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________________ श्रोता इनका पूर्णता से अवगाहित होने को ही मूर्च्छना कहते हैं। लेकिन भरत संगीत में सात स्वरों के क्रमयुक्त प्रयोग को ही मूर्च्छना कहा है पद्मचरित में गंधवों से आयी हुई इक्कीस मूर्च्छनाओं का उल्लेख है। पद्मचरित में लय, ताल, जाति आदि का भी बहुत कुछ वर्णन मिलता है । : ९. धवल ग्रंथ में वीणा, त्रिसारिक, आलापिनी, बव्वीसक, खुक्खुण, कालह आदि वाद्यों के नाम मिलते हैं । : १०. सर्वार्थसिद्धि इस ग्रंथ में अभाषात्मक शब्दों के वर्णन में तत, वितत, घन, सौषिर ऐसा वर्गीकरण आता है। इस निमित्त से कुछ वाद्यों के नाम आते हैं, जैसे चर्मतनतनिमित्तः पुष्करभेरीदर्दुरादिप्रभवस्ततः । तन्त्रीकृत वीणासुघोषादिसमुद्भवो विततः । तालघण्टालालनाद्यमिधातजो घनः । वंशशंरवादिनिमित्तः सौषिरः ॥ अर्थात् प्रायोगिक शब्द चार प्रकार के हैं- चमड़े से मढ़े हुए पुष्कर, भेरी, और दर्दुर से जो शब्द उत्पन्न होता है, वह तत् शब्द है । ताँनवाले वीणा और सुघोष आदि से जो शब्द उत्पन्न होता है, वह वितत शब्द है । ताल, घण्टा, लालन आदि के ताडन से जो शब्द उत्पन्न होता है, वह घन है तथा बाँसुरी, शंख आदि के फूँकने से जो शब्द होता है, वह सौषिर शब्द है (स.सि./ ५/२४) । ११. आवश्यकवृत्ति में तथा भद्रबाहुकृत कल्पसूत्रटीका में भी कुछ वाद्यों के प्रकार कहे गये हैं। जैसे पणव, मुरज, मृदंग भम्मा [भम्मा पृथुलमुखढक्काविशेषः] मुकुंद, कर्टिका, तलिमा, तिदुल्लीका, गोमुखी, दरदरिका, पटह, आडम्बर आदि । संगीतसमयसार ग्रंथ में रागदारी की विशेष जानकारी दी है। संगीतविषय विशेषरूप से समझे तथा सुननेवाले की तदनुरूप प्रवृत्ति होवे, इस हेतु राग में स्वरों की विशिष्ट रचना होती है। उससे रसनिष्पत्ति सुंदर होती है अर्थात् विशिष्ट रसानुभूति के लिए विशिष्ट रागों की । योजना की जानी चाहिए, ऐसा इसमें कहा गया है। जैसेश्रृंगार रस के लिए- वसंत, मालवश्री, वराटी, गुर्जरी, मल्हारी। [ रागों के नाम ] वीर रस के लिए- गौड, धन्नासी, श्री । प्रार्थना के लिए भैरव, भैरवी । - 20 फरवरी 2009 जिनभाषित Jain Education International + करुण रस के लिये सायरी, देशी आदि । यह वर्णन संगीतरत्नाकर तथा आधुनिक संगीत शास्त्र के भातखण्डे संगीत शास्त्र से भी यह मिलताजुलता है। - गायन में ताल का अत्यन्त महत्त्व है। संगीत समयसार, संगीतरत्नाकर, संगीतोपनिषत्सारोद्धार इन तीनों ग्रंथो में ताल का बहुत वर्णन मिलता है। संगीत समयसार - में तो कहा है तालमूलानि गेयानि ताले सर्वप्रतिष्ठितिम् । तालहीनानि गेयानि मंत्रहीना यथाहुतिः ॥ इससे ताल का महत्त्व कितना है, यह ध्यान में आता है। तालसंबंधी द्रुत, लघु, प्लुत, कला, प्रस्तार, विराम, काल, मात्रा आदि को समझकर ताल का 'एकमात्रिक, द्विमात्रिक,....... . त्रिंशत्मात्रिक, षष्टिमात्रिक ऐसा वर्गीकरण किया गया है। इस वर्गीकरण में से कुछ तालों के नाम वर्तमानकालीन प्रचलित संगीतशास्त्र में देखने को भी नहीं मिलते हैं, जैसे तिसारक, उदीक्षण रायवंकोल चाचपुर, पृथ्वीकुंडल आदि । १२. नयनसुखविलास : मुजफ्फरनगर में हुए कविवर नयनानंद ने यह ग्रंथ लिखा था । स्व० ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी स्मारक ग्रंथमाला की ओर से यह ग्रंथ दो भागों में प्रसिद्ध हुआ था। पहले भाग में करीबन ४० रागिणीसह पद्यरचना है। ग्रंथवैशिष्ट्य यह है कि इसमें गायन किस काल में करें, विस्तृत दिया है। इसमें सौ से अधिक पद हैं। ताल का महत्त्व देते समय उसे योद्धा की उपमा दी है। जिस प्रकार युद्ध में योद्धा अगर अश्व से नीचे गिर जाए, तो वह उसका अपमान समझा जाता है, उसी प्रकार ताल में अगर गलती हो तो गायक का अपमान समझा जाता है, ऐसा इस ग्रंथ में कहा गया है। इस ग्रंथ में २४ तीर्थंकरों की स्तुति संदर्भ में दी गई पद्यरचना की राग-रागिणी योजना तथा दिन के २४ तासों में उसका विभाजन देखने लायक, अभ्यास करने लायक है। जैसेतीर्थंकर For Private & Personal Use Only राग कलिंगडा भैरवी श्री ऋषभनाथ जी श्री अजितनाथ जी श्री संभवनाथ जी बिलावल श्री अभिनंदननाथ जी प्रौढी समय सवेरे ६ से ७ सवेर ७ से ८ सवेर ८ से ९ ९ से १० www.jainelibrary.org
SR No.524336
Book TitleJinabhashita 2009 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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