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________________ सम्पादकीय पंचकल्याणकों के आध्यात्मिक स्वरूप की आवश्यकता वर्षायोग की समाप्ति के पश्चात् अब समाज में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सवों का शुभारंभ हो गया है। लगभग शताधिक पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव जून 2008 तक होने की संभावना है। जब हम उत्सव को अच्छाई की दृष्टि से देखते हैं, तो महोत्सव के प्रति उज्ज्वलता का भाव होता ही है। अतः पंचकल्याणक प्रतिष्ठा समारोहों के आयोजन हम सबके लिए मंगलकारी हों, ऐसी हम कामना करते हैं। तीर्थंकर के पंचकल्याणक हैं- गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और मोक्ष ये सब जीवों के लिए कल्याणकारी होते हैं, अतः इनका कल्याणक नाम सार्थक है। आज इन महोत्सवों में लाखों से करोड़ों रुपये तक व्यय होता है और अंत में सब पूछते हैं कि इतने रुपये खर्च करने के बाद उपलब्धि क्या रही? और कुछ लोग जो आयोजन से जुड़े होते हैं, स्वयं को ठगा हुआ सा अनुभव करते हैं। अब दिनदहाड़े किसने ठग लिया? यह कहना मुश्किल परम पूज्य संत शिरोमणि आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज के सान्निध्य में सम्पन्न हुए कुछ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सवों में बची हुई राशि श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ, सिरपुर तथा सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर आदि के लिए प्रेषित की गई थी। यह एक सुखद पहल थी, जिसका सभी को अनुकरण करना चाहिए। कुछ स्थानों पर सीमित लक्ष्यों की पूर्ति, जैसे छात्रवृत्ति कोष, पाठशाला आदि का संचालन या धर्मशाला-निर्माण जैसे कार्य होना भी ज्ञात हुए हैं। इन कार्यों में धन का व्यय होना दान भावना के अनुकूल भी है। लेकिन कहीं-कहीं यह भी देखने में आया है कि संचित दानराशि का दुरुपयोग हुआ है या वह कुछ व्यक्तियों के द्वारा हड़प ली गई है। समाज में आज भी दानराशि के विषय में पारदर्शिता उतनी नहीं है, जितनी होनी चाहिए। आज हमारे अनेक तीर्थक्षेत्र अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। कुछ तीर्थ ऐसे भी है, जो धनाभाव के कारण जर्जर हो रहे हैं। धार्मिक शिक्षावाले विद्यालय मृतप्राय हो रहे हैं। हमारे पास कोई विशाल छात्रवृत्ति है, जो निष्पक्ष भाव से समाज के अभावग्रस्त विद्यार्थियों को उच्च शिक्षा दिला सके। अनेक लोग धनाभाव के कारण उचित चिकित्सा भी नहीं करा पाते हैं। समाज के उपेक्षित वर्ग को मूलधारा में लाने की भी आवश्यकता है। इन सामाजिक आवश्यकताओं के साथ आज जो सबसे बड़ी कमी देखने में आ रही है, वह यह है कि पंचकल्याणक महोत्सव मात्र मनोरंजन के उत्सव बनते जा रहे हैं, जब कि इन्हें आध्यात्मिकता से अनिवार्य रूप से जुड़ा होना चाहिए, क्योंकि जिसमें आत्मा के सर्वोच्च लक्ष्य मोक्ष तक पहुँचाने की प्रक्रिया बताई गई हो, उसे मनोरंजन या हँसी-मजाक का माध्यम बनाना कदापि उचित नहीं कहा जा सकता। हम सब जानते हैं कि भारतीय संस्कृति अध्यात्म की संस्कृति है, जिसके केन्द्र में आत्मा का हित निहित है। बिना आत्मा को केन्द्र में लिए हुए जितनी भी क्रियाएँ है, वे बाह्य ही मानी जायेंगी। हमारी आध्यात्मिक व्यवस्था शरीर और आत्मा के संयोग पर आश्रित है। ___पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सवों में साधुओं की उपस्थिति अनिवार्य होनी चाहिए। क्योंकि सत्संगति के बिना कोई भी पारमार्थिक कार्य पूर्ण नहीं होता, फिर यहाँ तो सूर्यमंत्र देकर मूर्ति को प्रतिष्ठित करना होता है। सत्संगति के पक्षधरों का कथन है कि अज्ञानी और स्नेहीजनों की संगति नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे निम्नगा नदी की तरह होते हैं, जो ऊपर की ओर नहीं ले जाते, बल्कि नीचे की ओर ही ले जाते हैं। जबकि सत्संगति का लक्ष्य ऊपर की ओर जाना होता है। सत्संगति मन को, विचारों को, कार्यों को निर्मल बनाती है, विवेक को जगाती है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है- "बिनु सत्संग विवेक न होई।" दुर्जनों की संगति से विसंगति जन्म लेती है, दुर्गति मिलती है। उनसे यह उम्मीद ही व्यर्थ है कि वे आपका भला करेंगे। एक बार एक चूहा बिल्ली से आतंकित होकर भाग रहा था, तो एक व्यक्ति ने उसे अपने थैले में छिपा लिया। कुछ देर शांति रही, ज्यों ही चूहे को लगा कि खतरा टल गया है, तो वह थैले को काटकर 2 दिसम्बर 2007 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524323
Book TitleJinabhashita 2007 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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