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अंक में एक शिशु है और दाहिने हाथ से एक दूसरे शिशु । विशेषरूप से आकर्षक हैं। प्रतीहारों के बाद जेजाबभुक्ति को आम्रछौर प्रदान करती है। ये देवियाँ फलों से झुके | के चंदेलों के समय (11वीं-12वीं शताब्दी) में देवगढ़ में आम्रवृक्ष के नीचे खड़ी दर्शायी गई हैं जिसके पीछे एक | मंदिर निर्माण विविधरूप से होता रहा जैसा कि अनेक जैन सिंह बैठा है।
मंदिरों के अवशेषों से ज्ञात होता है। चंदेलवंश के राजा मंदिर नं. 15 शान्तिनाथ मंदिर के निकट स्थित इस | कीर्तिवर्मन का एक लेख भी यहाँ मिला है जिसमें इस मंदिर का तलविन्यास और आयोजन भिन्न प्रकार का है। | स्थान को कीर्तिगिरि कहा गया है जो संभवतः उस पहाड़ी यह त्रिरथ मंदिर सर्वतोभद्र प्रकार का लगता है जिसके चारों | के कारण कहा गया होगा जिस पर आज जैन मंदिर स्थित ओर बाहर की ओर निकलते हुए भद्र हैं। अन्दर एक बड़ा | हैं। मण्डप है जिसके तीन ओर गर्भगृह हैं और सामने मुखमण्डप | ललितपुर जिले में चाँदपुर और देघई मध्यकालीन है। जंघा के बाहरी भद्रभाग पर तीनों और एक एक | स्थापत्य और शिल्पकला के केन्द्र थे जहाँ से जैन धर्म देवकुलिका बनाई गई है जिनके अन्दर पद्मासन में बैठी से सम्बन्धित मूर्तियों भी प्राप्त हुई। ये स्थान भी ब्राह्मण तथा कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ी तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ प्रतिष्ठापित और जैन मंदिरों के साथ-साथ स्थित होने के प्रमाण प्रस्तुत की गई हैं। सामने मुखमण्डप में मंदिर का द्वार अपनी | करते हैं। सीरों खुर्द (प्राचीन सीयडोणी जिला-ललितपुर) सुन्दर शिल्पकारी के लिए आकर्षक है जिसकी देहरी | भी जैन शिल्पकला के लिए स्मरणीय है। यहाँ एक विशाल (उदुम्बर) पर मन्दारक, कमल, किन्नर-मिथुन कीर्तिमुख | जैन मंदिर पूजा में है जिसमें तीर्थंकर यक्षी और अन्य
और आक्रान्त सिंह बने हैं। द्वार-पार्श्व के निचले भागों प्रतिमाओं के अवशेष बड़ी मात्रा में देखे जा सकते हैं। पर मकर-वाहिनी गंगा और कच्छप-वाहिनी यमुना का | अभिलेखों से ज्ञात होता है कि 10वीं-11वीं शताब्दी में चित्रण हुआ है जिनके ऊपर द्वारशाखाएँ पत्रशाखा, रूपशाखा, | प्रतीहारों के काल के काल में सीरों-खुर्द स्थापत्य और नागशाखा से सुशोभित हैं। रूपशाखा में पद्मासन पर | शिल्पकला का बड़ा भारी केन्द्र था। ललितपुर जिले से विराजमान जैन तीर्थंकरों का प्रतिरूपण किया गया है तथा लगा हुआ मध्यप्रदेश का क्षेत्र है जहाँ चंदेरी, बूढी-चंदेरी द्वार के ऊपर ललाटबिम्ब पर पद्मासन में जिन-प्रतिमा और थोबन (जिला-गुना) में प्राप्त स्थापत्य अवशेषों और निर्मित हुई है जिसके दोनों ओर उसी प्रकार की आठ और मूर्तियों से जैन कला के विकास और प्रचार का आभास मूर्तियाँ हैं।
मिलता है। थोबन के पास प्राचीन विशाल मूर्तियों को __ स्तम्भयुक्त मण्डप के अन्दर तीन द्वार हैं जिनसे | सूरक्षित रखने वाले जैन मंदिर अब भी पूजा में है। भद्रभाग पर निर्मित गर्भगृहों में प्रवेश मिलता है जिनमें अहार (जिला-टीकमगढ़) में चंदेल काल के मंदिरों तीर्थंकर मूर्तियों स्थापित की गई हैं। इस मंदिर की जीर्णोद्धार और मूर्तियों के अवशेष मिलते हैं जहाँ मंदिरों के अतिरिक्त बाद में बड़े पैमाने पर किया गया है इसलिए इसके मौलिक अन्य भवनों और तड़ागों का निर्माण भी कराया गया। रूप, विशेषतया शिखरभाग, के आकार का ज्ञान नहीं हो शान्तिनाथ बाहुबली और अन्य जिन मंदिरों के साथ यहाँ पाता। इसी प्रकार देवगढ़ के अन्य जैन मंदिरों का भी | कई मानस्तम्भों का निर्माण हुआ। स्थानीय संग्रह में सुरक्षित जीर्णोद्धार और पुननिर्माण इतना अधिक हुआ है कि उनमें | गरुड़ासीन यक्षी चक्रेश्वरी की प्रतिमा उस क्षेत्र की मध्यकालीन से बहुतों का रूप ही बदल गया है। इन दोनों मंदिरों का | शिल्पकला का प्रतिनिधित्व करती है। जैन मूर्तियों की निर्माण प्रारम्भिक 12वीं शताब्दी में किया गया जैसा कि | पीठिकाओं पर प्राप्त लेखों से यहाँ की कई जैन श्रेष्ठियों ऊपर वर्णित भोजकालीन लेख और शिल्प विशेषताओं से | का पता चलता है जिन्होंने इस जैन केन्द्र के विकास में विदित होता है। देवगढ़ के मंदिर का नं. 16 और 19 के | योगदान किया। टीकमगढ़ के पास ही बानपुर से एक अवशेष भी अपने शिल्पाकरण और द्वारशाखाओं के निर्माण | सर्वतोभद्र-सहस्रकूट मिला है। जो आकार में छोटा होने में इन मंदिरों से मिलते हैं और 9वीं शताब्दी के प्रतीहार | पर भी सुन्दर रेखा शिखर के कारण उल्लेखनीय है। इसमें कालीन प्रतीत होते हैं। इनके द्वारभाग पर निर्मित गंगा- | गंगा-यमुना, नवग्रह, पत्रलता तथा आदिनाथ और सरस्वती युमुना की मूर्तियाँ जिनके ऊपर हंसमिथुन, नागशाखा, | प्रतिमाएँ सुन्दरता से उत्कीर्ण की गई है। इसी प्रकार जिनप्रतिमायुक्त सृपशाखा, पत्रशाखा तथा स्तम्भ शाखा | टीकमगढ़ के पास पपौरा और नवगढ़ा जैनियों के पवित्र
-दिसम्बर 2007 जिनभाषित 21
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