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ख्यातिवाद : प्रमेयकमलमार्तण्ड के प्रकाश में
डॉ. वीरसागर जैन ख्यातिवाद प्रायः सभी भारतीय दर्शनों का एक | सीप में चाँदी अथवा मरीचिका में जल का ज्ञान होता प्रमुख विषय है, परन्तु जैन-ग्रन्थों में इसका विस्तृत विवेचन | है, तब उस ज्ञान का विषय न तो सीप होती है और मात्र प्रभाचन्दाचार्य के 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' एवं 'न्याय- | न ही चाँदी, अथवा न मरीचिका होती है और न ही कुमुदचन्द' में ही देखने को मिलता है। यद्यपि ज्ञानमीमांसा | जल। अतः विपर्ययज्ञान अख्यातिरूप होता है। हेतु इस विषय को समझना भी बहुत आवश्यक है, परन्तु | परन्तु चार्वाक का ऐसा मानना समीचीन नहीं है, वर्तमान में अनेक लोग इस विषय को कठिन प्रतीत | क्योंकि यदि विपर्ययज्ञान में किसी भी पदार्थ की ख्याति होने के कारण छोड़ देते हैं। यहाँ तक कि प्रमेयकमलमार्तण्ड, | नहीं होती, तो उसका 'यह चाँदी है' अथवा 'यह मरीचिका जो विभिन्न विश्वविद्यालयों में निर्धारित पाठ्यग्रंथ है, उसके | है' अथवा 'यह रस्सी है', इत्यादि रूप से विशेष कथन छात्र और अध्यापक भी इस विषय की कठिन होने के | सम्भव नहीं होता, जो होता ही है। तथा विपर्ययज्ञान कारण उपेक्षा करते देखे जाते हैं। अत: यहाँ प्रस्तुत आलेख | निरावलम्ब नहीं है, क्योंकि उसमें प्रतिभासित होने वाला द्वारा इस विषय को सरलतापूर्वक स्पष्ट करने का प्रयत्न | पदार्थ उसका आलम्बन होता है। जैसे- जब सीप में किया जा रहा है। आलेख का मुख्य आधार 'प्रमेयकमल- | चाँदी का विपर्ययज्ञान हो, तब उसका आलम्बन चाँदी है मार्तण्ड' को ही बनाया गया है। आशा है विभिन्न | और वहाँ उस चाँदी की स्पष्टतया ख्याति हो रही है। विश्वविद्यालय के छात्रों को भी इससे लाभ होगा। | अतः विपर्ययज्ञान को अख्यातिरूप मानना तर्कसंगत
- कहा जा चुका है कि ख्यातिवाद ज्ञानमीमांसा से | नहीं है। सम्बन्धित विषय है। ज्ञान दो प्रकार का है- सम्यग्ज्ञान | 2. असत्ख्यातिवाद और मिथ्याज्ञान। इनमें से ख्यातिवाद का सम्बन्ध मिथ्याज्ञान सौत्रान्तिक और माध्यमिक (बौद्ध दार्शनिक) कहते से है। मिथ्याज्ञान भी तीन प्रकार का है- संशय, विपर्यय | हैं कि विपर्ययज्ञान असत्ख्यातिरूप होता है, क्योंकि उसमें और अनध्यवसाय। इनमें से भी ख्यातिवाद का सम्बन्ध | असत्-अविद्यमान अर्थ की ख्याति (प्रसिद्धि) होती है। मात्र विपर्ययज्ञान से है। विपरीत एक कोटि का निश्चायक जैसे- सीप में चाँदी का ज्ञान हआ. वहाँ चाँदी स्पष्ट विपर्ययज्ञान कहलाता है। जैसे रस्सी में सर्प का अथवा ही असत् अर्थ है, अविद्यमान अर्थ है और उस असत् सीप में चाँदी का ज्ञान होना विपर्ययज्ञान है। ख्याति का | या अविद्यमान अर्थ की ख्याति कराने वाला होने से अर्थ होता है- प्रसिद्धि। ख्यातिवाद का मूलभूत विचारणीय | विपर्ययज्ञान असत्ख्यातिरूप है। विषय यही है कि इस विपर्ययज्ञान में किसकी प्रसिद्धि | परन्तु उनका यह कथन भी समीचीन नहीं है, होती है? सत् की, असत् की, दोनों की अथवा किसी | क्योंकि विपर्ययज्ञान में प्रतिभासित होनेवाला अर्थ सर्वथा की नहीं? बस, इसी प्रश्न का उत्तर विभिन्न दार्शनिकों | असत् नहीं होता। यदि सर्वथा असत् अर्थ का भी प्रतिभास ने अपने-अपने दृष्टिकोणों से पृथक्-पृथक् दिया है। | होता हो, तो आकाशपुष्प आदि का भी हो, जो कथमपि फलस्वरूप इस विषय में अनेक बाद निर्मित हो गये | नहीं होता। तथा यदि देखा जाय तो यह कथन ही कि हैं। यथा- अख्यातिवाद, असतख्यातिवाद, प्रसिद्धार्थख्याति- | 'असत् की ख्याति होती है' पूर्वापरविरोधयुक्त। असत्
चिनीयार्थख्यातिवाद विवेका- | भी है और उसकी ख्याति भी होती है- यह कैसी विरुद्ध ख्यातिवाद या स्मतिप्रमोषवाद और विपरीतार्थख्यातिवाद।। बात? 'ख्यातिवाद' के प्रकरण में आचार्य प्रभाचन्द्र ने इस सभी
अतः विपर्ययज्ञान को असख्यातिरूप मानना भी मतों की गम्भीर समीक्षा प्रस्तुत की है। यथा- युक्तिसंगत नहीं है। 1. अख्यातिवाद
3. प्रसिद्धार्थख्यातिवाद चार्वाक कहते हैं कि विपर्यय ज्ञान अख्यातिरूप सांख्य कहते हैं कि विपर्ययज्ञान प्रसिद्धार्थख्यातिरूप होता है, क्योंकि उसमें किसी की भी ख्याति (प्रसिद्धि) होता है, क्योंकि उसमें प्रतिभासित अर्थ सर्वथा प्रसिद्ध नहीं होती। उनके अनुसार विपर्ययज्ञान निरावलम्बन होता | (सत् या विद्यमान) होता है। जैसे- सीप में चाँदी का है, उसका कोई आलम्बन नहीं होता। अर्थात् जब हमें | ज्ञान होने पर वहाँ वस्तुतः ही चाँदी विद्यमान होती है।
दिसम्बर 2007 जिनभाषित 13
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