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________________ तो देखा लहरें उठ रही हैं, मानों राग-द्वेष, क्रोध, मान, माया, | में कष्ट बढ़ता ही जाता है। अब नदी के किनारे गड्डे में पानी भरा लोभ, ईर्षा, जलन की लहरें उठ रही हैं, अब क्या कहना नदी के | हुआ देखा जो गंध मार रहा था, मच्छर मंडरा रहे थे। उसे कोई भी बीचों-बीच जल पत्थर के चक्कर काट रहा था, मानो यह संकेत | नहीं चाहता क्योंकि वह रुका हुआ पानी था। रुकने से दुर्गन्ध पैदा प्रदान कर रहा था कि इस प्रकार तीन लोक, चौरासी लाखयोनि या | हो जाती है। साथ ही स्वच्छता चली जाती है गन्दापन आ जाता यूं कहें ९९ का चक्कर है जो दुःख का सागर है। उसमें फँसने से | है। और बहता हुआ पानी सौंधी-सौंधी गंध बिखेरता हुआ, आदमी का छूटना कठिन कार्य है। इसीलिये फंसने से पहले | स्वच्छता दिखाता चलता है। जिसे चाहने वालों की भीड़ मची छूटना श्रेष्ठकर है। अब तो नदी के ऊपर सूर्य का उदय ही नहीं | रहती है। इसलिये रुको मत, बहते रहो, यह जल संदेश देता हुआ तो मन में विचार आया कि सूर्य के न आने से जल शीतल | रहता है। जो चलता रहता है वह अपनी मंजिल पर पहुंच सफलता है, और जब सूर्य आ जाता है तो यही जल अपने स्वभाव को भूल | पा लेता है। पानी में जो लहरें देखने में आती हैं वह पानी की जाता है और मूल प्रकृति को खो गर्म हो जाता है। सोचने की बात | गति को बताती हैं कि गतिमान बनो तो दुर्गति से बच सद्गति पा है की कितनी जल्दी बाह्य वस्तु से प्रभावित होता है। पर पदार्थ | सकते हो। और एक बार की बात है कि जब नदी का जल इस हमें अपने मूल धर्म से वंचित कर देते हैं। ठीक उसी प्रकार | पार से उस पार तक फैल गया था। एक समय यही जल सिमटा आदमी पर पदार्थों की चमक में पड़कर अपना अमूल्य मानव | | हुआ था अर्थात् नदी के आधे भाग में था तब तो बूढ़े क्या बच्चे भी जीवन खो बैठता है। बड़ी चाह के साथ इस का प्रयोग करीब में आकर करते थे। इसी तारतम्य में पुनः नदी जाने का अवसर आता है तो तट | क्योंकि इसमें भय नहीं था, जैन दर्शन में चार संज्ञा मानी हैं जैसे - के ऊपर ही रह गया और जहाँ देखो वहाँ गड़े ही गड़े देखने में | आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा ये चार संज्ञाएँ आते हैं। तो मन में एक सोच जागी की ठीक इसी प्रकार हमारे संसार की कारण हैं और जब तक आदमी के अन्दर भय रहता है जीवन में न जाने कितने गड्ढे हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ, ईर्ष्या, | तो काया की कंचनता का अन्त हो जाता है। जब यही जल संकोच जलन, मात्सर्य और दोनों पैर गड्ढे में पड़े हुये हैं। अब विचार | अवस्था में रहता है तो एक देश अभय की मूर्ति माना जाता है, करना है, हमारे जीवन का उद्धार कैसे होगा। जब नदी का जल | केवल बहादुर , वीर पुरुष तैरने वाला ही उस का आनन्द लेता है। स्तर सम रहता है न ऊंचा, न नीचा तब यह हमें समानता का | और वैसे भी प्रेम में चाह है अपनापन है। भय में फूट, अलगाव, संदेश देता है। यदि जीवन में समानता आ जाती है तो ऊंच-नीच | घृणा है। का भेद समाप्त हो जाता है फिर जीवन