Book Title: Jinabhashita 2004 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभाषित पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर, खजुराहो माघ-फाल्गुन, वि.सं. 2060 For Private Personal Use Only वीर निर्वाण सं. 2530 फरवरी 2004 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जी का अभिषेक पाठ उत्तमसागर जी तर्ज - सुरपति ले अपने शीश ..... श्री जी का अभिषेक, करें हम नेक, शुद्ध जल द्वारा मैना सुन्दरी ने गंधोदक के द्वारा धुल जाये पाप हमारा .......... ॥टेक॥ किया क्षण में कोढ़ निवारा। श्री जी का .. श्री जी अनंत गुण वाले हैं, परम शुद्ध तन वाले हैं गंगा की धारा पर्वत से, गिरती है श्री जी के शिर पै इनके चरणों में वंदन कर शत बारा इसीलिये तो जग में जन-जन द्वारा फिर करें शुद्ध जल धारा। श्री जी का पूजित है गंगा धारा। श्री जी का ....... सुर इन्द्र लोक भी स्वर्गों में, अभिषेक करें नित भवनों में सुर गणधर जिन्हें न छू पाये, हम आज इन्हें हैं छू पाते हैं पूज्य अकृत्रिम बिम्ब सकल सुर द्वारा स्वर्गों में भी सुखकारा। श्री जी का ..... यह धन्य घड़ी मिल जाये बारंबारा त्रय अष्टाह्नीक के पर्वो में, श्री नंदीश्वर के भवनों में यह भाव भाव कर धारा । श्री जी का ... सुरपति भी जाते लेकर सब परिवारा सुख शांति अगर तुम चाहो तो, झट धोती पहन कर आओ तो अभिषेक करें हरबारा। श्री जी का कर एक बार तो प्रभू की शान्ति धारा श्री जी पर जल जो ढारत है, वह गंधोदक सुख कारक है | बने जीवन उत्तम सारा। श्री जी का ............. आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज पर विशेष मोहर जिनेन्द्रपंचकल्या प्रतिक्षा एवं यमजस्थ महोत्सव याfarana कवलजार कल्याणक-24अरवरी 2004 परम पूज्य १०८ दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ बिलासपुर नगर में विराजमान हैं। उनके सानिध्य में सम्पन्न होने वाले श्रीमज्जिनेन्द्र पंच-कल्याणक प्रतिष्ठा, विश्व शांति महायज्ञ एवं त्रय गजरथ महोत्सव के अवसर पर २४ जनवरी २००४ को ज्ञानकल्याणक के दिन आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज पर विशेष आवरण एवं विशेष मोहर जारी किया गया। विशेष आवरण एवं मोहर श्रीमज्जिनेन्द्र पंच-कल्याणक प्रतिष्ठा एवं त्रयगजरथ महोत्सव समिति द्वारा भारतीय डाक विभाग के सहयोग से जारी हुआ। विशेष आवरण में भगवान श्री १००८ ऋषभदेव जी एवं आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का चित्र मुद्रित है। साथ ही साथ सिंघई परिवार बिलासपुर द्वारा क्रांति नगर में नवनिर्मित जैन मंदिर को भी दर्शाया गया है। विशेष मोहर में आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज को आशीर्वाद देते हुए दिखाया गया है। इस विशेष आवरण एवं मुहर की अभिकल्पना एवं विरुपण अतुल जैन, महासचिव, छत्तीसगढ़ फिलेटालिक एसोसिएशन दयालबंद बिलासपुर एवं डॉ. कमलेश जैन प्रोफेसर, सी.एम. डी. कालेज बिलासपुर द्वारा की गई है। यह विशेष आवरण एवं मोहर पंच-कल्याणक प्रतिष्ठा एवं त्रयगजरथ महोत्सव के स्थल व्यापार विहार त्रिवेणी भवन के पास २४ जनवरी ०४ को सुबह जारी किया गया। इसके पूर्व कुण्डलपुर (म.प्र.) में दि. २२.२.२००१ को तथा सद्लगा (कर्नाटक) में दि. ८.२.२००३ को आचार्य | विद्यासागर जी महाराज पर विशेष आवरण एवं विशेष मोहर जारी किया गया है। अतुल जैन जनरल सेक्रेटरी छत्तीसगढ़ फिलैटोलिक एसोसिएशन, दयालबन्द, बिलासपुर (छ.ग.)- ४९५ ००१ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि. नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC डाक पंजीयन क्र.-म.प्र./भोपाल/588/2003 फरवरी 2004 লিলারি वर्ष 3, अङ्क सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन अन्तस्तत्त्व कार्यालय ए/2, मानसरोवर, शाहपुरा आपके पत्र धन्यवाद भोपाल-462 039 (म.प्र.) सम्पादकीय फोन नं. 0755-2424666 : भट्टारक-पदस्थापना-विधि आगमोक्त नहीं प्रवचनांश : मुनिश्री सुधासागर जी सहयोगी सम्पादक पं. मूलचन्द्र लुहाड़िया, . लेख (मदनगंज किशनगढ़) • नदी की सीख : मुनिश्री चन्द्रसागर जी पं. रतनलाल बैनाड़ा, आगरा जैन साधुओं की नग्नता डॉ. शीतलचन्द्र जैन, जयपुर डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत निंदनीय नहीं 'वंदनीय' है : ऐलक नम्रसागर जी प्रो. वृषभ प्रसाद जैन, लखनऊ • आदर्श जीवन, आदर्श मृत्यु . : ब्र. अन्नू जैन डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती', बुरहानपुर अनुपम साधक मुनि स्व. श्री प्रवचनसागर जी : डॉ. सुमन जैन शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कँवरीलाल पाटनी जिनागम सिंधु : (मे. आर.के.मार्बल्स लि.) . | आ.श्री विद्यासागर जी : डॉ. नीलम जैन किशनगढ़ (राज.) अभूतपूर्व अनावश्यक पाप : ब्र. शांतिकुमार जैन श्री गणेश कुमार राणा, जयपुर आत्मा और शरीर की .... : डॉ. प्रेमचंद जैन छत्तीसगढ़ में प्राचीन जैन प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ प्रतिमाएँ : डॉ. रामगोपाल शर्मा 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, जिज्ञासा-समाधान : पं. रतनलाल बैनाड़ा आगरा-282002 (उ.प्र.) || संस्मरण : निर्भयता :: मुनिश्री क्षमासागर जी फोन : 0562-2151428, 2152278| . बोधकथा : डॉ. आराधना जैन • कुल्हाड़ी की तीर्थयात्रा सदस्यता शुल्क शिरोमणि संरक्षक 5,00,000 रु. 1. कविता परम संरक्षक 51,000 रु. • श्री जी का अभिषेक पाठ : मुनिश्री उत्तमसागर जी आव.पृ.2 संरक्षक 5,000 रु. आजीवन 500 रु. स्वाध्याय करो...स्वाध्याय करो...: लालचंद्र जैन 'राकेश' आव.प्र. 4 वार्षिक 100 रु. || समाचार 27 -32 एक प्रति 10रु. आवरण पृष्ठ 3 सदस्यता शुल्क प्रकाशक को भेजें। - लेखक के विचारों से सम्पादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है। जिनभाषित से सम्बन्धित समस्त विवादों के लिए न्याय क्षेत्र भोपाल ही मान्य होगा। www.jainelibrary:org Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपके पत्र, धन्यवाद : सुझाव शिरोधार्य _ 'जिनभाषित' का दिसम्बर २००३ अंक मिला। पत्रिका । 'जिनभाषित' के दिसम्बर-जनवरी २००३-४ के अंक का इतनी अच्छी होती है कि हाथ आते ही शुरु से अंत तक पढ़े बिना | आद्योपान्त पठन किया। बैनाड़ा जी के 'शंका-समाधान' आगम मन ही नहीं मानता है। आपने अपनी संपादकीय में यह बात | उद्धरण सहित प्रशंसनीय प्रस्तुतिकरण है। श्रीमान मूलचंद लुहाड़िया एकदम सही लिखी है कि 'न्याय-दर्शन ग्रन्थों के प्रकाशन की | का 'सम्मेद शिखर सिद्ध क्षेत्र' के अन्तर्गत लेख प्रासंगिक है। साथ समस्या' है। अच्छे शोध कार्य को आज कोई प्रकाशक प्रकाशित ही इस ओर अन्य महानुभावों को भी प्रयास करना चाहिए। चौपड़ा ही नहीं करना चाहता है। सभी लोगों को व्यावसायिक साहित्य कुंड का निर्माण आचार्य आर्यनन्दी महाराज की प्रेरणा का सुफल है। चाहिए जिससे उनका व्यवसाय बढ़ सके। काफी शोध कार्य | जनवरी अंक में डॉ. स्नेहरानी जैन का लेख शोधपूर्ण है। इसलिए नहीं हो पा रहे हैं कि उन्हें कोई प्रकाशक ही नहीं सुमतचंद दिवाकर मिलता है, यदि मिलता भी है तो हजारों-हजारों रुपए की मांग पुष्पराज कॉलोनी गली नं. २, सतना, (म.प्र.) करता है, रुपए देने के बाद भी लेखक को ५-७ प्रतियाँ थमा देता मुनिश्री प्रवचनसागर जी की समाधि का समाचार यद्यपि है। समाज ऊलजलूल बातों में करोड़ों रुपए खर्च कर देता है यदि पहले ही प्राप्त हो गया था, लेकिन जिनभाषित' में पढ़कर फिर इन्हीं पैसों का उपयोग सही ग्रंथों को छापने में हो तो यह कार्य से मुखमंडल अश्रुपूरित हो गया। मुनिश्री के अंतिम अवस्था में बहुत सार्थक होगा। कहे गये वचन 'यह शरीर तो धोखेबाज है, धोखा दे ही गया' आचार्य श्री विद्यासागर की वाणी 'अतिक्रमण और हमेशा शरीर की असारता का बोध कराते रहेंगे। प्रतिक्रमण' पढ़ा जिसने बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया कुछ अंकों में मुनिश्री क्षमासागर जी की कविताएँ पढ़कर है। यह सही है कि हम सभी यदि अपने-अपने में लीन हो जाएँ लगभग हर अंक में बड़ी आतुरता से कविराज (मुनिराज) की तो संघर्ष कभी नहीं होगा। हम दूसरों पर ध्यान न लगाएँ अपने कविताओं की प्रतीक्षा करता रहा। आपसे विनम्र सुझाव है कि हर ऊपर ध्यान दें, पहले अपनी पहचान कर लें। आज हम दूसरों को अंक में मुनिश्री की एक कविता अवश्य दें। कवर पृष्ठ २ या ३ पर पहचानने में लगे हैं तथा खुद को पहचान नहीं पा रहे हैं। हमारी देतो अतिरना होगा। दृष्टि, हमारी सोच, हमारे कार्यों तथा हमारी बातों में कहीं भी | । पत्रिका के माध्यम से जिनशासन की महती प्रभावना सामंजस्य नज़र नहीं आता है। हम जैसे हैं वैसे नहीं दिखते हैं, | होती रहे, इसी भावना के साथ। को हमें जैसा करना चाहिए वैसा भी नहीं कर पा रहे हैं। हमें अपने जितेन्द्र कुमार जैन आचरण में ऐसी बातों को अंगीकृत करना होगा जिससे हम कोषाध्यक्ष- श्री पार्श्वनाथ दि. जैन अपनी पहचान बना सकें तथा अपने आपको जान सकें। मंदिर, नरसिंहगढ़, दमोह (म.प्र.) मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री सुश्री उमाभारती ने अपने उद्बोधन मैंने 'जिनभाषित' पत्रिका के सितम्बर, अक्टूबर, नवम्बर में 'संसार की समस्याओं का निदान अहिंसा, संयम और तप' | और दिसम्बर २००३ के अकों को जानकारी की दृष्टि से पढ़ा और बतलाया है। इसके माध्यम से ही सुख व शांति को पा सकते हैं। | स्वाध्याय मनोगत भावों से भी अध्ययन किया। पत्रिका का शीर्षक डॉ. फूलचन्द जैन प्रेमी ने आचार्य विद्यासागर जी की पुस्तक - तथा विचारों का आध्यात्मिक तथ्य जाना गया। इसमें कुछ लेख तो अधिक प्रशंसनीय हैं। जैसे आचार्य विद्यासागर-कर्मों की गति, 'मूकमाटी' के बारे में एक अच्छी समीक्षा प्रस्तुत की है। मूकमाटी तो एक अनूठा महाकाव्य है। एक-एक लाइन पढ़ते जाओ व सदलगा की भूमि पर, श्रावक का प्रथम कर्त्तव्य-डॉ. श्रेयांस गहराई में उतरते जाओ, हर पंक्ति में चिन्तन, अध्यात्म व दर्शन कुमार जैन, आधुनिक विज्ञान ध्यान-डॉ. पारसमल अग्रवाल, सम्पादकीय-सदलगा सदा ही अलग, योग से अयोग की ओरझलकता है। श्रीमती स्नेहलता जैन का लेख-'विधिपूर्वक सत्कर्म के प्रेरक णायकुमार' बहुत अच्छा है। पत्रिका हमेशा की तरह डॉ. फूलचंद प्रेमी, अनर्गल प्रलापं वर्जयेत्- मूलचंद लुहाड़िया, पठनीय, ज्ञानवर्धक व बहुत सारी जानकारियों से युक्त है। जिज्ञासा-समाधान- पं. शिरोमणि रतनलाल बैनाड़ा, जिज्ञासा'जिनभाषित' के सभी अंक लोगों के लिए प्रेरणादायी होते हैं। । समाधान वास्तव में शंका-समाधान का पिटारा है। नूतन वर्ष मंगलमय हो। 'जिनभाषित' पत्रिका के लिए मेरे अपने सुझाव ये हैं कि भवदीय |बालकों, किशोरों के लिए नैतिक शिक्षण सामग्री भी होनी चाहिए। राजेन्द्र पटोरिया डालचंद जैन सम्पादक, खनन भारती डी- २५९/बी. गली नं. १०, लक्ष्मी नगर, दिल्ली - ४२ 2 फरवरी 2004 जिनभाषित - Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय भट्टारक- पदस्थापना - विधि आगमोक्त नहीं जैनगजट के शब्दसिद्ध सम्पादक प्रचार्य नरेन्द्रप्रकाश जी का नवप्रकाशित ग्रन्थ 'समय के शिलालेख' उत्कृष्ट शोधपूर्ण लेखों का संग्रह है। उसका अवलोकन करते समय मेरी दृष्टि 'नग्न मुनि एवं भट्टारक' नामक लेख पर गयी। उसमें कुछ वर्ष पूर्व एक दिगम्बर मुनि की किसी पुराने भट्टारकपीठ पर अभिषिक्त किये जाने की घटना का वर्णन है और प्राचार्य जी ने उसे जिनागमविरुद्ध कृत्य बतलाया है। उन्होंने लिखा है कि "किसी नग्न मुनि का भट्टारक बनना ऐसे ही है, जैसे किसी गृहत्यागी विरक्त (अनगार) का फिर से संसार में प्रवेश करना। भट्टारक के इर्दगिर्द परिग्रह का ताना-बाना रहता है, किन्तु नग्न मुनि तो परिग्रह की भावना तक से असम्पृक्त होता है- यः सर्वसङ्गपरित्यक्तः स नग्नः परिकीर्तितः । " प्राचार्य जी का यह लेख ३० अप्रैल १९९८ के 'जैनगजट' में छप चुका है । महत्त्वपूर्ण शोधपत्रिका 'शोधादर्श' के सुविज्ञ सम्पादक श्री अजितप्रसाद जी जैन ने भी जुलाई २००२ के ४७ वें अंक में इस प्रकार की दूसरी घटना का उल्लेख किया है। वे लिखते हैं, " श्री दिगम्बर जैन पद्मावतीधाम, बेड़िया (गुजरात) में मुनिराज जयसागर जी को परमभट्टारक पद पर विधि-विधानपूर्वक १५ मई ( श्रुतपंचमी ) " को स्थापित किया गया। मुनि जयसागर जी ने अपने सम्बोधन में बताया कि "आज मेरे इस पद पर उपस्थापन से मैं बहुत प्रसन्न हूँ।" ( उनकी दृष्टि में कदाचित् भट्टारकपद मुनिपद से ऊँचा है तथा इस पद पर प्रतिष्ठित करके गुरु महाराज ने उनकी पदोन्नति की है)। 'शोधादर्श' के मान्य सम्पादक ने मुनि श्री जयसागर जी के वक्तव्य पर अत्यन्त उद्बोधक टिप्पणी करते हुए लिखा है, "काश बालाचार्य जी थोड़ा यह भी आत्मालोचन करते कि जिस कुन्दकुन्द आम्नाय के वे संवाहक हैं, क्या उन महर्षि ने श्रमणाचार का ऐसा ही निरूपण किया था, जैसा कि वे पालन करते दृष्टिगोचर हो रहे हैं?" (पृष्ठ ६५) । किन्तु हमारे कुछ पूज्य मुनियों और आर्यिकाओं ने मुनि के भट्टारक बनने को आगमसम्मत सिद्ध करने की कोशिश है। इतना ही नहीं, भट्टारकपद को मुनिपद से भी उच्च बतलाया है । अभी-अभी मुझे आर्यिका श्री शीतलमति जी द्वारा लिखित ' विविध दीक्षा संस्कार विधि' नामक लघु पुस्तिका देखने को मिली है। उसके प्राक्कथन में आर्यिका जी ने लिखा है कि इन दीक्षाविधियों को दर्शानेवाला प्राचीन हस्तलिखित शास्त्र आद्याचार्य श्री आदिसागर जी (अंकलीकर) की परम्परा के तृतीय पट्टाधीश आचार्य श्री सन्मतिसागर जी को दि. जैन अतिशय क्षेत्र बेड़िया (गुजरात) के शास्त्र भण्डार से प्राप्त हुआ था । वे आगे लिखती " इसकी विशेषता यह है कि इसमें भट्टारक- पदस्थापना के संस्कार भी लिखे हुए हैं। पूर्व में यह पद काफी चर्चा का विषय रहा है। इसलिए इस शास्त्र को पाकर आत्मा को बहुत सम्बल मिला। फलस्वरूप भट्टारकनिर्ग्रन्थपरम्परा को पुनः स्थापित करने के अभिप्राय से मुनि श्री जयसागर जी में इस भट्टारक पद के संस्कार ( आरोपित ) किये गये।" (पृष्ठ १०) इसी पुस्तिका के प्रकथन - लेखक डॉ. महेन्द्रकुमार जी जैन 'मनुज' ने लिखा है 44 'भारत पर मुगलशासनकाल में जैन आस्था के केन्द्र जिन मंदिरों- मूर्तियों को भग्न किया गया तथा जैन वाड्मय से सम्बद्ध ग्रन्थों को नष्ट किया गया, लूटा गया, जलाया गया, ऐसी भयावह परिस्थितियों में हमारे भट्टारकों ने ही लगभग एक सहस्राब्दी तक जैन वाङ्मय की येन-केन-प्रकारेण रक्षा की। इस हेतु हम उनके इस उपकार के ऋणी हैं। पूज्य भट्टारकों द्वारा संस्थापित, संरक्षित शास्त्र भण्डार अब भी हैं, किन्तु जहाँ से भट्टारकों की गद्दियाँ समाप्त हो गई हैं, वहाँ के शास्त्रभण्डारों की स्थिति दयनीय है । शास्त्र, विशेषकर ताडपत्रीय, नष्ट हो रहे हैं। उनकी सूचियाँ तक नहीं बन सकी हैं और उन्हें अनुपयोगी की श्रेणी में उन पुस्तकालयों में स्थान मिला हुआ है। यदि उत्तर भारत के पूर्व भट्टारक-केन्द्रों पर पुनः भट्टारकीय गद्दियाँ स्थापित हों, तो जिनवाणी संरक्षण के लिए महनीय उपक्रम होगा।' (पृष्ठ E ) 'मनुज' जी के इस वक्तव्य से उनकी मुनिविरोधी विचारधारा का पता चलता है । वे चाहते हैं कि जिन दिगम्बर मुनियों ने मोक्ष- साधना हेतु लौकिक बन्धनों से छुटकारा पाने के लिए गृहत्याग कर दिया है, उन्हें किसी मंदिर या तीर्थक्षेत्र पर नियतवास के बन्धन में बाँधकर एक नये प्रकार का गृहस्थ बनाकर, उनसे वहाँ की चल-अचल सम्पत्ति और शास्त्र भण्डार फरवरी 2004 जिनभाषित 3 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के संरक्षण का कार्य कराया जाय। दूसरे शब्दों में, उन्हें मुनि से मुनीम या चौकीदार बना दिया जाय। किन्तु इस कार्य के लिए एक मुनि का इतना अध:पतन कराने की क्या आवश्यकता है? पिच्छी-कमण्डलु और जिनमुद्रा का इस कदर चीरहरण करने की क्या जरूरत है? यह कार्य तो एक प्रबन्धकुशल, समर्पित, गृहस्थ या सप्तम-प्रतिमाधारी पिच्छी-कमण्डलुरहित ब्रह्मचारी भी आसानी से कर सकता है। 'मनुज' जी के उद्गार स्पष्ट कर देते हैं कि मुनि जयसागर जी को भट्टारकपीठ पर अभिषिक्त कर भट्टारक-परम्परा की पुनः स्थापना क्यों की गयी है? आर्यिका शीतलमति जी ने मुनि जयसागर जी का भट्टारक-पट्टाभिषेक शास्त्रसम्मत माना है, क्योंकि कुछ पन्नों में, जिन्हें उन्होंने शास्त्र कहा है, उन्हें भट्टारक-पदस्थापना विधि लिखी हुई मिली है। किन्तु उन्होंने यह नहीं बतलाया कि इस शास्त्र का कर्ता कौन है और यह कब लिखा गया है? उक्त लघु पुस्तिका में उस ९ पृष्ठीय (पृष्ठ ६९ से ७७) हस्तलिखित शास्त्र की छाया-प्रतिलिपि निबद्ध की गयी है, किन्तु उसमें न तो शास्त्रकर्ता का नाम है, न ही लेखन काल का उल्लेख । इसलिए वह सन्देह को जन्म देती है। यदि इस तथ्य की उपेक्षा कर दी जाय, तो भी उक्त हस्तलिखित शास्त्र में दी गई भट्टारक-पदस्थापना-विधि आगमोक्त सिद्ध नहीं होती। इसका निर्णय करने के लिए उक्त विधि के कुछ प्रासंगिक अंशों का मूलपाठ प्रस्तुत किया जा रहा है १."लध्वाचार्यपदं सकलसङ्घाभिरुचितम्। ऐदंयुगीनश्रुतज्ञं जिनधर्मोद्धरणधीरं रत्नत्रयभूषितं भट्टारकपदयोग्यं मुनिं दृष्ट्वा चतुर्विधसङ्घः सह आलोच्य लग्नं गृहीत्वा सकलोपासकमुख्यः सङ्घाधिपः सर्वत्रामन्त्रणपत्रीं प्रेषयेत्।" ___ अर्थ- लघु आचार्य का पद समस्त संघ को प्रिय है। जो मुनि इस युग का श्रुतज्ञ, जिनधर्म का उद्धार करने में समर्थ, रत्नत्रय से भूषित एवं भट्टारकपद के योग्य हो, उस मुनि को खोजकर चतुर्विध संघ के साथ विचार-विमर्श करके, शुभमुहूर्त में सभी श्रावकों का मुखिया संघपति सब जगह आमन्त्रणपत्र भेजे। २. "अथाह्वानादिविधिः । ऊँ हूँ णमो आइरियाणं धर्माचार्याधिपते परमभट्टारक-परमेष्ठिन्नत्र एहि एहि संवौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ... अत्र सन्निहितो भव-भव वषट्। इति आह्वानादिकं कृत्वा ततश्च ऊँ हूँ णमो आइरियाणं धर्माचार्याधिपतये सकलश्रुताम्बुधिपारप्राप्ताय परमभट्टारकाय नमः।" अर्थ- अब आह्वानादिविधि का वर्णन किया जाता है। ऊँ हूँ णमो आइरियाणं, हे धमाचायार्यधिपति! परमभट्टारकपरमेष्ठी ! यहाँ आइये, यहाँ आइये। .... यहाँ विराजिए, यहाँ विराजिए। यहाँ पास में स्थित होइये, पास में स्थित होइये। इस प्रकार आह्वानादि करके (पण्डिताचार्य) ॐ हूँ णमो आइरियाणं, धर्माचार्याधपति, समस्त श्रुतसागर के पार को प्राप्त परमभट्टारक को नमस्कार' (ऐसा कहे)। ३. "ततः शान्ति-भक्तिं कृत्वा गुर्वावलिं पठित्वा श्रीमूलसङ्के नन्दिसङ्के सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे श्रीकुन्दकुन्दान्वये अमुकस्य पट्टे अमुकनामा त्वं भट्टारकः" इति कथयित्वा समाधिभक्तिं पठेत् । ततश्च गुरुभक्तिं दत्त्वा सर्वे यतिनः प्रणामं कुर्युः । ततश्च सर्वे उपासका अष्टतयीमिष्टिं कृत्वा गुरुभक्तिं दत्त्वा प्रणमन्ति। ततः सोऽपि भट्टारको दात्रे सर्वेम्य: उपासकेम्यश्च आशिषं दद्यात्। ततः सर्वे उपासकाः निज-निजगृहात् महामहोत्सवेन वर्धापनमानीय तं वर्धापयन्ति । दाता सर्वसङ्घ भोजयित्वा वस्त्रादिना सङ्घार्चनं कुर्यात् । याचकान् दीनानाथांश्च सन्तर्पयेच्च।' अर्थ- तत्पश्चात् शान्ति और भक्ति करके, गुर्वावली पढ़कर श्रीमूलसंघ के नन्दिसंघ, सरस्वतीगछ, बलात्कारगण एवं कुन्दकुन्दान्वय में अमुक के पद पर अमुक नामवाले तुम भट्टारक हुए' यह कहकर (पण्डिताचार्य) समाधिभक्ति पढ़े। उसके बाद गुरुभक्ति करके समस्त मुनि उसे (भट्टारक को) प्रणाम करें। फिर सभी श्रावक आठ प्रकार की इष्टियाँ तथा गुरुभक्ति करके उसे प्रणाम करें। तब वह भट्टारक भी दाता (दीक्षाविधि के आयोजक) एवं समस्त श्रावकों को आशीष प्रदान करे। उसके बाद सभी श्रावक अपने-अपने घर से बड़े उत्सवपूर्वक भेंट लाकर भट्टारक का अभिनन्दन करें। दाता सर्वसंघ को भोजन कराकर वस्त्रादि से संघ की पूजा करे, याचकों और दीन-अनाथों को भी सन्तुष्ट करे। इस विधि में वर्णित निम्नलिखित तथ्यों से सिद्ध होता है कि यह आगमोक्त नहीं है १. विधि में भट्टारक को लघु आचार्य, धर्माचार्याधिपति और भट्टारक-परमेष्ठी की उपाधियों से सम्बोधित किया गया है और कहा गया है कि जो मुनि भट्टारकपद के योग्य हो, उसे ही इस पद पर प्रतिष्ठित किया जाय। इससे सूचित किया गया 4 फरवरी 2004 जिनभाषित Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है कि भट्टारकपद साधारण मुनिपद से अधिक योग्यतावाला होने से ऊँचा है, जैसे आचार्य और उपाध्याय के पद । इसीलिए यह विधान किया गया है कि भट्टारकपद पर अभिषिक्त होने के बाद समारोह में उपस्थित सभी मुनि भट्टारक परमेष्ठी को प्रणाम करें। तत्पश्चात् समस्त श्रावक भी ऐसा ही करें। फिर भट्टारक परमेष्ठी भी उन्हें आशीर्वाद प्रदान करें। किन्तु जिनागम में परमेष्ठी पाँच ही बतलाये गये हैं : अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु। इनके अतिरिक्त भट्टारक नाम के छठवें परमेष्ठी का उल्लेख आगम में कहीं भी नहीं है। इससे सिद्ध है कि उपर्युक्त भट्टारक-पदस्थापनाविधि आगमोक्त नहीं है। जब भट्टारक नामक परमेष्ठी का पद ही आगमोक्त नहीं है, तब उसकी स्थापनाविधि को आगमोक्त मानना आकाशकुसुम को सुगन्धयुक्त मानने के समान है। २. यद्यपि मूलाचार (गाथा १५५) में मुनियों के आचार्य और उपाध्याय के अतिरिक्त प्रवर्तक, स्थविर और गणधर, ये तीन भेद और बतलाये गये हैं, तथापि इन्हें आचार्य और उपाध्याय के समान स्वतन्त्ररूप से परमेष्ठी नहीं कहा गया है, अपितु ये साधु परमेष्ठी में ही अन्तर्भूत हैं। तथा 'आचार्य' आदि उपाधियाँ मनि-संघोपकारक कर्त्तव्यभेद से प्रवर्तित हई हैं। शिष्यों को आचार ग्रहण करानेवाले मुनि 'आचार्य', उन्हें धर्म का उपदेश देनेवाले मुनि 'उपाध्याय,' चर्या आदि के द्वारा संघ का प्रवर्तन करने वाले मुनि 'प्रवर्तक,' संघ व्यवस्थापक मुनि 'स्थविर' तथा गण (मुनिसंघ) के परिरक्षक साधु 'गणधर' उपाधि से अभिहित होते हैं, (मूलाचार गाथा १५६) । इन पाँच कर्तव्यों के अतिरिक्त अन्य कोई ऐसा मुनिसंघोपकारक कर्त्तव्य आगम में वर्णित नहीं है, जिसका सम्पादन करनेवाले मनि को 'भद्रारक' उपाधि दी जाती। इसीलिए मलाचार में उपर्युक्त पाँच को ही संघ या गुरुकुल का आधार बतलाया है, (मूलाचार, १५५)। हाँ, इन्द्रनन्दी ने 'नीतिसार' में सर्वशास्त्रकलाभिज्ञ, नानागच्छाभिवर्धक, महातपस्वी एवं प्रभावशाली मुनि को अवश्य 'भट्टारक' उपाधि से अभिहित किया है, किन्तु उसका सम्बन्ध व्यक्तिगत विद्वत्ता आदि गुणों से है, जो आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणधर और सामान्य साधु, इनमें से किसी में भी हो सकते हैं। उन सबको 'भट्टारक' उपाधि से विभूषित किया जा सकता है। इसके लिए उनका किसी स्थानविशेष के पट्ट पर अभिषेक करने की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि इस उपाधि का न कोई पट्ट (गद्दी) होता है, न उसका कोई उत्तराधिकारी। यह एक साथ अनेकों को दी जा सकती है। वस्तुतः यह विद्वत्ता आदि गुणों की सूचक लौकिक उपाधि है, जो जैनेतर सम्प्रदायों में भी प्रचलित है, जैसे 'भट्टार हरिश्चन्द्रस्य गद्यबन्धो नृपायते' (बाणभट्टकृत हर्षचरित १/२)। पाँचवीं शताब्दी ई. के गुप्तवंशी नरेश कुमार गुप्त के सिक्कों पर उनकी 'परमभट्टारक' उपाधि अंकित है। "परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर-श्री पृथ्वीवल्लभश्रीमदमोघवर्षश्रीवल्लभनेरन्द्रदेवः" (जै.शि.सं./मा.चं./भा.२, लेख १२७), इस शिलालेखीय वाक्य में महाराज अमोघवर्ष को 'परमभट्टारक' उपाधि से विभूषित किया गया है। धवलाकार वीरसेन स्वामी के साथ संलग्न 'भट्टारक' उपाधि भी विद्वत्तादिगुणों की सूचक है- श्री वीरसेन इत्याप्तभट्टारकपृथुप्रथः (जयधवला, भाग १ मंगलाचरण) । अतः इस उपाधि की अपेक्षा किसी को परमेष्ठी नहीं कहा जा सकता, न कहा गया है। 'परमेष्ठी' नाम से तो णमोकार मंत्र में वर्णित पाँच विभतियाँ ही प्रसिद्ध हैं। इस प्रकार 'भट्टारक' किसी संघोपकारी कर्त्तव्य को सम्पादित करने वाले मुनि की उपाधि नहीं है। यतः विद्वत्तादि-गुणसूचक 'भट्टारक' उपधि का कोई पट्ट नहीं होता और भट्टारक परमेष्ठी एवं उसका पट्ट आगमोक्त नहीं है, अत: सिद्ध है कि उपर्युक्त भट्टारक परमेष्ठी की पदस्थापनाविधि आगमसम्मत नहीं है। ३. आगम में मन्दिर-मठ-तीर्थादि का प्रबन्धन, शास्त्रभण्डार आदि का संरक्षण तथा गृहस्थों के कर्मकाण्ड का सम्पादन, ये कार्य किसी भी मुनि के कर्त्तव्य नहीं बतलाये गये हैं। अतः इनके करनेवाले मुनि को 'भट्टारक' उपाधि से भी उपहित नहीं किया गया है। इस कारण भी उक्त भट्टारक-पदस्थापना-विधि आगमोक्त नहीं है। ४. उक्त विधि में यह नियम है कि मुनि के भट्टारक पद पर अभिषिक्त होने के बाद समस्त श्रावक अपने-अपने घर से महामहोत्सवपूर्वक (गाजे-बाजे, नृत्य गानादि के साथ) विभिन्न प्रकार की भेंट (वर्धापन) लाकर पट्टाभिषिक्त भट्टारक का अभिनन्दन करें। यह भेंट किस प्रकार की होती थी, इसका बोध संवत् १८८० में जयपुर में सम्पन्न भट्टारक नरेन्द्रकीर्ति की दीक्षाविधि से होता है। दीक्षा के बाद की क्रियाओं का वर्णन करते हुए उसमें कहा गया है - "पाछै नगन ही सभा में सांघासण (सिंहासन) उपरि आय विराज्या। पाछै धर्मोपदेश दीयो। पाछै सगला (सब) पंच - फरवरी 2004 जिनभाषित 5 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलि अरज करो सो अबार (यह) समय नगन (नग्न) को नहीं तिसौं कपड़ा लीजे। पीछे बकसी जी पछेवड़ी दीनी। पाछै जैतराम जी साह जी सालू धोवती दीनी। आप पहैरी (पहनी)। पाछै आपको नांव (नाम) नरेन्द्रकीर्ति जी स्थापन हुवो।" (जयपुर के मंदिर-पाटौदी के संग्रह की एक महत्त्वपूर्ण बही से 'दि. जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी का संक्षिप्त इतिहास एवं कार्यविवरण' में उद्धृत)। ___अर्थात् नग्नवेश में दीक्षा के होने बाद पंच लोग भट्टारक से अनुरोध करते हैं कि यह समय नग्न रहने का नहीं है, इसलिए आप वस्त्र धारण करें। इसके बाद सभी लोग पछेवडी, साल, धोती आदि भेंट करते हैं। भट्टारक उन्हें पहने लेते हैं। यहाँ मैंने दो भेंटकर्ताओं का ही उल्लेख किया है। उक्त विवरण में जैनेतर सम्प्रदायों के प्रमुखों द्वारा भी शाल आदि भेंट किये जाने का वर्णन है। इससे पता चल जाता है कि पूर्वोक्त भट्टारकपद-स्थापनाविधि में श्रावकों से वस्त्रादि भेंट द्वारा ही पट्टभिषिक्त भट्टारक परमेष्ठी का अभिनन्दन करने के लिए कहा गया है। 'दाता वस्त्रादिना सङ्गार्चनं कर्यात' इस वचन से भी इसका समर्थन होत है। भट्टारकपट्ट पर अभिषिक्त मुनि का श्रावकों से वस्त्र ग्रहण करना और उन्हें धारण कर मुनि से पुनः गृहस्थ बन जाना और फिर भी पिच्छी कमण्डलु रखकर अपने मुनि होने का आभास देना, यह सब जिनागम-विरुद्ध है। उक्त विधि में इसकी मान्यता होने से भी सिद्ध है कि वह आगमोक्त नहीं है। ५. उक्त भट्टारक पदस्थापना-विधि की रचना कब की गई, इसका कोई संकेत उसमें नहीं हैं। फिर भी उसमें नन्दिसंघ का उल्लेख किया गया है। यद्यपि इन्द्रनन्दी ने 'श्रुतावतार' में कहा है कि आचार्य अर्हद्वलि ने मूलसंघ को 'नन्दी' आदि चार संघों में विभाजित किया था, तथापि श्रवलबेलगोल के १४३३ ई. के एक शिलालेख के अनुसार भट्ट अकलंक देव (६८० ई.) के स्वर्गवास के बाद उनके संघ के मुनि नन्दी आदि संघों में विभक्त हुए थे तस्मिन् गते स्वर्गभुवं महर्षों दिवःपतीन्नर्तुमिव प्रकृष्टान्। तदन्वयोद्भूत-मुनीश्वराणां बभबुरित्थं भुवि सङ्घभेदाः॥१९॥ (जै.शि.सं. भा.१, लेख १०८) पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार लिखते हैं, "अकलंक से पहले के साहित्य में इन चार प्रकार के संघों का कोई उल्लेख भी अभी तक देखने में नहीं आया, जिससे इस कथन के सत्य होने की बहुत कुछ संभावना पायी जाती है" ('स्वामी समन्तभद्र' पृष्ठ १८०-१८१)। कुन्दकुन्दान्वय के साथ नन्दिगण का पहली बार उल्लेख १११५ ई. के शिलालेख (जै.शि.सं., भा.१, लेख ४७) में तथा नन्दिसंघ का प्रथम उल्लेख विजयनगर के १३८६ ई. के शिलालेख में हुआ है (जै.शि.सं., भा.३, लेख ५८५)। इससे सिद्ध है कि पूर्वोक्त भट्टारक-पदस्थापना-विधि १४ वीं शती ई. के पश्चात् किसी भट्टारक महोदय द्वारा रची गई है, अतः वह आगमोक्त नहीं है। इस प्रकार एक नहीं,अपितु पाँच हेतुओं से भट्टारक पदस्थापना-विधि के आगमोक्त होने का खण्डन होता है। फलस्वरूप उसे आगमोक्त मानकर किसी मुनि को भट्टारकपद पर प्रतिष्ठत करना आगमसम्मत कार्य नहीं है। तथा उस अनागमोक्त भट्टारक पदास्थापना विधि में भी पट्टाभिषिक्त मुनि के लिए श्रावकों से भेंट में प्राप्त वस्त्र धारण करने का विधान किया गया है। अतः भट्टारकपट्ट पर अभिषिक्त होने के बाद मुनि को मुनिवेश में ही पट्ट पर आसीन रहने देना उक्त भट्टारक पदस्थापना विधि के भी विरुद्ध है। इस लेख का उद्देश्य वर्तमान भट्टारकों में पूर्व भट्टारकों जैसे दोष दर्शाना नहीं है। पूर्वकालीन भट्टारक श्रावकों पर जो अत्याचार करते थे, उनका अन्त ४०० वर्ष पहले हुए भट्टारकविराधी आन्दोलन से उत्तरभारत के सभी भट्टारकपीठों के लोप के साथ ही हो गया था। वर्तमान में कुछ ही भट्टारकपीठ शेष हैं। वहाँ के भट्टारक उन बुराइयों से अछूते हैं। उनमें केवल मठमन्दिरतीर्थादि की सम्पत्ति का स्वामित्वरूप परिग्रह और गृहस्थों के समान सुखसुविधामय जीवन की प्रवृत्ति ही दृष्टिगोचर होती है। पर उनका आचरण शिष्ट है। वे तीर्थों का संरक्षण सम्यग्रूपेण कर रहे हैं। इतना ही नहीं, श्रवणबेलगोल के भट्टारक श्री चारुकीर्ति जी ने आधुनिक एवं तकनीकी शिक्षा के विविध संस्थान एवं जैनविद्या-अनुसन्धान केन्द्र खोलकर वहाँ का जो 6 फरवरी 2004 जिनभाषित - Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकास किया है और साधनहीन जैन छात्रों के उत्थान का जो पथ प्रशस्त किया है, वह स्तुत्य है। इस लेख का उद्देश्य, केवल भट्टारक दीक्षा-विधि में अपनायी जानेवाली आगमविरुद्ध, अत एव जिनशासन-अशिवकारी पद्धति की ओर, जो आज भी प्रचलित है, ध्यान आकृष्ट कर उसका विरोध करना है। भट्टारकपीठ एक दूसरे प्रकार का गृहस्थाश्रम है, क्योंकि उसमें भट्टारक को नियतवासपूर्वक गृहस्थों के ही सम्पत्ति-संरक्षणदि कार्य करने पड़ते हैं। पहले शिथिलाचारी मन्दिरमठवासी मुनि ही पिच्छी-कमण्डलु सहित वस्त्र धारण कर भट्टारकपीठ पर आसीन होते थे। सर्वप्रथम १३ वीं शती ई. में मुनि वसन्तकीर्ति जी ने वस्त्रधारण कर भट्टारकपद ग्रहण किया था। १५ वीं शती ई. के मुनि सकलकीर्ति भी २२ वर्ष तक नग्न रहे, पश्चात् वस्त्र धारण कर भट्टारक बन गये। (पं. हीरालाल जी सिद्धान्तशास्त्री, वर्धमान-चरित, प्रस्तावना, पृष्ठ ६)। कालान्तर में गृहस्थों को पहले मुनिदीक्षा देकर और बाद में वस्त्र पहनाकर तथा पिच्छी-कमण्डलु देकर भट्टारक बनाया जाने लगा। और अब तो मुनि को भट्टारकपट्ट पर अभिषिक्त करने के बाद भी नग्नवेश में ही भट्टारकपीठ पर विराजित करने की प्रथा आरंभ हो गई है। सवस्त्रवेश हो अथवा नग्नवेश, दोनों में मुनि का भट्टारकनामधारी गृहस्थपद स्वीकार करना मुनिपद एवं जिनशासन के मुँह पर कालिख पोतना है। तथा सर्वांगवस्त्र धारण करते हुए भी साधुत्व का आभास कराने वाली पिच्छी और कमण्डलु ग्रहण करना, एक आगमविरुद्ध लिंग (वेश) का जिनशासन में मिश्रण कर उसे प्रदूषित करना है। यह जिनशासन के दीर्घजीवन के लिए विषाक्त वायु के समान हानिकारक है। अत: जिनशासन को शुद्ध, विकाररहित बनाये रखने के लिए चिन्तित जिनशासनभक्तों का यह आग्रह है कि तीर्थों के सुप्रबन्ध के लिए भट्टारकपीठ कायम रहें तथा जहाँ आवश्यकता हो, वहाँ नये पीठ भी स्थापित किये जायँ, किन्तु भट्टारक बनाने के लिए किसी मुनिश्री का शीलभंग न किया जाय, उन्हें मुनिपद से गृहस्थ पद पर न उतारा जाय, उन्हें मोक्षमार्ग से खींचकर संसारमार्ग में न घसीटा जाय, उनकी वीतरागता का अपहरण न किया जाय, उन पर मन्दिरमठतीर्थादि के प्रबन्ध का स्वामित्व थोपकर उन्हें अपरिग्रह महाव्रत से वंचित न किया जाय, मन्दिरमठतीर्थादि के संरक्षण की चिन्ता में फँसाकर उन्हें आर्त्त-रौद्रध्यान की भट्टी में न झौंका जाय, उन्हें पूज्य से अपूज्य न बनाया जाय, उन की पवित्र आत्मा पर अपवित्रता की कीचड़ न लपेटी जाय और उन्हें जिनशासन के नायक से जिनशासन का खलनायक न बनाया जाय। तथा मुनि के भट्टारक बनने का समर्थन करनेवाले सन्त, श्रीमन्त और धीमन्त भी जिनशासन पर कृपादष्टि रखें, उसकी जड़ों में मट्ठा डालने का कार्य न करें। इसी प्रकार भट्टारक बनाने के लिए किसी गृहस्थ को पहले मुनिदीक्षा देकर, बाद में वस्त्र पहनाकर एवं पिच्छी-कमण्डलु देकर मुनिपद के साथ खेल न किया जाय। पहले से ही वस्त्रधारी किसी योग्य गृहस्थ को सप्तम प्रतिमा के व्रत ग्रहण कराकर पिच्छी-कमण्डलु के बिना भट्टारकपीठ पर प्रतिष्ठित किया जाय। इससे भट्टारकपद दि का प्रबन्ध भी भलीभाँति होगा तथा भट्टारकपद आगम के अनुकूल भी हो जायेगा। किन्तु इसके लिए यह आवश्यक है कि वर्तमान नग्न भट्टारक भी अपने मुनिलिंग का एवं सवस्त्र भट्टारक पिच्छ अथवा भट्टारकपद का त्याग कर मुनिपद स्वीकार करें। ___भट्टारकवेश के लिए पिच्छी-कमण्डलु और मुनिदीक्षा की आवश्यकता पहले भी नहीं थी। मुगलशासनकाल में दिगम्बर मुनियों का चर्यादि के लिए बाहर निकलना कठिन हो गया था। उस समय मठवासी मुनियों ने जैसे दिगम्बरवेश त्याग दिया था, वैसे ही पिच्छी-कमण्डलु भी त्यागे जा सकते थे और एक ब्रह्मचारी के वेश को भट्टारक का वेश बनाया जा सकता था। इसी प्रकार गृहस्थ को सवस्त्र भट्टारक बनाने के पूर्व मुनिदीक्षा दिये बिना भी काम चल सकता था। फिर भी ये कार्य अपने को मनियों का स्थानापन्न सिद्ध करने के लिए स्वेच्छा से किये गये। अत: इन कार्यों के लिए तत्कालीन परिस्थितियों को दोष देना युक्तिसंगत नहीं है। यह अपने आगम विरुद्ध कार्यों का औचित्य सिद्ध करने के लिए एक बहाना मात्र है। जिनमत को जीवित रखने के लिए उसे अशुद्ध होने से बचाना होगा और अशुद्ध होने से बचाने के लिए आगमोक्त आचार की ही प्रवृत्ति का आग्रह रखना होगा तथा अनागमोक्त आचार की प्रवृत्ति को स्वीकृति देने इनकार करना होगा। रतनचन्द्र जैन -फरवरी 2004 जिनभाषित 7 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान की पूजा निःस्वार्थ भाव से करनी चाहिए मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी महाराज | उस पर संकट आते हैं तो वह भगवान को दोषी ठहराता है, लेकिन जब अच्छे कार्य का पुरस्कार उसे मिलता है तो उसका श्रेय भगवान को या बड़ों को नहीं देता। यही स्वार्थ प्रवृत्ति है, इसे त्यागें और दृढ़ संकल्प के साथ नियम का पालन करें। सच्चा भक्त वही है जो भगवान की निःस्वार्थ भाव से सेवा करता है और कितना भी संकट आ जाये वह भगवान से कुछ नहीं मांगता है। सच्चे भक्त को भगवान से मांगने की कभी जरुरत भी नहीं होती। भगवान स्वयं अंतर्यामी हैं, वे इस भक्त का सुख - दुःख समझते हैं और संकट आने पर उसकी सहायता करते हैं । मुनि से भी कभी आशीर्वाद मत मांगो। आशीर्वाद अपने आप ही मिलता है। सच्ची श्रद्धा से गुरु को नमस्कार करना ही आशीर्वाद है । यदि कर्म करो तो उसके फल की इच्छा मत रखो। सशर्त नियम लेना जुआ होता है। कभी भी परमात्मा के सामने शर्त रखकर कोई नियम मत लेना। मंदिर आना, प्रवचन सुनना धर्म नहीं है, संकट आने पर भी अपने नियम पर अडिग रहना यह धर्म है। नियम के फल आसानी से नहीं मिलते, नियमों के प्रति समर्पित होना पड़ता है। नियम लेते ही तुम्हारी परीक्षा चालू हो जायेगी। मानव अपने प्राण बचाने के लिए अण्डे और कौवे का मांस भी खाने को तैयार हो जाता है। ऐसे, नियमों को तोड़ने से नियम का अतिशय नहीं मिलता। जिस नियम का दृढ़ साहस के साथ पालन किया जाय उसी का फल मिलता है। प्राण जाये पर वचन न जाये तभी नियम का फल मिलेगा। भगवान राम ने धर्म की रक्षा के लिए दर-दर की ठोकरें खाईं। सीता ने धर्म की रक्षा के लिए रावण की पत्नी बनना स्वीकार नहीं किया। सीता को जब राम ने अयोध्या से निकालकर वन में भेजा तो सीता ने राम को अभिशाप नहीं दिया बल्कि यह सन्देश भेजा कि राम ने दूसरे के बहकावे में आकर मुझे तो छोड़ दिया लेकिन दूसरे के बहकावे में आकर कहीं धर्म न छोड़ दें। मुनि श्री सुधासागर जी ने बताया कि भगवान राम सीता को चाहते थे, इस पर प्रश्न चिह्न है, लेकिन सीता, राम को अवश्य चाहती थीं। इसलिए नाम लेते समय सीता का नाम पहले आता है, राम का नाम बाद में। आपने बताया कि मानव का नियम है कि जब करम करीमा लिखि रहा, अब कछु लिखा न होय । मासा घटै न तिल बढ़े, जो सिर पटके कोय ॥ फरवरी 2004 जिनभाषित 8 ' पूज्य और पूजा' पर विचार व्यक्त करते हुए मुनिश्री ने कहा कि तुम पूज्य बन जाओ, सबसे अच्छा है। किन्तु जब तक तुम भगवान न बन पाओ तब तक तुम भक्तपने का सहारा नहीं छोड़ देना, नहीं तो मरकर नरक, निगोद चले जाओगे। पूरा का पूरा संसार दोनों रास्तों से भटका है, न तो पूज्य बन रहा है, न पूजा कर रहा है। पूज्य बनना है तो हम कर्म के भरोसे न बैठें। कर्म को हटाने का प्रयास करें, तो अपने आप सन्मार्ग पर आ जायेंगे। पूज्य नहीं बन पा रहे हो तो पूजा करो। आज तक जितने जीव भगवान बने हैं वे सब भक्त बनकर ही भगवान बने हैं। भगवान के समक्ष जाकर आप देखना, न आपको राग होगा, न द्वेष होगा। ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ अलौकिक दृश्य है। भक्त भगवान को एक ही रूप में पकड़ सकता है, जब वह भावना भाए तव पादौ मम हृदये तव हृदयं तव पदद्वये लीनं । तिष्ठतु जिनेन्द्र तावद् यावन्निर्वाणि सम्प्राप्तिः ॥ प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि मोह की ग्रन्थियाँ छोड़े, प्रभु से नाता जोड़े। राग-द्वेष की श्रृंखलायें जिस घर में पड़ती हैं, सम्यग्दृष्टि उसे अपना घर नहीं मानता। श्रद्धान में, स्वभाव में, ज्ञान की अपेक्षा यदि कोई पूछे, तो वह कहता है कि ये जेलखाना है। जेल में पड़ा हूँ, क्योंकि मैंने राग-द्वेष, मोह और कषाय रुप अपराध किए हैं। जब तक मैं अपराध करता रहूँगा, तब तक ये जेल छोड़ना भी चाहूँ तो छूटने वाली नहीं है। कबीर के दोहे संकलन- डॉ. नरेन्द्र कुमार जैन निदेशक पार्श्व ज्योति मंच, सनावद (म.प्र.) विश्वासी है गुरु भजै, लोहा कंचन होय । नाम भजै अनुराग ते, हरष शोक नहीं होय ॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नदी की सीख दुनियाँ में सीख सिखाने वाले बहुत से पदार्थ हैं पर हम सीखना जब चाहें तो सीख सकते हैं। वरना वे तो अपना संदेश विखेर मानवता को कर्तव्य का बोध करा ही रहे हैं। चाहे वह जल हो, अग्नि हो या पृथ्वी, वनस्पति, वायु इन्हें जैन- दर्शन में एक इन्द्रिय का धारक कहा गया है। जो स्पर्शन इन्द्रिय के द्वारा सुखदुख का अनुभव करते हैं। यहाँ पर हम नदी के जल की बात कहने जा रहे हैं। जब कभी में नदी के तट पर जाता तो नदी का जल, उसमें पड़े हुए कंकड़-पत्थर कुछ न कुछ सीख हमें देते ही रहते हैं। वह बात इस प्रकार है, कि जब मैं नदी के तट पर प्रथम दिन पहुँचा, तो मैंने पाया नदी खाली है, बहुत कम पानी है, रेत स्पष्ट दिख रहा है, पत्थर अलग दिखाई दे रहे हैं, तट भी देखने में आ रहा है। तो मैंने सोचा, इसीप्रकार यदि आदमी का जीवन बुराइयों से खाली हो जाता है, तो अच्छाइयाँ स्पष्ट दीखने लगती हैं। जिस प्रकार नदी में कम पानी रहने पर नदी के अन्दर की वस्तुएं स्पष्ट दिखने लगती हैं। मैं देखकर, सोचता हुआ चला आया। लेकिन पुनः नदी जाना हुआ, तो नदी को पानी से भरा हुआ पाया। न अब तट का ही पता था न ही रेत, पत्थर कुछ भी नहीं दिख रहा था, बस पानी ही पानी वो भी वेगमयी-गतिमान बहुत जल्दी में चला जा रहा था, लेकिन वह भी गन्दा था। फिर मेरे मन में विचार आया स्वच्छ पानी में गन्देपन का कारण पानी का वेग है। क्योंकि वह ऊंचाई को छूना चाहता है और जल्दी से सागर में मिलना चाहता है। इसीलिए वर्षा के गतिमान पानी से हर कोई बचना चाहता है। इस दृश्य को देखकर ऐसा विचार आया कि इस पानी ने सारी बुराइयों को अपने में मिला लिया है। इसीलिये इस प्रकार के पानी से प्रत्येक आदमी को डर लगता है। और दूर रहकर देखना चाहता है, पास कोई आना नहीं चाहता क्योंकि इस पानी की कोई मर्यादा, सीमा नहीं होती है यह तो डुबाने का ही कार्य करता है । इसप्रकार नित्य प्रतिदिन की भांति पुनः नदी जाना हुआ तो पानी को स्वच्छसंयत पाया तो मन में विचार क्रम चल पड़ा कि यह तो योगी की भांति शांत-संयत है। जैसे ब्रह्मचर्य के प्रभाव से योगी के देह में कांति - कंचन सी चमक आ जाती है और जग की आस्था का दर्शन बन जाता है, ऐसे ही उज्ज्वल स्वच्छ जल से प्रतिभाषित हो रहा था। और गन्दे पानी को देखकर ऐसा लगा जैसे बालक का स्वभाव चंचल होता है, ठीक ऐसा ही गन्दे पानी में देखने में आया। जैसे बालक उछल-कूद में माहिर होता है, ऐसे ही वर्षा का गन्दा जल उछल कूद से परिस्पूर्ति रहता है। पानी में गन्दापन, मटमैलापन, कूड़ा, कचरा जो देखने में आता वह पानी का मुनि श्री चन्द्रसागर जी विकार है और स्वच्छ उज्ज्वल जल निर्विकार अवस्था का प्रतीक है, निर्विकार की दुनिया पूजा करती है, तो विकारी को ठुकरा देती है । अब याद रखना क्या ध्यान देने की बात है। पानी में गन्दापन इस बात का संकेत देता है कि पानी में पाप घुल-मिल गये हैं इसीलिये यह गन्दापन देखने में आ रहा है। जब यही जल कंचन - स्वच्छ देखने में आता है तो मन में विचार आता है पानी निष्पाप हो गया है। ऐसे ही आदमी का जीवन निष्पाप मय हो जाये तो उसके चरण की पूजा ही तीर्थ का धाम बन बैठती है । गन्दे पानी का कोई भी प्रयोग करना पसन्द नहीं करता न वर्षा के समय नदी के घाट पर बार-बार आना जाना पसंद करता है और जब वही पानी साफ-सुथरे गुणों से परिपूरित हो जाता है फिर उसका दैनिक जीवन में प्रयोग हो जाता है। जैसे कि स्नान करना, पीकर प्यास बुझाना, वस्त्र साफ करना आदि क्रियाओं में प्रयोग लाना हो । गन्दे पानी के प्रति लोगों में घृणा के भाव आ जाते हैं और स्वच्छ-धवल जल के प्रति प्रेम-भाव, चाहत - प्रीति देखने में आती है। पानी रे पानी तेरा रंग कैसा जिस में मिलादो लगे उस जैसा पानी जब अवगुणों से परिपूरित हो जाता है तो नफरत के अलावा कुछ भी उसे नहीं मिलता। यह बाह्य पदार्थों से प्रभावित होने के कारण ऐसा होता है। इस कारण उसे