Book Title: Jinabhashita 2007 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभाषित वीर निर्वाण सं. 2534 । भगवान् पार्श्वनाथ : हाडवल्ली (कर्नाटक) मार्गशीर्ष, वि.सं. 2064 दिसम्बर, 2007 • मूल्य 15/. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री विद्यासागर जी के दोहे 19 भूल नहीं पर भूलना, शिव-पथ में वरदान। नदी भूल गिरि को करे, सागर का संधान॥ 20 प्रभु दिखते तब और ना, और समय संसार। रवि दिखता तो एक ही, चन्द्र साथ परिवार ॥ 21 सुर-पुर भी नीरस रहा, रस का नहीं सवाल। क्षार रसातल और हैं, देती 'रसा' रसाल॥ 22 रसाल सुरभित सूंघ, छू रस का हो अनुमान। विषय-संग बिन सन्त में, विरागता को मान॥ 23 प्रभु को लख हम जागते, वरना सोते घोर। सूर्योदय प्रभु आप हैं, चन्द्रोदय हैं और॥ 28 भाँति-भाँति की भ्रान्तियाँ, तरह-तरह की चाल। नाना नारद-नीतियाँ, ले जातीं पाताल ॥ 29 लोकतन्त्र का भेष है, लोभ-तन्त्र ही शेष। देश-भक्त क्या देश में, कहीं हुए निश्शेष? ॥ 30 सत्ता का ना साथ दो, सदा सत्य के साथ। बिना सत्य सत्ता सुनो, दे न सम्पदा साथ ॥ 31 अनाथ नर हो धर्म बिन, धर्म-धार हो नाथ। पुजता उगता सूर्य ही, नहीं डूबता भ्रात! | 32 24 कार्य देखकर हो हमें, कारण का अनुमान। दिशा दिशान्तर में दिखा, सूर्य तभी गतिमान॥ 25 अनुभव ना शिव-पंथ में, आतम का अविकार।। लवण मिला जल शुचि दिखे, किन्तु स्वाद तो खार॥ मानी में क्षमता कहाँ?, मिला सके गुणमेल। पानी में क्षमता कहाँ?, मिला सके घृत, तैल॥ 33 घूघट ना हो राग का, मरघट जब लौं होय। जमघट, पनघट पर रहे, पर ना दल-दल होय॥ 34 ठोकर खा-खा फिर रहा, दर-दर दूर दरार। स्व-पर दया कर, दान कर, कहते दीन-दयाल॥ 35 यकीन किन-किन पर करो, किन-किन के हो दास। उदास क्यों हो? एक ही, उपास्य के दो पास ॥ 36 दूर, सहज में डूब हो, दूर रहे सब धूल। आगत तो अभिभूत हो, और भूत हो भूल॥ 26 वतन दिखे ना प्रभु उन्हें, धनान्ध मन-आधीन। उल्लू को रवि कब दिखा, दिवान्ध दिन में दीन॥ 27 विषय-वित्त के वश हुए, ना पाते शिव-सार। फँसे कीच क्या? चल सके, शिर पर भारी भार॥ 'सूर्योदयशतक' से साभार Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि. नं. UPHIN/2006/16750 दिसम्बर 2007 सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन कार्यालय ए/2, मानसरोवर, शाहपुरा भोपाल- 462039 (म.प्र.) फोन नं. 0755-2424666 सहयोगी सम्पादक पं. मूलचन्द्र लुहाड़िया, मदनगंज किशनगढ़ पं. रतनलाल बैनाड़ा, आगरा डॉ. शीतलचन्द्र जैन, जयपुर डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत प्रो. वृषभ प्रसाद जैन, लखनऊ डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती', बुरहानपुर शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कँवरलाल पाटनी (मे. आर. के. मार्बल) किशनगढ़ (राज.) श्री गणेश कुमार राणा, जयपुर प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) फोन : 0562-2851428, 2852278 सदस्यता शुल्क 5,00,000रु. 51,000रु. 5,000रु. शिरोमणि संरक्षक परम संरक्षक संरक्षक आजीवन वार्षिक 1100 रु. 150 रु. एक प्रति 15 रु. सदस्यता शुल्क प्रकाशक को भेजें। मासिक जिनभाषित • लेख आचार्य श्री विद्यासागर जी के दोहे • बारह भावना : मुनि श्री सुव्रतसागर जी ● मुनि श्री क्षमासागर जी की कविताएँ • सम्पादकीय : पंचकल्याणकों के आध्यात्मिक स्वरूप की आवश्यकता • सम्यग्दर्शन : श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी • दिव्यध्वनि की दिव्यता : मुनिश्री प्रणम्यसागर जी • महावीर का अहिंसाव्रत : आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी • ख्यातिवाद : प्रमेयकमलमार्त्तण्ड के प्रकाश में : डॉ० वीरसागर जैन • जरा सोचिए गाय के बारे में • कविता अन्तस्तत्त्व • दिन पहाड़ से • जिज्ञासा समाधान ● कथा • भगवान् पार्श्वनाथ : श्रीमती मेनका गाँधी • बिस्किट और दिग्भ्रमित ग्राहक : श्री आदिनाथ युवक संगठन, फलटण • बुन्देलखण्ड का जैन कला-वैभव : श्री राकेश दत्त त्रिवेदी • ग्रन्थ समीक्षा वर्ष 6, समाचार • 'ऐक्यूप्रेसर फुट रिफलेक्सोलॉजी' : मनोज जैन 'मधुर' : पं. रतनलाल बैनाड़ा : मुनि श्री समतासागर जी लेखक के विचारों से सम्पादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है। 'जिनभाषित' से सम्बन्धित समस्त विवादों के लिये न्यायक्षेत्र भोपाल ही मान्य होगा । अङ्क 12 पृष्ठ आ. पृ. 2 आ. पृ. 3 आ. पृ. 4 2 461 11 13 16 18 19 223 12 24 26 27 29-32 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय पंचकल्याणकों के आध्यात्मिक स्वरूप की आवश्यकता वर्षायोग की समाप्ति के पश्चात् अब समाज में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सवों का शुभारंभ हो गया है। लगभग शताधिक पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव जून 2008 तक होने की संभावना है। जब हम उत्सव को अच्छाई की दृष्टि से देखते हैं, तो महोत्सव के प्रति उज्ज्वलता का भाव होता ही है। अतः पंचकल्याणक प्रतिष्ठा समारोहों के आयोजन हम सबके लिए मंगलकारी हों, ऐसी हम कामना करते हैं। तीर्थंकर के पंचकल्याणक हैं- गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और मोक्ष ये सब जीवों के लिए कल्याणकारी होते हैं, अतः इनका कल्याणक नाम सार्थक है। आज इन महोत्सवों में लाखों से करोड़ों रुपये तक व्यय होता है और अंत में सब पूछते हैं कि इतने रुपये खर्च करने के बाद उपलब्धि क्या रही? और कुछ लोग जो आयोजन से जुड़े होते हैं, स्वयं को ठगा हुआ सा अनुभव करते हैं। अब दिनदहाड़े किसने ठग लिया? यह कहना मुश्किल परम पूज्य संत शिरोमणि आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज के सान्निध्य में सम्पन्न हुए कुछ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सवों में बची हुई राशि श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ, सिरपुर तथा सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर आदि के लिए प्रेषित की गई थी। यह एक सुखद पहल थी, जिसका सभी को अनुकरण करना चाहिए। कुछ स्थानों पर सीमित लक्ष्यों की पूर्ति, जैसे छात्रवृत्ति कोष, पाठशाला आदि का संचालन या धर्मशाला-निर्माण जैसे कार्य होना भी ज्ञात हुए हैं। इन कार्यों में धन का व्यय होना दान भावना के अनुकूल भी है। लेकिन कहीं-कहीं यह भी देखने में आया है कि संचित दानराशि का दुरुपयोग हुआ है या वह कुछ व्यक्तियों के द्वारा हड़प ली गई है। समाज में आज भी दानराशि के विषय में पारदर्शिता उतनी नहीं है, जितनी होनी चाहिए। आज हमारे अनेक तीर्थक्षेत्र अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। कुछ तीर्थ ऐसे भी है, जो धनाभाव के कारण जर्जर हो रहे हैं। धार्मिक शिक्षावाले विद्यालय मृतप्राय हो रहे हैं। हमारे पास कोई विशाल छात्रवृत्ति है, जो निष्पक्ष भाव से समाज के अभावग्रस्त विद्यार्थियों को उच्च शिक्षा दिला सके। अनेक लोग धनाभाव के कारण उचित चिकित्सा भी नहीं करा पाते हैं। समाज के उपेक्षित वर्ग को मूलधारा में लाने की भी आवश्यकता है। इन सामाजिक आवश्यकताओं के साथ आज जो सबसे बड़ी कमी देखने में आ रही है, वह यह है कि पंचकल्याणक महोत्सव मात्र मनोरंजन के उत्सव बनते जा रहे हैं, जब कि इन्हें आध्यात्मिकता से अनिवार्य रूप से जुड़ा होना चाहिए, क्योंकि जिसमें आत्मा के सर्वोच्च लक्ष्य मोक्ष तक पहुँचाने की प्रक्रिया बताई गई हो, उसे मनोरंजन या हँसी-मजाक का माध्यम बनाना कदापि उचित नहीं कहा जा सकता। हम सब जानते हैं कि भारतीय संस्कृति अध्यात्म की संस्कृति है, जिसके केन्द्र में आत्मा का हित निहित है। बिना आत्मा को केन्द्र में लिए हुए जितनी भी क्रियाएँ है, वे बाह्य ही मानी जायेंगी। हमारी आध्यात्मिक व्यवस्था शरीर और आत्मा के संयोग पर आश्रित है। ___पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सवों में साधुओं की उपस्थिति अनिवार्य होनी चाहिए। क्योंकि सत्संगति के बिना कोई भी पारमार्थिक कार्य पूर्ण नहीं होता, फिर यहाँ तो सूर्यमंत्र देकर मूर्ति को प्रतिष्ठित करना होता है। सत्संगति के पक्षधरों का कथन है कि अज्ञानी और स्नेहीजनों की संगति नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे निम्नगा नदी की तरह होते हैं, जो ऊपर की ओर नहीं ले जाते, बल्कि नीचे की ओर ही ले जाते हैं। जबकि सत्संगति का लक्ष्य ऊपर की ओर जाना होता है। सत्संगति मन को, विचारों को, कार्यों को निर्मल बनाती है, विवेक को जगाती है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है- "बिनु सत्संग विवेक न होई।" दुर्जनों की संगति से विसंगति जन्म लेती है, दुर्गति मिलती है। उनसे यह उम्मीद ही व्यर्थ है कि वे आपका भला करेंगे। एक बार एक चूहा बिल्ली से आतंकित होकर भाग रहा था, तो एक व्यक्ति ने उसे अपने थैले में छिपा लिया। कुछ देर शांति रही, ज्यों ही चूहे को लगा कि खतरा टल गया है, तो वह थैले को काटकर 2 दिसम्बर 2007 जिनभाषित Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग गया। ऐसा होता है दुर्जन की संगति का फल। सत्संगति के प्रभाव में आकर व्यक्ति अपना तन, मन, धन, दान, शील एवं तप में लगाता है, सत्कार्यों को करता है, बुराइयों से बचता है और बुरे लोगों के प्रति माध्यस्थ्य भाव रखता है। सामाजिक कानून एवं धार्मिक मान्यताएँ हमें दुःखों से बचाने के लिए हैं, अतः उनका पालन हमें पंचकल्याणक प्रतिष्ठा जैसे आयोजनों में करना चाहिए। संसार में जन्म, जरा (बुढ़ापा) और मृत्यु को दु:ख इसलिए कहा गया है कि हम तन-मन-वचन के वशीभूत हैं। अगर मनुष्य मन और तन से ऊपर उठकर बिना प्रमाद के स्व-पर-हित में जुट जाये, तो न जन्म दुःखदायी होगा, न बुढ़ापा और न मृत्यु। आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ठीक ही कहते हैं कि "भविष्य की उज्ज्वलता के लिए दूरदर्शन की नहीं, दूरदृष्टि की आवश्यकता है।" जिसके पास दूर दृष्टि होती है, वह लौकिक उपलब्धियों को सुख नहीं मानता, बल्कि उनके आगे जाकर आत्मा के हित का चिन्तन करता है और क्षमा, मदता, सरलता आदि आत्मिक गुणों की आराधना करता है व्यक्ति और समाज आध्यात्मिक मूल्यों के सहारे ही बचते हैं, अतः हमारे लिए यही उपादेय हैं। आध्यात्मिक मूल्य अकेले परमार्थ को ही नहीं सुधारते, अपितु लोकहित में भी कार्यकारी होते हैं। अतः इनकी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा जैसे महत्त्वपूर्ण धार्मिक आयोजनों में अनदेखी नहीं करनी चाहिए। डॉ० सुरेन्द्र कुमार जैन बोध-कथा महत्वाकांक्षी कभी बूढ़ा नहीं होता अल्पदान की महत्ता पंचतंत्र में कहा गया है कि साधारण पुरुषों के पहले बहुत पहले चीन के चांग चू नामक प्रदेश में वहाँ चित्त और बाद में शरीर में बुढ़ापा आता है। लेकिन कर्मशील | के एक महंत ने भगवान् बुद्ध की एक मूर्ति बनवाने के लिए लोगों के शरीर में भले ही आयु के लक्षण आ जाएँ, परन्तु | धन इकट्ठा करने के प्रयोजन से अपने शिष्यों को घर-घर उनके चित्त में कभी बुढ़ापे के लक्षण नहीं आते। । भेजा। आचार्य विनोबा भावे ने भी कहा है कि जिसने किसी इसी प्रक्रिया में एक शिष्य को तिन-नू नाम की एक नई चीज सीखने की आशा को ही छोड़ दिया, वह सच | बालिका मिली। उसके पास एक सिक्का था। श्रद्धावश उसने में बूढ़ा है। अपने सिक्के को दान करना चाहा मगर महंत के शिष्य ने कहते हैं कि एक गाँव में एक दर्जी रहता था। एक सिक्के को अति तुच्छ समझकर लेने से इनकार कर दिया। बार उसकी सुई टूट गई। बाजार गाँव से दूर था और सप्ताह कुछ दिनों के बाद जब काफी मात्रा में धन इकट्ठा में एक ही बार लगता था, अतः दर्जी का काम कई दिनों हो गया, तब मूर्ति निर्माण कार्य आरंभ हुआ, परंतु बारतक रुका रहा। बार के प्रयास के बाद भी मूर्ति सुंदर ढंग से संपूर्ण नहीं जब दर्जी बाजार गया, तो इस बार दो सुईयाँ खरीदकर | हो पा रही थी। इस पर महंत को संदेह हुआ। ले आया और एक सुई को उसने हिफाजत से रख दिया। महंत के आदेशानुसार सभी शिष्यों ने बारी-बारी से संयोग से इस बार उसकी सुई बहुत लम्बे समय तक चली। अपने वृत्तांत सुनाए। अचानक दर्जी को दूसरी सुई का ध्यान आया। उसने | एक के वृत्तांत में तिन-नू का प्रसंग आया। इससे थैले से निकालकर सुई को देखा तो उसमें जंग लग चुकी महंत को झटका लगा। महंत के आदेश से वह शिष्य उस थी और जिस सुई को वह काम में ले रहा था वह नई| बालिका के पास गया और क्षमा माँगते हुए उस सिक्के को और चमकदार थी। सहर्ष ले लिया। यही गति मनुष्य की भी है। वह तब तक बूढ़ा नहीं। कहा जाता है कि धातुओं के घोल में उस सिक्के होता, जब तक उसके जीवन में उत्साह, कर्मशीलता और | को मिला देने पर सहज ही एक सुंदरतम मूर्ति का निर्माण माधुर्य बना रहता है। जब तक उसके जीवन में महत्वाकांक्षा | हो गया। आश्चर्य का विषय है कि अभी भी इस बुद्ध प्रतिमा जिंदा है तब तक कोई भी उम्र उसे बूढ़ा नहीं बना सकती। के हृदयभाग के ठीक ऊपर एक सिक्के जैसा उभार है। -दिसम्बर 2007 जिनभाषित 3 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी सम्यग्दर्शन का अर्थ आत्मलब्धि है। आत्मा के। खली थी। जब वह निर्दोष सीता को जंगल में छोड़ अपने स्वरूप का ठीक-ठीक बोध हो जाना आत्मलब्धि कहलाती अपराध की क्षमा माँग वापिस आने लगता है तब सीता है। आत्मलब्धि के सामने सब सुख धूल हैं। सम्यग्दर्शन जी उससे कहती है- 'सेनापति! मेरा एक सन्देश उनसे आत्मा का महान् गुण है। इसी से आचार्यों ने सबसे पहले | कह देना। वह यह कि जिस प्रकार लोकापवाद के भय उपदेश दिया-'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग'= सम्यग्दर्शन, | से आपने मुझे त्यागा, इस प्रकार लोकापवाद के भय से सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र का समूह मोक्ष का मार्ग है। धर्म को न छोड देना।' आचार्य की करुणा बुद्धि तो देखो, मोक्ष तब हो जब कि उस निराश्रित अपमानित दशा में भी उन्हें इतना पहले बन्ध हो। यहाँ पहले बन्ध का मार्ग बतलाना था फिर | विवेक बना रहा। इसका कारण क्या? उनका सम्यग्दर्शन। मोक्ष का, परन्तु उन्होंने मोक्ष-मार्ग का पहले वर्णन इसीलिए | आज कल की स्त्री होती तो पचास गालियाँ सुनाती और किया है कि ये प्राणी अनादिकाल से बन्धजनित दुःख का | अपनी समानता के अधिकार बतलाती। इतना ही नहीं सीता अनुभव करते-करते घबरा गये हैं, अतः पहले उन्हें मोक्ष | जी जब नारद जी के आयोजन द्वारा कुशलता के साथ का मार्ग बतलाना चाहिये। जैसे कोई कारागार में पड़कर | अयोध्या वापिस आती हैं, एक वीरतापूर्ण युद्ध के बाद दुखी होता है, वह यह नहीं जानना चाहता कि मैं कारागार | पिता-पुत्र का मिलाप होता है, सीताजी लज्जा से भरी हुई में क्यों पड़ा? वह तो यह जानना चाहता है कि मैं इस राजदरबार में पहुँचती हैं, उन्हें देखकर रामचन्द्र जी कह कारागार से कैसे छूटू ? यही सोचकर आचार्य ने पहले उठते हैं-'तुम बिना शपथ दिये, बिना परीक्षा दिये यहाँ मोक्ष का मार्ग बतलाया है। कहाँ?' सम्यग्दर्शन के रहने से विवेकशक्ति सदा जागृत | सीता ने विवेक और धैर्य के साथ उत्तर दियारहती है, वह विपत्ति में पड़ने पर भी कभी न्याय को नहीं | 'मैं समझी थी कि आपका हृदय कोमल है पर क्या कहूँ छोड़ता। रामचन्द्र जी सीता को छुड़ाने के लिये लङ्का गये | आप मेरी जिस प्रकार चाहें शपथ लें।' थे। लङ्का के चारों ओर उनका कटक पड़ा था। हनुमान । रामचन्द्र जी ने कहा- 'अग्नि में कूदकर अपनी आदि ने रामचन्द्र जी को खबर दी कि रावण बहुरूपिणी| सच्चाई की परीक्षा दो।' । विद्या सिद्ध कर रहा है, यदि उसे विद्या सिद्ध हो गई तो बड़े भारी जलते हुए अग्निकुण्ड में सीता जी कूदने फिर वह अजेय हो जायेगा। आज्ञा दीजिये जिससे कि हम | को तैयार हुईं। रामचन्द्र जी लक्ष्मण जी से कहते हैं कि लोग उसकी विद्या की सिद्धि में विघ्न डालें। सीता जल न जाय। रामचन्द्र जी ने कहा- 'हम क्षत्रिय हैं, कोई धर्म लक्ष्मण जी ने कुछ रोषपूर्ण शब्दों में उत्तर दियाकरे और हम उसमें विघ्न डालें, यह हमारा कर्त्तव्य नहीं | 'यह आज्ञा देते समय नहीं सोचा? वह सती हैं, निर्दोष हैं, आज आप उनके अखण्ड शील की महिमा देखिये।' हनुमान ने कहा- 'सीता फिर दुर्लभ हो जायेंगी' उसी समय दो देव केवली की वन्दना से लौट रहे रामचन्द्र जी ने जोरदार शब्दों में उत्तर दिया- 'एक | थे, उनका ध्यान सीताजी का उपसर्ग दूर करने की ओर सीता नहीं सभी कुछ दुर्लभ हो जाय, पर मैं अन्याय करने | गया। सीता जी अग्निकुण्ड में कूद पड़ीं, कूदते ही सारा की आज्ञा नहीं दे सकता।' अग्निकुण्ड जलकुण्ड बन गया! लहलहाता कोमल कमल रामचन्द्र जी में इतना विवेक था, उसका कारण | सीताजी के लिए सिंहासन बन गया। पुष्पवृष्टि के साथ उनका विशुद्ध क्षायिक सम्यग्दर्शन था। 'जय सीते! जय सीते!' के नाद से आकाश गूंज उठा! सीता को तीर्थ-यात्रा के बहाने कृतान्तवक्र सेनापति | उपस्थित प्रजाजन के साथ राजा राम के भी हाथ स्वयं जुड़ जङ्गल में छोडने गया, उसका हृदय वैसा करना चाहता | गये, आँखों से आनन्द के आँस बरस उठे। गदगद कण्ठ था क्या? नहीं, वह स्वामी की आज्ञा की परतन्त्रता से गया | से एकाएक कह उठे- 'धर्म की सदा विजय होती है। था। उस समय कृतान्तवक्र को अपनी पराधीनता काफी शीलव्रत की महिमा अपार है।' 