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विकास किया है और साधनहीन जैन छात्रों के उत्थान का जो पथ प्रशस्त किया है, वह स्तुत्य है।
इस लेख का उद्देश्य, केवल भट्टारक दीक्षा-विधि में अपनायी जानेवाली आगमविरुद्ध, अत एव जिनशासन-अशिवकारी पद्धति की ओर, जो आज भी प्रचलित है, ध्यान आकृष्ट कर उसका विरोध करना है। भट्टारकपीठ एक दूसरे प्रकार का गृहस्थाश्रम है, क्योंकि उसमें भट्टारक को नियतवासपूर्वक गृहस्थों के ही सम्पत्ति-संरक्षणदि कार्य करने पड़ते हैं। पहले शिथिलाचारी मन्दिरमठवासी मुनि ही पिच्छी-कमण्डलु सहित वस्त्र धारण कर भट्टारकपीठ पर आसीन होते थे। सर्वप्रथम १३ वीं शती ई. में मुनि वसन्तकीर्ति जी ने वस्त्रधारण कर भट्टारकपद ग्रहण किया था। १५ वीं शती ई. के मुनि सकलकीर्ति भी २२ वर्ष तक नग्न रहे, पश्चात् वस्त्र धारण कर भट्टारक बन गये। (पं. हीरालाल जी सिद्धान्तशास्त्री, वर्धमान-चरित, प्रस्तावना, पृष्ठ ६)। कालान्तर में गृहस्थों को पहले मुनिदीक्षा देकर और बाद में वस्त्र पहनाकर तथा पिच्छी-कमण्डलु देकर भट्टारक बनाया जाने लगा। और अब तो मुनि को भट्टारकपट्ट पर अभिषिक्त करने के बाद भी नग्नवेश में ही भट्टारकपीठ पर विराजित करने की प्रथा आरंभ हो गई है।
सवस्त्रवेश हो अथवा नग्नवेश, दोनों में मुनि का भट्टारकनामधारी गृहस्थपद स्वीकार करना मुनिपद एवं जिनशासन के मुँह पर कालिख पोतना है। तथा सर्वांगवस्त्र धारण करते हुए भी साधुत्व का आभास कराने वाली पिच्छी और कमण्डलु ग्रहण करना, एक आगमविरुद्ध लिंग (वेश) का जिनशासन में मिश्रण कर उसे प्रदूषित करना है। यह जिनशासन के दीर्घजीवन के लिए विषाक्त वायु के समान हानिकारक है। अत: जिनशासन को शुद्ध, विकाररहित बनाये रखने के लिए चिन्तित जिनशासनभक्तों का यह आग्रह है कि तीर्थों के सुप्रबन्ध के लिए भट्टारकपीठ कायम रहें तथा जहाँ आवश्यकता हो, वहाँ नये पीठ भी स्थापित किये जायँ, किन्तु भट्टारक बनाने के लिए किसी मुनिश्री का शीलभंग न किया जाय, उन्हें मुनिपद से गृहस्थ पद पर न उतारा जाय, उन्हें मोक्षमार्ग से खींचकर संसारमार्ग में न घसीटा जाय, उनकी वीतरागता का अपहरण न किया जाय, उन पर मन्दिरमठतीर्थादि के प्रबन्ध का स्वामित्व थोपकर उन्हें अपरिग्रह महाव्रत से वंचित न किया जाय, मन्दिरमठतीर्थादि के संरक्षण की चिन्ता में फँसाकर उन्हें आर्त्त-रौद्रध्यान की भट्टी में न झौंका जाय, उन्हें पूज्य से अपूज्य न बनाया जाय, उन की पवित्र आत्मा पर अपवित्रता की कीचड़ न लपेटी जाय और उन्हें जिनशासन के नायक से जिनशासन का खलनायक न बनाया जाय। तथा मुनि के भट्टारक बनने का समर्थन करनेवाले सन्त, श्रीमन्त और धीमन्त भी जिनशासन पर कृपादष्टि रखें, उसकी जड़ों में मट्ठा डालने का कार्य न करें। इसी प्रकार भट्टारक बनाने के लिए किसी गृहस्थ को पहले मुनिदीक्षा देकर, बाद में वस्त्र पहनाकर एवं पिच्छी-कमण्डलु देकर मुनिपद के साथ खेल न किया जाय। पहले से ही वस्त्रधारी किसी योग्य गृहस्थ को सप्तम प्रतिमा के व्रत ग्रहण कराकर पिच्छी-कमण्डलु के बिना भट्टारकपीठ पर प्रतिष्ठित किया जाय। इससे भट्टारकपद
दि का प्रबन्ध भी भलीभाँति होगा तथा भट्टारकपद आगम के अनुकूल भी हो जायेगा। किन्तु इसके लिए यह आवश्यक है कि वर्तमान नग्न भट्टारक भी अपने मुनिलिंग का एवं सवस्त्र भट्टारक पिच्छ अथवा भट्टारकपद का त्याग कर मुनिपद स्वीकार करें। ___भट्टारकवेश के लिए पिच्छी-कमण्डलु और मुनिदीक्षा की आवश्यकता पहले भी नहीं थी। मुगलशासनकाल में दिगम्बर मुनियों का चर्यादि के लिए बाहर निकलना कठिन हो गया था। उस समय मठवासी मुनियों ने जैसे दिगम्बरवेश त्याग दिया था, वैसे ही पिच्छी-कमण्डलु भी त्यागे जा सकते थे और एक ब्रह्मचारी के वेश को भट्टारक का वेश बनाया जा सकता था। इसी प्रकार गृहस्थ को सवस्त्र भट्टारक बनाने के पूर्व मुनिदीक्षा दिये बिना भी काम चल सकता था। फिर भी ये कार्य अपने को मनियों का स्थानापन्न सिद्ध करने के लिए स्वेच्छा से किये गये। अत: इन कार्यों के लिए तत्कालीन परिस्थितियों को दोष देना युक्तिसंगत नहीं है। यह अपने आगम विरुद्ध कार्यों का औचित्य सिद्ध करने के लिए एक बहाना मात्र है।
जिनमत को जीवित रखने के लिए उसे अशुद्ध होने से बचाना होगा और अशुद्ध होने से बचाने के लिए आगमोक्त आचार की ही प्रवृत्ति का आग्रह रखना होगा तथा अनागमोक्त आचार की प्रवृत्ति को स्वीकृति देने इनकार करना होगा।
रतनचन्द्र जैन
-फरवरी 2004 जिनभाषित
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