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________________ सम्पूर्ण लोकाकाश में अपने असंख्यात प्रदेशों को फैलाकर | मेरे सिर तथा पैर में पीड़ा है, इस प्रकार से एक साथ व्याप्त होती है, यद्यपि अशुद्ध निश्चयनय से यह आत्मा | ही सिर तथा पैर की पीड़ा का अनुभव न बन सकेगा। देहप्रमाण है।16 अर्थात जो छोटा-बड़ा देह उसे नामकर्म | यदि आत्मा को शरीर परिमाणवाला माना जाये, तो वह के उदय से प्राप्त होता है, उसमें अपने प्रदेशों को संकुचित | सावयव होने लगेगा। इसलिए आत्मा का विभु होना ही अथवा विस्तृत करके रहती है तथा आत्मा देह में सर्वत्र | युक्तियुक्त है। स्वानुभूति से अनुभव में आती है। वह प्रत्येक व्यक्ति आत्मा सर्वव्यापक नहीं हो सकती है क्योंकि, सर्वत्र को अपने-अपने शरीर में ज्ञानसुखादि गुणों से पूर्ण भरी | आत्मा के गुण उपलब्ध नहीं होते। जिस वस्तु के गुण हुई अनुभव में आती है। इसलिए उसको अशुद्धनय से | सभी जगह नहीं होते, वह सर्वव्यापक नहीं होती। जैसे देहप्रमाण मानने में प्रत्यवाय नहीं है। घट-पट सर्वव्यापक नहीं हैं, जैसा कि आचार्य हेमचन्द्र जीव (आत्मा) के साथ जब तक कार्य का सम्बन्ध | ने भी कहा हैरखता है, तब तक वह शरीर और मूर्तिक होता है। शरीर यत्रैव यो दृष्टगुणः स तत्र कुम्भादिवत निष्प्रतिपक्षमेतत्। नामकर्म के उदय से संकोच और विस्तार जीव (आत्मा) तथापि देहात् बहिरात्मतत्त्वमतवादोपहताः पठन्ति। के धर्म है। उनसे ही यह आत्मा अपने शरीर के परिमाण ____ अर्थात् जिस पदार्थ के गुण जिस स्थान में देखे का होता है। जैसे दीपक किसी बड़े कक्ष में रखने पर | जाते हैं, वह पदार्थ उसी स्थान में रहता है, जैसे जहाँ उसको प्रकाशित करता है और छोटे कक्ष में रखने पर घट के रूप आदि गुण रहते हैं, वहीं घट भी रहता छोटे परिसर को प्रकाशित करता है, इसी प्रकार जिस | है, तथापि वैशेषिक लोग देह के बाह्य आत्मा को कुत्सित शरीर का जितना पुद्गल, उसकी आत्मा भी उतनी ही | तत्त्ववाद से व्यामोहित होकर सर्वव्यापक स्वीकार करते होती है। चींटी की आत्मा चींटी के आयाम- वाली और | हैं। हाथी की आत्मा हाथी के आयामवाली होती है। इसी | आत्मा को सर्वगत मानने से संसार का सभी वर्णन जैनसिद्धान्त का प्रभाव कौषीतकि उपनिषद् से स्पष्ट | अयुक्त सिद्ध होता है। एक शरीर में आत्मा प्रवेश करती परिलक्षित है। वैदिक ऋषि का कथन है कि आत्मा को है, यही जन्म है, उस शरीर को छोड़कर आत्मा बाहर समस्त शारीरिक वृत्तियों की स्वामिनी तथा समस्त ऐन्द्रिक जाती है यही मरण है, छोड़े हुए शरीर से असंख्यात व्यापारों की अधिष्ठात्री समझना चाहिए। जिस प्रकार एक | योजन ऊपर जाकर आत्मा स्वर्ग में पहँचती है। यदि छुरा पेटी में रखा जाता है, आग चूल्हे में रखी जाती आत्मा सभी जगहों में हैं, तो इन सब जन्म-मरण, स्वर्गहै, उसी प्रकार यह सचेतन आत्मा नखनिख शरीर में नरक के कथन का कुछ अर्थ नहीं रहेगा। इसके प्रतिकूल व्याप्त है। यही भाव मैत्री उपनिषद् में हैं, किन्तु वहाँ | न्यायमत में इनका अस्तित्त्व मान्य किया है जैसे कि संशय को अवकाश है, जैसे मनुष्य आत्मा का ध्यान | कहा हैकरके परमगति को प्राप्त होता है, जो अणु से भी सूक्ष्म | __ अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः । अथवा अंगुष्ठमात्र अथवा प्रदेशमात्र अथवा शरीर के आकार ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा॥ की है।18 महाभारत, वनपर्व 30, 28 चार्वाक, बौद्ध और भाट्ट आत्मा की आकृति के नैयायिक का कहना है कि अदृष्ट की व्यापकता सम्बन्ध में विचार नहीं करते. किन्त न्याय-वैशेषिकदर्शन | से आत्मा की व्यापकता निश्चित है। में आत्मा के सर्वगतत्व पर काफी विचार किया है। जैनाचार्य का कहना है कि अदृष्ट के सर्वव्यापी न्याय-वैशेषिकदर्शन में कहा है कि वह आत्मा | होने का कोई प्रमाण नहीं है। अग्नि में दाहकत्त्व, पवन विभु (व्यापक) है, क्योंकि उसके कार्य की सर्वत्र उपलब्धि में प्रवहपना अदृष्टवश न होकर स्वभाव से ही है। हुआ करती है। विभु होने से वह आकाश के समान | नैयायिकों के प्रति जैनाचार्य कहते हैं कि ईश्वर को नित्य है। सुख-दुःख आदि का भेद होने से वह प्रत्येक | सृष्टिकर्ता और आत्मा को सर्वव्यापक मानने पर प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न है।” इसी संदर्भ में पार्थसारथि मिश्र | आत्मा को सृष्टि का कर्ता मानना चाहिए। नाना आत्माएँ का कहना है कि यदि आत्मा को अण माना जाये. तो | सर्वव्यापक हैं, इसलिए वे ईश्वर में सर्वतः व्यापक होकर 16 फरवरी 2009 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524336
Book TitleJinabhashita 2009 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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