4 दिसम्बर 2007 जिनभाषित Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामचन्द्र जी के अविचारित वचन सुनकर सीता जी । मिथ्यादृष्टि हैं। कषाय के असंख्यात - लोक - प्रमाण स्थान को संसार से वैराग्य हो चुका था, पर 'निःशल्यो व्रती'= व्रती को नि:शल्य होना चाहिये। इसलिए उन्होंने दीक्षा लेने से पहले परीक्षा देना आवश्यक समझा था । परीक्षा में वह पास हो गईं। हैं। उनमें उनका स्वरूप यों ही शिथिल हो जाना प्रशम गुण है । मिथ्यादृष्टि अवस्था के समय इस जीवकी विषयकषाय में जैसी स्वच्छन्द प्रवृत्ति होती है, वैसी सम्यग्दर्शन होने पर नहीं होती । यह दूसरी बात है कि चारित्रमोह के उदय से वह उसे छोड़ नहीं सकता हो, पर प्रवृत्ति में शैथिल्य अवश्य आ जाता है । प्रशम का एक अर्थ यह भी है, जो पूर्व की अपेक्षा अधिक ग्राह्य है- 'सद्यः कृतापराधी जीवों पर भी रोष उत्पन्न नहीं होना' प्रशम कहलाता है । बहुरूपिणी विद्या सिद्ध करते समय रामचन्द्र जी ने रावण पर जो रोष नहीं किया था वह इसका उत्तम उदाहरण है । प्रशम गुण तब तक नहीं हो सकता, जब तक अनन्तानुबन्धी-सम्बन्धी क्रोध विद्यमान है। उसके छूटते ही प्रशम गुण प्रकट हो जाता है। क्रोध ही क्या अनन्तानुबन्धीसम्बन्धी मान माया लोभ-सभी कषाय प्रशमगुण के घातक हैं । रामचन्द्र जी ने उनसे कहा- 'देवि ! घर चलो, अब तक हमारा स्नेह हृदय में था, पर लोक-लाज के कारण आँखों में आ गया है । ' सीताजी ने नीरस स्वर में कहा- 'नाथ ! यह संसार दुःखरूपी वृक्ष की जड़ है अब मैं इसमें न रहूँगी। सच्चा सुख इसके त्याग में ही है । ' रामचन्द्र जी ने बहुत कुछ कहा- 'यदि मैं अपराधी हूँ, तो लक्ष्मण की ओर देखो, यदि यह भी अपराधी है तो अपने बच्चों लव - कुश की ओर देखो और एक बार पुनः घर में प्रवेश करो।' पर सीता जी अपनी दृढ़ता से च्युत नहीं हुईं। उन्होंने उसी समय केश उखाड़ कर रामचन्द्र जी के सामने फेंक दिये और जंगल में जाकर आर्यिका बन गईं। यह सब काम सम्यग्दर्शन का है, यदि उन्हें अपने आत्मबल पर विश्वास न होता, तो वह क्या यह सब कार्य कर सकती थीं? कदापि नहीं ! अब रामचन्द्र जी का विवेक देखिये। जो रामचन्द्र सीता के पीछे पागल हो रहे थे, वृक्षों से पूछते थे कि क्या तुमने मेरी सीता देखी है? वही जब तपश्चर्या में लीन थे सीता के जीव प्रतीन्द्र ने कितने उपसर्ग किए पर वह अपने ध्यान से विचलित नहीं हुये । शुक्लध्यान धारण कर केवली अवस्था को प्राप्त हुए । सम्यग्दर्शन से आत्मा में प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य गुण प्रकट होते हैं, जो सम्यग्दर्शन के अविनाभावी हैं। यदि आप में यह गुण प्रकट हुये हैं, तो समझ लो कि हम सम्यग्दृष्टि हैं। कोई क्या बतलायगा कि तुम सम्यग्दृष्टि हो या मिथ्यादृष्टि । अप्रत्याख्यानावरण कषाय का संस्कार छह माह से ज्यादा नहीं चलता । यदि आपमें किसी से लड़ाई होने पर छह माह से बाद तक बदला लेने की भावना रहती है, तो समझ लो अभी हम संसार और संसार के कारणों से भीत होना ही संवेग है। जिसके संवेग गुण प्रकट हो जाता है वह सदा आत्मा में विकार के कारणभूत पदार्थ से जुदा होने के लिये छटपटाता रहता है। सब जीवों में मैत्री भाव का होना ही अनुकम्पा है । सम्यग्दृष्टि जीव सब जीवों को समान शक्ति का धारी अनुभव करता है। वह जानता है कि संसार में जीव की जो विविध अवस्थाएँ हो रही हैं, उनका कारण कर्म है, इसलिए वह किसी को नीचा- ऊँचा नहीं मानता। वह सबमें समभाव धारण करता है। संसार, संसार के कारण, आत्मा और परमात्मा आदि में आस्तिक्य भाव का होना ही आस्तिक्य गुण है। यह गुण भी सम्यग्दृष्टि में ही प्रकट होता है, इसके बिना पूर्ण स्वतन्त्रता की प्राप्ति के लिये उद्योग कर सकना असम्भव है। ये ऐसे गुण हैं जो सम्यग्दशन के सहचारी हैं और मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबन्धी कषाय के अभाव में होते हैं वर्णी - वाणी १ / ३२८-३३३ अपनी मनोवृत्ति पर नियंत्रण करना ही आत्मानुशासन है । मन पर नियंत्रण इन्द्रिय नियंत्रण का कारण है । इन्द्रियों का नियंत्रण होने पर ही संसारपरिभ्रमण (शांत) वश में हो सकता है। जो मन के आधीन है, वह इन्द्रियाधीन होता हुआ संसार चक्र से छूट नहीं सकता । दिसम्बर 2007 जिनभाषित 5 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्यध्वनि की दिव्यता सभी तीर्थंकरों ने अपनी दिव्यध्वनि से समय-समय | समाधान पर दृष्टिपात करते हैं। शंका- 'केवली की ध्वनि पर इस भव्यलोक को उपदेश देकर मोक्ष का मार्ग प्रशस्त को साक्षर मान लेने पर उनके वचन प्रतिनियत एक भाषा किया है। दिव्यध्वनि के सम्बन्ध में कुछ विद्वान् मनीषी रूप ही होंगे अनेक भाषा रूप नहीं हो सकेंगे?' प्रायः एक मत नहीं देखे जाते हैं। उपलब्ध आगम के परिप्रेक्ष्य में उन्हीं में से कुछ धारणाओं की चर्चा यहाँ करना है । यह तो स्पष्ट है कि केवली भगवान् मनुष्य की तरह नहीं बोलते और न देवों की तरह। उनका उपदेश दिव्यध्वनि के माध्यम से होता है । वह ध्वनि दिव्य है, क्योंकि अन्य ध्वनियों से विलक्षण है । 'वह जिनेन्द्र भगवान् का वचन गंभीर है, मीठा है, अत्यन्त मनोहारी है, दोष रहित है, हितकारी है, कंठ, ओष्ठ आदि वचन के कारणों से रहित है, वायु के रोकने से प्रगट नहीं है, स्पष्ट है, परम उपकारी पदार्थों का कहनेवाला है, सब भाषामयी है, दूरस्थ व निकटस्थ को समान सुनाई देता है, समतारूप है, वह उपमा रहित है, वह वचन हमारी रक्षा करे।" समाधान- नहीं, क्योंकि क्रमविशिष्ट, वर्णात्मक, अनेक पंक्तियों के समुच्चय रूप और अलग-अलग प्रत्येक श्रोता में प्रवृत्त होनेवाली ऐसी केवली की ध्वनि सम्पूर्ण भाषारूप होती है, ऐसा मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है । इस समाधान से निष्कर्ष निकलता है कि केवली भगवान् की दिव्यध्वनि सम्पूर्ण भाषा रूप होती है, क्रम से प्रवृत्त होती है और वर्णात्मक अर्थात् अक्षरात्मक होती है । वह दिव्यध्वनि साक्षर होते हुए भी अनेक भाषा रूप है । उस दिव्यध्वनि में अनेक पंक्तियाँ निकलती हैं, जिन्हें सुनकर श्रोतागण अपने-अपने क्षयोपशम के अनुसार ग्रहण कर लेते हैं । श्रोतागण जिस प्रकार का क्षयोपशम लिये हुए होते हैं और जिस भाषा में उपदेश ग्रहण की क्षमता रखते हैं, उन्हें उसी भाषा में उपदेश ग्रहण हो जाता है । 'केवली के वचन इसी भाषा रूप हैं, ऐसा निर्देश नहीं किया जा सकता है, इसलिये उनके वचन ध्वनिरूप हैं, यह बात सिद्ध हो जाती है।" अनक्षरी भाषा को समझना प्रत्येक साधारण श्रोता के लिये संभव नहीं है। जो अक्षरज्ञान रखते हैं, वे उसी अक्षरात्मक भाषा को समझ सकते हैं, यह बात प्रत्यक्ष सिद्ध है। यदि दिव्यध्वनि सर्वथा अनक्षरात्मक हो तो फिर अक्षरज्ञान रखनेवाले श्रोता को कुछ भी समझ में नहीं आयेगा, किन्तु ऐसा होता नहीं है। 'केवली के ज्ञान के विषयभूत पदार्थ अनन्त होने से और श्रोता के आवरण कर्म का क्षयोपशम अतिशयरहित होने से केवली के वचनों के निमित्त से संशय और अनध्यवसाय की उत्पत्ति हो सकती है। " श्रोता को जितना क्षयोपशम होता है, उतना तो वह समझ लेता है और अन्य अनन्त अर्थ को ग्रहण करने की क्षमता न होने से उस दिव्यध्वनि से श्रोता मन में संशय और अनध्यवसाय उत्पन्न हो जाते हैं। इस संशय और अनध्यवसाय को उत्पन्न कराने का कारण केवली के अनुभय-वचन योग है। साथ ही जो सत्यवचनयोग है, वह श्रोता को स्पष्ट अर्थ का बोध करा देता है। इस प्रकार उक्त प्रमाणों से यह स्पष्ट होता है कि वीरसेन विसंगति १ – कुछ मनीषियों का कहना है कि 'अर्हत तीर्थंकर की दिव्यध्वनि में अक्षर नहीं होते। इसका नाम ध्वनि है, भाषा नहीं है। भाषा में अक्षर होते हैं, ध्वनि में अक्षर नहीं होते। यदि भगवान् की वाणी साक्षर होती । तो इसे भाषा कहा जाता । अतः यह ध्वनि निरक्षर होती है । ' विचार करें कि क्या भाषा अक्षरात्मक ही होती है? क्या जिसमें अक्षर नहीं होते उसे भाषा नहीं कहते हैं ? नहीं, नहीं, यह बात उचित नहीं है क्योंकि शब्द दो प्रकार के होते हैं- 'एक भाषात्मक और दूसरे अभाषात्मक / भाषात्मक शब्द अक्षर और अनक्षर के भेद से दो प्रकार के हैं। अक्षरीकृत शब्दों से शास्त्र की अभिव्यक्ति होती है, अक्षरात्मक शब्द संस्कृत और अन्य के भेद से आर्य और म्लेच्छों के व्यवहार का कारण होता है। अनक्षरात्मक शब्द दो इन्द्रिय आदि जीवों के होते हैं। अतिशय केवलज्ञान के द्वारा वस्तु स्वरूप प्रतिपादन में कारणभूत भी अनक्षरात्मक भाषात्मक शब्द होते हैं । २ इन आर्ष वचनों से यह स्पष्ट हुआ कि भाषा अक्षरात्मक ही नहीं, अनक्षरात्मक भी होती है। जिसमें अक्षर नहीं हो, उसे भी भाषा कहते हैं । अतः केवली भगवान् के वचन भावात्मक होते हैं और अनक्षरात्मक भी । अब हम श्री वीरसेनस्वामी के द्वारा किये गये शंका 6 दिसम्बर 2007 जिनभाषित मुनि श्री प्रणम्यसागर जी ( संघस्थ- आचार्य श्री विद्यासागर जी) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी जी दिव्यध्वनि को साक्षर, भाषारूप स्वीकार करते । दिव्यध्वनि को अक्षरात्मक ही माना है। कहा भी हैहैं। अतः दिव्यध्वनि भाषात्मक होने के साथ-साथ किन्हीं | 'साक्षर एव च वर्ण समूहान्नैव विनार्थ गतिर्जगति आचार्यों के अभिप्राय से अनक्षरात्मक और किन्हीं के | स्यात्॥१० अर्थात् दिव्यध्वनि अक्षरसहित ही है, यहाँ अभिप्राय से अक्षरात्मक सिद्ध होती है। इस प्रकार होते | प्रयुक्त 'एव' शब्द 'ही' अर्थ का वाचक है। अतः एवकार हुए भी हमें आचार्यों के अभिप्राय में अन्तर या भेद भिन्नता | के साथ साक्षर कहने के अभिप्राय से स्पष्ट होता है कि नहीं मानना चाहिये, अपितु मुख्य, गौण विवक्षा से कथन | दिव्यध्वनि को मुख्यरूप से अक्षरात्मक स्वीकारा है। इस किया है, ऐसा स्वीकारना चाहिये। इसका कारण यह है बात को 'ही' अर्थ के साथ कहने का कारण स्वयं उसी कि आचार्य श्री वीरसेन जी ने कहा है कि- 'अणवगय- | कारिका में आगे बताते हैं कि अक्षरों के समूह के बिना तित्थयरवयण विणिग्गिय-अक्खराक्खरप्पयबहु- | लोक में अर्थ का बोध नहीं होता है। अर्थात् जनसाधारण लिंगालिंगियबीज- पदाणं'६ अर्थात् तीर्थंकर के वचन | अक्षरज्ञान के बिना कुछ भी समझने में सक्षम नहीं होता अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक होते हैं। यहाँ वचनों को | है। अन्यत्र भी इसी बात को कहा है कि- 'कितने ही उभयरूप स्वीकार करके उन्होंने विसंवाद समाप्त कर दिया | लोग कहते हैं कि सर्वज्ञ के शब्द अनक्षरात्मक होते हैं, है। अत: इन आगम प्रमाणों से दिव्यध्वनि भाषात्मक होने | उनके शब्द वर्णरहित होते हैं, नष्टवर्णात्मक ही ध्वनि होती के साथ-साथ कथंचित् अक्षरात्मक और कथंचित् | है। किन्तु उनका इस प्रकार कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अनक्षरात्मक है, यह सिद्ध हुआ। अनक्षरात्मक शब्दों से अर्थ की प्रतीति का अभाव है।११ जब यह सिद्ध हो गया कि दिव्यध्वनि साक्षर और विसंगति २- यह दिव्यध्वनि अर्धमागधी भाषा में अनक्षर दोनों रूप है, तब एकान्तरूप से अनक्षर ही मानने- | होती है, यह अर्धमागधी भाषा क्या है? तो इसका उत्तर बाले विद्वानों के उस सम्बन्ध में दिये गये अनेक तर्क अपने | कुछ लोग यह देते हैं कि 'भगवान का समवशरण सबसे आप नि:सार सिद्ध हो जाते हैं। जैसा कि वे विद्वान् कहते | पहले विपुलाचल पर्वत (बिहार) पर रचा गया। उस समय हैं कि 'इस ध्वनि में कंठ, ताल, ओष्ठ आदि का उपयोग बिहार को मगध बोला जाता था। समवसरण में जो मनष्य नहीं होता है, क्योंकि अक्षरों के उच्चारण में कंठ, तालु | श्रोता उपस्थित थे, उनमें आधी संख्या में मगधदेश के श्रोता आदि का उपयोग करना पड़ता है, जहाँ अक्षरोच्चारण नहीं | थे। और आधी संख्या मगध के अलावा अन्य देश के है, वहाँ कंठ, तालु आदि का उपयोग भी नहीं होता है।" | श्रोताओं की थी। अतः देव भगवान् की वाणी को आधी यह कथन और युक्ति दोनों ही गलत हैं। अक्षरों के उच्चारण मगधभाषारूप में तथा आधी अन्य सर्वभाषा के रूप में में कंठ, तालु आदि का प्रयोग करना सामान्य छद्मस्थ | परिणमाते थे, इसलिये उसका नाम अर्धमागधी पड़ा। यह मनुष्य की अपेक्षा आवश्यक है। छद्मस्थ मनुष्य की तुलना | महावीर के समय दिव्यध्वनि का रूप थी।१२ सर्वज्ञ-देव से नहीं की जा सकती है। तीर्थंकर सर्वज्ञ की | इस बात पर विचार करते हैं कि क्या दिव्यध्वनि ध्वनि कण्ठ, तालु आदि के स्पर्श के बिना ही निकलती का स्वरूप अलग-अलग तीर्थंकरों के समय अलग-अलग है, यह उनकी वाणी का अतिशय है। कहा भी है- होता है। यदि ऐसा मान भी लें तो फिर यह स्वीकारना 'जिनभाषाऽधरस्पन्दमन्तरेण विजूंभिता। पड़ेगा कि 'सार्वार्धमागधीया भाषा' यह जो पद देवकृत तिर्यग्देवमनुष्याणां दृष्टिमोहमनीनशत्॥ चौदह अतिशयों को बताते हुए नन्दीश्वर भक्ति में श्री अर्थात् ओष्ठकम्पन के बिना उत्पन्न हुई जिनेन्द्र की | पूज्यपाद देव ने दिया है, वह मात्र महावीर भगवान् की भाषा ने तिर्यञ्च, देव तथा मनुष्यों की दृष्टिसम्बन्धी मोह | दिव्यध्वनि को दष्टि में रख कर दिया है। पर ऐसा मानना दर किया था। अन्यत्र भी कहा है- 'कंण्ठोष्ठादि-वचोनिमित्त- कदापि उचित नहीं होगा. क्योंकि नन्दीश्वरभक्ति में भगवान रहितं नो वातरोधोद्गतम्।' अर्थात् कंठ, ओठ आदि निमित्त- | के अतिशयों का वर्णन सर्व तीर्थंकरों के लिये समान रूप रहित भगवान् के वचन होते हैं। अत: कंठ ओष्ठ आदि से दिया है। यदि ऐसा मान भी लें तो अन्य तीर्थंकरों के का स्पन्दन नहीं है, ऐसा कहकर दिव्यध्वनि को अनक्षरात्मक | लिये यह अतिशय दसरा होगा. उसमें फिर सार्वार्धकन्नडी ही मानने का आग्रह आगम-विरुद्ध है। दिव्यध्वनि में | या सार्वार्धमराठी ये पद आयेंगे। क्या यह बात आगम को उभयरूपता सिद्ध होने पर भी आचार्यों ने मुख्यता से | समझनेवाले के गले उतरेगी? नहीं। ऐसी स्थिति में हमेशा -दिसम्बर 2007 जिनभाषित 7 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वत्र विहार करनेवाले महावीर भगवान् की दिव्यध्वनि का | फिर देवकृत अतिशय में पुनः रखने का क्या प्रयोजन है? यह अतिशय सार्वार्धमागधी के रूप में नहीं कहा जा सकेगा। समाधान- आचार्य पूज्यपाददेव-रचित नन्दीश्वरक्या मगधदेश में ही भगवान् का विहार होता है, जो यह __ भक्ति में इस अर्धमागधी भाषा का नाम सार्वार्धमागधी कहा गया कि समवशरण में आधी संख्या में मगधदेश के भाषा लिया है। जिसका अर्थ आचार्य प्रभाचन्द्र जी ने टीका श्रोता थे। यह बात तो भगवान् महावीर स्वामी के लिये | में इस प्रकार किया है- 'सर्वेभ्यो हिता सार्वा। सा चासौ भी पूर्णरूप से घटित नहीं होती, तब फिर अन्य तीर्थंकरों | अर्धमागधीया च।'१५ अर्थात् जो सब का हित करनेवाली के विषय में तो यह बात कदापि घटित नहीं हो सकती है, इसलिये सार्व है। वह ही सर्व हितकारी वाणी है। उस समय बिहार को मगध कहा जाता था. वहाँ के अर्धमागधी है। अर्थात् आधी मागधी भाषा सर्व हितकारी श्रोता समवशरण में अधिक थे, ये सब मनगढन्त युक्तियाँ | है। भगवान् की दिव्यध्वनि का आधा भाग जो कि मागधी हैं, इन युक्तियों का आगम में कहीं कोई उल्लेख नहीं है। भाषात्मक है सब जीवों के हित के लिये प्रवृत्त होता है कुछ परवर्ती भट्टारक टीकाकारों ने इस सार्वार्धमागधी भाषा | इसलिये इसे सार्वार्धमागधी भाषा कहा है। यह इस टीका का व्युत्पत्ति-अर्थ आधी मागधी भाषा व आधी सर्वभाषा | से व्युत्पत्ति-अर्थ निकलता है। तथा इस आधी भाषा को रूप निकाला है। वे लिखते हैं- 'अर्धं भगवद्भाषाया मागधी भाषा कहने का प्रयोजन यह है कि मगध देवों के मगधदेशभाषात्मकं अर्धं च सर्वभाषात्मकम्।' १३ अर्थात् सन्निधान से इस दिव्यध्वनि का आधा भाग सब जीवों के तीर्थंकर की दिव्यध्वनि आधी मगधदेश की भाषारूप और हित में प्रवृत्त होता है और आधा भाग बीजपदयुक्त होने आधी सर्वभाषारूप होती है। मगधदेश से दिव्यध्वनि को | से गणधर देवों के लिये ही समझना शक्य होता है। कहा जोड़कर इस प्रकार की व्याख्या करना केवल भगवान् | भी है- 'अठारह भाषा व सात सौ कुभाषा स्वरूप द्वादशांमहावीर के लिये कथंचित् भले ही कही जाय, पर सभी | गात्मक उन अनेक बीज पदों के प्ररूपक अर्थकर्ता तीर्थंकरों के अतिशयों में यह व्याख्या लागू नहीं हो सकती | तीर्थंकरदेव हैं तथा बीज पदों में लीन अर्थ के प्ररूपक है। यदि कोई इस प्रकार माने. तो फिर यह भी मानना | बारह अंगों के कर्ता गणधर भट्टारक ग्रन्थकर्ता हैं. ऐसा पड़ेगा कि सभी तीर्थंकरों ने मगधदेश में ही अपना उपदेश स्वीकार किया गया है।'१६ तथा वह दिव्यध्वनि एक होकर दिया, वहीं पर उनका समवसरण लगा, वहीं के श्रोताओं | भी भगवान् के महात्म्य से समस्त मनुष्यों की भाषाओं और ने उस सभा में सर्वाधिक भाग लिया। किन्तु ऐसा कदापि | अनेक कुभाषाओं रूप परिणमन करके लोगों के अज्ञान नहीं है। सभी तीर्थंकरों का विहार इस आर्यखण्ड में सर्वत्र | अन्धकार को दूर करके उन्हें तत्त्वों का बोध कराती है। होता है, हुआ है इस बात की प्रमाणिकता आगम ग्रन्थों | यदि दिव्यध्वनि मात्र बीजपदवाली हो, तो फिर वह गणधर से उपलब्ध होती है। और यह अर्धमागधी-भाषारूप | परमेष्ठी को ही समझ में आ सकती है, क्योंकि उन बीजपदों अतिशय मात्र भगवान् महावीर की मुख्यता से नहीं है, | र की मख्यता से नहीं है | को समझने के लिये बुद्धिऋद्धि आवश्यक है। किन्तु ऐसा क्योंकि अन्य तीर्थंकरों का भी देवोपनीत यही अतिशय है।। नहीं होता है। वह समवसरण में बैठे हुए अन्य अनेक पशु, भगवान् श्री अजितनाथ की दिव्यध्वनि अर्धमागधी भाषा | देव और मनुष्यों को भी समझ में आती है। अतः स्पष्ट में थी, ऐसा उल्लेख श्री रविषेण आचार्य ने किया है, देखें- | होता है कि उसी एक दिव्यध्वनि में कुछ भाग ऐसा होता 'भाषा अर्धमागधी तस्य भाषमाणस्य नाधरौ। है, जो सर्वजन साधारण को समझ में आता है और कुछ चकार स्पन्दसंयुक्तावहो चित्रमिदं परम्॥१४ । भाग ऐसा होता है जिसे मात्र ऋद्धिधारी विशिष्ट गणधर अर्थात् भगवान्-अजितनाथ की भाषा अर्धमागधी | जन ही समझ सकते हैं। जो भाग समस्त लोगों को समझ भाषा थी, और बोलते समय उनके ओठों को चंचल नहीं | में आता है, वह मगधदेवों के सन्निधान से सभी जीवों कर रही थी, यह बड़े आश्चर्य की बात थी। अतः अब के पास एक साथ पहुँचता है। जिस प्रकार आजकल वक्ता हमें इस देवोपनीत अतिशय को जो सभी तीर्थंकरों के लिये | की वाणी को ध्वनिवाहक यन्त्र के द्वारा दूरवर्ती श्रोताओं है, किसी देश की भाषा से नहीं जोडना चाहिये। फिर प्रश्न ॥ जाता है, उसी प्रकार मगधदेव उस वाणी उठता है, कि इस देवोपनीत अतिशय का अर्थ क्या है? | को सभी में सर्वत्र प्रसारित कर देते हैं, इसीलिये देवकृत और जब अष्ट प्रतिहार्यों में दिव्यध्वनि को गिना है, तो | अतिशय यह अर्धमागधी भाषा कही जाती है। सामान्यतः 8 दिसम्बर 2007 जिनभाषित - Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । है, इसी से यह सार्वार्धमागधी नाम पड़ा है, यह सुतरां सिद्ध होता है। सभी तीर्थंकरों की ध्वनि एक योजन तक ही फैलती है 'ध्वनिरपि योजनमेकं प्रजायते श्रोतृहृदयहारिगभीरः । १७ अर्थात् भगवान् की ध्वनि जो कि श्रोताओं का मन, हरण करनेवाली तथा गम्भीर होती है, वह एक योजन तक जाती है। यह है, सभी तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि की सामान्य विशेषता है । मगधदेवों के द्वारा यह ध्वनि एक योजन से अधिक क्षेत्र में भी फैलायी जाती है । भगवान् आदिनाथ का समवशरण बारह योजन का था, अतः एक योजन के बाहर व भीतर सर्वत्र एक सी वाणी सबको सुनाई दे यह कार्य इन देवों का होने से इस वाणी को सार्वार्धमागधी । नाम प्राप्त होता है। यह अनुचित भी नहीं है, क्योंकि जो सबके हित में कार्य करते हैं उनका नाम हो ही जाता है। मगधदेवों का यही मात्र कार्य है जिसके कारण भगवान् की वाणी अर्धमागधी भाषा है। यह देवकृत अतिशय में गिनी जाती है। इसके अलावा इन मगधदेवों का कोई अन्य कार्य नहीं होता है। 'मगधदेवों के निमित्त से वह वाणी संस्कृत भाषारूप परिणमन करती है । १८ ऐसा कुछ मनीषियों का कहना है। ।' पर यह कार्य भी मगधदेवों का नहीं है क्योंकि भगवान् की दिव्यध्वनि का ही यह गुण है कि वह सभी भाषाओं और कुभाषाओं रूप परिणमन कर जाती है। जैसा कि कहा है- 'दिव्यध्वनिर्भवति ते विशदार्थसर्वभाषा-स्वभावपरिणामगुणप्रयोज्यः । १९ और भी कहा है कि- 'जिस प्रकार आकाश से बरसा पानी एक रूप होता है, परन्तु पृथिवी पर पड़ते वह नाना रूप दिखाई देने लगता है, उसी प्रकार भगवान् की वाणी यद्यपि एक रूप थी तथापि सभा में सब जीव अपनी-अपनी भाषा में उसका भाव पूर्णतः समझते थे । '२० और भी कहा है कि नाना भाषात्मिकां दिव्यभाषामेकात्मिकामपि । पृथयन्तमयत्नेन हृद्ध्वान्तं नुदतीं नृणाम् ॥ अर्थात् एक रूप होकर भी आपकी दिव्यभाषा नाना भाषात्मकरूप होकर बिना प्रयत्न के विस्तार को प्राप्त होती हुई मनुष्यों के हृदयान्धकार को दूर करती थी । इसी प्रकार ‘तव वागमृतं श्रीमत्सर्वभाषास्वभावकम्। २२ अर्थात् हे भगवन्, आपकी वाणीरूपी अमृत सभी भाषा के स्वभाववाली है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सभी भाषारूप परिणमन करना यह दिव्यध्वनि का अपना स्वाभाविक गुण है, अन्य किसी के माध्यम से संस्कृत या मागघी या प्राकृत आदि भाषा रूप परिणमन नहीं होता है। अतः मगधदेवों का कार्य मात्र ध्वनिविस्तारकयन्त्र की तरह सबको वाणी उपलब्ध कराना । से ही निकलना मानते हैं सर्वांग से नहीं । विसंगति ३- यह दिव्यध्वनि सर्वांग से निकलती क्योंकि यह ध्वनि है। ऐसा कोई आगमप्रमाण नहीं है, जिसमें लिखा हो कि दिव्यध्वनि सर्वांग से निकलती है। जिस समय दिव्यध्वनि खिरती है, उस समय तालु, दन्त, ओष्ठ, कण्ठ आदि का हलन चलनरूप व्यापार नहीं होता, उस समय भगवान् का मुख भी नहीं हिलता, इससे कुछ लोग यह अनुमान लगाते हैं कि भगवान् की ध्वनि मुख से नहीं निकलती अतः सर्वांग से निकलती है । पर ऐसा मानना नितान्त गलत है। यह तो भगवान् का अतिशय है कि कण्ठ, ओष्ठ आदि के व्यापार के बिना ही ध्वनि खिरती है। इसीलिये श्री पूज्यपाद देव कहते हैं- 'जयन्ति यस्याऽवदतोऽपि भारती ।' २३ अर्थात् भगवान् बोलते नहीं है, फिर भी उनकी वाणी का वैभव जयवन्त है । यह कोई विरोधभास नहीं, किन्तु सर्वज्ञता का परिणाम है। जिस प्रकार केवली की सभी क्रियाएँ उठना, बैठना, बोलना आदि बिना इच्छा के होती हैं, यह जिस प्रकार छद्मस्थों के लिये विचित्र बात है, उसी प्रकार केवली का ओठ, कंठ आदि के व्यापार के बिना बोलना एक वैचित्र्य है, अतिशय है। आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने कहा है'समणमुहग्गदमद्वं' २४ अर्थात् सर्वज्ञ महाश्रमण के मुख से निकला हुआ अर्थ है । इसी सूत्र की टीका में श्री जयसेन महाराज ने यह लिखा है कि सर्वज्ञदेव के वचन मुख निकलते हैं। साथ ही 'गंभीरं मधुरं मनोहरतरं दोषव्यपेतं हितं, कण्ठोष्ठादिवचोनिमित्तरहितं नो वातरोधोद्गतं २५ इस गाथा से ही यह भी कहा कि वचनों के निमित्तभूत जो कण्ठ, ओष्ठ आदि का चलना है, वह उनमें नहीं था। जिससे स्पष्ट है कि मुख से ध्वनि निकलना और कण्ठ, ओष्ठ, तालु आदि का न चलना, ये दोनों विरोधाभास नहीं हैं। सर्वत्र यही कहा है कि दिव्यध्वनि भगवान् के मुखारविन्द से निकलती है- 'स्वयंभुवो मुखाम्भोजाज्जाता चित्रं सरस्वती '२६ अर्थात् स्वयम्भू भगवान के मुखकमल से यह विचित्र सरस्वती निकलती है। 'केवलिमुखारविन्द - विनिर्गतो दिव्यध्वनिः । ' २७ अर्थात् केवली के मुखारविन्द से निकलती है दिव्यध्वनि । 'तित्थयरवयणादो दिव्वज्झणी विणिग्गयी । २८ अर्थात् तीर्थंकर के मुख से दिव्यध्वनि निकलती है । इत्यादि प्रमाणों से स्पष्ट है कि सभी आचार्य दिव्यध्वनि का मुख दिसम्बर 2007 जिनभाषित 9 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ ___ इन तीनों मुख्य विसंगतियों का आगम के परिप्रेक्ष्य | १०. श्री आदिपुराण २३/७३ में यहाँ समाधान किया गया है। हमें किसी भी बात को | ११. तत्त्वार्थवृत्ति सूत्र ५/२ मात्र युक्तियों से नहीं मानना चाहिये। आगम पहले होता | १२. डॉ. लाल बहादुर शास्त्री का लेख- 'दिव्यध्वनि' है, युक्ति बाद में। हाँ, आगम को पुष्ट करने के लिये यदि | १३. श्री दर्शनप्राभृत टीका ३५/२८/१२ युक्ति का सहारा लिया जाता है, तो वह अति उत्तम है। १४. श्री पद्मपुराण ५/९९० ऐसा हमारे श्रीगुरु का उपदेश है। १५. क्रियाकलाप १६. श्रीधवल पु. ९ १७. नन्दीश्वरभक्ति श्री पूज्यपाददेव/श्लोक ५८ १. श्री पञ्चास्तिकाय गाथा २ की ता. वृत्ति टीका में | १८. श्री दर्शनप्राभृतटीका ३५/२८/१३ उद्धृत गाथा का अर्थ। १९. भक्तामरस्तोत्र ३५ २. श्री राजवार्तिक सूत्र ५/२४ २०. श्री हरिवंशपुराण ५८/१५ ३. श्री धवल पुस्तक १ पृ. २८६ २१. श्री आदिपुराण ३३/१२० ४. श्री धवल पुस्तक १ पृ. २८६ २२. श्री स्वयंभूस्तोत्र काव्य ९७ ५. वही २३. श्री समाधितन्त्र/कारिका २ ६. श्री धवल पु. ९, पृ. ५९ २४. श्री पञ्चास्तिकाय/गाथा २ ७. दिव्यध्वनि एक लेख/ लेखक- डॉ. लाल बहादुर जैन | २५. श्री पञ्चास्तिकाय/गाथा २/ता. वृत्ति टीका शास्त्री दिल्ली। २६. श्री आदिपुराण/८४ ८. श्री हरिवंश पुराण २/११३ २७. श्री नियमसार/ता.वृ./१७४ ९. श्री पञ्चास्तिकाय गाथा २ ता. वृत्ति टीका | २८. श्री धवल/पु. ५ बहुमान भोजपुर में अष्टमी के दिन आचार्यश्री ने केशलुंच । जंगलों में बैठकर आचार्यों ने लिखा होगा, उन्हीं कारिकाओं किया। तदुपरांत जंगल की ओर चले गये। थोड़ी देर | को आचार्य महाराज के श्रीमुख से इन्हीं शिलाओं पर बाद मैं भी जंगल गया। वहाँ देखा पूज्य गुरुदेव एक | बैठकर सुन रहा हूँ। आचार्य महाराज जी कहते हैं- हाँ बड़ी शिला पर विराजमान हैं, दोनों हाथ जोड़े हुए आँख | जो कारिकायें अच्छी लगती हैं, उनका मैं बार-बार पाठ बंद किये हुये कुछ पाठ पढ़ रहे है। मैं उनके समीप | करता हूँ, उन कारिकाओं की माला भी फेर लेता हूँ, में ही पहुँच गया। मुझे ऐसा लगा रहा था जैसे मैंने उनके | कम से कम अपन इन कारिकाओं का ही पाठ कर दर्शन करके सब कुछ पा लिया हो, हृदय गद्गद् हो | लें। यह सुनकर ऐसा लगा मानों आचार्य महाराज का उठा। उसी शिला पर नीचे की ओर मैं भी हाथ जोड़कर | जिनवाणी के प्रति, पूर्वाचार्यों के प्रति कितना बहुमान बैठ गया। आचार्य महाराज लगातार अनेक बार एक ही है। शायद यही कारण है उनके प्रत्येक शब्द में सागर कारिका का पाठ कर रहे थे। वह कारिका थी- | जैसी गहराई दिखाई देती है। उनके प्रत्येक वाक्य मंत्र सर्वं निराकृत्य विकल्पजालं, का काम करते हैं। जीवन में नई प्रेरणा एवं उमंग भर संसारकान्तारनिपातहेतुम्। देते हैं। विविक्तमात्मानमवेक्षमाणो, आगे उन्होंने बताया कि यह संसार विकल्पों का निलीयसे त्वं परमात्मतत्त्वे ॥२९ ।। जाल है और विकल्प संसार के कारण हैं, इन्हें छोड़कर यह सामायिक पाठ की कारिका है। थोड़ी देर | आत्मस्थ होना चाहिए, निर्विकल्प होना चाहिए, तभी बाद गुरुदेव ने आँखे खोलीं, बोले- क्यों तुम आ गये? | संसार से मुक्ति मिल सकती है। मैंने हाथ जोड़कर कहा-जी आचार्य श्री मैं आ गया। मुनि श्री कुंथुसागर-कृत संस्मरण' से साभार हमारा सौभाग्य है कि जिन कारिकाओं को गुफाओं में, 10 दिसम्बर 2007 जिनभाषित Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का अहिंसाव्रत आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी अहिंसा बड़ी कठिन साधना है। उसका साधन संयम है, मैत्री है, अद्रोह-बुद्धि है और सबसे बढ़कर सत्य की परम उपलब्धि है। भगवान् महावीर से बड़ा अहिंसाव्रती कोई नहीं | संकल्प के आत्मजयी-महात्मा बहुत थोड़े हुए हैं। उनके हुआ। उन्होंने विचारों के क्षेत्र में क्रांतिकारी अहिंसक वृत्ति | मन, वचन और कर्म एक दूसरे के साथ पूर्ण सामंजस्य का प्रवेश कराया। विभिन्न विचारों और विश्वासों के | में थे। इस देश का नेता उन्हीं जैसा तपोमय महात्मा ही प्रत्याख्यान में जो अहंकारभावना है, उसे भी उन्होंने पनपने | हो सकता है। हमारे सौभाग्य से इस देश में तपस्वियों की नहीं दिया। अहंकार अर्थात् अपने आपको प्रवाह से पृथक् | सदा बहुलता रही है। केवल चरित्र-बल ही पर्याप्त नहीं समझने की वृत्ति। सत्य को 'इदमित्थं' रूप में जानने का | है। इसके साथ और कुछ भी आवश्यक है। कार का ही एक रूप है। सत्य अविभाज्य। यह और कुछ भी हमारे मनीषियों ने खोज निकाला होता है और उसे विभक्त करके देखने से मत-मतांतरों का | था। वह था अहिंसा, अद्रोह और मैत्री। अहिंसा परमधर्म आग्रह उत्पन्न होता है। आग्रह से सत्य के विभिन्न पहलु | है, सनातन धर्म है, वह एकमात्र धर्म है, आदि बातें इस ओझल हो जाते हैं। देश में सदा मान्य रही हैं। मन से, वचन से, कर्म से अहिंसा पहली बात तो यह है कि केवल वाणी द्वारा उपदेश | का पालन कठिन साधना है। सिद्धांतरूप में प्रायः सभी या कथनी कभी उचित लक्ष्य तक नहीं ले जाती। उसके | ने इसे स्वीकार किया है, पर आचरण में इसे सही-सही लिए आवश्यक है कि वाणी द्वारा कुछ भी कहने के पहले | उतार लेना कठिन कार्य है। शरीर द्वारा अहिंसा का पालन वक्ता का चरित्र शुद्ध हो। उसका मन निर्मल होना चाहिए, | अपेक्षाकृत आसान है, वाणी द्वारा कठिन है और मन द्वारा आचरण पवित्र होना चाहिए। जिसने मन, वचन और कर्म | तो नितान्त कठिन है। तीनों में सामंजस्य बनाए रखना और को संयत रखना नहीं सीखा, इनमें परस्पर अविरुद्ध रहने | भी कठिन साधना है। की साधना नहीं की, वह जो कुछ भी कहेगा, अप्रभावी | इस देश में 'अहिंसा' शब्द को बहुत अधिक महत्त्व होगा। दिया जाता है। यह ऊपर-ऊपर से निषेधात्मक शब्द लगता __हमारे पूर्वजों ने मन, वचन, कर्म पर संयम रखने | है, लेकिन यह निषेधात्मक इसलिए है कि आदिम सहजातको एक शब्द में 'तप' कहा है। तप से ही मनुष्य संयतेन्द्रिय | वृत्ति को उखाड़ देने से बना है। अहिंसा बड़ी कठिन साधना या जितेन्द्रिय होता है, तप से ही वह 'तपस्वी' होता है, | है। उसका साधन संयम है, मैत्री है, अद्रोहबुद्धि है और तप से ही वह कुछ कहने की योग्यता प्राप्त करता है। सबसे बढ़कर सत्य की परम उपलब्धि है। अहिंसा कठोर विभिन्न प्रकारों के संस्कारों और विश्वासों के लोग तर्क | संयम चाहती है। इंद्रियों और मन का निग्रह चाहती है, से या वाग्मिता से नहीं, बल्कि शुद्ध, पवित्र, संयत चरित्र | वाणी पर संयत अनुशासन चाहती है और परम सत्य पर से प्रभावित होते हैं। युगों से यह बात हमारे देश में बद्धमूल | सदा जमे रहने की अविसंवादिनी बुद्धि चाहती है। हो गई है। इस देश के नेतृत्व का अधिकारी एक मात्र | मुझे भगवान् महावीर के इस अनाग्रही रूप में, जो वही हो सकता है, जिसमें चारित्र का महान् गुण हो, | सर्वत्र सत्य की झलक देखने का प्रयास है, परवर्तीकाल दुर्भाग्यवश वर्तमानकाल में इस ओर कम ध्यान दिया जा | के अधिकारी भेद, प्रसंग-भेद आदि के द्वारा सत्य को सर्वत्र रहा है। जिसमें चरित्रबल नहीं, वह देश का नेतृत्व नहीं | देखने की वैष्णवप्रवृत्ति का पूर्वरूप दिखाई देता है। परवर्ती कर सकता। | जैन आचार्यों ने स्याद्वाद के रूप में इसे सुचिंतित दर्शनशास्त्र भगवान् महावीर जैसा चरित्र-सम्पन्न, जितेन्द्रिय, | का रूप दिया और वैष्णव आचार्यों ने सबको अधिकारी आत्मवशी, महात्मा मिलना मुश्किल है। सारा जीवन उन्होंने | भेद से स्वीकार करने की दृष्टि दी है। भगवान् महावीर आत्म-संयम और तपस्या में बिताया। उनके समान दृढ- | ने सम्पूर्ण भारतीय मनीषा को नए ढंग से सोचने की दृष्टि -दिसम्बर 2007 जिनभाषित 11 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दी है। इस दृष्टि का महत्त्व और उपयोगिता इसी से प्रकट । आज भी उस अवस्था में बहुत अन्तर नहीं आया होती है कि आज घूम-फिरकर संसार फिर उसी में कल्याण | है, पर महावीर के काल में विश्वासों और आचारों की देखने लगा है। विसंगतियाँ बहुत जटिल थीं और उनमें आदिम प्रवृत्तियाँ सत्य और अहिंसा पर उनको बढ़ी दृढ़ आस्था थी। बहुत अधिक थीं। इस परिस्थिति में सबको उत्तम-लक्ष्य कभी-कभी उन्हें केवल जैनमत के उस रूप को, जो आज की ओर प्रेरित करने का काम बहुत कठिन है। किसी जीवित है, प्रभावित और प्रेरित करनेवाला मानकर उनकी के आचार और विश्वास को तर्क से गलत साबित कर देन को सीमित कर दिया जाता है। भगवान् महावीर इस | देना, किसी उत्तम लक्ष्य तक जाने का साधन नहीं हो देश के उन गिने-चुने महात्माओं में से हैं, जिन्होंने सारे | सकता, क्योंकि उससे अनावश्यक कटुता और क्षोभ पैदा देश की मनीषा को नया मोड़ दिया है। उनका चरित्र, शील, | होता है। तप और विवेकपूर्ण विचार, सभी अभिनन्दनीय हैं। हर प्रकार के आचार-विचार का समर्थन करना और जिन पुनीत-महात्माओं पर भारतवर्ष उचित गर्व कर | भी बुरा होता है, उससे गलत बातों का अनुचित समर्थन सकता है, जिनके महान् उपदेश हजारों वर्ष की कालावधि | होता है और अंततः आस्था और अनास्था का वातावरण को चीरकर आज भी जीवन-प्रेरणा का स्रोत बने हुए हैं, | उत्पन्न होता है। खण्डन-मण्डन द्वारा दिग्विजयी बनने का उनमें भगवान् महावीर अग्रगण्य हैं। उनके पुण्य-स्मरण | प्रयास इस देश में कम प्रचलित नहीं था, परन्तु इससे कोई से हम निश्चितरूप से गौरवान्वित होते हैं। आज से ढाई | विशेष लाभ कभी नहीं हुआ। महावीर ने स्याद्वाद की हजार वर्ष पहले भी इस देश में विभिन्न श्रेणी की मानव- | बात कहकर वैचारिक अहिंसा की बात कही। मेरी दृष्टि मण्डलियाँ बसती थीं। उनमें कितनी ही विकसित सभ्यता | में महावीर से बड़ा मानवता का शुभचिंतक और कोई नहीं से सम्पन्न थीं। बहुत सी अर्द्धविकसित और अविकसित | हो सकता। इसलिए कि वे सबको जीने का संदेश देते हैं और सभ्यताएँ साथ-साथ जी रही थीं। जीवन का अधिकार देते हैं। दिन पहाड़ से मनोज जैन 'मधुर' चुप्पी ओढ़े रात खड़ी है सन्नाटे दिन बुनता हुआ यंत्रवत् यहाँ आदमी नहीं किसी की सुनता सबके पास समय का टोटा किससे अपने सुख-दुख बाँटें? दिन पहाड़ से कैसे काटें? बात बात में टकराहट है कभी नहीं दिल मिलते ताले जड़े हुए होंठों पर हाँ ना में सिर हिलते पीढी गत इस अंतराल की खाई को हम कैसे पाटें? दिन पहाड़ से कैसे काटें? पीर बदलते हाल देखकर पढने लगी पहाड़े तोड़ रहा दम ढाई आखर उगने लगे अखाड़े मन में उगे कुहासों को हम इन बातों से कैसे छांटें? दिन पहाड़ से कैसे काटें? सी. एस. 18, इन्दिरा कॉलोनी बाग उमराव दूल्हा, भोपाल-10 12 दिसम्बर 2007 जिनभाषित Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ख्यातिवाद : प्रमेयकमलमार्तण्ड के प्रकाश में डॉ. वीरसागर जैन ख्यातिवाद प्रायः सभी भारतीय दर्शनों का एक | सीप में चाँदी अथवा मरीचिका में जल का ज्ञान होता प्रमुख विषय है, परन्तु जैन-ग्रन्थों में इसका विस्तृत विवेचन | है, तब उस ज्ञान का विषय न तो सीप होती है और मात्र प्रभाचन्दाचार्य के 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' एवं 'न्याय- | न ही चाँदी, अथवा न मरीचिका होती है और न ही कुमुदचन्द' में ही देखने को मिलता है। यद्यपि ज्ञानमीमांसा | जल। अतः विपर्ययज्ञान अख्यातिरूप होता है। हेतु इस विषय को समझना भी बहुत आवश्यक है, परन्तु | परन्तु चार्वाक का ऐसा मानना समीचीन नहीं है, वर्तमान में अनेक लोग इस विषय को कठिन प्रतीत | क्योंकि यदि विपर्ययज्ञान में किसी भी पदार्थ की ख्याति होने के कारण छोड़ देते हैं। यहाँ तक कि प्रमेयकमलमार्तण्ड, | नहीं होती, तो उसका 'यह चाँदी है' अथवा 'यह मरीचिका जो विभिन्न विश्वविद्यालयों में निर्धारित पाठ्यग्रंथ है, उसके | है' अथवा 'यह रस्सी है', इत्यादि रूप से विशेष कथन छात्र और अध्यापक भी इस विषय की कठिन होने के | सम्भव नहीं होता, जो होता ही है। तथा विपर्ययज्ञान कारण उपेक्षा करते देखे जाते हैं। अत: यहाँ प्रस्तुत आलेख | निरावलम्ब नहीं है, क्योंकि उसमें प्रतिभासित होने वाला द्वारा इस विषय को सरलतापूर्वक स्पष्ट करने का प्रयत्न | पदार्थ उसका आलम्बन होता है। जैसे- जब सीप में किया जा रहा है। आलेख का मुख्य आधार 'प्रमेयकमल- | चाँदी का विपर्ययज्ञान हो, तब उसका आलम्बन चाँदी है मार्तण्ड' को ही बनाया गया है। आशा है विभिन्न | और वहाँ उस चाँदी की स्पष्टतया ख्याति हो रही है। विश्वविद्यालय के छात्रों को भी इससे लाभ होगा। | अतः विपर्ययज्ञान को अख्यातिरूप मानना तर्कसंगत - कहा जा चुका है कि ख्यातिवाद ज्ञानमीमांसा से | नहीं है। सम्बन्धित विषय है। ज्ञान दो प्रकार का है- सम्यग्ज्ञान | 2. असत्ख्यातिवाद और मिथ्याज्ञान। इनमें से ख्यातिवाद का सम्बन्ध मिथ्याज्ञान सौत्रान्तिक और माध्यमिक (बौद्ध दार्शनिक) कहते से है। मिथ्याज्ञान भी तीन प्रकार का है- संशय, विपर्यय | हैं कि विपर्ययज्ञान असत्ख्यातिरूप होता है, क्योंकि उसमें और अनध्यवसाय। इनमें से भी ख्यातिवाद का सम्बन्ध | असत्-अविद्यमान अर्थ की ख्याति (प्रसिद्धि) होती है। मात्र विपर्ययज्ञान से है। विपरीत एक कोटि का निश्चायक जैसे- सीप में चाँदी का ज्ञान हआ. वहाँ चाँदी स्पष्ट विपर्ययज्ञान कहलाता है। जैसे रस्सी में सर्प का अथवा ही असत् अर्थ है, अविद्यमान अर्थ है और उस असत् सीप में चाँदी का ज्ञान होना विपर्ययज्ञान है। ख्याति का | या अविद्यमान अर्थ की ख्याति कराने वाला होने से अर्थ होता है- प्रसिद्धि। ख्यातिवाद का मूलभूत विचारणीय | विपर्ययज्ञान असत्ख्यातिरूप है। विषय यही है कि इस विपर्ययज्ञान में किसकी प्रसिद्धि | परन्तु उनका यह कथन भी समीचीन नहीं है, होती है? सत् की, असत् की, दोनों की अथवा किसी | क्योंकि विपर्ययज्ञान में प्रतिभासित होनेवाला अर्थ सर्वथा की नहीं? बस, इसी प्रश्न का उत्तर विभिन्न दार्शनिकों | असत् नहीं होता। यदि सर्वथा असत् अर्थ का भी प्रतिभास ने अपने-अपने दृष्टिकोणों से पृथक्-पृथक् दिया है। | होता हो, तो आकाशपुष्प आदि का भी हो, जो कथमपि फलस्वरूप इस विषय में अनेक बाद निर्मित हो गये | नहीं होता। तथा यदि देखा जाय तो यह कथन ही कि हैं। यथा- अख्यातिवाद, असतख्यातिवाद, प्रसिद्धार्थख्याति- | 'असत् की ख्याति होती है' पूर्वापरविरोधयुक्त। असत् चिनीयार्थख्यातिवाद विवेका- | भी है और उसकी ख्याति भी होती है- यह कैसी विरुद्ध ख्यातिवाद या स्मतिप्रमोषवाद और विपरीतार्थख्यातिवाद।। बात? 