्द वीणा, करताल, बाँसुरी, मृदंग आदि के आकार उत्कीर्णित मिलते हैं। जिस प्रकार इससे जैनों की संगीत की आस्था में प्रथिती मिलती है, उसीप्रकार उनके संगीतशास्त्र रचना भी होगी यह प्रतीत होता है।
प्राचीन भारतीय जैनसमाज ने संगीत के साथसाथ ही नृत्यकला, वाद्यकला, नाट्यकला आदि में भी प्रगति की थी । उत्सव या धार्मिक त्यौहारों के प्रसंग पर स्त्री-पुरुष एकत्र नृत्य महोत्सव मनाते थे, वाराणसी मदनमहोत्सव इसका एक उदाहरण है।
पुराणग्रंथ, चरित्रग्रंथ, काव्यग्रंथ आदि में से विविध वाद्यों की, संगीतविषयक शास्त्रीय जानकारी देनेवाले वर्णन पढ़कर लगता है, जैनसंगीत शास्त्र बहुत प्रगल्भ था। सिर्फ । आश्चर्य इस बात का है कि जैनसंगीत शास्त्रों की उपेक्षा क्यों की गई? कुछ ग्रंथों का संदर्भ यहाँ दे रहे हैं। किन्हींकिन्हीं ग्रंथों के ग्रंथकार, ग्रंथकाल इ. संबंधी पूरी मालूमात प्राप्त नहीं होती है।
१. संगीत रत्नाकर : यह सुसंबद्ध संगीतशास्त्र ई० सं० १२०० के बाद का है। मार्गी तथा देशी, दोनों पद्धतियों का यथायोग्य वर्णन इसमें है । शायद इसलिए ही इसकी तुलना अन्य ग्रंथों से की जाती है इसका कर्त्ता शारङ्गदेव हैं, लेकिन उसका उल्लेख मात्र नहीं मिलता है।
२. संगीत समयसार यह ग्रंथ श्री पार्श्वदेव रचित इ० सं० १२०० के बाद का माना जाता है। इसमें देशी रागों का अध्यायों में वर्णन है। कहीं कहीं वर्णनक्रम छूटा हुआ है। इसमें नाद, गीत, वर्ण, आलाप, राग, रागांग, प्रबंध, अनवद्य, ताल, नृत्य, प्रस्तार आदि छोटी-छोटी बातों पर प्रकाश डाला गया है।
३. पूर्वगतस्वरप्राभृत: यह ग्रंथ स्थानांगसूत्र में आए हुए वर्णन से लगता है, यह ग्रंथ संगीतशास्त्र से जुड़ा हुआ था। इसमें २९ मूर्च्छनाओं का वर्णन है। अभयदेव की स्थानांगसूत्र पर टीका विद्वत्तापूर्ण है।
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हैं।
४. भद्रबाहुकृत कल्पसूत्र : विनयविजयोपाध्याय पंचमश्च मुखे ज्ञेयस्तालुदेशे तु धैवतः। इन्होंने भद्रबाहुकृत संस्कृत टीका लिखी है इसमें वाद्यों निषादः सर्वगाते च गेया सप्तस्वरा इति॥ का वर्णन हैं। यह ग्रंथ १७वीं शताब्दी का माना जाता
अर्थात् जो स्वर कंठप्रदेश में स्थित है उसे षड्ज,
शिरोदेश में स्थित उसे ऋषभ, नासिकप्रदेश में स्थित वह ५. संगीतोपनिषत्सारोद्धार : यह ग्रंथ सुधाकलश | गांधार, हृदयप्रदेश में स्थित उसे मध्यम, मुखप्रदेश में इनका है। इसमें ताल का विशेष वर्णन है। एक मात्र स्थित उसे पंचम तालुप्रदेश में स्थित उसे धैवत तथा ताल से लेकर षष्टिमात्रिक तालों का वर्णन इसमें विस्तार | संपूर्ण प्रदेश में स्थित [शरीर में स्थित] उसे निषाद कहते से किया गया है।
६. जंबूदीवपणपत्तिसंगहो: ग्यारहवीं शताब्दी में इसके आगे ऐसा भी वर्णन हैपद्मनंदी आचार्य-लिखित इस ग्रंथ में कुल १३ उद्देश्य निषादं कुंजरो वक्ति बने गौ ऋषभं तथा। (प्रकरण) कहे गये हैं, और १४२९ गाथाएँ हैं। उसमें अजा वदन्ति गांधारं षड्ज ब्रूते भुजङ्गभुक्॥ से ४ थे प्रकरण की २२४ से २३२ गाथाओं में सा रे ब्रवीति मध्यमं क्रौञ्चो धैवतं च तुरंगमः। ग म प धा नी स्वरों का उल्लेख बड़ा मनोरंजनात्मक
पुष्पसंधारणे काले पिकः कूजति पञ्चमम्।। रूप से आया है। कहा गया है
अर्थात् हस्ती का स्वर निषाद है, गाय का ऋषभ, सौधर्म तथा ऐशान स्वर्ग के देव तथा देवी सुमेरु | बकरी का गांधार, गरुड़ का षड्ज, क्रौंच पक्षी का पंचम, पर्वत पर तीर्थंकर बालक को अभिषेक हेत ले जाते | घोड़े का धैवत तथा वसंतऋतु मैं कोकिला पंचम स्वर हैं। विशाल देवसेना जुलूस में सम्मिलित होती है। गजरूप- | में कूकती है। धारी देवगण, विद्याधर, कामदेव आदि का षड्ज (सा)
८. पद्मचरित्र : ईसवी की सातवीं शताब्दी में स्वर में गणगान करते हैं। तरंगसेना ऋषभ (रे) स्वर | हुए आचार्य रविषेण का पद्मचरित जैनों के घर-घर में में मांडलिक, महामांडलिक राजाओं का देवरथ सेना गांधार |
प्रसिद्ध है। यह ग्रंथ अनेक विषयों का खजाना है। विद्या (ग) स्वर में बलभद्र. नारायण प्रतिनारायण आदि के और कला के साथ साथ संगीत कला के बारे में काफी बलवीर्य का. पैदल सेनामध्यम (म) स्वर में चक्रवर्ती | महत्त्वपूर्ण जानकारी इस ग्रंथ से प्राप्त होती है. अनेक के वैभव, बल, वीर्य आदिका, वृषभ सेना पंचम (प)
जगह पद्मचरित में संगीतकला का उल्लेख है। संगीतस्वर में चरमशरीरी मुनियों का, गंधर्वसेना धैवत (ध) शास्त्र के स्वर, वृत्ति मूर्च्छना, लय, ताल, जाति, ग्राम स्वर में गणधरदेव तथा ऋद्धिधारी मनियों का और / आदि शब्दों का प्रयोग और उनमें से अनेकों का विस्तृत नृत्यकारिणी सेना निषाद (नि) स्वर में तीर्थंकर भगवान् | वर्णन किया है। जैसे स्वर शब्द का अर्थके ४६ गुणों का तथा उनके पुण्यमय जीवन का गायन श्रुतान्तरभावी यः शब्दो अनुरणात्मकः। करते हैं।
स्वतो रञ्जयते श्रोतुश्चित्तं स स्वर ईष्यते॥ उपरिनिर्दिष्ट वर्णन में पुण्यपुरुषों का सात मूल
अर्थात् एक के बाद एक आनेवाली श्रुतियों से स्वरों में गुणगान होता है, यह कहा गया है। पुण्यपुरुष |
स्वरनिर्मिती होती है। शब्दों के गुंजन को ही स्वर कहते और स्वर इनका उच्च क्रम मनोवेधक हैं। इसमें सेनाओं
हैं। (प्रत्येक शब्द के आघात के बाद उत्पन्न होनेवाली का और स्वर का संबंध किस प्रकार है यह अनुसंधान
लहरों का क्रम से उत्पन्न होना और क्रम से विलीन विषय है।
होना गुंजन कहलाता है।) गुंजन यही स्वरों का मुख्य ७. स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा : इस ग्रंथ की श्री |
रूप है, क्योंकि गुंजन में ही स्वर-श्रुतियों का प्रकटीकरण शुभचंद्राचार्य ने संस्कृत टीका लिखी है। इस टीका में | होता है। हर एक स्वर, अपने आप में अन्य स्वर की उन्होंने सप्तस्वर तंत्रीरूप कंठ से उत्पन्न होते हैं, ऐसा | लिखा है। उन्होंने स्वरों के स्थानों का भी उल्लेख किया पद्मचरित में मूर्च्छना के बारे में भी काफी कुछ
कहा गया है। वैसे मूर्च्छन धातु का अर्थ चमकना या कण्ठदेशे स्थितः षड्जः शिरस्थऋषभस्तथा। ।
उभरना है। कुछ लोग श्रुति के मृदुत्व को ही मूर्च्छना नासिकायां च गांधारो, हृदये मध्यमो भवेत्॥ | कहते हैं, कुछ लोग रागरूपी अमृतसरोवर में गायक तथा
-फरवरी 2009 जिनभाषित 19
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श्रोता इनका पूर्णता से अवगाहित होने को ही मूर्च्छना कहते हैं। लेकिन भरत संगीत में सात स्वरों के क्रमयुक्त प्रयोग को ही मूर्च्छना कहा है पद्मचरित में गंधवों से आयी हुई इक्कीस मूर्च्छनाओं का उल्लेख है।
पद्मचरित में लय, ताल, जाति आदि का भी बहुत कुछ वर्णन मिलता है ।
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९. धवल ग्रंथ में वीणा, त्रिसारिक, आलापिनी, बव्वीसक, खुक्खुण, कालह आदि वाद्यों के नाम मिलते हैं ।
:
१०. सर्वार्थसिद्धि इस ग्रंथ में अभाषात्मक शब्दों के वर्णन में तत, वितत, घन, सौषिर ऐसा वर्गीकरण आता है। इस निमित्त से कुछ वाद्यों के नाम आते हैं, जैसे
चर्मतनतनिमित्तः पुष्करभेरीदर्दुरादिप्रभवस्ततः । तन्त्रीकृत वीणासुघोषादिसमुद्भवो विततः । तालघण्टालालनाद्यमिधातजो घनः । वंशशंरवादिनिमित्तः सौषिरः ॥
अर्थात् प्रायोगिक शब्द चार प्रकार के हैं- चमड़े से मढ़े हुए पुष्कर, भेरी, और दर्दुर से जो शब्द उत्पन्न होता है, वह तत् शब्द है । ताँनवाले वीणा और सुघोष आदि से जो शब्द उत्पन्न होता है, वह वितत शब्द है । ताल, घण्टा, लालन आदि के ताडन से जो शब्द उत्पन्न होता है, वह घन है तथा बाँसुरी, शंख आदि के फूँकने से जो शब्द होता है, वह सौषिर शब्द है (स.सि./ ५/२४) ।
११. आवश्यकवृत्ति में तथा भद्रबाहुकृत कल्पसूत्रटीका में भी कुछ वाद्यों के प्रकार कहे गये हैं। जैसे पणव, मुरज, मृदंग भम्मा [भम्मा पृथुलमुखढक्काविशेषः] मुकुंद, कर्टिका, तलिमा, तिदुल्लीका, गोमुखी, दरदरिका, पटह, आडम्बर आदि ।
संगीतसमयसार ग्रंथ में रागदारी की विशेष जानकारी दी है। संगीतविषय विशेषरूप से समझे तथा सुननेवाले की तदनुरूप प्रवृत्ति होवे, इस हेतु राग में स्वरों की विशिष्ट रचना होती है। उससे रसनिष्पत्ति सुंदर होती है अर्थात् विशिष्ट रसानुभूति के लिए विशिष्ट रागों की । योजना की जानी चाहिए, ऐसा इसमें कहा गया है। जैसेश्रृंगार रस के लिए- वसंत, मालवश्री, वराटी, गुर्जरी, मल्हारी। [ रागों के नाम ]
वीर रस के लिए- गौड, धन्नासी, श्री । प्रार्थना के लिए भैरव, भैरवी ।
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20 फरवरी 2009 जिनभाषित
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करुण रस के लिये सायरी, देशी आदि । यह वर्णन संगीतरत्नाकर तथा आधुनिक संगीत शास्त्र के भातखण्डे संगीत शास्त्र से भी यह मिलताजुलता है।
