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________________ तपश्चरण करते हुए रत्नत्रय की आराधना करनेवाले सच्चे। सुत्तादो तं सम्मं दरिसिजंतं जदा ण सद्दहदि। वीतरागी आराधक इस वसुन्धरा पर विचरण करते हुए सो चेव हवइ मिच्छाइट्ठी जीवो तदो पहुडि॥ २८ ॥ पाए जाते हैं, यह हमारा परम सौभाग्य है। उनका सान्निध्य जीवकाण्ड पाकर हम भी अपने जीवन को कृतार्थ करें। स्वयं भी अर्थ-सूत्र में समीचीन रूप से दिखलाये गये, उन जैसे बनने की भावना हमेशा भाते रहें और साथ- | उस अर्थ का जब यह जीव श्रद्धान नहीं करता है, उस साथ उसकी प्राप्ति के हेतु योग्य पुरुषार्थ भी करते रहें, समय से यह जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है। असंयत जब तक क्षपक श्रेणी में हमारा आरोहण नहीं होता, तब | गुणस्थान में चारित्र माननेवाले स्वयं इस गाथा का चिन्तन तक सच्चे देव, शास्त्र और गुरु की शरण मिले यही | प्रतिदिन करें और अपने आग्रह को छोड़कर सच्चा श्रद्धान भावना है। करें, यह शुभ कामना है। अविरत सम्यग्दृष्टि का स्वरूप जीवकाण्ड में इस णो इंदिएसुविरदो णो जीवे थावरे तसे वापि। प्रकार कहा गया है जो सद्दहदि जिणुत्तं सम्माइट्ठी अविरदो सो ॥ २९ ॥ सम्माइट्ठी जीवो उवइटुं पवयणं तु सद्दहदि। अर्थ- जो इन्द्रियों के विषयों से विरक्त नहीं है सद्दहदि असब्भावं अजाणमाणो गुरुणियोगा॥ २७॥ | तथा त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा से भी विरतिरहित है, अर्थ-सम्यग्दृष्टि जीव उपदिष्ट प्रवचन का नियम किन्तु जिसकी जिनेन्द्र के उपदेश पर श्रद्धा है, वह जीव से श्रद्धान करता है तथा स्वयं न जानता हुआ, गुरु के अविरतसम्यग्दृष्टि है। नियोग से असद्भूत अर्थ का भी श्रद्धान करता है। 'सद्दहदि अब सोचिए, जिस जीव के पास १२ प्रकार की असब्भावं' ऐसा कहने से सम्यग्दृष्टि जीव गुरुवचन को | अविरति विद्यमान है, उसके पास कौनसा चारित्र हो सकता ही प्रमाण करके, स्वयं नहीं जानते हुए असद्भूत अर्थ | है? वह तो अचारित्री ही है। का भी श्रद्धान करता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य । सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान, इन दो का अविनाभाव | है। इनके साथ सम्यक्चारित्र हो भी सकता है और नहीं इस गाथासूत्र में आज्ञा सम्यक्त्व का लक्षण कहा | भी हो सकता, ऐसा आगम ग्रन्थों में स्पष्ट उल्लेख है। गया है। भावपाहुड़ गाथा नं० १२२, रत्नकरण्ड श्रावकाचार | तत्वार्थवार्तिक ग्रन्थ में आचार्य अकलंकदेव प्रथम अध्याय श्लोक नं० १३७ में और पंचगुरुभक्ति में तीनों जगह, | के प्रथम सूत्र की व्याख्या में लिखते हैंपंचपरमेष्ठी को ही मोक्षमार्ग में गुरु कहा है। रत्नकरण्ड "सम्यग्दर्शनस्य सम्यग्ज्ञानस्य वा अन्यतरस्वात्मलाभे श्रावकाचार श्लोक नं० ४ में कहा गया है की परमार्थभूत | चारित्रमुत्तरं भजनीयं।" आप्त, आगम और तपोभृत् अर्थात् गुरु पर तीन मूढ़ता अर्थ- सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान, इन दोनों में से रहित, आठ अंगों से सहित, आठ मदों से रहित | एक का आत्मलाभ होते, उत्तर जो चारित्र है वह भजनीय श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। वर्तमान में जिस व्यक्ति का | सच्चे आचार्य, उपाध्याय व साधु के प्रति श्रद्धान व भक्ति उत्तरपुराण में भी लिखा हैनहीं है, वह स्वयं ही अपने सम्यग्दर्शन के बारे में परीक्षा समेतमेव सम्यक्त्वज्ञानाभ्यां चरितं मतम्। करे। स्यातां विनापि ते तेन गुणस्थान चतुर्थके।। ७४-५४३॥ शंका-अज्ञानवश असद्भत अर्थ को स्वीकार अर्थ- सम्यक्चारित्र तो सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानकरनेवाला जीव सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है? सहित होता है, किन्तु चतुर्थ गुणस्थान में सम्यग्दर्शन और समाधान-यह परमागम का ही उपदेश है, ऐसा | सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र के बिना होते हैं। निश्चय होने से उस प्रकार स्वीकार करनेवाले उस जीव सकलसंयम एवं देशसंयम के धारक समाधि-मरण को परमार्थ का ज्ञान नहीं होने पर भी उसकी सम्यग्दृष्टि | के बाद जब देवगति में जन्म लेते हैं, तो वहाँ सभी पने से च्युति नहीं होती। यही बात कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा | सम्यग्दृष्टियों का चौथा गुणस्थान ही होता है, क्योंकि नं० ३२४ में है। संयम अथवा संयमासंयम गुणस्थान का देवगति में कभी भी सद्भाव पाया ही नहीं जाता, ऐसा सिद्धान्त वचन 8 फरवरी 2009 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524336
Book TitleJinabhashita 2009 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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