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________________ सम्पादकीय भट्टारक- पदस्थापना - विधि आगमोक्त नहीं जैनगजट के शब्दसिद्ध सम्पादक प्रचार्य नरेन्द्रप्रकाश जी का नवप्रकाशित ग्रन्थ 'समय के शिलालेख' उत्कृष्ट शोधपूर्ण लेखों का संग्रह है। उसका अवलोकन करते समय मेरी दृष्टि 'नग्न मुनि एवं भट्टारक' नामक लेख पर गयी। उसमें कुछ वर्ष पूर्व एक दिगम्बर मुनि की किसी पुराने भट्टारकपीठ पर अभिषिक्त किये जाने की घटना का वर्णन है और प्राचार्य जी ने उसे जिनागमविरुद्ध कृत्य बतलाया है। उन्होंने लिखा है कि "किसी नग्न मुनि का भट्टारक बनना ऐसे ही है, जैसे किसी गृहत्यागी विरक्त (अनगार) का फिर से संसार में प्रवेश करना। भट्टारक के इर्दगिर्द परिग्रह का ताना-बाना रहता है, किन्तु नग्न मुनि तो परिग्रह की भावना तक से असम्पृक्त होता है- यः सर्वसङ्गपरित्यक्तः स नग्नः परिकीर्तितः । " प्राचार्य जी का यह लेख ३० अप्रैल १९९८ के 'जैनगजट' में छप चुका है । महत्त्वपूर्ण शोधपत्रिका 'शोधादर्श' के सुविज्ञ सम्पादक श्री अजितप्रसाद जी जैन ने भी जुलाई २००२ के ४७ वें अंक में इस प्रकार की दूसरी घटना का उल्लेख किया है। वे लिखते हैं, " श्री दिगम्बर जैन पद्मावतीधाम, बेड़िया (गुजरात) में मुनिराज जयसागर जी को परमभट्टारक पद पर विधि-विधानपूर्वक १५ मई ( श्रुतपंचमी ) " को स्थापित किया गया। मुनि जयसागर जी ने अपने सम्बोधन में बताया कि "आज मेरे इस पद पर उपस्थापन से मैं बहुत प्रसन्न हूँ।" ( उनकी दृष्टि में कदाचित् भट्टारकपद मुनिपद से ऊँचा है तथा इस पद पर प्रतिष्ठित करके गुरु महाराज ने उनकी पदोन्नति की है)। 'शोधादर्श' के मान्य सम्पादक ने मुनि श्री जयसागर जी के वक्तव्य पर अत्यन्त उद्बोधक टिप्पणी करते हुए लिखा है, "काश बालाचार्य जी थोड़ा यह भी आत्मालोचन करते कि जिस कुन्दकुन्द आम्नाय के वे संवाहक हैं, क्या उन महर्षि ने श्रमणाचार का ऐसा ही निरूपण किया था, जैसा कि वे पालन करते दृष्टिगोचर हो रहे हैं?" (पृष्ठ ६५) । किन्तु हमारे कुछ पूज्य मुनियों और आर्यिकाओं ने मुनि के भट्टारक बनने को आगमसम्मत सिद्ध करने की कोशिश है। इतना ही नहीं, भट्टारकपद को मुनिपद से भी उच्च बतलाया है । अभी-अभी मुझे आर्यिका श्री शीतलमति जी द्वारा लिखित ' विविध दीक्षा संस्कार विधि' नामक लघु पुस्तिका देखने को मिली है। उसके प्राक्कथन में आर्यिका जी ने लिखा है कि इन दीक्षाविधियों को दर्शानेवाला प्राचीन हस्तलिखित शास्त्र आद्याचार्य श्री आदिसागर जी (अंकलीकर) की परम्परा के तृतीय पट्टाधीश आचार्य श्री सन्मतिसागर जी को दि. जैन अतिशय क्षेत्र बेड़िया (गुजरात) के शास्त्र भण्डार से प्राप्त हुआ था । वे आगे लिखती " इसकी विशेषता यह है कि इसमें भट्टारक- पदस्थापना के संस्कार भी लिखे हुए हैं। पूर्व में यह पद काफी चर्चा का विषय रहा है। इसलिए इस शास्त्र को पाकर आत्मा को बहुत सम्बल मिला। फलस्वरूप भट्टारकनिर्ग्रन्थपरम्परा को पुनः स्थापित करने के अभिप्राय से मुनि श्री जयसागर जी में इस भट्टारक पद के संस्कार ( आरोपित ) किये गये।" (पृष्ठ १०) इसी पुस्तिका के प्रकथन - लेखक डॉ. महेन्द्रकुमार जी जैन 'मनुज' ने लिखा है 44 'भारत पर मुगलशासनकाल में जैन आस्था के केन्द्र जिन मंदिरों- मूर्तियों को भग्न किया गया तथा जैन वाड्मय से सम्बद्ध ग्रन्थों को नष्ट किया गया, लूटा गया, जलाया गया, ऐसी भयावह परिस्थितियों में हमारे भट्टारकों ने ही लगभग एक सहस्राब्दी तक जैन वाङ्मय की येन-केन-प्रकारेण रक्षा की। इस हेतु हम उनके इस उपकार के ऋणी हैं। पूज्य भट्टारकों द्वारा संस्थापित, संरक्षित शास्त्र भण्डार अब भी हैं, किन्तु जहाँ से भट्टारकों की गद्दियाँ समाप्त हो गई हैं, वहाँ के शास्त्रभण्डारों की स्थिति दयनीय है । शास्त्र, विशेषकर ताडपत्रीय, नष्ट हो रहे हैं। उनकी सूचियाँ तक नहीं बन सकी हैं और उन्हें अनुपयोगी की श्रेणी में उन पुस्तकालयों में स्थान मिला हुआ है। यदि उत्तर भारत के पूर्व भट्टारक-केन्द्रों पर पुनः भट्टारकीय गद्दियाँ स्थापित हों, तो जिनवाणी संरक्षण के लिए महनीय उपक्रम होगा।' (पृष्ठ E ) 'मनुज' जी के इस वक्तव्य से उनकी मुनिविरोधी विचारधारा का पता चलता है । वे चाहते हैं कि जिन दिगम्बर मुनियों ने मोक्ष- साधना हेतु लौकिक बन्धनों से छुटकारा पाने के लिए गृहत्याग कर दिया है, उन्हें किसी मंदिर या तीर्थक्षेत्र पर नियतवास के बन्धन में बाँधकर एक नये प्रकार का गृहस्थ बनाकर, उनसे वहाँ की चल-अचल सम्पत्ति और शास्त्र भण्डार फरवरी 2004 जिनभाषित 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524282
Book TitleJinabhashita 2004 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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