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________________ भाग गया। ऐसा होता है दुर्जन की संगति का फल। सत्संगति के प्रभाव में आकर व्यक्ति अपना तन, मन, धन, दान, शील एवं तप में लगाता है, सत्कार्यों को करता है, बुराइयों से बचता है और बुरे लोगों के प्रति माध्यस्थ्य भाव रखता है। सामाजिक कानून एवं धार्मिक मान्यताएँ हमें दुःखों से बचाने के लिए हैं, अतः उनका पालन हमें पंचकल्याणक प्रतिष्ठा जैसे आयोजनों में करना चाहिए। संसार में जन्म, जरा (बुढ़ापा) और मृत्यु को दु:ख इसलिए कहा गया है कि हम तन-मन-वचन के वशीभूत हैं। अगर मनुष्य मन और तन से ऊपर उठकर बिना प्रमाद के स्व-पर-हित में जुट जाये, तो न जन्म दुःखदायी होगा, न बुढ़ापा और न मृत्यु। आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ठीक ही कहते हैं कि "भविष्य की उज्ज्वलता के लिए दूरदर्शन की नहीं, दूरदृष्टि की आवश्यकता है।" जिसके पास दूर दृष्टि होती है, वह लौकिक उपलब्धियों को सुख नहीं मानता, बल्कि उनके आगे जाकर आत्मा के हित का चिन्तन करता है और क्षमा, मदता, सरलता आदि आत्मिक गुणों की आराधना करता है व्यक्ति और समाज आध्यात्मिक मूल्यों के सहारे ही बचते हैं, अतः हमारे लिए यही उपादेय हैं। आध्यात्मिक मूल्य अकेले परमार्थ को ही नहीं सुधारते, अपितु लोकहित में भी कार्यकारी होते हैं। अतः इनकी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा जैसे महत्त्वपूर्ण धार्मिक आयोजनों में अनदेखी नहीं करनी चाहिए। डॉ० सुरेन्द्र कुमार जैन बोध-कथा महत्वाकांक्षी कभी बूढ़ा नहीं होता अल्पदान की महत्ता पंचतंत्र में कहा गया है कि साधारण पुरुषों के पहले बहुत पहले चीन के चांग चू नामक प्रदेश में वहाँ चित्त और बाद में शरीर में बुढ़ापा आता है। लेकिन कर्मशील | के एक महंत ने भगवान् बुद्ध की एक मूर्ति बनवाने के लिए लोगों के शरीर में भले ही आयु के लक्षण आ जाएँ, परन्तु | धन इकट्ठा करने के प्रयोजन से अपने शिष्यों को घर-घर उनके चित्त में कभी बुढ़ापे के लक्षण नहीं आते। । भेजा। आचार्य विनोबा भावे ने भी कहा है कि जिसने किसी इसी प्रक्रिया में एक शिष्य को तिन-नू नाम की एक नई चीज सीखने की आशा को ही छोड़ दिया, वह सच | बालिका मिली। उसके पास एक सिक्का था। श्रद्धावश उसने में बूढ़ा है। अपने सिक्के को दान करना चाहा मगर महंत के शिष्य ने कहते हैं कि एक गाँव में एक दर्जी रहता था। एक सिक्के को अति तुच्छ समझकर लेने से इनकार कर दिया। बार उसकी सुई टूट गई। बाजार गाँव से दूर था और सप्ताह कुछ दिनों के बाद जब काफी मात्रा में धन इकट्ठा में एक ही बार लगता था, अतः दर्जी का काम कई दिनों हो गया, तब मूर्ति निर्माण कार्य आरंभ हुआ, परंतु बारतक रुका रहा। बार के प्रयास के बाद भी मूर्ति सुंदर ढंग से संपूर्ण नहीं जब दर्जी बाजार गया, तो इस बार दो सुईयाँ खरीदकर | हो पा रही थी। इस पर महंत को संदेह हुआ। ले आया और एक सुई को उसने हिफाजत से रख दिया। महंत के आदेशानुसार सभी शिष्यों ने बारी-बारी से संयोग से इस बार उसकी सुई बहुत लम्बे समय तक चली। अपने वृत्तांत सुनाए। अचानक दर्जी को दूसरी सुई का ध्यान आया। उसने | एक के वृत्तांत में तिन-नू का प्रसंग आया। इससे थैले से निकालकर सुई को देखा तो उसमें जंग लग चुकी महंत को झटका लगा। महंत के आदेश से वह शिष्य उस थी और जिस सुई को वह काम में ले रहा था वह नई| बालिका के पास गया और क्षमा माँगते हुए उस सिक्के को और चमकदार थी। सहर्ष ले लिया। यही गति मनुष्य की भी है। वह तब तक बूढ़ा नहीं। कहा जाता है कि धातुओं के घोल में उस सिक्के होता, जब तक उसके जीवन में उत्साह, कर्मशीलता और | को मिला देने पर सहज ही एक सुंदरतम मूर्ति का निर्माण माधुर्य बना रहता है। जब तक उसके जीवन में महत्वाकांक्षा | हो गया। आश्चर्य का विषय है कि अभी भी इस बुद्ध प्रतिमा जिंदा है तब तक कोई भी उम्र उसे बूढ़ा नहीं बना सकती। के हृदयभाग के ठीक ऊपर एक सिक्के जैसा उभार है। -दिसम्बर 2007 जिनभाषित 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524323
Book TitleJinabhashita 2007 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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