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गायन में ताल का अत्यन्त महत्त्व है। संगीत समयसार, संगीतरत्नाकर, संगीतोपनिषत्सारोद्धार इन तीनों ग्रंथो में ताल का बहुत वर्णन मिलता है। संगीत समयसार - में तो कहा है
तालमूलानि गेयानि ताले सर्वप्रतिष्ठितिम् । तालहीनानि गेयानि मंत्रहीना यथाहुतिः ॥ इससे ताल का महत्त्व कितना है, यह ध्यान में आता है। तालसंबंधी द्रुत, लघु, प्लुत, कला, प्रस्तार, विराम, काल, मात्रा आदि को समझकर ताल का 'एकमात्रिक, द्विमात्रिक,....... . त्रिंशत्मात्रिक, षष्टिमात्रिक ऐसा वर्गीकरण किया गया है। इस वर्गीकरण में से कुछ तालों के नाम वर्तमानकालीन प्रचलित संगीतशास्त्र में देखने को भी नहीं मिलते हैं, जैसे तिसारक, उदीक्षण रायवंकोल चाचपुर, पृथ्वीकुंडल आदि ।
१२. नयनसुखविलास : मुजफ्फरनगर में हुए कविवर नयनानंद ने यह ग्रंथ लिखा था । स्व० ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी स्मारक ग्रंथमाला की ओर से यह ग्रंथ दो भागों में प्रसिद्ध हुआ था। पहले भाग में करीबन ४० रागिणीसह पद्यरचना है। ग्रंथवैशिष्ट्य यह है कि इसमें गायन किस काल में करें, विस्तृत दिया है। इसमें सौ से अधिक पद हैं। ताल का महत्त्व देते समय उसे योद्धा की उपमा दी है। जिस प्रकार युद्ध में योद्धा अगर अश्व से नीचे गिर जाए, तो वह उसका अपमान समझा जाता है, उसी प्रकार ताल में अगर गलती हो तो गायक का अपमान समझा जाता है, ऐसा इस ग्रंथ में कहा गया है।
इस ग्रंथ में २४ तीर्थंकरों की स्तुति संदर्भ में दी गई पद्यरचना की राग-रागिणी योजना तथा दिन के २४ तासों में उसका विभाजन देखने लायक, अभ्यास करने लायक है। जैसेतीर्थंकर
राग
कलिंगडा
भैरवी
श्री ऋषभनाथ जी
श्री अजितनाथ जी
श्री संभवनाथ जी
बिलावल
श्री अभिनंदननाथ जी प्रौढी
समय
सवेरे ६ से ७
सवेर ७ से ८
सवेर ८ से ९ ९ से १०
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श्री सुमतिनाथ जी जोगिया, आसावरी
श्री पद्मप्रभजी
श्री सुपार्श्वनाथ जी श्री चंद्रप्रभुजी श्री पुष्पदंत जी
श्री शीतलनाथ
श्री श्रेयांसनाथ जी
१० से ११
११ से १२ १२ से १ १ से २ दोप. २ से ३ दोप, ३ से ४ सायं ४ से ५ ५ से ६
सायं ६ से ७ रात्रौ ७ से ८
रात्रौ ८ से ९ ठुमरी (खमाज) रात्रौ ९ से १० ठुमरी ( खमाज) रात्रौ १० से ११ देशखास रात्रौ ११ से १२ सोरठ (खास) रात्रौ १२ से १ बिहाग
रात्रौ १ से २
जयजयवंती उत्तररात्री २ से ३
मैरूनर
सारंग
पीलू पंजाबी ठुमरी
श्री वासुपूज्य जी
श्री विमलनाथ जी
श्री अनंतनाथ जी
श्री धर्मनाथ जी
श्री शांतिनाथ जी श्री कुंथुनाथ जी श्री अरहनाथ जी
श्री मल्लिनाथ जी श्री मुनिसुव्रतनाथ जी श्री नमिनाथ जी
ग्रन्थ- समीक्षा
खास बरवा झंझोरी
उंकोटिकी
जंगला तुमरी
धनाश्री
धानी
श्यामकल्याण
सबके रहस्य समीक्षक
आज के युग में व्यक्ति की याददाश्त कमजोर | होती जा रही है, उसे याद ही नहीं रहता कि हम कैसे धर्ममार्ग की ओर अग्रसर हों? साधुओं के दर्शन तो करते हैं, लेकिन उसके मन में जिज्ञासा रहती है कि साधुओं के पूर्व जीवन के बारे में भी जानें, क्योंकि आम लोगों की धारणा यही रहती है कि साधु वही बन जाते हैं जिनके कुछ व्यवसाय, नौकरी आदि नहीं होती है। लेकिन वर्तमान में यह धारणा परिवर्तित करते हुए आ० श्री विद्यासागर जी से कुछ पढ़े लिखे नौजवानों ने नौकरी करने के बाद भी दीक्षा ली है। इन्हीं रहस्यों को इस पुस्तक में खोला गया है। इस पुस्तक में आ० श्री विद्यासागर जी की ग्रीष्मकालीन वाचना सन् २००८ विदिशा में विराजमान साधुओं का जीवनपरिचय, भाई-बहिन के नाम
श्री नेमिनाथ जी
श्री पार्श्वनाथ जी
श्री महावीर जी
इन ग्रंथों के अतिरिक्त, कवि भूधरदास, भागचंद, बुधचंद, द्यानतराय, दौलतराम, आदि कवि विद्वानों ने संगीतसेवा काफी की है, ऐसा उन्होंने रागदारी में की हुई पदसंग्रह - पद्यरचनाओं से समझ में आता है।
यह काफी त्रुटिपूर्ण मालुमात हो सकती है। आज जैनसंगीत की ओर विशेष किसी का ध्यान नहीं है, फिर भी अब तक की गई उपेक्षा समाप्त हो कर संगीत प्रेमी, विद्वज्जन, जैनसंगीतशास्त्र तथा जैनसंगीत प्रचार में लाएँ, यही भावना हम भा सकते हैं।
संदर्भ : यह लेख 'पूर्णा' पर आधारित है। संदर्भसूचि : पूर्णार्घ्य पान नं. ७८७ से ७९८
: सर्वार्थसिद्धि : कार्तिकेयानुप्रेक्षा
जंगला
परज
परज
उत्तररात्रौ ३ से ४
उत्तररात्रौ ४ से ५
उत्तररात्रौ ५ से ६
डॉ० अजित कुमार जैन, विदिशा
पुस्तक का नाम सबके रहस्य, संकलन कर्ता
डॉ० महेन्द्र जैन, प्रदीप जैन, प्रकाशक का
नाम : शांतिनाथ प्रकाशन समिति विदिशा, प्राप्तिस्थान: श्री अनिल जैन (टिवरी वाले), आदि ट्रेडर्स भण्डारा रोड इतवारी बाजार नागपुर २, (महा.) मो. ०९४२२११४१८०
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प्रथम संस्करण - २८.१०.२००८, मूल्य ४५/- ( लागत मूल्य ८२ /-) साइज: २१x१४ सेमी., पृष्ठ- १४४ रंगीन चित्र मल्टीकलर।
कोपरगाँव (महाराष्ट्र )
( जन्म क्रम से ) ( गृहस्थ जीवन का पता ) शोध कार्यों (पी. एच. डी.) आदि के लिए ४x६ के चित्र सहित दिया गया है और सूतक संबंधी शास्त्रीय विषय, पूजन के वैज्ञानिक एवं चिकित्सा संबंधी पहलू दिये गये हैं, हस्तमुद्रा चिकित्सा, शिखरजी, कैलाश पर्वत २४ तीर्थंकर, ह्रीं, णमोकार मंत्र, स्वस्तिक, ऊँ आदि का ध्यानसंबंधी विषय चित्र सहित दिया गया है और चौघड़िया समय के अनुसार एवं विशेष शुभ मूहूर्ती का विवरण दिया गया है। वास्तव में इस पुस्तक का नाम 'सबके रहस्य' सार्थक ही हो गया है। इस पुस्तक में जो रहस्य है वह अन्य जगह दुर्लभ है। यह पुस्तक एलवम एवं डायरेक्ट्री का कार्य भी करेगी और ध्यान केन्द्र तथा कैलेण्डर का भी। इसलिये यह सबके लिए लाभदायक सिद्ध होगी। फरवरी 2009 जिनभाषित 21
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तत्त्वार्थसूत्र में प्रयुक्त 'च' शब्द का विश्लेषणात्मक विवेचन
पं० महेश कुमार जैन, व्याख्याता
आचार्य उमास्वामीकृत मोक्षमार्गप्ररूपक तत्त्वार्थसूत्र' जैनागम में संस्कृतसूत्रों में निबद्ध आद्य ग्रन्थ माना जाता है। मोक्षमार्ग का प्रतिपादक होने के कारण इसे मोक्षशास्त्र भी कहते हैं । तत्त्वार्थसूत्र में सम्यग्दर्शन के विषयभूत जीवादि सात तत्त्वों का वर्णन है। इसमें कुल 10 अध्याय और 357 सूत्र हैं। इसका रचनाकाल ईसा की दूसरी शताब्दी है। जैनशासन का यह ग्रन्थ गूढ़ रहस्यों का विशाल भण्डार है। जैसा कि सूत्र की परिभाषा लिखते हुए आचार्य वीरसेन स्वामी श्रीधवला में इस प्रकार कहते 意
अल्पाक्षरमसंदिग्धं सारवद् गूढनिर्णयम् । निर्दोषहेतुमत्तथ्यं सूत्रमित्युच्यते बुधैः ॥ 9/117॥ अर्थ- जो थोड़े अक्षर से संयुक्त हो, संदेह से रहित हो, परमार्थ - सहित हो, गूढ़ पदार्थों का निर्णय करनेवाला हो, निर्दोष हो, युक्तियुक्त हो और यथार्थ हो उसे पण्डितजन सूत्र कहते हैं ।
अध्याय 1
अध्याय 2
अध्याय 3
अध्याय 4
8,31
02
1,1,4,5,7,10,28,32,41,47,49 11
08
2,5,13,18,24,34,36,39 4,12,17,19,25,32,35,37,38,40 10
22 फरवरी 2009 जिनभाषित
अध्याय 5
अध्याय 6
अध्याय 7
अध्याय 8
3,32,33
अध्याय 9 अध्याय 10 1,3,6,7
कषायपाहुड़ में आचार्य गुणधरस्वामी कहते हैं अर्थस्य सूचनात्सम्यक् सूतेर्वार्थस्य सूरिणा । सूत्रमुक्तमनल्पार्थं सूत्रकारेण तत्त्वतः ॥ 73॥
अर्थ- जो भली प्रकार अर्थ का सूचन करे अथवा अर्थ को जन्म दे, उस बहु अर्थ गर्भित रचना को सूत्रकार आचार्य ने निश्चय से सूत्र कहा है।
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1. सर्वार्थसिद्धि आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी द्वारा रचित संस्कृत टीका, हिन्दी अनुवाद सिद्धान्ताचार्य पं० 'सूत्र' शब्द ग्रन्थ, तन्तु और व्यवस्था इन तीन अर्थों फूलचंद शास्त्री पाँचवा संस्करण 1991, प्रकाशन भारतीय को सूचित करता है ।
ज्ञानपीठ, दिल्ली ।
आचार्य उमास्वामी महाराज ने सूत्रों को लघुत्व प्रदान करने के लिए अनेक स्थानों पर 'च' शब्द प्रयुक्त किया है। इस 'च' शब्द की प्रासंगिकता आचार्य पूज्यपाद महाराज, आचार्य अकंलकदेव, आचार्य विद्यानन्दि आदि ने प्रस्तुत की है। उन्हीं सर्वमान्य संदर्भों के आधार पर 'च' शब्द का क्रमागत विवरण इस प्रकार हैविवेचित सूत्रों में 'च'
क्रम
संख्या
शब्द की आवृत्ति
3,7,10,20,22,24,25,37,39
8,18,19,21,22,25,26
09
07
03
06
03
04
कुल योग
63
