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है। गृहस्थावस्था में तीर्थंकरप्रकृति की सत्तावालों के पास । आत्मस्वरूप को जानता है, वही कल्याण को जाननेवाला आठ वर्ष तक चारित्र नहीं होता, क्योंकि वे स्वर्ग अथवा | होता है। . नरक से आते समय, सम्यग्दर्शन के साथ आते हैं, चारित्र | इस श्लोक में पाप को वैरी कहा, लेकिन पुण्य के साथ नहीं। देखिये महापुराण पर्व नं. ५३, श्लोक को बन्धु नहीं कहा, धर्म को बन्धु कहा है। धर्म कौन नं. ३५
सा? तो जो इसी ग्रन्थ में श्लोक नं. ३ में कहा हुआ स्वायुराद्यष्टवर्ष सर्वेषां परतो भवेत्।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र, यह धर्म है। उदिताष्टकषायाणां तीर्थेशां देशसंयमः॥ ३५॥ | स्वामी समन्तभद्र जी महान् तत्त्ववेत्ता थे। इसलिए उन्होंने
अर्थ-जिनके प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन सम्बन्धी | पुण्य को वैरी भी नहीं कहा और बन्धु भी नहीं कहा। आठ कषायों का उदय रहता है, ऐसे सभी तीर्थंकरों | उनके वचन हम सभी को प्रमाण हैं। ऐसे वचन का के अपनी आयु के आठ वर्ष के बाद देशसंयम हो जाता | उल्लंघन करना, हमारे लिए संसार के भ्रमण का ही
कारण होगा। यह उनके १४८ नं० के श्लोक का विश्वास इससे यह स्पष्ट होता है कि अप्रत्याख्यान के ही आठ कर्मो की उत्तर प्रकृतियाँ, जो १४८ हैं, उसके उदयाभाव के बिना देशसंयम उत्पन्न नहीं होता। यह | नाशका कारण है, ऐसा मैं मानता हूँ। आप सभी से त्रैकालिक सत्य है कि पाँच पापों के पूर्ण रूप या एकदेश | मेरा कहना इतना ही है कि मेरे लेख में पूर्वाचार्यों के त्याग के बिना संयम और देशसंयमरूप निर्मल भाव आत्मा प्रमाण ग्रन्थों के प्रतिकूल या युक्ति से बाह्य कोई कथन में प्रकट नहीं होते। गोम्मटसार कर्मकाण्ड के द्वितीय हो, तो आप हमें अवगत करायें या स्वयं प्रत्यक्ष भी बन्धोदयसत्वाधिकार का कथन भी यहाँ अत्यंत उपयुक्त आकर बतायें, तो हम कभी भी सुधार के लिए सहर्ष और प्रासंगिक है
तैयार हैं। हाँ, यदि लेखका कथन निर्दोष है, तो आप चत्तारिवि खेत्ताई आउगबंधेण होइ सम्मत्तं। भी इसे सहर्ष स्वीकार करें, यही शुभ भावना है। हाँ, अणवदमहव्वदाई ण लहइ देवाउगं मोत्तुं ॥ ३३४॥ | मेरा कोई आग्रह नहीं है। हर भव्यात्मा स्वतन्त्र है। मेरा __अर्थ- चारों ही गतियों में किसी आयु का बन्ध | इसमें लिखना मात्र ही है, बाकी सब पूर्वाचार्यों का और होने पर सम्यक्त्व हो सकता है, किन्तु देवायु के बिना गुरुवर का ही है। इसलिए आप भी स्वात्मोपलब्धि के अन्य तीनों आयु का बन्ध करेनवाला अणुव्रत-महाव्रत इच्छुक होने से इस कथन से सहमत होंगे, ऐसा मेरा धारण नहीं कर सकता।
| विश्वास है। सम्यग्दर्शन को बनाये रखना और परिणामों आचार्य पूज्यपाद ने योगी भक्ति में कहा है- योगी | को निर्मल बनाना ही सबसे बडी तपस्या है। क्योंकि निरन्तर भयभीत रहते हैं, लेकिन किससे? अपना नरक सम्यग्दर्शन कर्णधार है। में पतन न हो इससे हमेशा भयभीत रहते हैं। असह्य किसी भी आचार्यप्रणीत प्रामाणिक ग्रन्थ में चारित्र वेदनायुक्त घोर नरकों में गिरने के दु:खों से जिनकी बुद्धि का उल्लेख अविरत गुणस्थान में किसी ने भी नहीं किया अत्यंत पीड़ित है, तथा जिनके हृदय में हेय-उपादेय का | है। जीवकाण्ड की गाथा नं. २९ के अनुसार स्वयं अपने विवेक जागृत हो रहा है। संसार को बिजली के समान | जिनोपदेश की श्रद्धा की परीक्षा करें। वर्तमान के कुछ क्षणभंगुर मानते हैं। इसी प्रकार सब भव्यात्माओं की भावना | लोग अनन्तानुबन्धी कषाय के अभाव में चारित्र कुछ होनी चाहिए, क्योंकि पाप से डरे बिना संसार से छूटना | न कुछ होना चाहिए, ऐसी आगम विपरीत मान्यता बनाए सम्भव नहीं। स्वामी समन्तभद्र जी, जो महान् जिनशासन | हए हैं और युक्ति अथवा हेतु यह देते हैं, अविरत सम्यग्दृष्टि के प्रभावक आचार्य हुए हैं, करुणा से अपनी कृति | का चारित्र मिथ्यादृष्टि के समान मिथ्या तो हो नहीं सकता, रत्नकरण्ड-श्रावकाचार में लिखते हैं
इसलिए सम्यक्चारित्र होना चाहिए। यह उनकी अपनी पापमरातिर्धर्मो बन्धुर्जीवस्य चेति निश्चिन्वन्। स्वयं की मान्यता है, जो निराधार कल्पना है। धैर्य के समयं यदि जानीते श्रेयोज्ञाता धुवं भवति॥१४८॥ | साथ समझने की भावना रखें। आगम में पात्र के सुपात्र,
अर्थ- पाप इस जीव का वैरी है, धर्म बन्धु है, | कपात्र और अपात्र ये मुल तीन भेद किये हैं। अपात्र ऐसा दृढ निश्चय करता हुआ, जो अपने समय अर्थात् | में आप सुपात्र और कुपात्र यह भेद नहीं कर सकते।
- फरवरी 2009 जिनभाषित १
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