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________________ जिज्ञासा-समाधान पं० रतनलाल बैनाड़ा प्रश्नकर्ता- रतनलाल जी गंगवाल, जयपुर। अर्थ- बादर, सूक्ष्य, पर्याप्तक और अपर्याप्तक जिज्ञासा- एक बार उपशम सम्यक्त्व होने पर | वनस्पतिकायिक निगोदजीव कितने क्षेत्र में रहते हैं? अधिक से अधिक कितने भव में मुक्त हो सकेगा? क्या सर्वलोक में रहते हैं। वह कभी नारकी, स्त्री, नपुंसक नहीं बनेगा? भावार्थ- सूक्ष्म निगोदिया वनस्पतिकायिक जीव समाधान- श्री धवला पु.४ पृ. ३३५ पर इस प्रकार | तो पूरे लोक में भरे हुये हैं। ये जीव तो सिद्धालय में कहा है 'एक अनादि मिथ्यादृष्टि अपरीत संसारी (जिसके | भी भरे हये हैं, परंतु बादर निगोदियाजीव क्षेत्र की अपेक्षा संसार का काल न हो, अथवा अंत न हो) जीव, | त्रसजीवों के औदारिक शरीर में, सप्रतिष्ठित प्रत्येक अधःप्रवृत्त-करण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण इन तीन वनस्पति में तथा आठों पृथ्वियों के आश्रय से रहते हैं। करणों को करके सम्यक्त्व ग्रहण के प्रथम समय में | पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक ही सम्यक्त्व गुण के द्वारा पूर्ववर्ती अंतरहित संसार को इन चारों स्थावरों के शरीर में, आहारक शरीर में, केवलियों छेदकर परीत (अंतसहित) संसारी हो अधिक से अधिक के शरीर में तथा देव और नारकियों के वैक्रियिक शरीर अर्द्धपुद्गलपरिवर्तन काल तक संसार में रहता है।' | में नहीं पाये जाते हैं। भावार्थ- एक बार सम्यग्दर्शन हो जाने के बाद | प्रश्नकर्ता- श्री नितिन बसंतराव, बसमत। अधिक से अधिक अर्द्धपदगलपरिवर्तन काल तक जीव जिज्ञासा- क्या केशलोच के समय मुनिराज शिर, संसार में रहता है। इससे पूर्व भी मोक्ष प्राप्त कर सकता | दाडी एवं मूंछ के अलावा अन्य स्थान के बाल भी है। जघन्य से एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव, अपनी आयु | नोंच सकते हैं या नहीं? के अंतिम अंतर्मुहूर्त में उपशम सम्यक्त्व प्राप्त कर फिर समाधान- केशलोच के संबंध में श्री मूलाचार क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि हो, तदुपरांत क्षायिकसम्यक्त्व गाथा २९ में इस प्रकार कहा हैप्राप्त कर क्षपक श्रेणी मांडकर मोक्ष भी प्राप्त कर सकता। वियतियचउक्कमासे लोचो उक्कस्समज्झिमजहण्णो। है। यहाँ उत्कृष्ट काल जो अर्द्धपुद्गलपरिवर्तन कहा है, सपडिक्कमणे दिवसे उववासेणेव कायव्वो। वह भी अनंतकाल है। उसमें यह जीव चारों गतियों अर्थ- प्रतिक्रमण सहित दिवस में, दो, तीन, चार में भ्रमण करता हुआ अनंत पर्यायों को धारण कर सकता | मास में उत्तम, मध्यम, जघन्यरूप से केशलोच उपवासहै। आपका यह लिखना ठीक है कि सम्यग्दृष्टि जीव | पूर्वक ही करना चाहिए। को नारकी, स्त्री, नपुंसक की पर्याय नहीं मिलती, परंतु इसकी टीका में आ० वसुनंदि ने इस प्रकार कहा हैइसका तात्पर्य यह है कि सम्यक्त्वसहित जीव मरणकर हस्तेन मस्तककेशश्मश्रूणामपनयनं जीवसम्मूर्च्छनारकी (सम्यक्त्व से पूर्व नरकायु न बाँधी हो तो), स्त्री | नादिपरिहारार्थं रागादिनिराकरणार्थं स्ववीर्य-प्रकटनार्थं नपुंसक आदि पर्यायों में जन्म नहीं लेता है। परंतु उपर्युक्त सर्वोत्कृष्ट-तपश्चरणार्थं लिगादिगुणज्ञापनार्थं चेति। अर्द्धपुद्गलपरिवर्तन काल में सम्यग्दर्शन छूटने के बाद । अर्थ- सम्मूर्च्छनादि जीवों के परिहार के अर्थात् वह किसी भी पर्याय में जन्म ले सकता है अर्थात् नारकी, | नँ आदि उत्पन्न न हो जावें इसलिए, शरीर से रागभाव स्त्री, नपुंसक बन सकता है। आदि को दूर करने के लिए, अपनी शक्ति को प्रकट प्रश्नकर्ता- पं० विनीत शास्त्री 'कैलगुवां'। । करने के लिए, सर्वोत्कृष्ट तपश्चरण के लिए और निर्ग्रन्थ जिज्ञासा- क्या बादर एवं सूक्ष्म निगोदिया जीव | मुद्रा आदि के गुणों को बतलाने के लिए, हाथ से मस्तक सारे लोक में भरे हैं? तथा दाड़ी, मूंछों के केशों का उखाड़ना लोच कहलाता समाधान-श्री धवला पु.४ पृ.१०० सूत्र २५ में | है। इस प्रकार कहा है 'वणप्फदि-काइय णिगोद-जीवा श्री भगवती आराधना गाथा ८९ में इस प्रकार कहा बादरा सूहमा-पज्जत्तापज्जता केवडि खेत्ते? सव्वलोगे॥ २५ ॥ । प्रादक्षिणावर्तः केशश्मश्रूविषयः हस्ताङ्गुलीभिरेव - फरवरी 2009 जिनभाषित 29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524336
Book TitleJinabhashita 2009 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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