अपने निज तत्त्व गुण को खोना पड़ता है। और मिट्टी, रेत धूलादि मिलने के कारण विकृत हो जाता है। इसलिये पानी का रंग उसमय माना जाता है। अतएव मूल रंग का पता ही नहीं चलता है। ऐसे ही पर पदार्थ, बाह्य-वस्तु के आकर्षण से संसार की परिधी (घेरा) बढ़ता चला जाता है। पानी को देखकर जीवन जीने की धारा में परिवर्तन लाया जा सकता है। दुनिया के प्रत्येक पदार्थ कुछ न कुछ शिक्षा देते हैं विकास चाहने वाला शिक्षा ग्रहण कर लेता है । इस प्रकार पुनः नदी गया तो नदी में पहले की अपेक्षा कुछ कम पानी था, कुछ पत्थर स्पष्ट दिख रहे थे । एक लाल पत्थर, दूसरा सफेद पत्थर, तीसरा काला पत्थर । लोग लाल पत्थर को श्रद्धा से नमन करते, सफेद पत्थर को गोरे वदन को देखकर प्रेम करते, काले को काला-कलूटा कहकर पैरों से ठुकरा देते और द्वेष करते, लोगों को देखा। कहने का मतलब यह है कि एक इन्द्रिय, जहाँ केवल स्पर्शन इन्द्रिय मात्र फिर भी लोग उससे रागद्वेष करते हैं। ऐसी घटना तब घटित होती है जब विवेक का स्तर गिर जाता है तब परम धाम की यात्रा रूक जाती है। इसी क्रम में जब नदी पर गया तो घाट पर जाकर बैठ गया फरवरी 2004 जिनभाषित 9 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो देखा लहरें उठ रही हैं, मानों राग-द्वेष, क्रोध, मान, माया, | में कष्ट बढ़ता ही जाता है। अब नदी के किनारे गड्डे में पानी भरा लोभ, ईर्षा, जलन की लहरें उठ रही हैं, अब क्या कहना नदी के | हुआ देखा जो गंध मार रहा था, मच्छर मंडरा रहे थे। उसे कोई भी बीचों-बीच जल पत्थर के चक्कर काट रहा था, मानो यह संकेत | नहीं चाहता क्योंकि वह रुका हुआ पानी था। रुकने से दुर्गन्ध पैदा प्रदान कर रहा था कि इस प्रकार तीन लोक, चौरासी लाखयोनि या | हो जाती है। साथ ही स्वच्छता चली जाती है गन्दापन आ जाता यूं कहें ९९ का चक्कर है जो दुःख का सागर है। उसमें फँसने से | है। और बहता हुआ पानी सौंधी-सौंधी गंध बिखेरता हुआ, आदमी का छूटना कठिन कार्य है। इसीलिये फंसने से पहले | स्वच्छता दिखाता चलता है। जिसे चाहने वालों की भीड़ मची छूटना श्रेष्ठकर है। अब तो नदी के ऊपर सूर्य का उदय ही नहीं | रहती है। इसलिये रुको मत, बहते रहो, यह जल संदेश देता हुआ तो मन में विचार आया कि सूर्य के न आने से जल शीतल | रहता है। जो चलता रहता है वह अपनी मंजिल पर पहुंच सफलता है, और जब सूर्य आ जाता है तो यही जल अपने स्वभाव को भूल | पा लेता है। पानी में जो लहरें देखने में आती हैं वह पानी की जाता है और मूल प्रकृति को खो गर्म हो जाता है। सोचने की बात | गति को बताती हैं कि गतिमान बनो तो दुर्गति से बच सद्गति पा है की कितनी जल्दी बाह्य वस्तु से प्रभावित होता है। पर पदार्थ | सकते हो। और एक बार की बात है कि जब नदी का जल इस हमें अपने मूल धर्म से वंचित कर देते हैं। ठीक उसी प्रकार | पार से उस पार तक फैल गया था। एक समय यही जल सिमटा आदमी पर पदार्थों की चमक में पड़कर अपना अमूल्य मानव | | हुआ था अर्थात् नदी के आधे भाग में था तब तो बूढ़े क्या बच्चे भी जीवन खो बैठता है। बड़ी चाह के साथ इस का प्रयोग करीब में आकर करते थे। इसी तारतम्य में पुनः नदी जाने का अवसर आता है तो तट | क्योंकि इसमें भय नहीं था, जैन दर्शन में चार संज्ञा मानी हैं जैसे - के ऊपर ही रह गया और जहाँ देखो वहाँ गड़े ही गड़े देखने में | आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा ये चार संज्ञाएँ आते हैं। तो मन में एक सोच जागी की ठीक इसी प्रकार हमारे संसार की कारण हैं और जब तक आदमी के अन्दर भय रहता है जीवन में न जाने कितने गड्ढे हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ, ईर्ष्या, | तो काया की कंचनता का अन्त हो जाता है। जब यही जल संकोच जलन, मात्सर्य और दोनों पैर गड्ढे में पड़े हुये हैं। अब विचार | अवस्था में रहता है तो एक देश अभय की मूर्ति माना जाता है, करना है, हमारे जीवन का उद्धार कैसे होगा। जब नदी का जल | केवल बहादुर , वीर पुरुष तैरने वाला ही उस का आनन्द लेता है। स्तर सम रहता है न ऊंचा, न नीचा तब यह हमें समानता का | और वैसे भी प्रेम में चाह है अपनापन है। भय में फूट, अलगाव, संदेश देता है। यदि जीवन में समानता आ जाती है तो ऊंच-नीच | घृणा है। का भेद समाप्त हो जाता है फिर जीवन बाग प्रसन्नता से परिपूरित | एक कहावत है अपनी चादर के अन्दर पैर फैलाना चादर हो जाता है। नदी के जल में जो उथल-पुथल देखने में आती है, के बाहर पैर फैलाने का मतलब है मिट जाने का, पिट जाने का। ऐसे ही हमारे अन्दर विचारों की उथल-पुथल मची हुई है जो हमें | नदी में जितनी गति से पानी आता है या बहाव बढ़ता है तब पानी अवनत बनाती है। विचारों का शांत रहना उन्नत बनने का मार्ग है। गन्दा होता जाता है। अर्थात् डरावना, बिदरुप लगने लगता है। इसी प्रकार जल में जब उथल-पुथल की क्रिया को देखा तो मन | जब यही पानी धीमी गति, संयत चाल का धारक होता है, तो में विचार आया इसी प्रकार मन भी उछलकूद में लगा हुआ है। | शांत शीतल जल की उपमा पाता है। पानी कभी व्यवधान आने इसी कारण चक्कर में फंसा हुआ है। इसी प्रकार नदी के जल को | पर भी नहीं रुकता उसे रास्ता बदलना आता है, पर दूसरे को नाद करते देखा तो सोचा आदमी भी नाद करता है। पर उसकी हटाना नहीं, जैसा कि जैन दर्शनकार उमास्वामी अपने ग्रन्थ तत्त्वार्थ नाद (आवाज) को कोई भी सुनना नहीं चाहता है। इसीलिये नदी | सूत्र में कहते हैं 'परोपरोधाकरण' अर्थात् दूसरों को हटाना नहीं का नाद हमें संकेत देता है, नाद (आवाज) मिली है, तो मधुर | अलग नहीं करना। पानीमार्ग का स्वयं निर्माता होता है, किसी से नाद का प्रयोग करें जो जीवन जीने में सुगमता दे। मार्ग की अपेक्षा नहीं रखता है। क्योंकि अपेक्षा के कारण ही इसी क्रम में एक और दृश्य देखने में आया कि नदी के | उपेक्षा होती है और सन्तों ने कहा भी है जहाँ चाह है वहाँ राह है। स्वच्छ जल को एक कपड़े में छानकर लोग पी जाते, उसी से | अब आंखों के द्वारा नदी का अन्तिम दृश्य देखने में, स्नान करते, उसी से कपड़े धो लेते हैं। जिस जल ने मानव का | अनुभव में आया, उसकी बात कहने जा रहे हैं। जब में नदी पर उपकार किया परिणाम स्वरूप उसी में थूक देते, उसी में मल-मूत्र | पहुँचा तो मैंने पाया नदी के तट के किनारे, बहुत प्रकार के अर्थात् कर देते फिर भी जल कोई प्रतिकार नहीं करता है। योगी की | बहुत रंग वाले कंकर-पत्थर पड़े हुये हैं तो उनके रंगों को देखकर भांति सब शांत भाव से सहन करता, पर आदमी से कुछ भी नहीं | हृदय में बैठा जैन-दर्शन याद आया और छै रंगों वाली लेश्या इन कहता। परन्तु आदमी प्रतिकार करने में सबसे आगे रहता है। कोई | रंग-बिरंगे कंकरों से ध्वनित होने लगी। पहली तीन लेश्या अशुभ एक बात कहे तो वह दस बात कहने के लिये तैयार रहता है। अर्थात् बुरे परिणामों वाली हैं बाद की तीन लेश्या शुभ हैं अर्थात् यदि कोई उस के घर के सामने कचरा फेंके तो वह उसके घर के | अच्छे परिणामों को बताने वाली हैं। क्रम इस प्रकार है। कृष्णलेश्या आंगन में फैंकने के लिये तैयार रहता है। सहनशीलता के अभाव | काले वर्ण वाली नदी में पड़ा काले वर्ण का कंकर कृष्ण लेश्या का 10 फरवरी 2004 जिनभाषित - Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । प्रतीक बनकर रह रहा है, तीब्र क्रोध करने वाला, बैर को न छोड़ने वाला, बात-बात पर झगड़ा करना जिसका स्वभाव हो और धर्म या से रहित हो, दुष्ट हो, किसी की बात नहीं मानने वाला काला कंकड़ नदी में पड़े-पड़े कहता है, वह कृष्ण लेश्या का धारक है। अपने कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य, सत्य-असत्य को जानता हो, सब में समदर्शी हो, दया व दान में रत हो, मृदु स्वभाव का धारक हो, ज्ञानी हो, शील का धारी हो । " दृढ़ता रखने वाला हो। अपने कार्य में पटुता रखने वाला हो । पीत वर्ण का पीला कंकर नदी में पड़ेपड़े कह रहा है, यह पीत लेश्या, तेजो लेश्या का धारक है। नील लेश्या - नील की गोली या नीलमणि या मयूर के कण से समान नील वर्ण वाला नदी में पड़ा नीले वर्ण कंकर नील लेश्या का प्रतीक बन कह रहा है। बहुत निद्रालु हो, पर प्रशंसा करने में कुशलता रखते हो और धन सम्प्रति-वस्तुओं के संग्रह में विशेष रुचि रखने वाले हो। नील वर्ण का कंकर नदी में पड़े-पड़े कहता है, वह नील लेश्या का धारक है। पद्म लेश्या - पद्म सदृश वर्ण वाली अर्थात् कमल के फूल के समान वर्ण वाली, नदी में पड़ा पद्म के वर्ण वाला कंकर पद्म लेश्या का प्रतीक बनकर कह रहा है, जो त्यागी हो, भद्र परिणामी हो, चोखा सच्चा हो, उत्तम कार्य करने वाला हो, बहुत अपराध या हानि होने पर भी क्षमा कर दे, साधु जनों के गुणों के पूजन में निरत हो, सत्य वचन का धारक हो । देव - गुरु-शास्त्र में रुचि रखने वाला हो। पद्म वर्ण का कंकर नदी में पड़े-पड़े कहता है, यह पद्म लेश्या का धारक है। कापोत लेश्या - कबूतर के समान वर्ण वाली अर्थात् राख के समान नदी में पड़ा राख के रंग के समान कंकर कापोत लेश्या का प्रतीक बन कर कह रहा है, जो दूसरों के ऊपर क्षोभ करता हो, दूसरों की निन्दा करता हो, दोष लगाने में आगे हो, शोक करने में आगे हो, डरपोक हो, दूसरों से ईर्ष्या करता हो, अपनी प्रशंसा करता हो, पर का विश्वास न करता हो, अपनी हानि - वृद्धि को नहीं जानता हो, स्तुति किये जाने पर ही सन्तुष्ट होता हो । कापोत वर्ण का कंकर नदी में पड़े-पड़े कहता है, वह कापोत लेश्या का धारक है। नदी के तट पर रेत पर पड़े एक नहीं अनेक कंकर पत्थर के बीच यहाँ छै रंग के कंकर में से तीन रंग के कंकर की बात अशुभ बुरे संकेतों के साथ कह चुके हैं। अब अंतिम तीन रंग के कंकर की बात शुभ अच्छे संकेतों के द्वारा कहने जा रहे हैं। जिसे जैन दर्शनकारों ने तेजो लेश्या कहा है। तेजो लेश्यातप्त स्वर्ण के समान वर्ण वाली, इसे पीत वर्ण भी कहते हैं । पीत लेश्या नदी की मृदु गोद में पड़ा स्वर्ण के रंग के समान पीला कंकर पीत लेश्या तेजो लेश्या का प्रतीक बनकर कह रहा है, जो बोधकथा शुक्ल लेश्या शंख के समान वर्ण वाली या कांस के फूल के समान श्वेत वर्ण वाली, नदी में पड़ा श्वेत वर्ण वाला कंकर शुक्ल लेश्या का प्रतीक बनकर कह रहा है, जो पक्षपात न करता हो, न निदान करता हो, सब में समान व्यवहार करता हो, जिसे दूसरों के प्रति राग-द्वेष व स्नेह न हो। श्वेत वर्ण का कंकर नदी में पड़े-पड़े कहता है, यह शुक्ल लेश्या का धारक है । इस प्रकार कषाय से सनी हुई प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं, इस कारण से आदमी जीव, पुण्य-पाप से अपने आप को लिप्त करता है। इस प्रकार कंकर अपना संकेत दे मानव की दशा को सुधार मानवता का निर्माण कर जल, जलना नहीं बहना सिखाता है। इसी प्रकार नदी समता, ममता बिखेरते हुए बहती रहती है। रुकना काम नहीं। सीख लेने वाले लेकर चले जाते हैं । इस प्रकार नदी पर चिन्तन समाप्त हुआ। कुल्हाड़ी की तीर्थयात्रा एक कुल्हाड़ी बैलगाड़ी में बैठकर तीर्थयात्रा को निकली। मार्ग में जंगल मिले। वहाँ के सभी वृक्ष कुल्हाड़ी को देख कर कांप उठे। उनके मन में यह भय समा गया कि कहीं यह हमारे अंगों को काट न दे। कुछ वृक्ष तो कुल्हाड़ी को देखकर रुदन करने लगे। तब वन के एक अतीव वृद्ध तथा अनुभवी वट वृक्ष ने गंभीरता पूर्वक कहा- आपके रोने-धोने से कुछ नहीं होगा। भूल तो हमारी ही है। वृक्षों ने एक स्वर में प्रश्न किया, कैसी भूल ? वट वृक्ष ने कहा कि हम में संगठन नहीं है। हम सभी अपने में एकरूप होकर नहीं रहे, अपने में समाये नहीं रहे। कुल्हाड़ी के बैंटे में जो लकड़ी है, वह हमारी ही जाति की है। हमारी जाति वाले ने ही हमें काटने का काम किया है। यह हमारे असंगठित रहने के कारण ही हुआ है और हो रहा है लोहा तब तक वृक्ष के, काट न सकता अंग । जब तक उसको काष्ठ का, प्राप्त न होता संग ॥ वयोवृद्ध अनुभवी वट वृक्ष की बात सुनकर सभी वृक्ष अपनी भूल पर नतमस्तक थे I डॉ. आराधना जैन, गंजवासौदा फरवरी 2004 जिनभाषित 11 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साधुओं की नग्नता निंदनीय नहीं वंदनीय' है ऐलक नम्रसागर नग्नता पवित्रता का दुनिया में एक आदर्शपूर्ण, महानतम | की दृष्टि फिल्मी दुनिया की ओर क्यों नहीं गई? जहाँ खुल्लम-खुल्ला उदाहरण है। नग्नता महावीर का नहीं अपितु वीतरागता, निर्विकारता, अधीलता का नंगा नाच हो रहा है, अर्ध नग्न नारी के चित्र और निर्विकल्पता का अविष्कार है। कपड़ों में राग को जीता नहीं जा वासना ग्रसित 'ब्लू-फिल्म', जैसी अनैतिक समाज और राष्ट्र को सकता, कपड़ों से वासना को जीता नहीं जा सकता और कपड़ों से | गर्त में ले जाने वाली गन्दी पिक्चरें, गन्दे नाच, गन्दे पोस्टर, गन्देलज्जा को भी जीता नहीं जा सकता। वासना और लज्जा का अपना | गन्दे गीत सारी दुनिया को दुराचार, व्यभिचार और अशीलता की घनिष्ट नाता है और वस्त्रों की छाया में ही ये पलते-पुसते रहते हैं। शिक्षा दे रहे हैं। क्या इन गन्दी नग्न पिक्चरों से सदाचार, नैतिकता वस्त्र पहनकर आदमी वासना और लज्जा पर विजय नहीं पा सकता, के संस्कार दिखे हैं? फिर भी लोगों की दृष्टि इन अश्लील पिक्चरों, और जो वासना और लज्जा को जीत नहीं सकता, वह 'सन्यासी', गानों, पोस्टरों को रुकवाने, उन पर प्रतिबंध लगाने की ओर क्यों 'साधु', 'श्रमण' कैसे कहा जा सकता है? बस, वासना और लज्जा | नहीं गई। क्योंकि उनके दिल और दिमाग धर्मान्धता की सड़न से को जीतने के लिए ही दिगम्बर जैन साधु अपने तन के वस्त्रों का प्रदूषित हो गए हैं। उन्हें अश्लीलता से नहीं मात्र नग्नता से द्वेष है। भी त्याग कर देते हैं और नग्न हो जाते हैं। क्योंकि वे उस संप्रदाय में पैदा नहीं हुए। नग्नता पर प्रतिबंध की कपड़ा और आदमी के बीच में आसक्ति का रिश्ता होता है, | बात साम्प्रदायिक है, सार्व-भौमिक नहीं। ऐसे लोगों से राष्ट्र की निस्पृहता का नहीं। उसमें बन्धन का रिश्ता होता है, मुक्ति का नहीं। समृद्धि को ही खतरा है। नग्नता मुक्ति का रास्ता है, बन्धन का नहीं। नग्नता एक संयम है लिखने वाले के शब्द हैं 'नग्नता से तुरन्त वासना का संचार संयम में लज्जा नहीं आती, फिर संयम सन्तुलन का प्रतीक है। | होने लगता है ये शब्द अविकसित विवेक की उपज हैं, विवेक नग्नता एक व्रत है, व्रत (संकल्प) पवित्रता का नाम है, फिर | की नहीं। यह हमारी बुद्धि का तर्क है विवेक का नहीं। बुद्धि के पवित्रता से लज्जा क्यों ? याद रखो। पवित्रता से लज्जा करना पाप | पास तर्क होता है, जबकि विवेक के पास विश्वास होता है, से प्रेम करना है। लज्जा हमको अपनी वासना से आना चाहिए नग्नता | समझदारी होती है। समझना हमको यह है कि वासना का मूल से नहीं। क्योंकि 'बुरी चीज वासना है नग्नता नहीं और वह वासना उद्गम स्थान कहाँ है ? वासना का मूल स्त्रोत हमारी आसक्ति है, लज्जा में छुपी रहती है नग्नता में नहीं।' । हमारा गन्दा मन है, अनियंत्रित इच्छाएँ हैं, नग्नता नहीं। अविवेक, जो वासना के अधीन है वह लज्जा का दास है, और जो | अज्ञान और अन्ध अध्ययन के कारण हम नग्नता को गलत कहते लज्जा का दास होता है, वह वस्त्रों का भक्त होता है। वह वस्त्रों के | हैं। नग्नता को देखकर वासना उत्पन्न नहीं हो सकती क्योंकि बिना जी नहीं सकता, क्योंकि स्वाधीनता उसकी किस्मत में नहीं।। वासना का स्त्रोत नग्नता नहीं अपितु वासना का स्त्रोत हमारा कामुक 'वस्त्रों का त्याग करके दिगम्बरत्व की दीक्षा अंगीकार करना | मन है। यदि हमारा मन काबू में नहीं है, तो मात्र कपड़े पहनने से कमजोर दिलवालों का काम नहीं, वह तो हिम्मत और किस्मतवालों | क्या लाभ? क्या सुन्दर-सुन्दर कपड़ों वाले रंग-रूपवाले युवा पुरुष का काम है ' वासना पर विजय प्राप्त करने वाले निर्भीक होते हैं, | को देखकर किसी को वासना नहीं जाग सकती? तो फिर उसकी निडर होते है। लज्जा दिल की उपज है, दिमाग की नहीं। इसीलिए | सुन्दरता को मिटा दें? उसके रूप लावण्य की चमड़ी को निकाल जिसका दिल कमजोर होता है, जिसका दिल गन्दा होता है वह | दें? उसकी जवानी को बरबाद कर दें ताकि वासना से बच जायें। लज्जा की वेदना को, उसकी पीड़ा को सहने में असमर्थ होता है।। | हम सैकड़ों उपाय भी क्यों न कर लें, यदि हमारे मन में इसी असमर्थता की वजह है कि वह नग्नता को बुरा समझता है और | वासना भरी है तो सारी दुनियाँ में क्या भगवान में भी वासना दिखेगी उसका विरोध करता है। यदि वह अपने फेफड़ों से वासना और | और यदि हमारा मन कन्ट्रोल में हो गया तो उपासना ही उपासना मतान्धता का गन्दा पानी निकाल दे, तो दुनिया में उसे नग्नता के | है चारों ओर । दूसरी बात यदि एक नग्न मुनि को देखकर वासना अलावा और दूसरी चीज ही नजर नहीं आयेगी। जागती है तो क्या कपड़े पहनने वाले को देखकर वासना समाप्त नग्नता से लज्जा नहीं आनी चाहिए, अपितु उससे तो होती है ? गलत बात है कपड़े इतने दमदार नहीं हैं जो वासना को आध्यामिकता का पाठ सीखना चाहिए। नग्नता आध्यात्म का | छुपा सकें। हकीकत यह है हम कपड़ा बदन ढ़कने के लिए पहनते जीवित महाकाव्य है। वह नैतिकता, सदाचार, सादगी, त्याग, | है, वासना को ढकने के लिए नहीं। अपरिग्रह का महान आदर्श है। लज्जा की विषय वस्तु अश्लीलता वासना को कपड़ों से जीता नहीं जा सकता। छुपाया अवश्य है, कामुकता है, नग्नता नहीं। नग्नता तो एक शील है, एक ब्रह्मचर्य! जा सकता है। हम यही तो करते हैं कि इन कपड़ों से अपनी वासना है, एक वैराग्य है। नग्नता पर प्रतिबंध लगाने की बात करने वाले । को छुपाते रहते हैं, अपनी लज्जा को छुपाते रहते हैं और आसक्ति 12 फरवरी 2004 जिनभाषित Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के चक्र में घूमते रहते हैं। जिस दिन हमारी आसक्ति मर जायेगी | चलेगा? क्या कपड़े पहनने से समाज का नव निर्माण होता है ? यदि उसी दिन हमारी वासना, हमारी लज्जा गायब हो जायेगी, और हाँ तो फिर आज तो कपड़ों की भरमार है। एक से बढ़कर एक कपड़े हमारी विजय हो जायेगी। जिस प्रकार एक सज्जन व्यक्ति के मन | पहनने वाले हैं, फिर समाज में इतना विघटन क्यों है ? आपसी फूट में किसी शराबी को देखकर शराब पीने के भाव नहीं हो सकते, उसी | क्यों है ? समाज में इतने भेद और संस्थायें क्यों हैं ? सारे के सारे प्रकार सज्जन-पुरुषों को एक दिगम्बर नग्न मुनि को देखकर वासना | कपड़े पहने हुए हैं। ध्यान रहे, समाज कपड़ों से नहीं चल सकती। के भाव पैदा नहीं हो सकते। यह बात जुदी है कि उसका मन वासना समाज आदर्शों से चलता है, आचरण से चलता है, कर्तव्यों से से लबालब भरा हो, उसको तो किसी के देखे बिना भी वासना पैदा चलता है, त्याग और अपरिग्रह से चलता है। दिगम्बर नग्न मुनि की होती रहती है। अतः नग्नता निन्दनीय नहीं अपितु वन्दनीय है, समाज में उपस्थिति एक आदर्श है, जिसके माध्यम से सारा समाज पूजनीय है, पवित्र है, पावन है। अपरिग्रह की ओर बढ़ता है और परिग्रह की मर्जी से बचता है। लिखने वाले के ये शब्द भी ध्यान देने योग्य हैं- 'जिस | अतः समाज चलाने के लिए वस्त्रों की कतई आवश्यकता नहीं। प्रकार शरीर को चलाने के लिए आहार आवश्यक है, उसी प्रकार हाँ, इतना तो अवश्य है कि जब तक वह आदमी गृहस्थाश्रम समाज को चलाने के लिए वस्त्र' आवश्यक है। समाज को चलाने | में रहता है, घर में रहता है तब तक वह वस्त्रों को धारण करता है। के लिए वस्त्रों की आवश्यकता एक वस्त्रधारी को पड़ती है, जो | घर में नग्न रहना यह तो जैन शास्त्र भी मना करते हैं। लेकिन जब समाज का सदस्य होता है और कार्य भार, जिम्मेदारियों को अपने | वह घर, कुटुम्ब को छोड़ देता है, अपना व्यापार-व्यवसाय छोड़ सिर पर रखता है। लेकिन साधु'समाज चलाने के लिए नहीं होता। | देता है, तब वह नग्न दीक्षा का पात्र होता है। अतः जैन साधुओं की वह तो समाज का आदर्श होता है, जरा सोचो! कपड़ों से क्या समाज | नग्नता निंदनीय नहीं वन्दनीय है। अहिंसा-जीवदया-पशुरक्षा के क्षेत्र में कार्यरत सभी वरिष्ठ कार्यकर्ता संगठित होवें अहिंसा परमो धर्मः और सत्यमेव जयते आज भारत के मूलमंत्र हैं। महावीर ने अहिंसा पर, बुद्ध ने करूणा पर और गाँधी ने सत्य पर विशेष जोर देकर ही हमारे देश भारतवर्ष को विश्व के अध्यात्म गुरु का दर्जा दिलाया था। पर हमारी त्रासदी है कि आज आजादी के छप्पन वर्ष बीत जाने के बाद भी देश में अहिंसा की ताकतें बिखरी पडी हैं और हिंसा की समर्थक ताकतें एकजुट होकर हर क्षेत्र में हावी होती जा रही हैं। संगठन ही शक्ति है इस उद्देश्य को दृष्टिगत कर राष्ट्रीय स्तर पर इण्डियन फेडरेशन ऑफ अहिंसा ऑर्गेनाइजेशन अर्थात् भारतीय अहिंसा संस्थान महासंघ की स्थापना की गई है। अहिंसा को विश्व व्यापी बनाने के उद्देश्य हेतु पूरे देश भर में हजारों की संख्या में फैली सभी सक्रिय संस्थाएँ एक व्यापक एवम् दूरगामी सोच के साथ एकजुट होने के प्रति उत्सुक हों, तभी इसकी सार्थकता है। अहिंसा सिद्धांत की लड़ाई मजबूत स्वार्थी तत्वों से है और इसके लिए अहिंसा संगठन को जन बल, बौद्धिक बल एवम् सुदृढ़ आर्थिक आधार से बेहद सबल बनाना नितांत आवश्यक है।। अहिंसा शाकाहार, जीवदया, करूणा, पशु कल्याण, गौरक्षा, गौसंरक्षण, पर्यावरण रक्षा, मांस निर्यात विरोध, पिंजरापोल, पशु क्रूरता निवारण समिति, जैविक खेती अथवा पशु प्रेमी संस्थाएँ आदि, हम चाहे किसी भी क्षेत्र में काम कर रहे हों, चाहे जिस संस्था, सोसाईटी, फाउन्डेशन, ट्रस्ट या समिति के नाम से कार्य कर रहे हों, यह सही वक्त है कि हम सब एकजुट होकर एक ऐसी शक्ति के तहत अपनी पहचान बनायें, जहाँ हम सबका अपना अलग स्वतंत्र अस्तित्व भी बना रहे एवम् साथ ही एकबद्धता का राष्ट्रीय लाभ भी हम सबको मिल सके। और इस उद्देश्य हेतु अहिंसा के कार्यों को सम्पूर्ण भारतवर्ष में विस्तार देना है। भारतवर्ष के २८ राज्यों तथा ७ केंद्र शासित प्रदेशों में करीब ५५० जिले हैं तथा हमने वर्ष २००४ की प्रथम तिमाही में हर जगह जिला स्तर अथवा नगर स्तर पर महासंघ हेतु सक्रिय कार्यकर्ताओं की एक पूरी टीम तैयार करने का राष्ट्र व्यापी अभियान हाथ में लिया है, ताकि बाद में एक कार्य योजना बनाकर पूरे देश में एक साथ एक मुहिम छेड़ी जा सके। इसमें समाज का सहयोग भी जरूरी है। संस्था सोसाइटी एक्ट के अंतर्गत पंजीकृत है तथा आयकर की धारा ८० जी के तहत छूट प्राप्त है। आज जो भी कार्यकर्ता इस कार्य में जुटे हैं वे अतिशीघ्र महासंघ को अपना विवरण एवम् कार्यक्षेत्र आदि भेजकर इससे जुड़ें, तभी हम इस महायज्ञ को सार्थक रूप से सफल बना सकेंगे। महासंघ द्वारा जिला-नगर स्तरीय संयोजक मनोनीत किये जा रहे हैं एवं आप सबकी सहभागिता अपेक्षित है। डॉ. चिरंजी लाल बगड़ा ४६, स्ट्राण्ड रोड, तीन तल्ला, कोलकाता दूरभाष: ०३३-३१०३०५५६, - फरवरी 2004 जिनभाषित 13 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन, आदर्श मृत्यु ब्र. अन्नू जैन जीवन हर पल गतिमान रहता है, जहाँ रुकावटें या ठहराव | मुस्कान के साथ सुभाशीष दिया। आता है वहाँ जीवन समाप्त हो जाता है। यही कारण है कि शरीर कृश हो रहा था पर आत्मा उत्तरोत्तर आध्यात्मिक प्रत्येक व्यक्ति यात्रा पर है, आप, मैं, हम सभी। और तलाश में है | चिन्तन में सरावोर थी। उनकी परीचर्या में लगे ब्रह्मचारी रानू जी ने अपनी-अपनी मंजिल की। मनुष्य को इसकी खबर नहीं कि जो | उनके हाथों से पिच्छि छुड़ाने का प्रयास किया पर उन्होंने पिच्छिका सांस वह अन्दर ले रहा है वह उसे बाहर निकाल पायेगा या | को नहीं छोड़ा ये होती है अपने आदर्शों के प्रति निष्ठा । अपनी चर्या नहीं। आकाश में उड़ रही पतंग जाने कब कट जाये और सांसों के प्रति समर्पण । इसी दौरान ब्रह्मचारी जी ने समयसार की गाथाओं की डोर हवा में ही रह जाये। का उच्चारण विनोद पूर्वक अशुद्ध किया, तपोनिष्ठ साधक ने हाथ 'श्वासों का क्या ठिकाना रूक जाये चलते-चलते।। उठाकर इशारा किया कि गाथा अशुद्ध है। ब्रह्मचारी जी ने विनय शनी भी बझ जाये जलते-जलते॥ | पूर्वक कहा आप ही शुद्ध पढ़ें तो मुनिश्री ने घडी की ओर इंगित सजा सको तो ख्वाहिशों का कारवां सजालो। किया अर्थात् अभी रात्रि है और साधक रात्रि में नहीं बोलते। ये है ओस की ये उम्र है खो जाये गलते-गलते॥' | पूर्ण सजगता का प्रतीक। ऐसे ही जीवन में मृत्यु अवश्यंभावी है, पर इसका समय मैंने विचार किया चर्या के प्रति जागरुकता और संयम के सुनिश्चित नहीं। अतः जन्म और मृत्यु के मध्य जो अंतराल है | प्रति उत्साह ये एक दिन की साधना नहीं वरन् सम्पूर्ण जीवन की उसमें जीवन के रहस्यों का उद्घाटन हो जाये तो जीवन जन्म और | साधना है, तपस्या है। ये गुरु से विरासत में मिले हुये संस्कार हैं, मृत्यु से भी महत्वपूर्ण हो सकता है। फूल का खिलना मूल्यवान जो उन्हें क्रश काया के बाद भी मुक्ति पथ पर गतिमान कर रहे हैं। नहीं है, मूल्यवान उसका कली से फूल बनने के बीच अपने | जैसे कोई योद्धा प्रारम्भ से युद्ध कौशल में निष्णात हो तो युद्ध क्षणों वातावरण को सुवाषित करना। ठीक उसी प्रकार जन्म और मृत्यु | में उसकी विजय सुनिश्चित है उसी प्रकार साधक की प्रारम्भ से के बीच का जीवन कैसे जिया जाये यह महत्वपूर्ण है। की हुई साधना अन्तिम लक्ष्य 'समाधि' को प्राप्त करा ही देती है। मनुष्य जीवन महज कोई लकड़ी का टुकड़ा नहीं जो नदी | प्रात: मुनि श्री समतासागर जी, मुनि श्री प्रमाणसागर जी, में यूँ ही बहता जाये या पेड़ का पत्ता नहीं जो हवा में यूं ही उड़ता | मुनिश्री निर्णयसागर जी व ऐलक श्री निश्चयसागर जी महाराज जाये। जीवन में सचेतन लक्ष्य होना चाहिये ताकि हम उस जीवन | समाधिस्थ साधु के पास पहुंचे। मुनिश्री प्रमाणसागर जी महाराज को आदर्श जीवन कह सकें। हम अपने गंतव्य पर कैसे जा रहे हैं, I ने 'दिन रात मेरे स्वामी मैं भावना ये भाउँ देहान्त के समय में हंसते हुये या रोते हुये। रोते हुये जाने वालों का जीवन असफल | तुमको न भूल जाऊँ।' इन वैराग्यप्रद पंक्तियों के साथ आध्यात्मिक किन्तु संघर्ष को सहर्ष स्वीकार कर हंसते हुये अपने गन्तव्य को | समय सारीय सम्बोधन देते हुये कहा 'महाराज श्री आपका स्वास्थ्य प्राप्त करने वालों का जीवन सफल और आदर्श मय होता है। | चरम सीमा पर है आपके आहार-पानी के त्याग का अवसर आ ऐसा ही जीवन था पूज्य मुनिश्री प्रवचनसागर जी महाराज | गया है आप अपने उत्साह को बढ़ाकर सब कुछ त्याग करदें।' का उन्हें ज्ञात था कि मनुष्य का सबसे बड़ा सृजन स्वयं का उस समय मुनिश्री प्रवचनसागर जी बोलने की स्थिति में नहीं थे। निर्वाण है। अतः उन्होंने प्रत्येक क्षण साधना की ओर विकासोन्मुख | पर मैंने देखा उन्होंने दृढ़ता पूर्वक अपने दोनों हाथ उठाकर इशारे होते हुये अपने में पूर्णता लाने का प्रयास किया और यही जीवन से कहा कि मैं सबका प्रत्याख्यान आजीवन करता हूँ। आत्म जीने की कला है, आदर्श जीवन है। साधक जब साधना की | साधना की इस जाग्रति को देखकर मैं अभिभूत हो गया। अल्प गहराई में पहुँच जाता है तब उसे बाहर का कुछ भी भान | बाद में मैंने मुनिश्री प्रमाणसागर जी महाराज से उनके नहीं रहता, वह अपने में इतना समा जाता है, शरीर की ओर | भावों की पराकाष्ठा के विषय में पूछा तो मुनिश्री ने कहा 'उनके उसका ध्यान ही नहीं जाता। उन्हें भान हुआ कि शरीर रूपी | परिणाम तो ऐसे हैं जो श्रुत केवलीयों को भी दुर्लभ हैं।' धन्य हैं बाहरी महल रोग के कारण खण्डहर हो रहा है तो अब आत्मिक | ऐसे साधक जिन्होंने अपने तन को चैतन्य मंदिर बना लिया। अपने महल के निर्माण में संलग्न होना होगा अर्थात् समाधि की साधना | जीवन को आदर्श जीवन और मृत्यु को महोत्सव बना लिया। मैं ही श्रेष्ठ है। समाधिस्थ मुनि प्रवचनसागर जी के चरणों में विनयांजलि अर्पित जैसे ही यह चर्चा विद्युत गति से फैली कि मुनिश्री करते हुये ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि ऐसे उत्कृष्ठ भाव और प्रवचनसागर जी समाधि की ओर अग्रसर हैं तो मैं भी वैराग्य ! शांति सबको प्रदान करें ताकि सबका जीवन कल्याण पथ पर जनक साधना के दर्शनार्थ कटनी पहुँचा और उनके संनिधी में बढ़ता रहे। ओम शांति। जाकर नमोस्तु किया। जैसे ही नमोस्तु के शब्द उनके कानों पर पुण्य वर्धनी पड़े उन्होंने हमारी ओर दृष्टिपात किया और चेहरे पर मंद-मंद मेन रोड, शहपुरा (भिटौनी) 14 फरवरी 2004 जिनभाषित Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुपम साधक मुनि स्व. श्री प्रवचनसागर जी डॉ. सुमन जैन मोक्षगामी सुपथ की भव्य जीवात्माओं की देह का विसर्जन । प्राप्त किया। यह उनकी कठिन ज्ञान/तप साधना का ही परिणाम ऐसा ही हुआ करता है, जैसा मुनि प्रवचनसागर की देह का | था जो सल्लेखना से अंतिम क्षण तक दिखायी दिया। हुआ। जिसे एक पुद्गल जड़ पिंड माना जाता है जिसका त्याग | भावलिंगी श्रमण के जो लक्षण मुनिचर्या में दृष्टिगोचर होते होश पूर्वक किया जाता है, जिसे आत्मा से पृथक मान कर किया | हैं वे समस्त लक्षण उनकी शारीरिक अस्वस्थता के बाबजूद भी जाता है। जिसका आत्मा से प्रथक होने पर महोत्सव के रूप में | संयम के लक्षण ही दिखाई दिये एवं किंचित क्षण भी असंयमी के मनाया जाता है। समान उनके शरीर में कोई भी प्रतिक्रिया नहीं दिखाई दी। वे परमपूज्य मुनिश्री प्रवचनसागर जी युग निर्माता परम पूज्य | अपने जिन लिंग की रक्षा हेतु यत्नाचार पूर्वक मन-वचन-काय से आचार्य श्री विद्यासागर जी के अद्वितीय शिष्य थे। वे अत्यन्त ध्यान/साधना करते रहे। गंभीर एवं प्रखर प्रज्ञा के धनी थे, उनकी मुनिचर्या चौथे काल के | मुनिश्री जी ने अत्यन्त अस्वस्थ होने पर किसी भी प्रकार मुनियों जैसी ही थी। उन्होंने 'यथा गुरु तथा चेला' वाली कहावत | की औषधि लेने से मना किया एवं उन्होंने स्पष्ट मना करते हुये को पूरी तरह से चरितार्थ किया। उनकी चारित्रिक दृढ़ता एवं ज्ञान | कहा था कि 'प्राण जाएँ पर प्रण न जाहि' वाली कहावत को की गंभीरता जीवन के अंतिम क्षण तक देखने को मिल रही थी। | चरितार्थ करूँगा और अपने गुरु चरणों में यही भावना व्यक्त की वास्तव में जब से उन्होंने अपने गुरु चरणों में साधक का जीवन | कि 'हे आचार्य गुरुदेव मुझे अपने कर्मों की निर्जरा करना है प्रारंभ किया था, तभी से उनकी जीवन चर्या/मुनि चर्या चौथे काल | इसलिये मैं अपनी मुनिचर्या को किंचित मात्र भी विचलित नहीं के भावलिंगी मुनियों जैसी व्यवहारिक रूप से परिणित थी, करूँगा, क्योंकि सबसे श्रेष्ठतम सम्पत्ति रूप रत्नत्रय धर्म मेरे पास जबकि उनका शरीर तो पंचम काल का ही था। अत्यधिक तीव्र | विद्यमान है।' वास्तव में उनकी पवित्र आत्मा तो रत्नत्रय रूपी पुण्य होने के कारण इस मनुष्य जीवन में उन्होंने उत्कृष्ट चारित्र | कवच से आवेष्टित थी अतः अस्वस्थता का प्रभाव आत्मा तक के धनी, प्रखर ज्ञानी आध्यात्म वेत्ता विश्व संत श्री आचार्य | नहीं पहुँच सकता था। विद्यासागर जी महाराज का शिष्य बनने का सौभाग्य प्राप्त किया लगभग ढाई माह कैसे निकल गये यह पता ही नहीं और जिन्होंने मुनिधर्म/मुनिचर्या का चट्टान की तरह अडिग | चला और उनकी आत्म चेतना में कर्मों की निर्जरा लगातार चलती रहकर पालन किया और अपने मानवीय जीवन को सफल बनाया। | रही। मुनिश्री जी ने सल्लेखना के समय अपनी सम्पूर्ण देह से १६ अक्टूबर सन् १९९७ शरद पूर्णिमा को परमपूज्य | प्राणों को शनैःशनैः समेट कर केवल आत्म केन्द्रित कर लिया था आचार्य जी के चरणों में उनके ही कर कमलों से दीक्षा पाकर | और जैसे-जैसे उनके जीवन के अंतिम दिन निकट आते जा रहे थे ब्रह्मचारी चन्द्रशेखर का मुनि प्रवचनसागर के रूप में एक साधक | वैसे-वैसे उनकी निजात्मा प्रभु एवं गुरु चरणों में तल्लीनता निरंतर का जन्म हुआ। (जबकि ब्रह्मचर्य व्रत २९ नवम्बर १९८७, | बढ़ती जा रही थी। मुनि श्री आयु एवं शरीर से अवश्य ही युवा थे क्षुल्लक दीक्षा २० अप्रैल १९९६ तारंगाजी एवं ऐलक दीक्षा २९ | परन्तु तपस्या, ज्ञान, साधना में अत्यधिक परिपक्व हो गये थे। दिसम्बर १९९६ जूनागढ़ (गुजरात) में हुई थी) २९ नवम्बर । गुरुवर्य आचार्यश्री ने मुनिश्री प्रवचनसागर जी की आत्मिक १९६० को जन्म लेकर पिता श्री बाबूलाल जी एवं माता श्रीमती | चेतना में तप, ज्ञान, साधना, संयम का जो पौधा रोपा था उस पौधे फूलरानी (बेगमगंज, जिला-रायसेन, म.प्र.) की छत्रछाया में | को मुनिश्री कठिनतम तप/साधना एवं ज्ञान के जल से निरन्तर २७ वर्षों तक उनके मन में उच्चकोटि के साधक बनने की भावना | सींचते रहे जिससे वह पौधा विशाल आकार रूप में पल्लवितपुष्ट होती रही। २९-११-०३ को उनकी पवित्र आत्मा इस नश्वर पुष्पित हुआ और अपनी सौरभ से सभी दिशाओं को सरभित कर देह से मुक्त हुई। मुनि श्री ने लगभग १६ वर्षों में कठिन तपस्या दिया। आचार्य जी ने अपनी कुशल प्रज्ञा रूपी छैनी से एक ऐसी कर अपने अनेक पूर्व भवों के कर्मों का प्रक्षालन कर लिया था | भव्य मूर्ति में प्रवचनसागर जी को गढ़ दिया था जिसमें सत्यम, और अपनी आत्मा को इतना निर्मल स्फटिक जैसा बना लिया था | शिवम, सुंदरम् के दर्शन हो रहे थे। वर्तमान समय में मुनि श्री कि उस आत्मिक चेतना की ज्योति से अनेक प्राणियों ने प्रकाश | प्रवचनसागर जी की सल्लेखना समाधि मरण 'सर्वजन हिताय' - फरवरी 2004 जिनभावित 15 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं 'सर्वजन सुखाय' का संदेश प्रदान करती है जो सभी मानवों पूज्य गरुदेव के श्रीचरणों में प्रतिदिन का बार-बार को एक महनीय, श्लाघनीय एवं अनुकरणीय उदाहरण है। नमोस्तु....' आपकी आज्ञानुसार कटनी तक पहुँच गये हैं, मेरे इस धरा के अद्वितीय सूर्य परम पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर स्वास्थ्य के बारे में महाराज जी ने लिख ही दिया है। कमर के जी गुरुवर्य (वात्सल्यमयी माता) के चरण कमलों में अपने आपको नीचे का भाग शून्य सा हो गया है चार लाइन लिखने में भी कष्ट सम्पूर्ण रूप में समर्पित कर दिया था और तभी से मुनि श्री ज्ञान, का अनुभव कर रहा हूँ। मेरी आपके श्री चरणों में प्रार्थना है मझे तप/साधना एवं मुनिचर्या में ऐसे लिप्त हो गये थे कि उन्होंने अपने पास बुलाकर, मरण को जीतने वाले समाधिमरण पूर्वक इस अपनी आत्मा एवं शरीर को पूरी तरह से अलग-अलग कर लिया | नश्वर देह का विसर्जन आपके ही श्री चरणों में करना चाहता हूँ। था और अपनी आत्मिक चेतना में ऐसे तल्लीन हो गये थे कि पराधीन चर्या कितने दिन तक चलेगी। आशा है मेरी अर्जी स्वीकार शरीर में कुछ व्याधियाँ भी हो रहीं थीं उनका भी उनको आभास होगी। विगत जीवन में किये अपराधों का आपसे एवं वात्सल्य नहीं होता था क्योंकि उनकी आत्मा देह से पूरी तरह से विरक्त हो भाव रखने वाले सभी साधुओं से क्षमा प्रार्थना।' चुकी थी जिससे जीवन के अंतिम क्षणों में भीषण शारीरिक जिनवाणी माता को अपनी आत्म चेतना में पूरी तरह से परिषह को बड़े शांत/गंभीर परिणामों द्वारा सहन किया। उनके आत्मसात कर लिया था। निरन्तर साधना में तल्लीन रहने वाले दर्शन से ऐसा प्रतीत नहीं होता था कि उनको इतना भीषण/असहनीय | मुनिश्री जी की आत्मा पूर्णिमा की धवल चांदनी की तरह देदीप्यमान कष्ट हो रहा है। जब उनके जीवन के कुछ ही दिन शेष थे तब भी | हो रही थी। मनिश्री जिस उद्देश्य का संकल्प लेकर अपने गरुदेव उनका एक-एक क्षण आत्मानुभूति और गुरु चरणों की वंदना करने | के सान्निध्य में आये थे आज उसी साध्य की प्राप्ति हई। में व्यस्त था। उन्होंने सल्लेखना के समय श्री सम्मेदशिखर जी दिव्य आलोक से सुशोभित मुनिश्री जी की पवित्र आत्मा की प्रत्येक टोंक की हाथ में पिच्छी लेकर ३-३ बार आवर्त करके के पावन चरणों में अटट श्रद्धा सहित कोटिशः नमन/वंदन करती भाव वंदना की और अपनी अंतिम श्वांस प्रभु रूपी गुरु चरणों में | हँ एवं मनि श्री जी की भव्य जीवात्मा जहाँ पर भी हो हम श्रावकों समर्पित की। का कल्याण करे। जिस सुपथ/मोक्ष मार्ग की ओर स्वयं बढ़े हमको इस संसार में सब कुछ सुलभ है किन्तु महादुर्लभ है | भी उसी सन्मार्ग की ओर ले जायें और जब तक दिव्य ज्ञान की सुयोग्य पथ प्रदर्शक गुरु का आशीर्वाद। जिस तरह से: प्राप्ति ना हो जाये तब तक अपने आशीर्वाद के आलोक से रहकर भी अपनी किरणों की आभा से कमल खिला देता है उसी प्रकाशित करते रहें जिससे प्रत्येक प्राणी आपका अनुसरण कर तरह से मुनिश्री को अपने गुरुदेव का आशीर्वाद/ऑक्सीजन/प्राणवायु अपने जीवन से कर्मरूपी तम को दूर करने में सफल हो। हम मिल रही थी जिसका परिणाम था कि एक तरफ जहाँ उनके शरीर | सभी की सल्लेखना समाधि भी युगदृष्टा संत शिरोमणि परमपूज्य से असंभव कष्ट था वहाँ दूसरी तरफ इतनी अपूर्व शांति/समता आचार्य श्री विद्यासागर जी के चरण कमलों में हो, यही भावना उनके मुख कमल पर प्रदर्शित हो रही थी। दोनों सीमाएँ अपनी-| नित्य स्मरण करती हैं। जिस प्रकार से ध्रुवतारा दिग्भ्रमित जहाज अपनी पराकाष्ठा का स्पर्श कर रही थीं। जैसे वृक्ष की जड़ अपने को दिशा बोध कराने में सम्बल बनता है उसी तरह से हमारे फूल, पत्ते एवं टहनियों को अप्रत्यक्ष रूप से रस भेजती रहती है गुरुदेव हम सभी भटके मानवों का कल्याण करने में सम्बल बनें, उसी तरह से गुरुदेव अपने सभी शिष्यों की आत्म चेतना में रस यही विनती है, प्रार्थना है। पहुँचा रहे हैं। मुनि श्री प्रवचनसागर जी का जब स्वास्थ्य ज्यादा प्रोफेसर खराब होने लगा तब उन्होंने अपने गुरुवर्य को दो दिन पूर्व पत्र विभागध्यक्ष- अर्थशास्त्र शासकीय कला वाणिज्य महाविद्यालय लिखा, पत्र इस प्रकार था पी.टी.सी. के सामने, परकोटा, सागर (म.प्र.) सानोमय दर | जिनभाषित के लिए प्राप्त दान राशि १. चि. संदीप कुमार एवं आयु.आभा के विवाहोपलक्ष में श्री स्वरूप चन्द्र नरेन्द्र कुमार, रफीगंज (बिहार) द्वारा ५०/- रुपये प्राप्त । २. चि. अमित कुमार एवं आयु. पायल के विवाहोपलक्ष में श्री ताराचन्द्र जैन अडंगाबाद (पश्चिमबंगाल) द्वारा १००/- रुपये प्राप्त । ३. स्व. पं. चुन्नीलाल जी शास्त्री की ६ फरवरी को प्रथम पुण्यतिथि पर श्री अखिल बंसल, दुर्गापुरा, जयपुर (राजस्थान) द्वारा ५०/- रुपये प्राप्त। 16 फरवरी 2004 जिनभाषित -- - Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागम सिंधु : आचार्य श्री विद्यासागर जी डॉ. नीलम जैन प्राची में सूर्योदय होने पर प्रकृति ही नहीं, समस्त जगत | अनुबद्ध एक ऐसा महाकाव्य है जिसके प्रत्येक सर्ग की प्रत्येक हर्ष विभोर हो जाता है, केतकी पुष्प जब खिलता है तब कुंज ही पंक्ति में अहिंसा, मैत्री, उत्कर्ष एवं मानवीय मूल्यों का छलकता नहीं समस्त मधुवन सुवास से महक उठता है और जब किसी | निर्झर है तथा प्रत्येक शब्द में औदार्य एवं माधुर्य की उभरती रेखा असाधारण विभूति का इस धराधाम पर अवतरण होता है तब | है, आज तक इस महाकाव्य को अनेक विश्वविद्यालयों ने अपने केवल एक परिवार ही नहीं सम्पूर्ण विश्वउद्यान ही प्रफुल्लित हो | ग्रन्थागार की शोभा बनाया है तथा शोधार्थियों ने दर्जनों लघु शोध उठता है। लोकसंकट के समय तो ऐसे लोकपुरुष का अवतरण | ग्रंथ, शोधग्रंथ लिखकर पी.एच.डी, डि.लिट् सदृश अकादमिक सत्यत: भीषण धूप में तपते रेगिस्तान में विशाल वृक्ष की सघन उपाधियाँ भी प्राप्त की हैं। दर्जनों काव्य सग्रहों के रचनाकार गुरुवर छाँह तुल्य होती है। स्वयं में विविध उपलब्धियों को संजोये मानवता एवं आध्यात्मिकता आज जब विश्व हिंसा की सर्वग्रासिनी ज्वाला से धधक | का प्रेरक अध्याय हैं। गुरुवर के जीवन के सभी रूप स्वयं विभिन्न और झुलस रहा है। तन्त्र संचालिका राजनीति नाना-भरण भूषिता अनूभूतियों से अनुबद्ध एक महाकाव्य हैं। जिसका प्रत्येक सर्ग नर्तकी की भांति अनृत के मंच पर थिरक रही है, इस आपाधापी चरित्र और साधना की गौरव गाथा है, समर्पण का भाव आपके और स्वार्थ की अंधी दौड़ में ऊपर से सजा इंसान भीतर ही भीतर | जीवन की असाधारण विशेषता रहा है। स्वयं के प्रति समर्पण, खोखला हो रहा है, टूट रहा है, ऐसे में संत शिरोमणि पूज्य | सिद्धान्तों के प्रति समर्पण, अपने गुरु के प्रति समर्पण जीवन आचार्य १०८ श्री विद्यासागर जी महाराज युग संस्थापक, क्रांत | विकास में नाना रूपों में प्रकट हुआ है। आपने अपने गुरु द्वारा द्रष्टा, श्रमण संस्कृति के पुरस्कृता, आत्म संगीत के उद्गाता एवं | गृहीत आशीष सहस्त्र गुणित कर अपने शिष्यों को बांटा है। सत्य के महान अनुसंधानकर्ता बन जीवन मूल्यों को अपने जीवन | आध्यात्म प्रहरी, मुक्ति दूत आचार्य श्री ने युवा शक्ति का में आचरण के स्तर पर उतारकर हमें विजय, उत्कर्ष एवं आत्मोत्थान | संयम क्षेत्र में आह्वान कर ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की अनन्त के मार्गदर्शन बन अवतरित हुए, सुखद संयोग ही है। उनका सम्पदा से जन-जन को लाभान्वित किया। वर्तमान में सर्वत्र अवतरण दिवस रहा भी शरद पूर्णिमा सम्पूर्ण स्निग्ध शुभ्र ज्योतिष्मान | आचार्य श्री के शिष्यों द्वारा धर्म की प्रभावना की पताका फहराई चन्द्रिका सम्पूर्ण गगन मण्डल को तो प्रभामण्डित करती ही है| जा रही है। विराट व्यक्तित्व और उदात्त कृतित्व के धनी, सूक्ष्म किन्तु शरद पूर्णिमा की रात में तो न जाने कितनी आरोग्य वर्द्धिनी | चिन्तक, सत्यद्रष्टा ने श्रुत सम्पन्नता से भी अपने शिष्यों को समृद्ध औषधियों का निर्माण होता है। शीतलता एवं संजीवनी प्रदाता | किया और कर रहे हैं । समग्र धर्मों के प्रति सद्भाव, स्याद्वाद से विश्व वंद्य गुरुवर ने अपने सार्वभौमिक अहिंसात्मक घोष से धार्मिक अनुस्यूत माध्यस्थ भाव गुरुवर ने आगमवाणी को जीवन सूत्र एवं आध्यात्मिक जगतीतल पर शंखनाद किया। बनाकर ज्ञान विज्ञान शास्त्र का गम्भीर अध्ययन किया। दर्शन कीर्तिमय और कीर्तिनीय गुरुवर ने दक्षिण को जन्म से शास्त्र के महासागर में अवगाहन किया। कोई विरल विषय होगा और उत्तर को कर्म से एक सीधी रेखा से जोड़ दिया। क्षेत्रगत | जो उनकी प्रतिभा से अछूता हो। विभिन्न विषयों के ज्ञाता, अन्वेष्टा विषमता, भाषागत विविधता को समन्वय एवं सामंजस्य के सूत्र में | एवं अनुसंधाता पूज्यवर अपार ग्रंथ राशि के पाठक ही नहीं स्वयं पिरोकर दिगम्बर वेश धारण करने वाले पूज्य श्री के सास्वत यश रचनाकार भी हैं। जैन शासन का महान साहित्य आचार्य श्री की की व्यापक प्रसिद्धि में श्रमणत्व के साथ-साथ उनकी विद्वत्ता की मौलिक सूझबूझ एवं अनवरत अध्यवसाय का अमृतफल है। कवि भी समान भूमिका है। रचना सातत्व से समृद्ध उनकी तपःपूत | माघ ने कहा हैलेखनी से माँ जिनवाणी के रचना कोष को विधा-वैविध्य की दृष्टि 'तुंगत्वमितरा नाद्रौ नेदं, सिन्धावगाहता। से समृद्ध करने की दिशा में जो उपादेय कार्य हुआ है वह हम ___ अलंघनीयता हेतुरूभयं तन्मनस्विनी॥' सबके लिए महत्तर सौभाग्य और उच्चतर गौरव का विषय तो है सागर गहरा होता है, ऊँचा नहीं, शैल उन्नत होता है, ही, हिन्दी साहित्य भी उनकी प्रतिभा पर नत शीश है, उनकी गहरा नहीं। अतः इन्हें मापा जा सकता है पर उभय विशेषताओं से सार्वतोमुखी प्रतिभा का प्रतिफलन वस्तुतः विस्मयकारी है, उनकी समन्वित होने के कारण महापुरुषों का जीवन अमाप्य होता है। रचनाओं में भाषा शिल्प, अर्थ बोध, भावाभिव्यक्ति समान रूप से | अपने महामंगल कारक वचन सुमनों से आगम माला की उच्छलित है। उनकी सत्यस्पर्शी स्पष्टोक्तियाँ गम्भीर तत्त्व का सरंचना करने वाले गुरु ज्ञान कणों का अर्जन कर रहे हैं। आचार्य प्रतिपादन, सार्वभौम अहिंसा का संदेश उनके विराट व्यक्तित्व का | श्री ने वर्तमान में जो नेतृत्व श्रमण संघ को दिया वह अद्भुत है, सूचक है। आप सदृश मनीषी संत के अवतरण से सुरभारती भी | सुखद है। उनकी निष्पक्ष धर्म प्रचार नीति, उच्चस्तरीय साहित्य महिमा मण्डित हुई है और प्राकृत, संस्कृत के प्राण पुलक उठे हैं। निर्माण, उदार चिंतन एवं विशुद्ध अध्यात्म भाव ने जनमानस के आपकी कुशल लेखनी से अनेक नये तथ्य अनावृत्त हुए। आपकी | विद्वत्वर्ग को भी अपना चरण-चंचरीक बना दिया है। अपनी काव्य मन्दाकिनी में डबकियाँ लगाने वाला व्यक्ति अलौकिक अमृतमयी वागधारा से मानवता के उपवन को सिंचित कर समद्ध आनंद की अनुभूति करता है। 