'ख्यातिवाद' के प्रकरण में आचार्य प्रभाचन्द्र ने इस सभी अतः विपर्ययज्ञान को असख्यातिरूप मानना भी मतों की गम्भीर समीक्षा प्रस्तुत की है। यथा- युक्तिसंगत नहीं है। 1. अख्यातिवाद 3. प्रसिद्धार्थख्यातिवाद चार्वाक कहते हैं कि विपर्यय ज्ञान अख्यातिरूप सांख्य कहते हैं कि विपर्ययज्ञान प्रसिद्धार्थख्यातिरूप होता है, क्योंकि उसमें किसी की भी ख्याति (प्रसिद्धि) होता है, क्योंकि उसमें प्रतिभासित अर्थ सर्वथा प्रसिद्ध नहीं होती। उनके अनुसार विपर्ययज्ञान निरावलम्बन होता | (सत् या विद्यमान) होता है। जैसे- सीप में चाँदी का है, उसका कोई आलम्बन नहीं होता। अर्थात् जब हमें | ज्ञान होने पर वहाँ वस्तुतः ही चाँदी विद्यमान होती है। दिसम्बर 2007 जिनभाषित 13 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्यपि उत्तर काल में वहाँ चाँदीरूप अर्थ उपलब्ध नहीं। को सत् भी नहीं कहा जा सकता, असत् भी नहीं कहा होता है, तथापि जिस समय उसका प्रतिभास होता है | जा सकता और उभय भी नहीं कहा जा सकता, उस समय तो वह सत (विद्यमान) ही रहता है। इन तीनों ही पक्षों में दोष प्राप्त होते हैं। यदि सत माना परन्तु सांख्यों का उक्त कथन भी समीचीन नहीं जाय तो कोई भी ज्ञान भ्रान्त सिद्ध नहीं होगा, सभी अभ्रान्त है, मिथ्या ही है, क्योंकि यदि इस प्रकार से सभी ज्ञानों | ही सिद्ध होंगे, यदि असत् माना जाए, तो आकाशपुष्प को प्रसिद्ध अर्थ का ग्राहक माना जाय तो फिर कौन | आदि भी ज्ञान का विषय होना चाहिए, जो कभी नहीं ज्ञान भ्रान्त कहलाएगा? सब ज्ञान अभ्रान्त ही कहलाएँगे। होता, और यदि उभयरूप माना जाय, तो उक्त दोनों ही तथा इस प्रकार से कौन ज्ञान भ्रान्त और कौन ज्ञान अभ्रान्त- | दोष उपस्थित होंगे। अत: विपर्ययज्ञान को अनिर्वचनीयार्थइसकी कोई व्यवस्था ही नहीं बन सकेगी। तथा यदि | ख्यातिरूप मानना चाहिए। था और उत्तर काल में उसका। परन्त ब्रह्माद्वैतवादियों का उक्त कथन भी समीचीन अभाव हो गया तो वह कैसे हुआ? यह स्पष्ट करना | नहीं है, क्योंकि विपर्ययज्ञान में प्रतिभासित अर्थ कथमपि चाहिए, जो नहीं किया जा सकता। तथा यदि प्रतिभासित | अनिर्वचनीय सिद्ध नहीं होता। यदि वह वास्तव में जलादि अर्थ सत् होते हैं और उत्तर काल में उनका | अनिर्वचनीय होता तो 'यह चाँदी है' अथवा 'यह रस्सी अभाव हो जाता है, तो भूमि में आर्द्रता आदि उनके | है' इत्यादि रूप से कथन कैसे होता है? इससे सिद्ध चिह्न तो अवश्य उपलब्ध होने चाहिए थे, क्योंकि जलादि | होता है कि विपर्ययज्ञान में प्रतिभासित अर्थ अनिर्वचनीय पदार्थों का तत्काल निरन्वय विनाश नहीं देखा जाता। नहीं है। दरअसल, विपर्ययज्ञान को अनिर्वचनीयार्थख्यातिरूप अतः विपर्ययज्ञान को प्रसिद्धार्थख्याति रूप मानना | मानने के पीछे ब्रह्माद्वैतवादियों की भावना अनिर्वचनीय भी ठीक नहीं है। ब्रह्माद्वैत के प्रतिपादन व समर्थन की है, परन्तु वह ब्रहाद्वैत 4. आत्मख्यातिवाद किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं होता, जो एक पृथक् विज्ञानाद्वैतवादी या योगाचार (बौद्ध) कहते हैं, कि | विषय है और स्थानाभाव के कारण यहाँ नहीं लिखा विपर्ययज्ञान आत्मख्यातिरूप होता है, क्योंकि उसमें जिस | जा सकता। अर्थ का प्रतिभास होता है वह कोई अन्य नहीं, अपितु इस प्रकार विपर्ययज्ञान को अनिर्वचनीयार्थख्यातिउस ज्ञान का अपना ही आकार है, परन्तु अनादिकालीन | रूप मानना भी युक्तिसंगत नहीं है। विद्या के कारण बाह्य अर्थ जैसा प्रतीत होता है। | 6. विवेकाख्यातिवाद या स्मतिप्रमोषवाद परन्तु विज्ञानाद्वैतवादी का उक्त कथन भी समीचीन प्राभाकर (मीमांसक) कहते हैं कि विपर्ययज्ञान नहीं है, क्योंकि यदि इस प्रकार से सब ज्ञानों को | विवेकाख्याति या स्मृतिप्रमोष रूप होता है, क्योंकि उसमें आत्मख्याति रूप ही माना जाएगा, तो कोई भी ज्ञान भ्रान्त | दो ज्ञानों में विवेक (भेद) की अख्याति या पूर्वदृष्ट अर्थ सिद्ध नहीं होगा, सब ज्ञान अभ्रान्त ही सिद्ध होंगे तथा | की स्मृति का प्रमोष (चोरी) देखा जाता है। उनके अनुसार यदि विपर्ययज्ञान में प्रतिभासित चाँदी आदि पदार्थ आत्मरूप विपर्ययज्ञान में वस्तुतः दो ज्ञान होते हैं। एक ज्ञान तो (ज्ञानरूप) ही हैं, तो उनकी प्रतीति सुखादि की भाँति | सामने स्थित अर्थ का प्रतिभास रूप होता है और दूसरा अन्तरंग अर्थ रूप से ही होनी चाहिए, बाह्य अर्थ रूप | पूर्वदृष्ट पदार्थ का सादृश्यादि के कारण स्मृतिरूप होता से नहीं होनी चाहिए, जबकि स्पष्ट ही उनकी प्रतीति | है। जैसे जब हमें सीप में यह चाँदी है (इदम् रजतम्), बाह्य अर्थ रूप से होती है। वस्तुतः आत्मख्यातिवाद तभी | ऐसा ज्ञान होता है, तब वहाँ वास्तव में एक ज्ञान नहीं समीचीन सिद्ध हो सकता है, जब पहले विज्ञानाद्वैतवाद | होता है, अपितु दो ज्ञान होते हैं। एक तो 'यह (इदम्)' सिद्ध हो जो कथमपि नहीं होता। पद से प्रकट होने वाला प्रत्यक्षज्ञान और दूसरा 'चाँदी अत: विपर्यय ज्ञान को आत्मख्याति रूप मानना | (रजतम्)' पद से प्रकट होने वाला ज्ञान, जो स्मरण रूप भी न्यायसंगत नहीं है। होता है। वहाँ ज्ञाता पुरुष प्रत्यक्ष और स्मृति, इन दो 5. अनिर्वचनीयार्थख्यातिवाद ज्ञानों में भेद नहीं जान पाता. अत: यह विवेकाख्यातिरूप ___ ब्रह्माद्वैतवादी कहते हैं कि विपर्ययज्ञान अनिर्वचनी- | है। अथवा सामने स्थित अर्थ के लिए स्मृति करते हुये यार्थख्यातिरूप होता है, क्योंकि उसमें प्रतिभासित अर्थ | भी उसे स्मृति नहीं कहता, अतः स्मृतिप्रमोष है। विपर्ययज्ञान 14 दिसम्बर 2007 जिनभाषित Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसा विवेकाख्याति या स्मृतिप्रमोष रूप ही होता है। । क्या है? सीप या चाँदी? यदि सीप है, तो उसे सत्ख्यातिरूप परन्तु प्राभाकरों का उक्त मत भी समीचीन नहीं है, कहिए और यदि चाँदी है, तो उसे असत्ख्यातिरूप कहिये। क्योंकि विपर्ययज्ञान में प्रत्यक्ष और स्मरण ये दो ज्ञान नहीं | यह विपरीतार्थख्याति क्या होती है? होते, अपितु एक ही ज्ञान होता है- विपरीत अर्थ को जानने समाधान- सीप में चाँदी के विपर्ययज्ञान का रूप। तथा जिसे वे सादृश्यादि के निमित्त से हुआ स्मृतिप्रमोष | आलम्बन चाँदी ही है, सीप नहीं क्योंकि यदि उसका कह रहे हैं वह वस्तुतः विपरीतार्थख्याति ही है। | आलंबन सीप होता, तो वह विपर्ययज्ञान नहीं कहलाता। 7. विपरीतार्थख्यातिवाद | परंत उसका आलंबन चाँदी होते हये भी उसे असतख्यातिरूप जैन और नैयायिक-वैशेषिक कहते हैं कि विपर्ययज्ञान | नहीं माना जा सकता, क्योंकि यदि असत् अर्थ की भी विपरीतार्थख्यातिरूप होता है, क्योंकि उसमें विपरीत अर्थ | ख्याति होती हो, तो आकाशपुष्पादि की भी होनी चाहिए। की ख्याति होती है। अर्थात् सादृश्यादि कुछ कारणों से | अतः ऐसी स्थिति में यही मानना उचित है कि विपर्ययज्ञान सीप में उसके विपरीत अर्थ चाँदी का ज्ञान हो जाता | में विपरीत अर्थ (सीप से विपरीत चाँदी है, रस्सी से है अथवा मरीचिका में उसके विपरीत जल का ज्ञान | विपरीत सर्प है, इत्यादि) की ख्याति होती है। विपर्ययज्ञान हो जाता है। अतः विपर्ययज्ञान को विपरीतार्थख्याति रूप | | का नाम विपरीतार्थख्याति रूप होने के कारण ही ही मानना चाहिए। विपर्ययज्ञान है। जैनों और नैयायिक-वैशेषिकों का उक्त कथन __ अध्यक्ष जैनदर्शन विभाग न्यायसंगत है। विपर्ययज्ञान को विपरीतार्थख्यातिरूप मानने श्रीलाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ, में कोई बाधा नहीं है। (मानित विश्वविद्यालय), नई दिल्ली- 110 016 शंका- सीप में चाँदी के विपर्ययज्ञान का आलंबन | पार्श्वनाथ विद्यापीठ निबन्ध प्रतियोगिता 2007-08 उद्देश्य- जैन समाज लम्बे समय से यह अनुभव । आयुवर्ग के आधार पर निबन्ध के लिए निर्धारित कर रहा है कि लोगों को जैनधर्म, दर्शन एवं संस्कृति की | पृष्ठ संख्यायथार्थ जानकारी होनी चाहिए, क्योंकि जैनदर्शन में विश्वदर्शन | 18 वर्ष तक- डबल स्पेस में फुलस्केप साइज में बनने की क्षमता है। इस उद्देश्य को दृष्टिगत रखते हुए | टंकित (typed) पूरे चार पेज। 'पार्श्वनाथ विद्यापीठ' नवयुवकों के बौद्धिक विकास एवं 18 वर्ष के ऊपर- डबल स्पेस में फुलस्केप साइज जैनधर्म, दर्शन के प्रति उनकी जागरूकता को बनाये रखने | | में टंकित (typed) पूरे आठ पेज। के लिए प्रतिवर्ष एक निबन्ध प्रतियोगिता का आयोजन कर पुरस्कार- निर्णायक मण्डल द्वारा चयनित प्रतियोगी रहा है, जिससे कि लोगों में पठन-पाठन एवं शोध के प्रति को निम्नानुसार पुरस्कार देय होगारुचि पैदा हो एवं साथ ही विचारों का आदान-प्रदान हो 18 वर्ष तक के प्रतियोगी के लिये- प्रथम पुरस्कारसके। इस कड़ी में यह पाँचवीं निबन्ध प्रतियोगिता है। 2500 रु., द्वितीय पुरस्कार-1500 रु., तृतीय पुरस्कार-1000 विषय : 'अनेकान्तवाद : सिद्धान्त और व्यवहार' । निबन्ध के साथ प्रतिभागी की पासपोर्ट साइज फोटो 18 वर्ष के ऊपर के प्रतियोगी के लिये-प्रथम पूरे पते सहित अपनी शैक्षिक योग्यता का विवरण एवं हाई| पुरस्कार-2500 का पुरस्कार-2500 रु., द्वितीय पुरस्कार-1500 रु., तृतीय पुरस्कारस्कूल सर्टिफिकेट की फोटो प्रति (Xerox copy) भेजना 1000 रु. अनिवार्य है। प्रतियोगिता की भाषा- निबन्ध हिन्दी या अंग्रेजी निबन्ध भेजने का पता दोनों भाषाओं में हो सकते हैं। अन्तिम तिथि- इस निबन्ध प्रतियोगिता के लिये संयोजक-निबन्ध प्रतियोगिता-2007-08, पार्श्वनाथ आलेख 28 फरवरी, 2008 तक भेजे जा सकते हैं। विद्यापीठ आई. टी. आई. रोड, करौंदी, वाराणसी- 221005 (उ.प्र.) डॉ. श्री प्रकाश पाण्डेय निदेशक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी-5 (उ. प्र.) -दिसम्बर 2007 जिनभाषित 15 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरा सोचिए गाय के बारे में श्रीमती मेनका गाँधी दीपावली के दूसरे दिन गाय आदि पशुधन की पूजा की जाती है। रंग बिरंगे छापों और फूल से इन्हें सजाया जाता है। पर्यावरणविद् मेनका गाँधी ने गाय के महत्त्व को समझते हुए अंतरमन से यह महसूस किया है। उन्होंने इस आलेख में विश्व में इस उपयोगी पशु की क्या स्थिति है, इस पर गहरा चिंतन-मनन करते हुए ऐसे तथ्य दिए हैं, जो हमें सोचने के लिए विवश करते हैं। कुछ वर्ष पूर्व एक अँगरेज महिला, जिसे पशुओं । अनाज प्राप्त करने के लिए किसी बटन को दबाकर अनाज के हावभाव समझने का वरदान था, दिल्ली में मेरे आश्रय निकाल सकती है। मानव की तरह ही गाय शीघ्रता से में आ गई थी। एक गाय के पास से जाते हुए वह मेरी उन चीजों से दूर रहना सीख लेती है, जिससे उन्हें दर्द ओर मुड़ी और कहा कि 'यह गाय कहती कि उसके होता है, जैसे कि इलेक्ट्रिक बाड़ तथा क्रूर मनुष्य । सिर में अभी भी दर्द होता है।' उस महिला को पहले से यह नहीं पता था कि उस गाय का कोई एक्सीडेंट हुआ है। गायों में एक-दूसरे से सीखने की क्षमता भी होती है, जो कि उनकी बुद्धिमत्ता का एक और सूचक है, जिसकी तुलना कुत्ते से की जा सकती है। ह्यूमन सोसायटी ऑफ यूनाइटेड स्टेट्स के अनुसार यदि किसी गाय के झुंड में एक गाय को किसी इलेक्ट्रोनिक बाड़ झटका लगता है, तो शेष भी सचेत हो जाती हैं और उससे बचने लगती हैं। उनकी शक्तियाँ काफी सटीक होती हैं, विशेषकर उनकी सूँघने की शक्ति । कुत्ते के समान ही उनकी पहली मंशा आप के पास आकर आपको सूँघने की होती है। उनकी समय की समझ अद्भुत होती है। उन्हें पता होता है कि कब उनका दूध निकाला जाएगा या कब उन्हें भोजन दिया जाएगा । अगली बार जब भी कभी आप मांस को खाएँ अथवा चमड़े के नए जूतों को पहनें, तो याद रखें कि गाय भी अपने दर्द के बारे में बता सकती है। हम इतने होशियार नहीं है कि उनकी बोली को समझ सकें । बिस्टॉल में पशुपालन के प्रोफेसर जॉन वेबस्टर ने एनिमल वेलफेयर लिम्पिग टुवार्ड्स ईडन विषय पर हाल ही में एक पुस्तक प्रकाशित की है । वे कहते हैं कि 'लोगों ने यह मान लिया है कि चूँकि पशुओं का मस्तिष्क छोटा होता है, इसलिए उन्हें मानव से कम पीड़ा होती है। यह एक दयनीय तर्क | है । ' कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में पशु कल्याण के प्रोफेसर storड ब्रूम यह बताते हैं कि किस प्रकार गाय बौद्धिक चुनौतियों को हल करने के लिए उत्साहित रहती है। एक अध्ययन में अनुसंधानकर्ताओं ने गाय को करने के लिए एक क्रिया दी, जिसमें उन्हें यह पता लगाना था कि दरवाजा खोलकर भोजन कैसे प्राप्त किया जाए। उनके मस्तिष्क की तरंगों को मापने के लिए एक 'इलेक्ट्रोएनसेफलो ग्राफ' का उपयोग किया गया था। उनके मस्तिष्क की तरंगों ने दर्शाया कि हल का पता लगने पर उनके हृदय की धड़कन बढ़ गई थी और कुछ तो हवा में भी उछलने लगी थीं। अनुसंधानों ने दर्शाया है कि गाय स्पष्टतः कारण एवं प्रभाव संबंधों की जानती है। पहचानने की विकसित क्षमताओं का एक स्पष्ट लक्षण है, उदाहरण के लिए गाय प्यास लगने पर किसी पानी के फव्वारे को चलाने के लिए लीवर को चलाना सीख सकती है अथवा भूख लगने पर 16 दिसम्बर 2007 जिनभाषित गाय सीखे गए सबक को भूलती नहीं है। उनकी याददाश्त काफी अच्छी होती है। उन्हें अपने घर का रास्ता याद रहता है और वे अपने पसंदीदा स्थल पर वापस जाने का रास्ता ढूँढ सकती हैं (इतना तो मैं भी नहीं कर पाती) । उन्हें वस्तुएँ कहाँ रखी हुई हैं, निकलने के रास्ते, पानी पीने के स्थान, आश्रय तथा अपने नवजात बछड़े की स्थिति के बारे में याद रहता है। अनुसंधानकर्ता यह भी बताते हैं कि गाय कई माह बाद भी किसी घास के मैदान में चरने के अच्छे स्थान को याद रख सकती है। गायों द्वारा बोली में बेच दिए जाने के पश्चात् अपने मार्ग को याद रखने की क्षमताओं के कारण वापस घर लौट आने के किस्से आम हैं। कुछ गाय तो उन्हें भी कभी नहीं भूलती, जिन्होंने उसे चोट पहुँचाई होती है और उन्हें उस प्रजाति के अन्य सदस्यों के साथ भी द्वेष रखते हुए देखा गया है। रॉसामुंड यंग एक बूढी गाय तथा उसकी पुत्री के मध्य कलह का ब्योरा देते हैं कि बूढ़ी गाएँ अक्सर अपनी बेटियों Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की पालन-पोषण के कार्यों में सहायता करती हैं, परंतु ओलिविया नामक एक गाय इसमें बिलकुल भी सहायता नहीं चाहती थी । उसने पालन-पोषण में सहायता करने के अपनी माँ के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। अंततः अप्रसन्न होकर उसकी माँ चरने के लिए अपने अन्य साथियों के साथ एक दूसरे खेत में चली गई और उसने फिर कभी अपनी बेटी से 'बात' नहीं की। दयापूर्ण व्यवहार किए जाने पर गाय वफादार साथी सिद्ध हो सकती है। स्टेफनी लैलेंड अपनी पुस्तक 'पीसफुल किंग्डम रैंडम एक्टस ऑफ काइंडनेस बाय एनिमल्स' में लिखती हैं कि जब पादरी ओएफ राबर्टसन की आँखों की ज्योति जाने लगी तो उनकी गाय मैरी उनकी आँखों की ज्योति बन गई। मैरी उनके साथ-साथ चलते हुए बाधाओं से उनकी रक्षा करती थी। राबर्टसन अपने शेष जीवन में जहाँ कहीं भी गए, मैरी उनके साथ-साथ गई। अपने परिवार, मित्रों अथवा मानव - सखाओं से बिछड़ने पर गाय को उनके खो देने की पीड़ा महसूस होती है। अनुसंधानकर्ता बताते हैं कि गाय थोड़े समय की जुदाई में भी दुखी दिखाई देती है। गाय तथा उसके बछड़े का संबंध खासतौर से मजबूत होता है और ऐसे असंख्य उदाहरण हैं, जब गाय से उसके बछड़े को छीनकर कसाइयों बेच दिए जाने के पश्चात् उसे पागलों की तरह चिल्लाते हुए देखा गया है। वे काफी दिनों तक उस बाड़े के बाहर जहाँ उन्होंने अपने बछड़े को अंतिम बार देखा था, दुख में खड़ी रहती हैं और चिल्लाती हैं तथा जबर्दस्ती हटाए जाने पर ही वहाँ से हटती हैं। कुछ सप्ताह पश्चात् वे फिर उसी स्थान पर यह देखने के लिए वापस आएँगी कि क्या उनका बछड़ा वापस आ गया है। अन्य सभी पशुओं के समान ही गाय को भी अपना जीवन मूल्यवान् लगता है और वे मरना नहीं चाहती हैं। ऐसे किस्से बहुतायत में हैं, जहाँ गाय ने अपने जीवन की रक्षा करने के लिए असाधारण लड़ाइयाँ लड़ी थीं । सूजी नाम की एक गाय को जब एक भार-वाहक में चढ़ाया जाना था, तो वह पीछे की ओर मुड़ी, लकड़ियों के ढेर पर भागी और फिर उसने नदी में छलांग लगा दी । यद्यपि वह गर्भवती थी, फिर भी वह तैरकर नदी पार करने में सफल रही और कई दिनों तक पकड़ में नहीं आई। उसे पीटा (पीईटीए) द्वारा बचाकर फार्मवाले पशुओं की एक सेंचुरी में भेज दिया गया था । मांस खाने का अर्थ है ऐसे पशुओं को खाना जो मरना नहीं चाहते हैं । अमेरिका में प्रत्येक वर्ष 40 मिलियन से अधिक गायों की, मांस तथा डेयरी उद्योग द्वारा हत्या की जाती है। जब वे कम उम्र की ही होती हैं तब ही उन्हें गर्म सलाखों में जलाया जाता है, उनके अंडकोशों को निकाल दिया जाता है और उनके सीगों को काटा अथवा जलाया जाता है, वह भी बिना पेनकिलर के। थोड़ा बड़ा होने के पश्चात् उन्हें बहुत बड़े मिट्टीवाले भोजन करने के स्थानों में वध किए जाने हेतु मोटा होने के लिए भेजा जाता है। डेयरी में रहने वाली लाखों गायें अपना अधिकांश जीवन या तो बड़े-बड़े शेड में अथवा उनका मल लगे हुए मिट्टी के ढेरों में व्यतीत करती हैं, जहाँ पर रोग काफी फैले होते हैं। दूध के लिए पाली जानेवाली गायों को बारबार गर्भवती किया जाता है और उनके बछड़े को उनसे लेकर बछड़े के मांसवाले फार्मों अथवा अन्य डेयरी फार्मों को भेजा जाता है। जब उनका थका हुआ शरीर और दूध नहीं दे सकता है, तो उन्हें वधगृह भेज दिया जाता है। 'नई दुनिया' इन्दौर, 10 नवम्बर 2007 से साभार समता पैर में तकलीफ बढ़ती ही जा रही थी आचार्य महाराज कक्ष में आये और मुझसे पूँछने लगे क्यों महाराज कैसी है तकलीफ। मैंने कहा बढ़ती ही जा रही है आचार्य श्री बोले इस रोग में कोई औषधि तो काम करती ही नहीं है। समता ही रखनी होगी। मूलाचार में साधु को सबसे बड़ी औषधि बताई है बताओ वह क्या है? मैंने कहा जी आचार्य श्री समता । खुश होकर आचार्य श्री बोले बहुत अच्छा ऐसी ही समता बनाए रखना। मैनें कहा आपका आशीर्वाद रहा तो सब सहन हो जावेगा आप आ जाते हैं तो साहस बढ़ जाता है आचार्य श्री कहते हैं भैया और मैं क्या कर सकता हूँ आशीर्वाद ही दे सकता हूँ। मैंने कहा आपके आशीर्वाद से ही मुझे सब कुछ मिल जाता । मुनि श्री कुंथुसागर - कृत 'संस्मरण' से साभार दिसम्बर 2007 जिनभाषित 17 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिस्किट और दिग्भ्रमित ग्राहक भ. १००८ श्री आदिनाथ युवक संगठन, फलटन (जि.-सातारा) महाराष्ट्र की ओर से __ भ. महावीर जयंति के शुभ अवसर पर प्रकाशित पत्रक सब प्रकार के पॅकेज्ड फूड के लिए सरकार ने | आटा, पानी में कई घटक मिलाकर बिस्किट बनाये कानून बनाये हैं। उस कानून के तहत सभी खाद्यपदार्थों | जाते हैं। इनमें रंग, सुगंधित द्रव्य प्रिजरर्वेटिवज्, एंटीपर शाकाहारी या मांसाहारी लिखना अनिवार्य है। परंतु | ऑक्सीडंट, थिकनरर्स, स्वीटनर्स, स्टेबिलाजर्स, एसिडिटी, दुर्भाग्य की बात है कि इस कानून पर अमल करनेवाले | रेग्युलेटर्स, आदि अनेक एक्टीवेटिब्ज, प्राणीजन्य पदार्थों से सरकारी अधिकारी रिश्वत के चंगुल में फँसते हैं और इन | बनाये जाते हैं। उदाहरण- अन्नपदार्थ और पेयपदार्थों में पॅकेज्ड फूड के कानून से छुटकारा पाने के कई अवैध | लाल रंग यह कोचिनियल बीटल्स (Cochineal Beetles) मार्ग अपनाये जाते हैं। मछली, अण्डे या मांस जिन पदार्थों | से बनाया जाता है। मेक्सिकन कीड़ों से यह रंग बनता है। में मिलाया जाता हो, उन पर लाल निशान होना आवश्यक | इसका मतलब यह है कि यह रंग वनस्पतिजन्य नहीं है। है और जिन पदार्थों में शाकाहारी पदार्थ मिलाये गये हैं, इ-नंबर्स- बिस्किट के पैकेट पर देखिये, उसपर उन पर हरा निशान आवश्यक है। यह हरा निशान ही अब | (E-Numbers) लिखे होते हैं। योरोपीय देशो में 'ई-नम्बर' ग्राहकों को दिग्भ्रमित कराने के लिए और फँसाने के लिए | की पद्धति आवश्यक की है। 'पार्ले जी' का नया 300 उपयोग में लाया जा रहा है। ऐसे कई केसेस हैं जिनमें | ग्राम का पैक लीजिए। उसको ध्यान से पढ़िए, उसमें मांसाहारी पदार्थ उपयोग में लाये जाते हैं और वे विटामिन | इम्युलसि-फायर्स 322, या 471 और 481 नम्बर छपा हुआ के नाम पर चला दिए जाते हैं। ग्राहकों को कभी नहीं बताया | है। कुछ माल पर कॅल्शियम सॉल्ट A 233 S > 0 जाता कि विटामिन 'ए' यह मछलीतेल से किया गया | कंडिशनर 223 और इस प्रकार के ई-नम्बर अत्यंत बारीक उत्पादन है। ऐसे अनेक पदार्थों पर हरा निशान भी नहीं | अक्षरों में छपे हुए होते हैं, परंतु पढ़े जा सकते हैं। लगाया जाता। मिठाई में भी ये ही मांसाहारी पदार्थ उपयोग सच्ची रहस्यकथा तो यहीं से आरंभ होती है। में लाये जाते हैं। यह जानकर कई शाकाहारी सज्जनों को | देशभर के बिस्किट-उत्पादक उपर्युक्त पदार्थ विदेशों से चक्कर आ जायेगा। (कुछ मंदिरों में महावीरजयंति के अवसर | मँगाते हैं। उसके लिए केंद्रशासन से परमिट आवश्यक होता पर बीमार लोगों को बिस्किट बाँटे जाते हैं। क्या यह उचित | है। सब मांसाहारी अंतर्घटक हैं। उसके लिए मांसाहारी | आयात परमिट (अनुज्ञापत्र) बिस्किट-उत्पादक कंपनियाँ बिस्किट : कितने शाकाहारी कितने मांसाहारी? सरकार से प्राप्त करती हैं। परंतु देश में उन घटकों को कुछ महिनों पहले २४ लोकसभा सदस्यों ने केन्द्रीय | शाकाहार के नाम पर बेचकर ग्राहकों को ठगा जाता है। अन्न प्रक्रिया मंत्रालय से बेकरी माल और बिस्किट उत्पादन | अगर शाकाहारी माल मँगाना होता, तो उनके लिए मांसाहारी कंपनियों की जाँच करने की मांग की थी। उनकी शिकायत | परमिट की क्या जरुरत थी? यह सादा, सरल प्रश्न है। के अनुसार इन खासदारों ने आरोप लगाया है कि बेकरी | केन्द्र सरकार 'अन्न प्रक्रिया मंत्रालय' को भी इसके बारे माल और बिस्किट्स में प्राणियों की चरबी (Animal Fat) | में 'न खेद न दुःख' शाकाहारी जनता तो इसकी बली चढ़ उपयोग में लायी जाती है। यह चरबी सुअर, गाय, कुत्ता | जाती है, विशेषतः अहिंसाधर्मीय जैन, ब्राह्मण आदि समाज और बंदरों को कत्ल कर बिस्किट उत्पादनों में उपयोग के साथ तो यह सीधा-सीधा धोखा है। निम्नलिखित नंबर्स में लायी जाती है। इस गम्भीर शिकायत के तहत देशभर | उनके लिए नहीं है, यह ध्यान में रखा जाए। A-120, 441, में ब्रिटानिया मिल्क विक्कीज, मेरी गोल्ड, टायगर, गुड डे, | 542, 904, 920 के साथ ही ल्यूसीन (Leucine) और पार्ले जी, मोनॅको, हाईड और सिक इन कंपनियों की जाँच, | (Spermaceti/Sperm) इनके कोई नम्बर नहीं होते। व्हेल केंद्र सरकार ने आरंभ कर दी है। इससे कुछ गम्भीर बातें | मछली के सिर का सफेद चरबीयुक्त पदार्थ ही स्पर्मासेटी ग्राहकों के सामने आ रही हैं। बिस्किट कैसे बनते हैं? हिन्दी अनुवाद : सौ. लीलावती जैन 18 दिसम्बर 2007 जिनभाषित Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखण्ड का जैन कला-वैभव श्री राकेश दत्त त्रिवेदी भारतीय इतिहास में बुन्देलखण्डक्षेत्र का एक महत्व-। उदारता की भावना के अनुसार उन्होंने जैन और बौद्धधर्म पूर्ण स्थान रहा है। इस क्षेत्र का बुन्देलखण्ड नाम लगभग | तथा मूर्तिकला को भी प्रोत्साहन प्रदान किया। यद्यपि 14 वीं शताब्दी में प्रचलित हुआ। इसके बहुत पहले | विदिशा के आसपास किसी जैन मंदिर के अवशेष नहीं सातवीं-छटीं शताब्दी ई.पू. में यह भूभाग चेदि एवं वत्स | मिले हैं लेकिन विदिशा के पड़ोसी जिले दमोह में स्थित नामक जनपदों में आता था जिसका उल्लेख बौद्ध तथा कुण्डलपुर में जैन मंदिरों के उदाहरण प्राप्त होते हैं। इससे जैन ग्रन्थों में मिलता है। इसके पश्चात् यह क्षेत्र जेजाकमुक्ति | विदित होता है कि इस भूभाग में जैन मंदिर निर्माणकला नाम से प्रसिद्ध हआ जिसमें आधुनिक बुन्देलखण्ड का | और प्रतिमा निर्माण प्रचलित था और उनके उपासक इस अधिकांश भाग सम्मिलित था। कला के क्षेत्र में प्राचीनकाल | क्षेत्र में बड़ी संख्या में रहे होंगे। से इस भूभाग का बड़ा भारी योगदान रहा है। ई.पू. दूसरी | कुण्डलपुर में जैन मंदिरों का जो प्राचीन रूप हमारे शताब्दी में भरहुत नामक स्थान प्राचीन स्तूप और उससे सामने आता है वह प्रारम्भिक गुप्तकालीन मंदिरों का ही सम्बन्धित शिल्य कला का केन्द्र था। मध्यप्रदेश के पन्ना रूप है। इनमें वर्गाकार गर्भगृह और उसके सामने स्तम्भयुक्त जिले के 'नचना' नामक स्थान के समीप जैन तीर्थंकारों | मुखमण्डप देखने को मिलता है जो साधारण सी पट्टिकाओं की गुप्त कालीन (पांचवीं शताब्दी) मूर्तियाँ वाले अधिष्ठान पर निर्मित हैं। इसका भित्तिभाग सादा है इनमें से पीठिका पर पद्मासन में बैठी हुई जिन प्रतिमा | और छत समतल पत्थर से ढकी है। मुखमण्डप के चौकोर शान्तभाव के लिए दर्शनीय है। इस स्तम्भ घटपल्लव से अलंकृत कुंभिका पर बने हैं और उनके क्षेत्र में जैन मूर्तियों के मिलने से संकेत मिलता है कि इसके | ऊपरी भाग गोलाई वाले ब्रेकेटों से सुसज्जित हैं। अपने आसपास जैनमंदिर भी रहा होगा जो अब सुरक्षित नहीं है।| तल और निर्माण योजना में कुण्डलपुर के प्राचीन जैन मंदिर दुर्जनपुर गाँव (जिला-विदिशा, मध्यप्रदेश) से प्राप्त | सांची के मंदिर नं. 17 और उदयगिरि (विदिशा) की गुफा तीन तीर्थंकर मूर्तियाँ गुप्तकाल में जैन मूर्तिकला के विकास | नं.1 से मिलते हैं। यह तथ्य हमको एक सर्वमान्य सत्य का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत करती है। तीनों मूर्तियाँ पद्मासन | का स्मरण दिलाता है कि कला के क्षेत्र में कलाकारों के में ध्यान मुद्रा में आसीन प्रदर्शित की गई हैं, जिनकी पीठिका | लिए ब्राम्हण जैन या बौद्ध जैसा कोई भेद नहीं था, भेद पर बाहर की ओर उन्मुख सिंहों का प्रदर्शन किया गया | था तो केवल मूर्तियों की पहचान या स्वरूप में, लेकिन है और पीठिका के मध्य में धर्मचक्र निर्मित है। मूर्तियों | उन सबका कलात्मक पक्ष एक ही था। कुण्डलपुर के के वक्ष-स्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह अंकित स्पष्ट रूप ही बड़े बाबा नामक मंदिर में अनेकों तीर्थंकर और यक्षिणी से परिलक्षित होता है। इन मूर्तियों का उल्लेख इनकी | मूर्तियाँ सुरक्षित हैं जो प्रतिमाविज्ञान की दृष्टि से महत्वपूर्ण पीठिका पर अंकित लेख से और भी बढ़ गया है। जिसके | हैं और यहाँ के विस्तृत मंदिर समूह की स्थिति और कला अनुसार इनकी स्थापना गुप्त सम्राट महाराजाधिराज रामगुप्त | की परिचायक हैं। ने करवायी थी। विदिशा के समीप उदयगिरि गुफा नं. 20 | | मध्यप्रदेश के सतना जिले में पिथौरा नामक स्थान में गुप्तराजा कुमारगुप्त प्रथम के काल का एक लेख मिलता | पर पतैनी देई नाम से प्रसिद्ध जैन मंदिर समतल छतवाले है जिसमें तीर्थकर पार्श्वनाथ की प्रतिमा के निर्माण का | | मंदिरों का परवर्ती उदाहरण है जिसका निर्माण 100 ई. उल्लेख है और यह भी लिखा है कि इस प्रतिमा के ऊपर | के आसपास हुआ होगा। इसके द्वारभाग का अलंकरण सर्पफणों का निर्माण किया गया था। यह प्रतिमा अब | विशेष रोचक है। द्वार शाखाओं के निचले भाग पर गंगा उपलब्ध नहीं हैं। इस प्रकार आधुनिक बुन्देलखण्ड के | और यमुना की मूर्तियाँ यक्ष द्वारपालों के साथ बनाई गई सीमावर्ती और निकटस्थ प्रदेश में गुप्तकाल में जैन मूर्तिकला | हैं जिनके ऊपर त्रिशाखा पट्टिकाएँ पत्रलता और पुष्पशाखा की सशक्त परम्परा प्रचलित थी। गुप्त सम्राट स्वयं तो | से उत्कीर्ण हैं। द्वार के सिरदल पर तीन जिन मूर्तियाँ परमभागवत थे किन्तु अपनी धार्मिक सहिष्णुता और | स्तम्भिका युक्त रथिकाओं में पद्मासन में बैठी हैं। सतना दिसम्बर 2007 जिनभाषित 19 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | जिले के ही तुलसी संग्रहालय, रामवन में तीर्थंकर पार्श्वनाथ की प्रतिमा सुरक्षित है जिसके पार्श्वभागों में त्रिभंग मुद्रा में इन्द्र और उपेन्द्र प्रदर्शित हैं। सुन्दर गठन और आध्यात्मिक अभिव्यक्ति से परिपूर्ण मूर्ति गुप्तकाल का परवर्ती उदाहरण प्रस्तुत करने के कारण लगभग 7वीं शताब्दी की कृति मालूम पड़ती है। नचना के समीप सिरा पहाड़ी से तीर्थंकर आदिनाथ और पार्श्वनाथ की दो प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं जो नचना में पल्लवित शिल्पकला से सम्बन्धित प्रतीत होती हैं और लगभग 8वीं शताब्दी में निमित्त हुई होगी। मध्यप्रदेश के जबलपुर क्षेत्र ओर तेवर ( प्राचीन त्रिपुरी, जिला- जबलपुर) से कलचुरि राजाओं के काल की अनेकों जैन मूर्तियों प्राप्त हुई हैं जो लगभग 9वीं से 12वीं शताब्दी की हैं। इनमें से जिन धर्मनाथ की मूर्ति नागपुर संग्रहालय में है और उस प्रकार की तीर्थंकर आदिनाथ त्रिपुरी से प्राप्त मूर्ति भारतीय संग्रहालय, कलकत्ता, में सुरक्षित है। त्रिपुरी से उपलब्ध अनेकों तीर्थंकर मूर्तियाँ जबलपुर संग्रहालय में देखी जा सकती है। जबलपुर क्षेत्र बुन्देलखण्ड की पूर्वी बाहरी परिधि है जिसने बुन्देलखण्ड पूर्वी भाग को कलचुरि राजाओं के काल ( 9वीं से 12वीं शताब्दी) में प्रभावित किया । देवगढ़ (जिला- ललितपुर, उत्तरप्रदेश) जहाँ गुप्तकालीन दशावतार मंदिर के लिए प्रसिद्ध है वहीं जैन मंदिरों के एक विशाल समूह के लिए भी। इस मंदिर समूह के लगभग 31 जैन मंदिर 9वीं से 12वीं शताब्दी के मध्य पहाड़ी पर निर्मित हुए जो अपने आप में जैन स्थापत्य और शिल्पकाल के अध्ययन का विस्तृत विषय हैं। जैन स्थापत्य ओर चंदेल राजाओं के काल में हुआ। कुछ मंदिरों को छोड़कर अधिकतर मंदिर छोटे आकार के है जिनका निर्माण वर्गाकार या आयताकार तल योजना पर किया गया ओर जिनमें गर्भगृह तथा उसके सामने मुखमण्डप स्थित है । अधिकांशतः ये मंदिर समतल छतवाले हैं, केवल दो मंदिर नं. 12 और नं. 28 शिखर युक्त हैं । यहाँ पर विभिन्न आकार -प्रकार की मूर्तियाँ और मानस्तम्भों के उदाहरण भी बड़ी संख्या में मिलते हैं। इन मंदिरों में से दो मंदिर नं. 12 और नं.15 अनी स्थापत्य विशेषताओं के कारण विशेष रूप से वर्णनीय हैं। शान्तिनाथ मंदिर ( मंदिर नं. 12) इस मंदिर के सामने स्थित मुख-चतुष्की के एक स्तम्भ पर प्रतीहार वंशीय 20 दिसम्बर 2007 जिनभाषित भोजदेव (मिहिर भोज) के समय का 862 ई. का एक अभिलेख मिलता है जिसपर उत्कीर्ण है कि स्तम्भ का निर्माण शान्तिनाथ मंदिर के समीप ( शान्त्यायतनसन्निद्ये) किया गया। पश्चिमाभिमुख इस मंदिर में गर्भगृह और अन्तराल प्रदक्षिण्मपथ से आवेष्टित हैं। इसके सामने अनेक स्तम्भोंवाला मण्डप बाद में निर्मित हुआ । प्रदक्षिण्मपथ से बाहर की और जाने के लिए मुख्य द्वार के अतिरिक्त तीनों ओर द्वार हैं। मंदिर का अधिष्ठान नीचा और अपेक्षाकृत सादा है किन्तु उसके ऊपर जंघाभाग स्तम्भिका तथा उद्गमों के नीचे जैन यक्षी प्रतिभाओं से सुशोभित है जिनकी पहचान के लिए सुलोचना, सुमालिनी, सुलक्षणा आदि नाम भी लिखे मिलते हैं । जंघा के ऊपर करण्डिका भाग पर तालपत्र, घंटिकामाला, सिंहमाला आदि से विभूषित पट्टिकाएँ हैं जिनके ऊपर शिखर आधारित है- पंचरथ की चौड़ी मध्यलता के दोनों और कर्णभाग पर निर्मित चिपटे भूमि आमलक शिखर की ऊँचाई दर्शाते हैं। शिखर के सामने त्रिभुजाकार शुकनसिका के निचले भाग में एक देवकुलिका का द्वार है जिसके दोनों ओर कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ी दोदो जिन प्रतिमाएँ निर्मित की गई है। शुकनासिका के शीर्षभाग पर पदमासन में आसीन एक जिन मूर्ति स्थित है। मंदिर में प्रवेश के लिए मुख्य द्वार प्रदक्षिणा पथ में ले जाता है और दूसरे द्वार से गर्भगृह में प्रवेश मिलता है। गन्धर्वशाखा, मिथुनशाखा और गंगा-जमुना की मूर्तियों से अलंकृत द्वार मुख्य मंदिर से कुछ बाद के हैं जैसा कि उनके शिल्प और उन पर लिखी तिथियों से ज्ञात होता है। द्वार के ऊपर ललाटबिम्ब पर तीन जिन प्रतिमाएँ हैं जिनके दोनों और नवग्रह तथा वीणापाणि सरस्वती की मूर्तियाँ विराजमान हैं। इसके ऊपर सिरदल (उत्तरंग) पर जिन प्रतिमाओं के साथ-साथ जैन धर्म के सोलह मांगलिक प्रतीक भी दर्शाये गये हैं जिनका स्वप्न में दर्शन तीर्थंकर की माता ने किया था। गर्भगृह में प्रवेश के लिए अन्तराल भाग में स्थित सीढ़ियों से उतरना पड़ता है क्योंकि उसका तल प्रदक्षिणा पथ से नीचा है। गर्भगृह के अन्दर कुंभिका, पट्टिका आधार है। पिछले भाग में तीर्थंकर शान्तिनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठापित है जिसके दोनों और दो-दो अनुचर बने हैं। यहाँ यह स्मरणीय है कि मंदिर के सामने की चतुष्की के एक स्तम्भ पर शान्तिनाथ के आयतन का उल्लेख है। और यह प्रतिमा उसी को प्रमाणित करती है। गर्भगृह में जैन देवी अम्बिका की प्रतिमाएँ भी स्थापित हैं जिनके बांये | Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक में एक शिशु है और दाहिने हाथ से एक दूसरे शिशु । विशेषरूप से आकर्षक हैं। प्रतीहारों के बाद जेजाबभुक्ति को आम्रछौर प्रदान करती है। ये देवियाँ फलों से झुके | के चंदेलों के समय (11वीं-12वीं शताब्दी) में देवगढ़ में आम्रवृक्ष के नीचे खड़ी दर्शायी गई हैं जिसके पीछे एक | मंदिर निर्माण विविधरूप से होता रहा जैसा कि अनेक जैन सिंह बैठा है। मंदिरों के अवशेषों से ज्ञात होता है। चंदेलवंश के राजा मंदिर नं. 15 शान्तिनाथ मंदिर के निकट स्थित इस | कीर्तिवर्मन का एक लेख भी यहाँ मिला है जिसमें इस मंदिर का तलविन्यास और आयोजन भिन्न प्रकार का है। | स्थान को कीर्तिगिरि कहा गया है जो संभवतः उस पहाड़ी यह त्रिरथ मंदिर सर्वतोभद्र प्रकार का लगता है जिसके चारों | के कारण कहा गया होगा जिस पर आज जैन मंदिर स्थित ओर बाहर की ओर निकलते हुए भद्र हैं। अन्दर एक बड़ा | हैं। मण्डप है जिसके तीन ओर गर्भगृह हैं और सामने मुखमण्डप | ललितपुर जिले में चाँदपुर और देघई मध्यकालीन है। जंघा के बाहरी भद्रभाग पर तीनों और एक एक | स्थापत्य और शिल्पकला के केन्द्र थे जहाँ से जैन धर्म देवकुलिका बनाई गई है जिनके अन्दर पद्मासन में बैठी से सम्बन्धित मूर्तियों भी प्राप्त हुई। ये स्थान भी ब्राह्मण तथा कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ी तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ प्रतिष्ठापित और जैन मंदिरों के साथ-साथ स्थित होने के प्रमाण प्रस्तुत की गई हैं। सामने मुखमण्डप में मंदिर का द्वार अपनी | करते हैं। सीरों खुर्द (प्राचीन सीयडोणी जिला-ललितपुर) सुन्दर शिल्पकारी के लिए आकर्षक है जिसकी देहरी | भी जैन शिल्पकला के लिए स्मरणीय है। यहाँ एक विशाल (उदुम्बर) पर मन्दारक, कमल, किन्नर-मिथुन कीर्तिमुख | जैन मंदिर पूजा में है जिसमें तीर्थंकर यक्षी और अन्य और आक्रान्त सिंह बने हैं। द्वार-पार्श्व के निचले भागों प्रतिमाओं के अवशेष बड़ी मात्रा में देखे जा सकते हैं। पर मकर-वाहिनी गंगा और कच्छप-वाहिनी यमुना का | अभिलेखों से ज्ञात होता है कि 10वीं-11वीं शताब्दी में चित्रण हुआ है जिनके ऊपर द्वारशाखाएँ पत्रशाखा, रूपशाखा, | प्रतीहारों के काल के काल में सीरों-खुर्द स्थापत्य और नागशाखा से सुशोभित हैं। रूपशाखा में पद्मासन पर | शिल्पकला का बड़ा भारी केन्द्र था। ललितपुर जिले से विराजमान जैन तीर्थंकरों का प्रतिरूपण किया गया है तथा लगा हुआ मध्यप्रदेश का क्षेत्र है जहाँ चंदेरी, बूढी-चंदेरी द्वार के ऊपर ललाटबिम्ब पर पद्मासन में जिन-प्रतिमा और थोबन (जिला-गुना) में प्राप्त स्थापत्य अवशेषों और निर्मित हुई है जिसके दोनों ओर उसी प्रकार की आठ और मूर्तियों से जैन कला के विकास और प्रचार का आभास मूर्तियाँ हैं। मिलता है। थोबन के पास प्राचीन विशाल मूर्तियों को __ स्तम्भयुक्त मण्डप के अन्दर तीन द्वार हैं जिनसे | सूरक्षित रखने वाले जैन मंदिर अब भी पूजा में है। भद्रभाग पर निर्मित गर्भगृहों में प्रवेश मिलता है जिनमें अहार (जिला-टीकमगढ़) में चंदेल काल के मंदिरों तीर्थंकर मूर्तियों स्थापित की गई हैं। इस मंदिर की जीर्णोद्धार और मूर्तियों के अवशेष मिलते हैं जहाँ मंदिरों के अतिरिक्त बाद में बड़े पैमाने पर किया गया है इसलिए इसके मौलिक अन्य भवनों और तड़ागों का निर्माण भी कराया गया। रूप, विशेषतया शिखरभाग, के आकार का ज्ञान नहीं हो शान्तिनाथ बाहुबली और अन्य जिन मंदिरों के साथ यहाँ पाता। इसी प्रकार देवगढ़ के अन्य जैन मंदिरों का भी | कई मानस्तम्भों का निर्माण हुआ। स्थानीय संग्रह में सुरक्षित जीर्णोद्धार और पुननिर्माण इतना अधिक हुआ है कि उनमें | गरुड़ासीन यक्षी चक्रेश्वरी की प्रतिमा उस क्षेत्र की मध्यकालीन से बहुतों का रूप ही बदल गया है। इन दोनों मंदिरों का | शिल्पकला का प्रतिनिधित्व करती है। जैन मूर्तियों की निर्माण प्रारम्भिक 12वीं शताब्दी में किया गया जैसा कि | पीठिकाओं पर प्राप्त लेखों से यहाँ की कई जैन श्रेष्ठियों ऊपर वर्णित भोजकालीन लेख और शिल्प विशेषताओं से | का पता चलता है जिन्होंने इस जैन केन्द्र के विकास में विदित होता है। देवगढ़ के मंदिर का नं. 