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________________ । है, इसी से यह सार्वार्धमागधी नाम पड़ा है, यह सुतरां सिद्ध होता है। सभी तीर्थंकरों की ध्वनि एक योजन तक ही फैलती है 'ध्वनिरपि योजनमेकं प्रजायते श्रोतृहृदयहारिगभीरः । १७ अर्थात् भगवान् की ध्वनि जो कि श्रोताओं का मन, हरण करनेवाली तथा गम्भीर होती है, वह एक योजन तक जाती है। यह है, सभी तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि की सामान्य विशेषता है । मगधदेवों के द्वारा यह ध्वनि एक योजन से अधिक क्षेत्र में भी फैलायी जाती है । भगवान् आदिनाथ का समवशरण बारह योजन का था, अतः एक योजन के बाहर व भीतर सर्वत्र एक सी वाणी सबको सुनाई दे यह कार्य इन देवों का होने से इस वाणी को सार्वार्धमागधी । नाम प्राप्त होता है। यह अनुचित भी नहीं है, क्योंकि जो सबके हित में कार्य करते हैं उनका नाम हो ही जाता है। मगधदेवों का यही मात्र कार्य है जिसके कारण भगवान् की वाणी अर्धमागधी भाषा है। यह देवकृत अतिशय में गिनी जाती है। इसके अलावा इन मगधदेवों का कोई अन्य कार्य नहीं होता है। 'मगधदेवों के निमित्त से वह वाणी संस्कृत भाषारूप परिणमन करती है । १८ ऐसा कुछ मनीषियों का कहना है। ।' पर यह कार्य भी मगधदेवों का नहीं है क्योंकि भगवान् की दिव्यध्वनि का ही यह गुण है कि वह सभी भाषाओं और कुभाषाओं रूप परिणमन कर जाती है। जैसा कि कहा है- 'दिव्यध्वनिर्भवति ते विशदार्थसर्वभाषा-स्वभावपरिणामगुणप्रयोज्यः । १९ और भी कहा है कि- 'जिस प्रकार आकाश से बरसा पानी एक रूप होता है, परन्तु पृथिवी पर पड़ते वह नाना रूप दिखाई देने लगता है, उसी प्रकार भगवान् की वाणी यद्यपि एक रूप थी तथापि सभा में सब जीव अपनी-अपनी भाषा में उसका भाव पूर्णतः समझते थे । '२० और भी कहा है कि नाना भाषात्मिकां दिव्यभाषामेकात्मिकामपि । पृथयन्तमयत्नेन हृद्ध्वान्तं नुदतीं नृणाम् ॥ अर्थात् एक रूप होकर भी आपकी दिव्यभाषा नाना भाषात्मकरूप होकर बिना प्रयत्न के विस्तार को प्राप्त होती हुई मनुष्यों के हृदयान्धकार को दूर करती थी । इसी प्रकार ‘तव वागमृतं श्रीमत्सर्वभाषास्वभावकम्। २२ अर्थात् हे भगवन्, आपकी वाणीरूपी अमृत सभी भाषा के स्वभाववाली है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सभी भाषारूप परिणमन करना यह दिव्यध्वनि का अपना स्वाभाविक गुण है, अन्य किसी के माध्यम से संस्कृत या मागघी या प्राकृत आदि भाषा रूप परिणमन नहीं होता है। अतः मगधदेवों का कार्य मात्र ध्वनिविस्तारकयन्त्र की तरह सबको वाणी उपलब्ध कराना । से ही निकलना मानते हैं सर्वांग से नहीं । Jain Education International विसंगति ३- यह दिव्यध्वनि सर्वांग से निकलती क्योंकि यह ध्वनि है। ऐसा कोई आगमप्रमाण नहीं है, जिसमें लिखा हो कि दिव्यध्वनि सर्वांग से निकलती है। जिस समय दिव्यध्वनि खिरती है, उस समय तालु, दन्त, ओष्ठ, कण्ठ आदि का हलन चलनरूप व्यापार नहीं होता, उस समय भगवान् का मुख भी नहीं हिलता, इससे कुछ लोग यह अनुमान लगाते हैं कि भगवान् की ध्वनि मुख से नहीं निकलती अतः सर्वांग से निकलती है । पर ऐसा मानना नितान्त गलत है। यह तो भगवान् का अतिशय है कि कण्ठ, ओष्ठ आदि के व्यापार के बिना ही ध्वनि खिरती है। इसीलिये श्री पूज्यपाद देव कहते हैं- 'जयन्ति यस्याऽवदतोऽपि भारती ।' २३ अर्थात् भगवान् बोलते नहीं है, फिर भी उनकी वाणी का वैभव जयवन्त है । यह कोई विरोधभास नहीं, किन्तु सर्वज्ञता का परिणाम है। जिस प्रकार केवली की सभी क्रियाएँ उठना, बैठना, बोलना आदि बिना इच्छा के होती हैं, यह जिस प्रकार छद्मस्थों के लिये विचित्र बात है, उसी प्रकार केवली का ओठ, कंठ आदि के व्यापार के बिना बोलना एक वैचित्र्य है, अतिशय है। आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने कहा है'समणमुहग्गदमद्वं' २४ अर्थात् सर्वज्ञ महाश्रमण के मुख से निकला हुआ अर्थ है । इसी सूत्र की टीका में श्री जयसेन महाराज ने यह लिखा है कि सर्वज्ञदेव के वचन मुख निकलते हैं। साथ ही 'गंभीरं मधुरं मनोहरतरं दोषव्यपेतं हितं, कण्ठोष्ठादिवचोनिमित्तरहितं नो वातरोधोद्गतं २५ इस गाथा से ही यह भी कहा कि वचनों के निमित्तभूत जो कण्ठ, ओष्ठ आदि का चलना है, वह उनमें नहीं था। जिससे स्पष्ट है कि मुख से ध्वनि निकलना और कण्ठ, ओष्ठ, तालु आदि का न चलना, ये दोनों विरोधाभास नहीं हैं। सर्वत्र यही कहा है कि दिव्यध्वनि भगवान् के मुखारविन्द से निकलती है- 'स्वयंभुवो मुखाम्भोजाज्जाता चित्रं सरस्वती '२६ अर्थात् स्वयम्भू भगवान के मुखकमल से यह विचित्र सरस्वती निकलती है। 'केवलिमुखारविन्द - विनिर्गतो दिव्यध्वनिः । ' २७ अर्थात् केवली के मुखारविन्द से निकलती है दिव्यध्वनि । 'तित्थयरवयणादो दिव्वज्झणी विणिग्गयी । २८ अर्थात् तीर्थंकर के मुख से दिव्यध्वनि निकलती है । इत्यादि प्रमाणों से स्पष्ट है कि सभी आचार्य दिव्यध्वनि का मुख For Private & Personal Use Only दिसम्बर 2007 जिनभाषित 9 www.jainelibrary.org
SR No.524323
Book TitleJinabhashita 2007 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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