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अविरतसम्यग्दृष्टि का स्वरूप
मुनि श्री विनीतसागर जी
आचार्य श्री विद्यासागर जी के शिष्य गुरुवर के वचन प्रत्यक्ष नहीं, लेकिन परोक्षरूप । अर्थ- जो उत्तम गुणों को ग्रहण करने में तत्पर से मेरे पास पहुँचे, क्योंकि उस समय मैं गुरुचरणों में | रहता है, उत्तम साधुओं की विनय करता है, साधर्मियों नहीं था, लेकिन गुरुवर के आशीर्वाद से गुरुकुल को | के प्रति अनुराग रखता है, वह उकृष्ट सम्यग्दृष्टि है। छोड़ अन्यत्र विहार कर रहा था। उनके वचन हैं 'सहजता | णिज्जिय-दोसं देवं सव्व-जीवाणं दयावरं धम्म।
और सरलता, सुन्दरता से भी ज्यादा आकर्षक होती | | वज्जिय-गंथं च गुरुं जो मण्णदि सो हु सद्दिट्ठि॥ ३१७॥ है।' सहजता का अर्थ-जिसमें किसी भी प्रकार की अर्थ-जो दोषरहित वीतराग अरिहन्त को देव मानता कृत्रिम दिखावट न हो और सरलता का अर्थ- जिसमें है, सब जीवों पर दया को उकृष्ट धर्म मानता है और किसी भी प्रकार की टकराहट न हो। ये दोनों चित्त | परिग्रह के त्यागी को गुरु मानता है, वह सम्यग्दृष्टि है। की निर्मल वृत्तियाँ हैं। सुन्दरता तो शरीर के आश्रित बाहरी | ये तीनों गाथायें कार्तिकेयानुप्रेक्षा ग्रन्थ की हैं। इसी पुद्गल की दिखावट मात्र है। बस, पाठकगण इस गुरुवर | ग्रन्थ की अन्तरात्मा का वर्णन करनेवाली दो गाथायें है, के वचन को अपने हृदय में धारण करके ही इस लेख | जो प्रासंगिक एवं उपयुक्त हैं। का वाचन करें और इतना ही नहीं तो जीवन को सफल | जे जिण-वयणे कुसला भेयं जाणंति जीव-देहाणं। और उन्नत बनाने हेतु और तत्त्वनिर्णय के लिए हमेशा ___णिज्जिय-टुट्ठट्ठ-मया अंतरप्या य ते तिविहा॥ १९४।। ही हमारी मन, वचन, काय की क्रियायें, सहज और अर्थ-जो जीव जिनवचन में कुशल हैं, जीव और सरल हों तो कहना ही क्या? हमारा जीवन धन्य और | देह के भेद को जानते हैं, तथा जिन्होंने आठ दुष्ट मदों मंगलमय होगा इसी विश्वास के साथ सर्व प्रथम | को जीत लिया है, वे अन्तरात्मा हैं। वे तीन प्रकार के सम्यग्दर्शन का स्वरूप केवल एक गाथा के माध्यम से | हैं। विचार किया जाता है, जो दर्शनपाहुड में लिपिबद्ध है- | अविरय-सम्मादिट्ठी होति जहण्णा जिणिंद-पय-भत्ता।
जं सक्कड़ तं कीरइ जं च ण सक्केइ तं च सद्दहणं।। अप्पाणं णिंदंता गुण-गहणे सुठु अणुरत्ता॥ १९७॥ केवलिजिणेहिं भणियं सद्दहमाणस्स सम्मतं ॥ २२॥ अर्थ-अविरत सम्यग्दृष्टि जघन्य अन्तरात्मा हैं।
अर्थ-जो कार्य किया जा सकता है वह किया | वे जिन-भगवान् के चरणों के भक्त होते हैं, अपनी निन्दा जाता है और जिसका किया जाना शक्य नहीं है, उसका | करते रहते हैं और गुणों को ग्रहण करने में अतिशय श्रद्धान करना चाहिये। केवलज्ञानी जिनेन्द्र भगवान् ने | अनुरागी होते हैं। श्रद्धान करनेवाले पुरुष को सम्यग्दर्शन कहा है। . इस गाथा की टीका में आचार्य शभचन्द्र जी लिखते
__इस लेख में जो प्रतिपादन किया जाना है, वह | हैंतो आगे कथन करेंगे। उसके पूर्व, सम्यग्दृष्टि, का भी | गुणगहणे अणुव्रतमहाव्रतादिगुणग्रहणे, सुष्ठु लक्षण जो की मुख्यता से मनुष्यगति की अपेक्षा से और | अतिशयेन अनुरक्ता प्रेमपरिणताः अकृत्रिमस्नेहाः 'गुणिषु गौण रूप से तीनों गतियों में भी पाया जाता है। विवक्षाको | प्रमोदम्' इति वचनात्। समझ सकते हैं।
अर्थ-अणुव्रत, महाव्रत, आदि गुणों को ग्रहण करने जो ण य कुव्वदि गव्वं पुत्त-कलत्ताइ-सव्व-अत्थेसु।। में अत्यन्त अनुरक्त होते हैं, अथवा गुणों के अनुरागी उवसम-भावे भावदि अप्पाणं मुणदि तिण मेत्तं ॥३१३॥ | होने के कारण गुणीजनों के बड़े प्रेमी होते हैं, क्योंकि
सम्यग्दृष्टि पुत्र, स्त्री आदि समस्त पदार्थों | 'गुणीजनों को देखकर प्रमदित होना चाहिये' ऐसा वचन में गर्व नहीं करता, उपशम भाव को भाता है और अपने | है। ऐसा सम्यग्दृष्टिका लक्षण कहा है। और भी आगमको तृण समान मानता है।
ग्रन्थों में ऐसे ही पूर्वाचार्यों के कथन हमको पढ़ने को उत्तम-गुण-गहण-रओ उत्तम-साहूण विणय संजुत्तो। मिलते हैं। वर्तमान में भी पूर्वाचार्यों के वचनों पर श्रद्धा साहम्मिय-अणुराई सो सद्दिट्ठी हवे परमो॥ ३१५॥ | रखते हुए अपने जीवन को उन्नत बनाने हेतु यथाशक्ति
- फरवरी 2009 जिनभाषित 7
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