'मकमाटी' विभिन्न अनभतियों से बनाने वाले गुरुवर के चरणों में कोटि-कोटि नमोऽस्त॥ के.एच., २१६ कविनगर, गाजियाबाद -२०१ ००२ • फरवरी 2004 जिनभाषित 17 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभूतपूर्व अनावश्यक पाप ब्र. शान्तिकुमार जैन कोई एक पाप का काम ऐसा है जो कि भगवान महावीर | नियम भी तुरन्त ले लेते हैं। बड़े लोग नहीं ले पाते। के समय से अब तक २५०० वर्षों में आपके पूर्व पुरुषों में से | कहना यह है कि फिल्म और सीरियल को छोड़कर सब किसी ने भी कभी किया नहीं, और आप भी २५ वर्ष पहले कभी | कार्यक्रम देखना चाहें तो देखिये। इस अनावश्यक भयंकर पाप से करते नहीं थे, तथा वह अत्यन्त ही अनावश्यक पाप है जिसके | तो बचना चाहिये। जो बंध हो रहा है वह तीव्र अनुभाग को लेकर करने से शारीरिक एवं आर्थिक कोई लाभ भी नहीं होता एवं जिस | हो रहा है तो उसका फल भी बड़ा घातक, दुःखदायी भोगना पाप के कारण पाँच पाप व सात व्यसन करने से होने वाले पाप | पड़ेगा। फिर बचने का कोई उपाय नहीं रहेगा। कर्म का बंध होता है। इस प्रकार का एक अभूतपूर्व अनावश्यक | कोई कहे कि एक ही कमरा है। टी.वी. भी चलती है, तो पाप कार्य करने का त्याग आप कर सकते हैं क्या? उसकी तरफ पीठ या पार्श्व भाग में बैठ सकते हैं। देखने की मना उत्तर यह मिलेगा कि ऐसा व्यर्थ का पाप का त्याग करने | ही है, सुनने की अभी छूट रख लेवें। कोई हँसी मजाक भी करे तो में क्या बाधा है ? ऐसा पाप कौन सा है बताया जाय। त्याग कर बड़े गर्व से बोलिये कि हमारा टी.वी.देखने का त्याग है। पाप को दिया जायेगा। छोड़ने में क्या शर्म है। बताने में क्या लाज है। आपके सम्मान से उस पाप को कराने वाले शैतान के डिब्बे का नाम है | वह भी प्रभावित होकर त्याग कर देवें। उस कमरे में आते-जाते टी.वी.। टी.वी. की बीमारी का तो इलाज कथंचित हो सकता है | में पर्दे पर नजर पड़ती जाय तो कोई बात नहीं परन्तु पैर रुकना नहीं पर यह नई बीमारी बुरी तरह से फैल गई है। देखने वाले यह | चाहिए। अनुभव भी करते हैं कि इसका दुष्प्रभाव दिल-दिमाग पर गहरा __ कोई कहे कि फुरसत/अवकाश के दिनों में समय कैसे काटें? पड़ता है, फिर भी इससे बचना नहीं चाहते। तो भाई, आपके पूर्व पुरुष अपना जीवन कैसे बिताते थे। अच्छा टी.वी. देखना एक दम सम्पूर्ण रूप से छोड़ दें तो उत्तम | साहित्य पढ़िये, धर्मध्यान, पूजा-पाठ, माला-जाप, प्रवचन की कैसेट है। अन्यथा कम से कम फिल्म और सीरियल देखना तो पूर्णतया सुनना, तत्त्वचर्चा, बच्चों के साथ मनोरंजन, सुबह-शाम टहलना, छोड़ देना चाहिए। एक कहानी के रूप में जो घटना- दुर्घटना, | हल्के खेलकूद, आसन व्यायाम, इनडोर गेम इत्यादि अनेक प्रकार के अनाचार-व्यभिचार, दु:ख-शोक, बंधन-क्रन्दन, वाद-विवाद, मार- | साधन हैं जिसमें आनन्द लिया जा सकता है, शुभ कार्यों के चिन्तन काट, युद्ध-संघर्ष, हत्या-आत्महत्या, छल-कपट, चोरी-डकैती, | से पुण्य अर्जन कर सकते हैं। अपने जीवन के अनुभवों की पुस्तक अपहरण-आतंकवाद इत्यादि सभी प्रकार के बुरे कार्यों को देखकर | लिखें जो कि नई पीढ़ी के काम आयेगी। पेंटिंग-फोटोग्राफी में रुचि कुशिक्षा मिलती है। दर्शक उस अभिनय के साथ एकमेक होकर | ले सकते हैं। इस अनावश्यक व्यर्थ का पाप कार्य को करते रहना तो कभी रोता है, कभी हँसता है, खलनायक की हार या मृत्यु चाहता | वास्तव में अत्यन्त हानिकारक अनर्थ ही है। है, दृश्य के अनुरुप मानसिक प्रवृत्ति करता है, व्यभिचार के दृश्य | अवकाश के समय को परोपकार, के समय बिजली बन्द हो जाय तो अफसोस करता है कि रोचक | की देखभाल का कार्य तीर्थ यात्रा, सन्तसमागम इत्यादि अनेक दृश्य देखने से छूट गया, देखा नहीं जा सका। अर्थात् उपरोक्त अच्छे कार्यों में लगाकर सातिशय पुण्य उपार्जन कर सकते हैं, सभी कार्यों में दर्शक पूर्णतः स्वाद लेता है। समाज में मान प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकते हैं। छोटे बालक, युवक गंभीर रूप से प्रभावित हो जाते हैं। | टी.वी. देखकर दुःख-शोक करने से तो अच्छा है कि पास उनका अध्ययन बिगड़ जाता है। वैसे घृणित कार्य करने लगते हैं। | पड़ोस में कोई दीन-दुःखी परिवार में आधि-व्याधि ग्रस्त कोई कामवासना के चैनल सहज उपलब्ध हो रहे हैं। अविवाहित | व्यक्ति के पास थोड़ी देर बैठना, दु:ख-दर्द सुनना, उसे धीरज माताओं की संख्या बढ़ती जा रही है। विज्ञान ने सिद्ध किया है कि | दिलाना भी महान कार्य है। इस करुणा भाव से भी अपको बालक-बालिकाओं के मस्तिष्क का विकास एवं यथावत कार्य | अनिवर्चनीय सुख, शांति, संतोष की अनुभूति होगी। प्रणाली बाधित हो जाती है। आँखों की शक्ति खराब हो जाती है। | टी.वी. की फिल्म, सीरियल-धारावाहिक को जहाँ प्रस्तुत समाज में विसम्वाद होते हैं। परिवार में झगड़े होते हैं। दाम्पत्य | किया जा रहा है वहाँ कोई पाप नहीं हो रहा है। वहाँ हत्या, जीवन छिन्न, भिन्न हो जाता है। नाते, रिस्ते टूट जाते हैं। वृद्ध, | व्यभिचार आदि कुछ नहीं हो रहा है । सब कुछ नाटक है, बनावटी अपाहिजों का जीवन नरक बन जाता है। सन्तान से सेवा नहीं | दृश्य उस रूप तैयार किया जाता है। आप व्यर्थ में उन दृश्यों को मिलती। सारा विश्व आज इस छोटे से बक्से से परेशान है। देखकर , कथा के प्रवाह में बहकर पाप के समुद्रों में डूब रहे हैं, विश्व के सभी देश-समाज के संस्कार, संस्कृति बिखरती जा रही | जो कि पहले कभी न तो किया न कभी देखा। पाप मन से होता है है, कोई भी उपचार-प्रतिकार नजर नहीं आता। | तन से हो या नहीं भी हो, पर पाप का बंध तो हो ही जाता है। बच्चों को समझाते हैं तो वे बोलते हैं कि मम्मी-पापा देखते | अतः इस आधुनिक विज्ञान की भयावह मशीन रूपी शैतान के हैं तो हम भी देखते हैं। वे तो दिन-रात देखते हैं हमें तो स्कूल भी | डिब्बे से दूर रहकर अभूतपूर्व अनावश्यक पाप को करने से अपने जाना है, होम वर्क भी करना पड़ता है। एक-दो घंटे समय बांधकर | आप को बचाइये।। 18 फरवरी 2004 जिनभाषित - For Private & Personal. Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा और शरीर की भिन्नता : चिकित्सीय विज्ञान की साक्ष्य भेद विज्ञान जैन धर्म का मूल सिद्धान्त है। जैन धर्म का समस्त दार्शनिक, आध्यात्मिक और धार्मिक चिन्तन ' भेद विज्ञान' पर ही आधारित है। इसी मौलिक मान्यता के आधार पर निम्न निष्कर्ष निकाले गये हैं : १. आत्मा अजर-अमर शास्वत है। शरीर नश्वर है। अत: जैन धर्म पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार करता है। २. आत्मा का मूल स्वभाव ज्ञान, दर्शन और चेतना मय है । ३. आत्मा और शरीर दोनों भिन्न-भिन्न तत्त्व/पदार्थ हैं। ४. आत्मा पूर्णतया निराकार एवं अशरीरी है। इसका अनुभव होता है, किन्तु उसे शरीर के बाह्य चक्षुओं से देखा नहीं जा सकता। न केवल नेत्रों से बल्कि सूक्ष्मातिसूक्ष्म सूक्ष्मदर्शी यंत्र भी इसमें सहायक नहीं हो सकते। ५. आत्मा असंख्यात प्रदेशी है। ६. जब भी आत्मा किसी शरीर को धारण करती है, तब वह उस शरीर के अनुपात से अपने संकोच विस्तार गुण द्वारा उस अनुरूप हो जाती है। ७. आत्मा शरीर के समस्त प्रदेशों में अर्थात् (Cells) कोषों में व्याप्त रहती है। इसी गुण के कारण हमें शरीर के विभिन्न अंगों में दर्द का अनुभव होता है। यह सब संयोगी पर्याय में ही होता है। जब आत्मा पूर्ण रूपेण शरीर मुक्त, कर्म मुक्त हो जाती है तो वह सर्वज्ञता, सर्वशक्ति सम्पन्नता एवं सर्वव्यापकता (सर्वदर्शीपन) से सम्पन्न होकर चिरन्तन सुख में प्रतिष्ठित हो जाती है। इसी अवस्था को जैन दर्शन भगवान, ईश्वर, सर्वशक्ति सम्पन्न, जिनेन्द्र देव अथवा अरिहंत/सिद्ध परमेष्ठी की संज्ञा देता है । आधुनिक शुद्ध विज्ञान 'प्रयोग' विधि पर आधारित है। अर्थात् भौतिकी, रसायन, चिकित्सा विज्ञान, जीवविज्ञान, प्राणी विज्ञान, आदि के सिद्धान्त एवं सूत्र वास्तविक प्रयोगों पर ही निर्भर हैं। जो तथ्य प्रयोग की कसौटी पर खरा उतरता है वह वैज्ञानिक सिद्धान्त बन जाता है। व्यक्तिगत अनुभव- प्रसूत तथ्यों को शुद्ध विज्ञान सैद्धान्तिक ज्ञान नहीं मानता और न ही हमारी प्राचीन परम्परागत मान्यताओं को मान्यता देता है। उन्हें तो कभी-कभी डॉ. प्रेमचन्द्र जैन अन्धविश्वास की संज्ञा दी जाती है। इसके विपरीत सामाजिक विज्ञान (अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, राजनीति विज्ञान, भूगोल आदि) कार्य और कारण के सिद्धांत को स्वीकार करता है। अर्थात् कोई भी कार्य, कारण उपस्थित होने पर ही होता है, बिना कारण के कार्य की निष्पत्ति नहीं होती। ये सामाजिक विज्ञान कार्य और कारण संबंधों का पता लगाने हेतु नियंत्रित प्रयोग भी करते हैं तथा सतत निरीक्षण (Observation) भी । जो पदार्थ उनके निरीक्षण की विषय वस्तु नहीं बन पाते उनके अस्तित्त्व को ही अस्वीकार कर देते हैं । इस संबंध में 'मनोविज्ञान' का एक उदाहरण पर्याप्त है। मनोविज्ञान पहले दर्शनशास्त्र की एक शाखा के रूप में स्थापित था और चूँकि दर्शनशास्त्र - आत्मा-परमात्मा की व्याख्या करता है, अतः मनोविज्ञान को 'आत्मा का विज्ञान' के रूप में अध्ययन किया जाता रहा। अंग्रेजी में मनोविज्ञान को साइकोलॉजी (Psychology) कहा जाता है जो लेटिन भाषा के साइकी-लॉगस से बना है, और लेटिन भाषा में साइकी का अर्थ है, 'आत्मा' लॉगस का अर्थ है 'विज्ञान' या 'शास्त्र' । अतः मनोविज्ञान विषय का मूल ही 'आत्मा का विज्ञान' हुआ । किन्तु आत्मा को दुरुह बताकर एवं प्रयोग से परे बताकर बाद के मनोवैज्ञानिकों जैसे (J.S. Ross) जे. एस. रास आदि ने मनोविज्ञान को मस्तिष्क के विज्ञान की संज्ञा दी क्योंकि आत्मा की अपेक्षा मस्तिष्क का अध्ययन संभव समझा गया। किन्तु जब वैज्ञानिकों को मस्तिष्क का अध्ययन भी कठिन लगा, उस पर प्रयोग संभव नहीं लगा तो बाद के मनोवैज्ञानिकों जैसे वुंट (Woundt) जेम्स (James ) आदि विद्वानों ने मनोविज्ञान की विषय वस्तु मानव चेतना बताई। किन्तु मनोविश्लेषणवादियों जैसे फ्राइड (Fraid ) जुंग (Jung) आदि ने सिद्ध कर यह स्पष्ट कर दिया कि मानव व्यवहार केवल चेतना से ही नहीं अर्द्धचेतन और अचेतन मन से भी प्रभावित होता है, अतः मनोविज्ञान को चेतना का विज्ञान कहना ठीक नहीं है। बीसवीं सदी के आरम्भ में मनोवैज्ञानिकों जैसे पील्सवरी (Pills bury) आदि ने मनोविज्ञान को 'व्यवहार के विज्ञान' की संज्ञा दी क्योंकि मानव व्यवहार प्रत्यक्ष होने से उसका अध्ययन और नियंत्रित फरवरी 2004 जिनभाषित 19 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ sort.' प्रयोग संभव है। और अब वर्तमान समय में मनोविज्ञान को । आत्मा का वैज्ञानिक प्रकरण) से चिकित्सा वैज्ञानिकों के द्वारा सर्वसम्मति से व्यवहार का मनोविज्ञान ही माना जाता है। मनोविज्ञान वास्तविक प्रयोगों पर आधारित अनुभव-प्रसूत कुछ सत्य घटनाएँ के इस समस्त इतिहास पर व्यंग्य करते हुए आर.एस. बुड्सबर्थ ने | एवं तदजनित मान्यताएँ प्रस्तुत हैंलिखा तंत्रिका शल्य चिकित्सा विशेषज्ञ स्पेट्जलर का अनुभव : 'First Psychology lost its soul, then it lost its mind, १९९१ की ग्रीष्म ऋतु में डॉ. स्पेट्रजलर के पास पाम then it lost its consciousness. It has still a behavour of a | रीनोल्ड नाम की ३१ वर्षीय महिला आई जो तीन बच्चों की माँ थी। उसके मस्तिष्क में जीवन को ही संकट में डालने वाला एक (सर्वप्रथम मनोविज्ञान ने आत्मा का त्याग किया फिर उभार (Bulge) था। डॉ. ने उससे कहा कि ऑपरेशन के दौरान मस्तिष्क (मन) का त्याग किया फिर अपनी चेतना छोड़ी और उसके हृदय को रोक देना पड़ेगा, इस समय मस्तिष्क भी निष्क्रिय अब वह व्यवहार के स्वरूप को अपनाता है।) रहेगा। इस तरह समस्त नैदानिक मापदंडों के अनसार वह एक इस तरह मनोविज्ञान जो दर्शनशास्त्र की ही एक विशिष्ट घंटे तक मृत रहेगी। स्वीकृति मिलने पर डॉक्टरों ने ऑपरेशन की शाखा है और दर्शनशास्त्र जिसमें मूलतः आत्मा-परमात्मा के संबंधों तैयारियां की। रोगी महिला को निश्चेतक दिया गया। इस निश्चेतन की व्याख्या होती है, ने आत्मा के अस्तित्त्व को ही नकारना प्रारंभ दशा में डॉक्टरों ने एक मशीन जिसमें से खर-खर ध्वनि निकलती कर दिया। किन्तु पाश्चात्य विश्व के अनेक वैज्ञानिकों/विद्वान | थी, उसकी प्रम (lead) के प्लग रोगी के दोनों कानों में फिट कर मनीषियों ने समय-समय पर आत्मा की सत्ता या चेतना की सत्ता दिये ताकि ऑपरेशन के दौरान रोगी के मस्तिष्क में एक प्रत्यंग सेवा स्वीकार की है भले ही वे प्रायोगिक आधार पर इसे सिद्ध न कर विशेष (brainstem) की क्रियाओं के मापन पर नजर रखी जा सके हों। प.पू. मुनि १०८ श्री प्रमाणसागर जी ने अपने सुविख्यात सके क्योंकि मस्तिष्क का यह प्रत्यंग श्रवण शक्ति को नियंत्रित ग्रन्थ 'जैन धर्म और दर्शन' में इसका उल्लेख किया है। अलबर्ट करने एवं मस्तिष्क की अन्य अनैच्छिक क्रियाओं में महत्वपूर्ण आइन्सटाइन को उद्धृत करते हुए कहा गया है 'मैं जानता हूँ कि भूमिका का निर्वाह करता है। हृदय कि धड़कन, श्वांस, शरीर का सारी प्रकृति में चेतना काम कर रही है।' सर ए.एस. एडिग्टन के तापमान तथा जीवित प्राणी के सभी अन्य चिन्हों का पता लगाने अनुसार 'कुछ अज्ञात शक्ति काम कर रही है, हम नहीं जानते वह के लिये अन्य अतिरिक्त यंत्र लगा दिये गये ताकि ऑपरेशन के क्या है? मैं चैतन्य को मुख्य मानता हूँ, भौतिक पदार्थों को गौण।' | दौरान रोगी के जीवित रूप में होने वाली कोई भी क्रिया-प्रतिक्रिया अन्य विद्वान जे.वी.एस. हेल्डन का कथन है। सत्य यह है कि पर नजर रखी जा सके क्योंकि ऑपरेशन के होते रहते समय रोगी विश्व का मौलिक तत्त्व जड़ (Matter), बल (Force) या में जीवन के चिन्ह नहीं दिखने चाहिये थे। सभी नैदानिक मापदंडों भौतिक पदार्थ (Physical things) नहीं है, किन्तु मन और | के अनुसार उसे मृत ही रखा जाना था अन्यथा ऑपरेशन के दौरान चेतना ही है' सर ऑलीवर लॉज को विश्वास है, 'वह समय | ही उसकी मृत्यु का खतरा था। और तो और उसके सभी अंगों आएगा जब विज्ञान द्वारा अज्ञात विषय का अन्वेषण होगा। विश्व (Limbs) की क्रियाओं का (हलन-चलन) रोक दिया गया था। जैसा कि हम सोचते थे, उससे भी कहीं अधिक उसका आध्यात्मिक उसकी आँखों को स्नेहक (Lubricated) करके बंद कर टेप अस्तित्व है। वास्तविकता तो यह है कि हम उक्त आध्यात्मिक लगाकर सील कर दिया गया था। इस तरह उसका हृदय, फैंफड़े, जगत के मध्य में हैं जो भौतिक जगत से ऊपर है।' श्वांस-प्रच्छवास, आँख, नाक, कान आदि सभी का संचालन बंद अब तो पिछले दशक में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के बहुचर्चित था। चिकित्सा वैज्ञानिकों के अनुभव-प्रसूत तथ्यों ने आत्मा के अस्तित्व __ जैसे ही डॉ. स्पेट्रजलर ने रोगी की खोपड़ी खोलने के को स्वीकार नहीं करने वाले वैज्ञानिकों को चुनौती दी है और उन्हें लिये एक आरी नुमा औजार निकाला तब उसी समय ऐसी अद्भुत अपनी मान्यताओं पर पुनर्विचार करने हेतु वाध्य किया है। अन्तर्राष्ट्रीय घटना घटित हुई जो इससे पूर्व कभी भी रोगी की क्रियाओं को स्तर की एक अंग्रेजी पत्रिका 'रीडर्स डायजेस्ट' (Readers मॉनीटर करने वाले किसी भी अति संवेदनशील प्रणाली पर घटित Digest) के ताजे अंक (अक्टूबर २००३) में प्रकाशित अनीता नहीं हुई थी। रोगी रीनोल्ड को अपने शरीर में एक तड़क का वार्थोलोम्यु (Anita Bartheolomeu) के लेख 'आफ्टर लाइफ, अनुभव हुआ। बाद में उसने बताया कि डॉक्टर स्पेट्रजलर के दि साइंटिफिक केस फॉर दि हयूमन सोल' (मृत्योपरान्त मानव मानव | कन्धों से ठीक ऊपर जहाँ से देख पाना सुविधाजनक था, स्थित 20 फरवरी 2004 जिनभाषित - Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होकर उसने अपने ऑपरेशन को देखा। उसने खोपड़ी खोलने । यह सब मृत-प्राय मस्तिष्क का मतिभ्रम है किन्तु मतिभ्रम तभी वाला वह औजार (आरी) देखा, जो एक विधुत टूथ-ब्रुश के | संभव है जब कि मस्तिष्क कुछ तो क्रियाशील हो और यदि एक समान था। उसने एक महिला की आवाज यह कहते हुए सुनी की | बार सभी प्रयोजनों के लिये मस्तिष्क निष्क्रिय-निर्जीव हो गया है रोगी की रक्त वाहिकाएँ बहुत छोटी (पतली) हैं। रीनोल्ड को तो उस दशा में मतिभ्रम भी संभव नहीं है। ऐसा लगा कि वे लोग उसकी ऊरु-मूल (groin)(जंघा) पर फिर निष्क्रिय मस्तिष्क के होने पर 'मृत्यु निकट अनुभव' शल्य क्रिया करने वाले हैं। उसने सोचा कि यह सही नहीं हो | क्यों? यह प्रश्न वैज्ञानिकों, धर्मविज्ञानियों और सामान्य जनों के सकता, क्योंकि यह तो एक मस्तिष्क की शल्यक्रिया सम्बन्धी | समक्ष अभी भी अनुत्तरित है। यदि मृत्यु एवं जीवन के सम्बन्ध में रोग है, फिर जंघा में शल्य क्रिया कैसी? उसने कल्पना की कि आज के वैज्ञानिकों द्वारा स्वीकृत सिद्धान्त स्वीकार किये जाते हैं तो शायद मस्तिष्क के भीतर की जा रही शल्यक्रिया के कारण उसे उक्त प्रकार की घटनाएँ होनी ही नहीं चाहिए (आधुनिक चिकित्सा मतिभ्रम हो गया होगा। किन्तु यद्यपि उसकी आँखे और कान | नैदानिक मापदंडों के अनुसार हृदय की धड़कन, श्वांस-प्रच्छवास, भली-भांति सील कर बंद कर दिये गये थे तब भी उसने जो देखा | मस्तिष्क की क्रियाशीलता ही जीवन है और इन सबका न रह वही वास्तव में हो रहा था। शल्यक्रिया सम्बन्धी वह आरी विद्युत | जाना मृत्यु है।) अत: कुछ वैज्ञानिकों का तर्क है कि विज्ञान को टूथ-ब्रुश जैसी थी। शल्य चिकित्सक वास्तव में उसकी जंघा | आत्मा की संभावना पर भी विचार/तलाश करना चाहिए। (ऊरु-मूल) पर कार्य कर रहे थे क्योंकि उसके हृदय को एक । जब उक्त लेख के लेखक ने एक ब्रिटिश शोधकर्ता सुसान हृदय फेफड़ा मशीन से जोड़ने के लिये एक नाल-शलाका को ब्लेकमोर (Susan Blackmore) पी.एच.डी.से रीनोल्ड के मृत्यु वहाँ ले जाना था। निकट अनुभव के बारे में पूछा कि इस विषय में उनकी क्या सोच ___ डॉक्टर स्पेट्रजलर ने उसके शरीर से खून बहाते हुए | है ? ब्लेकमोर ने इस प्रश्न का उत्तर ई-मेल से दिया, 'यदि आपके (आपरेशन में खून बहता है) साथी डॉक्टरों को, रीनोल्ड को | द्वारा वर्णित यह घटना सही है तो पूरे विज्ञान का पुनर्लेखन करना गतिविहीन (Stand still) रखने का आदेश दिया। उसके शरीर | होगा' अर्थात् ब्लेकमोर ने उस पूरी घटना को ही सही नहीं माना। में लगे प्रत्येक यंत्र के प्रत्येक पाठ्यांक (reading) के अनुसार | ब्लेकमोर ने अपने शोध ग्रन्थ 'डाइग टू लिव''Dying to रीनाल्ड के शरीर से जीवन निकल चुका था, वह निष्प्राण थी | live' में लिखा है कि मृत्यु पूर्व अनुभव सुरंग में यात्रा करना आदि अर्थात् जीवित अवस्था में होने वाली सभी बाहृय और आन्तरिक | जैसे अनुभव और शरीर से बाहर के अनुभव कुछ मनोवैज्ञानिक क्रियाएँ समाप्त हो चकी थी। तब भी उसने अपने आपको एक | घटनाओं/कारणों से हो सकते हैं। मस्तिष्क की शल्य क्रिया के सुरंग के जरिये प्रकाश की तरफ यात्रा करते हुए पाया। उस सुरंग | दौरान स्थानीय निश्चेतक की अवस्था में कभी-कभी रोगी शरीर के अंतिम छोर पर उसने उसकी बहुत पूर्व मृत दादी, अन्य से बाहर अनुभव 'out of body experience' सूचित करते हैं। रिश्तेदार और मित्रों को देखा। ऐसा लगा कि मानो समय रूक गया | इसी प्रकार के अनुभव कुछ अन्य लोग, हशीश और अन्य निश्चेतक है। तब उसके एक चाचा ने उसे उसके शरीर तक वापस पहुँचाया | लेने के प्रभाव में रहते समय भी करते हैं। इस प्रकार के अनुभव और उससे वापस होने को कहा। इस समय उसे ऐसा लगा मानो | चाहे वे किसी भी प्रकृति के हों और कितने भी वास्तविक लगें पर वह वर्फ सम शीतल जल में गोता लगा रही हो। और वापस आने | वे मृत--प्राय मस्तिष्क (dying brain) के साथ प्रारंभ होते हैं और के बाद (ऑपरेशन के बाद) उसने डॉक्टर से वह सब कहा जो | उसी के साथ समाप्त भी हो जाते हैं। पर जब मस्तिष्क पुनः उसने देखा तथा अनुभव किया था। ऐसी घटना/घटनाओं को | क्रियाशील हो जाता है तब भी वे क्यों स्मरण में रहते हैं, यह वैज्ञानिकों ने एन.