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________________ रहेंगी और आपके ईश्वर के कर्तत्व का अभाव हो । यवो वा स एष सर्वस्याधिपतिः सर्वमिदं प्रशस्ति यदिदं जायेगा।23 किञ्च। वृहदारण्यकोपनिषद् 5/6/1 आत्मा की आयतनिक स्थिति जैनाचार्यों द्वारा 2. अंगुष्ठमात्रः पुरुषो मध्य आत्मनि। ईशानो भूतभवस्य न तर्कसंगत और अनुभवसम्मत वर्णित की गई है। आचार्य ततो विजुगुप्सते ॥ एतद्वैतत् ॥ अंगुष्ठमात्रः पुरुष नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव कहते हैं ज्योतिरिवाधूमकः। ईशानो भूतभवस्य स एवाद्य स उश्वः। अणु गुरुदेहपमाणो इव उपसंहारप्पसप्पदी चेदा। एतद्वैतत् ॥ कठोपनिषद् 2/1/12/13 3. वेदान्तभाष्य 1, 3, 24 तथा 25 असमुहदो बवहारा णिच्चयणयदो असंखदेसो वा॥4 4. फैलाए हुए तर्जनी और अंगूठे के बीच का प्रमाण। विशेष अर्थात् समुद्धात25 के बिना यह जीव (आत्मा) अमरकोष 2/6/83 व्यवहारनय से संकोच तथा विस्तार से अपने छोटे अथवा 5. छान्दोग्योपनिषद् 5/18/1, 6. वही। बड़े शरीर के प्रमाण रहता है। निश्चयन से असंख्यात 7. तैत्तिरीय 1/6/1-2 प्रदेशों का धारक है अर्थात् लोकव्यापी है। 8. नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्म तदव्यं यद् भूतयोनिपरिपश्यन्ति जैनसिद्धान्त में एकान्त को अवकाश नहीं है। न धीराः। मुण्डकोपनिषद् 1/1/6 तो आत्मा अणुरूप है, न वटबीज के समान, न अंगुष्ठ | 9. कठोपनिषद् 1/2/22 10. वही 1/2/20 की गाँठ के बराबर और न सात समुद्धात के बिना | 11. श्वेतावतर0 3/20 12. छान्दोग्यो. 3/14/3 शरीरप्रमाण से अधिक है। अर्थात् इन सात समुद्धातों में | 13. अंगुष्ठमात्रः पुरुषः। श्वेता0 3/13, कठो0 1/2/12 से जब किसी के द्वारा कोई समुद्धात किया जाता है, | 14. छान्दोग्य0 3/14/3, 15. श्वेता0 1/16 तब उसके शरीर से कुछ आत्मप्रदेश बाहर निकलते हैं | 16. यदि शुद्धनयादेव लोकाकाशप्रदेशकः। और पुनः देह में आ जाते हैं। इसी अपेक्षा से शरी अशुद्धेन तथाप्यात्मा देहमात्रो निगद्यते॥ के बाहर आत्मा को माना है, न कि नैयायिक-वैशेषिक सिद्धान्तसार 2/13 17. कौषीतकि 04/20 18. मैत्री0 6/38 अथवा उपनिषद् सिद्धान्त के अनुसार। निष्कर्ष यही है कि आत्मा लोक में व्याप्त होकर 19. स च सर्वत्र कार्योपलम्भाद् विभुः परममहत् परिमाण वानित्यर्थः। विभुत्वाच्च, नित्योऽसौ व्योमवत्। सुखादीनां ही नहीं रहती है, किसी न किसी शरीर में विद्यमान वैचित्र्यात् प्रतिशरीरं भिन्नः। तर्कभाषा पृ. 181 होती है। वह तो समुद्धात की प्रक्रियावश कुछ बाहर 20. शास्त्रदीपिका पृ. 491 फैल जाती है और पुनः शरीर में आत्मसात् हो जाती 21. अन्ययोगव्यवच्छेदिका का.9 (स्याद्वादमञ्जरी) है। लोकपरिमाण कहने का तो मात्र इतना तात्पर्य है कि 22. स्याद्वादमञ्जरी पृ. 69, 23. वही, पृ. 70 यदि आत्मप्रदेशों को फैलने का पूरा अवकाश मिले, | 24. द्रव्यसंग्रह गा. 10 तो वे सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हो जायेंगे। लोकाकाश से 25. अपने मूल शरीर को न छोड़ते हुए कामर्ण और तैजसरूप बाहर एक भी आत्मप्रदेश नहीं जा सकता है। अतएव | उत्तर शरीर से युक्त आत्मा के प्रदेशसमूह का शरीर से सामान्यतः शरीरप्रमाण ही आत्मा है और आत्मप्रदेशों की बाहर निकलना समुद्धात है। गोम्मटसार जीवकाण्ड गा. प्रसरणशक्ति की अपेक्षा लोकपरिमाण आत्मा है। ये अनन्त 666 आत्मायें पृथक-पृथक होकर भी असंख्यात प्रदेशी हैं। 26. वेदना, कषाय, विक्रिया, मारणान्तिक, तैजस, आहारक, सन्दर्भ केवली। 1. मनोमयोऽयं पुरुषो भाः सत्यस्तस्मिन्न तं हृदये यथा ब्रीहिर्वा रीडर, संस्कृत विभाग, दिगम्बर जैन कॉलेज, बड़ौत कबीरवाणी माली आवत देखि कै कलियाँ करें पुकारि। फूली फूली चुनि लई कालि हमारी बारि ॥ मनुष जन्म दुलर्भ अहै, होय न बारंबार। तरुवर से पत्ता झरें, बहुरि न लागें डार ।। - फरवरी 2009 जिनभाषित 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524336
Book TitleJinabhashita 2009 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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