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सम्पादकीय
नवरात्रोत्सव जैन परम्परा में मान्य नहीं
भारतीय संस्कृति में वैदिक एवं श्रमण ये दोनों संस्कृतियाँ अपना प्रमुख स्थान रखती हैं। इन दोनों संस्कृतियों में कुछ विशिष्ट पर्व / त्यौहार एवं उत्सव अपना-अपना विशेष महत्त्व रखते हैं । वैदिक संस्कृति के प्रमुख उत्सवों में नवरात्रोत्सव भी प्रमुख महत्त्व रखता है।
वर्तमान में कुछ वर्षों से देखा जा रहा है कि कतिपय दिगम्बर जैन साधु एवं शास्त्रीय परम्पराओं से अनभिज्ञ विधानाचार्य भोले-भाले श्रावकों को 'आश्विन शुक्ला एकम से आश्विन शुक्ला नवमी' तक नवरात्रोत्सव मनाने के लिए प्रेरित करने लगे हैं। उससे पहले जैनधर्मावलम्बियों के द्वारा नवरात्रि महोत्सव कभी नहीं मनाया जाता था। जैनेतरों में भी वैदिक धर्मावलम्बियों के अलावा अन्य किसी भी सम्प्रदाय में लोग नवरात्रि नहीं मनाते हैं। नवरात्रि महोत्सव के सम्बन्ध में विभिन्न जैन पत्र-पत्रिकाओं में कुछ लेख भी दृष्टिगोचर हुए हैं अतः यह आवश्यक समझा गया कि नवरात्रि महोत्सव के विषय में दिगम्बर जैन शास्त्रों के अनुसार आगमदृष्टि को समाज के सामने रखा जाये, ताकि सभी को ज्ञात हो सके कि दिगम्बर जैन धर्म में नवरात्रि महोत्सव मनाने के सम्बन्ध में आचार्यों ने कहीं कुछ लिखा भी है या नहीं। इसी आशय को स्पष्ट करना हमारे इस लेख का सदभिप्राय है ।
मुझे इसके लिखने का भाव तब आया, जब मैंने एक दिगम्बर जैन विद्वान् द्वारा एक जैन पत्रिका में यह लिखा हुआ पड़ा कि नवरात्रोत्सव वैदिक परम्परा का नहीं, अपितु जैन परम्परा का है क्योंकि वैदिक परम्परा में कहीं भी इस उत्सव का वर्णन नहीं मिलता, अपितु यह जैन परम्परा की देन है । ' जब इस परम्परा के मनाने के शास्त्रीय प्रमाण खोजे, तो जैन परम्परा में मनाने का कोई भी प्रमाण नहीं मिला। बल्कि जिस प्रमाण के सहारे उक्त जैन विद्वान् ने यह महोत्सव जैन परम्परा का सिद्ध करना चाहा, तो वह भरतेश - वैभव ग्रन्थ रेखांकित किया जो अप्रामाणिक एवं अग्राह्य है। इस ग्रन्थ के विषय में पृथक् से लेख दिया जायेगा । अभी प्रस्तुत आलेख में वैदिक परम्परा में नवरात्रोत्सव कब से मनाया जा रहा है और कब-कब मनाया जाता है, इसके शास्त्रीय प्रमाण प्रस्तुत कर, सिद्ध करना है कि नवरात्रोत्सव मनाने की परम्परा वैदिक संस्कृति की परम्परा है, श्रमण संस्कृति में यह परम्परा आगमानुकूल नहीं है।
चैत्र
वैदिक परम्परा में यह महोत्सव वर्ष में दो बार मनाया जाता है। प्रथम तो चैत्र शुक्ला एकम से शुक्ला नवमी तक तथा दूसरा आश्विन शुक्ला एकम से आश्विन शुक्ला नवमी तक मनाया जाता है। महर्षि वेदव्यास ने श्रीमद् भागवतपुराण में लिखा है कि
शुणु राजन्! प्रवक्ष्यामि नवरात्रव्रतं शुभम् । शरत्काले विशेषेण कर्त्तव्यं विधिपूर्वकम् ॥
(श्रीमद्देवी भागवत पुराण, तृतीय स्कंध, अ. २६ प्रकाशक- गीता प्रेस, गोरखपुर, द्वितीय संस्करण, पृष्ठ १४५) हे राजन्! सुनो मैं पवित्र नवरात्रि व्रत को कहता हूँ, जो विशेषरूप से शरत्काल में विधिपूर्वक करने योग्य है।
तस्मात्तत्र प्रकर्त्तव्यं चण्डिका पूजनं बुधैः । चैत्राश्विने शुभे मासे, भक्तिपूर्वं नराधिप ॥
अर्थ - हे राजन् ! इसलिये चैत्र तथा आश्विन इन दो शुभ महिनों में ज्ञानियों के द्वारा भक्तिपूर्वक चण्डिका देवी की पूजा करने योग्य है।
उन्होंने इस ग्रंथ में बहुत विस्तार से कहा है कि प्रत्येक दिन किस देवी की पूजा, किस प्रकार, किस विधि से करने योग्य है । वस्तुतः वैदिक संस्कृति / साहित्य में नवरात्रि महोत्सव मनाने का यह वर्तमान
फरवरी 2009 जिनभाषित
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