चकार संयोजन और भी, तथा शब्द या उक्तियों को जोड़ने के लिए प्रयुक्त किया जाता है। समुच्चय के लिए अर्थात् 2 युक्तियों के साथ 'च' की बार-बार आवृत्ति होती है। आचार्य विद्यासागर जी महाराज कहते हैं कि 'च' का पेट बहुत बड़ा है। 'च' शब्द चुम्बक की तरह काम करता है। आचार्यों ने तत्त्वार्थसूत्र में आये 'चकार' के विभिन्न अर्थ स्वीकार किये हैं। जनसामान्य को उन सभी ग्रन्थों को देखना व समझना सहज नहीं है। अतः इस लेख में विभिन्न ग्रन्थों और संदर्भों के आधार से 'च' शब्द की व्याख्या का संकलन किया गया है, ताकि सभी साधर्मी भाई इसका पूर्ण लाभ उठा सकें। इस लेख में आचार्यों द्वारा प्रतिपादित निम्नलिखित ग्रन्थों के सन्दर्भ लिये गये हैं
11,19,21
7,9,11,12,14,23
2. तत्त्वार्थराजवार्तिक आचार्य श्री अंकलक देव द्वारा रचित संस्कृत टीका, हिन्दी अनुवाद आर्यिका श्री 105 सुपार्श्वमती माताजी, द्वितीय संस्करण 2007 संपादक डॉ० चेतनप्रकाश पाटनी ।
3. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार- आचार्य श्री विद्यानन्दि द्वारा रचित संस्कृत टीका, हिन्दी अनुवाद पं० माणिकचन्द्र कौन्देय, द्वितीय संस्करण 2005 प्रकाशनश्री आचार्य कुन्धुसागर ग्रन्थमाला, सोलापुर।
4. सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति - आचार्य श्री भास्करनदी द्वारा रचित टीका, हिन्दी अनुवाद आर्यिका श्री 105 जिनमती माताजी द्वारा।
5. तत्त्वार्थवृत्ति श्री श्रुतसागरसूरि रचित संस्कृत
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हैं।
टीका, हिन्दी अनुवाद प्रो० महेन्द्रकुमार जैन 'न्यायाचार्य'. | भी हैं और समीचीन भी हैं। द्वितीय संस्करण 1999, प्रकाशन-भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली। | श्लोकवार्तिक-.
6. तत्त्वार्थमंजूषा- आर्यिका श्री 105 विज्ञानमती समच्चिनोति चस्तेषां सम्यक्त्वं व्यावहारिकम्। माताजी द्वारा संकलित तत्त्वार्थसूत्र की हिन्दी टीका, प्रथम मुख्यं च तदनुक्तौ तु तेषां मिथ्यात्वमेव हि॥ १॥ संस्करण 2005 संपादन-डॉ० चेतनप्रकाश पाटनी।
ते विपर्यय एवेति सूत्र चेन्नावधार्यते। 7. सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र- आचार्य उमास्वाति
च शब्दमन्तरेणापि, सदा सम्यक्त्वमत्त्वतः॥ 10॥ विरचित संस्कृत टीका सहित, हिन्दी अनुवाद-पं०
मिथ्याज्ञानविशेषः स्यादस्मिन्पक्षे विपर्ययः॥ खूबचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री, तृतीय संस्करण 1992,
संशयाज्ञानभेदस्य च शब्देन समुच्चयः॥ 11॥ प्रकाशन-श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, आगास (गुजरात)।
अर्थ- 'च' शब्द मति, श्रत एवं अवधिज्ञान के 8. आचार्य प्रभाचन्द्र द्वारा रचित टिप्पणियाँ, जो
| सम्यक्पने का व्यावहारिक एवं मुख्य रूप से समुच्चय कि सर्वार्थसिद्धि हिन्दी टीका के परिशिष्ट में दी गयी ।
करता है। 'च' शब्द के नहीं कहे जाने पर तो उन
तीनों ज्ञानों का विपर्यय पद के कारण मिथ्यापन ही ध्वनित 9. दशलक्षण पर्व में आचार्य श्री विद्यासागर जी
होता है। यदि वे ज्ञान विपयर्य ही हैं तो सूत्र में 'च' महाराज द्वारा दिये गये तत्त्वार्थसूत्र के प्रवचनों के आधार
शब्द के बिना भी ग्रहण हो जाता है, परन्तु ऐसा मानने पर 'च' शब्द की विशेष व्याख्या।
पर सम्यक्पने की अवधारणा नहीं रहती, अतः 'च' शब्द अध्याय 1
दिया गया है। मिथ्याज्ञान के भेदों में विपर्यय भेद है सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्वैश्च ।। 8॥
अतः 'च' शब्द से संशय और अज्ञान भेद का भी समुच्चय सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक एवं सख- | हो जाता है। बोधतत्त्वार्थवृत्ति में इस सूत्र में आये 'चकार' की कोई | तत्त्वार्थवृत्ति- चकारात् सम्यग्ज्ञानरूपाणि च भवन्ति । व्याख्या नहीं की है।
अर्थ- 'च' शब्द से मति, श्रुत और अवधिज्ञान तत्त्वार्थवृत्ति- चकारः परस्परं समच्यते वर्तते। सम्यग्ज्ञान रूप भी होते हैं। तेनामयर्थः न केवलं प्रमाणनयैर्निर्देशादिभिश्च सम्यग्दर्शनादीनां |
सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति- च शब्दोऽत्र समुच्चयार्थः। जीवादीनां चाधिगमो भवति, किन्तु सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शन- | तत इमे मति श्रुतावधयो विपर्ययश्च सम्यक्चेति समुदायार्थः । कालान्तरभावाल्पबहुत्वैश्च अष्टभिरनुयोगेश्चाधिगमो भवति। अर्थ- सूत्र में 'च' शब्द समुच्चय क लिए आया
अर्थ- चकार शब्द परस्पर समच्चय के लिए हैं।। है। इससे ये मति, श्रुत और अवधिज्ञान विपरीत होते इससे यह अर्थ है न केवल प्रमाण नय, निर्देश आदि
नय निर्देश आदि हैं और समीचीन भी है ऐसा समुदायार्थ है। के द्वारा सम्यग्दर्शन आदि और जीव आदि का अधिगम
आचार्य विद्यासागर जी महाराज- इस सत्र में होता है, अपितु सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर. 'च' शब्द से यह भी ग्रहण करना चाहिए कि ये तीनों भाव और अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोगों द्वारा भी अधिगम | ज्ञान तृतीय गुणस्थान में मिश्ररूप भी होते हैं। होता है।
भावार्थ- मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान सम्यक् भावार्थ- प्रमाण, नय एवं निर्देश स्वामित्व आदि ही होते हैं, परन्तु मति, श्रुत और अवधिज्ञान सम्यक् इन 2 सूत्रों की तरह सत्, संख्या आदि के द्वारा भी | भी होते हैं, मिथ्या भी होते हैं। यदि सम्यग्दृष्टि है तो जीवादि 7 तत्त्व एवं रत्नत्रय का अधिगम होता है। यह | सम्यग्ज्ञान है, मिथ्यादृष्टि है तो मिथ्याज्ञान है। सूत्र में बताने के लिए सूत्र में 'च' शब्द प्रयुक्त है।
आये विपर्यय शब्द को उपलक्षण कहा है इससे संशय मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च ।। 31॥
और अनध्यवसाय का भी ग्रहण करना चाहिये एवं तृतीय सर्वार्थसिद्धि व राजवार्तिक- चशब्दः समुच्चयार्थः
गुणस्थान में तीनों ज्ञान मिश्ररूप भी होते हैं, यह भी विपर्ययश्च सम्यक्चेति।
ग्रहण करना चाहिये। इन सब कारणों से सूत्र में 'च' अर्थ- 'च' शब्द समुच्चय के लिए है, इससे |
शब्द कहा है। यह अर्थ होता है कि मति, श्रत और अवधिज्ञान विपर्यय
श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान,
सांगानेर फरवरी 2009 जिनभाषित 23
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आखिर हो ही गया स्थापित अमेरिका में पहला जैनमंदिर
कैलाश मड़वैया
२००० ईसा पूर्व आचार्य क्वाजल कोटल के नेतृत्व में पणि- जैन- श्रमण संघ पहुँचे और वे वहीं बस गये थे। मध्य अमेरिका में इन दिनों भी क्वाजल कोटल के स्मारक और जैननुमा चैत्य प्राप्त होते हैं । ( प्रमाणस्वरूप देखें चमनलाल की कृति 'हिन्दू अमेरिका' पृष्ठ १०२, संदर्भ'ज्ञानप्रकाश' पृष्ठ ३१-३२ लेखक वैद्य प्रकाश पाण्ड्या)
1
फिनिक्स और उसकी पृष्ठभूमि- ग्रेट ब्रिटेन की राजधानी लंदन में दो वर्ष पहले जब जैनमंदिर की स्थापना हुई थी, तभी वहाँ विद्यमान अमेरिकन जैनियों से यह भनक लगने लगी थी कि निकट भविष्य में जैनधर्म अमेरिका में भी अपनी पूरी भव्यता से पहुँचने के लिये आधारभूमि तलाश रहा है। यह आवश्यक तो था, पर कठिन भी था, क्योंकि जैनधर्मावलम्बियों की संख्या जितनी भी है वह यत्र-तत्र विखरी हुई है। न्यूयार्क में जैन अपेक्षात्मक कम नहीं हैं, पर सुदूर रेगिस्तानी प्रान्त ऐरीजोना में श्वेताम्बर और स्थानकवासी जैन ज्यादा हैं, दिगम्बर तो केवल ढाई घर ही हैं ढाई में इसलिये कह रहा हूँ क्योंकि एक परिवार में पति दिगम्बर और पत्नी श्वेताम्बर है। पर सच यह है कि दिगम्बर, श्वेताम्बर और स्थानकवासियों में वहाँ 'वाद' की ज्यादा दूरियाँ नहीं हैं। कभी कभी तो वे भारतीयों पर बिगड़ते भी देखे गये कि हमें तो कम से कम मत बाँटों । सत्य भी यही है कि इनमें काल भी यही है कि इनमें काल के अनुसार मान्यतायें बनती बिगड़तीं रहीं हैं, पर मूल लक्ष्य तो एक ही है-मोक्ष की कामना । इस जैनमंदिर बनने के पूर्व तो फिनिक्स में समस्त भारतीयों की उपासना के लिये केवल एक ही मंदिर था - एकता मंदिर जिसमें हिन्दू, सिक्ख, जैन सभी के आराध्य देवों की मूर्तियाँ विराजमान हैं और अपनी-अपनी वेदी पर आकर वे पूजा-अर्चना किया करते हैं। ऐसा समन्वय भला और कहाँ देखा जा सकता है? अब नवनिर्मित जैनमंदिर में भी भारत से हटकर, विशषेता यह है कि बड़ी जिनप्रतिमाओं में एक श्वेताम्बरमूर्ति प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ की और दूसरी दिगम्बरों की - चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी की बिल्कुल आसपास बिराजीं हैं, बीच में केवल णमोकारमंत्र की स्थापना भर की गई अनुमानतः । है । शेष एक ओर १२ छोटी प्रतिमायें दिगम्बरों की और