16 और 19 के | योगदान किया। टीकमगढ़ के पास ही बानपुर से एक अवशेष भी अपने शिल्पाकरण और द्वारशाखाओं के निर्माण | सर्वतोभद्र-सहस्रकूट मिला है। जो आकार में छोटा होने में इन मंदिरों से मिलते हैं और 9वीं शताब्दी के प्रतीहार | पर भी सुन्दर रेखा शिखर के कारण उल्लेखनीय है। इसमें कालीन प्रतीत होते हैं। इनके द्वारभाग पर निर्मित गंगा- | गंगा-यमुना, नवग्रह, पत्रलता तथा आदिनाथ और सरस्वती युमुना की मूर्तियाँ जिनके ऊपर हंसमिथुन, नागशाखा, | प्रतिमाएँ सुन्दरता से उत्कीर्ण की गई है। इसी प्रकार जिनप्रतिमायुक्त सृपशाखा, पत्रशाखा तथा स्तम्भ शाखा | टीकमगढ़ के पास पपौरा और नवगढ़ा जैनियों के पवित्र -दिसम्बर 2007 जिनभाषित 21 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थान थे। सागर जिले में बीनाबरहा स्थान पर जैन कला के अवशेष मिलते हैं जिनमें दो मंदिर और एक गन्धकुटी मुख्य हैं। इनमें से एक मंदिर तीर्थंकर चन्द्रप्रभु को समर्पित है और दूसरा शान्तिनाथ को। ये मंदिर यद्यपि बहुत बाद के हैं, फिर भी जैन मंदिरों के निर्माण की परम्परा परवर्ती काल में दर्शाते हैं। की और उभरा है । बहारी दीवार पर तीन स्तरों पर बनी हुई सुन्दर मूर्तियाँ अपनी कला और अभिव्यक्ति के लिए बेजोड़ हैं। इन मूर्तियों में वैष्णव विषयों की प्रधानता है, जैसे परशुराम, बलराम-रेवती, राम-सीता, हनुमान, कृष्ण का यमलार्जुन आख्यान, लक्ष्मी-नारायण आदि । शिव, अग्नि, रति कामदेव और विविध सुरसुन्दरी प्रतिमाएँ अपने भव्य रूप में उत्कीर्ण हैं। छतरपुर जिले में स्थित खजुराहों अपनी स्थापत्य कला और शिल्पकला के लिए विश्व विख्यात है जहाँ चंदेल राजाओं के समय एक बहुत बड़े मंदिर समूह का निर्माण हुआ। इतना बड़ा कला क्षेत्र जैनधर्म से कैसे अछूता रह सकता था । फल स्वरूप यहाँ अनेक जैन मंदिरों का निर्माण हुआ जिनमें से पार्श्वनाथ और आदिनाथ मंदिर तथा शान्तिनाथ ओर घण्टाई मंदिरों के अवशेष अब भी देखे जा सकते है। घण्टाई मंदिर का मुखमण्डप और महामण्डप ही अवशेष है जिनका समतल वितान चार ऊँचे स्तम्भों पर टिका हुआ है। इस मंदिर के अलंकृत स्तम्भ अपने निर्माण कौशल और सूक्ष्म शिल्पांकरण के लिए विशेष रूप से दर्शनीय है। जिनके ऊपरी भाग पर कीर्तिमुखों से लटकते हुए घंटे मनमोहक है। संभवतः इन्हीं घण्टों की सुन्दर शिल्पकारी के कारण इसको घण्टाई नाम दिया गया होगा । मंदिरों में सुन्दर घण्टों की सजावट और उसका अलंकृत वितान उसके शिल्पांकरण में विशेष उल्लेखनीय माने गये है। मंदिरों के संदर्भ में इसलिए उनकी चर्चा शिल्प साहित्य में विशेषतया की गई है। मत्स्यपुराण में मंदिर निर्माण के महत्व को दर्शाते हुए कहा गया हैघण्टावितानसतोरणचित्रणांकं, नित्योत्सवप्रमुदितेन जनेन सार्धम् । यः कारयेत् सुरंगृहं विविधध्वजांकं, श्रीस्तं न मुच्यति सदा दिवि पूज्यते च ॥ इसके महामण्डप द्वार के ऊपर अष्टभुजी यक्षी चक्रेश्वरी गरुड़ पर आसीन है। द्वार के उत्तरंग पर 16 पवित्र प्रतीक बने हैं। जिन्हें तीर्थंकर महावीर की माता ने उनके जन्म से पूर्व (स्वप्न में) देखें । क्षिप्र - वितान और उसके लटकते हुए आश्र्चय जनक लम्बनों को देखता हुआ दर्शक मंदिर के महामण्डप अन्तराल और प्रदक्षिणपथ में प्रवेश करता है । महामण्डप के द्वार पर गरुड़ासीन यक्षी चक्रेश्वरी की मूर्ति तथा गर्भग्रह के द्वार पर जिन मूर्तियों निर्मित हुई है । ब्राह्मण धर्म की मूर्तियों का अंकन इस काल की धार्मिक सहिष्णुता, रचनात्मकता और सहकार भावना का द्योतक है। इसके समीप आदिनाथ मंदिर 11 वीं शताब्दी का है जिसका गर्भगृह और अन्तराल ही अपने प्राचीन रूप में हैं। इसके गर्भगृह की भद्ररयिकाओं में यक्षी प्रतिमाएँ बनी हैं जिनके ऊपर ऊँचा शिखर खजुराहों की मंदिर निर्माण कला का परवर्ती रूप दर्शाता है। शान्तिनाथ मंदिर आज भी पूजा में है जिसके अन्दर आदिनाथ की एक विशाल प्रतिमा स्थापित है और साथ ही बाद में बनी अनेक देव कुलिकाओं में जैन मूर्तियाँ और स्थापत्य खण्ड देखने को मिलते हैं। इसकी कुछ मूर्तियाँ जैसे तीर्थंकर के मात-पिता की मूर्तियाँ, अपने सुन्दर कलात्मक निर्माण के लिए आकर्षक है। | स्थानीय खजुराहो संग्रहालय में बहुत सी जैन प्रतिमाएँ सुरक्षित हैं। जिनमें शासन देवी मनोवेगा, एक मातृका, जैन दम्पति और तीर्थंकर आदिनाथ प्रतिमाएँ उल्लेखनीय हैं। प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ की प्रतिमा सिंहासन पर कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रदर्शित है, जिसके दोनों ओर शासनदेवता और उपासक निर्मित किये गये हैं, प्रभावली पर जिन प्रतिमाएँ, पवित्रगजमूर्तियाँ, मालाधारी विद्याधर आदि ऊपर की ओर उत्कीर्ण हैं। पार्श्वनाथ मंदिर 10वीं शताब्दी के उत्तरार्ध की कृति है और खजुराहो के जैन मंदिर कला की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण है । अपनी योजना और निर्माण विधि में यह खजुराहों के अन्य मंदिरों से भिन्न है। इसमें न तो कक्षासन वातायन है और न इसका भित्तिभाग स्थान-स्थान पर बाहर | 22 दिसम्बर 2007 जिनभाषित उपरोक्त मंदिरों में जैन तीर्थंकर, यक्ष-यक्षिणी, दिग्पाल, सुरसुन्दरी, उपासक और जनसाधारण, पशु पक्षी, गजशार्दूल, नर्तक-गायक, घरेलू दृश्य आदि सभी कुछ अपने अनेक रूपों और प्रकारों में देखने को मिलते हैं। लगता है पूरा दैवी और भौतिक जगत मूर्तरूप में साकार हो गया है, और सभी मिलकर ऐसे दिव्य वातावरण का निर्माण करते हैं जिससे परे संसार में कुछ भी नहीं रह जाता। निःशेष का Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह बोध एक कुशल शिल्पकार के कला-कौशल से ही। जैनकला के इस विवेचन में विदिशा जिले के कुछ प्राप्त होना संभव हुआ है। खजुराहो तो एक प्रतिनिधि है | स्थानों का उल्लेख करना समीचीन होगा जहाँ जैन स्थापत्य उस क्षेत्र का जिसका प्रत्येक भाग कलात्मक अभिरूचि | और शिल्पकला का विकास हुआ। इस प्रकरण में ग्यारसपुर और धार्मिकभावना से अनुप्राणित था। | का मालादेवी मंदिर स्मरणीय है जो न केवल शिल्पकला इस प्रकरण में जैनकला भण्डार को दर्शाने वाले | की दृष्टि से किन्तु मंदिर निर्माण कला के विकास की एक संग्रहालय को नहीं भुलाया जा सकता जो बुन्देलखण्ड | दृष्टि से भी एक प्रतिमान है और पूर्वमध्यकाल और उत्तर की जैन कला का संरक्षक है। यह संग्रहालय छतरपुर जिले | मध्यकाल के संक्रमण काल का परिचायक है। बड़ोह में के घुबेला स्थान पर एक प्रसाद में स्थित है। घुबेला | एक विशाल जैन मंदिर के अवशेष मिलते हैं, जो अपने संग्रहालय में जैन तीर्थंकर मूर्तियों का एक विशाल संग्रह है जो लगभग 10वी से 13वीं शताब्दी के मध्य की हैं। बुन्देलखण्ड और इनको देखने से ऐसा लगता है कि यह भूभाग मध्यकाल | उसके आसपास के क्षेत्र पर विहंगम दृष्टि डालने से ज्ञात में एक ऐसा केन्द्र था- जहाँ जैन स्थापत्य और शिल्पकला | होता है कि यह भूभाग प्राचीन काल से जैनकला को पोषण अबाध रूप से फूली फली और आसपास के क्षेत्रों में भी | करने में अपना अनूठा योगदान करता रहा है। जहाँ यह फैली। इन प्रतिमाओं में सर्वतोभद्रिबा और श्रीवत्स लांछनयुक्त | क्षेत्र अपने शौर्य और पराक्रम के लिए विख्यात था वहीं जैन तीर्थंकर हैं जैसे नेमिनाथ. पार्श्वनाथ. अजितनाथ. | इसने कलात्मक अभिरूचि को भी प्रश्रय दिया है और आदिनाथ आदि। इनमें यक्ष गोमेद्य और यक्षी अम्बिका के जैनधर्म में निहित शान्ति और सदभाव को अग्रसर किया। साथ उनके ऊपर नेमिनाथ की प्रतिमा कला की दष्टि से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, महत्वपूर्ण है। देवी अम्बिका और चक्रेश्वरी प्रतिमाएँ भी नई दिल्ली उच्चकोटि की शिल्पकला की परिचायक हैं। 'संस्कार सागर' प्रवेशांक मई 99 से साभार आपके पत्र सबकी प्रिय 'जिनभाषित' पत्रिका का सितम्बर। और फिर 'प्रतिदान' कविता में कवि ने महावीर 2007 का अंक मिला पढ़ा। इस अंक में प्रकाशित पूज्य | के 'अपरिग्रहवाद' की प्रस्तुति कितनी सहजता से की मुनिवर 'क्षमासागर जी' की 'र्निलिप्त' और 'प्रतिदान' | हैकविताएँ पढ़ी। प्रकृति से जुड़े कविप्रवर ने 'चिड़िया' चिड़िया ने के माध्यम से हमें संदेश दिया है कि हम सब भी विषम अपनी चोंच में परिस्थिति में सहिष्णु बने रहें। सांसारिक कार्यों में लिप्त जितना समाया रहते हुए भी अंतस् से कैसे 'निलिप्त' बने रहें और उतना पिया अपने लक्ष्य की ओर अपनी चेतना को उर्ध्वगामी बनाते उतना ही लिया हुए कैसे आगे बढ़ते जाएँ समाज को अपनी अनठी काव्यविधा देनेवाले इस उसे याद रहता है सदा संवेदनशील कवि की साधना निरन्तर, अनवरत, चलती गीत गाना/ चहचहाना रहे। इन चरणों में शत-शत वन्दना। असीम आकाश में उड़ना अरुणा जैन और अपना चिड़िया होना __102, तुलसी आँगन प्लाट नं. 90, सेक्टर 12 वाशी, नवी मुम्बई दिसम्बर 2007 जिनभाषित 23 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | जिज्ञासा- क्या वातवलयों में जो वायु है, उसमें वायुकायिक जीव होते हैं या नहीं? या वह वायुकाय है समाधान- इस जिज्ञासा के समाधान में श्री मूलाचार गाथा 212 में इस प्रकार कहा है जिज्ञासा समाधान वादुब्भामो उक्कलि मंडलि गुंजा महा घण तणू य । ते जाण वाउजीवा जाणित्ता परिहरेदव्वा ॥ 212 ॥ अर्थ - घूमती हुई वायु उत्कलिरूप वायु मंडलाकार वायु, गुंजा वायु, महावायु, धनोदधिवलय की वायु, और तनुवातवलय की वायु को वायुकायिक जीव जानो। जानकर उनका परिहार करो। आचारवृत्ति- (आचार्य वसुनंदि) बात शब्द से सामान्य वायु को कहा है। जो वायु घूमती हुई ऊपर को उठती है, वह उद्भ्रमवायु है । जो लहरों के समान होती है वह उत्कलिरूप वायु है। पृथ्वी लगकर घूमती हुई वायु मंडलवायु है। गूँजती हुई वायु गुंजावायु है । वृक्षादि को गिरा देनेवाली वायु महावायु है । घनोदधि - वातवलय, तनुवातवलय की वायु घनाकार है और पंखे आदि से की गई वायु अथवा लोक को वेष्टित करनेवाली वायु तनुवात है । उदर में स्थित पाँच प्रकार की वायु होती है। अर्थात् हृदय में स्थित वायु प्राणवायु है । गुदा में स्थित अपानवायु है। नाभिमंडल में समान वायु है । कंठप्रदेश में उदानवायु है। ओर संपूर्ण शरीर में रहनेवाली वायु व्यानवायु है । ये शरीर संबंधी पांच वायु हैं। इसी प्रकार से ज्योतिष्क आदि स्वर्गों के विमान के लिये आधारभूत वायु, भवनवासियों के स्थान के लिये आधारभूत वायु इत्यादि वायु के भेद, इन्हीं उपर्युक्त भेदों के अंतर्गत आते हैं। इन्हें वायुकायिक जीव जानो और जानकर उनका परिहार करो, ऐसा तात्पर्य है । प्रश्नकर्ता - कर्मकाण्ड में प्रकृतिबन्ध के 4 भेद कहे हैं- सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव इनको समझाने की कृपा करें? समाधान- कर्मकाण्ड गाथा 122 से 124 तक इन चार प्रकृतिबंध के भेदों का वर्णन किया गया है। उसी के आधार से यहाँ लिखा जाता है। 1. सादि बन्ध- जिस कर्म के बन्ध का अभाव होकर वही कर्म जब पुनः बन्धने लगता है, तब उसे सादि बन्ध कहते हैं । जैसे ज्ञानावरण की पाँच प्रकृतियों का बंध 24 दिसम्बर 2007 जिनभाषित पं. रतनलाल बैनाड़ा सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान पर्यन्त के जीव को निरन्तर हो रहा था। वह जीव जब ग्यारहवें उपशान्तकषाय-गुणस्थान को प्राप्त हुआ, तब उसके ज्ञानावरण कर्म का बन्ध रुक गया। वह ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती जीव जब उतरते हुए 10वें गुणस्थान में आया, तब ज्ञानावरणकर्म का बन्ध होना प्रारंभ हो गया। तो यह जो ज्ञानावरणकर्म का बन्ध होना प्रारम्भ हुआ यह सादि बन्ध कहलाता है । 2. अनादि बन्ध- जिस जीव के अनादिकाल से जिसकर्म का बन्ध निरन्तर हो ही रहा है वह अनादि बन्ध है । जैसे प्रत्येक जीव के ज्ञानावरण कर्म का बन्ध अनादि से हो रहा है, शर्त यह है कि उसने श्रेणी आरोहण कभी न किया हो अर्थात् उसने ग्यारहवाँ गुणस्थान कभी प्राप्त न किया हो, ऐसे जीव के उपर्युक्त उदाहरण के अनुसार ज्ञानावरण कर्म का बन्ध अनादि से निरन्तर हो ही रहा है। तो उसका यह बन्ध अनादि बन्ध कहलाता है । 3. ध्रुव बन्ध- जो बन्ध अनादिकाल से हो रहा है और अनन्तकाल तक होता ही रहेगा वह ध्रुव बन्ध कहलाता है। यह अभव्य तथा अभव्यसम जीवों के पाया जाता है। तथा जब तक बंध की व्युच्छित्ति नहीं होती, तब तक होता रहता है I 4. अध्रुव बन्ध- जो बन्ध अभी तो हो रहा है, परन्तु जिसका अन्त आ जाये, वह अध्रुव बन्ध है। यह भव्य जीवों के होता है। जैसे उपर्युक्त उदाहरण में पहले ज्ञानावरण SIT बन्ध होता था, परन्तु 11वें गुणस्थान में पहुँचते ही बन्ध होना रुक गया । अतः यह बन्ध अध्रुव बन्ध हुआ । आठों कर्मों की प्रकृतियों में इस बन्ध संबंधी जो विशेषता है उसको कहा जाता है 1. ज्ञानावरण की पाँच प्रकृतियाँ, दर्शनावरण की नौ, अन्तराय की पाँच, मिथ्यात्व, 16 कषाय, भय-जुगुप्सा, , तैजस शरीर, अगुरुलघु उपघात, निर्माण, वर्णादि चार, कार्मणशरीर में 47 ध्रुवबन्धी प्रकृतियाँ हैं । बन्धव्युच्छिति होने से पूर्व प्रत्येक जीव को इनका बन्ध प्रति समय होता ही रहता है। इनमें उपर्युक्त चारों प्रकार का बंध पाया जाता है। 2. उपर्युक्त 47 के अलावा जो 73 प्रकृतियाँ बंधयोग्य बचती हैं (148 प्रकृतियों में से वर्णादि 16 + बंधन 5 + संघात 5 + सम्यक्मिथ्यात्व + सम्यकप्रकृति = 28 घटाने पर बन्ध योग्य प्रकृतियाँ 120 शेष रहती हैं।) उनमें सादि और Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्रुव ये दो ही बंध पाये जाते हैं। ऊँगली के इशारे से बताते हैं, बोलने या लिखने की सामर्थ्य 3. इतना विशेष है कि वेदनीयकर्म का बन्ध 13वें | नहीं है। मैं समय-समय पर उनसे अपनी समस्याओं का होता ही रहता है, अतः वेदनीय कर्म | समाधान लेता रहता हूँ। जिनवाणी के ऐसे महान् सपूत को में सादि बन्ध नहीं पाया जाता, अन्य तीन पाये जाते हैं। शीघ्र आरोग्य लाभ हो। प्रश्नकर्ता- एक विदुषी महिला, बड़गाँव जिज्ञासा- बल और वीर्य में क्या अन्तर है? जिज्ञासा- क्या तीर्थंकर केवलज्ञान होते ही मोक्ष | समाधान- इस प्रश्न के उत्तर में श्री मूलाचार गाथा प्राप्त कर सकते हैं, या उनके कुछ समय तक दिव्यध्वनि | 413 की आचार वृत्ति में वसुनन्दी आचार्य ने इस प्रकार होना नियामक होता है? कहा है- बलमाहारौषधादिकृतसामर्थ्य, वीर्यवीर्यान्तरायसमाधान- तीर्थंकर चाहे विदेहक्षेत्र के हों या भरत- | क्षयोपशमजनितं संहननापेक्षं स्थामशरीरावयवकरणचरण ऐरावत क्षेत्र के उनको केवलज्ञान होने के उपरान्त पृथकत्व | जंघोरुकटिस्कन्धादिघनघटितबंधोपेक्षं। वर्ष तक विहार करना ही होता है। इस काल में उनकी __ अर्थ- आहार तथा औषधि आदि से होने वाले दिव्यध्वनि निरन्तर होती रहती है। इससे संबंधित आगम सामर्थ्य को बल कहते हैं। तथा जो वीर्यान्तराय कर्म के प्रमाण इस प्रकार है क्षयोपशम से उत्पन्न होता है, संहनन की अपेक्षा रखता __ 1. श्री धवला पु. 7, पृष्ठ-57, तीर्थंकरप्रकृति के | है तथा स्वस्थ शरीर के अवयव- हाथ, पैर, जंघा, घुटने, उदयवाले सयोगकेवली का विहारकाल सबसे जघन्य भी कमर, कन्धे आदि के मजबत बन्धन की भी अपेक्षा से वर्ष पृथकत्व से कम नहीं पाया जाता। इस उदयस्थान का | सहित है, उसे वीर्य कहते हैं। उत्कृष्ट काल गर्भ से आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्व प्रश्नकर्ता- राजकुमारी जैन, ललितपुर कोटि है। जिज्ञासा- मुनियों के गोचरीवृत्ति आदि पाँच 2. श्री धवला पु.12, पृष्ठ-494- तीर्थ विहार का | विशेषणों को समझाइये? काल जघन्य स्वरूप से वर्ष पृथकत्व मात्र पाया जाता है। समाधान- उपर्युक्त प्रश्न का समाधान श्री चारित्रसार 3. श्री धवला पु. 