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'छत्तीसगढ़ में प्राचीन जैन प्रतिमाएँ'
डॉ. रामगोपाल शर्मा
जैन धर्म भारत का प्राचीन धर्म है। कुछ विद्वानों ने सम्राट अशोक को भी प्रारंभ में जैन धर्म का अनुयायी माना है। खण्डगिरि एवं उद्यगिरि की गुफाओं में बहुत सी प्रारंभिक काल की जैन मूर्तियाँ हैं । भारतीय संग्रहालयों, यूरोप एवं अमेरिका के संग्रहालयों तथा कई निजी संग्रहालयों में भी जैन प्रतिमायें सुरक्षित हैं। प्राचीन जैन साहित्य के अनुसार इस धर्म के प्रवर्तक ऋषभनाथ हैं जिन्हें आदिनाथ भी कहा गया है ये ईसा से भी सहस्रों वर्ष पूर्व हुए थे । छत्तीसगढ़ में जैन धर्म
छत्तीसगढ़ जिसे दक्षिण कोसल एवं अन्य कई नामों से समय-समय पर जाना गया है, यहाँ के शासकों ने प्राचीन काल से ही सर्व धर्म समन्वय की नीति अपनाई है। यद्यपि ये शासक शैव, शाक्त एवं वैष्णव धर्मावलंबी थे किंतु उन्होंने भारत में प्रचलित सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता प्रदर्शित की।
जैन धर्म का प्रसार छत्तीसगढ़ के भू-भाग में लगभग छठवीं शताब्दी ई. में हो गया था। आरंग में छठवीं, सातवीं शताब्दी ई. की जैन प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं। धनपुर में ८ वीं - ९वीं ई. की निर्मित तीर्थंकर प्रतिमाएँ मिली हैं। सिरपुर, मल्हार, रतनपुर में भी जैन, देव प्रतिमाएँ मिली हैं। आरंग का ९ वीं, १० वीं ई. का जैन मंदिर महत्वपूर्ण है ।
बिलासपुर संभाग में सक्ती तहसील में 'गुंजी' नामक स्थान में तीसरी शताब्दी ई. का एक लेख चट्टान पर अंकित है। इस लेख में 'ऋषभतीर्थ' का उल्लेख है एवं विद्वानों ने गुंजी को ही ऋषभतीर्थ माना है। संभवतः तीर्थंकर ऋषभनाथ के नाम पर ही इसे ऋषभतीर्थ कहा गया है।
इस प्रकार जैन धर्म का प्रसार इस छत्तीसगढ़ क्षेत्र में अवश्य था एवं यहाँ के विभिन्न स्थानों में प्राचीन एवं मध्यकाल की निर्मित जैन प्रतिमाएँ इसका सबल प्रमाण हैं । छत्तीसगढ़ के विभिन्न स्थानों में प्राचीन जैन प्रतिमायें इस प्रकार मिली हैं
रतनपुर - यहाँ के बड़े पुल पर बहुत सी प्राचीन प्रतिमाएँ थीं उन्हें कुछ समय पूर्व निकाल कर बिलासपुर पुरातत्व कार्यालय में रखा गया है इन्हीं में एक जैन तीर्थंकर प्रतिमा थी जो खड़ी हुई है।
रतनपुर के कंठी देवल मंदिर से भी कलचुरी कालीन दो तीर्थंकर प्रतिमाएँ मिली थी जो बिलासपुर या रायपुर के संग्रहालय में हैं।
मल्हार - मल्हार में बुढ़ीरवार के पास जैन धर्म से संबंधित प्रतिमायें हैं, जिनमें तीर्थंकरों की आसनस्थ एवं कायोत्सर्ग मुद्रा की प्रतिमायें हैं। इनके अतिरिक्त ग्राम के कुछ मकानों, पीपल चौरा, नंद महल आदि स्थानों में भी प्रतिमायें हैं ।
22 फरवरी 2004 जिनभाषित
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पार्श्वनाथ
यह प्रतिमा ध्यानस्थ मुद्रा में है। आसन पीठ पर स्वस्तिक चिन्ह है। दोनों पाश्र्व में परिचारक है । त्रिछत्र के ऊपर गजाभिषेक का सुंदर अंकन है । यह काले ग्रेनाइट की है। यह प्रतिमा नंद महल (केवट पारा) में सुरक्षित है। नौ तीर्थंकर
यहीं पर अर्ध वृत्ताकार चैत्ययुक्त एक अन्य कलात्मक फलक है। इसमें नौ तीर्थंकरों को एक साथ प्रदर्शित किया गया है, जिनमें मध्य तथा बाहय पाश्र्वों में ध्यानस्थ तीन तीर्थंकर एवं बाकी छः तीर्थंकर स्थानक मुद्रा में है। इस पाषाण फलक में छत्र, मकरमुख, प्रभा मंडल आदि का सुंदर अलंकरण है।
ऋषभनाथ
यह प्रतिमा ध्यानस्थ मुद्रा में है। दोनों पाश्र्व में कायोत्सर्ग मुद्रा में अन्य तीर्थंकर प्रतिमाएँ हैं। ऊपरी भाग में विद्याधर तथा आसन के नीचे 'वृषभ' का अंकन है।
संभवनाथ
यह प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में है। सिर के पार्श्व में छत्रत्रय है, उसके ऊपर कलश एवं गजाभिषेक का अंकन है। नीचे परिचारक एवं यक्ष यक्षिणी युगल अंकित हैं।
मल्हार के संग्रहालय एवं संग्रहालय प्रांगण में तीर्थंकरों की प्रतिमायें, यक्ष-यक्षियों एवं अंबिका की कुछ प्रतिमायें भी संग्रहीत हैं ।
यक्षिणी प्रतिमा
संग्रहालय में यक्षिणी प्रतिमा चतुर्भुजी है, हाथों में कपाल दंड, त्रिशूल, कमलपुष्प एवं बीज पूरक हैं। सिर पर प्रभामंडल का चक्र है। तीन फणों के सर्प का छत्र है बाँयी ओर नीचे एक पक्षी की आकृति है । यह पद्मावती की प्रतिमा हो सकती है।
धर्म का प्रसिद्ध स्थल रहा होगा। यहाँ मिली उपरोक्त प्रतिमाएँ एवं इस प्रकार मल्हार एवं बूढ़ीखार क्षेत्र प्राचीन काल में जैन ग्रामीण अंचल में मिलने वाली प्रतिमाओं के अतिरिक्त कई ऐसे शिला पट्ट भी हैं जिन पर चौबीस तीर्थंकर खड़े हुये एक साथ प्रदर्शित किये गये हैं । ये सभी ८ वीं से १२ वीं ई. की प्रतिमायें हैं।
धनपुर (बिलासपुर की प्रतिमायें )
बिलासपुर से लगभग १२३ कि.मी. दूर धनपुर है तथा पेंड्रा के उत्तर में लगभग १६ कि.मी. पर है। कनिंघम की मान्यता है कि यह नगर नवमी शताब्दी का लगभग एक महत्वपूर्ण जैन केन्द्र रहा है। यहाँ सोमनाथ तालाब के किनारे आज भी असंख्य जैन प्रतिमाएँ संग्रहीत हैं किंतु ये अधिकांश खंडित हैं ।
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