जैनधर्म सर्वथा वैज्ञानिक और आदिधर्म की मान्यताप्राप्ति के बावजूद अपने कठिन आचरण के कारण देश के बाहर यथेष्ठ स्थान नहीं पा सका। दूसरी ओर बौद्धधर्म, जैनधर्म के अंतिम चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी के समकालीन गौतम बुद्ध के द्वारा प्रवर्तित हुआ, पर भारत की सीमाओं के बाहर फैलता ही गया। आज अनेक देशों में बौद्धधर्म राज्यधर्म है । इस्लाम और ईसाई धर्म तो विश्व के अनेक देशों में बिखरे हुये हैं । हिन्दूधर्म भारत के बाहर मुख्यरूप से नेपाल और मारीशस जैसे कतिपय छोटे देशों में ही जा सका। अब अवश्य कुछ देशों में हिन्दूमंदिर बन रहे हैं। क्योंकि पहले तो समुद्रपार जाना ही इन धर्मों में पाप माना जाता था, फिर इन सब का कारण मूलरूप से यही रहा है कि अँग्रेजों और मुस्लिमों ने अपनी साम्राज्यवादी नीतियों के कारण अनेक देशों में राज्यविस्तार किया और स्वभावत: शासित राज्यों में उनका धर्म भी स्थापित होता गया। दूसरी तरफ जैनधर्म जैसे स्वधर्म निजात्मा के विकास तक केन्द्रित होने के कारण अपने ही देश में सिमट कर रह गये। आधुनिक युग में व्यवसाय के प्रयोजन से कतिपय जैन भारत से बाहर गये और उन्हें अपने धर्म की संस्कृति की खबर बनी रही, फलतः पहले लंदन आदि में और आज सुदूर विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक एवं शक्तिशाली देश अमेरिका में अहिंसा और शांति के प्रवर्तक महावीर स्वामी का संदेश सात समुन्दर पार पहुँच गया । २० से २६ दिसम्बर २००८ की अवधि में अमेरिका के ऐरीजोना प्रान्त की राजधानी फिनिक्स में पंचकल्याण महोत्सव सम्पन्न हुआ और जैनधर्म के चौबीसों तीर्थंकरों की मूर्तियों से युक्त, भव्य जिनालय जैनसेंटर ऑफ ग्रेटर फिनिक्स में प्रतिष्ठित हो गया । मुझे गर्व है कि मैं उन क्षणों का न केवल भागीदार व साक्षी रहा, वरन् हिन्दुतान की संस्कृति और जिनत्व के काव्य का पाठ भी उक्त अवसर पर करने का सौभाग्य मिला ।
"
अतीत के आइने में - यह तथ्य कदाचित् अप्रत्याशित लगे कि अमेरिका में सदियों पहले जैनधर्म था मेक्सिको, पेरू के आसपास के लोग आज भी भारत जैनों जैसा आचरण करते मिल जाते हैं। अमेरिका में
24 फरवरी 2009 जिनभाषित
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दसरी ओर १२ श्वेताम्बरों की विराजमान हैं। मंदिर की। में किया जाकर ग्राहय बनाना पड़ता था। हाँ, पंचकल्याणक बाह्य प्रवेश भित्ति पर एक ओर हनुमान जी की मूर्ति में बने सौधर्म इन्द्र आदि व नृत्यांगना कन्याएँ अमेरिकन उकेरी गई है, जो धनुष खींचे हुये हैं, दूसरी ओर लक्ष्मी, | ही थीं, पूर्ण समर्पित। व्रत, त्याग, उपासना, प्रक्रिया सभी सरस्वती और पद्मावती की मूर्तियाँ निर्मित हैं। स्थापना | कल्याणक भारतीय पद्धति से सम्पन्न कराये गये। भारतीय के समय भी देखा गया कि २६ दिसम्बर ०८ को पहले | भोजन की व्यवस्था थी। दरअसल पंचकल्याणक महोत्सव श्वेताम्बरों ने अपनी विधि से पूजा अर्चना कर प्रतिमायें | आत्मा से परमात्मा बनने की आध्यात्मिक प्रक्रिया का प्रतिष्ठित कर लीं बाद में दिगम्बरों ने की। भारत की | आयोजन है। जिनबिम्ब तब तक पूज्यनीय नहीं होता, तरह प्राण-प्रतिष्ठा का सूर्यमंत्र किसी मुनिवर ने तो नहीं | जबतक कि उसकी विधिवत् प्राणप्रतिष्ठा नहीं हो जाती। दिया, क्योंकि भारत से पूज्य मुनिवर समुद्रपार पहुँच ही | सम्पूर्ण आध्यात्मिक प्रक्रिया के बाद सूर्यमंत्र देने के बाद नहीं सकते थे, पर मोक्षकल्याणक आदि के समय विधिवत् | ही पाषाणी अथवा धातुई प्रतिमाएँ पूज्यनीय हो पाती हैं निग्रंथ दिगम्बर जैनमुनिवर को ही स्मरण कर वंदनायें | और उनमें भगवान् की सी आस्था जागृत हो जाती है।
और प्रणाम किये गये। ऐसा नहीं लगा कि निश्चयनयवाले | इस अवसर पर किसी एक मूलनायक तीर्थंकर का उनके मुनियों की वंदना नहीं करते।
अतीत की तरह गर्भ, जन्म, तप, मोक्ष और केवलज्ञान अमेरिका में बना फिनिक्स जैनमंदिर बहुत शानदार, इन पाँचों कल्याणकों का नाट्याभिनय जीवंत रचा जाता संगमरमर से बना है। ४ एकड़ जमीन में से लगभग | है, जिसमें समाज के सभी वर्ग सोत्साह सम्मिलित होकर एक एकड़ जमीन के प्रांगण में, मंदिर हालाँकि दस हजार | आध्यात्मिक भागीदारी करते हैं। प्रत्येक कल्याणक के वर्गफीट पर ही निर्मित हुआ है, पर सामने संगमरमर | समय के विचारों का विशद् उपदेश विशेषज्ञों द्वारा समझाया का नक्काशीयुक्त उत्तुंग मानस्तंभ निर्मित किया गया है जाता है, जिससे मनुष्यों में भी तीर्थंकरों की सी और बगीचे बने हुये हैं। लंदन के मंदिर की अपेक्षा | आत्मविकास और आत्मोन्नति की भावना जागृत होती तो यह काफी विशाल और नक्काशीयुक्त है। लागत व्यय | है और वे भी अपने त्याग व तपस्या से अपने जीवन
नयन डॉलर यानी तीस लाख डॉलर, | का कल्याण करते हैं। अनेक प्राणी सत्य, अहिंसा, अचौर्य, अनुमानतः १५ करोड़ रूपये आया है।
राग-द्वेष, अपरिग्रह ब्रह्मचर्य के संकल्प लेते हैं। इससे इस भव्य जिनालय में एक कक्ष श्रीमद्राजचन्द्र | मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। इसीलिये जैन धर्म एक गुरु और एक स्थानकवासियों का नियत है। द्रव्य, वस्त्रों | सम्प्रदाय न होकर मौलिक जीवनदर्शन माना जाता है,
और प्रसाधनों के लिये भी स्थान पृथक् नियत हैं। प्रशंसनीय | जिसमें मनुष्य भौतिकवादी न होकर त्यागी और विवेकशील यह है कि जनवरी २००८ में नक्शा पास कराया व फरवरी हो आत्मकल्याण कर परमसुख की प्राप्ति अर्थात् मोक्ष २००८ में निर्माण कार्य शुरू हुआ, और लीजिये भारत | प्राप्त कर सकता है। हालाँकि समारोह में दक्षिण अफ्रीका, से संगमरमर भी आ गया, उपयुक्त वास्तु का चयन भी | इग्लैण्ड, इण्डिया आदि सभी देशों से लगभग दो-तीन एवं शानदार मंदिर बन कर तैयार। दिसम्बर २००८ में | हजार जैन अनुयायी एकत्रित हुये थे, जिन्हें प्रसिद्ध होटल भव्य पंचकल्याणक द्वारा प्राणप्रतिष्ठा भी सम्पन्न हो गई। मेरियट में ही ठहराया गया था और पंचकल्याणक की यह कमाल सचमुच गहन निष्ठा के कारण ही संभव | पूरी प्रक्रियाएँ उसी विशाल होटल के बड़े-बड़े बालरूम्स हो सका। हम जिस पाँच सितारा होटल जे.डब्ल्यू.मेरियट /हॉल्स में सम्पन्न कराये गये थे। एक तरफ के बालरूम डी. में कार्यक्रम स्थल पर ठहराये गये थे, वहाँ से शहर में मंदिर की दूरी लगभग २७ मील है। जैनमंदिर की बालरूम में श्वेताम्बर आम्नाय के पाँचों दिन पंचकल्याणक मर्तियाँ भारत से ही गई थीं। प्रतिष्ठा के लिये सभी सम्पन्न हये। सांस्कृतिक कार्यक्रम दोनों पक्षों के सम्मिलित सामग्री भारत से मँगाई थी। पंडित, विद्वान्, कवि, संगीतकार | रूप से दिगम्बर आम्नायबाले बालरूम में ही होते थे। सभी भारतीय, ऐरावत हाथी अवश्य वहीं कृत्रिम और | यह होटल लगभग ८०-१०० एकड़ में फैला है, जिसमें पहियों पर चलने वाला निर्मित था, साहित्यादि भी भारतीय ९५० कमरे और अनेक विशाल बालरूम्स सुसज्जित बने पर गीतों व प्रवचन का अनुवाद कभी-कभी अंग्रेजी | हुये हैं। इसके स्वीमिंग पूल्स, झरने बगीचे अपने आप
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में दर्शनीय हैं। निकट ही वन है, जहाँ पाण्डुकशिला | लिये कटिबद्ध है । परिणामतः शिक्षा, चिकित्सा, पर्यावरण
के लिहाज से सभी विकसित श्रेणी में आते हैं।
बनाई गई थी। दूसरी ओर अनेक मॉल्स भी यहाँ दर्शनीय हैं। सभी साधन एक ही जगह उपलब्ध होना अपने आप में गरिमामय था ।
उल्लेखनीय है कि अमेरिका में आज भी सड़कों की दूरियाँ मीलों में दर्शायीं जातीं हैं, किलोमीटर में नहीं। भारत से अनेक विपरीततायें और भी मजेदार हैं- जब यहाँ रात तो वहाँ दिन तो होता ही है, भारत में सडक के बायी ओर चलते हैं तो अमेरिका में दायी ओर चला जाता है, यहाँ बिजली ऑन करने के लिये स्विच नीचे करते हैं, तो अमेरिका में ऊपर करते हैं। भारत में चादर के अनुसार पैर फैलाने की प्रवृत्ति है, पर अमेरिका में पैरों के अनुसार चादर बनाई जाती है। यहाँ कर्ज लेना मजबूरी, पर वहाँ आम आदत है, क्रेडिट कार्ड उनका आवश्यक अंग है। हम त्याग की और वे भौतिक सुविधाओं की आधारशिला पर आसीन हैं। यह अलग बात है कि आज हम नासमझी में पाश्चात्य की नकल करने को लालायित हो रहे हैं, जो हमारे दुखों व तनावों का एक कारण अवश्य बन गया है, क्योंकि वर्तमान परिस्थितियों में वैसा भौतिकसुख तो मुश्किल है। इसके अन्य कारणों में आबादी का आधिक्य, हमारा नैतिक और राजनैतिक पतन एवं अनुशासनप्रिय नहीं होना आदि भी शामिल है ।
स्वीमिंगपूल,
