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________________ अध्रुव ये दो ही बंध पाये जाते हैं। ऊँगली के इशारे से बताते हैं, बोलने या लिखने की सामर्थ्य 3. इतना विशेष है कि वेदनीयकर्म का बन्ध 13वें | नहीं है। मैं समय-समय पर उनसे अपनी समस्याओं का होता ही रहता है, अतः वेदनीय कर्म | समाधान लेता रहता हूँ। जिनवाणी के ऐसे महान् सपूत को में सादि बन्ध नहीं पाया जाता, अन्य तीन पाये जाते हैं। शीघ्र आरोग्य लाभ हो। प्रश्नकर्ता- एक विदुषी महिला, बड़गाँव जिज्ञासा- बल और वीर्य में क्या अन्तर है? जिज्ञासा- क्या तीर्थंकर केवलज्ञान होते ही मोक्ष | समाधान- इस प्रश्न के उत्तर में श्री मूलाचार गाथा प्राप्त कर सकते हैं, या उनके कुछ समय तक दिव्यध्वनि | 413 की आचार वृत्ति में वसुनन्दी आचार्य ने इस प्रकार होना नियामक होता है? कहा है- बलमाहारौषधादिकृतसामर्थ्य, वीर्यवीर्यान्तरायसमाधान- तीर्थंकर चाहे विदेहक्षेत्र के हों या भरत- | क्षयोपशमजनितं संहननापेक्षं स्थामशरीरावयवकरणचरण ऐरावत क्षेत्र के उनको केवलज्ञान होने के उपरान्त पृथकत्व | जंघोरुकटिस्कन्धादिघनघटितबंधोपेक्षं। वर्ष तक विहार करना ही होता है। इस काल में उनकी __ अर्थ- आहार तथा औषधि आदि से होने वाले दिव्यध्वनि निरन्तर होती रहती है। इससे संबंधित आगम सामर्थ्य को बल कहते हैं। तथा जो वीर्यान्तराय कर्म के प्रमाण इस प्रकार है क्षयोपशम से उत्पन्न होता है, संहनन की अपेक्षा रखता __ 1. श्री धवला पु. 7, पृष्ठ-57, तीर्थंकरप्रकृति के | है तथा स्वस्थ शरीर के अवयव- हाथ, पैर, जंघा, घुटने, उदयवाले सयोगकेवली का विहारकाल सबसे जघन्य भी कमर, कन्धे आदि के मजबत बन्धन की भी अपेक्षा से वर्ष पृथकत्व से कम नहीं पाया जाता। इस उदयस्थान का | सहित है, उसे वीर्य कहते हैं। उत्कृष्ट काल गर्भ से आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्व प्रश्नकर्ता- राजकुमारी जैन, ललितपुर कोटि है। जिज्ञासा- मुनियों के गोचरीवृत्ति आदि पाँच 2. श्री धवला पु.12, पृष्ठ-494- तीर्थ विहार का | विशेषणों को समझाइये? काल जघन्य स्वरूप से वर्ष पृथकत्व मात्र पाया जाता है। समाधान- उपर्युक्त प्रश्न का समाधान श्री चारित्रसार 3. श्री धवला पु. 15, पृष्ठ-67- तीर्थंकर नामकर्म | रचियता चामुण्डरायदेव के आधार से लिखा जाता हैका उदीरणा काल जघन्य से वर्ष पृथकत्व और उत्कर्ष 1. गोचार अथवा गोचरीवृत्ति- जिस प्रकार गाय को से कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण है। यदि कोई युवती लीलापूर्वक आभूषण पहनकर घास डालने षट्खण्डागम परिशीलन पृष्ठ-504- यहाँ वर्ष | को आवे, तो भी गाय उस युवती की सुन्दरता नहीं देखती, पृथकत्व को कम इसलिए किया गया है कि तीर्थंकर का | किन्तु घास खाने पर ही अपना लक्ष्य रखती है, तथा 'विहार जघन्य रूप से वर्ष पृथकत्व काल तक पाया जाता जिसप्रकार वह गाय अनेक देश की घास, लता आदि को खाती है, और जैसी मिलती है, जितनी मिलती है, उसे इसके अतिरिक्त पंचसंग्रह पृष्ठ 373-374 तथा | ही खाती है, वह किस तरह डाली गई है, किसने डाली संस्कृत पंचसंग्रह 179 पर भी इसी प्रकार का कथन पाया | है आदि बातों पर कुछ भी ध्यान नहीं रखती, उसी प्रकार जाता है। मुनि भी भिक्षा देनेवाले पुरुषों की कोमलता, सुन्दरता, वेष इस प्रश्न का उत्तर पूज्य आचार्यश्री ने तत्त्वार्थसूत्र | और विलास आदि देखने में कभी इच्छा नहीं रखते, और पढ़ाते समय दिया था, जो मुझे याद था। परन्तु इसके प्रमाण | न सूखा-पतला आहार आदि की विशेष योजना को देखते मेरे पास नहीं थे। अतः मैंने उपर्युक्त सभी प्रमाण पं. है, जो सामने आ जाता है, उसे ही खा लेते हैं। इसलिए जवाहरलाल जी शास्त्री, भिण्डर वालों से पूछकर लिखे गाय के समान भोजन करने से इसे गोचरीवृति कहते हैं। हैं। वर्तमान में पं. जवाहरलाल जी शास्त्री पिछले 8-10 2. अक्षम्रक्षण- जिस प्रकार कोई वैश्य रत्नों से भरी वर्षों से बिस्तर पर हैं। उनके शरीर की सारी नसों में पूर्ण | गाड़ी को घी-तेल आदि चिकनाहट से धुरा और पहियों रूप से शक्ति हीनता हो गई है। परन्तु उनके क्षयोपशम | को ठीककर योग्य स्थान पर पहुँचता है, उसी प्रकार की विशिष्टता का यह उदाहरण है कि उनको अभी तक | मुनिराज भी गुणरूपी रत्नों से भरी हुई इस शरीर रूपी गाड़ी शों के त्यों स्मृति में हैं। वे केवल | को निर्दोष भिक्षारूपी थोड़ी सी चिकनाहट लगाकर आयु दिसम्बर 2007 जिनभाषित 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524323
Book TitleJinabhashita 2007 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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