15, पृष्ठ-67- तीर्थंकर नामकर्म | रचियता चामुण्डरायदेव के आधार से लिखा जाता हैका उदीरणा काल जघन्य से वर्ष पृथकत्व और उत्कर्ष 1. गोचार अथवा गोचरीवृत्ति- जिस प्रकार गाय को से कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण है। यदि कोई युवती लीलापूर्वक आभूषण पहनकर घास डालने षट्खण्डागम परिशीलन पृष्ठ-504- यहाँ वर्ष | को आवे, तो भी गाय उस युवती की सुन्दरता नहीं देखती, पृथकत्व को कम इसलिए किया गया है कि तीर्थंकर का | किन्तु घास खाने पर ही अपना लक्ष्य रखती है, तथा 'विहार जघन्य रूप से वर्ष पृथकत्व काल तक पाया जाता जिसप्रकार वह गाय अनेक देश की घास, लता आदि को खाती है, और जैसी मिलती है, जितनी मिलती है, उसे इसके अतिरिक्त पंचसंग्रह पृष्ठ 373-374 तथा | ही खाती है, वह किस तरह डाली गई है, किसने डाली संस्कृत पंचसंग्रह 179 पर भी इसी प्रकार का कथन पाया | है आदि बातों पर कुछ भी ध्यान नहीं रखती, उसी प्रकार जाता है। मुनि भी भिक्षा देनेवाले पुरुषों की कोमलता, सुन्दरता, वेष इस प्रश्न का उत्तर पूज्य आचार्यश्री ने तत्त्वार्थसूत्र | और विलास आदि देखने में कभी इच्छा नहीं रखते, और पढ़ाते समय दिया था, जो मुझे याद था। परन्तु इसके प्रमाण | न सूखा-पतला आहार आदि की विशेष योजना को देखते मेरे पास नहीं थे। अतः मैंने उपर्युक्त सभी प्रमाण पं. है, जो सामने आ जाता है, उसे ही खा लेते हैं। इसलिए जवाहरलाल जी शास्त्री, भिण्डर वालों से पूछकर लिखे गाय के समान भोजन करने से इसे गोचरीवृति कहते हैं। हैं। वर्तमान में पं. जवाहरलाल जी शास्त्री पिछले 8-10 2. अक्षम्रक्षण- जिस प्रकार कोई वैश्य रत्नों से भरी वर्षों से बिस्तर पर हैं। उनके शरीर की सारी नसों में पूर्ण | गाड़ी को घी-तेल आदि चिकनाहट से धुरा और पहियों रूप से शक्ति हीनता हो गई है। परन्तु उनके क्षयोपशम | को ठीककर योग्य स्थान पर पहुँचता है, उसी प्रकार की विशिष्टता का यह उदाहरण है कि उनको अभी तक | मुनिराज भी गुणरूपी रत्नों से भरी हुई इस शरीर रूपी गाड़ी शों के त्यों स्मृति में हैं। वे केवल | को निर्दोष भिक्षारूपी थोड़ी सी चिकनाहट लगाकर आयु दिसम्बर 2007 जिनभाषित 25 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपी धुरी-पहियों को ठीककर अपने पहुँचने योग्य समाधि । है। रूपी नगर में पहुँचाते हैं। इसे अक्षम्रक्षणवृत्ति कहते हैं। वास्तव में दिगम्बर साधु की भिक्षावृत्ति तो उपर्युक्त 3. उदराग्नि प्रशमन- जिस प्रकार किसी भण्डार | प्रकार ही होनी चाहिए, परन्तु वर्तमान में अधिकांश मनिराजों में आग लग जाये, तो गृहस्थ उसे पवित्र जल से अथवा | की आहरवृत्ति इससे मेल नहीं खाती है। आजकल बहुत अपवित्र जल से बुझाता है, उसी प्रकार मुनिराज भी सरस | से मुनि एक ही चौके में मनचाहा आहार बनवाक अथवा नीरस जैसा कुछ भी आहार मिल जाता है, उसी | हैं। कोई मुनि तो (आगरा के निकट के एक स्थान पर से अपने पेट की अग्नि को शान्त कर लेते हैं, यह उदराग्नि चातुर्मास कर रहे मुनि) बिना पड़गाहन किसी भी श्रावक के प्रशमन वृत्ति है। |घर में प्रवेश कर जाते हैं, ओर मनचाहा आहार बनवाते हैं। इन सब कार्यों में मुख्य भूमिका उस संघ के ब्रह्मचारी भाई 4. भ्रमराहार वृत्ति- जिस प्रकार भ्रमर किसी भी एवं ब्रह्मचारिणी बहिनों की होती है। वे श्रावक को तरहफूल को बाधा न देता हुआ रस ग्रहण करता है, उसी प्रकार तरह के जूस, आइसक्रीम, हलुवा, पत्तियों के साग एवं मुनिराज भी दाता को बाधा न पहुँचाते हुए आहार ग्रहण चटनी, पत्ता गोभी की सब्जी, आदि बनाने को बार-बार यह करते हैं। इसे भ्रामरीवृत्ति भी कहा जाता है। कहकर मजबूर करते हैं, कि महाराज को ये चीजें बहुत पसंद 5. गर्तपूरण- जिसप्रकार किसी गड्ढे को अच्छी हैं। जरूर बननी चाहिए। श्रावक के एक दिन के आहार बुरी मिट्टी से भरकर पूरा कर देते हैं, उसीप्रकार मुनिराज | कराने में सैकड़ों रुपये खर्च हो जाते हैं। पर मजबूरी में क्या भी स्वादिष्ट अथवा बेस्वाद किसी तरह के भी आहार से | करे? यदि उपर्युक्त वृत्ति से सभी साधु आहार लेने लगें, अपनी पेटरूपी खाई को भर लेते हैं। इसको श्वभ्रपूरण | तो आगम की आज्ञा का पालन भी हो और श्रावक भी भी कहते है। | निर्विकल्प हो जाये। यह प्रकरण राजवार्तिक 9/6 तथा कार्तिकेयानुप्रेक्षा 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी गाथा 399 की टीका आदि स्थानों पर भी उपलब्ध होता आगरा- 282002 (उ.प्र.) भगवान् पार्श्वनाथ जम्बूद्वीप-संबंधी भरतक्षेत्र के काशीदेश में स्थित , तीन सौ राजाओं के साथ दीक्षित हुए। पारणा के दिन वाराणसी नगरी में काश्यपगोत्री, उग्रवंशी राजा अश्वसेन | गुल्मखेट नगर में धन्य नामक राजा ने आहारदान देकर राज्य करते थे। वामादेवी उनकी महारानी थीं। उन | पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये। छद्मस्थ अवस्था के चार माह महारानी ने पौष कृष्ण एकादशी के दिन सानत स्वर्ग | व्यतीत कर अश्व वन में जब ये तेला का नियम लेकर के प्राणत इन्द्र को तीर्थंकर सुत के रूप में जन्म दिया। देवदारु वृक्ष के नीचे ध्यानावस्था में थे तब कमठ के तेरासी हजार सात सौ पचास वर्ष का काल बीत जाने | जीव शम्बर नामक देव से सात दिन तक इन पर विभिन्न पर इनका जन्म हुआ था। इनकी आयु सौ वर्ष थी, वर्ण | प्रकार से घोर उपसर्ग किया। उस समय उन धरणेन्द्र धान्य के अंकुर के समान हरा था और शरीर की ऊँचाई और पद्मावती ने आकर उपसर्ग का निवारण किया। नौ हाथ थी। सोलह वर्ष की अवस्था में ये नगर के | चैत्र कृष्ण त्रयोदशी के दिन प्रात:काल घातिया कर्म नष्ट बाहर वनविहार करते हुए अपने नाना महीपाल के पास | हो जाने से इन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ। भगवान् के पहुँचे। वहाँ एक साधु पंचाग्नि तप के लिए लकड़ी फाड़ | समवशरण की रचना हुई जिसमें सोलह हजार मुनि, रहा था। इन्होंने उसे रोका और बताया कि लकड़ी में | छत्तीस हजार आर्यिकायें, एक लाख श्रावक, तीन लाख नागयुगल है। वह नहीं माना और क्रोध से युक्त होकर | श्राविकायें, असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यात तिर्यंच उसने वह लकड़ी काट डाली। उसमें जो नागयुगल था | थे। उनहत्तर वर्ष सात मास विहार करके अन्त में एक वह कट गया। मरणासन्न सर्पयुगल को इन्होंने संबोधित | मास की आयु शेष रहने पर सम्मेदाचल पर छत्तीस किया जिससे शान्तचित्त हो वे स्वर्ग में धरणेन्द्र और | मुनियों के साथ इन्होंने प्रतिमायोग धारण किया और पद्मावती हुए। तीस वर्ष के कुमारकाल के पश्चात् | श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन प्रात: वेला में अघातिया अपने पिता के वचनों के स्मरण से ये विरक्त हुए और | कर्म नष्ट हो जाने पर निर्वाण पद प्राप्त किया। पौष कृष्णा एकादशी के दिन अश्व वन में प्रातः काल । मुनि श्री समतासागरकृत 'शलाका पुरुष' से साभार 26 दिसम्बर 2007 जिनभाषित - Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ-समीक्षा नाम- ऐक्युप्रेसर फुट रिफलेक्सोलॉजी परिशिष्ट 2 में संदर्भ ग्रन्थ एवं पुस्तकों की सूची प्रकाशक - इन्द्रा पब्लिशिंग हाऊस देकर पुस्तक की प्रमाणिकता सिद्ध की है। मूल्य - रु. 195 परिशिष्ट 3 में पग में परावर्ती स्थानों का रंगीन चित्र भाषा - हिन्दी, रंगीन चित्र सहित देकर उपचारकों को उपचार करना सरल एवं ग्राही बना लेखक - डी. सी. वाझल्य, ए-92, शाहपुरा दिया है। भोपाल-462 039 म.प्र. फोनः 0755-2424755 यह पस्तक विषयवस्त की वैज्ञानिकता दर्शाती है. 'ऐक्यप्रेसर फट रिफलेक्सोलॉजी' श्री धर्मचन्द्र जी | साथ ही लब्धप्रतिष्ठ ऐलोपैथी के चिकित्सक द्वारा संशोधित वाझल्य द्वारा लिखित लघकाय पस्तक है, जो अपने- आप | एवं प्रमाणित है। में सम्पूर्ण अहिंसक चिकित्सापद्धति को संक्षेप में किन्तु आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इस विद्या के स्पष्ट रूप से प्रमुख शरीरतंत्रों का विवरण, रोगों के उपचार | प्रवर्तक बीसवीं सदी के आरंभ में अमेरिकन चिकित्सक की विधि, विभिन्न रोगों के लक्षण, कारण तथा प्रतिबिम्ब | डॉ० विलियम एच फिटजेराल्ड थे. जो सेनफ्रान्सिस. केन्द्रों की सूची व्यवस्थित तरीके से समाहित किए हए अस्पताल हार्टफोर्ड कन्सास में नाक एवं गला विभाग के है। फुट एवं हैण्ड रिफलेक्सोलाजी अन्य चिकित्सा- अध्यक्ष थे। लेखक पिछले 15 वर्षों से दिल्ली एवं भोपाल पद्धतियों से भिन्न है। यह बिना औषधि सेवन के ही शरीर में सेवाभावी एक्यूप्रेसर चिकित्सा कर रहे हैं। वे अपने के विभिन्न रोगों को ठीक करने में प्रभावी चिकित्साविधि | अनुभव एवं देशी-विदेशी साहित्य के अध्ययन का निचोड है। इस विधि में हाथ की अंगुलियों से या अँगूठे से पैर | इस कृति में दर्शाने में सफल हुए हैं। के तलुए, साइड एवं ऊपरी भाग में इसी प्रकार हथेली एक्यूप्रेसर फुट रिफलेक्सोलॉजी मानवता को प्रकृति में दबाव देकर चिकित्सा की जाती है। लेखक ने अध्याय | का वरदान है। हाथ की हथेली एवं पैर के पंजों में प्रकृति 1 से अध्याय 7 तक क्रमशः परावर्ती उपचार की परिभाषाएँ, ने रिपेयरिंग किट प्रदान किया है, जहाँ दबाव युक्त स्पर्श आधुनिक एवं प्राचीन संदर्भ, चिकित्सा का उद्गम स्थान, | से शरीर के विभिन्न अंगों को उद्दीप्त कर चिकित्सा की वर्तमान में उसकी स्थिति, वैज्ञानिकता, खोज, सिद्धान्त एवं | जाती है। यह प्रिवेन्टिव ट्रीटमेन्ट एवं होलिस्टिक चिकित्सापरावर्ती प्रभाग, पैर एवं हथेलियों की संरचना, शिथिली- | पद्धति है। यह शरीर के प्रत्येक अंग का पग एवं हथेली करण, दबाव देने की विभिन्न विधियाँ, शरीर संरचना तथा से लाजवाब संबंध दर्शाती है। इस चिकित्सा के फल उसके घटक आदि का सचित्र विवरण देकर विषय को | स्वरूपसरल एवं रोचक बना दिया है। अध्याय 8 से 17 तक | • रक्तसंचार में सुधार होता है, जिससे समस्त अंगों शरीर की विभिन्न प्रणालियों के कार्य करने की विधि रंगीन | को ऑक्सीजन मिलती है। चित्रों के माध्यम से सरल भाषा में समझा दी गई है। साथ • रक्तवाहिनियों का अवरोध दूर होता है। ही उस तंत्र से सम्बन्धित रोग, रोगों का कारण, लक्षण • नाड़ीतन्त्र एवं ग्रन्थितंत्र एवं अन्य सभी तंत्र सुचारु प्रतिबिम्ब केन्द्र, उनके उपचार की विधि भी अच्छी तरह | रूप से कार्य करने लगते हैं। से समझाई गई है। अध्याय 19 से 21 तक हाथ में क्रमश: • दर्दनिवारक एवं सूजननिवारक है। प्रत्यावर्ती (प्रतिबिम्ब) प्रभाग, मानसिक तनाव एवं अवसाद, • रोग-प्रतिरोध-क्षमता का विकास होता है। परीक्षण उपचार निर्देशिका एवं शियात्सु का परिचय, • सम्पूर्ण शरीर स्वस्थ संतुलित एवं स्फूर्तिमान हो उपचार विधि देकर इसे स्वयं पढ़ो, समझो एवं अभ्यास | | जाता है। करनेवाली कृति बना दिया है। लेखक ने अपने अनुभव के आधार पर जिन सामान्य ___परिशिष्ट 1 में व्याधियों की सूची, परावर्ती प्रभाग | तथा जटिल रोगों का उपचार किया है, उनका उल्लेख कर एवं संदर्भ देकर उपचारकों को सभी सूचनाएँ सुलभ कर | चिकित्सापद्धति कितनी कार्यकारी है यह भी दर्शा दिया दी हैं। है। विवरण इस प्रकार है दिसम्बर 2007 जिनभाषित 27 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब तक सप्ताह में दो दिन अवकाश के समय। 10. पारकिन्सन बीमारी, टैकीकार्डिया में आराम में इन्होंने लगभग 500 व्यक्तियों का रिफ्लेक्सोलॉजी से मिलता हैं। उपचार किया है। कहीं-कहीं तो आश्चर्यजनक परिणाम 11. अनिद्रा, एसिडिटी, तनाव तथा निम्न रक्तचाप, भी मिले हैं। टेनिसएल्वो, अनियमित मासिक धर्म, आँख, कान, गले इस उपचारपद्धति से कुछ जटिल रोग भी ठीक होते के रोग, सायनस आदि ठीक होते है। देखे गये हैं। लेखक ने इसका विवरण ग्रंथ की प्रस्तावना सम्पूर्ण विश्व में इसकी प्रसिद्धि इसके परिणामों पर में दिया है, जो इस प्रकार है आधारित है इसकी विशेषताएँ निम्नानुसार हैं1. रीढ़ की हड्डी से संबंधित रोग जैसे सरवाईकल 1. यह कार्यकारी है। स्पोन्डोलाइटिस, गर्दन तथा सियाटिका, कंधे में दर्द, कमर 2. सीखना, उपचार करना सरल है। का दर्द, पीठ का दर्द इत्यादि में 90 प्रतिशत सफलता मिली 3. हानिरहित है। 4. रोग निदान में सहायक है। 2. बवासीर पाइल्स में 90 प्रतिशत सफलता प्राप्त 5. सम्पूर्ण एवं स्थायी लाभ मिलता है। 6. अन्य चिकित्सापद्धति से मेल है। 3. अस्थमा आदि तो, जो बहुत पुराने नहीं थे, लगभग 7. सभी उम्र के रोगियों को लाभप्रद है। 80 प्रतिशत ठीक हुए हैं। पुराने दमा के मरीजों को भी अन्य चिकित्सापद्धतियों की तरह यह सभी रोगों आराम हुआ है। का उपचार नहीं है, किन्तु सफलता का प्रतिशत उत्साहवर्धक 4. हिस्टीरिया, लिकोरिया में 90 प्रतिशत सफलता। 5. बच्चों द्वारा बिस्तर में पेशाब करना 95 प्रतिशत इसमें किसी भी उपकरण की, मशीन की आवश्यकता सफलता। नहीं है, बस उपचारक के दो हाथ, रोगी के दो पैर या 6. सिरदर्द, साइनस, माइग्रेन में 98 प्रतिशत। हाथ पर्याप्त हैं। 7. मूत्रप्रणाली से संबंधित बीमारी जैसे जलन होना, | सामान्य ज्ञानवाला व्यक्ति इसे सीख सकता है। रुक-रुक कर पेशाब आना 90 प्रतिशत सफलता। | प्रत्येक घर में कम से कम एक व्यक्ति इसे अवश्य सीखे 8. उदर की बीमारियाँ हाथ पैर घुटने आदि में दर्द, | एवं स्वयं एवं अन्य की मदद करे। एडी, पैरों की सूजन लगभग ठीक होते देखे गये हैं। । यदि कोई सीखना चाहता है, तो उपर्युक्त पते पर 9. लकवे के मरीज शीघ्र ठीक होते हैं यदि आरंभ | लेखक से सम्पर्क करे। में ही चिकित्सा की जाये तो सफलता लगभग 98 प्रतिशत।। प्रो. रतनचन्द्र जैन वीतरागी से अनुराग आचार्य महाराज संघ सहित विहार कर रहे थे। खुरई नगर में प्रवेश होने वाला था। अचानक एक गरीबसा दिखने वाला व्यक्ति साईकिल पर अपनी आजीविका का सामान लिए समीप से निकला और थोड़ी दूर आगे जाकर ठहर गया। जैसे ही आचार्य महाराज उसके सामने से निकले, वह भाव-विह्नल होकर उनके श्रीचरणों में गिर पड़ा। गद्गद कंठ से बोला कि भगवान राम की जय हो।' आचार्य महाराज ने क्षण भर को उसे देखा और अत्यन्त करुणा से भरकर धर्मवृद्धि का आशीष दिया और आगे बढ़ गए। वह व्यक्ति हर्ष-विभोर होकर बहुत देर तक, आगे बढ़ते हुए आचार्य महाराज की वीतराग छवि को अपलक देखता रहा। इस घटना को सुनकर मुझे लगा कि वीतरागता के प्रति अनुराग हमें अनायास ही आत्म-आनंद देता है। उन क्षणों में उस व्यक्ति की आँखों में आचार्य महाराज की वीतराग छवि अत्यन्त मधुर और दिव्य रही होगी, जो हम सभी को आत्म-कल्याण का संदेश देती है। खुरई (1988) मुनि श्री क्षमासागर-कृत 'आत्मान्वेषी' से साभार 28 दिसम्बर 2007 जिनभाषित Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचार गिरनारजी की पाँचवी टोंक पर यात्री पर खूनी । की । उलटे रिपोर्ट लिखाने के लिये निरुत्साहित किया । हमला इसी दिन बुधवार 17 अक्टूबर को ही श्री जैन पुलिस थाना गिरनार जी जूनागढ़ गये और रिपोर्ट लिखाई । साथ ही शासकीय चिकित्सालय में उनकी मरहम पट्टी की गयी। उनके सिर में दो टाँके लगाये गये। एक सप्ताह निकल जाने पर भी गुजरात सरकार की पुलिस ने मारपीट करनेवाले पण्डे के विरुद्ध न कोई कार्यवाही की और न ही गिरफ्तारी की । गुजरात उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री जयन्तजी पटेल द्वारा 17 फरवरी 2005 को आदेश दिया गया था, कि गिरनार जी पहाड़ की पाँचवीं, भगवान् नेमिनाथ जी की टोंक पर अगले आदेश तक दिगम्बरजैन व हिन्दू अपनी-अपनी पद्धति से पूजा-उपासना कर सकेंगे। इस आदेश के बाद भी इस पाँचवीं टोंक पर हिन्दू पण्डे न केवल बैठे रहते हैं, बल्कि जैन यात्रियों को न चरण छूने देते हैं, न नेमिनाथ भगवान् की जय बोलने देते हैं, न माला फेरने देते हैं और चरण को फूलों से ढक कर रखते हैं, भगवान् के चरण की मात्र अँगुलियों के दर्शन जैन यात्री कर पाते हैं, वह भी पण्डों की मर्जी के अनुसार। टोंक पर स्थित भगवान् की प्रतिमा की पूजा-अर्चना करना तो असंभव जैसा है। गुजरात उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जयन्तजी पटेल के आदेश का पालन कराने हेतु पाँचवीं टोंक पर स्थायी रूप से पुलिस व्यवस्था की गयी है। 1 व्यवहार में दिगम्बर जैन समाज के यात्रियों को उच्च न्यायालय के आदेश के अनुसार पाँचवीं टोंक पर अपनी धार्मिक क्रियाएँ करने से पण्डों द्वारा लगातार रोका जा रहा । न्यायालय के आदेश की अवहेलना और अवमानना सतत की जा रही है। पुलिस के होते हुए भी जैन यात्रियों के साथ पण्डों द्वारा मारपीट की जा रही है। अभी-अभी बुधवार 17 अक्टूबर 2007 को प्रातः दिगम्बरजैन यात्री गिरनार जी पहाड़ की वन्दना करने गये थे। इनमें श्री सगुनचंद जी जैन, सहायक वाणिज्य - कर अधिकारी, वृत्त - झाबुआ अपनी पत्नी, जीजा जी तेजमल जी जैन निवासी धनगाँव तहसील जावद, परिवार - जन सहित कुल छोटे-बड़े 18 यात्री पहाड़ पर गये थे। श्री सुगनचंद जी जैन भगवान् नेमिनाथ जी के चरण की वन्दना कर रहे थे। उपस्थित पण्डे ने डण्डे से दो बार प्रहार श्री जैन पर किये। एक प्रहार सिर पर किया गया जिससे खून बहना प्रारंभ हो गया। दूसरा प्रहार उनके हाथ पर किया गया। चौकी पर उपस्थित पुलिस जवानों को खून से लथपथ जैन ने जानकारी दी, तो उन्होंने कोई सहायता नहीं इसके विपरीत यह होता है कि अनेक यात्री अपने साथ पण्डों द्वारा गाली-गलौच, दुर्व्यवहार, मारपीट किये जाने पर भी पुलिस रिपोर्ट आदि इसलिये नहीं करते कि बाद में आने-जानेकी परेशानी होगी। इसका फायदा उठा हुए ये पण्डे जैन यात्रियों को और ज्यादा आतंकित करते रहते हैं । निश्चित ही हमारे यात्री सुगनचंद जी बधाई के पात्र है, क्योंकि उन्होंने भगवान् नेमिनाथ जी के क्षेत्र के हित में प्रताड़ित होने पर साहस के साथ कानूनी कार्यवाही की । ऐसी रिपोर्ट से न्यायालय में समाज का पक्ष मजबूत होगा श्री गिरनार जी राष्ट्र स्तरीय एक्शन कमेटी व संस्थाओं को चाहिए कि श्री सुगनचंद जी जैन का यथोचित सम्मान करें । T हमारे दिगम्बरजैन समाज के शाश्वत तीर्थ श्री सम्मेद शिखर जी, श्री अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ और केसरिया जी के मामले सर्वोच्च न्यायालय दिल्ली में और गिरनारजीसंबंधित 5 प्रकरण गुजरात उच्च न्यायालय में हैं। एकएक मामले में वकीलों की फीस तथा अन्य खर्च मिलाकर लाखों रुपये खर्च हो रहे हैं । यही समय समाज को चेतने का है। हर व्यक्ति, परिवार को जितना अधिक से अधिक हो सके आर्थिक सहयोग आगे बढ़कर प्रदान करना चाहिए । न्यायालयों में समाज का पक्ष मजबूत न होने पर आर्थिक कारणों से अगर फैसला हमारे खिलाफ चला जायगा तो हम शाश्वत तीर्थ शिखर जी, गिरनार जी की वन्दना करने कहाँ जावेंगे? हमारा सिद्धक्षेत्र का इतिहास हमसे छिन जायेगा तो हमारा क्या बचेगा ? जागने जगाने का समय आज और अभी है। चारों धर्म क्षेत्रों के न्यायालय में प्रकरण भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी, मुंबई लड़ रही है। आर्थिक सहयोग दाता चाहें तो उन्हें धारा 80 जी की । छूट का लाभ भी मिल सकता है। सहायता राशि कमेटी दिसम्बर 2007 जिनभाषित 29 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के नाम से बैंक ऑफ इण्डिया, सी.