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यद्यपि उत्तर काल में वहाँ चाँदीरूप अर्थ उपलब्ध नहीं। को सत् भी नहीं कहा जा सकता, असत् भी नहीं कहा होता है, तथापि जिस समय उसका प्रतिभास होता है | जा सकता और उभय भी नहीं कहा जा सकता, उस समय तो वह सत (विद्यमान) ही रहता है। इन तीनों ही पक्षों में दोष प्राप्त होते हैं। यदि सत माना
परन्तु सांख्यों का उक्त कथन भी समीचीन नहीं जाय तो कोई भी ज्ञान भ्रान्त सिद्ध नहीं होगा, सभी अभ्रान्त है, मिथ्या ही है, क्योंकि यदि इस प्रकार से सभी ज्ञानों | ही सिद्ध होंगे, यदि असत् माना जाए, तो आकाशपुष्प को प्रसिद्ध अर्थ का ग्राहक माना जाय तो फिर कौन | आदि भी ज्ञान का विषय होना चाहिए, जो कभी नहीं ज्ञान भ्रान्त कहलाएगा? सब ज्ञान अभ्रान्त ही कहलाएँगे। होता, और यदि उभयरूप माना जाय, तो उक्त दोनों ही तथा इस प्रकार से कौन ज्ञान भ्रान्त और कौन ज्ञान अभ्रान्त- | दोष उपस्थित होंगे। अत: विपर्ययज्ञान को अनिर्वचनीयार्थइसकी कोई व्यवस्था ही नहीं बन सकेगी। तथा यदि | ख्यातिरूप मानना चाहिए।
था और उत्तर काल में उसका। परन्त ब्रह्माद्वैतवादियों का उक्त कथन भी समीचीन अभाव हो गया तो वह कैसे हुआ? यह स्पष्ट करना | नहीं है, क्योंकि विपर्ययज्ञान में प्रतिभासित अर्थ कथमपि चाहिए, जो नहीं किया जा सकता। तथा यदि प्रतिभासित | अनिर्वचनीय सिद्ध नहीं होता। यदि वह वास्तव में जलादि अर्थ सत् होते हैं और उत्तर काल में उनका | अनिर्वचनीय होता तो 'यह चाँदी है' अथवा 'यह रस्सी अभाव हो जाता है, तो भूमि में आर्द्रता आदि उनके | है' इत्यादि रूप से कथन कैसे होता है? इससे सिद्ध चिह्न तो अवश्य उपलब्ध होने चाहिए थे, क्योंकि जलादि | होता है कि विपर्ययज्ञान में प्रतिभासित अर्थ अनिर्वचनीय पदार्थों का तत्काल निरन्वय विनाश नहीं देखा जाता। नहीं है। दरअसल, विपर्ययज्ञान को अनिर्वचनीयार्थख्यातिरूप
अतः विपर्ययज्ञान को प्रसिद्धार्थख्याति रूप मानना | मानने के पीछे ब्रह्माद्वैतवादियों की भावना अनिर्वचनीय भी ठीक नहीं है।
ब्रह्माद्वैत के प्रतिपादन व समर्थन की है, परन्तु वह ब्रहाद्वैत 4. आत्मख्यातिवाद
किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं होता, जो एक पृथक् विज्ञानाद्वैतवादी या योगाचार (बौद्ध) कहते हैं, कि | विषय है और स्थानाभाव के कारण यहाँ नहीं लिखा विपर्ययज्ञान आत्मख्यातिरूप होता है, क्योंकि उसमें जिस | जा सकता। अर्थ का प्रतिभास होता है वह कोई अन्य नहीं, अपितु इस प्रकार विपर्ययज्ञान को अनिर्वचनीयार्थख्यातिउस ज्ञान का अपना ही आकार है, परन्तु अनादिकालीन | रूप मानना भी युक्तिसंगत नहीं है। विद्या के कारण बाह्य अर्थ जैसा प्रतीत होता है। | 6. विवेकाख्यातिवाद या स्मतिप्रमोषवाद
परन्तु विज्ञानाद्वैतवादी का उक्त कथन भी समीचीन प्राभाकर (मीमांसक) कहते हैं कि विपर्ययज्ञान नहीं है, क्योंकि यदि इस प्रकार से सब ज्ञानों को | विवेकाख्याति या स्मृतिप्रमोष रूप होता है, क्योंकि उसमें आत्मख्याति रूप ही माना जाएगा, तो कोई भी ज्ञान भ्रान्त | दो ज्ञानों में विवेक (भेद) की अख्याति या पूर्वदृष्ट अर्थ सिद्ध नहीं होगा, सब ज्ञान अभ्रान्त ही सिद्ध होंगे तथा | की स्मृति का प्रमोष (चोरी) देखा जाता है। उनके अनुसार यदि विपर्ययज्ञान में प्रतिभासित चाँदी आदि पदार्थ आत्मरूप विपर्ययज्ञान में वस्तुतः दो ज्ञान होते हैं। एक ज्ञान तो (ज्ञानरूप) ही हैं, तो उनकी प्रतीति सुखादि की भाँति | सामने स्थित अर्थ का प्रतिभास रूप होता है और दूसरा अन्तरंग अर्थ रूप से ही होनी चाहिए, बाह्य अर्थ रूप | पूर्वदृष्ट पदार्थ का सादृश्यादि के कारण स्मृतिरूप होता से नहीं होनी चाहिए, जबकि स्पष्ट ही उनकी प्रतीति | है। जैसे जब हमें सीप में यह चाँदी है (इदम् रजतम्), बाह्य अर्थ रूप से होती है। वस्तुतः आत्मख्यातिवाद तभी | ऐसा ज्ञान होता है, तब वहाँ वास्तव में एक ज्ञान नहीं समीचीन सिद्ध हो सकता है, जब पहले विज्ञानाद्वैतवाद | होता है, अपितु दो ज्ञान होते हैं। एक तो 'यह (इदम्)' सिद्ध हो जो कथमपि नहीं होता।
पद से प्रकट होने वाला प्रत्यक्षज्ञान और दूसरा 'चाँदी अत: विपर्यय ज्ञान को आत्मख्याति रूप मानना | (रजतम्)' पद से प्रकट होने वाला ज्ञान, जो स्मरण रूप भी न्यायसंगत नहीं है।
होता है। वहाँ ज्ञाता पुरुष प्रत्यक्ष और स्मृति, इन दो 5. अनिर्वचनीयार्थख्यातिवाद
ज्ञानों में भेद नहीं जान पाता. अत: यह विवेकाख्यातिरूप ___ ब्रह्माद्वैतवादी कहते हैं कि विपर्ययज्ञान अनिर्वचनी- | है। अथवा सामने स्थित अर्थ के लिए स्मृति करते हुये यार्थख्यातिरूप होता है, क्योंकि उसमें प्रतिभासित अर्थ | भी उसे स्मृति नहीं कहता, अतः स्मृतिप्रमोष है। विपर्ययज्ञान
14 दिसम्बर 2007 जिनभाषित
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