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________________ प्राकृतिक रूप से जो लाभ होते हैं, उन्हें लिया जाना | सम्पादकीय 'वास्तुशास्त्र और कर्मसिद्धान्त' पढ़कर चाहिए। जैसे पूर्वमुखी मकानादि में सूर्य का प्रकाश सीधे | प्रसन्नता हुई। लेख पूर्णतः आगमसम्मत है। वास्तुशास्त्र अंदर तक पहुँचता है, तो पूरा भवन प्रासुक हो जाता | तो भवनों के सुदृढ़, स्वास्थ्यानुकूल, सुविधाजनक एवं है, रोगाणु, मच्छरादि जीव-जन्तु अँधेरे में रहना पसन्द सुरक्षापूर्ण बनाये जाने के विज्ञान एवं कला का निर्देशक करते है, प्रकाश से दूर भागते हैं। इस रूप में वास्तुशास्त्र शास्त्र है, न कि जीव के स्वकृत कर्मों के अतिरिक्त की बात मान्य करनी ही चाहिए। पूर्वमुखी मकान के | किसी अन्य सत्ता को जीव के सुखदुःख, जीवन-मरण निवासियों को सूक्ष्म अहिंसा के पालन का लाभ प्रतिपल | आदि का नियामक बतलानेवाला शास्त्र। जिनागम के मिलता रहता है। साथ ही निरोगी भी रहते हैं। परन्तु | अनुसार जीव के स्वकृत कर्मों के अतिरिक्त विश्व की दिशाओं के आधार पर भवनस्वामी का आयुनाश, पुत्रनाश, कोई भी सत्ता जीव के सुखदुःख, जीवनमरण आदि की कुलक्षय आदि अनिष्टों का भय दिखाना और कर्मसिद्धान्त नियामक नहीं है। की धज्जियाँ उड़ाना आगमविरुद्ध है। आपने अपने परद्रव्य जीव के साता-असातावेदनीय कर्मों के सम्पादकीय में इन सब बातों का विद्वत्तापूर्वक खण्डन | उदय में निमित्त अवश्य होता है, किन्तु केवल वही किया है, जो अत्यन्त समीचीन व आगम-अनुकूल है। द्रव्य होता है जो जीव की इन्द्रियों और मन को प्रिय वह साधारण जन को वास्तुशास्त्र के डरावने अन्धविश्वासों या अप्रिय अनुभूति कराता है, अन्य नहीं। जैसे गुलाब से उबारने के साथ तथाकथित वास्तुशास्त्री विद्वानों की | का पुष्प जीव की घ्राणेन्द्रिय को प्रिय अनुभूति कराता लूट से भी बचायेगा और जैनकर्मसिद्धान्त पर सच्ची श्रद्धा है, अतः वह तो उसके सातावेदनीय के उदय में निमित्त रखने हेतु स्थितीकरण भी करेगा, क्योंकि इष्ट या अनिष्ट बन सकता है, किन्तु पलाश का पुष्प नहीं। पलाशतो व्यक्ति के कर्मों के अनुसार ही होता है। पुष्प के समान आकाश द्रव्य का कोई भी भाग (दिशा) कुछ विद्वान् मुनियों को 'वास्तुविज्ञानी' कह कर | जीव को प्रिय-अप्रिय अनुभूति नहीं कराता, अतः वह सम्बोधित कर रहे हैं। मुनियों को तो वीतरागविज्ञानी ही | उसके साता-असाता के उदय में निमित्त नहीं होता। कहा जाना चाहिए। आदरणीय पण्डितों और प्रतिष्ठिाचार्य महोदयों से आपने मेरे मन की सारी उथल-पुथल को निवेदन है कि उन्हें ऐसी मान्यताओं से परहेज करना अभिव्यक्ति देकर जन-जन को वास्तुशास्त्र के डरावने | चाहिए, जो आगम-प्रमाण से सिद्ध न हों। समाज के अन्धविश्वासों से सजग किया है। आप साधुवाद के पात्र | कर्णधारों से भी यह अनुरोध है कि जैनमहाविद्यालयों में प्रतिष्ठा-पंचकल्याणक आदि कर्मकाण्ड सम्बन्धी श्रीपाल जैन 'दिवा' | जिनागम-सम्मत पाठ्यक्रम के अध्यापन की व्यवस्था की शाकाहार सदन जानी चाहिए और वहाँ निर्धारित पाठ्यक्रम पढ़कर परीक्षा एल-७५, केशर कुंज, हर्षवर्द्धन नगर, उत्तीर्ण करनेवाले को ही प्रतिष्ठाचार्य की उपाधि एवं प्रतिष्ठा आदि कराने का अधिकार दिया जाना चाहिए। आदरणीय सम्पादक जी इंजी. धर्मचन्द्र वाझल्य जनवरी २००९ के 'जिनभाषित' में आपका ए-९२, शाहपुरा, भोपाल, म.प्र. ___ फोन- ०७५५-२४२४७५५ संगति का फल कदली, सीप, भुजंगमुख, स्वाति एक गुन तीन। जैसी संगति बैठिए, तैसोई फल दीन॥ कवि रहीम स्वाति नक्षत्र में बरसनेवाले जल की बूंद यदि केले के पत्ते पर पड़ती है, तो कपूर बन जाती है, सीप के भीतर गिरने पर मोती बन जाती है और सर्प के मुख में जाने पर विष में परिणत हो जाती है। इस प्रकार अलग-अलग तरह के लोगों की संगति का असर अलग-अलग पड़ता है। 32 फरवरी 2009 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524336
Book TitleJinabhashita 2009 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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