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________________ रूपी धुरी-पहियों को ठीककर अपने पहुँचने योग्य समाधि । है। रूपी नगर में पहुँचाते हैं। इसे अक्षम्रक्षणवृत्ति कहते हैं। वास्तव में दिगम्बर साधु की भिक्षावृत्ति तो उपर्युक्त 3. उदराग्नि प्रशमन- जिस प्रकार किसी भण्डार | प्रकार ही होनी चाहिए, परन्तु वर्तमान में अधिकांश मनिराजों में आग लग जाये, तो गृहस्थ उसे पवित्र जल से अथवा | की आहरवृत्ति इससे मेल नहीं खाती है। आजकल बहुत अपवित्र जल से बुझाता है, उसी प्रकार मुनिराज भी सरस | से मुनि एक ही चौके में मनचाहा आहार बनवाक अथवा नीरस जैसा कुछ भी आहार मिल जाता है, उसी | हैं। कोई मुनि तो (आगरा के निकट के एक स्थान पर से अपने पेट की अग्नि को शान्त कर लेते हैं, यह उदराग्नि चातुर्मास कर रहे मुनि) बिना पड़गाहन किसी भी श्रावक के प्रशमन वृत्ति है। |घर में प्रवेश कर जाते हैं, ओर मनचाहा आहार बनवाते हैं। इन सब कार्यों में मुख्य भूमिका उस संघ के ब्रह्मचारी भाई 4. भ्रमराहार वृत्ति- जिस प्रकार भ्रमर किसी भी एवं ब्रह्मचारिणी बहिनों की होती है। वे श्रावक को तरहफूल को बाधा न देता हुआ रस ग्रहण करता है, उसी प्रकार तरह के जूस, आइसक्रीम, हलुवा, पत्तियों के साग एवं मुनिराज भी दाता को बाधा न पहुँचाते हुए आहार ग्रहण चटनी, पत्ता गोभी की सब्जी, आदि बनाने को बार-बार यह करते हैं। इसे भ्रामरीवृत्ति भी कहा जाता है। कहकर मजबूर करते हैं, कि महाराज को ये चीजें बहुत पसंद 5. गर्तपूरण- जिसप्रकार किसी गड्ढे को अच्छी हैं। जरूर बननी चाहिए। श्रावक के एक दिन के आहार बुरी मिट्टी से भरकर पूरा कर देते हैं, उसीप्रकार मुनिराज | कराने में सैकड़ों रुपये खर्च हो जाते हैं। पर मजबूरी में क्या भी स्वादिष्ट अथवा बेस्वाद किसी तरह के भी आहार से | करे? यदि उपर्युक्त वृत्ति से सभी साधु आहार लेने लगें, अपनी पेटरूपी खाई को भर लेते हैं। इसको श्वभ्रपूरण | तो आगम की आज्ञा का पालन भी हो और श्रावक भी भी कहते है। | निर्विकल्प हो जाये। यह प्रकरण राजवार्तिक 9/6 तथा कार्तिकेयानुप्रेक्षा 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी गाथा 399 की टीका आदि स्थानों पर भी उपलब्ध होता आगरा- 282002 (उ.प्र.) भगवान् पार्श्वनाथ जम्बूद्वीप-संबंधी भरतक्षेत्र के काशीदेश में स्थित , तीन सौ राजाओं के साथ दीक्षित हुए। पारणा के दिन वाराणसी नगरी में काश्यपगोत्री, उग्रवंशी राजा अश्वसेन | गुल्मखेट नगर में धन्य नामक राजा ने आहारदान देकर राज्य करते थे। वामादेवी उनकी महारानी थीं। उन | पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये। छद्मस्थ अवस्था के चार माह महारानी ने पौष कृष्ण एकादशी के दिन सानत स्वर्ग | व्यतीत कर अश्व वन में जब ये तेला का नियम लेकर के प्राणत इन्द्र को तीर्थंकर सुत के रूप में जन्म दिया। देवदारु वृक्ष के नीचे ध्यानावस्था में थे तब कमठ के तेरासी हजार सात सौ पचास वर्ष का काल बीत जाने | जीव शम्बर नामक देव से सात दिन तक इन पर विभिन्न पर इनका जन्म हुआ था। इनकी आयु सौ वर्ष थी, वर्ण | प्रकार से घोर उपसर्ग किया। उस समय उन धरणेन्द्र धान्य के अंकुर के समान हरा था और शरीर की ऊँचाई और पद्मावती ने आकर उपसर्ग का निवारण किया। नौ हाथ थी। सोलह वर्ष की अवस्था में ये नगर के | चैत्र कृष्ण त्रयोदशी के दिन प्रात:काल घातिया कर्म नष्ट बाहर वनविहार करते हुए अपने नाना महीपाल के पास | हो जाने से इन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ। भगवान् के पहुँचे। वहाँ एक साधु पंचाग्नि तप के लिए लकड़ी फाड़ | समवशरण की रचना हुई जिसमें सोलह हजार मुनि, रहा था। इन्होंने उसे रोका और बताया कि लकड़ी में | छत्तीस हजार आर्यिकायें, एक लाख श्रावक, तीन लाख नागयुगल है। वह नहीं माना और क्रोध से युक्त होकर | श्राविकायें, असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यात तिर्यंच उसने वह लकड़ी काट डाली। उसमें जो नागयुगल था | थे। उनहत्तर वर्ष सात मास विहार करके अन्त में एक वह कट गया। मरणासन्न सर्पयुगल को इन्होंने संबोधित | मास की आयु शेष रहने पर सम्मेदाचल पर छत्तीस किया जिससे शान्तचित्त हो वे स्वर्ग में धरणेन्द्र और | मुनियों के साथ इन्होंने प्रतिमायोग धारण किया और पद्मावती हुए। तीस वर्ष के कुमारकाल के पश्चात् | श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन प्रात: वेला में अघातिया अपने पिता के वचनों के स्मरण से ये विरक्त हुए और | कर्म नष्ट हो जाने पर निर्वाण पद प्राप्त किया। पौष कृष्णा एकादशी के दिन अश्व वन में प्रातः काल । मुनि श्री समतासागरकृत 'शलाका पुरुष' से साभार 26 दिसम्बर 2007 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524323
Book TitleJinabhashita 2007 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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