दरअसल फिनिक्स अमेरिका के द्वारा डर के कारण बसाया गया ऐसा शहर है, जो चारों ओर से पहाड़ियों से घिरा हुआ है कि कभी यदि अमेरिका पर दुश्मनों ने बम्बार्डिंग की, तो भी फिनिक्स सुरक्षित रहेगा और अमेरिकनों के लिये सिर छिपाने की वह एकमात्र जगह होगी । फिनिक्स ऐरीजोना प्रान्त में 'डेजर्टिड', पर निकट की नदी से जल लाकर हरा-भरा, प्रदूषण रहित और खूब बिखरकर फैला हुआ है। सड़कों का सुन्दर जाल, प्रायः एक मंजिला भवन जिनमें बगीचे, स्वीमिंगपूल, गैरेज आदि सभी सुविधायें उपलब्ध रहती हैं। बढ़िया मॉल, होटेल, उत्कृष्ट एयरपोर्ट, आसपास हरे तनेवाले दर्शनीय केक्टस के जंगल और न्यूयार्क से लगभग २४६६ मील यानी ४००० किलोमीटर, हवाईजहाज से लगभग ७ घण्टे की दूरी फिनिक्स की आवादी लगभग ४ लाख जिसमें अनुमानित ८ - १० हजार भारतीय रहते हैं, इनमें सभी प्रकार के १२५ जैनपरिवारों की संख्या लगभग २५० । अमेरिका में भारत से विपरीत अनेक स्थितियाँ, जैसे लम्बे कर्ज लेकर सुविधा की हर चीज खरीदने और खूब कमाने व खूब व्यय करने की प्रवृत्ति आम है। मकान, कार, फ्रिज, लेपटॉप, कम्प्यूटर, बड़े-बड़े टी.वी. एवं विलासिता के सभी साधन २५-३० वर्षों के लिये कम दरों के ब्याज पर कर्ज यहाँ सभी आसानी से ले लेते हैं। हर आदमी काम करता है, महिलायें भी स्वावलम्बी हैं, इसलिये तलाक की प्रथा आम है। सभी आयकरदाता होते हैं। वस्तुतः अमेरिका में जगह खूब है और आबादी कम, इसिलये मनुष्य की बड़ी कीमत है और शासन प्रत्येक प्राणी की जान बचाने के
डॉ० जयकुमार जी जैन को पुत्र शोक
अ० भा०दि० जैन शास्त्रिपरिषद् के पूर्व महामंत्री एवं वर्तमान उपाध्यक्ष सुप्रसिद्ध जैन विद्वान् डॉ० जयकुमार जैन, संस्कृत विभागाध्यक्ष, एस० डी० पी० जी०) कॉलेज, मुजफ्फरनगर के युवा पुत्र इंजीनियर श्री अभिषेक जैन का 30 जनवरी 2009 को निधन हो गया है। श्री अभिषेक जैन प्रारंभ से प्रतिभाशाली रहे हैं तथा प्रत्येक परीक्षा में सभी विषयों में विशेष योग्यता प्राप्त करते रहे हैं। उनके निधन पर अनेक सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक एवं शैक्षणिक संस्थाओं ने अपार दुःख अभिव्यक्त किया है।
जे० पी० जैन, पूर्व प्रधानाचार्य
'जिनभाषित' - परिवार भी अपनी गहन शोक-समवेदना प्रकट करता है।
रतनचन्द्र जैन, सम्पादक
26 फरवरी 2009 जिनभाषित
कुल मिलाकर अमेरिका का पंचकल्याणक एक सर्वथा विशिष्ट आनंददायी अनुभव रहा। इससे भोग में भी त्याग की अदृभुत कथा सृजित हुई और विश्व के शक्तिशाली देश में हम पहली बार अहिंसा और इन्द्रियविजय के जैनधर्म की ध्वजा फहराने में सफल हुये । कदाचित् यह 'जैनं जयतु शासनम्' के नये अध्याय की एक आधारशिला बने।
(लेखक 'अनेकान्त' एकेडमी के अध्यक्ष और साहित्यकार हैं)
वरिष्ठ
७५, चित्रगुप्त नगर, कोटरा, भोपाल
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हे माँ! तुम्हें प्रणाम
डॉ० सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' ऐसा प्रसंग आता है कि जब श्रीराम-रावण युद्ध । सबने नहीं की थी। कौन जानता था कि प्रत्येक अष्टमी में रावण मारा गया और श्रीराम को सीता मिल गयीं, | की तरह शनिवार, दिनांक ६ दिसम्बर, २००८, अगहन तो विभीषण ने श्रीराम से आग्रह किया कि वे कुछ | शुक्ल की अष्टमी (वि.सं. २०६५) उनके जीवन की दिन लंका में विश्राम करें, तब श्रीराम ने कहा कि हे | अंतिम अष्टमी बन जायेगी। प्रातः ही उन्होंने श्री दि. लक्ष्मण! यह स्वर्णनगरी मुझे रुचिकर नहीं लगती, क्योंकि | जैन नये मन्दिर जी (मड़ावरा) में जिनाभिषेक देखा, जननी (माता) और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान् होती | पूजन की और भक्तिभाव से सभी दस जैन मन्दिरों की
वंदना की। प्रातः ११ बजे प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी नेयं स्वर्णपुरी लंका, रोचते मम लक्ष्मण।। को उनका एकाशन का नियम था, जो अन्ततः उपवास जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी॥ में बदल गया। अष्टमी के ही दिन उच्च रक्तचाप के
श्रीराम के इस कथन से माता की गरिमा का | कारण उन्हें 'ब्रेन हेमरेज' हो गया था। सहज ही निर्णय हो जाता है। तैत्तिरीय उपनिषद् में इसीलिए उनका जीवनभर का निष्कपट व्यवहार, पर 'मातृदेवो भव' कहा गया है। कहते हैं कि "नास्ति मातृसमो दुःखकारता का भाव, परोपकार, निर्लोभिता और धर्म के गुरुः" अर्थात् माता के समान कोई गुरु नहीं है। 'चाउसर' प्रति आस्था बताती है कि उन्हें अवश्य सद्गति मिली ने तो लिखा है
होगी। हम सब उन्हें अपने हार्दिक श्रद्धासुमन अर्पित बुद्धिमत्ता से अच्छा क्या है? नारी। करते हुए उनके प्रति नतमस्तक हैं। अच्छी नारी से अच्छा क्या? कुछ नहीं।
प्रतिष्ठित सोरया परिवार की चार पीढियों को उन्होंने - इस तरह नारी के मातृस्वरूप का हम सब पुस्तकों | अपने आदर, सम्मान, स्नेह और वात्सल्य पूरित किया। में वर्णन पढ़ते थे और उसका मूर्तिमान् रूप अपनी पूज्या | उनके हाथों में बरकत थी। यदि वे किसी घाव आदि माँ (श्रीमती अशर्फी देवी) में प्रत्यक्ष देखा करते थे। पर अपने हाथों से मलहम लगा देती थीं, तो वह घाव आज बड़े भारी मन से, काँपते हाथों से लिखना पड़ | तुरन्त भर जाता था। यदि सिर पर हाथ फेर दें, तो सिरदर्द रहा है कि अब वह माँ हमारे बची नहीं रही। दिनांक | का पता नहीं चलता था। घर में कोई भी अतिथि आ १० दिसम्बर, २००८ बुधवार को दोपहर १ बजे महारानी | जाये, चाहे वह सगा हो या दूर का, अपना हो या पराया, लक्ष्मीबाई मेडिकल कॉलेज झाँसी के न्यूरोसर्जन विभाग | वे उसकी सुख-सुविधा एवं आतिथ्य का पूरा ध्यान रखती के आई. सी. यू. शय्या क्र. १ पर उन्होंने णमोकारमंत्र | थीं। वे अपनी कार्यक्षमता एवं कार्यनिपुणता के कारण श्रवण करते हुए अपने प्राणों का विसर्जन किया। अग्रज | समवयस्क महिलाओं से सदा प्रशंसा पाती रहीं। वे किसी डॉ० रमेशचन्द्र जी, डॉ० अशोक कुमार जी, भाभी-श्रीमती | की बाई (माँ) थीं, किसी की जिज्जी (दीदी), सब क्रान्ति जैन और मैं उस समय वहीं थे और देहत्याग | उन्हें आदर देते। उनमें कभी भी हमने हीनता का भाव की यात्रा को साक्षात् देख रहे थे। माँ के दीप्त मुखमण्डल | नहीं देखा। गजब का स्वाभिमान उनमें था। अनेक तीर्थक्षेत्रों पर असीमित शान्त परिणाम साफ झलक रहे थे। हम | की उन्होंने वंदना की, अनेक साधुओं के दर्शन किए, सब साधनसम्पन्न होने पर भी आयुकर्म की व्यवस्था आहारदान दिया। उनके सन्दूक में जो भी धनसंचित होता, के आगे नतशिर थे। आँखों में आँसू थे और मन ही | उसमें से वे प्रतिवर्ष कुछ न कुछ दान किया करती मन बरबस 'बारह भावना' की ये पंक्तियाँ याद आ रही | थीं। वे परिवार में अन्नपूर्णा थीं और सबके लिए आदर्श। थीं
आज जब वे हमारे बीच नहीं हैं तो लगता है कि यदि राजा राणा छत्रपति हाथिन के असवार। मैं ईश्वरवादी होता, तो किसी शायर के ये शब्द अवश्य मरना सबको एक दिन, अपनी-अपनी बार॥ | दोहराता कि
__ हमारी माँ, सबसे अच्छी माँ! अपनी जीवनयात्रा ऐ अजल! तुझसे ये कैसी नादानी हई। इतनी जल्दी पूर्ण कर लेंगी, इसकी कल्पना भी हम फूल वो तोड़ा कि चमन में वीरानी हुई।
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छह भाई-बहिनों का हमारा भरा-पूरा परिवार और | समाचार सुनकर संतोष का भाव मुख पर लाते, वहीं उन सबका बराबर ख्याल माँ रखा करती थीं। हम लोग | माँ गर्व से भर जातीं। उनका सुख देखकर हम सबको कुछ माँ का ख्याल रख पाते, इसके पहले ही माँ ने | भी लगता कि हम ऐसे कार्य करें, जिनकी सभी सराहना कहा कि तुम सब प्रसन्न रहो, हम तो दूसरे लोक की | करें। यही कारण है कि हम सबने जैन धर्म, साहित्य यात्रा पर निकल रहे हैं। किसी को उन्हें एक चम्मच समाज और संस्कृति की सेवा का बीड़ा उठाया। हमें पानी भी पिलाने की आवश्यकता नहीं पड़ी। स्वयंसिद्धा | यह कहते हुए हार्दिक प्रसन्नता होती है कि संपूर्ण परिवार की तरह उन्होंने प्राण छोड़े। आज हम भाई-बहिनों में | उच्च शिक्षित एवं व्यसनमुक्त है। माँ के ऋण से हम जो भी अच्छा है, वह सब उन्हीं का दिया हुआ है। | कभी उऋण नहीं हो सकते, उनके उपकारों को हम उन्होंने कभी गलत रास्ते पर चलने या गलत रास्ता अपनाने | कभी भूल नहीं सकते। अन्त में इतना ही कह सकते की शिक्षा नहीं दी। हम सब भाई-बहिनों, डॉ० रमेशचन्द्र | हैं कि जैसी हमारी माँ थी, वैसी माँ सबको मिले। हे जैन (बिजनौर), श्रीमती अंगूरी देवी (पारौल), डॉ० अशोक | माँ! तुम्हें प्रणाम। कुमार जैन (वाराणसी), डॉ० नरेन्द्रकुमार जैन (सनावद), | हमने पूर्व जन्म में भी कुछ, अच्छे काम किए होंगे। डॉ० सुरेन्द्र कुमार जैन (बुरहानपुर), सिंघई वीरेन्द्र कुमार | तब माँ तुमको हमने पाया, तुमने आशीष दिए होंगे। जैन सोरया (मड़ावरा) के प्रति उनका एक जैसा स्नेह- क्यों दूर हुआ माँ हाथ तुम्हारा, सिर पर से हम सबके, भाव था, जो कम ही माताओं में दिखाई देता है। अपने लगता है जैसे कि हमने, इतने ही पुण्य किए होंगे। पुत्रों को मिले हर सम्मान पर उन्हें प्रसन्नता होती। जहाँ
मंत्री-अ. भा. दि. जैन विद्वत्परिषद पिता जी (श्रीमान सिंघई शिखरचन्द जैन सोरया) ऐसे |
बुरहानपुर, म. प्र.
