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________________ उसी प्रकार अचारित्र में भी सम्यक या मिथ्याचारित्र भेद । से कह सकता है कि असंयत के असत्य बोलने का तीन काल में भी सम्भव नहीं। इसलिए औदायिक भावों | त्याग तो है नहीं, इसलिए वह असत्य बोल सकता है। के २१ भेदों में मिथ्याचारित्र नहीं, असंयत शब्द का प्रयोग | लेकिन भव्यात्माओं, इस बात को मत विसारो की आगम किया है। और न्याय के विपरीत कथन करनेवाला और माननेवाला (1) मिथ्यादर्शनरूप औदयिकभाव के भंग (व्यय) | भी सम्यग्दृष्टि हो सकता है क्या? जिनवाणी के अनुकूल बिना सम्यग्दर्शनरूप औपशमिकभाव का उत्पाद नहीं हो मोक्षमार्ग का, तत्त्वों का, आप्त, तपोभृत और आगम का सकता, इसी प्रकार अविरत अवस्था में विद्यमान असंयतरूप श्रद्धान करने का नाम सम्यग्दर्शन है। अपनी इच्छा के औदयिकभाव का व्यय हुए बिना क्षायोपशमिक चारित्र | अनुकूल, मन चाहे जैसा श्रद्धान करना, सम्यग्दर्शन नहीं, का अथवा संयमासंयम रूप क्षायोपशमिक भाव का उत्पाद | इस बात को स्वप्न में भी मत भूलो। अभी भी अपने तीन काल में भी सम्भव नहीं, यह अनुल्लंघनीय सिद्धान्त विवेक को जागृत कर मोहनिद्रा को छोड़ने का उपक्रम है। सादि मिथ्यादृष्टि जीव वेदकसम्यक्त्व सहित देशचारित्र | करना ही कल्याणकारी है। को ग्रहण करता है। उसके अध:करण और अपूर्वकरण जब विसंवाद की बात आती है तो, इसकी न्यायये दो ही करण होते हैं, सिद्धान्त के अनुसार असंयत | ग्रन्थ से परीक्षा करते हैं। चारित्र साध्य है और अनन्तानुबन्धी सम्यग्दृष्टि भी इन्हीं दो कारणों के साथ देशचारित्र को कषाय का अभाव साधन अर्थात् हेतु है। आपका हेतु प्राप्त होता है। (लब्धिसार गाथा नं. १७१)। इसी प्रकार, व्यभिचार को अर्थात् दोष को प्राप्त है। कैसे तो ईमानदारी वेदकसम्यक्त्व सहित क्षयोपशमचारित्र को मिथ्यादृष्टि या से निष्पक्षता से सोचिए। असंयत अथवा देशसंयत जीव देशचारित्र ग्रहण करने के (1) अनन्तानुबन्धी कषाय का अभाव तृतीय सदृश ही दो कारणों के द्वारा ग्रहण करता है। (लब्धिसार गुणस्थान में भी है। तो वहाँ भी चारित्र मानना पड़ेगा, गाथा नं. १९०)। अविरत सम्यग्दृष्टि के असंयत पर्याय जो आप को भी इष्ट नहीं है और तीन काल में भी के व्यय का एक मात्र हेतु है अधः प्रवृत्त और अपूर्वकरण | सम्भव नहीं। इन दो करण परिणामों से महाव्रत अथवा देशव्रत ग्रहण (2) गोम्मटसार कर्मकाण्ड में चौथे अधिकार में करना, अन्य कोई हेतु या आगम का संसार में अभाव | जो दशकरणचूलिका है उसमें गाथा नं. ४७८ में कहा (2) यदि कोई अज्ञानता के कारण मोह के वशीभूत अणसंजोजिदसम्मे, मिच्छं पत्ते ण आवलित्ति अणं। हो, अविरत सम्यग्दृष्टि के पास आंशिक चारित्र की मान्यता | उवसमखइये सम्म, ण हि तत्थवि चारि ठाणाणि ।। रखता है, तो उसको मिथ्यात्व गुणस्थान में भी आंशिक अर्थ-अनन्तानुबन्धी कषाय की विसंयोजना सम्यग्दर्शन स्वीकार करना पडेगा। क्या यह बात स्वीकार करनेवाला सम्यग्दृष्टि, यदि मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होता है, तो आवली कालपर्यंत अनन्तानुबन्धी का उदय युक्ति यह है कि, औदयिक भावों के २१ भेदों नहीं आता है। उपशम और क्षायिक सम्यक्त्व में चार में मिथ्यादर्शन और असंयत ये दोनों भी औदयिक भाव | स्थान नहीं होते। है। जब आप असंयत औदयिक भाव का भंग किए | क्या ऐसी स्थिति में मिथ्यात्व गुणस्थान में भी बिना भी उसके उदय में आंशिक चारित्र की व्यर्थ कल्पना | एक आवली काल तक चारित्र मानते हो? क्या इन दो करते हो, तो फिर आपकी इस मान्यता से ही मिथ्यादर्शन बाधाओं का समाधान आपके पास है? नहीं है तो, अपनी का व्यय किए बिना ही उसके उदय में भी आंशिक | दृष्टि को सुधारने का पुरुषार्थ करने में ही लाभ है। सम्यग्दर्शन मानने में क्या बाधा है? क्या कोई युक्ति या | यदि नहीं सुधार सकते हो, तो दूसरों को आगम के आगम है आपके पास? कोई समाधान आपको जीवनभर प्रतिकूल उपदेश देने का प्रयास न करें, तो स्वपर हित में भी मिल पाएगा क्या? एक ही समाधान है, अविरत | होगा। देखिए परीक्षामुख ग्रन्थ का तृतीय परिच्छेद सूत्र अवस्था में अचारित्र के अलावा कोई पर्याय नहीं। असत्य | नं. ११ और १२। हेतु और अविनाभाव का लक्षण कहा की भी कोई मर्यादा है कि नहीं? यहाँ कोई पाठक सहजभाव | है 10 फरवरी 2009 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524336
Book TitleJinabhashita 2009 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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