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________________ दी है। इस दृष्टि का महत्त्व और उपयोगिता इसी से प्रकट । आज भी उस अवस्था में बहुत अन्तर नहीं आया होती है कि आज घूम-फिरकर संसार फिर उसी में कल्याण | है, पर महावीर के काल में विश्वासों और आचारों की देखने लगा है। विसंगतियाँ बहुत जटिल थीं और उनमें आदिम प्रवृत्तियाँ सत्य और अहिंसा पर उनको बढ़ी दृढ़ आस्था थी। बहुत अधिक थीं। इस परिस्थिति में सबको उत्तम-लक्ष्य कभी-कभी उन्हें केवल जैनमत के उस रूप को, जो आज की ओर प्रेरित करने का काम बहुत कठिन है। किसी जीवित है, प्रभावित और प्रेरित करनेवाला मानकर उनकी के आचार और विश्वास को तर्क से गलत साबित कर देन को सीमित कर दिया जाता है। भगवान् महावीर इस | देना, किसी उत्तम लक्ष्य तक जाने का साधन नहीं हो देश के उन गिने-चुने महात्माओं में से हैं, जिन्होंने सारे | सकता, क्योंकि उससे अनावश्यक कटुता और क्षोभ पैदा देश की मनीषा को नया मोड़ दिया है। उनका चरित्र, शील, | होता है। तप और विवेकपूर्ण विचार, सभी अभिनन्दनीय हैं। हर प्रकार के आचार-विचार का समर्थन करना और जिन पुनीत-महात्माओं पर भारतवर्ष उचित गर्व कर | भी बुरा होता है, उससे गलत बातों का अनुचित समर्थन सकता है, जिनके महान् उपदेश हजारों वर्ष की कालावधि | होता है और अंततः आस्था और अनास्था का वातावरण को चीरकर आज भी जीवन-प्रेरणा का स्रोत बने हुए हैं, | उत्पन्न होता है। खण्डन-मण्डन द्वारा दिग्विजयी बनने का उनमें भगवान् महावीर अग्रगण्य हैं। उनके पुण्य-स्मरण | प्रयास इस देश में कम प्रचलित नहीं था, परन्तु इससे कोई से हम निश्चितरूप से गौरवान्वित होते हैं। आज से ढाई | विशेष लाभ कभी नहीं हुआ। महावीर ने स्याद्वाद की हजार वर्ष पहले भी इस देश में विभिन्न श्रेणी की मानव- | बात कहकर वैचारिक अहिंसा की बात कही। मेरी दृष्टि मण्डलियाँ बसती थीं। उनमें कितनी ही विकसित सभ्यता | में महावीर से बड़ा मानवता का शुभचिंतक और कोई नहीं से सम्पन्न थीं। बहुत सी अर्द्धविकसित और अविकसित | हो सकता। इसलिए कि वे सबको जीने का संदेश देते हैं और सभ्यताएँ साथ-साथ जी रही थीं। जीवन का अधिकार देते हैं। दिन पहाड़ से मनोज जैन 'मधुर' चुप्पी ओढ़े रात खड़ी है सन्नाटे दिन बुनता हुआ यंत्रवत् यहाँ आदमी नहीं किसी की सुनता सबके पास समय का टोटा किससे अपने सुख-दुख बाँटें? दिन पहाड़ से कैसे काटें? बात बात में टकराहट है कभी नहीं दिल मिलते ताले जड़े हुए होंठों पर हाँ ना में सिर हिलते पीढी गत इस अंतराल की खाई को हम कैसे पाटें? दिन पहाड़ से कैसे काटें? पीर बदलते हाल देखकर पढने लगी पहाड़े तोड़ रहा दम ढाई आखर उगने लगे अखाड़े मन में उगे कुहासों को हम इन बातों से कैसे छांटें? दिन पहाड़ से कैसे काटें? सी. एस. 18, इन्दिरा कॉलोनी बाग उमराव दूल्हा, भोपाल-10 12 दिसम्बर 2007 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524323
Book TitleJinabhashita 2007 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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