डी.ई. (Near-Death experience) अर्थात् | अभी भी अनुत्तरित है? मृत्यु निकट अनुभव नाम दिया है। क्रमश ..... पहले तो वैज्ञानिकों ने इस प्रकार की घटनाओं को निरस्त निदेशक, जवाहर लाल नेहरु कर दिया। परम्परागत चिकित्सा स्पष्टीकरण यह दिया गया कि स्मृति महाविद्यालय, गंजबासौदा -फरवरी 2004 जिनभाषित 21 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'छत्तीसगढ़ में प्राचीन जैन प्रतिमाएँ' डॉ. रामगोपाल शर्मा जैन धर्म भारत का प्राचीन धर्म है। कुछ विद्वानों ने सम्राट अशोक को भी प्रारंभ में जैन धर्म का अनुयायी माना है। खण्डगिरि एवं उद्यगिरि की गुफाओं में बहुत सी प्रारंभिक काल की जैन मूर्तियाँ हैं । भारतीय संग्रहालयों, यूरोप एवं अमेरिका के संग्रहालयों तथा कई निजी संग्रहालयों में भी जैन प्रतिमायें सुरक्षित हैं। प्राचीन जैन साहित्य के अनुसार इस धर्म के प्रवर्तक ऋषभनाथ हैं जिन्हें आदिनाथ भी कहा गया है ये ईसा से भी सहस्रों वर्ष पूर्व हुए थे । छत्तीसगढ़ में जैन धर्म छत्तीसगढ़ जिसे दक्षिण कोसल एवं अन्य कई नामों से समय-समय पर जाना गया है, यहाँ के शासकों ने प्राचीन काल से ही सर्व धर्म समन्वय की नीति अपनाई है। यद्यपि ये शासक शैव, शाक्त एवं वैष्णव धर्मावलंबी थे किंतु उन्होंने भारत में प्रचलित सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता प्रदर्शित की। जैन धर्म का प्रसार छत्तीसगढ़ के भू-भाग में लगभग छठवीं शताब्दी ई. में हो गया था। आरंग में छठवीं, सातवीं शताब्दी ई. की जैन प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं। धनपुर में ८ वीं - ९वीं ई. की निर्मित तीर्थंकर प्रतिमाएँ मिली हैं। सिरपुर, मल्हार, रतनपुर में भी जैन, देव प्रतिमाएँ मिली हैं। आरंग का ९ वीं, १० वीं ई. का जैन मंदिर महत्वपूर्ण है । बिलासपुर संभाग में सक्ती तहसील में 'गुंजी' नामक स्थान में तीसरी शताब्दी ई. का एक लेख चट्टान पर अंकित है। इस लेख में 'ऋषभतीर्थ' का उल्लेख है एवं विद्वानों ने गुंजी को ही ऋषभतीर्थ माना है। संभवतः तीर्थंकर ऋषभनाथ के नाम पर ही इसे ऋषभतीर्थ कहा गया है। इस प्रकार जैन धर्म का प्रसार इस छत्तीसगढ़ क्षेत्र में अवश्य था एवं यहाँ के विभिन्न स्थानों में प्राचीन एवं मध्यकाल की निर्मित जैन प्रतिमाएँ इसका सबल प्रमाण हैं । छत्तीसगढ़ के विभिन्न स्थानों में प्राचीन जैन प्रतिमायें इस प्रकार मिली हैं रतनपुर - यहाँ के बड़े पुल पर बहुत सी प्राचीन प्रतिमाएँ थीं उन्हें कुछ समय पूर्व निकाल कर बिलासपुर पुरातत्व कार्यालय में रखा गया है इन्हीं में एक जैन तीर्थंकर प्रतिमा थी जो खड़ी हुई है। रतनपुर के कंठी देवल मंदिर से भी कलचुरी कालीन दो तीर्थंकर प्रतिमाएँ मिली थी जो बिलासपुर या रायपुर के संग्रहालय में हैं। मल्हार - मल्हार में बुढ़ीरवार के पास जैन धर्म से संबंधित प्रतिमायें हैं, जिनमें तीर्थंकरों की आसनस्थ एवं कायोत्सर्ग मुद्रा की प्रतिमायें हैं। इनके अतिरिक्त ग्राम के कुछ मकानों, पीपल चौरा, नंद महल आदि स्थानों में भी प्रतिमायें हैं । 22 फरवरी 2004 जिनभाषित पार्श्वनाथ यह प्रतिमा ध्यानस्थ मुद्रा में है। आसन पीठ पर स्वस्तिक चिन्ह है। दोनों पाश्र्व में परिचारक है । त्रिछत्र के ऊपर गजाभिषेक का सुंदर अंकन है । यह काले ग्रेनाइट की है। यह प्रतिमा नंद महल (केवट पारा) में सुरक्षित है। नौ तीर्थंकर यहीं पर अर्ध वृत्ताकार चैत्ययुक्त एक अन्य कलात्मक फलक है। इसमें नौ तीर्थंकरों को एक साथ प्रदर्शित किया गया है, जिनमें मध्य तथा बाहय पाश्र्वों में ध्यानस्थ तीन तीर्थंकर एवं बाकी छः तीर्थंकर स्थानक मुद्रा में है। इस पाषाण फलक में छत्र, मकरमुख, प्रभा मंडल आदि का सुंदर अलंकरण है। ऋषभनाथ यह प्रतिमा ध्यानस्थ मुद्रा में है। दोनों पाश्र्व में कायोत्सर्ग मुद्रा में अन्य तीर्थंकर प्रतिमाएँ हैं। ऊपरी भाग में विद्याधर तथा आसन के नीचे 'वृषभ' का अंकन है। संभवनाथ यह प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में है। सिर के पार्श्व में छत्रत्रय है, उसके ऊपर कलश एवं गजाभिषेक का अंकन है। नीचे परिचारक एवं यक्ष यक्षिणी युगल अंकित हैं। मल्हार के संग्रहालय एवं संग्रहालय प्रांगण में तीर्थंकरों की प्रतिमायें, यक्ष-यक्षियों एवं अंबिका की कुछ प्रतिमायें भी संग्रहीत हैं । यक्षिणी प्रतिमा संग्रहालय में यक्षिणी प्रतिमा चतुर्भुजी है, हाथों में कपाल दंड, त्रिशूल, कमलपुष्प एवं बीज पूरक हैं। सिर पर प्रभामंडल का चक्र है। तीन फणों के सर्प का छत्र है बाँयी ओर नीचे एक पक्षी की आकृति है । यह पद्मावती की प्रतिमा हो सकती है। धर्म का प्रसिद्ध स्थल रहा होगा। यहाँ मिली उपरोक्त प्रतिमाएँ एवं इस प्रकार मल्हार एवं बूढ़ीखार क्षेत्र प्राचीन काल में जैन ग्रामीण अंचल में मिलने वाली प्रतिमाओं के अतिरिक्त कई ऐसे शिला पट्ट भी हैं जिन पर चौबीस तीर्थंकर खड़े हुये एक साथ प्रदर्शित किये गये हैं । ये सभी ८ वीं से १२ वीं ई. की प्रतिमायें हैं। धनपुर (बिलासपुर की प्रतिमायें ) बिलासपुर से लगभग १२३ कि.मी. दूर धनपुर है तथा पेंड्रा के उत्तर में लगभग १६ कि.मी. पर है। कनिंघम की मान्यता है कि यह नगर नवमी शताब्दी का लगभग एक महत्वपूर्ण जैन केन्द्र रहा है। यहाँ सोमनाथ तालाब के किनारे आज भी असंख्य जैन प्रतिमाएँ संग्रहीत हैं किंतु ये अधिकांश खंडित हैं । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर धनपुर में बड़का टोला क्षेत्र में गोरा तालाब के पास एक बड़ा | बिलहरी एवं कारी तलाई (जबलपुर जिला) से लाई गई है। टीला है जिसमें विशाल मंदिर के अवशेष दबे हैं। इसी प्रकार भौंहारा विशेष - ऋषभनाथ ने घोर तपस्या की थी अतः लंबे तालाब के उत्तर में लगभग एक कि.मी. दूर छोटे-छोटे टीले हैं इनमें समय तक तपस्या रत होने से उनके बाल बहुत बढ़ गये थे। अतः प्रत्येक टीले में मंदिर के अवशेष दबे होने की संभावना है। बेंगलर ने | उनकी कुछ प्रतिमाओं में कंधे पर लटकते हुये बाल भी प्रदर्शित अपनी १८७३-७४ की रिपोर्ट में इन टीलों में से एक में छः मंदिर | किये गये हैं। इनका चिन्ह (लांछन) वृष है, यक्ष गोमुख एवं एवं इसके पश्चिम में आधा कि.मी. दूर एक टीले में चार मंदिर और | यक्षी चक्रेश्वरी है, जिनके हाथों में चक्र रहता है। उसके आसपास अन्य मंदिरों की चर्चा की है। इनमें से सभी नहीं तो अन्य तीर्थंकर प्रतिमाएँ अधिकांश मंदिर जैन मंदिर प्रतीत होते हैं। संग्रहालय में कारीतलाई की कुछ और प्रतिमाएँ भी हैं, धनपुर में प्राप्त जैन प्रतिमायें इस प्रकार हैं जिनमें दो-दो तीर्थंकर कायोत्सर्ग आसन में ध्यान मुद्रा में हैं। इनमें महावीर उनके चिन्ह भी प्रदर्शित हैं। इन प्रतिमाओं में सफेद बलुये पत्थर भगवान महावीर की दो प्रतिमाएँ यहाँ मिली हैं यद्यपि ये की जो जोड़ियाँ तीर्थंकरों की हैं वे इस प्रकार हैं। १. ऋषभनाथ खंडित स्थिति में मिली हैं, कायोत्सर्ग मुद्रा में सोमनाथ तालाब के एवं अजितनाथ, २. धर्मनाथ एवं शांतिनाथ, ३. पुष्पदंत एवं पास ये हैं। चौबीसवें तीर्थंकर महावीर की प्रतिमा के आसनपट्ट शीतलनाथ ये लगभग १०७ से.मी. ऊँची हैं। इन्हीं के साथ लाल के मध्य में सिंह मुख अंकित है। चरण चौकी के नीचे यक्षी, बलुये पत्थर की १३८ से.मी. ऊँची एक और जोड़ी अजितनाथ सिद्धायनी है, इनके दोनों ओर एक-एक सिंह है। महावीर के । | एवं संभवनाथ वाली प्रतिमा की है। दाहिनी ओर मातंग है। यह लगभग ८ वीं- ९ वीं सदी की है। दूसरी प्रतिमा भी कायोत्सर्ग मुद्रा में लंबे कर्ण एवं धुंघराले संग्रहालय में एक प्रतिमा चौबीसवें तीर्थंकर महावीर की केशों वाली है। है जो बुद्ध के समाक़ालीन है। इनका चिन्ह सिंह है। इस प्रतिमा महावीर में ये ऊँचे सिंहासन पर पद्मासन में ध्यानस्थ हैं। इनकी छाती पर महावीर की एक और प्रतिमा, दुर्गा मंदिर के पास है यह श्रीवत्स चिन्ह अंकित है। ध्यानस्थ मुद्रा में है। सिर पर त्रिछत्र है वक्ष पर श्री वत्स अंकित है अंबिका आसन पट्ट के नीचे शासन देवी सिद्धायनी है। आसनपट्ट पर सिंह संग्रहालय में अंबिका की दो प्रतिमायें हैं। एक में वे सिंह मख भी है। दाहिने पार्श्व में मातंग एवं नीचे उपासक दिखाये गये | पर ललितासन में बैठी हैं एवं एक में आम वृक्ष ने नीचे खड़ी हैं। हैं। त्रिछत्र के दोनों तरफ मालाधारी विद्याधर युगल हैं। ये तीर्थंकर नेमिनाथ की यक्षी हैं। पार्श्वनाथ सर्वतो भद्रिका पार्श्वनाथ की एक प्रतिमा पेंड्रा हाई स्कूल के प्रांगण में संग्रहालय में जैन धर्म की एक ऐसी प्रतिमा भी है जिसे एक चबूतरे पर ध्यानस्थ मुद्रा में है। मस्तक के पीछे सात फणों का | किसी भी दिशा से देखने पर तीर्थंकर के दर्शन होते ही हैं। इस छत्र तथा आसन पट्ट के दोनों तरफ सिंह प्रदर्शित हैं। इनके दोनों | प्रतिमा में ऋषभनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ एवं महावीर ये चार पार्श्व में क्रमशः धर्मेन्द्र, ईशानेन्द्र, धरणेन्द्र एवं पद्मावती को | तीर्थंकर प्रदर्शित किये गये हैं। दिखाया गया है। त्रिछत्र के दोनों तरफ हाथियों के नीचे मालाधारी सिरपुर में गंधर्व युगल हैं। जैन धर्म के प्राचीन अवशेष सिरपुर में भी मिलते हैं। रायपुर के संग्रहालय में वेंगलर ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि किले के पास एक जैन रायपुर के संग्रहालय में जैन धर्म से संबंधित प्रतिमायें इस | मंदिर के अवशेष जिसके नारों ओर जैन मंत्री भारतियाँ प्रकार हैं इसे जैन विहार होना बताती हैं। पार्श्वनाथ सिरपुर संग्रहालय में जैन धर्म संबंधी प्रतिमायें सुरक्षित हैं। यह प्रतिमा पद्मासन में ध्यानस्थ मुद्रा में है एवं तेइसवें राजिम एवं धमतरी में - राजिम की वर्तमान बस्ती के जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ की है। यह सिरपुर से मिली थी जो संग्रहालय | उत्तर में कुछ दूर नदी तट से कुछ हटकर सोमेश्वर महादेव मंदिर रायपुर में रखी गई है। यह छत्तीसगढ़ के सोमवंशी शासकों के है। इस मंदिर के प्रांगण में जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ की प्रतिमा है। काल की है। तीर्थंकर के सिर पर सप्तफणों वाले सर्प का छत्र है। यह कुंडलित नाग पर पद्मासन में बैठी मुद्रा में है। इनके सिर पर सप्त फण वाले नाग की छत्र छाया है। अधोभाग पर मध्य में चक्र ऋषभनाथ है। इनके दोनों पावों में एक दूसरे की ओर पीठ किये हुये सिंह जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ को आदिनाथ भी | की मूर्तियाँ हैं। तीर्थंकर के दोनों पार्यों में एक-एक परिचारिका कहा जाता है। संग्रहालय में ऋषभनाथ की सुंदर प्रतिमा है जो । -फरवरी 2004 जिनभाषित 23 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। ऊपर माला लिये हुये गंधर्वो की मूर्तियाँ हैं। दुर्ग जिले के पास नगपुरा ग्राम में भगवान पार्श्वनाथ की धमतरी में प्राचीन किले के क्षेत्र में (अब तो किले के | एक भव्य प्रतिमा मिली है। यहाँ सभी धर्मावलंबी इनकी पूजा अवशेष एवं खाइयाँ भी समाप्त हो गई हैं) किले का हनुमान मंदिर करते हैं। राष्ट्रीय राजमार्ग क्र. ६ पर कठवा पुलिया में कई जैन एवं उसी के पास प्रसिद्ध जैन मंदिर है। प्रतिमायें जड़ी हुई हैं। इसी मार्गपर मरकाटोला पुलिया में भी जैन बस्तर क्षेत्र में प्रतिमायें हैं। बस्तर क्षेत्र में भी लगभग दसवीं-ग्यारहवीं ई. में जैन धर्म संदर्भ सूची के इस क्षेत्र में विस्तृत होने के प्रमाण मिलते हैं। १. बस्तर का मूर्ति शिल्प विवेकदत्त झा १९८९ - पृ. १११ एक आधुनिक देव मंदिर में ग्यारहवीं सदी की ऋषभनाथ | २. छत्तीसगढ़ दर्पण डॉ. रामगोपाल शर्मा २००१ पृ.१ की दो भुजाओं वाली पद्मासन मुद्रा की प्रतिमा है। ध्यानमुद्रा में | ३. प्राचीन छत्तीसगढ़ प्यारेलाल गुप्त, रविशंकर वि.वि. प्रकाशन हैं एवं वक्ष पर श्रीवत्स चिन्ह है पीठासन पर बैठा हुआ वृषभ है। पृ. २११ दो ओर भरत एवं बाहुबली एवं आसन के नीचे सिंहों के मध्य | ४. बिलासपुर अंचल के दो महत्वपूर्ण गढ़- लाकागढ़ और चक्र है। गजाभिषेक का भी अंकन है। पेण्ड्रागढ़-पी-एच.डी.शोध प्रबंध तरु तिवारी १९९७ पृ. राबर्ट्सन बिल्डिंग जगदलपुर के पास एक मंदिर में खंडित | | २१५ (अप्रकाशित) प्रतिमा है इसमें लांछन तो नहीं दिखता किंतु आसन के नीचे दो | ५. मल्हार का स्थापत्य कला में योगदान लघुशोध प्रबंध राकेश सिंहों के बीच धर्मचक्र स्पष्ट है अत: यह ऋषभनाथ प्रतिमा हो। कुमार बेले (अप्रकाशित १९८४-८५ पृ. ७१) सकती है। ६. मल्हार स्थल सर्वेक्षण द्वारा __बारसूर में पार्श्वनाथ की एक प्रतिमा गढ़ बोधरा में दूसरी | ७. लघुशोध प्रबंध बेले उपरोक्त पृ. ७१ प्रतिमा मिली है। धारसूर की प्रतिमा में सात फणों का छत्र है । | ८. स्थल सर्वेक्षण द्वारा गढ़ बोधरा की प्रतिमा पद्मासन में है ये ग्यारहवीं सदी की है। । ९. मल्हार दर्शन रघुनंदन प्रसाद पाण्डेय, कृष्ण कुमार त्रिपाठी पृ. ३४ केसरपाल में पद्मावती की एक चतुर्भुजी प्रतिमा है, सिर | १०. वही ----------- पृ ४३ पर सर्प फण है, नीचे पैर के पास मुर्गा अंकित है। ये पार्श्वनाथ | ११. रिपोर्ट आफ ए टूर इन दि सेंट्रल प्राविंसेस ए कनिंधम की यक्षिणी है। १८७३-७४ पृ. २३७-३८ कांकेर के राजापारा में अंबिका की चतुर्भुजी प्रतिमा पदमासन १२. म.प्र. जिला गजेटियर बिलासपुर, हिंदी संस्करण १९९२ पृ. ४८७ मुद्रा में हैं। इनके हाथों में आम फलों का गुच्छा, अंकुश, पाश एवं १३. बिलासपुर जिला गजेटियर १९०९ पृ. २६५-२६६ शिशु का अंकन है ये नेमिनाथ की यक्षिणी हैं। १४. पी.एच.डी. शोध प्रबंध तरु तिवारी पूर्वोक्त प. २८२ कवर्धा क्षेत्र में १५ स्थल सर्वेक्षण द्वारा १६. महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय पुरातत्व उपविभाग प्रादर्शिका डॉ. सीताराम शर्मा ने पश्चिम दक्षिण कोसल की कला पर शोध किया है उन्होंने भोरमदेव क्षेत्र एवं कवर्धा में जैन १९६० रायपुर पृ. २० १७. संग्रहालय रायपुर सर्वेक्षण प्रतिमाओं का उल्लेख किया है। उनके अनुसार इस क्षेत्र के प्रायः सभी कला केन्द्रों में जैन प्रतिमायें देखने में आती हैं। इनमें एक मुख्य विशेषता यह है कि अन्य धर्मों की प्रतिमाओं के मध्य ये १९. आर्कियालाजिकल सर्वे रिपोर्ट भाग-७ बेगलर पृ.१८६-१९३ २०. राजिम डॉ. विष्णुसिंह ठाकुर म.प्र. हिंदी ग्रंथ अकादमी जैन प्रतिमायें भी अधिष्ठित हैं। इससे यह पता चलता है कि उस काल के शासकों एवं समाज में धार्मिक सहिष्णुता की प्रवृत्ति थी। १९७२ पृ. ११३ गंडई के पास घुटियारी मंदिर परिसर में जैन प्रतिमायें हैं, २१. बस्तर का मूर्ति शिल्प डॉ. विवेक दत्तझा अभ्युदय प्रकाशन जो कायोत्सर्ग मुद्रा में है। गंडई के किरीत बाँस ग्राम में एक खेत ___ भोपाल १९८९ पू. १११ २२. छत्तीसगढ़ वैभव (अप्रकाशित) डॉ. रामगोपाल शर्मा प्र. २१० में महावीर की प्रतिमा मिली है। २३. भोरम देव क्षेत्र पश्चिम दक्षिण कोसल की कला डॉ. सीताराम बिलासपुर के पंडरिया के जैन मंदिर में पार्श्वनाथ की शर्मा मार्च १९९० संस्करण - पृ. १६०-१६१ प्रतिमा प्रतिष्ठित है यह प्रतिमा कवर्धा के ग्राम बकेला की सीमा में २४. ---- वही ---- पृ. १६१ प्राप्त हुई थी। इतिहास विभाग भोरम देव मंदिर के प्रांगण एवं परिसर में जैन तीर्थंकरों की सी.एम.डी. स्नातकोत्तर महाविद्यालय प्रतिमायें हैं, यद्यपि इनमें अधिकांश खंडित स्थिति में हैं। बिलासपुर (छत्तीसगढ़) तारा १८. वही 24 फरवरी 2004 जिनभाषित Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिज्ञासा - समाधान प्रश्नकर्ता श्री सविता जैन, नन्दुरवार जिज्ञासा- तीर्थंकरों को मन:पर्ययज्ञान कब होता है ? समाधान- मन:पर्ययज्ञान गृहस्थ अवस्था में नहीं होता । यह छठे से १२ वे गुणस्थानवर्ती मुनियों के ही पाया जाता है 'देखें धवला पुस्तक १ पृष्ठ ३६६ ' अतः तीर्थंकरों के गृहस्थ अवस्था में मन:पर्ययज्ञान नहीं होता। श्री उत्तरपुराण पृष्ठ २३ पर इस प्रकार कहा है दीक्षां षष्टोपवासेन जैनीं जग्राह राजभिः । सहस्त्रसंख्यैर्विख्यातैस्तादाप्तज्ञानतुर्यकः ॥ ५३ ॥ अर्थ- तीर्थंकर अभिनन्दन नाथ ने वेला का नियम लेकर एक हजार प्रसिद्ध राजाओं के साथ जिनदीक्षा धारण कर ली। उसी समय उन्हें मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया । इस आगम प्रमाण से स्पष्ट है कि तीर्थंकरों के दीक्षा लेते ही मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हो जाता है। इतना विशेष है कि सप्तम गुणस्थान होने के साथ ही मन:पर्ययज्ञान नहीं होता क्योंकि मन:पर्ययज्ञान से पूर्व अन्तर्मुहूर्त काल तक सकल संयम की साधना आवश्यक निमित्त है। जिज्ञासा- क्या उपशम श्रेणी पर चढ़ा जीव मरण को प्राप्त हो सकता है। जबकि मरण तो केवल १-२ और ४ गुणस्थान ही है तथा क्या ऐसे मुनिराज मरण कर अनुदिश व अनुत्तरों में ही जन्म लेते हैं या अन्य स्वर्गों में भी ? समाधान- किन गुणस्थानों में मरण नहीं होता, इस संबंध में गोम्मटसार कर्मकाण्ड में इस प्रकार कहा है मिस्साहारस्स य खवगा चडमाडपढमपुव्वा य । पढमुवसम्मा तमतमगुडपडिवण्णा य ण मरति ॥ ५६०॥ अणसंजोजिदमिच्छे मुहुत्तअंतं तु णत्थि मरणं तु । किद करिणिज्ज जाव दुसव्वपरट्ठाण अट्ठपदा ॥ ५६१ ॥ अर्थ- मिश्रगुणस्थानवर्ती, आहारक मिश्र काययोगी, क्षपक श्रेणी वाले, उपशम श्रेणी चढ़ते हुए, अपूर्वकरण गुणस्थान के प्रथम भागवर्ती, प्रथमोपशम सम्यक्तवी, सप्तम नरक के द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीव मरण को प्राप्त नहीं होते । अनन्तानुबंधी का विसंयोजन कर मिथ्यात्व को प्राप्त जीव का अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त मरण नहीं होता तथा दर्शनमोहनीय का क्षय करने वाला जीव कृत-कृत्य वेदी होने तक मरण को प्राप्त नहीं होता। पं. रतन लाल बैनाड़ा उपरोक्त प्रमाण के अनुसार उपशम श्रेणी चढ़ने वाले जीव, अपूर्वकरण के प्रथम भाग में मरण को प्राप्त नहीं होते, उपशम श्रेणी में अन्यत्र मरण संभव है । इसीलिए तो श्री धवला पु. २, पृष्ठ ४३० पर इस प्रकार कहा है चारित्तमोहउवसामगा मदा देवेसु उववज्जंति । अर्थ- चारित्रमोह का उपशम करने वाले जीव मरते हैं तो देवों में उत्पन्न होते हैं। कुछ महानुभावों की ऐसी धारणा है कि ऐसे मुनिराज मरण समय चौथे गुणस्थान को प्राप्त होकर शरीर छोड़ते हैं। पर वह धारणा ठीक नहीं है। उपरोक्त कर्मकाण्ड की गाथा के अनुसार उपशम श्रेणी के गुणस्थानों में मरण होना यह बताता है कि वे मुनिराज अंतिम समय तक उसी गुणस्थान में रहते हैं अर्थात् मनुष्य पर्याय के अंतिम समय तक तो उपशम श्रेणी के उसी गुणस्थान में रहते हैं और अगले समय में अर्थात् देवायु के प्रथम समय से (विग्रहगति में भी) चतुर्थ गुणस्थान में आ जाते हैं। उपशम श्रेणी में मरण करने वाले जीव उत्कृष्ट से सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त अनुत्तर विमानों में और जघन्य से, सौधर्म, ईशान स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं । तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ९, सूत्र ४७ की व्याख्या करते हुए आचार्य पूज्यपाद ने कषाय कुशील एवं निर्ग्रन्थों का उपपाद (जन्म) उत्कृष्ट से सर्वार्थसिद्धि और जघन्य से सौधर्मकल्प के देवों में लिखा है। उक्तं च 'कषाय कुशीलनिर्ग्रन्थयोस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपम-स्थितिषु सर्वार्थसिद्धौ । सर्वेषामपि जघन्यः सौधर्मकल्पे द्विसागरोपमस्थितिषु ।' यह भी विशेष है कि कुछ स्वाध्यायीजन तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ९, सूत्र ४६ 'पुलाकवकुशकुशीलनिर्ग्रन्थस्नातकाः निर्ग्रन्थाः ' का अर्थ करते समय १२वें गुणस्थानवर्ती क्षीणकषाय क्षपकों को ही निर्ग्रन्थ के अन्तर्गत मानते हैं। वह मानना उचित नहीं है । ११ वें तथा १२ वें दोनों गुणस्थानवर्ती मुनिराज निर्ग्रन्थ के अन्तर्गत मानना योग्य है। क्योंकि जब आ. पूज्यपाद ने उपरोक्त टीका में निर्ग्रन्थों के उपपाद का वर्णन किया है, तो वह उपपाद मात्र ११ वें गुणस्थानवर्ती उपशांत मोह मुनिराजों का ही संभव है। क्षीणमोह १२ वें गुणस्थानवर्ती मुनियों का तो उपपाद होता ही नहीं, मात्र निर्वाण होता है । प्रश्नकर्ता - कामताप्रसाद जैन, मुज्जफरनगर जिज्ञासा - तिर्यंचनी, मनुष्यनी तथा देवियों को अवधिज्ञान फरवरी 2004 जिनभाषित 25 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है या नहीं? त्रसभावयोग्या ये न भविन्त ते नित्यनिगोताः।' अर्थ जो कभी त्रस समाधान- तत्त्वार्थसूत्र अध्याय १/२२ 'क्षयोपशम निमित्तः | पर्याय को प्राप्त करने के योग्य नहीं होते वे नित्य निगोद हैं। षड़विकल्प: शेषाणाम' धवला पुस्तक १४ में इस प्रकार कहा है- तथ्य णिच्च निगोदा अर्थ-क्षयोपशम निमित्तक अवधिज्ञान छै प्रकार का है जो | णाम जे सव्वकालम् णिगोदेसु चेव अच्छन्ति ते णिच्च णिगोदा तिर्यंच और मनुष्यों के होता है । इस सूत्र के अनुसार तिर्यंचनी एवं णाम अर्थ- जो सदा निगोदों में ही रहते हैं वे नित्य निगोद हैं। मनुष्यनी 'द्रव्यस्त्रीवेदी तिर्यंच एवं मनुष्य के क्षयोपशम निमित्तक अर्थात् जो आज तक निगोद से नहीं निकले हैं और आगे अवधिज्ञान होता है। जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश पृष्ठ १७५ पर पंचेन्द्रिय | भी नहीं निकलेंगे उनको नित्य निगोदिया या अनादि अनन्त निगोदिया तिर्यंच योनिमति की सतप्ररुपणा में अवधिज्ञान बताया गया है। जीव कहते हैं। इससे स्पष्ट है कि तिर्यंचनी के अवधिज्ञान होता है। मनुष्यनियों में | २. अनित्य निगोद - त्रसभावमवाप्ताअवाप्यस्यन्ति च ये सुलोचना आर्यिका को अवधिज्ञान शास्त्रों में वर्णित है। ते अनित्यनिगोताः र्वगों में सभी देव और देवियों के भवप्रत्यय अवधिज्ञान | अर्थ- जिन्होंने त्रस पर्याय पहले पाई थी अथवा पायेंगे वे होता ही है। सम्यग्दृष्टि देव देवियों के अवधिज्ञान और मिथ्यादृष्टियों | अनित्य निगोद हैं। के विभंगावधिज्ञान होता है। भावार्थ- जिन्होंने निगोद वास छोड़कर अन्य जीवों में जिज्ञासा- मारणान्तिक समुद्घात सब जीवों के होता है | जन्म ले लिया है और पुनः निगोद में आ गए हैं वे चतुर्गति निगोद या कुछ के? या इतर निगोद कहलाते हैं और जो अभी तो निगोद में हैं परन्तु समाधान- गोम्मटसार जीवकाण्ड की गाथा ५४४ की | आगे कभी निगोद से निकलकर अन्य जीवों में जन्म धारण करेंगे, टीका में इस प्रकार कहा गया है- सौधर्मद्वयजीवराशौघना गुल | वे अनित्य निगोदिया या अनादि सान्त अनित्य निगोदिया कहलाते तृतीय मूलगुणितजगच्छेणिप्रमिते ..... पल्यासंख्यातेन भक्ते एकभागः प्रतिसमयंम्रियमाणराशिर्भवति। .... तस्मिन् पल्यासंख्यातेन भवते जिज्ञासा - अभिन्नदशपूर्वी और भिन्नदशपूर्वी साधु में क्या बहुभागौ विग्रहगतौ भवति। तस्मिन् पल्यासंख्यातेन् भवते बहुभागौ | | अंतर है? मारणान्तिक समुद्घाते भवति। ... अस्य पल्यासंख्यातैकभागो ___समाधान - पूज्य धवलाकार श्री वीरसेन महाराज के दूरमारणान्तिके जीवा भवन्ति। अनुसार जब श्रुतपाठी आचारांगादि ग्यारह श्रुतों को पढ़ चुकता है अर्थ- सौधर्म, ईशान स्वर्गवासी देव 'घनांगुल १/३ | और दृष्टिवाद के पांच अधिकारों का पाठ करते समय क्रम से जगश्रेणी' इतने प्रमाण हैं । इसके पल्य/असंख्यात भाग प्रमाण प्रति | उत्पादादि पूर्व पढ़ता हुआ दशम पूर्व विद्यानुवाद को समाप्त कर समय मरने वाले जीवों का प्रमाण है। इसका पल्य/असंख्यात | चुकता है तब उससे रोहिणी आदि पांच सौ महाविद्याएं और बहुभाग प्रमाण मारणान्तिक समुद्घात करने वालों का प्रमाण है। अंगुष्ठप्रसेणादि सात सौ अल्पविद्यायें आकर पूंछती हैं 'हे भगवन इसका पल्य/असंख्यात भाग प्रमाण दर मारणान्तिक समुदघा वाले जीवों का प्रमाण है। में पड़ जाता है वह भिन्नदशपूर्वी कहलाता है और जो उनके लोभ भावार्थ- सभी जीव मारणांतिक समुद्घात नहीं करते और मेंन पढ़कर कर्मक्षयार्थी बना रहता है वह अभिन्नदशपूर्वी होता है। भी मिश्र गुणस्थान एवं क्षपक श्रेणी वाले जीवों के मारणांतिक | ये अभिन्नदशपूर्वी ही 'जिन' संज्ञा को प्राप्त करते हैं। इन्हीं को समुद्घात नहीं होता। नमस्कार किया जाता है। किन्तु जो विद्याओं को स्वीकार कर लेने प्रश्नकर्ता - सौ. अर्चना, बारामती से महाव्रतों को भंग कर देते हैं वे जिन संज्ञा को प्राप्त नहीं कर पाते जिज्ञासा- नित्यनिगोद की परिभाषा बताएँ? और नमस्कार योग्य नहीं रहते हैं। अभिन्नदशपर्वी होते ही ये महान समाधान - साधारण नामक नामकर्म के उदय से अनन्त | मुनिराज देवपूजा को प्राप्त होते हैं। जीवों को जो एक शरीर मिलता है उसको निगोद कहते हैं और वे जीव निगोदिया कहलाते हैं। निगोद के दो भेद कहे गये हैं। नित्य १/२०५, प्रोफेसर्स कॉलोनी, निगोद-राजवार्तिक २/३२ में इस प्रकार कहा है- 'त्रिष्वपि कालेषु हरीपर्वत, आगरा २८२ ००२ 26 फरवरी 2004 जिनभाषित - Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचार उमा भारती सरकार को विद्यासागर जी का आशीर्वाद बिलासपुर (२४ जनवरी) उमा भारती की सरकार द्वारा मध्यप्रदेश में गौवंश वध पर प्रतिबंध लगाने संबंधी निर्णय पर राज्यपाल श्री रामप्रकाश गुप्त द्वारा मंजूरी प्रदान करने के साथ ही प्रदेश में अध्यादेश तत्काल लागू हो जाने की जानकारी मिलने पर प.पू. १०८ आचार्य श्री विद्यासागर जी ने प्रसन्नता व्यक्त की । यहाँ चल रहे पंचकल्याणक महोत्सव के पावन अवसर पर आचार्य महाराज ने कहा कि आज ही सुबह हमने सुना है कि म.प्र. के मुख्यमंत्री जो तीन-चार दिन पूर्व यहाँ आईं थीं और उस समय कुछ बातचीत हुई थी। बताकर गईं थीं कि मैं गौवंश प्रतिबंध की घोषणा करने जा रही हूँ। और आज उन्होंने मध्यप्रदेश से घोषणा कर दी कि जो गौवंश के ऊपर हाथ उठावेगा उसे तीन वर्ष का दण्ड मिलेगा और दस हजार रुपये का जुर्माना होगा। इस प्रकार से इसे हिंसा के ऊपर पाबंदी और अहिंसा की विजय की बात कह सकते हैं। राष्ट्र में पचास वर्ष के उपरांत भी इस प्रकार की घोषणा नहीं हो पायी थी। इसे अहिंसा और सत्यधर्म की विजय मानना चाहिए। उपस्थित धर्मालुओं से आपने कहा कि इस मामले में आप लोगों को पूरा-पूरा बल देना चाहिए, सहयोग देना चाहिए । तन से, मन से और धन से जो कुछ आपके पास है उसे न्यौछावर करके अहिंसा धर्म की विजय के लिए, स्वतंत्रता के लिये योगदान देना चाहिए। ऐसा स्वाभिमान आपके बच्चों में भी आना चाहिए ताकि प्राणीमात्र के प्रति हम लोगों का सौहार्द पनपे, जिस प्रकार आप स्वतंत्रता में जीना चाह रहे हो, उसी प्रकार से अन्य जीवों के लिए भी स्वतंत्रता मिलना चाहिए। वे घास फूँस खाते हैं और आपके लिए मीठा-मीठा दूध देते हैं। उनकी क्या दशा हो रही है, आप लोगों को ज्ञात नहीं है। एक बात और कहूँगा संविधान की पुस्तिका के मुख पृष्ठ पर वृषभ का चिन्ह है, जिसे हम बैल बोलते हैं। भगवान ऋषभनाथ का चिन्ह भी बैल है, वृषभ है। जरा सोचिए। आज क्या हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा दस-पन्द्रह वर्ष पूर्व में फैसला दिया गया था कि बैल अब किसी काम का नहीं है। इस फैसले के कारण बैल का वध करना प्रारंभ हो गया है। अब सचेत होना चाहिए । हड़प्पा-मोहन जोदड़ों के पुरातत्त्व अवशेष के रूप में बैल का चिन्ह मिला है। इसीलिए बैल के चिन्ह को संविधान की पुस्तक के मुख पृष्ठ पर अंकित करके सम्मान प्रदान किया गया है। और राष्ट्र में लोग उस बैल को कत्लखाने की ओर ले जा रहे हैं। राज्य सरकारों को, केन्द्रीय सरकार को इस संबंध में सचेत करना चाहिए। उन्हीं को वोट देना चाहिए, जो वंश की रक्षा करने को तत्पर हैं, तैयार हैं। अन्यथा इस देश का महत्वपूर्ण, उपयोगी गौवंश गायब हो जायगा । केवल आदर्श बताने के लिए नहीं है, गौवंश की रक्षा का कर्त्तव्य हमारे सामने है । हमारे चौबीस तीर्थंकर भगवान कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं। उनकी पहचान चिन्ह से होती है। ऋषभनाथ भगवान का चिन्ह वृषभ या बैल प्रतिमा के नीचे बनाये चिन्ह से है । इस दृष्टि से बहुत अच्छा काम किया है। मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री ने। यहीं से हम आशीर्वाद दे देते हैं। यहाँ से आशीर्वाद लेकर के तो वो गईं हैं और कह कर गईं हैं कि दो-तीन दिन के उपरांत हम (गौवध प्रतिबंध की ) घोषणा करने जा रहे हैं। बहुत अच्छी बात है । उनकी घोषणा की जानकारी हमारे पास आ गयी। हमारा भी आशीर्वाद उन तक पहुँचा दो, पहुँच भी गया होगा। हाँ, इसी प्रकार सभी प्रदेशों में इस प्रकार की घोषणा होने लग जाय । ऐसी ही घोषणा गुजरात भी होना चाहिए, राजस्थान में भी होना चाहिए। मध्यप्रदेश में हो गयी, तो छत्तीसगढ़ रूक कैसे सकता है ? लेकिन इतनी आवश्कता अवश्य है कि यह दयामय वातावरण सर्वत्र फैलता रहे। प्रेषक - निर्मल कुमार पाटोदी २२, जॉय बिल्डर्स कॉलोनी, इन्दौर पावागढ़ में मंगल प्रवेश परमपूज्य संत शिरोमणि आचार्य १०८ श्री विद्यासागर जी महाराज के परम शिष्य आध्यात्मिक संत तीर्थोद्धारक वास्तुविज्ञ परमपूज्य मुनिपुंगव १०८ श्री सुधासागर जी महाराज, पूज्य क्षुल्लक श्री गंभीरसागर जी महाराज, पूज्य क्षुल्लक श्री धैर्यसागर जी महाराज ब्र. श्री संजयभैया ने चतुर्विद्य संघ सहित दिनांक २० दिसम्बर २००३ को मध्यान्ह २.०० बजे कोटा दादाबाड़ी मंदिर जी से 'श्री गिरनार जी सिद्धक्षेत्र वंदनार्थ सहसंतों, नरनारियों ने मंगल विहार किया। मुनि संघ कोटा से रामगंजमंडी, मंदसौर, प्रतापगढ़, घोटाल, बांसवाड़ा, नागीदौरा आदि-आदि मार्ग से पदयात्रा श्रावक संघ सहित दिनांक १३ जनवरी २००४ को प्रातः ८ बजे श्री पावागढ़ सिद्धक्षेत्र तलहटी स्थित मंदिर जी में मंगलप्रवेश किया। विशाल जिनमंदिर जी में पूर्व में विराजित प. पू. १०८ मुनि श्री समतासागर जी महाराज, मुनि श्री १०८ श्री सरलसागर जी महाराज, मुनि श्री १०८ आदिसागर जी महाराज, मुनि १०८ श्री अनेकांत सागर जी महाराज ने मार्ग में जाकर आगवानी की, सभी ने एक-दूसरे को प्रतिनमोस्तु किया एवं एक साथ विशाल द्वार में प्रवेश किया। मंदिर कमेटी व्यवस्थापकों ने रजत विशालथाल में पाद प्रक्षालन किया, आरती उतारी, समस्त मुनिसंघ के जयघोषके नारों से गुंजायमान किया। फरवरी 2004 जिनभाषित 27 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहारचर्या के पश्चात मध्यान्ह २ बजे विशाल श्रावकसंघ सहित पहाड़ पर वंदनार्थ प्रस्थान किया। पहाड़ पर स्थित समस्त मुनि श्री १०८ समतासागर, मुनि श्री १०८ प्रमाणसागर मंदिरों की वंदना की। रात्रि को पहाड़ पर स्थित विशाल मंदिर जी में एवं ऐलक श्री १०५ निश्चयसागर जी की प्रेरणा से मध्यप्रदेश के पूर्ण रात्रि मुनि श्री सुधासागर जी महाराज गर्भालय में ध्यानस्थ रहे। कटनी जिला में ग्राम बिलहरी में भूगर्भ से प्राप्त २० प्राचीन दिनांक १४ जनवरी २००४ मकर संक्रांति को प्रातः ७ प्रतिमाओं की पुरातात्विक धरोहर के संरक्षण की योजना पर कार्य बजे से मुनि संघ के पावन सानिध्य में लवकुश मंदिर जी के ठीक तीव्र गति से प्रगति पर है। सामने विशाल प्रांगण में कर्म दहन विधान पूजन में लगभग एक विस्तृत प्राप्त जानकारी के अनुसार बिलहरी के जीर्णशीर्ण सौ से अधिक व्यक्तियों ने भाग लिया एवं पूजन की। पूजन से पूर्व अवस्था में स्थित प्राचीन जिन मंदिर में खुदाई के दौरान प्रारंभिक वृहद् शांतिधारा एवं कलशाभिषेक बोली द्वारा श्रेष्ठि श्री नरेशभाई अवस्था में दीवाल में चुनी हुई १४ मनोज्ञ प्रतिमायें एवं द्वितीय जैन सूरत ने किये। ३१००० रुपये में बोली ली। पूजन विधान के चरण में ६ अन्य प्रतिमायें प्राप्त हुईं। मुनि संघ का चातुर्मास के पूर्व सौधर्म इन्द्र का पद श्रेष्ठि श्री श्रीपाल जी कटारिया केकड़ी-जयपुर ने ११००० रुपये बोली द्वारा बोलकर सौधर्मइंद्र बनने का सौभाग्य बिलहरी आगमन हुआ मुनि संघ से प्रवचन सभा के दौरान श्रावकों प्राप्त किया एवं महाआरती की बोली श्रेष्ठि श्री संतोष कुमार को ठोस योजना के तहत इनकी सुरक्षा करने की प्रेरणा प्रदान की। प्रवचन सभा के दौरान ही लाखों रूपयों की स्वीकृतियाँ प्राप्त हो शशांक कुमार जी गोधा मकराना राज. ने ५१०० रुपये बोलकर आरती की। गईं। मुनि संघ ने श्री दि. जैन तीर्थ क्षेत्र बहोरीबंद चातुर्मास हेतु ___इस विधान पूजन में श्रावक संघ पदयात्रा में चल रहे बिहार कर दिया। साधर्मियों में श्रेष्ठि श्री निहालचंद जी पहाड़िया सपरिवार किशनगढ़, स्वाध्याय और साधना के साथ-साथ चातुर्मास के दौरान श्रेष्ठि श्री कंतीलाल जी गदिया सपरिवार नसीराबाद, श्रेष्ठि श्री | मुनि संघ बिलहरी के घटना क्रम पर सतत दृष्टि रखते हुय प्रतिमाओं तिलोकचंद जी महेन्द्र कुमार जी गदिया अजमेर, श्रेष्ठि श्री ऋषभ । के संरक्षण हेतु निरंतर निर्देशन एवं प्रेरणा प्रदान करते रहे। जी मोहिवाल कोटा, संघपति प्रमुख श्रीमान हकमचंद जी काका | दिगम्बराचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज के समक्ष बिलहरी कोटा, श्री भागचंद जी गदिया अध्यक्ष श्री ज्ञानोदय तीर्थक्षेत्र अजमेर, के स्थानीय निवासी प्रतिमाओं की फोटो लेकर पहुँचे। इन प्रतिमाओं श्री भीकमचंद जी पाटनी सं. मंत्री एवं श्री अनिल जी गदिया | की फोटो देखकर पूज्य आचार्य श्री आश्चर्य चकित हो गये। संयोजक विद्युत विभाग, श्री नवीन जी गदिया, श्री मुकेश जी जैन | खुदाई में मिली युगल तीर्थंकर की प्रतिमा की फोटो देखते ही दोसी सी.ए. अहमदाबाद, श्री शेखर जैन नसीराबाद, माननीय | अनायास ही उनके श्रीमुख से निकला की 'लंदन के म्युजियम श्रेष्ठि श्री सौभागमल जी सा. कटारिया एवं समस्त परिवार | की प्रतिमा आप लोग कहाँ से ले आये?' आचार्य श्री की आशीष अहमदाबाद, आंवा, बिजौलियाँ, सांगानेर, जयपुर, कोटा, अजमेर, | अनुकंपा पाकर श्रावकों में असीम उत्साह संचारित हो गया। किशनगढ़ के अनेक कार्यकर्ताओं ने इस विधान-पूजन में सम्मिलित | इधर मुनि श्री समतासागर, मुनि श्री प्रमाणसागर एवं होकर अक्षय पुण्यार्जन किया। ऐलक श्री निश्चयसागर जी ने चातुर्मास के बाद बिहार कर दिया। दिनांक १३.१.२००४ को गांधीधाम, गुजरात से लगभग अनेक जैन बाहुल्य शहरी क्षेत्रों से लोग श्रीफल भेंट करने पहुँचने २५-३० स्त्री, पुरुषों ने आकर पावागढ़ में श्री सुधासागर जी | लगे सारे निवेदन को दरकिनार करते हुये मुनि संघ ने जैन पुरातत्व महाराज के पावन चरणों में श्रीफल चढ़ाकर गांधीधाम की ओर | के संरक्षण के लिये बिलहरी की ओर बिहार करना उचित समझा। मंगल विहार के लिये सादर प्रार्थना की। युवारत्न श्री रमेशचंद जी | कोलाहल से दर, सरम्य एवं शांत वातावरण में स्थित बिलहरी गदिया के प्रतिनिधित्व में पधारे थे। ग्राम के जैनाजैन श्रावकों के मस्तक मुनि संघ की चरण धुली दिनांक १४.१.२००४ को मध्यान्ह सामायिक के पश्चात पाकर एक बार फिर धन्य हुये। कहने को तो बिलहरी में जैन २ बजे मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी महाराज ने ससंघ हलोल श्रावकों के तीन ही परिवार थे पर मुनि संघ की तपश्चर्या का तेज बासा की ओर मंगल विहार किया। अल्पसमय में वंदना, पूजन था की बिलहरी के अजैन श्रद्धालु भी दिगम्बरत्व के आगे नतमस्तक विधान आदि-आदि मंगल क्रियाएँ सम्पन्न कराकर मुनि श्री ने हो गये। प्रातः काल रश्मिरथी अपनी रश्मिओं में दिगम्बरत्व के अमिट प्रभावना छोड़कर मंगल विहार किया। इस प्रकार सम्पूर्ण प्रकाश को भरकर संपूर्ण बिलहरी ग्राम में बिखेर देता था और रात्रि तीर्थयात्रा में अभूतपूर्व धर्मप्रभावना करते हुए मुनि संघ गिरनार जी में चंद्रमा की शीतलता ग्राम वासियों को ऐसा शीतल एहसास देती की ओर तीव्रगति से अग्रसर है। है कि मुनि संघ के रूप में देवदूतों का गांव में आगमन हुआ है। प्रेषक एवं प्रस्तुति, भीकमचंद पाटनी सं. मंत्री श्री दिगम्बर जैन ज्ञानोदय तीर्थ क्षेत्र | इधर सारा ग्राम्यांचल मुनि संघ को पाकर धन्यता का ज्ञानोदय नगर, नारेली-अजमेर | अनुभव कर रहा है वहीं मुनि संघ जैन पुरावैभव के संरक्षण की 28 फरवरी 2004 जिनभाषित Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योजना को गति देने में संलग्न है। मुनि संघ की प्रेरणा से जिनमंदिर | सम्मान समारोह सम्पन्न का मूल स्वरूप में जीर्णोद्धार कार्य प्रगति पर है। संघ के बिराजने विगत दिवस १०८ आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल, बिहार आदि आशीषस्थ भा. दिग. जैन प्रशासकीय प्रशिक्षण संस्थान के तत्त्वाधन प्रदेशों से बिलहरी में दर्शनार्थीयों का तांता लगा हुआ है। विगत में उद्घाटित विद्या श्री गर्ल्स हास्टल के चतुर्थ चरण के ११ दातार एक माह से मुनि संघ यहाँ पर विराजमान है। गण सम्मानित किये गए हैं तथा उन्हें आजीवन सदस्यता प्रदान मुनि श्री समतासागर जी तीन-तीन घंटे की सामायिक की गई। करते हुए विशेष साधना कर रहे हैं, मुनि श्री प्रमाणसागर जी सम्मान समारोह में संस्थान के दो विशिष्ट महामनों क्रमशः स्वाध्याय में निरत रहते हुये लेखन के कार्य में संलग्न हैं, ऐलक श्री निश्चयसागर जी पठनपाठन के साथ साधना में लीन हैं। श्री बी.पी. श्रीवास्तव एडवोकेट वरिष्ठ अधिवक्ता एवं श्री राजेश मुनि संघ ने जैन पुरा वैभव के संरक्षण की प्रेरणा देकर कुमार, संजय कुमार विशिष्ठ रूप से सम्मानित किये गये। सभी श्रावकों को कर्त्तव्य बोध कराया है, मुनि संघ की इस पहल से सम्मानित महानुभावों को शाल, श्रीफल व अभिनंदन पत्र भेंट बिलहरी का जैन पुरा वैभव तो संरक्षित हुआ ही है, श्रावकों में भी RAT A किये गये। संस्कृति के संरक्षण हेतु जागृति उत्पन्न हुई है। मुनि संघ की प्रेरणा सम्मानित महामनों में क्रमश:- श्री दादा उदय चंद जी, से बिलहरी में सम्पन्न प्रतिमाओं के संरक्षण का कार्य एक अच्छी | श्री प्यारे लाल, दिनेश कुमार जी, श्री छोटे लाल जी, श्री धरमचंद परंपरा का शुभारंभ है। जिस तरह रूचि लेकर मुनि संघ ने इस | जी, सुशील कुमार जैन, श्री कोमल चंद जी, धर्म पत्नि कान्ति जैन कार्य को मंजिल तक पहुँचाया है, उसी तरह सम्पूर्ण भारतवर्ष में सेठ मोतीलाल राजवर्धन सिंघई, श्री दादा बालचंद जी, श्री अभय विहार करने वाले पूज्य साधु संत भी इस ओर रूचि लें तो- कुमार जी, पवन कुमार जी, श्री संतोष कुमार, मुकेश कुमार जी, 'संस्कृति के संरक्षण का दिवा स्वप्न हकीकत में बदल सकता | श्री राय सेठ चन्द्र कुमार एवं ध.प. सुनीता जैन, श्री संजय कुमार है।' जैन एवं श्रीमती अंजु जैन, जिन्हें आजीवन सदस्यता प्रदान की भवदीय गई। अमित पड़रिया इस भव्य आयोजन का प्रभावना मयी अंग था, १०८ मुनि सूचना श्री प्रबुद्ध सागर जी महाराज, १०५ आर्यिका रत्न गुणमती माताजी षष्ठ आत्म-साधना शिक्षण शिविर ससंघ की आशीषमयी उपस्थिति एवं प्रवचन जिसमें उन्होंने दिनांक २५.४.२००४ से २.५.२००४ आजीवन सदस्यों को आशीर्वाद प्रदान करते हुए प्रशिक्षार्थियों को अत्यन्त हर्ष का विषय है कि परमपूज्य आचार्य श्री | उनके पथ प्रशस्ति का आशीर्वाद प्रदान किया। समारोह का संचालन विद्यासागर जी महाराज के आशीर्वाद से सिद्धक्षेत्र श्री सम्मेदशिखर | सस्थान प्रधानमत्री श्री नरेश चद जन गढ़ावाल एव परिचय एवं जी के पादमूल में स्थित प्राकृतिक छटा से विभूषित, परम पूज्य स्वागत भाषण संस्थान डायरेक्टर श्री अजित जैन एडवोकेट द्वारा क्षुल्लक १०५ श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी की साधना स्थली उदासीन साधना स्थली उदासीन | दिया गया। आश्रम, इसरी बाजार में पं. श्री मूलचन्द्र जी लुहाड़िया, मदनगंज नि: शुल्क नेत्र चिकित्सा शिविर (किशनगढ़) बाल ब्र. पवन भैया, कमल भैया आदि के सान्निध्य पचेवर (टोंक) १०८ चा.च. आचार्य श्री शांतिसागर जी में षष्टम आत्म-साधना शिक्षण शिविर का आयोजन होने जा रहा महाराज का १३१ वाँ जयन्ति महोत्सव के उपलक्ष में श्री पांचलाल है। इस शिविर का मूल लक्ष्य होगा जी जैन अग्रवाल पचेवर की पुण्य स्मृति में उनके परिवार की ओर से इस बहुमूल्य पर्याय का अवशिष्ट समय किस प्रकार १९ शिविर सफल होने के बाद २० वाँ नि:शुल्क नेत्र चिकित्सा बिताया जाये ताकि आत्मा का विकास हो सके। शिविर लगाया गया। उसमें टोंक के सुप्रसिद्ध नेत्र विशेषज्ञ डॉ. समस्त इच्छुक धर्मानुरागी भाई बहनों से अनुरोध है कि १०.४.२००४ तक आश्रम में लिखित आवेदन भेजें ताकि आवास, आर.एस.शर्मा ने २६५ मरीजों की जांच कर, उनके परिवार की ओर • भोजन एवं समुचित सभी व्यवस्थाएँ की जा सकें। से निःशुल्क दवाई दी गई। २२ सफल आपरेशन किये गये। मरीजों को उनके परिवार की ओर से दवाई, भोजन, आवास, हरी पट्टी, निवेदक ऐनक आदि निःशुल्क दी गई। ट्रस्टी व कार्यकारिणी समिति के सदस्यगण श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन शांतिनिकेतन उदासीन आश्रम तारा चन्द्र जैन अग्रवाल पो. इसरी बाजार, जिला - गिरिडीह (झारखंड)। फरवरी 2004 जिनभाषित 29 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य निहालचंद जैन एवं पं. सनत कुमार । जैन मंत्री श्रुत संवर्धन, संस्थान, प्रथम तल २४७, दिल्ली रोड, मेरठ २५० ००२ से प्राप्त है। इसका मूल्य मात्र २५ रु. है। पुस्तक में _ विनोद कुमार पुरस्कृत अनेक चित्र हैं, मुद्रण भी आकर्षक है। कोलकाता- श्री दि. जैन मंदिर में आयोजित एक विशिष्ट ब्र. जयनिशान्त जैन, टीकमगढ़ समारोह में सुप्रसिद्ध लेखक सम्पादक प्राचार्य निहालचन्द्र जैन | प्रसिद्ध समाजसेवी, लेखक, पत्रकार श्री सतीश कुमारजैन बीना को 'श्री कल्याणमल पाटनी' स्मृति पुरस्कार एवं देश के ख्यातिलब्ध प्रतिष्ठाचार्य, लेखक पं. सनतकुमार विनोदकुमार रजवांस, 'मैन आफदी ईयर २००३' के लिए नामित सागर को 'श्री अमरचन्द्र पहाड़िया' स्मृति पुरस्कार से सम्मानित देश एवं विदेशों के जैन समाज में विश्व जैन सम्मेलनों किया गया। यह पुरस्कार अ.भा.