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________________ आत्मा की आयतनिक मीमांसा चिरन्तन काल से ही ऋषियों मुनियों एवं गवेषकों की गवेषणा का मूलभूत तत्त्व आत्मा रहा है। इसी आत्मतत्त्व के अन्वेषण में दर्शन की उत्पत्ति हुई है । दर्शन का आद्यरूप धर्म में निहित था। धर्म जीवन का परमशक्तियों की ओर स्वाभाविक निर्देश है। धर्म और दर्शन के आन्तरिक रूप में विद्यमान शक्तियाँ अदृश्य होने पर भी निस्सन्दिग्ध रूप में हैं, क्योंकि इनके अनेकों दृश्य विद्यमान हैं। इन अदृश्य शक्तियों में बहुविश्रुत आत्मा है, जिसकी सत्ता किसी न किसी रूप में भारतीय और पाश्चात्य दोनों दार्शनिक परम्पराएँ स्वीकार करती हैं। पुद्गल के रूप, रस, गन्ध और स्पर्श धर्मों से भिन्न होने के कारण आत्मा अमूर्तिक है। अमूर्तिक आत्मा (जीव) शुद्ध होने से किसी की पकड़ में नहीं आता है । अतएव आत्मा की आकृति विषयक अनेक कल्पनायें भारतीय दार्शनिकों द्वारा की गई हैं। उनकी मीमांसा करते हुए जैनाचार्यों द्वारा आत्मा की आकृति को दर्शाया जा रहा है। आत्मा का विकार विषयक विवेचन करते हुए वैदिक ऋषि लिखते हैं- 'हृदय संस्थित तेजः पुञ्ज मनोमय आत्मा इतनी लघु है, जितना कि एक चावल अथवा जौ का दाना होता है, किन्तु यह आत्मा सर्वेश तथा सर्वाधिपति है और विश्व की सम्पूर्ण सत्ता पर शासन करती है।' नचिकेता के लिए आत्मोपदेश देते हुए यमाचार्य कहते हैं कि 'अँगूठे के आकार का पुरुष (आत्मा) शरीर के मध्य में स्थित है। वह भूत और भविष्य का स्वामी है। मनुष्य छिपाने की इच्छा नहीं करता है । यह अंगुष्ठमात्र जीव ज्योति के समान धुएँ रहित है । आचार्य शंकर ने अँगूठे के बराबर पुरुष को कूटस्थ आत्मा या ब्रह्म माना है? रामानुज तथा निम्बार्क के अनुसार परमात्मा उपासक के हृदय में रहने के कारण अँगूठे के आकार का है छान्दोग्योपनिषद् में आत्मा को प्रदेश मात्र माना है। मस्तक और चिबुक की अन्तर्वर्ती आत्मा होने से मस्तक की स्वामिनी है। तैत्तिरीय उपनिषद् में आत्मा को हृदयस्थ माना है और बतलाया है कि वह मूर्धा के अस्थिमार्ग से मस्तिष्क की ओर जाती है, जैसा कि कहा है- हृदय के अन्तर्गत जिसे हम आकाश के रूप I Jain Education International डॉ० श्रेयांसकुमार जैन में जानते हैं, वही उस हिरण्यमय पुरुष (आत्मा) मन का स्थान है। मूर्धा की अस्थियों के बीच में जिसे हम स्तनवत् अवलम्बित देखते हैं, उसी में होकर इन्द्र के यहाँ का मार्ग है, जो सीधा मस्तक के उस भाग तक जाता है, जहाँ माँग बनाई जाती है। 'भू:' 'भुवः' जब ये बीज मन्त्र उच्चारण किये जाते हैं, तो आत्मा सीधी ब्रह्म की ओर को प्रगतिशील होती है। आत्मा स्वराज्य प्राप्त कर लेती है। मनस्पति के साथ एकरूप हो जाती है तथा वाक्पति, चक्षुष्पति, श्रोत्रपति, विज्ञानपति तथा संक्षेपतः ब्रह्म हो जाती है, जो आकाश के रूप में व्यक्त होता है। मुण्डकोपनिषद् में आत्मा को नित्य विभु, सर्वगत, सर्वगत, सूक्ष्म भूतमात्र के उद्भव का मूल और केवलज्ञानियों द्वारा दृश्य बतलाया गया है। यह आत्म शरीरों में शरीर रहित, अनित्यों में नित्य, महान् सर्वव्यापी आत्मा को जानकर बुद्धिमान शोक नहीं करता है। साथ में वर्णन है कि सूक्ष्म से सूक्ष्म और महान् से महान् आत्मा वाणी की हृदयरूपी गुफा में स्थित है। 10 इसी प्रकार अन्यत्र भी आया है। 11 छान्दोग्योपनिषद् में भी कहा है कि 'मेरी हृदय स्थित आत्मा चावल, जौ, सरसों अथवा राई के दाने से सूक्ष्म है, पृथ्वी से भी बड़ी है, आकाश, स्वर्ग तथा समस्त लोकों से बड़ी है। 12 उक्त उपनिषद् निहित परम्परा वाक्यों से आत्मा की आकृति का यथार्थ निर्णय नहीं होता। यह प्रश्न बना हुआ है कि आखिर आत्मा अंगुष्ठ मात्र 13 या अणुरूप 14 या सर्वगत 15 किस रूप है ? जब चिन्तक चिन्तन में लीन होता है, तो उसके सामने अनुभव के आधार पर यह रहस्य प्रगट होता है कि शरीर के आकार की आत्मा है, क्योंकि समस्त शरीर में सुख दुःख ज्ञान आदि की प्रतीती होती है । यह असंख्यात प्रदेशों का समुदाय है। एक परमाणु जितने आकाश को घेरता है, उसे एक प्रदेश कहते हैं। इन्हीं असंख्यात प्रदेशों से युक्त आत्मा अखण्ड द्रव्य है जिसे न तो तोड़ा जा सकता है और न जोड़ा जा सकता है। असंख्यातप्रदेशी होने से यह कहना कठिन है कि आत्मा इतनी छोटी है और इतनी बड़ी है। आत्मा व्यापक और देहप्रमाण है । यद्यपि शुद्धनय से आत्मा लोकाकाश के प्रदेश परिमाण है अर्थात् लोकपूरण समुद्धात में आत्मा - फरवरी 2009 जिनभाषित 15 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524336
Book TitleJinabhashita 2009 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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