'द ताव ऑफ जैना साइंसेज' का लोकार्पण | लोकभाषा में, श्रद्धालु श्रोताओं को धर्म का मर्म समझा
दिनांक २१.१२.०८ को प्रो. एल. सी. जैन द्वारा | रहे हैं। रचित 'द ताव ऑफ जैना साइंसेज' के द्वितीय संस्करण
रमेशचन्द्र मनया का लोकार्पण कार्यक्रम श्री पार्श्वनाथ चन्द्रप्रभ दिगम्बर शिक्षण शिविरों हेतु आमंत्रण शीघ्र भेजें जैन जुगल मंदिर पुरानी बाजाजी, जबलपुर में विराजमान श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान, सांगानेर संत शिरोमणि आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज | से विगत् 12 वर्षों से जैनधर्म का शिक्षण कार्य के परम धर्मप्रभावक शिष्य मुनिश्री १०८ प्रबुद्ध सागर
| ग्रीष्मकालीन शिविरों के माध्यम से सम्पूर्ण भारत में जी महाराज के सन्निध्य में सम्पन्न हुआ। इस मंगल | अनवरत चल रहा है। ग्रीष्मकालीन अवकाश के अवसर
अतिथि डॉ० एम० पाल खुराना, | पर अप्रैल, मई एवं जन माह में 'सर्वोद कुलपति, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर एवं | शिक्षण शिविर का आयोजन कर समाज में धार्मिक डॉ. शिव प्रसाद कोष्ठा, पूर्व कुलपति रानी दुर्गावती | चेतना का जागरण संभव है। इन शिविरों में संस्थान विश्वविद्यालय, जबलपुर पधारे।
के योग्य विद्वानों द्वारा जैन धर्म शिक्षा भाग १, २, श्रीपाल जैन 'दिवा', भोपाल | छहढाला, भक्तामर स्तोत्र, इष्टोपदेश, भावनाद्वात्रिंशतिका, भोपाल में अतिशय धर्म प्रभावना द्रव्यसंग्रह, तत्त्वार्थसूत्र, करणानुयोगदीपक भाग १, २,
श्री दिगम्बर जैन धर्मशाला चौक में मुनिश्री ३, आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय कराया जाएगा। विश्वयशसागर जी, मुनि श्री विश्ववीरसागर जी तथा | इच्छुक महानुभाव संस्थान कार्यालय में पत्र मुनि श्री विश्वद्रष्टा जी महाराज द्वारा शीतकालीन वाचना व्यवहार करें, जिससे शिविर-आयोजन हेतु समुचित के माध्यम से मूल प्राकृत ग्रन्थ बारसअणुवेक्खा पर व्यवस्था की जा सके। प्रतिदिन ८.३० से १०.३० तक नियमित प्रवचन हो
सम्पर्क सूत्रः अधिष्ठाता रहे हैं। प्राकृत ग्रन्थ की आत्मा से साक्षात्कार कराते
श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान हुए तीनों मुनिराज क्रमशः एक-एक भावना को सरल
वीरोदय नगर, जैन नसियाँ रोड सांगानेर, जयपुर, (राजस्थान)
28 फरवरी 2009 जिनभाषित
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जिज्ञासा-समाधान
पं० रतनलाल बैनाड़ा प्रश्नकर्ता- रतनलाल जी गंगवाल, जयपुर।
अर्थ- बादर, सूक्ष्य, पर्याप्तक और अपर्याप्तक जिज्ञासा- एक बार उपशम सम्यक्त्व होने पर | वनस्पतिकायिक निगोदजीव कितने क्षेत्र में रहते हैं? अधिक से अधिक कितने भव में मुक्त हो सकेगा? क्या सर्वलोक में रहते हैं। वह कभी नारकी, स्त्री, नपुंसक नहीं बनेगा?
भावार्थ- सूक्ष्म निगोदिया वनस्पतिकायिक जीव समाधान- श्री धवला पु.४ पृ. ३३५ पर इस प्रकार | तो पूरे लोक में भरे हुये हैं। ये जीव तो सिद्धालय में कहा है 'एक अनादि मिथ्यादृष्टि अपरीत संसारी (जिसके | भी भरे हये हैं, परंतु बादर निगोदियाजीव क्षेत्र की अपेक्षा संसार का काल न हो, अथवा अंत न हो) जीव, | त्रसजीवों के औदारिक शरीर में, सप्रतिष्ठित प्रत्येक अधःप्रवृत्त-करण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण इन तीन वनस्पति में तथा आठों पृथ्वियों के आश्रय से रहते हैं। करणों को करके सम्यक्त्व ग्रहण के प्रथम समय में | पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक ही सम्यक्त्व गुण के द्वारा पूर्ववर्ती अंतरहित संसार को इन चारों स्थावरों के शरीर में, आहारक शरीर में, केवलियों छेदकर परीत (अंतसहित) संसारी हो अधिक से अधिक के शरीर में तथा देव और नारकियों के वैक्रियिक शरीर अर्द्धपुद्गलपरिवर्तन काल तक संसार में रहता है।' | में नहीं पाये जाते हैं।
भावार्थ- एक बार सम्यग्दर्शन हो जाने के बाद | प्रश्नकर्ता- श्री नितिन बसंतराव, बसमत। अधिक से अधिक अर्द्धपदगलपरिवर्तन काल तक जीव
जिज्ञासा- क्या केशलोच के समय मुनिराज शिर, संसार में रहता है। इससे पूर्व भी मोक्ष प्राप्त कर सकता | दाडी एवं मूंछ के अलावा अन्य स्थान के बाल भी है। जघन्य से एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव, अपनी आयु | नोंच सकते हैं या नहीं? के अंतिम अंतर्मुहूर्त में उपशम सम्यक्त्व प्राप्त कर फिर समाधान- केशलोच के संबंध में श्री मूलाचार क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि हो, तदुपरांत क्षायिकसम्यक्त्व गाथा २९ में इस प्रकार कहा हैप्राप्त कर क्षपक श्रेणी मांडकर मोक्ष भी प्राप्त कर सकता।
वियतियचउक्कमासे लोचो उक्कस्समज्झिमजहण्णो। है। यहाँ उत्कृष्ट काल जो अर्द्धपुद्गलपरिवर्तन कहा है, सपडिक्कमणे दिवसे उववासेणेव कायव्वो। वह भी अनंतकाल है। उसमें यह जीव चारों गतियों अर्थ- प्रतिक्रमण सहित दिवस में, दो, तीन, चार में भ्रमण करता हुआ अनंत पर्यायों को धारण कर सकता | मास में उत्तम, मध्यम, जघन्यरूप से केशलोच उपवासहै। आपका यह लिखना ठीक है कि सम्यग्दृष्टि जीव | पूर्वक ही करना चाहिए। को नारकी, स्त्री, नपुंसक की पर्याय नहीं मिलती, परंतु इसकी टीका में आ० वसुनंदि ने इस प्रकार कहा हैइसका तात्पर्य यह है कि सम्यक्त्वसहित जीव मरणकर हस्तेन मस्तककेशश्मश्रूणामपनयनं जीवसम्मूर्च्छनारकी (सम्यक्त्व से पूर्व नरकायु न बाँधी हो तो), स्त्री | नादिपरिहारार्थं रागादिनिराकरणार्थं स्ववीर्य-प्रकटनार्थं नपुंसक आदि पर्यायों में जन्म नहीं लेता है। परंतु उपर्युक्त सर्वोत्कृष्ट-तपश्चरणार्थं लिगादिगुणज्ञापनार्थं चेति। अर्द्धपुद्गलपरिवर्तन काल में सम्यग्दर्शन छूटने के बाद । अर्थ- सम्मूर्च्छनादि जीवों के परिहार के अर्थात् वह किसी भी पर्याय में जन्म ले सकता है अर्थात् नारकी, | नँ आदि उत्पन्न न हो जावें इसलिए, शरीर से रागभाव स्त्री, नपुंसक बन सकता है।
आदि को दूर करने के लिए, अपनी शक्ति को प्रकट प्रश्नकर्ता- पं० विनीत शास्त्री 'कैलगुवां'। । करने के लिए, सर्वोत्कृष्ट तपश्चरण के लिए और निर्ग्रन्थ
जिज्ञासा- क्या बादर एवं सूक्ष्म निगोदिया जीव | मुद्रा आदि के गुणों को बतलाने के लिए, हाथ से मस्तक सारे लोक में भरे हैं?
तथा दाड़ी, मूंछों के केशों का उखाड़ना लोच कहलाता समाधान-श्री धवला पु.४ पृ.१०० सूत्र २५ में | है। इस प्रकार कहा है 'वणप्फदि-काइय णिगोद-जीवा श्री भगवती आराधना गाथा ८९ में इस प्रकार कहा बादरा सूहमा-पज्जत्तापज्जता केवडि खेत्ते? सव्वलोगे॥ २५ ॥
। प्रादक्षिणावर्तः केशश्मश्रूविषयः हस्ताङ्गुलीभिरेव
- फरवरी 2009 जिनभाषित 29
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संपाद्य ....॥
जिज्ञासा- बिना दान में दी हुई या बिना खरीदी अर्थ- मस्तक, दाढ़ी मूंछ के केशों का लोच | हई भमि पर नवीन मंदिर बनवाना उचित है या नहीं? हाथों की अंगुलियों से करते हैं। दाहिने बाजू से आरंभ | | समाधान- किसी अनधिकृत भूमि पर नवीन कर बायें तरफ आवर्तरूप करते हैं।
जिनमंदिर बनवाना उचित नहीं है, इसे भी 'अदत्तादानं श्री अनगारधर्मामृत अध्याय ९/८६ में भी इसी प्रकार | स्तेयं' के अंतर्गत चोरी ही माना जायेगा। परंत आजकल कहा है
सभी धर्म के लोग अपने-अपने मंदिरों के लिए बिना उपर्युक्त सभी प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि केशलोच |
खरीदी हुई सरकारी भूमि के किसी भाग को अधिग्रहण में, मस्तक, दाढ़ी एवं मूंछ के बालों का ही लोच किया
करके मंदिर बनाते हुये देखे जाते हैं। वे रातों रात उस जाता है अन्य का नहीं।
भूमि पर नाजायज अधिकार करके, एक रात में ही मंदिर जिज्ञासा- बारहवें गुणस्थान में मुनिराज के
खड़ा कर लेते हैं। ऐसा करना आजकल बहुत सामान्य शरीरस्थ अनंत बादर निगोदिया मरण को प्राप्त हो जाते
हो गया है अथवा लोकरीति बन गई है। अतः यदि हैं, तो मुनिराज को हिंसा का दोष लगता है या नहीं?
किसी स्थान पर उचित भूमि न मिलने के कारण वहाँ समाधान- श्री धवला पु.१४ पृ.८५, ९१, १३८,
की जैनसमाज भी किसी रिक्त पड़ी भूमि का अधिग्रहण तथा ४९१ से इस संबंध में विशेष जानकारी प्राप्त होती
करके जिनमंदिर निर्माण करती है, तो उसे चोरी न मानकर है, जिसका सारांश इस प्रकार है- क्षीणकषाय हुए जीव के प्रथम समय में अनंत बादरनिगोद मर जाते हैं। दूसरे
कदाचित् लोकरीति कहा जा सकता है। परंतु शास्त्रानुसार समय में विशेष अधिक जीव मरते हैं, इसी प्रकार आगे- |
इसे उचित नहीं कहा जायेगा। आगे के समयों में विशेष अधिकपना जानना चाहिए।
जिज्ञासा- आजकल कुछ वृद्ध महिलाएँ एवं पुरुष अंत समय पर्यंत वे आगमानसार मरण को प्राप्त होते किसी दिन या वार के हिसाब से क्रमपूर्वक रसों को रहते हैं। क्षीणकषाय के प्रथम समय से लेकर बादर त्याग कर भोजन करते हुये देखे जाते हैं, क्या इस विधि निगोद जीव तब तक उत्पन्न होते हैं, जब तक कि | का चरणानुयोग के शास्त्रों में उल्लेख मिलता है? क्षीणकषाय के काल में उनका जघन्य आयु का काल समाधान- सागारधर्मामृत, पद्मकृत श्रावकाचार, शेष रहता है। इसके बाद उत्पन्न नहीं होते हैं, क्योंकि | तथा दौलतरामकृत क्रियाकोष में दूध-दही, मीठा-नमक बाद में उत्पन्न होने पर उनके जीवित रहने का काल तथा घी-तेल को रस के रूप में कहा गया है, परंतु नहीं रहता, अतः बादर निगोद जीव यहाँ से लेकर | ऐसा वर्णन किसी भी शास्त्र में नहीं है कि इस दिन क्षीणकषाय के अंत समय तक केवल मरते ही हैं। यह रस छोड़कर भोजन करना चाहिए। यद्यपि इस प्रकार क्षीणकषाय के योग्य बादर वर्गणाओं का हमेशा ही । (जैसे रविवार को नमक नहीं खाना आदि) भोजन करना अवस्थान नहीं पाया जाता। यदि उनका अवस्थान होता | इन्द्रियों को वश में करने के लिए उचित है, परंतु इस है तो किसी भी जीव को मोक्ष नहीं हो सकता है, क्योंकि | प्रकार का उल्लेख मेरे देखने में नहीं आया। ऐसा प्रतीत क्षीणकषाय में विरोध है। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि | होता है कि यदि व्रती लोग अलग-अलग दिन भिन्नये निगोद जीव यहाँ मरण को क्यों प्राप्त होते हैं? इसका | भिन्न रसों का त्याग करेंगे तो कहीं सामूहिक भोजन समाधान यह है कि एकत्ववितर्क शुक्लध्यान से निगोद | के स्थान पर बड़ी असुविधा रहेगी अर्थात उस दिन कोई जीवों की उत्पत्ति और उनकी स्थिति के कारण का निषेध
नमक नहीं खायेगा और कोई घी आदि। अतः सुविधा हो जाता है। यदि कोई प्रश्न करे कि ध्यान से अनंतानंत | के लिए रविवार को नमक नहीं खाना आदि व्यवस्था जीवराशि का हनन करनेवाले को (इतनी हिंसा करने
की एकरूपता, समाज ने अपनी सुविधा के लिए स्वयं वाले को) मोक्ष कैसे मिल सकता है? उसका समाधान
बना ली हो। यदि ऐसा भी है, तो भी इसे अनुचित यह है कि प्रमाद के न होने से उनको मात्र बहिरंग
नहीं कहा जा सकता। हिंसा से आस्रव नहीं होता। (पं0 जवाहरलाल जी शास्त्री
१/२०५, प्रोफेसर्स कॉलोनी, भींडर द्वारा रचित वृहज्जिनोपदेश से साभार)।
आगरा (उ.प्र.)
30 फरवरी 2009 जिनभाषित
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आपके पत्र 'वास्तुशास्त्र और कर्मसिद्धान्त' सम्पादकीय लेख पर विद्वानों की प्रतिक्रियाएँ मान्य सम्पादक जी,
| न जुटा पाने से लोग आज परावलम्बन की तलाश में ___'जिनभाषित' के गताङ्क में प्रकाशित आपका | रहते हैं। तंत्र-मंत्र, गण्डा-ताबीज, टोना-टोटका अथवा घर अग्रलेख 'वास्तुशास्त्र और कर्मसिद्धान्त' उन्हें तो पसन्द | के दरबाजों, खिड़कियों, दीवालों आदि की दिशा-दशा आएगा, जो आत्मसुख पाना चाहते हैं, परन्तु ऐसे लोगों में परिवर्तन कर सुख पाने की लालसा भी इसी परावलम्बन की संख्या आज है कितनी? आज के युग में सुविधाओं | का परिणाम है, जैन तो स्वावलम्बी होता है और वह का भोग करनेवालों का बाहुल्य है। चूंकि वास्तु | डंके की चोट पर कहता हैसुविधापूर्ण जीवन के उपाय बतानेवाली एक विद्या है, सखे! मेरे बन्धन मत खोल। इसलिए लोग उसकी ओर आकर्षित हो रहे हैं। यह स्वयं बँधा हूँ, स्वयं खुलूँगा, तू न बीच में बोल। आकर्षण इतना गहरा है कि अब तो सन्तजन भी धर्म,
(कविवर बच्चन) दर्शन, अनेकान्त, कर्मसिद्धान्त आदि पर लेखनी न चलाकर जीवन-निर्वाह के लिए कोई वास्तुविद्या का सहारा तंत्र-मंत्र और वास्तुविद्या पर ग्रन्थ तैयार करने में लगे| लेता है, तो कोई ज्योतिषविद्या का। आत्मविद्या का प्रचारहैं। इन विषयों के आधार विद्यानुवादपूर्व के आज उपलब्ध | प्रसार भी आज मिशनरी कहाँ रहा गया है? उसे भी न होने से इस तरह के ग्रन्थों की रचना में 'कहीं की| धनागम के एक साधन के रूप में आज अपनाया जा ईंट और कहीं का रोड़ा' की नीति का आश्रय लिया | रहा है। एक सद्गृहस्थ को घर चलाने के लिए आर्थिक जा रहा है। इसी कारण वास्तु के नाम पर प्रचारित अनेक | संसाधन तो चाहिये ही, इसलिए इसमें कुछ आपत्तिजनक निष्पत्तियों को जैनागम से समर्थन नहीं मिलता। फिर भी नहीं है। आपकी यह बात अवश्य उचित है कि भी जन-समर्थन जुटाने के लिए जैनधर्म का लेबिल उन | जो जैनागम-समर्थित नहीं है, उसे जैन वास्तुशास्त्र का पर लगाया जाता है, इसे देख-सुनकर आश्चर्य होता है। नाम देनेसे बचना जरूरी है, लौकिक शास्त्र कभी
वास्तुशास्त्र के प्रति इसी आकर्षण के चलते अर्थ- | परमागम का अंग नहीं हो सकता। प्रधान इस इक्कीसवीं सदी में 'वास्तविद्या जीविकोपार्जन | वास्तु के नाम पर फैले भ्रम और भ्रान्तियों का का एक बढ़िया साधन' बनती जा रही है। आज के | निवारण करते हुए आपने जो भी लिखा है, हम उससे व्यावसायिक बुद्धि रखनेवाले वास्तु-विशारदों द्वारा बताये | पूरी तरह सहमत हैं। एकदम सटीक, स्पष्ट, तर्कसंगत गए उपायों से अन्य किसी का वास्तु सुधरे या न सुधरे, एवं आगमानुमोदित लेखन के लिए बधाई स्वीकारें। परन्तु उनमें से कइयों का स्वयं का वास्तु सुधरते हुए | ऐसे ही दो टूक लेखन की आशा और अपेक्षा के साथ, हमने देखा है। संस्कृत महाविद्यालयों में पढ़ते हुए वर्षों
आपका अपना ही की मेहनत से अर्जित सैद्धान्तिक ज्ञान से प्रशंसा तो मिल
नरेन्द्रप्रकाश जैन सकती है, किन्तु बिना किसी पाठशाला में गए अल्पकाल
पूर्वसम्पादक : 'जैनगजट' में ही इधर-उधर की दो-चार पुस्तकें पढ़कर यदि कोई
१०४, नई बस्ती फीरोजाबाद, (उ.प्र.) वास्तुविद् बन जाए और लोगों को शारीरिक सुख प्राप्त |
| माननीय सम्पादक जी करने के उपाय बताने लगे, तो उसे प्रशंसा के साथ
जनवरी २००९ के 'जिनभाषित' का सम्पादकीय साथ तगड़ी न्यौछावर-राशि या दक्षिणा भी मिलती है। पढ़कर मन को बड़ा भला लगा। वास्तुशास्त्र के माध्यम कर्मसिद्धान्त की कसौटी पर वास्तशास्त्र को परखने की।
से घोर अन्धविश्वासों की खेती फल-फूल रही है। जैन सलाह देकर आप आर्थिक हानि का रास्ता बताने लगे | कर्मसिद्धान्त की महत्ता के सूर्य को ग्रहण लगाया जा तो यह लोगों के गले कैसे उतरेगा?