पी. टैंक मुंबई के सेविंग । विद्वत्परिषद् के मुखपत्र - विद्वद्-विर्मश (संपादक - डॉ. खाता नम्बर 001210100017881 अथवा बैंक ऑफ बड़ौदा, वी.पी. रोड, मुम्बई के सेविंग खाता नं. 13100100008770 में बैंकों की किसी भी शाखा में जमा करा सकते हैं। कोई भी शुल्क नहीं लगेगा । सुरेन्द्रकुमार जैन 'भारती' ) बुरहानपुर से प्रकाशित पार्श्व ज्योति मासिक (वरिष्ठ संपादक - डॉ. रमेशचन्द जैन ), भारतीय दर्शन के महामेरु आचार्य श्री समन्तभद्र (लेखकडॉ. नेमिचन्द्र जैन, खुरई) का विमोचन किया गया। अधिवेशन को प्रमुख रूप से डॉ. श्रेयांसकुमार जैन, डॉ. शीतलचन्द जैन, डॉ. सुरेन्द्र भारती, डॉ. जयकुमार जैन, डॉ. सुरेशचन्द जैन, पं. शैलेष शास्त्री, डॉ. नेमिचन्द्र जैन, पं. जयंतकुमार जैन, पं. सनतकुमार जैन, पं. पवन जैन आदि ने संबोधित किया। इस अवसर पर कतिपय तत्वों द्वारा फैलाये जा रहे दुष्प्रचार पर उस समय विराम लग गया, जब पूज्य मुनिश्री के कहने पर सभी विद्वानों एवं अधिवेशन में उपस्थित जनसमूह द्वारा दिवंगत आचार्य श्री भरतसागर जी को नौ बार णमोकार मंत्र के स्मरण पूर्वक श्रद्धांजलि अर्पित की गई। निर्मलकुमार पाटोदी सम्पर्क : मुम्बई ( 022-23878293 ), कोषध्यक्ष जम्बूकुमार सिंह (मो.: 093735-01918 ), इन्दौर शास्त्रि परिषद् एवं विद्वत्परिषद् (रजि.) का संयुक्त खुला अधिवेशन एवं मूलाचार अनुशीलन विद्वत्संगोष्ठी संपन्न बांसवाड़ा, “ शास्त्रि परिषद् एवं विद्वत्परिषद् मेरे दो हाथ हैं और मेरा दोनों होथों से दोनों परिषदों के विद्वानों को आशीर्वाद हैं कि वे देव-शास्त्र-गुरु के संरक्षण हेतु सजग रहकर कार्य करें । साधुओं के शिथिलाचार को रोकने हेतु प्रयत्न करें और आगम की रक्षा करें।" यह विचार राजस्थान के प्रसिद्ध नगर बांसवाड़ा में वर्षायोग हेतु विराजित परम जिन धर्म प्रभावक, आध्यात्मिक संत, मुनिपुङ्गव श्री सुधासागर जी महाराज ने लगभग २०० विद्वानों एवं विशाल जनसमूह के मध्य संयुक्त अधिवेशन में व्यक्त किये। उल्लेखनीय है कि मुनिपुङ्गव श्री सुधासागर जी महाराज, क्षुल्लक श्री गंभीरसागर जी महाराज, क्षुल्लक श्री धैर्यसागर जी महाराज के सान्निध्य में रविवार, दिनांक २८ अक्टूबर, सन् २००७ को श्री श्रेयांसनाथ दिगम्बर जैन मंदिर, खान्दू कॉलोनी, बांसवाड़ा (राजस्थान) में दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद् (रजि.) द्वितीय संयुक्त अधिवेशन संपन्न हुआ। जिसमें अधिवेशन के पूर्व निर्धारित विषयों १. उदयपुर अधिवेशन में पारित ११ सुत्रीय समाज के नाम अपील की समीक्षा, २. विश्व विद्यालयों में जैन चेयर की स्थापना पर विचार, ३. जैन परम्परानुकूल धार्मिक एवं समाजिक संस्कारों का ह्यस कारण एवं निदान, ४. सामाजिक एवं धार्मिक समरसता की आवश्यकता, ५. सांस्कृतिक एवं धार्मिक आयोजनों में विद्वानों की अनिवार्यता पर विद्वानों एवं समाज के मध्य व्यापक विचार-विमर्श हुआ। इस अवसर पर प. पू. मुनिपुङ्गव श्री सुधासागर जी महाराज की प्रवचन कृति- धर्मप्रीतिसुधा (संपादक - डॉ. नरेन्द्रकुमार जैन, सनावद ), भगवती आराधना अनुशीलन (संपादक - डॉ. प्रेमसुमन जैन, डॉ. जयकुमार जैन, डॉ. उदयचंद जैन, प्रा. अरुणकुमार जैन), 30 दिसम्बर 2007 जिनभाषित संयुक्त अधिवेशन में आचार्य ज्ञानसागर वागर्थ विर्मश केन्द्र की ओर से पं. अभयकुमार जैन (बीना), डॉ. श्रेयांसकुमार जैन (बड़ौत), डॉ. कमलेशकुमार जैन (व (वाराणसी), डॉ. अशोककुमार जैन ( वारणसी) एवं डॉ. सुरेशचन्द जैन (नई दिल्ली) को प्रतिष्ठित महाकवि आचार्य श्री ज्ञानसागर पुरस्कार शाल, श्रीफल, प्रशस्ति-पत्र एवं ५१०००रु. के साथ प्रदान किये गये। इन पुरस्कारों में दो पुरस्कार श्री विनयकुमार जैन, विवेककुमार जैन, श्रीमती आभा जैन, ( अहमदाबाद), एक पुरस्कार श्री राजेन्द्रकुमार नाथूलाल जैन मेमोरियल चेरिटेबल ट्रस्ट की ओर से ट्रस्टी श्री ज्ञानेन्द्र गदिया, संजय गदिया, नीरज गदिया (सूरत), ने तथा एक पुरस्कार श्री नरसिंगपुरा दिगम्बर जैन समाज, खांदू कॉलोनी, बांसवाड़ा की ओर से प्रदान किये गये। इसी श्रृंखला में अ. भा. दि. जैन विद्वत्परिषद् की ओर से प्रतिवर्ष दिये जाने वाले क्षु. श्री गणेशप्रसाद वर्णी स्मृति विद्वत्परिषद् पुरस्कार से पं. निहालचंद जैन (बीना) को जैन धर्म की प्रभावना हेतु तथा गुरुवर्य गोपालदास वरैया स्मृति विद्वत्परिषद् पुरस्कार से डॉ. लालचंद्र जैन (आरा) को उनकी कृति उड़ीसा में जैन धर्म के लिए पुरस्कृत किया गया। इन दोनों पुरस्कारों को पुण्यार्जक श्री राजेन्द्रकुमार नाथूलाल जैन मेमोरियल चैरिटेबल ट्रस्ट की ओर से ट्रस्टी श्री ज्ञानेन्द्र गदिया ने प्रदान किया । पुरस्कृत विद्वानों का परिचय डॉ. जयकुमार जैन, डॉ. विजयकुमार जैन, पं. निहालचंद जैन ने दिया। इस अवसर पर श्रमण संस्कृति Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्थान, सांगानेर के लिए दी गई सेवाओं के लिए पं. रतनलाल जी बैनाड़ा का अभिनंदन किया गया। अधिवेशन की अध्यक्षता डॉ. श्रेयांसकुमार जैन (अध्यक्ष-शास्त्रि परिषद्) एवं डॉ. शीतलचंद जैन (अध्यक्ष- विद्वत्परिषद् ) ने की । संचालन दोनों परिषदों के मंत्री प्रो. अरुणकुमार जैन एवं डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन भारती ने किया। अ.भा. दि. जैन शास्त्रि परिषद् एवं अ.भा. दि. विद्वत्परिषद् के द्वारा संयुक्तरूप से पारित प्रस्ताव इस प्रकार है प्रस्ताव - १. 'दिग्विजय' पत्रिका की अनर्गल टिप्पणियों की भर्त्सना और निंदा अ. भा. दि. जैन शास्त्रि परिषद् एवं अ.भा. दि. जैन विद्वत्परिषद् का यह संयुक्त अधिवेशन दि. ४ अक्टूबर, २००६ को उदयपुर, राज. में आयोजित संयुक्त अधिवेशन में समाज के नाम जारी ११ - सूत्रीय अपील के संदर्भ में इंदौर से श्री हेमन्त काला, श्री भरत काला आदि के संपादकत्व में प्रकाशित ‘दिग्विजय' पत्रिका में एवं उदयपुर आदि में आयोजित सभाओं में जन-जन के आराध्य परम पूज्य संतशिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज एवं उनके आज्ञानुवर्ती शिष्य मुनिपुङ्गव श्री सुधासागर जी महाराज के विषय में जो अनर्गल टिप्पणियाँ की गई है, उसकी हम घोर भर्त्सना एवं निंदा करते हैं तथा इस प्रवृत्ति को निर्दोष साधुओं के चारित्र को मलिन बनाने का कुत्सित प्रयास मानते हैं इस प्रवृत्ति की अ. भा. दि. जैन शास्त्रि परिषद् एवं अ.भा.दि. जैन विद्वत्परिषद् एक स्वर से निंदा करती 1 मुनिपुङ्गव श्री सुधासागर जी महाराज के संघस्थ पूज्य क्षुल्लक द्वय के मात्र क्षुल्लक ही बने रहने, मुनि न बनने की निराधार बात कहकर जो आलोचना की है वह आगम विरुद्ध है। प्रस्तावक - पं. जयंतकुमार जैन शास्त्री, सीकर, समर्थक - पं. सनतकुमार जैन, खिमलासा, डॉ. विमला जैन, फिरोजाबाद संयुक्त अधिवेशन में सर्वसम्मति से पारित डॉ. श्रेयांस कुमार जैन एवं डॉ. शीतलचंद जैन के हस्ताक्षरों से प्रमाणित / स्वीकृत | अ. भा. दि. जैन शास्त्रि परिषद् एवं अ.भा.दि. जैन विद्वत्परिषद् का यह संयुक्त अधिवेशन सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पारित करता है कि वर्द्धमान कॉलेज, बिजनौर, में जुलाई, २००७ से स्थापित जैन विद्या अध्ययन एवं अनुशीलन केन्द्र की स्थापना एक शुभ कार्य है, जो जैन संस्कृति एवं धर्म के प्रचार एवं प्रसार की दृष्टि से परम उपयोगी है। एतदर्थ यह अधिवेशन कॉलेज प्रबंध समिति के माननीय अध्यक्ष श्री रविप्रकाश जैन एवं सचिव श्री कान्तिप्रकाश जैन तथा समस्त पदाधिकारी एवं सदस्यों के इस सार्थक प्रयत्न का हार्दिक अनुमोदन करता है तथा भविष्य में केन्द्र की अभिवृद्धि की हार्दिक कामना करता है। प्रस्तावक - डॉ. जयकुमार जैन, मुजफ्फरनगर, समर्थक - डॉ. विजयकुमार जैन, लखनऊ अधिवेशन से पूर्व दि. २५ से २७ अक्टूबर तक मूलाचार अनुशीलन चतुर्दश राष्ट्रीय विद्वत्संगोष्ठी संपन्न हुई जिसमें ४३ विद्वानों, विदुषियों ने शोध पत्रों का वाचन किया तथा शताधिक विद्वानों ने चर्चा में भाग लिया। संगोष्ठी एवं अधिवेशन के पुण्यार्जक श्री हंसराज जी के सुपुत्र सर्वश्री अमृतलाल, नरेन्द्रकुमार, शरदकुमार, संतोषकुमार जैन, खान्दू कॉलोनी, बांसवाड़ा थे। इस अवसर पुण्यार्जक श्री शरद जैन ने आयोजन को अभूतपूर्व बताते हुए कहा कि हमारी अनेक उलझी हुई गुत्थियाँ सुलझ गयी हैं। उन्होंने कहा कि यदि मुनि श्रावकाचार पढ़ें तो वे जान लेंगे कि हम ( श्रावक ) कैसे हैं? और हम मूलाचार पढ़ें तो हम भी जान लेंगे कि वे ( मुनि) कैसे हैं? इस अवसर पर अपने शुभाशीर्वाद में परम पूज्य मुनिपुङ्गव श्री सुधासागर जी महाराज ने कहा कि- साधुता की कसौटी मूलाचार है और सभी साधुओं को इसी के अनुसार अपनी चर्या और चर्चा करना चाहिए। शिथिलाचार न कभी स्वीकार्य था और न कभी स्वीकार होगा । इन्दौर 22 नवम्बर 2007 | संत शिरोमणी 108 आचार्य श्री विद्यासागर जी एक ऐसे महान् संत है जिनके प्रस्तावक - २. जैन विद्या अध्ययन एवं अनुशीलन चरणों में जैन- अजैन समाज रूप से श्रद्धा के साथ नतकेन्द्र स्थापना की सराहनामस्तक हो जाते है । ऐसे आत्म कल्याणी महासंत का 36वाँ आचार्य पद पदारोहण दिवस आज तुकोगंज स्थित उदासीन श्रावक आश्रम मंदिर परिसर में भक्तिभाव से मनाया गया । संयम, सेवा, त्याग, परमार्थ के इस आयोजन के जो भी दिसम्बर 2007 जिनभाषित 31 डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन मंत्री- अ.भा. दि. जैन विद्वत्परिषद्, एल- ६५, न्यू इंदिर नगर, बुरहानपुर संयम, सेवा, त्याग, परमार्थ से जुड़ी अनूठी आचार्य भक्ति Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साक्षी बने वे गुरुवर की ऐसी आराधना को देखकर दंग । के रूप में ख्यात हैं। उनके बारे में मुनि श्री क्षमासागर रह गये, स्वयम् के भाग्य को सराहे बिना नहीं रह सकें।| जी की कविता की निम्न पंक्तियाँ सटीक हैं। आचार्यश्री विद्यासागर जी के प्रभावक शिष्य 105 यह जानते हुए भी ऐलक श्री नि:शंकसागरजी महाराज के सुसान्निध्य और कि किसी को कुछ नहीं दे पाऊँगा, लायंस क्लब रीजन इन्दौर के डॉ. के.बी. माहेश्वरी, अध्यक्ष दिया भी नहीं जा सकता राजेन्द्र सिंह जी चौहान, ला. सचिन जी जैन तथा विकलांगों मन करता है के लिये विशेष समर्पित विनयजी जैन के सहयोग और कि अपने को समूचा दे दूँ। उपस्थिति में मानवता के सेवार्थ 38 विकलांग पीड़ित इस अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में श्रीमंत बंधुओं को तीनपहिया सायकिलें प्रदान की गई। ऐलकश्री | सेठ डालचंद जी ने अपने संबोधन में कहा कि सिंघई ने कहा कि आप पतित पावन बनें, महान् बनें। मन से, | जी की धार्मिक सेवा पैतृक संपत्ति के रूप में उन्हें मिली आत्मा से परेशान न हों। आज की शारीरिक कमजोरी पूर्व | है। धार्मिक संस्कारों का पालन करते हुए उनकी अगली जन्म के कर्मों से है। अब मानवता को बदनाम करने वाला | पीढ़ी भी इस दिशा में अग्रसर है। ऋषभ समैया, निर्मलचंद कार्य न करें तथा समाज के सहयोग को परमात्मा को स्मरण | निर्मल, नेमिचंद विनम्र ने अपनी काव्यांजलि भेंट की। श्री करते हुए स्वीकार करें। कपूरचंद घुवारा विधायक एवं अध्यक्ष हस्तशिल्प निगम निर्मलकुमार पाटोदी, इन्दौर | म.प्र. शासन ने इस अवसर पर कहा कि सन् 1992 से संतमना सिंघई जीवन कुमार जी का 80वाँ । | मैं सिंघई जी के निकट सान्निध्य में हूँ। उनमें मैं पूज्य जन्म दिवस समारोह सम्पन्न । वर्णी जी की छवि देखता हूँ। श्रीमती सुधा जैन 'विधायक' सागर/बी.एस.जैन धर्मशाला सागर में एक सादे | सागर ने इस अवसर पर कहा कि समाजसेवा में अग्रणी, गरिमामय समारोह में सिंघई जीवन कुमार जी के 80वें जन्म | "सादा जीवन उच्च विचार" को जीवन्त करने वाले श्री दिवस पर जैन समाज के प्रतिष्ठित वरिष्ठजन, व्यापारीजन | सिंघई जी ने समाज को अपने उच्च आदर्शों से संस्कारित एवं शुभचिंतक उपस्थित हुये। समाजसेवी, दानवीर, जैन | किया व मार्गदर्शन दिया है। उनका आशीर्वाद दीर्घ काल जाति भूषण सिंघई कारेलाल कुन्दनलाल जी के परिवार | तक हमें मिलता रहे। इस अवसर पर सेठ मोतीलाल जी, में जन्में सिंघई जीवन कुमार ने अपने परिवार के संस्कारों | डॉ. जीवन लाल जी, डॉ. भागचंद जी भागेन्दु दमोह, वीरेन्द्र के अनुरूप अपने जीवन को ढाला। वे पूज्य मुनिश्री | कुमार जी इटोरिया दमोह, महेन्द्र कुमार जी सिंघई, जबलपुर क्षमासागर जी के गृहस्थ जीवन के पिताश्री हैं। अपने व अभिनंदन सांधेलीय पाटन ने सभा को संबोधित किया। मृदुव्यवहार, संतसेवा, उच्च विचार एवं एक आदर्श पुरुष | अभिनंदन सांधेलीय, पत्रकार पराया घर भोपाल में महावीर जयंती मनाने के उपरान्त सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र नेमावर की ओर विहार हो गया। कुछ दिन पश्चात् हमारे पैर में दर्द शुरु हो गया कारण 'हरपिश' रोग हो गया यह बड़ा खतरनाक पीड़ादायक रोग माना जाता है। मैंने आचार्य श्री जी से कहा कि न जाने आचार्य श्री जी कौन से कर्म का उदय आ गया जो इतना बड़ा रोग घेर गया। आचार्य श्री जी ने कहा, भैया- "यह कर्म का उदय पराये घर के समान है।" जिसमें हमारी कुछ नहीं चलती। आचार्य श्री ने हमें एक ऐसा सूत्र दिया जिसके माध्यम से जीवन में आये हये कर्मों के उदय को हम समता के साथ सहन कर सकते हैं। मुनि श्री कुंथुसागर-कृत संस्मरण' से साभार 32 दिसम्बर 2007 जिनभाषित or Private & Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री क्षमासागर जी की कविताएँ सम्बन्ध नदी बहती है सदा किनारे बन जाते हैं। नदी बदलती है रास्ता किनारे मुड़ जाते हैं। नदी उफनती है कभी किनारे डूब जाते हैं। नदी समा जाती है सागर में किनारे छूट जाते हैं। सम्बन्धों की सार्थकता मानो जीवन के प्रवाह की पूर्णता में है। पीड़ा घर का बँटवारा हो गया जमीन-जायदाद सब बँट गयी, अमराई और कुँआ भी आधे-आधे हो गये, अब मेरे हिस्से में मेरा और उसके हिस्से में उसका आकाश है। सवाल यह नहीं है कि किसे कम मिला और किसके हिस्से में ज्यादा आया है, मेरी पीड़ा अपने ही बँट जाने की है। चिड़िया मैं देखता हूँ चिड़िया रोज आती है। और मैं जानता हूँ वही चिड़िया रोज नहीं आती। पर यह दूसरी है मैं ऐसा कैसे कहूँ! अच्छा हुआ मैंने कोई नाम नहीं दिया उसे चिड़िया ही रहने दिया। बँटवारा आकाश सबका दीवारें हमारी अपनी नदी सबकी गागर हमारी अपनी धरती सबकी आँगन हमारा अपना विराट सबका सीमाएँ हमारी अपनी। 'अपना घर' से साभार Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि नं. UPHIN/2006/16750 बारह भावना रचयिता- मुनि श्री सुव्रतसागर जी संघस्थ - आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज छन्द जोगीरासा (दोहा) देवशास्त्र गुरु को नमूं, सम्यक् संयम काज।। ध्यायो बारह भावना, पाने शिव-सुख राज॥ अनित्य भावना सुख वैभव नर देव संपदा, मात-पिता जन सारे।। ज्ञान रूप यौवन वय तन बल, तेज कान्ति सब न्यारे॥ इन्द्रधनुष जल बुदबुद जैसी, क्षण भंगुर जग धारा। यों अनित्य भावना चिन्तो, नित्य आत्म व्यवहारा॥ अशरण भावना चक्री सुर अहमिन्द्र आदि को यम चेली आ घेरे। मंत्र तन्त्र विद्या बल औषध, कोई शरण न तेरे॥ किला शस्त्र सेनाएँ सारी, मरते नहीं बचावें। यही भावना अशरण चिन्तो, शरण आत्म निज ध्यावें॥ एकत्व भावना जीव अकेला कर्म करे सब, सुख-दुख सहे अकेला। एक अकेला भव-भव भटके, जन्मे मरे अकेला // निज-जन, पर-जन साथ न देते, साथ न दे गुरु चेला। यों एकत्व भावना चिन्तो, रहता जीव अकेला॥ अन्यत्व भावना मात-पिता सुत दारा बांधव, मित्र सभी जन प्यारे। तन चेतन से अन्य रहा तो, कहें किसे अपना रे॥ मोहभाव से पर द्रव्यों को, निज कहता अज्ञानी। यों अन्यत्व भावना चिन्तो, अपना जिय दृगज्ञानी॥ संसार भावना जिनमत में श्रद्धा बिन सब ही, भव वन में भटके हैं। द्रव्य क्षेत्र अरु काल भाव भव, परिवर्तन सहते हैं। सभी योनि में सब गतियों में, जनम मरण दुख पाते। यों संसार भावना चिन्तो, बस शिव में सुख पाते॥ अशुचि भावना चारों गतियाँ अशुचि यहाँ नित, इन्द्रिय सुख, दुखकारी। खून पीप मल आदिक अन्दर, बाह्य देह पर प्यारी॥ जगत काय ये बाहर सुन्दर, किन्तु अशुचि भीतर हैं। अशुचि भावना ऐसी चिन्तो, शुचि निज आतमधर हैं॥ आस्रव भावना नाव छिद्रमय जैसे डूबे, पानी भर जाने से त्यों भव सागर में हम डूबें, कर्मों के आने से मिथ्या अविरति कषाय योग हि, सब आस्रव के द्वारे यही भावना आस्रव चिन्तो, बुद्ध निरास्रव सारे। संवर भावना छिद्र डाट से नीर न आवे, नाव किनारा पार्वे त्यों संवर कर्मास्रव रोके, भव से पार लगा / / दर्शन व्रत शम दम धर्मों से, कर्मास्रव को रो.. यही भावना संवर चिन्तो, शुद्ध आत्म नित सोचें। निर्जरा भावना पके आम झड़ते डाली से, त्यों सविपाक सभी के पाल पकावे माली जैसे, हो अविपाक सुधी के जिनकारण से संवर होता, देश निर्जरा उससे यही भावना निर्जर चिन्तो, सकल मोक्ष हो जिनः लोक भावना सहज लोक अलोक अनादि हैं, सदा सिद्ध वह जी / ताल वृक्ष, नर हाथ कटी सम, छहों द्रव्य मय ज सहे कर्म निजजीवलोक में, भव-भव में नित भ | लोक भावना ऐसी चिन्तो, सुख पाओ शिव रम बोधिदुर्लभ भावना निगोद-थावर-त्रसगति-नर-तन, जन्म देश कुल दुर्लभ स्वस्थ देह जिनश्रद्धा दुर्लभ, श्रावक संयम दुर्लभ बोधि समाधि धर भव घूमें, केवल ज्ञान बिना ही बोधि भावना दुर्लभ यों लख, तू बन नहीं प्रम दो धर्म भावना वीतराग सर्वज्ञ हितंकर तीर्थंकरों के द्वारा। कथित 'अहिंसा परमोधर्मः' दस विधमय सुखकारा॥ मुझे मिले सद्धर्म इसी से, अक्षय मोक्ष मिलेगा। धर्म भावना ऐसी चिन्तो, नित दुर्धर्म छलेगा। दोहा ये जननी वैराग्य की, 'सुव्रत' रखे सँभाल'। चिंतो बारह भावना, होओ मालामाल / स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, 210, जोन-1, एम.पी. नगर, Jain Education Inteोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं 1/205 प्रोफेसर कॉलोनीआमस-282002 (ला,प्र.) से प्रकाशित / संपादक : रतनचन्द्र जैन /