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आपके पत्र 'वास्तुशास्त्र और कर्मसिद्धान्त' सम्पादकीय लेख पर विद्वानों की प्रतिक्रियाएँ मान्य सम्पादक जी,
| न जुटा पाने से लोग आज परावलम्बन की तलाश में ___'जिनभाषित' के गताङ्क में प्रकाशित आपका | रहते हैं। तंत्र-मंत्र, गण्डा-ताबीज, टोना-टोटका अथवा घर अग्रलेख 'वास्तुशास्त्र और कर्मसिद्धान्त' उन्हें तो पसन्द | के दरबाजों, खिड़कियों, दीवालों आदि की दिशा-दशा आएगा, जो आत्मसुख पाना चाहते हैं, परन्तु ऐसे लोगों में परिवर्तन कर सुख पाने की लालसा भी इसी परावलम्बन की संख्या आज है कितनी? आज के युग में सुविधाओं | का परिणाम है, जैन तो स्वावलम्बी होता है और वह का भोग करनेवालों का बाहुल्य है। चूंकि वास्तु | डंके की चोट पर कहता हैसुविधापूर्ण जीवन के उपाय बतानेवाली एक विद्या है, सखे! मेरे बन्धन मत खोल। इसलिए लोग उसकी ओर आकर्षित हो रहे हैं। यह स्वयं बँधा हूँ, स्वयं खुलूँगा, तू न बीच में बोल। आकर्षण इतना गहरा है कि अब तो सन्तजन भी धर्म,
(कविवर बच्चन) दर्शन, अनेकान्त, कर्मसिद्धान्त आदि पर लेखनी न चलाकर जीवन-निर्वाह के लिए कोई वास्तुविद्या का सहारा तंत्र-मंत्र और वास्तुविद्या पर ग्रन्थ तैयार करने में लगे| लेता है, तो कोई ज्योतिषविद्या का। आत्मविद्या का प्रचारहैं। इन विषयों के आधार विद्यानुवादपूर्व के आज उपलब्ध | प्रसार भी आज मिशनरी कहाँ रहा गया है? उसे भी न होने से इस तरह के ग्रन्थों की रचना में 'कहीं की| धनागम के एक साधन के रूप में आज अपनाया जा ईंट और कहीं का रोड़ा' की नीति का आश्रय लिया | रहा है। एक सद्गृहस्थ को घर चलाने के लिए आर्थिक जा रहा है। इसी कारण वास्तु के नाम पर प्रचारित अनेक | संसाधन तो चाहिये ही, इसलिए इसमें कुछ आपत्तिजनक निष्पत्तियों को जैनागम से समर्थन नहीं मिलता। फिर भी नहीं है। आपकी यह बात अवश्य उचित है कि भी जन-समर्थन जुटाने के लिए जैनधर्म का लेबिल उन | जो जैनागम-समर्थित नहीं है, उसे जैन वास्तुशास्त्र का पर लगाया जाता है, इसे देख-सुनकर आश्चर्य होता है। नाम देनेसे बचना जरूरी है, लौकिक शास्त्र कभी
वास्तुशास्त्र के प्रति इसी आकर्षण के चलते अर्थ- | परमागम का अंग नहीं हो सकता। प्रधान इस इक्कीसवीं सदी में 'वास्तविद्या जीविकोपार्जन | वास्तु के नाम पर फैले भ्रम और भ्रान्तियों का का एक बढ़िया साधन' बनती जा रही है। आज के | निवारण करते हुए आपने जो भी लिखा है, हम उससे व्यावसायिक बुद्धि रखनेवाले वास्तु-विशारदों द्वारा बताये | पूरी तरह सहमत हैं। एकदम सटीक, स्पष्ट, तर्कसंगत गए उपायों से अन्य किसी का वास्तु सुधरे या न सुधरे, एवं आगमानुमोदित लेखन के लिए बधाई स्वीकारें। परन्तु उनमें से कइयों का स्वयं का वास्तु सुधरते हुए | ऐसे ही दो टूक लेखन की आशा और अपेक्षा के साथ, हमने देखा है। संस्कृत महाविद्यालयों में पढ़ते हुए वर्षों
आपका अपना ही की मेहनत से अर्जित सैद्धान्तिक ज्ञान से प्रशंसा तो मिल
नरेन्द्रप्रकाश जैन सकती है, किन्तु बिना किसी पाठशाला में गए अल्पकाल
पूर्वसम्पादक : 'जैनगजट' में ही इधर-उधर की दो-चार पुस्तकें पढ़कर यदि कोई
१०४, नई बस्ती फीरोजाबाद, (उ.प्र.) वास्तुविद् बन जाए और लोगों को शारीरिक सुख प्राप्त |
| माननीय सम्पादक जी करने के उपाय बताने लगे, तो उसे प्रशंसा के साथ
जनवरी २००९ के 'जिनभाषित' का सम्पादकीय साथ तगड़ी न्यौछावर-राशि या दक्षिणा भी मिलती है। पढ़कर मन को बड़ा भला लगा। वास्तुशास्त्र के माध्यम कर्मसिद्धान्त की कसौटी पर वास्तशास्त्र को परखने की।
से घोर अन्धविश्वासों की खेती फल-फूल रही है। जैन सलाह देकर आप आर्थिक हानि का रास्ता बताने लगे | कर्मसिद्धान्त की महत्ता के सूर्य को ग्रहण लगाया जा तो यह लोगों के गले कैसे उतरेगा?
रहा है। इसमें अन्ध विश्वासों के सहारे व्यापार भी हो आज सभी लोग अनकलता पाना चाहते हैं।। रहा है। भवन, मन्दिर, धर्मशाला, वसति आदि बनाने कर्मोदयजनित प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझने का साहस । म
| में वैज्ञानिक तथ्यों पर विचार किया जाना चाहिए। उससे
- फरवरी 2009 जिनभाषित 31
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