दि. जैन शास्त्री परिषद के माध्यम एवं जैन संस्कृति, शाकाहार, पशुरक्षा पर राष्ट्रीय स्तर के भारत में से दिये जाते हैं। समारोह का संचालन शास्त्री परिषद के महामंत्री अनेक सम्मेलनों के आयोजन के लिए सुपरिचित लेखक, पत्रकार डॉ. जयकुमार जैन द्वारा किया गया। श्री सतीश कुमार जैन एम.ए. एल.एल.बी. नई दिल्ली संस्थापक महासचिव अहिंसा इण्टरनेशनल तथा 'वर्ल्ड जैन कांग्रेस' को डॉ. ज्योति जैन, खतौली | अमेरिका की अमेरिकन बायोग्राफिकल इन्सटीट्यूट ने अपनी 'भारत संविधान विषयक जैन अवधारणायें' प्रतिष्ठात्मक उपाधि 'मैन आफ दी ईयर २००३' के लिए नामित किया है। यह उपाधि विश्व भर में उन व्यक्तियों को पहचान कर पुस्तक का लोकार्पण- सम्पन्न जिनका कृतित्व, उपलब्धियाँ एवं विशिष्ट लक्ष्य प्राप्ति के लिए २६ जनवरी १९५० को भारत का संविधान लागू हुआ, | प्रतिबद्धता उत्कष्ट समझे जाते हैं को सम्मानार्थ दी जाती है। जैन संविधान सभा ने लगभग ३ वर्ष (२ वर्ष, ११ महीने, १७ दिन) | संस्कृति साहित्य, शाकाहार एवं पशुरक्षा के प्रचार-प्रसार, विश्व में इसका निर्माण किया था। संविधान सभा के कुल ११ सत्र व जैन सम्मेलनों के आयोजन, अमेरिका एवं कनाडा की जैन संस्थाओं १६५ बैठकें हुई। संविधान निर्मातृ सभा में श्री रतन लाल मालवीय, | के महासंघ 'जैना' के अधिवेशनों में विशेष अतिथि के रूप में श्री अजित प्रसाद जैन, श्री कुसुमकान्त जैन,श्री बलवन्त सिंह पत्र-वाचन तथा भ्रमण के लिए आपने सात बार विदेश यात्रा की मेहता, श्री भवानी अर्जुन खीमसी ये ५ सदस्य जैन थे। संविधान | है। जिनमें अमेरिका, कनाड़ा, इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी, इटली, की उद्देशिका में भारत को पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य | स्विटजरलैंड, बेल्जियम, हालैंड, हांगकांग, थाईलैंड कहा गया है। अनुच्छेद १५ धर्म मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म (बैंगकाक)सिंगापुर सम्मिलित है। आप जैन हैप्पी स्कूल तथा नई स्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध करता है वहीं अनुच्छेद | दिल्ली की अनेक संस्थाओं के अध्यक्ष रह चके हैं। २५ हमें धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है। अनुच्छेद आपकी हिन्दी कृति 'गोम्मटेश्वर बाहुबली एवं ५१क में भारतीय नागरिकों के मूल कर्तव्यों में स्पष्ट कहा गया है श्रवणवेलगोल इतिहास के परिप्रेक्ष्य में विशेष चर्चित है। सम्प्रति कि प्रत्येक नागरिक प्राणिमात्र के प्रति दयाभाव रखे। संविधान में आपने एक वृहदाकार सचित्र पुस्तक 'जैनिस्म, इट्स लिटरेचर, पशु संरक्षण की भी बात कही गई है। इसी प्रकार राष्ट्रगान के आर्ट एण्ड आटैक्चर एण्ड दी जैन्स इन ग्लोबल पर्सपैक्टिव' द्वितीय स्टेन्जा में जैन शब्द आया है। (प्रथम स्टेन्जा ही राष्ट्रगान | का लेखन पूर्ण किया है। आपके हिन्दी एवं अंग्रेजी में जैन के रूप में स्वीकृत है।) संस्कृति पुरातत्व, वन्यजीवन, वानिकी, विदेश एवं देश पर्यटन, उक्त सभी तथ्यों को एक पुस्तक 'भारत संविधान विषयक शाकाहार, आर्थिक विषयों पर लिखित लगभग २५० सन्दर्भ लेख जैन अवधारणायें' के माध्यम से सर्वजन सुलभ बनाया है खतौली देश की सुप्रसिद्ध साहित्यक पत्रिकाओं धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, के डॉ. कपूर चंद जैन ने। कोलकाता में उनकी उक्त पुस्तक का कादम्बनी, सरिता, मुक्ता, दैनिक समाचार पत्रों, देश एवं विदेश लोकार्पण प्राचार्य नरेन्द्र प्रकाश जैन एवं पं. नीरज जैन, सतना ने | की स्मारिकाओं में प्रकाशित हो चके हैं। आप कशल छायाकार संयक्त रूप से किया। श्री नीरज जी ने लेखक का परिचय दिया | हैं। जैन हिन्द मंदिरों आदि के बहत फोटो आपने लिए हैं। और कहा कि इस वर्ष डॉ. जैन की तीन पुस्तकें प्रकाश में आईं हैं। | लगभग सम्पर्ण भारत में कई बार भ्रमण किया है। 'स्वतंत्रता संग्राम में जैन' तो अद्भुत कृति है, जिसने जैनों के ___आपने जैन साहित्य, पत्रकारिता, शाकाहार एवं पशुरक्षा के गौरव को बढ़ाया है। इसी विशाल पुस्तक का सर्वत्र स्वागत हुआ | सम्वर्धन के लिए १२ वर्ष पूर्व से लगभग एक लाख रुपयों के है। इस अवसर पर डॉ. कपूरचंद जैन और डॉ. ज्योति जैन | वार्षिक परस्कारों का गठन किया है। (दम्पति)का सम्मान किया गया। स्तरीय त्रैमासिक द्विभाषी (अंग्रेजी एवं हिन्दी) १०० _ 'भारत संविधान विषयक जैन अवधारणाएँ' श्री हंस कुमार | पष्ठ की पत्रिका'अहिंसा वायस' का आपने वर्ष १९९८ तक ११ 30 फरवरी 2004 जिनभाषित Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष तक कुशल सम्पादन किया है, जो अस्वस्थता के कारण अब । वर्ष २००४ में भारत में गौमांस का उत्पादन २०७० हजार टन होने अप्रकाशित है। | का अनुमानित लक्ष्य है। इसमें से ५२० हजार टन निर्यात किया आप केन्द्र सरकार के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय से | जाएगा तथा १५५० हजार टन घरेलू खपत के रूप में उपयोग 'परामर्शक' के वरिष्ठ पद से १९८७ में ३० वर्ष के सेवाकाल के | किया जायेगा। एक्सपोर्ट इम्पोर्ट बैंक ऑफ इंडिया की इसी समाचार उपरांत सेवा-निवृत्त हुए हैं। बुलेटिन में बताया गया है कि हलाल किए गए मांस के निर्यात में महावीर प्रसाद जैन, सचिव | गौमांस के निर्यात में वर्ष १९९९-२००२ की अवधि में लगभग महाकवि अर्हदास पर पीएच.डी उपाधि दो गुना वृद्धि हुई है। गौमांस, ताजा और शीतलीकृत जमा हुआ खतौली - तेरहवीं-चौदहवीं शती के जैन महाकवि | तथा उत्पादों के रूप में निर्यात किया जाता है। भारत में हलाल अर्हदास पर चौ. च.सि.वि.वि., मेरठ (उ.प्र.) ने पीएच.डी. | गौमांस के खरीदारों में मलेशिया, फिलीपींस, संयुक्त अरब अमीरात, उपाधि प्रदान की है। श्री कुन्दकुन्द जैन (पी.जी.) कॉलेज खतौली | मिस्र जार्डन, अंगोला और ओमान मुख्य देश हैं। गौमांस और (उ.प्र.) के संस्कृत विभागाध्यक्ष तथा जैन दर्शन के सप्रसिद्ध | अन्य पशु उत्पाद निर्यात से १५.३ बिलियन रुपये की आय भारत विद्वान डॉ. कपर चंद जैन के निर्देशन में डॉ. श्रीमती मकेश गौतम | को होती है। इस आय में ९० प्रतिशत योगदान केवल गौमांस ने 'महाकवि अर्हददास की कृतियों का समीक्षात्मक अध्ययन' | निर्यात से होने वाली आय है। निर्यात ही नहीं देश के भीतर भी शोध प्रबन्ध लिखा है। महाकवि ने भगवान ऋषभदेव के जीवन | गौमांस की खपत में १९९९ से २००३ तक वृद्धि हुई है। १९९९ चरित पर 'पुरुदेव चम्पू' काव्य लिखा है। इसी प्रकार मुनिसुव्रतनाथ में १४३८ हजार टन की खपत थी, सन् २००४ में इस खपत में के चरित्र पर 'मुनिसुव्रत महाकाव्य' तथा एक अन्य काव्य 'भव्य | १५५० हजार टन की वृद्धि का अनुमान है। भारत के निर्यात जन कण्ठाभरण लिखा है। शोध प्रबन्ध के परीक्षकों ने प्रबंध की | व्यापार में एक्सपोर्ट इम्पोर्ट बैंक ने मांस निर्यात विशेषकर गौमांस भरि-भूरि प्रशंसा की है और इसे शीघ्र प्रकाशित करने की सलाह | निर्यात की अच्छी संभावना का अनुमान भी लगाया है। दी है। गुरुकुल कांगडी वि.वि. हरिद्वार के प्रति कुलपति जी ने नव भारत इन्दौर पृ. ६ बुध. २८ जनवरी २००४ ६/५४, फिरोजगाँधी प्रेस कॉम्पलेक्स, अर्हद्दास के गद्य को बाणभट्ट के समकक्ष बताया। श्रीमती इन्दौर। सम्पादक डॉ. अशोक कुमार मुकेश गौतम जी.आई. सी. में प्राध्यापिका हैं। इससे पूर्व भी डॉ. प्रेषक-निर्मल कुमार पाटोदी कपूर चंद जैन के निर्देशन में आचार्य विद्यासागर जी महाराज के | प्रोफेसर प्रेम सुमन जैन को जैन धर्म-दर्शन राष्ट्रीय गुरु आचार्य ज्ञानसागर जी द्वारा रचित 'जयोदय महाकाव्य में पुरस्कार अलंकार विधान' पर श्रीमती विमलेश तंवर पीएच.डी. की उपाधि सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर के जैनविद्या एवं प्राकृत प्राप्त कर चुकी हैं। ___डॉ. ( श्रीमती) ज्योति जैन, खतौली (उ.प्र.) विभाग के प्रोफेसर एवं पूर्व विभागाध्यक्ष तथा अधिष्ठता-कला महाविद्यालय की नवीनतम हिन्दी कृति 'जैन धर्म की सांस्कृतिक ग्रीष्मावकाश में ४० स्थानों पर शिविरों का आयोजन विरासत' पर भगवान् महावीर फाउन्डेशन, चेन्नई द्वारा जैन धर्मबुंदेलखण्ड, वघेलखण्ड एवं छत्तीसगढ़ के ४० स्थानों पर थाना पर | दर्शन राष्ट्रीय पुरस्कार २००३ घोषित किया गया है। इस पुस्तक में परम पूज्य उपाध्याय श्री ज्ञानसागर जी महाराज की प्रेरणा एवं श्रुत मनीषी लेखक द्वारा जैन धर्म, दर्शन, साहित्य समाज, जीवन शैली संवर्द्धन संस्थान मेरठ और संस्कृति संरक्षण संस्थान दिल्ली के एवं कला का प्रामाणिक विवेचन आधुनिक युग के सन्दर्भ में संयक्त तत्त्वावधान में आयोजित होंगे। बुंदेलखण्ड के स्थानों का | सबोध शैली में किया है। इस विशिष्ट पुरस्कार के अन्तर्गत प्रोफेसर निरीक्षण किया जा चुका है एवं वघेलखण्ड एवं छत्तीसगढ़ में | जैन को इक्यावन हजार (५१०००/-) रुपये की राशि के साथ निरीक्षणार्थ समिति बन चुकी है एवं शीघ्र ही समिति पहुँचेगी। प्रशस्तिपत्र एवं स्मृतिचिन्ह आदि फाउन्डेशन द्वारा चेन्नई में आयोजित यदि समाज के सज्जन पुरुष अपने ग्राम में शिविर लगाना चाहते हैं एक भव्य समारोह में प्रदान किये जायेंगे। इस पुस्तक का प्रकाशन तो २० फरवरी तक निम्न पते पर संपर्क करें भी फाउन्डेशन के सहयोग से शीघ्र किया जावेगा। आशीष जैन शास्त्री मनीषी प्रोफेसर (डॉ.) प्रेम सुमन जैन, को इनके द्वारा जैन कटारे मोहल्ला, शाहगढ़, सागर (म.प्र.) धर्म, दर्शन, साहित्य, संस्कृति और शोध के क्षेत्र में किये गये गौ मांस का निर्यात विशेष अनुसंधान एवं उल्लेखनीय सेवा हेतु कई पुरस्कारों से भारत सरकार से मान्यता प्राप्त एक उपक्रम है- एक्सपोर्ट सम्मानित किया जा चुका है। जैसे- 'प्राकृत ज्ञानभारती अवार्ड इम्पोर्ट बैंक ऑफ इंडिया। इसकी आंतरिक समाचार बुलेटिन के | ९३ बेंगलोर' 'चम्पालाल सांड साहित्य पुरस्कार बीकानेर' एवं जनवरी २००४ के अंक में बाकायदा यह जानकारी दी गई है कि | 'आचार्यश्री हस्ती स्मृति सम्मान १९९७ जयपुर' इन्टरनेशनल मेन -फरवरी 2004 जिनभाषित 31 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऑफ द इयर १९९७-९८ (इंगलेण्ड), मेन ऑफ द इयर १९९९ | बड़े ही धूमधाम एवं हर्षोल्लास के साथ संपन्न हुआ। सभी (अमेरिका) आदि। प्रोफेसर प्रेम सुमन जैन को अभी २००२ में | कार्यक्रम दमोह से पधारे प्रतिष्ठाचार्य पंडित सुरेशचंद जी के सेवामुक्त होने के बाद यू.जी.सी. नई दिल्ली द्वारा एमेरिटस प्रोफेसर | निर्देशन में संपन्न हुए। फेलोशिप देकर सम्मानित किया गया है। जितेन्द्र कुमार जैन देश के प्रतिनिधि मनीषीयों और नगर के गणमान्य नागरिकों | ग्वालियर में प्रतिभा सम्मान समारोह सम्पन्न हुआ की सन्निधि में उदयपुर की समाज और देश की विभिन्न संस्थानों परम पूज्य उपा. श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज के परम की ओर से श्रीमान प्रोफेसर प्रेम सुमन जैन को सम्मानित कर उनके सान्निध्य और श्री दि. जैन समिति सूर्यनगर गाजियाबाद के निदेशन सम्मान में प्रकाशित गौरव ग्रन्थ पाहुड भी उन्हें ३१ जनवरी, | एवं ग्वालियर दि. जैन समाज के तत्त्वावधान में अ.भा. प्रतिभा २००४ को उदयपुर के प्रसिद्ध साहित्यकार प्रोफेसर नन्द चतुर्वेदी, | सम्मान समारोह २८ दिसम्बर २००३ को ग्वालियर में संपन्न कार लेटन विश्वविद्यालय, ओटावा, कनाडा के प्रोफेसर जगमोहन हुआ। इस समारोह में भारत के ३३ मा. शिक्षा मण्डल में मैरिट हंमड़ एवं गुजरात संकृत अकादमी, अहमदाबाद के प्रोफेसर गौतम | स्थान प्राप्त करने वाले दिगम्बर एवं श्वेताम्बर जैन छात्रों को भाई पटैल द्वारा समर्पित किया गया है। सम्मानित किया गया। इसमें करीब १५० छात्र-छात्राएँ उपस्थित थे। भगवान् महावीर फाउन्डेशन, चेन्नई के पुरस्कार-संयोजक कार्यक्रम के अन्त में उपा. श्री ने कहा ऐसे कार्यक्रम श्री दुलीचंद जैन की पुरस्कार-विज्ञप्ति से ज्ञात हुआ कि अंग्रेजी समस्त जैन समाज को एकत्रित करती है। बुद्धिमान छात्रों की की पुस्तक 'जैनिज्म', ए वे टू पीस एण्ड हेपीनेस के लेखक डॉ. समस्यायें हैं उनको सारे समाज के समक्ष निवारणार्थ रखा जाता जगदीश प्रसाद जैन, दिल्ली को भी इक्यावन हजार (५१०००/)| है। और जैन छात्र भी अपने धर्म के प्रति समर्पित रहते हैं। रुपये का विशिष्ट पुरस्कार देने की घोषणा की गयी है। आशीष जैन डॉ. उदयचंद जैन कटारे मोहल्ला, शाहगढ़, सागर (म.प्र.) समन्वयक राजेश 'रागी' सिद्धक्षेत्र रेशंदीगिरि ट्रस्ट के बौद्ध अध्ययन एवं अहिंसा केन्द्र सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर उपमंत्री बने पार्श्वनाथ जिनालय में वेदी प्रतिष्ठा एवं देश के सुविख्यात श्री दि. जैन सिद्धक्षेत्र रेशंदीगिरी की कलशारोहण संपन्न ट्रस्ट कमेटी के रिक्त पद उपमंत्री पद पर श्री राजेश 'रागी' (पत्रकार) बकस्वाहा (छतरपुर) का सर्व सम्मति से मनोनयन नरसिंहगढ़ (दमोह)- नवनिर्मित श्री १००८ पार्श्वनाथ जिनालय में त्रिदिवसीय वेदी प्रतिष्ठा एवं कलशारोहण महोत्सव किया गया। सुनील जैन 'संचय' शास्त्री निर्भयता संस्मरण मुनि श्री क्षमासागर जी बुन्देलखण्ड में आचार्य महाराज का यह पहला चातुर्मास था। एक दिन रात्रि के अंधेरे में कहीं से बिच्छू आ गया और उसने एक बहिन को काट लिया। पंडित जगन्मोहनलाल जी वहीं थे। उन्होंने उस बहिन की पीडा देखकर सोचा कि बिस्तर बिछाकर लिटा दूं, सो जैसे ही बिस्तर खोला उसमें से सर्प निकल आया। उसे जैसे-तैसे भगाया गया। दसरे दिन पंडित जी ने आचार्य महाराज को सारी घटना सुनाई और कहा कि महाराज ! यहाँ तो चातुर्मास में आपको बड़ी बाधा आएगी। पंडित जी की बात सुनकर आचार्य महाराज हँसने लगे। बड़ी उन्मुक्त हँसी होती है महाराज की। हँसकर बोले कि 'पंडित जी, यहाँ भी कल दो-तीन सर्प खेल रहे थे। यह तो जंगल है। जीव-जन्तु तो जंगल में ही रहते हैं। इससे चातुर्मास में क्या बाधा? वास्तव में, हमें तो जंगल में ही रहना चाहिए। कर्म-निर्जरा परीषह-जय से ही होगी।' उपसर्ग और परिषह-जय के लिए अपनी निर्भयता व तत्परता ही साधुता की सच्ची निशानी है। कुण्डलपुर (१९७६) 'आत्मान्वेषी' से साभार 32 फरवरी 2004 जिनभाषित - Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण संस्कृति की ध्वजा सोनगढ़ में फहर उठी सोनगढ़, २६ जनवरी। मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी कोटा से विहार करते हुए गुजरात के सिद्धतीर्थ पावागढ़ पहुँचे । वहाँ लव-कुश की निर्वाण भूमि पर मुनिश्री ने रात्रि प्रतिमायोग धारण किया। शाम को ७ बजे ध्यान में बैठे और प्रातः ७ बजे तक ध्यान किया । तदउपरान्त धोधा में समुद्र के किनारे ध्यान लगाया। यह वही समुद्र का किनारा था जहाँ कोटीभठ राजा श्रीपाल समुद्र तैरकर आये थे और इसी धोधा जैनमन्दिर में शरण ली थी । मुनिसंघ ने विहार करते हुए २६ जनवरी गणतंत्र दिवस के दिन सोनगढ़ में मंगलप्रवेश किया। मुनिश्री की जय जयकारों से सोनगढ़ का आकाश गूंज उठा। सैंकड़ों श्रावक-श्राविकाओं के साथ जुलूस ने प्रवेश किया। सोनगढ़ के प्रकट इतिहास में यह पहले दिगम्बर जैन साधु का इतने उत्साह एवं श्रद्धापूर्वक प्रवेश कराया गया और श्रमण संस्कृति की ध्वजा गगन को छू उठी। ऐलक सिद्धान्तसागर जी महाराज, क्षुल्लक गम्भीरसागर जी एवं क्षुल्लक धैर्यसागर जी एवं ब्र. संजय भैया के पीछे सैकड़ों की संख्या में श्रावक समूह चल रहा था व नारे लगाये जा रहे थे : जिसका कोई गुरु नहीं, उसका जीवन शुरु नहीं । माँ का लाल कैसा हो, विद्यासागर जी जैसा हो ॥ गुरु का चेला कैसा हो, सुधासागर जी जैसा हो । प्रवेश के उपरान्त मुनिसंघ जब आहार चर्या पर निकले तो वहाँ के श्रावक गणों ने भी श्रद्धापूर्वक आहार चर्या को देखा और समझा तथा सोनगढ़, कोटा, जयपुर, सुदर्शनोदय, आंवा, बिजौलिया, बागीदौरा, अलोद, कलिंजर, किशनगढ़-मदनगंज, अजमेर, रेनवाल, सीकर व भावनगर, ईडर, अहमदाबाद, सूरत के श्रावकों ने आहार दान का पुण्य अर्जित किया । मुनिश्री ने सोनगढ़ के प्रांगण में सामायिक की। उन्होंने सोनगढ़ के प्रमुख स्थानों का निरीक्षण किया । विहार पूर्व मुनि श्री ने तत्वचर्चा करते हुए कहा कि अनादि निधन प्रवाहमान जैन धर्म श्रमण संस्कृति प्रधान धर्म की श्रमण परम्परा जैन संस्कृति का मूल प्रवाह है, जो आज भी अबाधित रूप से प्रवाहित है और पंचम काल के अन्तिम समय तक प्रवाहमान रहेगा। दिगम्बर मुनिचर्या आज भी चतुर्थकालीन आदर्शता को लिए हुए है। लोगों को यह भ्रम है कि पंचम काल में मुनिचर्या की आदर्शिता नहीं है। सोनगढ़ के मूल प्रेरक कान जी भाई भी इस भ्रम से भ्रमित थे । यदि उन्होंने आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के दर्शन किये होते तो उनका यह भ्रम दूर हो जाता । अपनी चर्चा को आगे बढ़ाते हुए मुनिश्री ने कहा कि मुझे समझ में नहीं आता कि आचार्य कुन्दकुन्द साहित्य का निरन्तर स्वाध्याय करने वाले लोग उनकी ही वाणी पर सन्देह क्यों करते हैं। जबकि आचार्य श्री कुन्द - कुन्द देव अष्टपाहुड़ ग्रन्थ में लिखा है 'अज्ज वितिरपण सुद्धा अप्पा झांफदि लहदि इदतं । लोयंतिक देवत्व तन्थ चुआ जिन्मदि जायते ॥ ( मोक्षपाहुड) ' गाथा के माध्यम से स्पष्ट किया कि पंचम काल में रत्नत्रय पर्व धारी मुनि होते हैं, तब उनकी वाणी पर विश्वास क्यों नहीं किया जाता है। मुनिश्री ने आगे कहा कि आत्मा अनुभव एवं शुद्धोपयोग प्राप्त करने के लिए दिगम्बर मुनि व्रत अंगीकार करना अनिवार्य है। मुनिश्री ने कहा कि कोई भी जीव अपने को अथवा किसी भावी तीर्थंकर होने की घोषणा करता है, वह सब निराधार मानना चाहिए । श्रावक पदयात्रा संघ हुकम चन्द्र जैन 'काका' कोटा (राजस्थान ) Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि.नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC डाक पंजीयन क्र.-म.प्र./भोपाल/588/2003 स्वाध्याय करो..... स्वाध्याय करो.... पं. लालचन्द्र जैन राकेश' वॉचो-पूछो, सुनो-सुनाओ, दुहराओ मिल गान करो। शंका-समाधान आदिक से, तुम श्रुत का परिज्ञान करो। प्रतिदिन शास्त्र सभा में आओ, औ' घर पर भी पठन करो। पुरजन, परिजन मिलकर बैठो, कुछ ऐसा संगठन करो॥ रात-दिवस में आधा घण्टे, तो अपने सँग न्याय करो। स्वाध्याय करो, स्वाध्याय करो, तुम प्रतिदिन स्वाध्याय करो॥१॥ स्वाध्याय निरन्तर करने से, कषाय मन्दता आती है। मन-मर्कट बँध जाने से, उसकी चंचलता जाती है। अभ्यास निरन्तर करने से, ज्ञान का सूरज उगता है। सम्यक् श्रद्धा जग जाने से, मिथ्यात्व अँधेरा भगता है। स्वाध्याय हमें सिखलाता है, हेयोपादेयक ज्ञान करो। स्वाध्याय करो, स्वाध्याय करो, तुम प्रतिदिन स्वाध्याय करो॥५॥ जिनवाणी से शोभित घर जो, वह मंदिर है नहीं मकान। स्वाध्याय निरन्तर करने से, अतिशय पुण्यार्जन होता है। जिनवाणी से शून्य महल को, मुनिवर कहते हैं श्मशान॥ फल स्वरूप धीरे-धीरे, शुभराग विसर्जन होता है। जिनवाणी भवरोग महौषध, प्रातः सन्ध्या पान करो। पन्द्रह प्रमाद गल जाने से, व्रत धारण में रुचि होती है। बिन श्रुत केवलज्ञान न होता, जिन-वच में श्रद्धान करो॥ शुद्धि चतुर्विध के कारण, बुद्धि विकार को खोती है। संशय-विभ्रम-मोह विनाशक, माता का सम्मान करो। स्वाध्याय हमें सिखलाता है, देव-शास्त्र-गुरु मान करो। स्वाध्याय करो, स्वाध्याय करो, तुम प्रतिदिन स्वाध्याय करो॥२॥ | स्वध्याय करो, स्वाध्याय करो, तुम प्रतिदिन स्वाध्याय करो॥६॥ स्वाध्याय निरन्तर करने से, मन विषयों से हटता है। स्वाध्याय निरन्तर करने से, जीवन में उन्नति होती है। उदासीनता आती है, संसार हमारा घटता है। दीपक से दीपक जलता है, जलती सुज्ञान की ज्योति है। शुभता की आँधी चलने से, पापों के बादल छटते हैं। सद्ज्ञान वृक्ष फल देता है, मन में सदभाव पनपते हैं। अविपाक निर्जरा के कारण, कर्मों के बन्धन कटते हैं। करुणा की धारा बहती है, पग उच्चादर्श उतरते हैं। स्वाध्याय हमें सिखलाता है, मत पुद्गल से प्यार करो। स्वाध्याय हमें सिखलाता है, कभी नहीं अन्याय करो। स्वाध्याय करो, स्वाध्याय करो, तुम प्रतिदिन स्वाध्याय करो॥३॥ स्वाध्याय करो, स्वाध्याय करो, तुम प्रतिदिन स्वाध्याय करो॥७॥ स्वाध्याय निरन्तर करने से, अन्तस् की आँखें खुलती हैं। स्वाध्याय निरंतर करने से, चिन्तन का रूप निखरता है। रत्नत्रय पर चलने से, शिवपुर की राहें मिलती हैं। गुण दोष विवेचन के कारण, जीवन मणियों से भरता है। हम अपने से जुड़ते हैं, निज में निज दर्शन करते हैं। पल-पल पारायण पालन से, पर्याय सफल हो जायेगी। आत्मा का अनुभव होने से, आनन्द के झरने झरते हैं। मन शान्तसिन्धु हो जायेगा, समता क्षमता आजायेगी। स्वाध्याय हमें सिखलाता है, निज आतम स्नान करो। स्वाध्याय हमें सिखलाता है, तुम ऊर्ध्वगमन रफ्तार करो। स्वाध्याय करो, स्वाध्याय करो, तुम प्रतिदिन स्वाध्याय करो॥४॥ | स्वाध्याय करो, स्वाध्याय करो, तुम प्रतिदिन स्वाध्याय करो॥८॥ नेहरु चौक, गली नं. 4 गंजबासौदा (विदिशा ) म.प्र. Jai स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, जोन-I, महाराणा प्रताप नगर,... भोपाल (मप्र) से मदित एवं सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कालोनी. आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित।