SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 9
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वामी जी दिव्यध्वनि को साक्षर, भाषारूप स्वीकार करते । दिव्यध्वनि को अक्षरात्मक ही माना है। कहा भी हैहैं। अतः दिव्यध्वनि भाषात्मक होने के साथ-साथ किन्हीं | 'साक्षर एव च वर्ण समूहान्नैव विनार्थ गतिर्जगति आचार्यों के अभिप्राय से अनक्षरात्मक और किन्हीं के | स्यात्॥१० अर्थात् दिव्यध्वनि अक्षरसहित ही है, यहाँ अभिप्राय से अक्षरात्मक सिद्ध होती है। इस प्रकार होते | प्रयुक्त 'एव' शब्द 'ही' अर्थ का वाचक है। अतः एवकार हुए भी हमें आचार्यों के अभिप्राय में अन्तर या भेद भिन्नता | के साथ साक्षर कहने के अभिप्राय से स्पष्ट होता है कि नहीं मानना चाहिये, अपितु मुख्य, गौण विवक्षा से कथन | दिव्यध्वनि को मुख्यरूप से अक्षरात्मक स्वीकारा है। इस किया है, ऐसा स्वीकारना चाहिये। इसका कारण यह है बात को 'ही' अर्थ के साथ कहने का कारण स्वयं उसी कि आचार्य श्री वीरसेन जी ने कहा है कि- 'अणवगय- | कारिका में आगे बताते हैं कि अक्षरों के समूह के बिना तित्थयरवयण विणिग्गिय-अक्खराक्खरप्पयबहु- | लोक में अर्थ का बोध नहीं होता है। अर्थात् जनसाधारण लिंगालिंगियबीज- पदाणं'६ अर्थात् तीर्थंकर के वचन | अक्षरज्ञान के बिना कुछ भी समझने में सक्षम नहीं होता अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक होते हैं। यहाँ वचनों को | है। अन्यत्र भी इसी बात को कहा है कि- 'कितने ही उभयरूप स्वीकार करके उन्होंने विसंवाद समाप्त कर दिया | लोग कहते हैं कि सर्वज्ञ के शब्द अनक्षरात्मक होते हैं, है। अत: इन आगम प्रमाणों से दिव्यध्वनि भाषात्मक होने | उनके शब्द वर्णरहित होते हैं, नष्टवर्णात्मक ही ध्वनि होती के साथ-साथ कथंचित् अक्षरात्मक और कथंचित् | है। किन्तु उनका इस प्रकार कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अनक्षरात्मक है, यह सिद्ध हुआ। अनक्षरात्मक शब्दों से अर्थ की प्रतीति का अभाव है।११ जब यह सिद्ध हो गया कि दिव्यध्वनि साक्षर और विसंगति २- यह दिव्यध्वनि अर्धमागधी भाषा में अनक्षर दोनों रूप है, तब एकान्तरूप से अनक्षर ही मानने- | होती है, यह अर्धमागधी भाषा क्या है? तो इसका उत्तर बाले विद्वानों के उस सम्बन्ध में दिये गये अनेक तर्क अपने | कुछ लोग यह देते हैं कि 'भगवान का समवशरण सबसे आप नि:सार सिद्ध हो जाते हैं। जैसा कि वे विद्वान् कहते | पहले विपुलाचल पर्वत (बिहार) पर रचा गया। उस समय हैं कि 'इस ध्वनि में कंठ, ताल, ओष्ठ आदि का उपयोग बिहार को मगध बोला जाता था। समवसरण में जो मनष्य नहीं होता है, क्योंकि अक्षरों के उच्चारण में कंठ, तालु | श्रोता उपस्थित थे, उनमें आधी संख्या में मगधदेश के श्रोता आदि का उपयोग करना पड़ता है, जहाँ अक्षरोच्चारण नहीं | थे। और आधी संख्या मगध के अलावा अन्य देश के है, वहाँ कंठ, तालु आदि का उपयोग भी नहीं होता है।" | श्रोताओं की थी। अतः देव भगवान् की वाणी को आधी यह कथन और युक्ति दोनों ही गलत हैं। अक्षरों के उच्चारण मगधभाषारूप में तथा आधी अन्य सर्वभाषा के रूप में में कंठ, तालु आदि का प्रयोग करना सामान्य छद्मस्थ | परिणमाते थे, इसलिये उसका नाम अर्धमागधी पड़ा। यह मनुष्य की अपेक्षा आवश्यक है। छद्मस्थ मनुष्य की तुलना | महावीर के समय दिव्यध्वनि का रूप थी।१२ सर्वज्ञ-देव से नहीं की जा सकती है। तीर्थंकर सर्वज्ञ की | इस बात पर विचार करते हैं कि क्या दिव्यध्वनि ध्वनि कण्ठ, तालु आदि के स्पर्श के बिना ही निकलती का स्वरूप अलग-अलग तीर्थंकरों के समय अलग-अलग है, यह उनकी वाणी का अतिशय है। कहा भी है- होता है। यदि ऐसा मान भी लें तो फिर यह स्वीकारना 'जिनभाषाऽधरस्पन्दमन्तरेण विजूंभिता। पड़ेगा कि 'सार्वार्धमागधीया भाषा' यह जो पद देवकृत तिर्यग्देवमनुष्याणां दृष्टिमोहमनीनशत्॥ चौदह अतिशयों को बताते हुए नन्दीश्वर भक्ति में श्री अर्थात् ओष्ठकम्पन के बिना उत्पन्न हुई जिनेन्द्र की | पूज्यपाद देव ने दिया है, वह मात्र महावीर भगवान् की भाषा ने तिर्यञ्च, देव तथा मनुष्यों की दृष्टिसम्बन्धी मोह | दिव्यध्वनि को दष्टि में रख कर दिया है। पर ऐसा मानना दर किया था। अन्यत्र भी कहा है- 'कंण्ठोष्ठादि-वचोनिमित्त- कदापि उचित नहीं होगा. क्योंकि नन्दीश्वरभक्ति में भगवान रहितं नो वातरोधोद्गतम्।' अर्थात् कंठ, ओठ आदि निमित्त- | के अतिशयों का वर्णन सर्व तीर्थंकरों के लिये समान रूप रहित भगवान् के वचन होते हैं। अत: कंठ ओष्ठ आदि से दिया है। यदि ऐसा मान भी लें तो अन्य तीर्थंकरों के का स्पन्दन नहीं है, ऐसा कहकर दिव्यध्वनि को अनक्षरात्मक | लिये यह अतिशय दसरा होगा. उसमें फिर सार्वार्धकन्नडी ही मानने का आग्रह आगम-विरुद्ध है। दिव्यध्वनि में | या सार्वार्धमराठी ये पद आयेंगे। क्या यह बात आगम को उभयरूपता सिद्ध होने पर भी आचार्यों ने मुख्यता से | समझनेवाले के गले उतरेगी? नहीं। ऐसी स्थिति में हमेशा -दिसम्बर 2007 जिनभाषित 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524323
Book TitleJinabhashita 2007 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy