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________________ मिलि अरज करो सो अबार (यह) समय नगन (नग्न) को नहीं तिसौं कपड़ा लीजे। पीछे बकसी जी पछेवड़ी दीनी। पाछै जैतराम जी साह जी सालू धोवती दीनी। आप पहैरी (पहनी)। पाछै आपको नांव (नाम) नरेन्द्रकीर्ति जी स्थापन हुवो।" (जयपुर के मंदिर-पाटौदी के संग्रह की एक महत्त्वपूर्ण बही से 'दि. जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी का संक्षिप्त इतिहास एवं कार्यविवरण' में उद्धृत)। ___अर्थात् नग्नवेश में दीक्षा के होने बाद पंच लोग भट्टारक से अनुरोध करते हैं कि यह समय नग्न रहने का नहीं है, इसलिए आप वस्त्र धारण करें। इसके बाद सभी लोग पछेवडी, साल, धोती आदि भेंट करते हैं। भट्टारक उन्हें पहने लेते हैं। यहाँ मैंने दो भेंटकर्ताओं का ही उल्लेख किया है। उक्त विवरण में जैनेतर सम्प्रदायों के प्रमुखों द्वारा भी शाल आदि भेंट किये जाने का वर्णन है। इससे पता चल जाता है कि पूर्वोक्त भट्टारकपद-स्थापनाविधि में श्रावकों से वस्त्रादि भेंट द्वारा ही पट्टभिषिक्त भट्टारक परमेष्ठी का अभिनन्दन करने के लिए कहा गया है। 'दाता वस्त्रादिना सङ्गार्चनं कर्यात' इस वचन से भी इसका समर्थन होत है। भट्टारकपट्ट पर अभिषिक्त मुनि का श्रावकों से वस्त्र ग्रहण करना और उन्हें धारण कर मुनि से पुनः गृहस्थ बन जाना और फिर भी पिच्छी कमण्डलु रखकर अपने मुनि होने का आभास देना, यह सब जिनागम-विरुद्ध है। उक्त विधि में इसकी मान्यता होने से भी सिद्ध है कि वह आगमोक्त नहीं है। ५. उक्त भट्टारक पदस्थापना-विधि की रचना कब की गई, इसका कोई संकेत उसमें नहीं हैं। फिर भी उसमें नन्दिसंघ का उल्लेख किया गया है। यद्यपि इन्द्रनन्दी ने 'श्रुतावतार' में कहा है कि आचार्य अर्हद्वलि ने मूलसंघ को 'नन्दी' आदि चार संघों में विभाजित किया था, तथापि श्रवलबेलगोल के १४३३ ई. के एक शिलालेख के अनुसार भट्ट अकलंक देव (६८० ई.) के स्वर्गवास के बाद उनके संघ के मुनि नन्दी आदि संघों में विभक्त हुए थे तस्मिन् गते स्वर्गभुवं महर्षों दिवःपतीन्नर्तुमिव प्रकृष्टान्। तदन्वयोद्भूत-मुनीश्वराणां बभबुरित्थं भुवि सङ्घभेदाः॥१९॥ (जै.शि.सं. भा.१, लेख १०८) पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार लिखते हैं, "अकलंक से पहले के साहित्य में इन चार प्रकार के संघों का कोई उल्लेख भी अभी तक देखने में नहीं आया, जिससे इस कथन के सत्य होने की बहुत कुछ संभावना पायी जाती है" ('स्वामी समन्तभद्र' पृष्ठ १८०-१८१)। कुन्दकुन्दान्वय के साथ नन्दिगण का पहली बार उल्लेख १११५ ई. के शिलालेख (जै.शि.सं., भा.१, लेख ४७) में तथा नन्दिसंघ का प्रथम उल्लेख विजयनगर के १३८६ ई. के शिलालेख में हुआ है (जै.शि.सं., भा.३, लेख ५८५)। इससे सिद्ध है कि पूर्वोक्त भट्टारक-पदस्थापना-विधि १४ वीं शती ई. के पश्चात् किसी भट्टारक महोदय द्वारा रची गई है, अतः वह आगमोक्त नहीं है। इस प्रकार एक नहीं,अपितु पाँच हेतुओं से भट्टारक पदस्थापना-विधि के आगमोक्त होने का खण्डन होता है। फलस्वरूप उसे आगमोक्त मानकर किसी मुनि को भट्टारकपद पर प्रतिष्ठत करना आगमसम्मत कार्य नहीं है। तथा उस अनागमोक्त भट्टारक पदास्थापना विधि में भी पट्टाभिषिक्त मुनि के लिए श्रावकों से भेंट में प्राप्त वस्त्र धारण करने का विधान किया गया है। अतः भट्टारकपट्ट पर अभिषिक्त होने के बाद मुनि को मुनिवेश में ही पट्ट पर आसीन रहने देना उक्त भट्टारक पदस्थापना विधि के भी विरुद्ध है। इस लेख का उद्देश्य वर्तमान भट्टारकों में पूर्व भट्टारकों जैसे दोष दर्शाना नहीं है। पूर्वकालीन भट्टारक श्रावकों पर जो अत्याचार करते थे, उनका अन्त ४०० वर्ष पहले हुए भट्टारकविराधी आन्दोलन से उत्तरभारत के सभी भट्टारकपीठों के लोप के साथ ही हो गया था। वर्तमान में कुछ ही भट्टारकपीठ शेष हैं। वहाँ के भट्टारक उन बुराइयों से अछूते हैं। उनमें केवल मठमन्दिरतीर्थादि की सम्पत्ति का स्वामित्वरूप परिग्रह और गृहस्थों के समान सुखसुविधामय जीवन की प्रवृत्ति ही दृष्टिगोचर होती है। पर उनका आचरण शिष्ट है। वे तीर्थों का संरक्षण सम्यग्रूपेण कर रहे हैं। इतना ही नहीं, श्रवणबेलगोल के भट्टारक श्री चारुकीर्ति जी ने आधुनिक एवं तकनीकी शिक्षा के विविध संस्थान एवं जैनविद्या-अनुसन्धान केन्द्र खोलकर वहाँ का जो 6 फरवरी 2004 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524282
Book TitleJinabhashita 2004 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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