रहा है। इसमें अन्ध विश्वासों के सहारे व्यापार भी हो आज सभी लोग अनकलता पाना चाहते हैं।। रहा है। भवन, मन्दिर, धर्मशाला, वसति आदि बनाने कर्मोदयजनित प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझने का साहस । म
| में वैज्ञानिक तथ्यों पर विचार किया जाना चाहिए। उससे
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प्राकृतिक रूप से जो लाभ होते हैं, उन्हें लिया जाना | सम्पादकीय 'वास्तुशास्त्र और कर्मसिद्धान्त' पढ़कर चाहिए। जैसे पूर्वमुखी मकानादि में सूर्य का प्रकाश सीधे | प्रसन्नता हुई। लेख पूर्णतः आगमसम्मत है। वास्तुशास्त्र अंदर तक पहुँचता है, तो पूरा भवन प्रासुक हो जाता | तो भवनों के सुदृढ़, स्वास्थ्यानुकूल, सुविधाजनक एवं है, रोगाणु, मच्छरादि जीव-जन्तु अँधेरे में रहना पसन्द सुरक्षापूर्ण बनाये जाने के विज्ञान एवं कला का निर्देशक करते है, प्रकाश से दूर भागते हैं। इस रूप में वास्तुशास्त्र शास्त्र है, न कि जीव के स्वकृत कर्मों के अतिरिक्त की बात मान्य करनी ही चाहिए। पूर्वमुखी मकान के | किसी अन्य सत्ता को जीव के सुखदुःख, जीवन-मरण निवासियों को सूक्ष्म अहिंसा के पालन का लाभ प्रतिपल | आदि का नियामक बतलानेवाला शास्त्र। जिनागम के मिलता रहता है। साथ ही निरोगी भी रहते हैं। परन्तु | अनुसार जीव के स्वकृत कर्मों के अतिरिक्त विश्व की दिशाओं के आधार पर भवनस्वामी का आयुनाश, पुत्रनाश, कोई भी सत्ता जीव के सुखदुःख, जीवनमरण आदि की कुलक्षय आदि अनिष्टों का भय दिखाना और कर्मसिद्धान्त नियामक नहीं है। की धज्जियाँ उड़ाना आगमविरुद्ध है। आपने अपने परद्रव्य जीव के साता-असातावेदनीय कर्मों के सम्पादकीय में इन सब बातों का विद्वत्तापूर्वक खण्डन | उदय में निमित्त अवश्य होता है, किन्तु केवल वही किया है, जो अत्यन्त समीचीन व आगम-अनुकूल है। द्रव्य होता है जो जीव की इन्द्रियों और मन को प्रिय वह साधारण जन को वास्तुशास्त्र के डरावने अन्धविश्वासों या अप्रिय अनुभूति कराता है, अन्य नहीं। जैसे गुलाब से उबारने के साथ तथाकथित वास्तुशास्त्री विद्वानों की | का पुष्प जीव की घ्राणेन्द्रिय को प्रिय अनुभूति कराता लूट से भी बचायेगा और जैनकर्मसिद्धान्त पर सच्ची श्रद्धा है, अतः वह तो उसके सातावेदनीय के उदय में निमित्त रखने हेतु स्थितीकरण भी करेगा, क्योंकि इष्ट या अनिष्ट बन सकता है, किन्तु पलाश का पुष्प नहीं। पलाशतो व्यक्ति के कर्मों के अनुसार ही होता है। पुष्प के समान आकाश द्रव्य का कोई भी भाग (दिशा)
कुछ विद्वान् मुनियों को 'वास्तुविज्ञानी' कह कर | जीव को प्रिय-अप्रिय अनुभूति नहीं कराता, अतः वह सम्बोधित कर रहे हैं। मुनियों को तो वीतरागविज्ञानी ही | उसके साता-असाता के उदय में निमित्त नहीं होता। कहा जाना चाहिए।
आदरणीय पण्डितों और प्रतिष्ठिाचार्य महोदयों से आपने मेरे मन की सारी उथल-पुथल को निवेदन है कि उन्हें ऐसी मान्यताओं से परहेज करना अभिव्यक्ति देकर जन-जन को वास्तुशास्त्र के डरावने | चाहिए, जो आगम-प्रमाण से सिद्ध न हों। समाज के अन्धविश्वासों से सजग किया है। आप साधुवाद के पात्र | कर्णधारों से भी यह अनुरोध है कि जैनमहाविद्यालयों
में प्रतिष्ठा-पंचकल्याणक आदि कर्मकाण्ड सम्बन्धी श्रीपाल जैन 'दिवा' | जिनागम-सम्मत पाठ्यक्रम के अध्यापन की व्यवस्था की
शाकाहार सदन जानी चाहिए और वहाँ निर्धारित पाठ्यक्रम पढ़कर परीक्षा एल-७५, केशर कुंज, हर्षवर्द्धन नगर, उत्तीर्ण करनेवाले को ही प्रतिष्ठाचार्य की उपाधि एवं
प्रतिष्ठा आदि कराने का अधिकार दिया जाना चाहिए। आदरणीय सम्पादक जी
इंजी. धर्मचन्द्र वाझल्य जनवरी २००९ के 'जिनभाषित' में आपका
ए-९२, शाहपुरा, भोपाल, म.प्र.
___ फोन- ०७५५-२४२४७५५ संगति का फल कदली, सीप, भुजंगमुख, स्वाति एक गुन तीन। जैसी संगति बैठिए, तैसोई फल दीन॥
कवि रहीम स्वाति नक्षत्र में बरसनेवाले जल की बूंद यदि केले के पत्ते पर पड़ती है, तो कपूर बन जाती है, सीप के भीतर गिरने पर मोती बन जाती है और सर्प के मुख में जाने पर विष में परिणत हो जाती है। इस प्रकार अलग-अलग तरह के लोगों की संगति का असर अलग-अलग पड़ता है।
32 फरवरी 2009 जिनभाषित -
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बिहारी की गज़ल ईंट-पत्थर से बने मस्जिदो-मन्दिर
स्व० श्री बिहारीलाल जी जैन
ईंट-पत्थर से बने मस्जिदो-मंदिर सब हैं। इनकी पाकीज़गी तब है, वहाँ इबादत हो॥ गर ज़खीरा हो यहाँ तबाहनुन असलाहों का। तो फिर ये जंगी-किले हैं, ना इबादतखाने॥
काबा या के गिरजा हो, मस्जिद हो या मंदिर हो। पूजा के घर हैं सारे या सिर्फ परिस्तिश हो॥ लड़ने या झगड़ने के, ये घर नहीं कोई हैं। ये प्यार-मुहब्बत के धर हैं, यही रहने दो॥
आलात-लड़ाई के और न यूँ कुदूरत के। ये धर हैं सफ़ाई के, लड़ने के न बनने दो॥ भगवान् के घर हैं ये, अल्ला की इबादत के। दिल पाक़ बनाने के, पाकीज़ ही रहने दो।
ये आज की दुनियाँ सब, धर है यूं तशद्दद की। कुछ ही जगह हैं, इनको बस पाक़ ही रहने दो॥ मज़हब का नाम लेकर, लड़ते हो झगड़ते हो। क्या सच में ये मज़हब है? हमको भी समझने दो॥
हर धर्म के रहवर का, फ़र्मान है गर कोई। इंसान हो, बस जज्बा, इंसानियत रहने दो॥ मालिक ने तुम्हें भेजा इन्सान बना करके। हैवान खुद न बनना, इंसानियत रहने दो॥
लाज़िम तो ये था तुमको, इंसान फरिश्ता हो। हर आन दिल में जज्बा इंसानियत रहने दो॥ कहने को 'बिहारी' तुम हो आदमी दुनियाँ के। मज़हब का असल मक़सद, कुल रूह ही रहने दो॥
'बिहारी की गज़ले' से साभार
PRANSsInsoldisaicDIREM
A RISEASE
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________________ UPHIN/2006/16750 विहार और बैण्ड-बाजे मुनि श्री क्षमासागर जी : संस्मरण प्रसंग * सरोजकुमार मुनिश्री क्षमासागर जी के इंदौर में हो रहे वर्षा योग (1996) की समयावधि समाप्त हो गई थी। इंदौर से विहार की तैयारी थी। पर वे कब विहार करेंगे, और कहाँ के लिए करेंगे, इत्यादि बातें किसी को मालूम नहीं थीं। मुनिश्री अपना कार्यक्रम और योजनाएँ किसी को बताते भी नहीं थे। एक दिन मुनिश्री के संघ के एक विश्वस्त ब्रह्मचारी जी से संकेत मिला, कि दूसरे दिन मुनिश्री विहार कर रहे हैं। बस फिर क्या था, भक्तगण उनसे आशीर्वाद लेने व नमोऽस्तु कहने पहुँचने लगे। खबर आग की तरह फैली। जैनसमाज के अध्यक्ष ने अखबारवालों को भी बता दिया, कि सुबह सात बजे मुनिश्री विहार करनेवाले हैं। फिर हुआ यह, कि सुबह पाँच बजे से ही भक्तों का ताँता वंदनार्थ लग गया। 6बजे के करीब बैण्डवाले भी आ गए। यह सब देख-सुनकर मुनिश्री अत्यंत दु:खी, विचलित और उद्विग्न हो गए। मैं भी पहुँचा। भीड़ में किसी तरह निकट पहुँच कर वंदना कर परिसर में लौट आया। मुझे मुनिश्री ने बुलवाया और पूछा, 'ये लोग बता रहे हैं, कि अखबार में समाचार छप गया है ? ये कैसे आ गया? ऐसा समाचार तो नहीं आना था? यह तो ठीक नहीं हुआ। हमारे संघ में समारोही ढंग से विहार की परम्परा नहीं है। और यहाँ तो बैण्ड भी बजने लगा है।' मैं एक अखबार से थोड़ा जुड़ा हुआ हूँ। अत: मुनिश्री को मुझ पर संदेह हुआ होगा, कि मैंने ही अखबारवालों को खबर दी होगी। ___ मैंने मुनिश्री को बताया, कि 'मेरी ओर से तो किसी अखबारवाले को नहीं कहा गया था। पर समाज के पदाधिकारियों के लिए विहार की खबर ज्ञात हो जाने पर, यह जरूरी हो गया होगा कि वे ये बात सबको बता दें। इसी भावना से किसी ने अखबार में दे दिया होगा। विहार की बात ज्ञात हो जाने पर यदि वे सबको सूचित नहीं करते, तो आपका विहार हो जाने के बाद सब उन्हें पकड़ते, और दोष देते, कि मुनिसंघ के विहार की खबर हमसे क्यों छिपाई गई? हमें क्यों नहीं बताया गया? विहार के पूर्व वंदना का अवसर हमें क्यों नहीं लेने दिया? सबके हित में ऐसा कुछ हो गया, लगता है।' __मुनिश्री कुछ नहीं बोले, और अपनी विभिन्न चर्याओं में व्यस्त हो गए। ऐसा प्रतीत हुआ, मानों उन्होंने अपना विहार पर निकलना स्थगित कर दिया हो। मुनिश्री दु:खी हुए हैं, अतः सब दुःखी थे। लेकिन मुनिश्री ने विहार स्थगित कर दिया है, यह सोचते हुए सब खुश भी थे। परिसर में भक्तों की संख्या धीरे-धीरे कम होती गई। कुछ समय बाद वहाँ उपस्थितों ने देखा, कि मुनिश्री अपने संघ सहित परिसर से बाहर निकल रहे हैं। पर उस दिशा में नहीं, जिस दिशा में उनके जाने की संभावना थी। अनेक भक्तगण भी उनके साथ हो गए। मुनिश्री पहुँचे, छत्रपति नगर के मंदिर में। वहाँ दो दिन रहे, और पुनः चुपचाप समवशरण मंदिर में आ गए। यहाँ एक दिन रुके, और बिना किसी पूर्व घोषणा अथवा सूचना के चुपचाप खण्डवा की दिशा में विहार कर गए। उन्हें विदा देने बहुत कम लोग उस समय मंदिरपरिसर में पहुँच पाए थे। मनोरम, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर, म.प्र. स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, 210, जोन-1, एम.पी. नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं 1/205 प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित। संपादक : रतनचन्द्र जैन।