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________________ होता है या नहीं? त्रसभावयोग्या ये न भविन्त ते नित्यनिगोताः।' अर्थ जो कभी त्रस समाधान- तत्त्वार्थसूत्र अध्याय १/२२ 'क्षयोपशम निमित्तः | पर्याय को प्राप्त करने के योग्य नहीं होते वे नित्य निगोद हैं। षड़विकल्प: शेषाणाम' धवला पुस्तक १४ में इस प्रकार कहा है- तथ्य णिच्च निगोदा अर्थ-क्षयोपशम निमित्तक अवधिज्ञान छै प्रकार का है जो | णाम जे सव्वकालम् णिगोदेसु चेव अच्छन्ति ते णिच्च णिगोदा तिर्यंच और मनुष्यों के होता है । इस सूत्र के अनुसार तिर्यंचनी एवं णाम अर्थ- जो सदा निगोदों में ही रहते हैं वे नित्य निगोद हैं। मनुष्यनी 'द्रव्यस्त्रीवेदी तिर्यंच एवं मनुष्य के क्षयोपशम निमित्तक अर्थात् जो आज तक निगोद से नहीं निकले हैं और आगे अवधिज्ञान होता है। जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश पृष्ठ १७५ पर पंचेन्द्रिय | भी नहीं निकलेंगे उनको नित्य निगोदिया या अनादि अनन्त निगोदिया तिर्यंच योनिमति की सतप्ररुपणा में अवधिज्ञान बताया गया है। जीव कहते हैं। इससे स्पष्ट है कि तिर्यंचनी के अवधिज्ञान होता है। मनुष्यनियों में | २. अनित्य निगोद - त्रसभावमवाप्ताअवाप्यस्यन्ति च ये सुलोचना आर्यिका को अवधिज्ञान शास्त्रों में वर्णित है। ते अनित्यनिगोताः र्वगों में सभी देव और देवियों के भवप्रत्यय अवधिज्ञान | अर्थ- जिन्होंने त्रस पर्याय पहले पाई थी अथवा पायेंगे वे होता ही है। सम्यग्दृष्टि देव देवियों के अवधिज्ञान और मिथ्यादृष्टियों | अनित्य निगोद हैं। के विभंगावधिज्ञान होता है। भावार्थ- जिन्होंने निगोद वास छोड़कर अन्य जीवों में जिज्ञासा- मारणान्तिक समुद्घात सब जीवों के होता है | जन्म ले लिया है और पुनः निगोद में आ गए हैं वे चतुर्गति निगोद या कुछ के? या इतर निगोद कहलाते हैं और जो अभी तो निगोद में हैं परन्तु समाधान- गोम्मटसार जीवकाण्ड की गाथा ५४४ की | आगे कभी निगोद से निकलकर अन्य जीवों में जन्म धारण करेंगे, टीका में इस प्रकार कहा गया है- सौधर्मद्वयजीवराशौघना गुल | वे अनित्य निगोदिया या अनादि सान्त अनित्य निगोदिया कहलाते तृतीय मूलगुणितजगच्छेणिप्रमिते ..... पल्यासंख्यातेन भक्ते एकभागः प्रतिसमयंम्रियमाणराशिर्भवति। .... तस्मिन् पल्यासंख्यातेन भवते जिज्ञासा - अभिन्नदशपूर्वी और भिन्नदशपूर्वी साधु में क्या बहुभागौ विग्रहगतौ भवति। तस्मिन् पल्यासंख्यातेन् भवते बहुभागौ | | अंतर है? मारणान्तिक समुद्घाते भवति। ... अस्य पल्यासंख्यातैकभागो ___समाधान - पूज्य धवलाकार श्री वीरसेन महाराज के दूरमारणान्तिके जीवा भवन्ति। अनुसार जब श्रुतपाठी आचारांगादि ग्यारह श्रुतों को पढ़ चुकता है अर्थ- सौधर्म, ईशान स्वर्गवासी देव 'घनांगुल १/३ | और दृष्टिवाद के पांच अधिकारों का पाठ करते समय क्रम से जगश्रेणी' इतने प्रमाण हैं । इसके पल्य/असंख्यात भाग प्रमाण प्रति | उत्पादादि पूर्व पढ़ता हुआ दशम पूर्व विद्यानुवाद को समाप्त कर समय मरने वाले जीवों का प्रमाण है। इसका पल्य/असंख्यात | चुकता है तब उससे रोहिणी आदि पांच सौ महाविद्याएं और बहुभाग प्रमाण मारणान्तिक समुद्घात करने वालों का प्रमाण है। अंगुष्ठप्रसेणादि सात सौ अल्पविद्यायें आकर पूंछती हैं 'हे भगवन इसका पल्य/असंख्यात भाग प्रमाण दर मारणान्तिक समुदघा वाले जीवों का प्रमाण है। में पड़ जाता है वह भिन्नदशपूर्वी कहलाता है और जो उनके लोभ भावार्थ- सभी जीव मारणांतिक समुद्घात नहीं करते और मेंन पढ़कर कर्मक्षयार्थी बना रहता है वह अभिन्नदशपूर्वी होता है। भी मिश्र गुणस्थान एवं क्षपक श्रेणी वाले जीवों के मारणांतिक | ये अभिन्नदशपूर्वी ही 'जिन' संज्ञा को प्राप्त करते हैं। इन्हीं को समुद्घात नहीं होता। नमस्कार किया जाता है। किन्तु जो विद्याओं को स्वीकार कर लेने प्रश्नकर्ता - सौ. अर्चना, बारामती से महाव्रतों को भंग कर देते हैं वे जिन संज्ञा को प्राप्त नहीं कर पाते जिज्ञासा- नित्यनिगोद की परिभाषा बताएँ? और नमस्कार योग्य नहीं रहते हैं। अभिन्नदशपर्वी होते ही ये महान समाधान - साधारण नामक नामकर्म के उदय से अनन्त | मुनिराज देवपूजा को प्राप्त होते हैं। जीवों को जो एक शरीर मिलता है उसको निगोद कहते हैं और वे जीव निगोदिया कहलाते हैं। निगोद के दो भेद कहे गये हैं। नित्य १/२०५, प्रोफेसर्स कॉलोनी, निगोद-राजवार्तिक २/३२ में इस प्रकार कहा है- 'त्रिष्वपि कालेषु हरीपर्वत, आगरा २८२ ००२ 26 फरवरी 2004 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524282
Book TitleJinabhashita 2004 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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