बाग प्रसन्नता से परिपूरित | एक कहावत है अपनी चादर के अन्दर पैर फैलाना चादर हो जाता है। नदी के जल में जो उथल-पुथल देखने में आती है, के बाहर पैर फैलाने का मतलब है मिट जाने का, पिट जाने का। ऐसे ही हमारे अन्दर विचारों की उथल-पुथल मची हुई है जो हमें | नदी में जितनी गति से पानी आता है या बहाव बढ़ता है तब पानी अवनत बनाती है। विचारों का शांत रहना उन्नत बनने का मार्ग है। गन्दा होता जाता है। अर्थात् डरावना, बिदरुप लगने लगता है। इसी प्रकार जल में जब उथल-पुथल की क्रिया को देखा तो मन | जब यही पानी धीमी गति, संयत चाल का धारक होता है, तो में विचार आया इसी प्रकार मन भी उछलकूद में लगा हुआ है। | शांत शीतल जल की उपमा पाता है। पानी कभी व्यवधान आने इसी कारण चक्कर में फंसा हुआ है। इसी प्रकार नदी के जल को | पर भी नहीं रुकता उसे रास्ता बदलना आता है, पर दूसरे को नाद करते देखा तो सोचा आदमी भी नाद करता है। पर उसकी हटाना नहीं, जैसा कि जैन दर्शनकार उमास्वामी अपने ग्रन्थ तत्त्वार्थ नाद (आवाज) को कोई भी सुनना नहीं चाहता है। इसीलिये नदी | सूत्र में कहते हैं 'परोपरोधाकरण' अर्थात् दूसरों को हटाना नहीं का नाद हमें संकेत देता है, नाद (आवाज) मिली है, तो मधुर | अलग नहीं करना। पानीमार्ग का स्वयं निर्माता होता है, किसी से नाद का प्रयोग करें जो जीवन जीने में सुगमता दे। मार्ग की अपेक्षा नहीं रखता है। क्योंकि अपेक्षा के कारण ही इसी क्रम में एक और दृश्य देखने में आया कि नदी के | उपेक्षा होती है और सन्तों ने कहा भी है जहाँ चाह है वहाँ राह है। स्वच्छ जल को एक कपड़े में छानकर लोग पी जाते, उसी से | अब आंखों के द्वारा नदी का अन्तिम दृश्य देखने में, स्नान करते, उसी से कपड़े धो लेते हैं। जिस जल ने मानव का | अनुभव में आया, उसकी बात कहने जा रहे हैं। जब में नदी पर उपकार किया परिणाम स्वरूप उसी में थूक देते, उसी में मल-मूत्र | पहुँचा तो मैंने पाया नदी के तट के किनारे, बहुत प्रकार के अर्थात् कर देते फिर भी जल कोई प्रतिकार नहीं करता है। योगी की | बहुत रंग वाले कंकर-पत्थर पड़े हुये हैं तो उनके रंगों को देखकर भांति सब शांत भाव से सहन करता, पर आदमी से कुछ भी नहीं | हृदय में बैठा जैन-दर्शन याद आया और छै रंगों वाली लेश्या इन कहता। परन्तु आदमी प्रतिकार करने में सबसे आगे रहता है। कोई | रंग-बिरंगे कंकरों से ध्वनित होने लगी। पहली तीन लेश्या अशुभ एक बात कहे तो वह दस बात कहने के लिये तैयार रहता है। अर्थात् बुरे परिणामों वाली हैं बाद की तीन लेश्या शुभ हैं अर्थात् यदि कोई उस के घर के सामने कचरा फेंके तो वह उसके घर के | अच्छे परिणामों को बताने वाली हैं। क्रम इस प्रकार है। कृष्णलेश्या आंगन में फैंकने के लिये तैयार रहता है। सहनशीलता के अभाव | काले वर्ण वाली नदी में पड़ा काले वर्ण का कंकर कृष्ण लेश्या का 10 फरवरी 2004 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524282
Book TitleJinabhashita 2004 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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